शनिवार, 30 जुलाई 2011

प्रेस क्लब / अनामी शरण बबल -2



30 जुलाई 2011

 मनमोहन जी, खुशवंत प्रेम देश के साथ गद्दारी है

हमारे ईमानदार प्रधानमंत्री बड़े भोले बमभोले है। कम बोलते हैं , मगर लोगों के अहसान को लंबे समय तक याद रखते हैं। अपने जमाने के मशहूर बिल्डर और अमर शहीद भगत सिंह को अदालत में पहचानकर फांसी दिलवाने में मुख्य भूमिका निभाने वाले (गद्दार) सर शोभा सिंह के बेटे होने के बावजूद सरदार खुशवंत सिंह( जिनकी एक लेखर पत्रकार की अलग पहचान है) से हमारे पीएम सरदार मनमोहन काफी पुराने दोस्त रहे हैं। यह दोस्ती भी उस जमाने से चली आ रही है, जब मनमोहन की पहचान एक नौकरशाह की थी। राजनीति से तो इनका दूर दूर का नाता नहीं था। ईमानदार होने की वजह से ये करोड़पति (अब अरबपति भी कह सकते हैं) खुशवंत से कई बार कर्ज भी ले चुके थे। पचास साल पुरानी दोस्ती का फर्ज कहे (या कर्ज) कि पीएम साहब को लग रहा है कि पीएम रहते हुए कर्ज उतारने का इससे बेहतर मौका तो दोबारा मिलने वाला नहीं। लिहाजा लगे हाथ क्यों ना एक ही झटके में खुशवंत पर इस तरह का अहसान कर दें कि पुराने सारे कर्ज का सफाया हो जाए। यह जानते हुए भी कि खुशवंत के पिता की इमेज देश भर में एक गद्दार की है। अंग्रेजों के पिटठ् रहकर दोनों हाथों से मेवा बटोरने की है। इसकी तनिक भी परवाह किए बगैर पीएम साहब ने झट से  दिल्ली की सीएम शीला दीक्षित को लेटर लिखकर नयी दिल्ली इलाके के विंड़सर प्लेस का नाम बदल कर सर शोभा सिंह प्लेस करने का फरमान (इसे आग्रह भी कह सकते है) जारी कर दिया। चारो तरफ हंगामा बरपा है। कई संगठनों ने विरोध करके इस आदेश को रद्द कराने की चेतावनी दी है। फिर भी कम बोलने वाले पीएम साहब ने हंगामा खड़ा करके  सारा ठीकरा शीला दीक्षित के सिर पर फोड़ दिया है। पीएम दफ्तर के तमाम नौकरशाहों की इस दलील पर भी पीएम साहब ने इस बार गौर नहीं फरमाया कि खुशवंत प्रेम का रास्ता देश के साथ गद्दारी से कम नहीं है।

सांसत में शीला

हंसमुख बातूनी तेजतर्रार और फर्राटे के साथ नहले पर दहला मार कर सामने वाले पर भारी हो जाने के लिए विख्यात दिल्ली की मुख्यमंत्री इस बार सांसत में है। अपने प्रिय पीएम साहब के पत्र पाकर भी वे यह तय नहीं कर पा रही हैं कि इसका क्या करे। हालांकि मीडिया में खबर उछालकर इसकी प्रतिक्रिया तो जान ही गई है। ज्यादातर सरदारों को ही यह नागवार लग रहा है कि शहीद भगत सिंह के साथ गद्दारी करने वालों को यह सम्मान क्यों ? पीएम साहब का कोई और फरमान होता तो इसे सीएम साहिबा कब की पूरा करके उसके एवज में भरपूर वसूली कर लेती, मगर इस बार उन्हें यह आदेश ना उगलते बन रहा है और ना ही निगलने का साहस हो रहा है। फिलहाल तो सीएम साहिबा ने चुप्पी साध ली है। मगर यह देखना काफी रोचक और शर्मनाक भी हो सकता है कि आजादी दिलाने वाले शहीदों को सम्मानित करने से भी परहेज करने वाली दिल्ली सरकार क्या एक गद्दार को महिमामंड़ित करने का जोखिम उठाती है ?

 खुशवंत का भोलापन

जीवन में शतातु होने के करीब सरदार खुशवंत सिंह काफी सरल दिल के भोलेभाले      इंसान है। बंद कंचुकी  में किसी भी महिला के वक्ष की लंबाई गोलाई चौड़ाई और उभार नापने में माहिर (एक्सपर्ट भी कहे तो कोई गलत नहीं) सरदारजी किसी भीमहिला की मादकता,और सेक्स की भूख का मापतौल करने में भी काफी दक्ष है। यहीं नहीं किस महिला को किस तरह आनंद के आसमान से लेकर मस्ती के पाताल में लेकर जाया जाए, इसको मापन वाला यंत्र भी सरदारजी के खुराफाती दिमाग में छिपा है। यानी कोई भी महिला या लड़की ( इनके घर की औरतें भी) इनके सामने आते ही सरदारजी की निगाह में स्कैन हो जाती है। मन की बात थाह लेने में माहिर सरदारजी आग लगने से पहले ही हंगामा खड़ा करके तमाशा बनाने में दक्ष है। इसी के बूते नाम यश और भरपूर दौलत कमाने वाले सरदार अपने बाप के मामले में कोरे हैं। बाप शोभा सिंह की गवाही से शहीद भगत सिंह को अपने साथियों के साथ फांसी दे दी गई,मगर खुशवंत की यह दलील कितनी भोली और बालसुलभ (और बेशरम भी) सी लगती है कि मेरे पिता ने तो केवल पहचान की थी। बेशरमी से दुनियां को नंगा करने वाले खुशवंत कुछ तो शरम करो। गद्दार के संतान होने की बेशरमी को तो शर्मसार होने दो।शुक्र है कि महानगर में गद्दारी की पीड़ा नहीं झेली, जो दूसरे गद्दारो के संतानों को आज तक झेलनी पड़ रही है।

सच एक दंड़नीय अपराध है

जमाना बदल गया है। झूठो का बोलबाला है और सच का मुंह काला है।  इसके बावजूद धन्य हो अय्यर साहब लाख खतरा उठाकर भी सच बोलने से आप नहीं घबराते। चापलूसों की लंबी फौज में एक अपन अय्यर ही तो कभी कभार सच उगल बैठते हैं। कांग्रेस को सर्कस कहकर मणिशंकर दा ने तो पार्टी का बैंड बजा दी है। मुंहफट अय्यर के इस बयान पर आलाकमान ने  एक्शन लेने की बजाय चुप्पी साध ली है। वैसे भी पार्टी में आजकल दिग्गी,जेडी,सिब्बल, और जयराम में बोलने की होड़ लगी है। इससे परेशान सुप्रीमों कहा-कहां हाथ डाले।  पार्टी में सच कहना एक दंड़नीय अपराध है। मगर देखा जाता है कि बोल कौन रहा है। अगर सी और डी ग्रेड का कोई बंदा निकला तो झट से एक्शन हो जाती है, मगर बोलने वाले की हैसियत ठीक ठाक रही तो मामले पर मलहम पट्टी लगाकर भूलने की कोशिश होने लगती है।

एचएमवी सिब्बल

अपने मनभावन पीएम साहब कम बोलते है, मगर उनके सबसे टैलेंटी सहकर्मी कुछ ज्यादा ही बोलते है। कभी कभार तो इतना बोलने लगते हैं कि यह तय कर पाना कठिन हो जाता है कि इन पर कोई लगाम है भी या नहीं।लोकपाल को लेकर महाभारत भले ही 16 अगस्त से होगा, मगर कौरवों की तरफ से सिब्बल सत्ता का सारा रौब दिखाने में लग गए। जंतर मंतर पर अनशन करना इस बार मुमकिन नहीं होगा, क्योंकि दिल्ली पुलिस अभी से केंद्र की थाप पर डांस करने लगी है। लोकतंत्र के पहरेदारों ने ही गला दबाने का काम चालू कर दिया है।यह दूसरी बात है कि चांदनी चौक में वकील साहब के खिलाफ धरना प्रदर्शन, जनमत संग्रह का काम चालू हो गया है और इलाके के लोग इस भूंकने वाले सांसद से आजिज हो गए हैं मगर लोकपाल के सामने सीसी टू सीसी की क्या बिसात। यानी लोकतंत्र खतरे में है, मगर पीएम और कांग्रेस सुप्रीमो फिलहाल खामोश है।

दिल्ली में भी बोलो बाबा
केवल दिल्ली को छोड़ कर पूरे देश में आग लगाते फिर रहे और केवल हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद का गीत गाते चल रहे कांग्रेस के अधेड़ युवराज राजधानी के लिए मौनी बाबा है। लोकपाल को लेकर अभी से हंगामा बरपा गया है। कैसा होगा लोकपाल के आकार प्रकार को लेकर सिब्बल और अन्ना की जुबानी जंग सड़कों पर उतर गई है। धमकी, चेतावनी,आगाह करने की बाते भावी रामलीला के दोहराव की आशंका प्रकट कर रही है। बुलंद हौसले के साथ पुलिस ट्रेनिंग कैंप में मार पीट का पाठ पठाया जा रहा है.
यानी लोकतंत्र का गला घोंटने के लिए सरकार तैयार है और अपने पीएम मनमोहन सिब्बल से हालात का जायजा ले रहे है। कांग्रेस सुप्रीमों को यूपी के अलावा कोई फ्रिक नही है। बाबा भी इन दिनों मैराथन यूपी से थक हार कर अपनी थकान मिटाने मे लगे है। दिल्ली से बेपरवाह युवराज जी कभी कभार राजधानी की चिंता कर लिया करो प्यारे , यहां के लोग भी मनमोहन शीला सिब्बल से यूपी वालों से कम त्रस्त नहीं है।

बीजेपी का कांग्रेसी करण

कहा जाता है कि संगत से गुण आत है और संगत से गुण जात। दिन रात कांग्रेस को कोसते कोसते पार्टी का ही कांग्रेसीकरण होता दिख रहा है। कुछ मामलों मे तो यह कांग्रेस से भी आगे निकलती दिख रही है। कांग्रेस के परिवारवाद से परेशान बीजेपी अब अपने यहां वंशज परम्परा को देखकर हक्का बक्का है। हिमाचल प्रदेश में रहकर केंद्र की हमेशा राजनीति करने वाले अपन शांता कुमार को यह भान होने लगा कि पार्टी का तो कांग्रेसीकरण हो गया है। शासन अनुशासन तो खैर रामराज की बात हो ही गई है। कांग्रेस में तो कमसे कम एक नेता है, अगर फरमान जारी हो गया तो फिर उसको साक्षात देव से लेकर दानव कोई नहीं बचा सकता, मगर बीजेपी में तो सहस्त्र धारा है। कर्नाटक के सीएम येदियुरप्पा को हटाना गड़करी साहब के लिए भारी हो रहा है। कुर्सी छोड़ने से परहेज करते हुए सीएम ने अपनी मर्जी और अपनी पसंद की तमाम गोटियों को फिट करने के बाद ही कुर्सी से अलग होने की शर्त रख दी। लाचार आलाकमान कईयों को बेंगलुरू भेज रही है कि सीएम कम से कम तय सीमा के अंदर ही पदत्याग करके पार्टी को किरकिरी से तो बचा ले। हाय गडकरी जी माफियाओं के साथ रहने वाले येदि से संभल कर रहना।

....कांग्रेस की सेहत के लिए नुकसानदेह है

नोएडा समेत पूरे प्रांत में किसानों की भूमि अधिग्रहण का मुद्दा गरमा कर राहुल बाबा फूले नहीं समा रहे है। चिंगारी को आग के गोले में तब्दील होने पर माया सरकार के साथ साथ अपना घर का सपना देख रहे लाखों लोगों के दिनरात का चैन हराम हो गया है। उधर मुआवजे की मांग को लेकर इलाहाबाद हाई कोर्ट में रोजाना दन दना दन केस डाले जा रहे है। बाबा पूरे इलाके में इस कदर लोकप्रिय हो गए है मानों बस तूफान सा माहौल उफान पर है, मगर कांग्रेसी नेता समेत आलाकमान अब बाबा की नौटंकी के समापन को लेकर चिंतित है। पुराने घाघ कांग्रेसियों का आकलम है कि यूपी में बाबा द्वारा लगाई आग से सबसे ज्यादा खतरा अपनों को ही है। किसान तो कब पलटकर मुलायम माया या कमल की गोद में जा बैठेंगे। पूरा तमाशा वोटबैंक नहीं है, मगर जिनको असल में नुकसान हो रहा है वो आमतौर पर कांग्रेस का ही वोटबैंक है, जो बाबा के इस खेल से आहत और बेघऱ होने के कगार पर है। नुकसान का जायजा लेने पर सबसे घाटे में कांग्रेस के ही रहने की उम्मीद को देखकर  सारे परेशान है। परेशान तो कम बाबा भी नहीं है, मगर वे इतना आगे निकल चुके है कि वापसी की उम्मीद और भी खतरनाक हो सकती है। यानी अपने ही हाथों खुद को जलने की नौबत से तो इस बार बाबा से शानदार प्रदर्शन की उम्मीद भी धुंधली हो सकती है।

खतरे में रामदेव

राखी सावंत को कौन नहीं जानता। मादक हसीन वाचाल और मुंहफट होने के चलते बहुतों के सपनें में भी राखी नहीं आती है। ज्यादातर लोग राखी से दिल लगाने की बजाय राखी बंधवाकर ही अपने मन को संतुष्ट कर लेते है। संसार को योग बताकर योग के जरिए हर रोग के नायाब इलाज का नुस्खा बांटने वाले रामदेव पर फिलहाल राखी सांवत का दिल आ गया है। वो रामदेव को अपना स्वामी मान चुकी है और बस वो अपने प्रियतम स्वामी के बुलावे का इंतजार कर रही है। उधर, जीवनभर ब्रहचर्य पालन करने का संकल्प करने और रखने वाले रामदेव भी राखी के इस प्रस्ताव से हैरान रह गए होंगे। उधर बालीवुड में लगातार पिछड़ रही राखी के लिए प्रचार में बने रहने के लिए कोई धमाका करने की जरूरत थी, लिहाजा हक दिल अजीज रामदेव से ज्यादा पोपुलर बंदा और कौन हो सकता है। रामदेव जी राखी प्रेम से अब सावधानी बरतने की बारी आपकी है। किसी भी दिन पांतजलि में धमक कर आपको धमका भी सकती है। मीडिया के सामने आपके प्रणय निवेदन की सीडी भी रखकर धमाल मचा सकती है। यानी स्वामी  को पाने के लिए फूल से  फूलझड़ी तक बन सकने वाली इस राखी से बचने के लिए बाबाजी इस रक्षाबंधन में राखी बंधवा ही लो नहीं तो मत कहना योग करते करते कब भोग के भी आचार्य बनना ना पड़ जाए। फिर आजकल आपके उपर शनि महाराज की नजर भी कुछ तंग है।

हिना की शिकायत

पाकिस्तानी नेताओं का अबतक रिकार्ड रहा है कि वे भारत में आकर इस कदर प्यार मुहब्बत मेल मिलाप अमन शांति चैन प्यार सदभाव की बाते करने लगते है ति मीडिया समेत पूरा भारत ही इनका दीवाना हो जाता है। लगता है मानो बैर दुश्मनी के दिन अब खत्म होने वाले हैं। मगर भारत से विदाई लेकर इस्लामाबाद लाहौर पहुंचते ही गिरगिट सा रंग बदलते हुए फिर से वहीं नफरत, कटुता, और दोषारोपण का बेरूखा रंग सामने आ जाता रहा है। हिना रब्बानी को भारत आने पर खूब कवरेज मिला,मगर काम से ज्यादा हुस्न और उनकी अदाओं को ज्यादा दिखाया गया। शायद इसीलिए भरपुर कवरेज के बाद भी हिना ज्यादा फूल नहीं पाई। अब हम भी क्या करे हिना जिया बेनजीर और मुर्शरफ साहब से तो यही सबक मिला है कि रगं बदलते लोगों पर यकीन मत करो। खुशगवार रही आपकी यात्रा यही शुक्र माने ।

ट्रीपल ए की बिखरती जोड़ी (अमर अकबक एंथोनी)

मनमोहन देसाई की इस सुपर हिट फिल्म की धमक आज तक बाकी है। असल जीवन में ट्रिपल ए यानी अमर (सिंह-सपा वाले), अमिताभ बच्चन और अनिल अंबानी की मस्त-मस्त जोडी को अमर अकबर और एंथोनी की तरह देखा और माना जाता था। दोस्ती भी इस तरह कि घर में मुंडन से लेकर प्रसूति और घर की साफ सफाई वाले कार्यक्रम में भी हमेशा बिजी रहने वाले ये लोग समय निकाल कर इडियटबाक्स में दिक जाते थे। मगर मुलायम भैय्या से नाता क्या टूटा और वोट 4 नोट मामला क्या गरमाया कि सुपर हिट जोड़ी एकदम फलाप सी हो गई। अब इनके पास समय की इतनी किल्लत हो गई कि सब एक दूसरे की कंपनी से इस्तीफा इस वजह से देने लगे कि मौका नहीं मिल पा रहा है। यह अलग बात है कि अमर को लतिया कर बाहर निकालने वाले मुलायम भैय्या फिलहाल तरस खाकर अम्मू के साथ खड़े हो गए है। इसे कहते है प्रेम अम्मू नरेश प्रेम जो मुलायम ने आड़े समय में दरशा दिया, जबकि मुंबईया लोगों ने मुंह फेर करक्या दिखा दिया  ?  यह तो आप समझ रहे है ना ?

गजनी बनती राजा की जुबान और कलमाड़ी
आड़े समय पर राजा यानी देश के सबसे बड़े घोटाले के राजा तिहाड़ से बाहर निकलते ही 2-जी स्प्रेक्ट्रम घोटाले में पीएम होम मिनिस्टर से लेकर अपने हेड करूणानिधि क का नाम लेकर लपेटना चालू कर दिया। मगर पता नहीं कौन सा प्रेशर पड़ा या क्या दिखा दिया गया कि बागी तेवर दिखा रहे राजा एकदम सुस्त प्रजा की तरह सब पालतू मानने लगे। यही हाल अपने दबंग खिलाड़ी सुरेश बाबू यानी कलमाडी की है। इन्हें भूलने का रोग लग गया। भारी भरकम घोटाले को बूलकर पूरे देश को उल्लू बनाते हुए करूणामूलक आधर पर सजा से बचने का प्लान था, मगर भला हो कोर्ट को जो इस घपलेबाज खिलाड़ी के चककर में ना आकर नाना प्रकार के जांच करा कर रिपोर्ट देने का फरमानव सुना डाला। कोर्ट की फटकार से गजनी बन रहे कलमाड़ी को सब याद आ गया और सफाई देनी पड़ी कि वे कभी गजनी नहीं थे।

महाबलि बनते बनते क्या हुआ महाबल

मात्र दो दशक के भीतर ही पार्षद से पोलिटिकल यात्रा शुरू करके पार्षद  और विधायकी के रेस को लांघते हुए महाबल वेस्ट दिल्ली से सांसद बन गए। सांसद बनते ही फूल कर कुप्पा हो गए महाबल आजकल बोलने की बजाय घिघियाने लगे है।  पता चला कि इन पर बाहरी दिल्ली में कहीं जमीन हथियाने का आरोप है। जिसे वो अपने भाई पर दोषारोपण करते हुए महाबल का यह महा बहाना कि भाई के साथ बेहतर रिश्ता नहीं है, किसी के गले नहीं उतर रहा है। यानी आग लगी है, मगर महाबल इसमें अपना हाथ ना मान कर भाई का घोटाला बताकर खुद को बेदाग साबित करने में लगे है। खुदा खैर करे महाबल जी सोत लो कुर्सी तो परमानेंट नहीं ह मगर भाई से तो जन्म जन्म का नाता है।

शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

वर्षों से लटक रही है ददौल घाट वैराज योजना

ददौल घाट वैराज परियोजना वर्षों से लटकी हुई हैददौल घाट वैराज परियोजना वर्षों से लटकी हुई है बुढी़ गंडक की विभीषिका से उत्तर बिहार के मुजफ्फरपुर एवं समस्तीपुर तथा अन्य प्रभावित क्षेत्रों को बचाने के लिए ददौल घाट पर बैराज बनाने की महत्वाकांक्षी योजना वर्षों से खटाई में पड़ी है। इस संबंध में सिंचाई विभाग के समस्तीपुर स्थित मास्टर प्लांनिग अंचल ने एक विस्तृत योजना तैयार कर वर्ष 1983 में बिहार सरकार को सौंपी थी लेकिन 28 वर्षों में भी यह कार्य पूरा नहीं हो सका है। फलस्वरूप लोगों में काफी रोष है। राजद नेता फैजुर रहमान फैज ने ददौल घाट बैराज योजना को जल्द पूरा करने की मांग वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से की है। उन्होंने कहा कि इस योजना के पूरा होने से इस क्षेत्र के लोगों को सिंचाई के लिए पानी और बिजली की व्यवस्था होगी। ज्ञात हो कि वर्ष 1987 के बाढ़ में तिरहुत कृषि महाविद्यालय ढोली के समीप मुरौल गांव में बूढ़ी गंडक तटबंध टूटने से मुजफ्फरपुर जिले का सकरा तथा वैशाली जिले के पातेपुर प्रखंड में जानमाल की जो हानि हुई, उससे कहीं अधिक विध्वंस समस्तीपुर जिले में हुआ। सात लाख से ज्यादा की आबादी प्रभावित हुई तथा करोड़ो रुपयों की फसल बर्बाद हो गई।

हजारों मकान ध्वस्त हो गए। 39 लोगों की मृत्यु बाढ़ के पानी में डूबने से हो गई थी। जानकारों का कहना है कि समस्तीपुर जिले की इस बर्बादी को बचाया जा सकता था यदि ददौल घाट बैराज योजना को पूरा कर नून नदी तटबंध के साथ ही सुल्तानपुर नून नदी लिंक चैनल योजना पूरी हो जाती। लेकिन इस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। वैसे नून नदी परियोजना पर वर्तमान में कार्य जारी है लेकिन ददौल घाट बैराज योजना अब भी खटाई में पड़ी हुई है। गौरतलब है कि बूड़ी गंडक नदी हर वर्ष बरसात में मुजफ्फरपुर, समस्तीपुर, बेगूसराय सहित खगड़िया जिलों में प्रलंयकारी बन जाती है। करोड़ों की संपत्ति के साथ-साथ सैकड़ों जानें हर वर्ष इस नदी में समा जाती है। बाढ़ सहायता एवं बचाव कार्य के नाम पर भी हर वर्ष सरकारी राजस्व की भारी बर्बादी होती है। इस क्षेत्र में बाढ़ की समस्या पर नियंत्रण के उद्देश्य से सरकार ने अनुसंधान एवं योजना कार्य के लिए समस्तीपुर में एक अधीक्षण अभियंता को पद-स्थापित किया।

इस अंचल के अधीन समस्तीपुर, दरभंगा, बेगूसराय, खगड़िया आदि का क्षेत्र है। इसी अंचल ने समस्तीपुर से 23 मील पश्चिम बूढ़ी गंडक के ददौल घट पर 39.35 करोड़ रुपये की लागत से तैयार होने वाले बैराज योजना का प्रारंभिक प्रतिवेदन राज्य सरकार को 28 वर्ष पूर्व 1983 ईस्वी में सौंपा था। इस योजना के कार्यान्वयन से 3.85 लाख एकड़ कृषि योग्य भूमि के सिंचित होने का अनुमान लगाया गया था। साथ ही मुजफ्फरपुर, समस्तीपुर, बेगूसराय तथा खगड़िया जिलों की बाढ़ से योजनाबद्ध ढंग से सुरक्षा होती। इतना ही नहीं, इस योजना से पनबिजली उत्पादन की भी संभावना थी। 28 वर्ष पूर्व बनी इस योजना की फाइल अब तक दफ्तरों में उपेक्षित पड़ी है लेकिन सिंचाई विभाग के समस्तीपुर स्थित मुख्य अभियंता एवं संबंधित अधिकारी चुप्पी साधे हुए हैं।

इस क्षेत्र की जनता को सुशासन की सरकार के नाम पर दूसरी पारी खेलने वाले बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के मंत्रिमंडल में पहली बार शामिल वर्तमान जल संसाधन मंत्री विजय कुमार चौधरी पर भरोसा है कि वह इस योजना को जल्द शुरू कराने की दिशा में पहल करेंगे। अब देखना है कि समस्तीपुर जिले के सरायरंजन विधानसभा क्षेत्र के वर्तमान विधायक एवं राज्य के जल संसाधन मंत्री विजय कुमार चौधरी ददौल घाट बराज योजना की शुरुआत कब तक कराते हैं या वह भी पूर्व जल संसाधन मंत्रियों की तरह उक्त योजना को नजर अंदाज कर देंगे। यह तो आनेवाला वक्त ही बतायेगा।
अफजल इमाम मुन्ना

गुरुवार, 28 जुलाई 2011

वो 36 लोगों को मौत के घाट उतार चुका था




डेटलाइन इंडिया
भोपाल, 28 जुलाई-  जो चाहता था इंजीनियर बनना लेकिन वो बन गया सीरियल किलर और लुटेरा।   गिरफ्तार होने से पहले तक वो 36 लोगों को मौत के घाट उतार चुका था। दरअसल मध्य प्रदेश पुलिस ने एक खतरनाक सीरियल किलर पकड़ा है। पुलिस रिकॉर्ड में सरमन शिवहरे नाम के इस हत्यारे ने अब तक 16 लोगों को मौत के घाट उतारा है। हालांकि पूछताछ में हत्यारे ने 36 मर्डर करने की बात कबूल की है। पुलिस के मुताबिक सभी हत्यायएं लूट के इरादे से की गईं।

लेकिन सरमन को मध्य प्रदेश के सतना में एक ज्वैलर्स के यहां लूटपाट करना भारी पड़ गया। पहले तो सरमन ने प्रीति ज्वैलर्स के मालिक रामदत्ता सोनी और उनकी पत्नी शोभा को गोली मार दी। इसमें शोभा की मौके पर ही मौत हो गई और फिर इसके बाद लूटपाट शुरू की। लेकिन तभी भीड़ ने इसे दबोच लिया और पीट-पीटकर अधमरा कर दिया। इसके बाद पुलिस ने जब पूछताछ शुरू की तो फिर सरमन ने अपने गुनाहों की फेहरिस्त खोलकर रख दी। सतना, इंदौर, जबलपुर, ग्वालियर और पन्ना में इसने 36 हत्याओं की बात कबूली। सीरियल किलर के खुलासे के फौरन बाद ही एक दर्जन से ज्यादा हत्या की पुष्टि भी हो गई।

आरोप के मिताबिक सरमन सतना में लूट के बाद रीवा रियासत के म्यूजियम को लूटने की फिराक में था। इसी इरादे से वो रीवा जा रहा था। रीवा पुलिस ने सरमन के साथी इन्द्रसेन सिंह को भी गिरफ्तार किया है। इन्द्रसेन म्यूजियम की चौकीदारी करता है। सरमन का एक और साथी रामकिशोर फरार है जिसकी तलाश की जा रही है।

सरमन कितना बड़ा शातिर अपराधी था इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले छह साल से हत्या की वारदात को अंजाम देने के बाद वो उसी इलाके में छिपता था। पुलिस शहर की नाकेबंदी करने के बावजूद कभी उसे पकड़ नहीं पाई। यही नहीं छह साल में छत्ताीस हत्याओं की बात कबूलने वाले इस सीरियल किलर ने सिर्फ तीन वारदातों में अपने साथियों की मदद ली और बाकी सारे अपराध इसने अकेले अंजाम तक पहुंचाए। फिलहाल सतना पुलिस सरमन को रिमांड में लेकर पूछताछ कर रही है। इस बीच सरमन को पकड़ने वाले नौजवानों को आला अधिकारियों ने नगद इनाम के साथ हथियार का लायसेंस देने का ऐलान किया है।

पुलिस के मुताबिक मध्य प्रदेश में पन्ना जिले के गणेशगंज इलाके में रहने वाला सरमन इंजीनियर बनना चाहता था। लेकिन जब वो इंजीनियर नहीं बन पाया तो सीरियल किलर बन गया। सरमन ने अपराध की दुनिया में छह साल पहले पहला कदम रखा। सबसे पहले इसने मंडला घाटी में एक अज्ञात शख्स की गोली मारकर हत्या कर दी। इसी साल इसने इंदौर में डॉक्टर वर्षा हत्याकांड को अंजाम दिया। सरमन ने डॉक्टर वर्षा और उनके कम्पाउंडर राम सिंह की गोली मारकर हत्या कर दी। साथ ही जेवरात और नगदी लेकर फरार हो गया।

इसके बाद पन्ना में हीरा व्यापारी जगदीश जड़िया और उसके साथी की गोली मारकर हत्या कर दी और फिर लूटपाट को अंजाम दिया। पन्ना के शातिर अपराधी डब्बू को भी सरमन ने ही मौत के घाट उतारा। झांसी रोड पर एक अनजान शख्स को भी मारा। इसी साल मार्च में ग्वालियर में राजेन्द्र साहू और विनय जैन की हत्या के बाद साढ़े पांच लाख रूपए की लूटपाट की। जून महीने में सरमन ने ग्वालियर में दो बड़ी वारदातों को अंजाम दिया। पहले व्यापारी प्रभात अग्रवाल और फिर एक और व्यापारी नीरज गुप्ता की हत्या कर डाली।

सिर्फ पैसे के लिए ही नहीं बल्कि रिवॉल्वर या पिस्तौल लूटने के इरादे से भी सरमन हत्या जैसी वारदात को अंजाम तक पहुंचाता था। इसी साल अप्रैल में इसने जबलपुर में हवलदार राजकुमार की हत्याकर उसकी रिवॉल्वर लूटी थी। जबकि इसी महीने सरमन हाईकोर्ट के एक जज के गनमैन की मोटर साईकल में लिफ्ट के बहाने बैठा और फिर उसकी गोली मारकर हत्या कर दी। साथ ही गनमैन की नब्बे एम एम की रायफल लूट ली। जो बरामद कर ली गई है। सरमन ने 36 हत्याओं की बात कबूल की है। इसमें से एक दर्जन से ज्यादा हत्या की पुष्टि भी की जा चुकी है। हैरानी की बात ये है कि सरमन भले ही किसी इलाके में लूटपाट के मकसद से पहुंचता था लेकिन उसका ध्यान पहले हत्या की तरफ होता था। और उसके बाद ही लूटपाट को अंजाम देता था।

देश की हालत की चिंता किसे है




रोमन साम्राज्य के सम्राट बस दो ही चीजों से डरते थे, असभ्य एवं अशिष्ट जनता और रोम के अंदर खाद्य पदार्थों की कमी. जनता पर नकेल कसने के लिए सेना की मदद ली जाती थी तो खाद्यान्नों की उपलब्धता बनाए रखने के लिए खुद राजा चौकन्ना रहता था. राजा को पता था कि भूखी जनता उसके शासन के लिए खतरनाक हो सकती है.
ऐसा लगता है, जैसे सरकारें एक अहम पहलू से पूरी तरह बे़खबर हो चुकी हैं. यह पहलू है खरीदारों के पश्चाताप का. मतदाताओं के पास यह विकल्प तो नहीं है कि वे अपनी खरीदी हुई चीज लौटा दें, लेकिन उनका पश्चाताप सत्ता की साख में सुराख कर सकता है. पिछले साल जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल दोबारा अपने पद पर निर्वाचित हुईं. उनकी जीत इतनी ज़बरदस्त थी कि विपक्षी पार्टियां हाशिए पर चली गईं, लेकिन केवल नौ महीने के अंदर ही स्थितियां पूरी तरह बदल चुकी हैं. मर्केल का यूनाइटेड फ्रंट पंगु हो चुका है और 77 प्रतिशत से ज़्यादा जर्मन जनता को लगता है कि सत्ता पर सरकार का नियंत्रण खत्म हो चुका है.
ईसा पूर्व 23 में रोम में खाने-पीने की चीजों की ज़बरदस्त कमी हो गई. इस दौरान अगस्ता ने अपने व्यक्तिगत कोष से खाद्यान्न खरीद कर लाखों रोमवासियों के बीच बांटा था. पहले से ही मशहूर रहे अगस्ता को इसके बाद रोमवासी और भी ज़्यादा भगवान की तरह मानने लगे. अगस्ता के उत्तराधिकारी तिबेरियस को आर्थिक मामलों की समझ कहीं ज़्यादा थी. ईस्वी सन्‌ 19 में अन्न की कमी के चलते रोम में दंगे होने लगे तो तिबेरियस ने मूल्य वृद्धि पर रोक लगा दी और व्यापारियों को घाटे की भरपाई के लिए सब्सिडी उपलब्ध कराई. लेकिन शरद पवार का मामला जरा अलग है. पवार की तरह किसी अन्य राजा ने अब तक ऐसा नहीं कहा है कि वह खाद्यान्नों के वितरण की समस्याओं से आजिज आ चुका है और इससे अच्छा काम तो आईसीसी (इंपीरियल कॉलेजियम सर्कस) को चलाना है. यह सही भी है, क्योंकि टी-20 की लगातार बढ़ती लोकप्रियता के बीच सट्टेबाज ज़्यादा से ज्यादा पैसा लगाने के लिए उतावले हो रहे हैं. क्रिकेट के इस सर्कस में आधे-अधूरे कपड़े पहने चीयरगर्ल्स हर गेंद के बाद अपनी भाव भंगिमाओं से मोहित करने की कोशिश में लगी रहती हैं, तो प्रायोजक मनमानी कीमतों पर मीटिंग के आयोजन के लिए हर समय तैयार रहते हैं.
सत्ता से चिपके रहकर अपनी जिम्मेदारियों से भागना सुखद स्थिति नहीं है. बढ़ते असंतोष के बीच यह लापरवाही चौंकाने वाली है. अपने दोबारा निर्वाचन को लेकर निश्चिंत रहने वाले नेता ही यह खतरा मोल ले सकते हैं. जनता को भरमाने के लिए विकास की तेज़ गति उनके लिए एक हथियार का काम करती है. पवार और मुरली देवड़ा इन चिंताओं से दूर रहते हुए अपने पद पर बने रह सकते हैं. अगले चुनावों में अभी भी चार साल का समय बाकी है और यह बात तय है कि साल 2014 के मई महीने में जब मतदाता वोट देने के लिए बूथों पर जाएंगे तो तेल और अनाज की बढ़ी कीमतें उनके जेहन से दूर जा चुकी होंगी. नदी के आने से पहले उसे पार करने की चिंता का भला औचित्य क्या है?
रोमन साम्राज्य के राजा इतने हठीले नहीं थे. सिद्धांत रूप में वे मृत्युपर्यंत अपने पद पर बने रहते थे, लेकिन उन्हें पता था कि मृत्यु कभी भी आ सकती है. किसी अंजाने दुश्मन का खंजर उनकी जीवन लीला को कभी भी समाप्त कर सकता है. वे यह भी जानते थे कि यदि शासन करने में सक्षम न हों तो राजा नहीं बने रह सकते. लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह विचारधारा पूरी तरह उल्टी हो गई है. यदि आप सत्ता में रहते हुए शक्तिहीन होने का कोई सामयिक उदाहरण देखना चाहते हैं तो श्रीनगर के हालत पर ग़ौर कीजिए. तेल की कीमतों में हुई वृद्धि के चलते दिल्ली में आयोजित बंद और श्रीनगर में कर्फ्यू के बीच क्या कोई समानता है? दोनों के हालात अलग-अलग हैं, लेकिन समस्या एक जैसी है, सरकार लोगों की समस्याओं पर ध्यान नहीं दे रही.
ऐसा लगता है, जैसे सरकारें एक अहम पहलू से पूरी तरह बे़खबर हो चुकी हैं. यह पहलू है खरीदारों के पश्चाताप का. मतदाताओं के पास यह विकल्प तो नहीं है कि वे अपनी खरीदी हुई चीज लौटा दें, लेकिन उनका पश्चाताप सत्ता की साख में सुराख कर सकता है. पिछले साल जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल दोबारा अपने पद पर निर्वाचित हुईं. उनकी जीत इतनी ज़बरदस्त थी कि विपक्षी पार्टियां हाशिए पर चली गईं, लेकिन केवल नौ महीने के अंदर ही स्थितियां पूरी तरह बदल चुकी हैं. मर्केल का यूनाइटेड फ्रंट पंगु हो चुका है और 77 प्रतिशत से ज़्यादा जर्मन जनता को लगता है कि सत्ता पर सरकार का नियंत्रण खत्म हो चुका है. सत्ता का सूत्र बस एक वाक्य में ही छिपा है, स्थिति आपके नियंत्रण में है या कहीं आप ही तो स्थितियों से नियंत्रित नहीं हो रहे.
1971 में इंदिरा गांधी ने भारत के चुनावी इतिहास की सबसे बड़ी जीत हासिल की. साल के अंत तक पाकिस्तान के साथ युद्ध में मिली जीत के बाद उन्हें देवी का अवतार घोषित कर दिया गया, लेकिन 1973 की गर्मियां आते-आते हालात आश्चर्यजनक रूप से बदल चुके थे. करिश्माई जॉर्ज फर्नांडीस ने देशव्यापी रेल हड़ताल कर पूरे देश को अस्थिर कर दिया, जबकि संन्यास से वापस लौटने के बाद जयप्रकाश नारायण कौतूहल पैदा कर रहे थे. और यह तो सबको पता है कि लोगों के पश्चाताप का सबसे बड़ा कारण महंगाई ही था. लंगड़ाती हुई इंदिरा सरकार ने यह सोचकर आपातकाल का सहारा लिया कि विपक्ष पहले ही नेस्तनाबूद हो चुका है. लेकिन वह यह भूल गई थी कि सबसे खतरनाक विपक्ष राजनीतिक पार्टियां नहीं, बल्कि जनता का होता है.
यह बात अब क़रीब चार दशक पुरानी हो चुकी है, आतंकवादी हमारे दरवाज़े पर खड़े हैं, नक्सलवाद हमारे घर-आंगन तक पहुंच चुका है, महंगाई के चलते रसोई संकट में है और पाकिस्तान के साथ हमारा विवाद पूर्ववत बना हुआ है. नीरो सम्राट भले न हो, लेकिन यह स्पष्ट है कि कृषि और खाद्य आपूर्ति का ज़िम्मा उसी के हाथों में है. शरद पवार पहले ऐसे केंद्रीय मंत्री हैं, जिन्होंने यह सार्वजनिक रूप से क़बूल किया कि वह एक चुकी हुई शक्ति हैं. गनीमत यह है कि वह एक लंबी पारी खेल चुके हैं, लेकिन युवा नेताओं की नई पीढ़ी को उनसे सबक लेना होगा. यदि वे नहीं चेते तो गोदाम में ही सड़ते रह जाएंगे.
भारत की मौजूदा हालत बाज़ार के बीचोबीच स्थित किसी मल्टीप्लेक्स से मिलती-जुलती लगती है, जिसमें एक साथ कई फिल्में चल रही हैं. कश्मीर में हिंसक नाटक तो दिल्ली में उबाऊ तमाशा, तमिलनाडु में फैमिली सोप ओपेरा, जिसे देखकर बरबस ही आंसू निकल पड़ें तो पंजाब में यही फैमिली ड्रामा दूसरे अंदाज़ में चल रहा है, गुजरात में पुरानी फिल्मों की सीडी चल रही है तो बंगाल में डेविड और गोलिएथ की पौराणिक कहानी का नकली रूपांतरण चल रहा है, उत्तर पूर्व में कहानियों की कोई पटकथा ही नहीं है. सबसे बड़ी बात तो यह है कि देश के कई हिस्सों में इस मल्टीप्लेक्स को चलाने वाले लोग ही बत्तियां बुझाकर चादर तान कर सो गए हैं. लेकिन इसकी फिक्र किसे है?

सच की जुबान पर सरकार का पहरा




केंद्र सरकार की इस बेताला धुन पर कई राज्य सरकारें जुगलबंदी कर रही हैं कि माओवादी अमन और तऱक्क़ी के जानी दुश्मन हैं, देश और समाज के लिए सबसे बड़ा ख़तरा हैं. यह न्याय और अधिकार की आवाज़ को कुचल देने का आसान हथियार है. विकास के नाम पर ग़रीब-वंचित आदिवासियों का सब कुछ हड़प लेने की सरकारी मंशा के ख़िला़फ जो खड़ा हो, माओवादी का ठप्पा लगाकर उस पर लाठी-गोली बरसा दो या फिर उसे जेल पहुंचा दो. इस मायने में अगर छत्तीसगढ़ के हालात सबसे ख़राब हैं तो उड़ीसा के हालात भी कोई कम बुरे नहीं. पिछली 27 जनवरी को बुज़ुर्ग मार्क्सवादी-लेनिनवादी नेता गणनाथ पात्रा की गिरफ़्तारी यही बताती है कि छत्तीसगढ़ की तरह उड़ीसा में भी अघोषित आपातकाल लागू है और सच की ज़ुबान पर पहरे हैं.
पूरे राज्य में जारी विस्थापन विरोधी संघर्षों की पहली कतार में शामिल रहे 68 वर्षीय गणनाथ पात्रा का गुनाह यह था कि उन्होंने कोरापुट ज़िले के नारायनपटना ब्लॉक में सक्रिय चेसी मुलिया आदिवासी संघ (सीएमएएस) के पक्ष में खड़े होने और सरकारी दमन का मुखर प्रतिरोध करने का दुस्साहस किया. जबकि राज्य सरकार सीएमएएस को माओवादियों का खुला संगठन करार देकर उसके नेतृत्व का सफाया कर देने की तैयारी में है. उड़िया में चेसी मुलिया मतलब मज़दूर किसान.
एक अनुमान के मुताबिक़, केवल उड़ीसा में सकल घरेलू उत्पाद के दोगुने मूल्य क़रीब 40 ख़रब रुपये के बॉक्साइट का भंडार है और उसे निचोड़ने के लिए कंपनियां लार टपका रही हैं. कोरापुट ज़िले में भी बॉक्साइट की खानें हैं, जिनका दोहन करने के लिए आदित्य बिड़ला की तीन कंपनियां जुटी हुई हैं. इसके लिए आदिवासियों की ज़मीन हड़पने की मुहिम जारी है.
फिलहाल, पिछले नवंबर माह से नारायनपटना में भय और असुरक्षा का माहौल है. पूरे ब्लॉक को लगभग सील कर दिया गया है. पुलिस और सुरक्षाबल सीएमएएस के लोकप्रिय नेता निचिका लिंगा एवं उनके साथियों की जान के पीछे हैं. ऐसे में सीएमएएस के अगुवा भूमिगत हैं. निचिका ने किशोरावस्था में बंधुआ मज़दूर की त्रासदी झेली और कच्ची उम्र में इस क्रूर सामंती प्रथा के ख़िला़फ बग़ावत करने का भी जोख़िम उठाया. कहते हैं कि दुखियारों को उनके दु:ख जोड़ते हैं. निचिका की पहल रंग लाई. वंचना और अत्याचार सहने की नियति को चुनौती देने के लिए ग़रीब आदिवासी जुटने लगे. इस तरह सीएमएएस का जन्म हुआ.
निचिका एवं उनके साथियों ने महसूस किया कि शराबखोरी की लत आदिवासियों को और पीछे ढकेलने का काम कर रही है. सीएमएएस ने शराब के ख़िला़फ मोर्चा जमाया और तीन साल पहले पूरे इलाक़े को शराब की भट्ठियों से आज़ाद करा दिया. इससे शराब के सौदागरों और पुलिस की कमाई का ज़रिया छिन गया. राज्य में कहने को यह क़ानून लागू है कि आदिवासियों की ज़मीन ग़ैर आदिवासियों के हाथों में नहीं जा सकती. सीएमएएस पिछले लगभग दस सालों से आदिवासियों की ज़मीन लौटाए जाने की लड़ाई लड़ रहा था, लेकिन संवैधानिक तरीक़े बेनतीजा निकले. आख़िरकार सीएमएएस के झंडे तले
हज़ारों आदिवासियों ने अपने परंपरागत हथियारों से लैस होकर पिछले साल अपै्रल में धावा बोला और दो हज़ार एकड़ ज़मीन ग़ैर आदिवासियों के क़ब्ज़े से आज़ाद कराकर भूमिहीन आदिवासियों के बीच बांट दी. उस पर धान की रोपाई भी कर दी गई. संगठन ने जागरूकता पैदा की और यह सुनिश्चित किया कि खेती में रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों का इस्तेमाल कतई न किया जाए. इसका उत्साहजनक नतीजा सामने आया.
उड़ीसा के ज़्यादातर इलाक़े अकाल की चपेट में हैं. इस उदास-निराश माहौल के बीच नारायनपटना ब्लॉक से यह अच्छी ख़बर आई कि वहां धान की फसल ख़ूब लहलहाई. शराब बंदी ने आदिवासियों को जगाने और उनकी महिलाओं में ताक़त भरने का काम किया. ज़मीन पर आदिवासियों का क़ब्ज़ा सीएमएएस के बढ़ते प्रभाव का संकेत था. लेकिन, फसल की कटाई का समय आया तो इस ख़ुशखबरी को रौंदते हुए ऑपरेशन ग्रीन हंट की दस्तक आ धमकी. खड़ी फसल पर ज़मीन के अवैध क़ब्ज़ेदार रहे ग़ैर आदिवासियों की नज़र गड़ गई. इस तरह माओवादियों को दबोचने के नाम पर चलाया जा रहा अभियान आदिवासियों के पेट पर लात मारने का अभियान बनने लगा.
एक अनुमान के मुताबिक़, केवल उड़ीसा में सकल घरेलू उत्पाद के दोगुने मूल्य क़रीब 40 ख़रब रुपये के बॉक्साइट का भंडार है और उसे निचोड़ने के लिए कंपनियां लार टपका रही हैं. कोरापुट ज़िले में भी बॉक्साइट की खानें हैं, जिनका दोहन करने के लिए आदित्य बिड़ला की तीन कंपनियां जुटी हुई हैं. इसके लिए आदिवासियों की ज़मीन हड़पने की मुहिम जारी है. सीएमएएस का प्रतिरोध कंपनियों के लिए भारी रुकावट रहा है. मुना़फे की लूट के लिए लेमन ग्रास को सरकारी बढ़ावा दिए जाने के ख़िला़फ भी सीएमएएस आवाज़ बुलंद कर रहा था. नारायनपटना और उसके आसपास की जिन ज़मीनों पर धान बोया जाता रहा है, उनके 70 फीसदी हिस्से पर अब लेमन ग्रास की खेती हो रही है. लेमन ग्रास से निकला इत्र नहाने के साबुन को सुगंधित बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. ज़ाहिर है कि रतनजोत की तरह लेमन ग्रास भी खाद्य सुरक्षा के लिए गंभीर ख़तरा है. लेकिन, पूंजीपतियों के हितों के सामने सरकारों को अपनी ग़रीब जनता की भूख की चिंता नहीं सताती. बहरहाल, राज्य सरकार से टकराने की हिमाक़त आख़िरकार सीएमएएस को महंगी पड़ी.
गुजरी 20 नवंबर को स्थानीय पुलिस को सीएमएएस को सबक सिखाने का मौक़ा मिल गया. उस दिन क़रीब दो सौ आदिवासी नारायनपटना पुलिस थाने पर एकत्र हुए. इनमें आधी से अधिक महिलाएं थीं. इससे दो माह पहले सीएमएएस ने गांवों में सुरक्षाबलों की तैनाती और उनकी ज़्यादतियों के ख़िला़फ रैली की थी. तब सीएमएएस को लिखित आश्वासन मिला था कि उसे आइंदा ऐसी शिक़ायत करने का मौक़ा नहीं मिलेगा. इसके बावजूद 18 और 19 नवंबर को सुरक्षाबलों ने पांच गांवों में तलाशी के नाम पर आदिवासियों को मारा-पीटा और महिलाओं के साथ बदसलूकी की. उन्हें फसल की कटाई करने से रोक दिया गया. आदिवासी इसकी शिक़ायत दर्ज़ करने और यह जवाब मांगने भी गए थे कि आख़िर लिखित वायदे को क्यों तोड़ा गया, लेकिन थाना प्रभारी उन्हें सुनने को तैयार नहीं थे. उल्टे उन्हें गरिया-धमका रहे थे. किसी तरह सीएमएएस के छह नेताओं ने थाने में प्रवेश किया. उनके और थाना प्रभारी के बीच तीखी नोकझोंक हुई. अचानक थाना प्रभारी चीखने लगा कि उस पर हमला हो गया है और थाने की छत पर तैनात सीआरपीएफ और कोबरा बटालियन ने अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी. सिंगन्ना को सीने पर दस गोलियां लगीं और कार्यकर्ता नचिका एंड्रू के साथ उनकी मौक़े पर मौत हो गई. लगभग 60 आदिवासी घायल हुए. इसी के साथ गिरफ़्तारियों का सिलसिला शुरू हो गया. इलाक़े को आदिवासियों का शिकार करने का मैदान बना दिया गया. सीएमएएस के कार्यकर्ता भूमिगत हो गए. फिर भी फायरिंग में मारे गए सिंगन्ना और एंड्रू के अंतिम संस्कार के मौक़े पर 23 नवंबर को पोड़ापडर गांव की ओर आदिवासियों का जैसे सैलाब उमड़ पड़ा.
ढेरों सवाल हैं, जिनके जवाब ग़ायब हैं. फायरिंग का आदेश किसने दिया? क्या इसके लिए मजिस्ट्रेट की इजाज़त ली गई? अगर निहत्थे आए आदिवासियों से सचमुच क़ानून-व्यवस्था के लिए कोई ख़तरा था तो उन्हें तितर-बितर करने के लिए अश्रुगैस या दूसरे कम घातक तरीक़ों का इस्तेमाल क्यों नहीं किया गया? याद रहे कि आदिवासी तीर-धनुष के अपने परंपरागत हथियारों के बग़ैर थे. इसलिए कि इससे पहले इन्हीं हथियारों के कारण उन्हें मीडिया के सामने माओवादी करार दिया जाता रहा है.
और अब, आदिवासियों को खटका लगा रहता है कि कब रात के अंधेरे में नागों और बिच्छुओं की फौज उनके गांव को घेर ले, दरवाज़ा तोड़कर उनके घरों में दाख़िल हो, उन्हें बूटों से रौंदे और उनका सब कुछ तबाह कर दे. आदिवासी क्या करें और क्या न करें. गांव में बने रहना ख़तरे से ख़ाली नहीं और जंगल भाग जाना भी ख़तरे से कोई बचाव नहीं. सुरक्षाबल तो माओवादियों की तलाश में चप्पा-चप्पा छान रहे हैं. निरीह आदिवासियों को जंगल में ढेर कर देना और उन्हें माओवादी घोषित कर देना तो बस उनके ट्रिगर दबाने का कमाल होगा.
फिलहाल, सुरक्षाबलों के छापे में घर-घर से हथियार ज़ब्त किए जा रहे हैं. तीर-धनुष के अलावा इसमें कुल्हाड़ी, हथौड़ा, हंसिया, चाकू और आरी वग़ैरह भी शामिल है. सुरक्षाबलों की हिदायत है कि आदिवासी इन हथियारों को रखने से बाज आएं, वरना उनके ख़िला़फ कड़ी कार्रवाई की जाएगी. यानी लकड़ी चीरने-फाड़ने, धान की कटाई करने या सब्ज़ी-जानवर काटने जैसे रोजमर्रा के काम बंद. यह पाबंदी दाढ़ी बनाने के ब्लेड या उस्तरे पर भी लगनी चाहिए, क्योंकि उससे किसी का धड़ भी अलग किया जा सकता है. सूजे को भी क्यों छोड़ा जाए, जो भले ही चावल की बोरियों को सिलने के काम आता है, लेकिन उसे किसी के पेट में भी तो घोंपा जा सकता है.
पुलिस फायरिंग के बाद नारायनपटना जलने लगा. सरकार नहीं चाहती कि उसके दमन की कोई कहानी बाहर आए. इससे सरकारी कामकाज में बाधा पहुंचती है. स्थानीय मीडिया प्रशासन के कब्जे में है और वह सरकारी ज़ुबान में बोलने का आदी है. ऐसे में राजनीतिक कार्यकर्ता तपन मिश्रा ने हालात का जायज़ा लेने और मीडिया तक सच पहुंचाने की गरज से नारायनपटना का दौरा करने का फैसला किया, लेकिन 29 नवंबर को बीच रास्ते में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया. ज़िला पुलिस अधीक्षक ने उन्हें मीडिया के सामने कट्टर माओवादी के तौर पर पेश करते हुए बताया कि वह बागियों को हथियारों का प्रशिक्षण देने में शामिल रहे हैं. उन पर देशद्रोह का मामला थोप दिया गया.
राज्य के दमन से पैदा हालात का जायज़ा लेने के लिए लोकतांत्रिक अधिकारों की पैरवी कर रही महिलाओं का दल नौ दिसंबर को नारायनपटना पहुंचा था. इसमें नई दिल्ली समेत तमिलनाडु, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की भी महिला कार्यकर्ता शामिल थीं. इस दल को स्थानीय पुलिस ने इलाक़े का दौरा करने से रोक दिया और थाने के बाहर ग़ैर आदिवासी ज़मीन मा़फियाओं एवं उनके गुंडों की भीड़ जुटा ली. थाने से बाहर आते ही भद्दी गालियों के साथ महिला जत्थे की पिटाई की गई और उसे सीएमएएस के ख़िला़फ फूटे जनता के गुस्से का नाम दे दिया गया. याद रहे कि इसी तर्ज पर 13 दिसंबर को छत्तीसगढ़ में दंतेवाड़ा की ओर जा रही 10 राज्यों की प्रतिनिधि महिलाओं को भी हैरान-परेशान किया गया था और उन्हें रायपुर वापस लौटने के लिए मजबूर कर दिया गया था.
जैसे दंतेवाड़ा में सरकारी सहयोग और संरक्षण में सलवाजुड़ूम यानी शांति वाहिनी का गठन हुआ, ठीक उसी तरह उड़ीसा में सत्तारूढ़ बीजू जनतादल एवं कंपनियों के सहयोग से शराब व्यापारी और ज़मीन के लुटेरे शांति समिति के नाम से सीएमएएस के ख़िला़फ एकजुट हो गए हैं.
क्या एकरूपता है! तो क्या मज़बूत सरकार का मतलब लोकतंत्र का अपहरण करने और दमन की हदों को पार कर जाने का लाइसेंस रखना होता है? पिछली बार झारखंड के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठते ही शिबू सोरेन ने कंपनियों की राह को आसान बनाना अपनी सरकार की पहली प्राथमिकता बताया था. जिंदल, आर्सेलर मित्तल, इस्सर, टाटा, भूषण जैसी देशी-विदेशी बड़ी कंपनियों के साथ सौ से अधिक करारनामे पर हस्ताक्षर भी हुए. लेकिन आदिवासियों के तगड़े विरोध के सामने और माओवाद के ख़तरे का जाप करने के बावजूद गुरुजी की प्राथमिकता धरी की धरी रह गई. इन कंपनियों की परियोजनाएं काग़ज़ी खानापूर्ति से आगे नहीं बढ़ सकीं. दमन का सरकारी चक्का रफ़्तार नहीं पकड़ सका, उल्टे लगातार धीमा होता गया. तब उनकी सरकार जुगाड़िया गठबंधन की कमज़ोर रस्सी के भरोसे बनी थी.
और अब, जैसे-तैसे दोबारा मुख्यमंत्री बने उन्हीं गुरुजी के डंके की चोट का पुराना स्वर फिलहाल ढीला और गोलमोल है. इस बार उनकी सरकार के सामने समझौतापरस्ती और अधिक नाज़ुक रस्सी पर नटगिरी करने की मजबूरी है. हल्का सा झटका भी उनकी सरकार की कमर तोड़ सकता है. कंपनियों के प्रेम में विस्थापन विरोधी आंदोलनों के साथ सख्ती करने में जोख़िम है. झारखंड सरकार से उलट छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की सरकारें बहुमत में हैं. उनके सामने औंधे मुंह गिर जाने का ख़तरा नहीं है. और, इसीलिए माओवाद से जूझने के नाम पर दोनों राज्यों में न्याय और अधिकार की आवाज़ों के कत्लेआम का माजरा सबके सामने है. तो क्या अल्पमत की सरकारें ग़रीब-गुरबों के लिए वरदान होती हैं कि अपेक्षाकृत कम दमनकारी होती हैं? मौजूदा निजाम में कमज़ोर सरकारें लोकतंत्र की सेहत के लिए ज़्यादा मु़फीद होती हैं?

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शीला जी, कैसे जिंदा रहेंगे दिल्ली में दिल्ली के गरीब




जिस देश के नेताओं पर चारा, खाद, चीनी खा जाने और कोलतार पी जाने तक के आरोप लगते हों, वहां की जनता (अपेक्षाकृत अमीर) अगर ग़रीबों का राशन हड़प ले तो ज़्यादा आश्चर्य नहीं होना चाहिए. लेकिन आश्चर्य तब होता है, जब यह सब कुछ देश की राजधानी यानी दिल्ली में हो रहा हो. दरअसल, दिल्ली की जन वितरण प्रणाली के तहत मिलने वाले राशन में घोटाले का मामला प्रकाश में आया है. ज़्यादातर एपीएल कार्ड वाले लोग बीपीएल कार्ड के कोटे में सेंधमारी कर चुके हैं. बड़ी संख्या में ग़रीब लोगों के पास राशनकार्ड ही नहीं है. यह खुलासा हुआ है एक सर्वे रिपोर्ट से, जिसे अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति एवं अनुसंधान संस्थान दिल्ली एवं नेशनल सेंटर फॉर रिसर्च एंड डिबेट इन डेवलपमेंट ने तैयार किया है. रिपोर्ट में राजधानी के नेहरू कैंप, मानसरोवर झुग्गी-झोपड़ी, हर्ष विहार एवं खजूरी खास जैसे पिछड़े इलाक़ों में रहने वाले परिवारों को शामिल किया गया है. रिपोर्ट के मुताबिक़, सरकारी आंकड़ों के मुक़ाबले दिल्ली में आर्थिक तौर पर कमज़ोर परिवारों की संख्या कहीं ज़्यादा है. इसमें भी लगभग 50 फीसदी परिवारों के पास राशनकार्ड हैं ही नहीं. महंगाई ने जीना हराम कर दिया है, सो अलग.
दिल्ली की जन वितरण प्रणाली में ज़बरदस्त भ्रष्टाचार प्रकाश में आया है. सरकार अमीरों को ग़रीबी का सर्टिफिकेट दे रही है. मतलब ग़रीबी रेखा से ऊपर वालों को बीपीएल कार्ड बांट रही है. दूसरी ओर ग़रीबों के पास राशनकार्ड ही नहीं हैं. हद तो यह है कि मुख्यमंत्री शीला दीक्षित इस समस्या से निपटने के लिए जन वितरण प्रणाली को ही ख़त्म करने की योजना बना रही हैं.
जून-अक्टूबर 2009 के दौरान पूर्वी दिल्ली के कुछ ख़ास इलाक़ों के 80 घरों में जाकर राशनकार्ड के बारे में पूछा गया. इसके बाद जो अंतिम सूचना मिली, वह चौंकाने वाली थी. 13 परिवारों के पास अंत्योदय कार्ड, 19 के पास बीपीएल और 7 परिवारों के पास एपीएल कार्ड थे. आश्चर्यजनक रूप से 41 परिवारों के पास किसी भी तरह का राशनकार्ड नहीं था. मतलब यह कि 51 फीसदी लोगों के पास राशनकार्ड नहीं था. हालांकि 2004-05 के एक सर्वे के मुताबिक़, दिल्ली की 26 फीसदी आबादी, जो ग़रीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करती है, उसमें से 33 फीसदी के पास बीपीएल कार्ड, 39 फीसदी के पास एपीएल कार्ड और 28 फीसदी के पास राशनकार्ड नहीं हैं. लेकिन, इस पूरे सर्वे का सबसे दुखद पहलू यह है कि ग़रीबी रेखा से ऊपर रहने वाले 74 फीसदी में से 18 फीसदी परिवार ऐसे हैं, जिनके पास बीपीएल कार्ड हैं. ज़ाहिर है, वे परिवार ग़रीबों का हक़ मार रहे हैं. इसके अलावा राशनकार्ड पर जितना अनाज ग़रीबों को मिलता है, वह एक परिवार की ज़रूरत का महज़ 60 फीसदी ही होता है.
पूर्वी दिल्ली के खजूरी खास इलाक़े में सर्वे के दौरान पता चला कि यहां जो लोग 15 या 20 साल से किराए के मकान में रह रहे हैं, उनके पास भी राशनकार्ड नहीं हैं. इसकी मुख्य वजह यह है कि इन परिवारों द्वारा ऐसा कोई भी दस्तावेज पेश न कर पाना, जिससे साबित हो सके कि अमुक परिवार दिल्ली का निवासी है. ऐसे किराएदारों में ज़्यादातर बिहार और उत्तर प्रदेश से आए लोग हैं. हर्ष विहार की तीन गलियों में सर्वे किया गया. वहां लगभग 628 परिवार रहते हैं, जिनमें से 10 फीसदी किराएदार हैं. पूछताछ करने पर मालूम हुआ कि इनमें से 25 फीसदी परिवारों के पास राशनकार्ड नहीं हैं. सर्वे टीम ने जब वहां के 20 ऐसे परिवारों से संपर्क किया, जो ग़रीबी रेखा के नीचे थे, तो पता चला कि उनमें से 14 परिवारों के पास राशनकार्ड थे ही नहीं. यह भी पता चला कि अगर कोई कार्डधारक दो दिनों के भीतर अपना राशन नहीं लेता है तो राशन दुकानदार सारा अनाज काला बाज़ार में बेच देता है और रजिस्टर पर इंट्री कर देता है. नाप-तौल में घपला तो आम शिक़ायत थी.
भारत सरकार ने राशनकार्ड के संबंध में चार लाख नौ हज़ार की एक सीमा बना रखी है. सर्वे बताता है कि दिल्ली में बीपीएल कार्डों की संख्या बढ़नी चाहिए. हम सहमत हैं और गंभीरता से इस पर विचार कर रहे हैं. केंद्र सरकार के सामने भी यह बात रखी गई है.
हारुन युसुफ, खाद्य एवं जन आपूर्ति मंत्री, दिल्ली सरकार.
लेकिन, मुख्यमंत्री शीला दीक्षित इस समस्या पर ध्यान देने या सुधार करने के बजाय जन वितरण प्रणाली को ही ख़त्म करने की योजना बना रही हैं. शीला दीक्षित जन वितरण प्रणाली (पीडीएस) में भ्रष्टाचार की बात तो स्वीकार करती हैं, फिर भी वह मौजूदा व्यवस्था को सुधारने के बजाय योजना आयोग से इसे ख़त्म करने की अनुमति मांग रही हैं. अब वह ग़रीबों को राशन के बदले हर महीने 1100 रुपये देने के फैसले पर विचार कर रही हैं, जिनमें से 1000 रुपये खाद्य सब्सिडी और 100 रुपये किरोसिन सब्सिडी के तौर पर देने की योजना है. लेकिन, उन्हें यह सोचना होगा कि ख़ामियों पर ध्यान देने के बजाय किसी व्यवस्था को भंग कर देने से समस्या ख़त्म नहीं हो जाती. नई व्यवस्था अपने साथ कोई समस्या नहीं लाएगी, इसकी क्या गारंटी है? दूसरी ओर, दिलचस्प रूप से प्रधानमंत्री कहते हैं कि जन वितरण प्रणाली के लिए देश में का़फी खाद्यान्न है और सरकार पीडीएस को मज़बूत करेगी. वह यह भी सुनिश्चित करेगी कि ग़रीबी रेखा से नीचे रहने वाला कोई भी परिवार भूखा न रहने पाए. आंकड़ों के मुताबिक़, देश में पांच करोड़ टन खाद्यान्न का स्टॉक है. बावजूद इसके न स़िर्फ दिल्ली, बल्कि देश के कई हिस्सों में जन वितरण प्रणाली की स्थिति का़फी दयनीय है. कई जगह लोगों को राशन नहीं मिलता. और, मिलता भी है तो पूरा नहीं मिलता. लेकिन दिल्ली सरकार के खाद्य आपूर्ति मंत्री हारुन युसुफ ने चौथी दुनिया से हुई बातचीत में जो कुछ कहा, उसके मुताबिक़ प्रधानमंत्री के दावे अर्थहीन नज़र आते हैं. जब हारुन युसुफ से दिल्ली के ऐसे ग़रीब परिवारों के बारे में पूछा गया जिनके पास राशन कार्ड नहीं है तो युसुफ इसके लिए केंद्र सरकार की ही नीति को इसके पीछे की वजह बताते है. युसुफ कहते है कि केंद्र सरकार ने दिल्ली के लिए चार लाख नौ हज़ार राशन कार्ड का ही कोटा बनाया है और हम जानते है कि दिल्ली में ग़रीब परिवारों की संख्या इससे कहीं ज़्यादा है, फिर भी हम कुछ नहीं कर सकते जब तक कि इस कोटे को केंद्र सरकार नहीं बढाती है.
जिन लोगों के जिस तरह के राशनकार्ड बनने चाहिए, वे नहीं बन रहे हैं. दरअसल, लोगों की पहचान ही ग़लत तरीक़े से की जा रही है. बीपीएल कार्ड ग़रीबों को नहीं मिलता. ग़लत सूचना देकर ग़रीबी रेखा से ऊपर के लोग बीपीएल कार्ड बनवा लेते हैं.
बी एल जोशी, एनसीआरडीडी, दिल्ली.
प्रख्यात अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने भी कहा है कि भारत के लोग भूख की वजह से नहीं, बल्कि इसलिए मरते हैं, क्योंकि भारतीय नौकरशाही व्यवस्था में मानवीय गरिमा का कोई महत्व नहीं है. साथ ही नेताओं के पास वह राजनीतिक इच्छाशक्तिभी नहीं है, जिससे जन वितरण प्रणाली को मज़बूत बनाया जा सके.
दिलवालों की दिल्‍ली में ऐसे जीते हैं गरीब
पूर्वी दिल्ली की एक अनाधिकृत कॉलोनी है हर्ष विहार. रजनी एवं उसके पति राधेश्याम अपने तीन बच्चों के साथ एक कमरे के मकान में रहते हैं. राधेश्याम की मासिक आय तीन हज़ार रुपये है और रजनी की एक हज़ार रुपये. यानी परिवार की कुल कमाई चार हज़ार रुपये महीना है. खाने पर 1500 रुपये, बिजली पर 350 रुपये, रसोई गैस पर 500 रुपये, दवाइयों पर 100 रुपये और तंबाकू आदि पर 60 रुपये ख़र्च हो जाते हैं. पांच लोगों के इस परिवार में रोजाना 250 ग्राम दूध आता है, ताकि दो व़क्त की चाय बन सके. इसमें भी महीने के 180 रुपये चले जाते हैं. रजनी दो साल पहले गांव से आते व़क्त दो किलो दाल लेकर आई थी. वह दाल अभी तक बची हुई है. पिछले दो महीने से घर में दाल नहीं बनी. यह परिवार एपीएल कार्डधारक है. महीने में पांच किलो चावल (9 रुपये प्रति किलो) और 10 किलो गेहूं (7 रुपये प्रति किलो) मिलता है. रजनी को हर महीने खुले बाज़ार से गेहूं और चावल ख़रीदना पड़ता है. स्थिर आय और बढ़ती महंगाई के चलते इस परिवार को अपना बजट संतुलित रखने के लिए खाद्य सामग्री में कटौती करनी पड़ रही है.
सीता देवी अपने दो बच्चों, पति और देवर के साथ इसी इलाक़े में रहती हैं. पति और देवर की मासिक आय 1500 रुपये है. सीता शादियों-समारोहों में बर्तन धोकर महीने भर में 1500 रुपये कमा लेती हैं. पति शराबी है. वह अपनी कमाई शराब पर ख़र्च करने के बाद सीता से भी ज़बरदस्ती पैसा मांगता है. सीता के पास भी एपीएल राशनकार्ड है. राशन दुकान से जितना भी अनाज मिलता है, उसके अलावा सीता को खुदरा बाज़ार से हर महीने पांच किलो चावल और 40 किलो गेहूं ख़रीदना पड़ता है. घर में कभी भी दाल नहीं बनती. कभीकभार शादी-समारोह से लाई गई  सब्जी ही बच्चे खा पाते हैं. घर के सदस्य जो कपड़े पहनते हैं, वे दान के हैं. ज़रा सोचिए, महंगाई की मार से ऐसे परिवार ख़ुद को कैसे बचा पाते होंगे?
खजूरी की झुग्गी-झोपड़ी में रेहड़ी पर चार भाई मिलकर समोसे और जलेबी बेचते हैं. पहले महीने की कमाई थी 40 हजार रुपये. महंगाई बढ़ी, आलू के दाम बढ़ गए, फिर भी वे एक समोसा 5 रुपये का ही बेचते हैं. वजह, दाम बढ़ाने या साइज़ घटाने पर बिक्री कम होने की आशंका है. ज़ाहिर है, आमदनी घट गई. नतीजतन, महंगाई बढ़ने से एक तो परिवार की आमदनी घटी, दूसरी ओर अपनी ज़रूरतें भी कम करनी पड़ रही हैं.

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