मेरे
साले जगत मेहता ने फेसबुक के अपने और मेरे पेज पर दो पुराने फोटो चस्पां
कर दिए, जिनमें मैं, मेरी पत्नी द्रौपदी और बेटा पुरु हैं. ये फोटो १९८८
में दार्जीलिंग के हैं. बहुत सारे मित्रों ने कहा यह बहुत अच्छा फोटो है.
भाई अतीत हमेशा ही अच्छा लगता है, चाहे वह कितना ही बुरा क्यों न रहा हो.
खैर फोटोओं को देख कर मेरे दिमाग की रील घूमने लगी और मुझे लगा कि उस
यात्रा की कहानी लिखी जाए. तो पेश है पूरी कहानी:
अभी
ठीक से याद नहीं आ रहा कि वह दिसंबर १९८७ था या दिसंबर १९८८. शायद ८८ ही
रहा होगा. हम कलकत्ते में थे. जून १९८६ में नवभारत टाइम्स, मुंबई की नौकरी
छोड़ कर मैं हिन्दी अफसर बनकर आईडीबीआई के पूर्वी क्षेत्रीय कार्यालय
कलकत्ता चला गया था. बड़ी ठाट की नौकरी थी. बांसद्रोणी में सुन्दर मकान
मिला हुआ था. हम दो और हमारा एक, साथ में मेरी ईजा. मुम्बई की भागम भाग की
अखबारी नौकरी के बाद जैसे अचानक आराम की ऐय्याशी भरी नौकरी मिल गयी थी.
फ्रीलांसिंग भी जारी थी. धर्मयुग, नभाटा, दिनमान, चौथी दुनिया और परिवर्तन
जैसी पत्रिकाओं में लिखता और खुद को धन्य समझता.
सब कुछ ठीक-ठाक चल
रहा था. तभी जिंदगी में एक तूफ़ान सा आया. एक दिन अचानक मेरी पत्नी ने
बोलना बंद कर दिया. उसका मुंह ही नहीं खुल रहा था. बाईं तरफ का गाल फूल गया
था. रोने लगी. मेरी समझ में कुछ नहीं आया. डॉ मजूमदार के पास ले गया. वह
बोले कि कुछ भी हो सकता है. दांत में कुछ इन्फेक्शन भी हो सकता है और मम्स
भी हो सकते हैं. फिर बोले मम्स एक ही तरफ नहीं हो सकते. उन्होंने कुछ
एंटीबायोटिक दी, बोले कल तक कुछ सूजन घट जायेगी, तब बात करेंगे. दूसरे दिन
गए. तो बोले कुछ ख़तरा लगता है. फिर बोले डरिए नहीं, हमसे बड़े डॉ. हैं
चक्रबर्ती, उनके पास जाइए. हम और डर गए. चक्रबर्ती के पास गए. उसने ढेर
सारी दवाइयां लिख दी. और बोले ऑपरेशन होगा. बाएं जबड़े में सिस्ट है. मैंने
पूछा, वह क्या होता है, डॉ. बोला, समझो कैंसर की तरह है. बीच-बीच में ढाढस
भी देता. कोई बात नहीं, हम हैं तो. ऑपरेशन जल्दी करना होगा. चार हज़ार
लगेगा. ( तब चार हज़ार बहुत होते थे.) मैं मन ही मन बहुत घबरा गया. शादी
हुए अभी दो-तीन वर्ष ही हुए थे. बहुत बुरे-बुरे ख़याल आने लगे. लेकिन मैंने
हिम्मत की, ऑपरेशन के लिए तैयार हो गया. दूसरे दिन एडमिट होना था.
मैं कभी कभी बिरला फाउन्डेशन जाया करता था. यह मेरे शेक्सपीयर सरणी वाले
दफ्तर के नजदीक ही था. वहाँ से कुछ अनुवाद आदि का काम मिलता था. वहाँ
एन्साक्लोपीडिया के संपादक पृथ्वीनाथ शास्त्री थे. बड़े विवादास्पद व्यक्ति
थे लेकिन मुझे बहुत चाहते थे. उन्होंने मेरे चेहरे पर परेशानी के संकेत
पढ़े. बोले क्या बात है? मैंने बता दिया. बोले, चिंता मत करो, यह मामूली
बात है. हाँ, एक और डॉ हैं अपने मित्र, उनकी भी राय ले लो. वह मेडिकल कालेज
में डेंटल विभाग के हेड हैं. कलकत्ता के सारे दांतों के डॉ. उनके चेले
हैं. वह सही राय देंगे. उन्होंने कहा, मैं टाइम लेता हूँ, तुम अभी घर जा कर
पत्नी को ले आओ और रिपोर्ट्स भी. उन्होंने फोन लगाया. डॉक्टर घर जा चुके
थे. लेकिन उन्होंने घर पर ही बुलाया. बहुत दूर रहते थे. शायद साल्ट लेक की
तरफ. शाम को उनके घर पहुंचे. अपनी भोलू (सिल्वर प्लस नामक मोपेड, जिसका नाम
हमने भोलू रखा हुआ था.) पर सवार होकर. डॉ बहुत भले आदमी थे. उन्होंने मुंह
देखा. कागज़ देखे. बोले, जो बीमारी पकड़ी है, वह सही है. स्कीम भी सही है.
हाँ, पैसे कुछ ज्यादा बोले हैं. फिर बोले, वैसे चक्रबर्ती भी मेरा ही
विद्यार्थी है, लेकिन मैं तुम्हें अपने सबसे अच्छे विद्यार्थी के पास भेजता
हूँ. वह कलकत्ता का सबसे अच्छा डॉ. है. अरविन्द दत्त. उसके पास चले जाओ.
यह पर्ची दे देना. इन्तजार कर लेना, लेकिन आज दिखा कर ही जाना. हम भोलू पर
सवार हुए. साल्ट लेक से भवानीपुर के लिए चल दिए. रात आठ बजे डॉ के पास
पहुंचे. पर्ची भिजवाई. सन्देश मिला कि बैठ जाइए. दस बजे तक नंबर नहीं आया.
द्रौपदी को तो नींद ही आ गयी थी. जब सब लोग चले गए, डॉ. ने बुलाया. जबड़ा
देखा. कागज़ देखे. बोला, ऑपरेशन परसों करेंगे. सैमरिटन क्लिनिक में.
ऐसा गंभीर डॉ. पहले कभी नहीं देखा था. हर शब्द तौल कर बोलता था. पर्ची पर
शब्द नहीं, जैसे फूल लिख रहा हो. क्या कमाल की रायटिंग थी! ऑपेरशन के दिन
हम सुबह ही पहुँच गए. मैं अकेला ही था. बेटे को पड़ोसियों के पास छोड़ आया
था. द्रौपदी बहुत घबरा गयी थी. हरे वस्त्रों में लपेट कर ऑपरेशन थिएटर ले
जाने लगे तो वह रोने लगी. घबराया तो मैं भी था, पर दिल थाम कर बैठा था.
इतने में डॉ. आया. उसने धीरे से द्रौपदी से माथे पर हाथ फेरा तो उसका भय
छूमंतर हो गया. डेढ़ घंटे ऑपरेशन चला. एक अन्य बैंक में हिन्दी अफसर विजय
कुमार शर्मा मुझे ढाढस देने क्लिनिक पहुंचे. तब लगा परदेश में रहने का क्या
मतलब होता है. मैंने दिल्ली अपनी ससुराल फोन लगाया. द्रौपदी की मदद के लिए
वहाँ से मेरी साली शांति चली आयी, राजधानी में बैठकर. मेरी ससुराल वालों
की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वे हमेशा मदद के लिए आ खड़े होते हैं. सेवा का
भाव उनमें कूट-कूट कर भरा है. सबसे बड़ी बेटी होने के नाते द्रौपदी से वे
बेतहाशा प्यार करते हैं. तब पहली बार मुझे लगा कि नौकरी घर के आस-पास ही
होनी चाहिए.
शान्ति
आयी तो थी अपनी दीदी की मदद और दुर्गा पूजा देखने के लिए लेकिन हावडा
स्टेशन पर उतरते ही उसे इतनी गरमी लगी कि घर पहुँचते-पहुँचते वह खुद ही
बीमार पड़ गयी. डॉ. के पास ले गया. दवा भी बेअसर रही. एक हफ्ता पड़ी रही.
सेवा करने आयी थी, सेवा ले रही थी. तब तक पूजा भी खत्म हो गयी. अंतिम दिनों
कुछ पंडाल ही दिखा पाया.
दो हफ्ते बड़े तनाव में गुजरे. नवंबर का
महीना जा रहा था. हमें लगा कि चलो कहीं घूम आया जाए. मन बदल जाएगा. तभी
मैंने दार्जीलिंग का प्लान बनाया. यह सुनकर दोनों बहनें बहुत खुश हुईं. ईजा
शायद उन दिनों पहाड़ गयी हुई थीं. मैंने एलटीसी लिया और दार्जिलिंग की
तैयारी शुरू हुई. रेल से सिलीगुड़ी पहुंचे. फिर टॉय ट्रेन से दार्जीलिंग
जाना चाहते थे, लेकिन उन दिनों गोरखालैंड आंदोलन के कारण ट्रेन बंद थी,
लिहाजा बस से ही यह पहाड़ी यात्रा करनी पड़ी. दार्जीलिंग यात्रा और वह भी
बिना टॉय ट्रेन के. मजा नहीं आया. मैं अपने कॉलेज के दिनों में ही इस ट्रेन
की सैर कर चुका था. उसकी मनोरम यादें शेष थीं. खैर हम दार्जीलिंग पहुंचे.
कोई होटल आदि बुक नहीं किया था. एक आदमी का पता था. लेकिन वह घर पर नहीं
मिला. खुद ही होटल आदि के बारे में पूछा तो अनाप-शनाप किराया माँगने लगे.
इतने तो अपनी जेब में थे भी नहीं. तभी अखबारों की एक दूकान दिखी. सोचा अपनी
लाइन का आदमी है, शायद कुछ मदद करेगा. कुछ जान-पहचान लगाई. अपने लेखक होने
की बात बताई. दुकानदार सयाना था. नाम था पदम दत्त शर्मा. बोले किस नाम से
लिखते हैं. बोला, गोविंद खोलिया. (तब मैं सरकारी नौकरी में होने के कारण
इसी नाम से लिखता था). वह बोले कि क्या कभी धर्मयुग में भी लिखा. मैंने
कहा, हाँ. वह सज्जन तहखाने में गए और तीन-चार पत्रिकाएं ले आये. वे सब
नेपाली में थीं. बोले, आपके लेख हमने अनुवाद करवाके रिप्रिंट किए हैं और
जनता में बांटे हैं. ये सारी पत्रिकाएं भूमिगत हैं. आप तो हमारे समर्थक
हैं. आपने हमारी बात को राष्ट्रीय स्तर पर पहुंचाया है, इसलिए हम आपके
आभारी हैं. अब बताइए, हम आपकी क्या मदद करे?
मैं गदगद था. एक लेखक को
और क्या चाहिए? पत्रकारिता का क्या असर होता है, यह मैंने उसी दिन जाना.
मैंने कहा, मुझे कुछ नहीं चाहिए. आप ज़रा मुझे एक कमरा दिला दीजिए. मैं
बच्चों सहित दार्जीलिंग घूमने आया हूँ. बाक़ी बातें बाद में होंगी.
उन्होंने एक लड़का भेजा. एक माध्यम दर्जे के होटल में एक बड़ा सा कमरा दिला
दिया, बहुत ही सस्ते किराए में. शायद एक-तिहाई में. और हमने चार-पांच दिन
बड़े आनंद से दार्जीलिंग भ्रमण किया. दोनों बहनों ने गोर्खाली लड़कियों की
पोशाक पहन कर चाय की पत्तियां तोड़ते हुए फोटो खिंचवाईं. हमने टायगर हिल
में सूर्योदय देखा. बेता पुरु तब दो-ढाई साल का था. ठण्ड से उसके होठ लाल
हो गए. वह रोने लगा. लेकिन जैसे ही बाल सूर्य कंचनजंघा के ऊपर प्रकट हुआ,
सारी ठण्ड दूर हो गयी. पुरु भी रोते-रोते अंगुली से कहने लगा, देखो- सूरज!
एक दिन लोगों ने मुझे सुभाष घीसिंग से भी मिलवाया. तब उत्तरी बंगाल में
उनकी तूती बोलती थी. उनके एक इशारे पर तूफ़ान मच जाता था. हम लोग घीसिंग के
गाँव मिरिक भी गए. डीयर पार्क, एच एम आई, और भी कई जगहें देखीं.
दार्जीलिंग की वह छाप मानस पटल से कभी नहीं मिटती. – गोविंद सिंह