रविवार, 30 अगस्त 2015

दुनिया की 12 ऐसी अजीबोगरीब अनसुलझी गुत्थियां


June 5, 2015

दुनिया की 12 ऐसी अजीबोगरीब गुत्थियां जिन्हें आज तक कोई नहीं सुलझा सका है






गुरुवार, 27 अगस्त 2015

घुरेही और डंडारस , घुरेही नृत्य

14 April · Edited · ·
घुरेही


प्रस्तुत- हुमरा असद
 
गद्दी जनजाति के मनमोहक नृत्य , घुरेही और डंडारस , घुरेही नृत्य में सिर्फ महिलाएं नाचती हैं और डंडारस में सिर्फ पुरुष , घुरेही को डन्गी भी कहते हैं जबकि डंडारस नृत्य ताल पर आधारित है , घुरेही नृत्य में नाचने वाली महिलाएं साथ -साथ गाती भी हैं ,
गद्धी लोग हर वर्ष सर्दियों में अपने मूल स्थान भरमौर ( गद्धेरण ) से काँगड़ा (जांदर) आदि निचले क्षेत्रों में उतर आते हैं चैत्र महीने में महारानी सूही की बलिदान स्मृति में मनाये जाने वाले मेले के अवसर पर ये लोग चम्बा पहुँच जाते हैं , गद्धी महिलाएं सूही मेले में घुरेही नृत्य करती हैं यूँ कह सकते हैं अपने घर में पुनः प्रवेश के उल्लास में किये जाने वाले इस नृत्य का आधार गृह प्रवेश है
गृह प्रवेश शब्द ही गृह प्रवेशी के रूप में घुरेही बन गया , एक मान्यता यूँ भी है कि इस नृत्य में महिलाओं की घूर्ण प्रक्रिया अर्थात नृत्य में गोल चक्कर लगाने का आकर्षक एवं विशिष्ठ प्रकार का होता है , घूर्ण शब्द में “ई” प्रत्यय के योग से घूर्णायी और बाद में ध्व्न्यान्तर से घुरेही या घुरेई शब्द बना , एक अन्य मान्यता जो भी घुरेही शब्द की उत्पति को दर्शाती है कि ये नृत्य महिलाएं अपने घर यानि अपनी क्षेत्रीय परिधियों में करती हैं इसलिए “ घरे री” घरेई और फिर घुरेही बन गया , घुरेही नृत्य में गद्धी महिलाएं लुआन्चडी और उसके अंदर कमीज , पाजामी और सर पर चादरु पहनती हैं , चौक , लॉन्ग , डोडमाला , टीका ,कर्णफूल इनके प्रमुख आभूषण होते हैं , वास्तव में घुरेही नृत्य घुरेही गीत की लय के आधार पर बिना वाद्य यंत्रो के होता था लेकिन अब इसमें नगाड़ा , शहनाई तथा ढोल भी प्रयोग किया जाता है ,
चम्बा नगर के पीछे शाह मदार की पहाड़ी के बीच रानी सूही (सुनयना) के मंदिर स्थल पर मनाये जाने वाले मेले में महिलाएं पारम्परिक चम्बियाली वेशभूषा में घुरेही नृत्य करती हैं मेले की आखरी रात “सुकरात “ के नाम से जानी जाती है जनश्रुति के अनुसार सुकरात का मतलब सुख की रात या शोक की रात बतलाया जाता है अधिक सम्भावना यही है कि “सुकरात” शोक रात का ही परिवर्तित रूप है , “श” का “ स” में परिवर्तन होना चम्बियाली की सामान्य प्रवृति है , इसके अलावा “उ” स्वर के “ओ” में परिवर्तित होने पर “शोकरात” का सुकरात बना है सुकरात में प्रचलित लोकगीत की पंक्तियों से भी यह शोक की रात ही प्रतीत होती दिखती है लगभग हज़ार वर्ष पहले रानी सुनयना का प्रजा की पेयजल समस्या को दूर करने के लिए दिए गए बलिदान के बाद यूँ भी कह सकते हैं कि रानी सुनयना के बलिदान के दिन के बाद से प्रजा को पानी का तो मिल गया जो कि सुख का विषय रहा लेकिन ऐसी रानी जिसने प्रजा के लिए अपना बलिदान तक दे दिया ऐसी रानी को खो देना यकीनन शोक की बात कही जा सकती है
सुकरात कुडियो चिडियों , सुकरात देवी रे देहरे हो
ठंडा पाणी किहाँ करी पीणा हो ,तेरे नैणा हेरी-हेरी जीणा हो,
सुकरात कुडियो चिडियों , सुकरात नौणा पणीहारे हो
ठंडा पाणी किहाँ करी पीणा हो ,तेरे नैणा हेरी-हेरी जीणा हो,
सुकरात कुडियो चिडियों , सुकरात राजे दे बेह्ड़े हो
ठंडा पाणी किहाँ करी पीणा हो ,तेरे नैणा हेरी-हेरी जीणा हो,
रंग लाल कुडुआ तेरा हो रंग लाल चिडआ तेरा हो
ठंडा पाणी किहाँ करी पीणा हो ,तेरे नैणा हेरी-हेरी जीणा हो,
हर वर्ष चैत्र माह के अंतिम दिन चम्बा के साथ शाह मदार की पहाड़ी पर सूही मंदिर में उक्त पंक्तियाँ स्वरबद्ध हो जब चम्बा की हवाओं में गूंजती हैं तो समस्त वातावरण रानी सुनयना के चम्बा नगर की जल आपूर्ति के लिए दिए बलिदान को याद करते हुए करुणामय हो उठता है
गीत संगीत में गद्दी जनजाति किसी से भी पीछे नहीं रही है , यहाँ के लोकगीत जनमानस के जीवन के हर पहलू को सपर्श करते हैं , इनसे निकली अभिव्यक्ति बहुत ही हृदयग्राही होती है
“ पठरा बठोरेया हेडिया सिकारिया
ऐसा हरणी जो मत मारे हो “
यानि कि हिरणी के शिकार के लिए घात लगाये बैठे शिकारी इस हिरणी को मत मारना इस हिरणी का मांस खाना निषेध है क्यूंकि इसका पैर भारी है अर्थात ये गर्भ से है ,
इस प्रकार अनेक लोक गीत घुरेही नृत्य के साथ –साथ गाये जाते हैं जैसे “ आया बसोआ माये लगियां सूहीयाँ , सुकरात कुडियो चिडियों , गुडक चमक भहुआ मेघा हो ,
photo -Pooja Sharma
साभार –विद्याचंद ठाकुर , नरेंदर अरुण (सुनयना)

हनुमानजी से नाराज है महिलाएं




हनुमानजी की इस गलती की सजा आजतक 

भुगत रही हैं इस गांव की महिलाएं 

प्रस्तुति- राजेश सिन्हा 

उत्तराखण्ड के चमोली जिले का द्रोणागिरी गांव 14000 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित है. इस दुर्गम गांव में सभी भगवान की पूजा होती है शिवाय एक के. ये हैं हमारे सीधे-साधे, भोले-भाले बजरंग बली. संजीवनी बूटी वाला पर्वत उठाकर ले जाने के लिए हनुमानजी वानर सेना और भगवान श्रीराम की नजरों में तो हीरो बन गए लेकिन इस गांव के लोग उनसे नाराज हो गए.


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द्रोणागिरी के लोग आजतक हनुमानजी को उनके इस गलती के लिए माफ नहीं कर पाए हैं. दरअसल हनुमान जी मुर्छित लक्ष्मण के उपचार के लिए जिस पहाड़ को उठा ले गए थे यहां के लोग उस पहाड़ की पूजा किया करते थे. इस गांव में हनुमान जी की नाराजगी का यह आलम है कि इस गांव में हनुमानजी का प्रतीक लाल झंडा भी लगाने की मनाही है.



रामायण से जुड़ी इस घटना को लेकर द्रोणागिरी के निवासी यह कहानी सुनाते हैं-
जब हनुमान जी संजीवनी बूटी खोजते हुए इस गांव में पहुंचे तो वे चारों तरफ पहाड़ देखकर भ्रम में पड़ गए. वे तय नहीं कर पा रहे थे कि संजीवनी बूटी किस पहाड़ पर हो सकती है. उन्होंने गांव के एक वृद्ध महिला से संजीवनी बूटी का पता पूछा. वृद्धा ने एक पहाड़ की तरफ इशारा किया. हनुमान जी उड़कर इस पहाड़ पर पहुंचे लेकिन यहां पहुंचकर भी वे तय नहीं कर पाए कि संजीवनी बूटी कौन सी है.

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असमंजस की स्थिति में बजरंगबली पूरा का पूरा पहाड़ ही उठाकर उड़ चले. दूर लंका में मेघनाद के शक्ति बाण का चोट खाकर लक्ष्मण मुर्छित पड़े थे. राम विलाप कर रहे थे और पूरी वानर सेना मायूस थी. जब हनुमान पहाड़ उठाए रणभूमि में पहुंचे तो सारी वानर सेना में उत्साह की लहर दौड़ पड़ी. पूरी वानर सेना में हनुमानजी की जयजयकार होने लगी. सुषेण वैद्य ने तुरंत औषधियों से भरे उस पहाड़ से संजीवनी बूटी को चुनकर लक्ष्मण का इलाज किया जिसके बाद लक्ष्मण को होश आ गया.


लेकिन लंका से दूर उत्तराखण्ड के इस गांव के निवासियों को हनुमान जी का यह कार्य नागवार गुजरा. यहां के लोगों में नाराजगी इस कदर थी कि उन्होंने उस वृद्ध महिला का भी सामाजिक बहिष्कार कर दिया जिसकी मदद से हनुमानजी उस पहाड़ तक पहुंचे थे. लेकिन उस वृद्ध महिला कि गलती की सजा आजतक इस गांव की महिलाओं को भी भुगतना पड़ता है.

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इस गांव में आराध्य देव पर्वत की विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है. इस दिन यहां के पुरूष महिलाओं के हाथ का दिया भोजन नहीं खाते. यहां कि महिलाओं ने भी इस बहिष्कार के प्रतिकार का तरीका ढ़ूढ लिया है. वे इस विशेष पूजा में ज्यादा रूची नहीं दिखाती हैं. Next…
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दुनिया भर में वेश्यावृति यानि देह व्यापार सदियों से चलता आ रहा है हालांकि कई जगहों पर यह गैर-कानूनी हैं तो कहीं कानूनी। भारत में भी ऐसी बहुत सारी जगहें ऐसी हैं जहां आज भी देह-व्यापार के जरिए ही रोटी का इंतजाम हो रहा है। वहां पर यह काम आय का एकमात्र साधन है। इन जगहों पर सदियों से इस काम की परंपरा चल रही हैं, जिसका विरोध करना मुश्किल हैं। 
चलिए भारत की कुछ ऐसी ही जगहें के बारे मेंः-
1. नटपुरवाः उत्तरप्रदेश
उत्तर प्रदेश के इस गांव में नेट जाति के लोगों का निवास है। पिछले 400 सालों से 5000 गांवों में यहा जिस्मफिरोशी की परंपरा चलती आ रही है। यहां बच्चे अपनी मां के साथ रहते हैं लेकिन किसी को अपने बाप का नाम नहीं पता। शिक्षा के बाद भी यहां यह परंपरा नहीं टूटी।
2. देवदासीः कर्नाटक
कर्नाटक की देवदासी प्रथा भी कुछ ऐसी ही है। बचपन में लड़कियों को देवी बनाकर शादी कर दी जाती थी।बाद में उन्हें वेश्या बना दिया जाता है जो मर्दों की सेवा करती है। इनके बदले में लड़की के घर वालों को पैसा दिया जाता है। 
3. वाडिया, गुजरात
यहां पर सदियों से देहव्यापार को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। लड़कियों इस काम में जाकर अपने परिवार का समर्थन करती आई है। पुरुष यहां पर दलालों का काम करते हैं शिक्षा और समय बीतने के बाद भी यहां कोई बदलाव नहीं आया। 
4. मध्यप्रदेश की बेचारा जनजाति
यहां पर जिस्मफिरोशी का धंधा सदियों से चल रहा है। पिता और भाई मिल कर बड़ी बेटी को इस काम में उतार देते हैं। लड़कियां चाहकर भी इसे न नहीं कर सकती क्योंकि उनके घर को पालने का जिम्मा उन पर होता हैं।

देह व्यापार वाडियाः जहां सजती है देह की मंडी

 

 

 

गुजरात रात का वाडियाः जहां सजती है देह की मंडी

  • 19 मार्च 2014







बीते 80 सालों से भी ज़्यादा अरसे से ये रिवाज गुजरात के इस गाँव में बदस्तूर जारी है. इस गाँव में पैदा होने वाली लड़कियां वेश्यावृत्ति के धंधे को अपनाने के लिए एक तरह से अभिशप्त हैं.
तक़रीबन 600 लोगों की आबादी वाले इस गाँव की लड़कियों के लिए देह व्यापार के पेशे में उतरना एक अलिखित नियम सा बन गया है. यह गुजरात के बांसकांठा ज़िले का वाडिया गाँव है. इसे यौनकर्मियों के गाँव के तौर पर जाना जाता है. इस गाँव में पानी का कोई कनेक्शन नहीं है, कुछ ही घरों में बिजली की सुविधा है, स्कूल, बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएँ और सड़कें तक नहीं हैं.
(महिलाओं से अभद्र व्यवहार)
साफ़ सफ़ाई जैसी कोई चीज़ इस गाँव में नहीं दिखाई देती लेकिन ये वो विकास नहीं हैं, जो इस गाँव की औरतें चाहती हैं. वे ऐसी ज़िंदगी की तलबगार हैं जिसमें उन्हें किसी दलाल या ख़रीदार की ज़रूरत न पड़े. वाडिया की औरतों का उस भारत से कोई जुड़ाव नहीं दिखाई देता जिसने हाल की मंगल के लिए एक उपग्रह छोड़ा है.
भारत के विकास की कहानी का इन औरतों के लिए केवल एक ही मतलब है कि अब उनके ज़्यादातर ग्राहक कारों में आते हैं. पिछले साठ सालों से वे यही ज़िदगी जी रही हैं.

तवायफ़ों का गाँव




गुजरात की राजधानी गाँधीनगर से क़रीब 250 किलोमीटर की दूरी पर स्थित ये वाडिया गाँव बीते कई दशकों से देह व्यापार से जुड़ा हुआ है. गाँव के ज़्यादातर मर्द दलाली करने लगे हैं और कई बार उन्हें अपने परिवार की औरतों के लिए खुलेआम ग्राहकों को फंसाते हुए देखा जा सकता है. इस गाँव के बाशिंदे ज़्यादातर यायावर जनजाति के हैं. इन्हें सरनिया जनजाति कहा जाता है. (सेक्स के लिए पैसा देना अपराध)
माना जाता है कि ये राजस्थान से गुजरात आए थे. सनीबेन भी इस सरनिया जनजाति की हैं. उनकी उम्र कोई 55 साल की होगी और अब वह यौनकर्मी नहीं है. पड़ोस के गांव में छोटे-मोटे काम करके वह अपना गुजारा करती हैं. वह कहती हैं, "मैं तब दस बरस की रही होउंगी जब यौनकर्मी बनी थी. ख़राब स्वास्थ्य और ढलती उम्र की वजह से मैंने यह पेशा अब छोड़ दिया है."
सनीबेन की तरह ही सोनीबेन ने भी उम्र ढल जाने के बाद यह पेशा छोड़ दिया. उन्होंने कहा, "मैं 40 बरस तक सेक्स वर्कर रही. अब मेरी उम्र हो गई है और गुज़ारा करना मुश्किल होता जा रहा है." सनीबेन और सोनीबोन दोनों ही ये कहती हैं कि उनकी माँ और यहाँ तक कि उनकी माँ की माँ ने भी शादी नहीं की थी और इसी पेशे में थीं.

गर्भ निरोध




सोनीबेन कहती हैं, "वाडिया में कई ऐसे घर थे और अब भी हैं, जहाँ माँ, माँ की माँ और बेटी तीनों के ही ग्राहक एक ही घर में एक ही वक़्त में आते हैं." उन्होंने बताया, "हमारे दिनों में बच्चा गिराना आसान काम नहीं था. इसलिए ज़्यादातर लड़कियों को 11 बरस की उम्र होते-होते बच्चे हो जाते थे लेकिन अब औरतें बिना किसी हिचक के गर्भ निरोधक गोलियाँ लेती हैं और बच्चा गिरवाती भी हैं." (सेक्स जिहाद, कितना सच, कितना झूठ)
हालांकि सोनीबेन का कहना है, "वाडिया की औरतों के लिए यौनकर्मी बनने के अलावा कोई और उपाय नहीं रहता है. उन्हें कोई काम भी नहीं देता है. अगर कोई काम दे भी देता है तो वह सोचता है कि हम उसे काम के बदले ख़ुद को सौंप देंगे."
रमेशभाई सरनिया की उम्र 40 साल है और वह वाडिया में किराने की एक दुकान चलाते हैं. रमेशभाई के विस्तृत परिवार के कुछ लोग देह व्यापार के पेशे से जुड़े हुए हैं लेकिन उन्होंने ख़ुद को इस पेशे से बाहर कर लिया. रमेशभाई ने किसी अन्य गाँव की एक आदिवासी लड़की से शादी भी की.

स्कूल नहीं




रमेशभाई कहते हैं, "वाडिया एक प्रतिबंधित नाम है. इस गाँव के बाहर हम में से ज़्यादातर लोग कभी यह नहीं कहते कि हम वाडिया से हैं नहीं तो लोग हमें नीची नज़र से देखेंगे. अगर आज कोई औरत अपने बच्चों ख़ासकर बेटियों की बेहतर ज़िंदगी की ख़्वाहिश रखती भी हैं तो उसके पास कोई विकल्प नहीं होता है." (दीवानगी में बेच दिया बच्चा!)
वह बताते हैं, "वहाँ शादी जैसी कोई परंपरा नहीं है. कोई अपने बाप का नाम नहीं जानता. ज़्यादातर लड़कियों का जन्म ही सेक्स वर्कर बनने के लिए होता है और मर्द दलाल बन जाते हैं. वाडिया के किसी बाशिंदे को कोई नौकरी तक नहीं देता है." रमेशभाई की तीन बेटियाँ और दो बेटे हैं. उन्होंने अपने बड़े बेटे को स्कूल भेजा लेकिन बेटियों को नहीं.
उनका कहना है, "कुछ गिने चुने परिवारों ने यह तय किया कि वे अपनी बेटियों को देह व्यापार में नहीं जाने देंगे. वे कभी भी अपनी बेटियों को नज़र से दूर नहीं करते, यहाँ तक कि स्कूल भी नहीं भेजते. गाँव में सक्रिय दलालों से ख़तरे की भी आशंका रहती है. सुरक्षा कारणों से मैं अपनी बेटियों को स्कूल तक जाने की इजाज़त नहीं दे सकता. वे केवल शादी के बाद ही घर से बाहर जा पाएंगी."

अग़वा का डर




रमेशभाई को हाल ही में नया गुर्दा लगाया गया है. उनकी पत्नी ने उन्हें किडनी दी है. रमेशभाई की तरह ही वाडिया गाँव में 13 से 15 परिवार ऐसे हैं जो कि देह व्यापार के पेशे में अपनी बेटियों को नहीं भेजते हैं. हालांकि गाँव की कई लड़कियों ने प्राइमरी स्कूल तक की तालीम हासिल की है लेकिन वाडिया में ऐसी कोई भी लड़की नहीं है जिसने छठी के बाद स्कूल देखा हो. (यौन शोषण पर खामोशी क्यों?)
क्योंकि कोई भी माँ-बाप अपनी बेटी को गाँव के बाहर इस डर से नहीं भेजना चाहते हैं कि कहीं दलाल उनकी बेटी को अग़वा न कर ले. ऐसा लगता है कि जैसे वाडिया को किसी की परवाह नहीं है. वाडिया की यौनकर्मियों के ख़रीदार समाज के सभी वर्गों से आते हैं. इनमें मुंबई से लेकर अहमदाबाद तक के कारोबारी हैं, पास के गाँवों के ज़मींदार हैं तो राजनेता भी और सरकारी अफ़सर भी.
वाडिया गाँव का ये पेशा राज्य सरकार की नाक के नीचे फलता फूलता रहा है. इस गाँव में एक पुलिस चौकी भी है लेकिन कोई पुलिसकर्मी शायद ही कभी यहाँ दिखाई देता है. हालांकि कुछ ग़ैर सरकारी संगठनों के अलावा शायद ही किसी ने वाडिया और उसकी औरतों के लिए सहानुभूति दिखाई हो.

सामाजिक समस्या




बांसकांठा के पुलिस अधीक्षक अशोक कुमार यादव कहते हैं, "जब भी हमें ये ख़बर मिली कि गाँव में कोई देह व्यापार कर रहा है तो हमने वहाँ छापा मारा. लेकिन इसके बावजूद हम वहाँ वेश्यावृत्ति को पूरी तरह से नहीं रोक पाए हैं क्योंकि यह एक सामाजिक समस्या है. ज़्यादातर परिवार अपनी लड़कियों को इस पेशे में भेजते रहे हैं." (जहाँ वेश्यालय चलता था)
हालांकि स्थानीय लोगों का कहना है कि पुलिस की निगरानी बढ़ी है लेकिन दलालों और मानव तस्करों पर लगाम नहीं लगाई गई है. स्थानीय लोग बताते हैं कि ज़्यादातर गाँव वालों को पता होता है कि पुलिस कब आने वाली है और इन छापों का कोई नतीजा नहीं निकलता.
देह व्यापार में कमी के दावों को ख़ारिज करते हुए पड़ोस के गाँव में अस्पताल चलाने वाले एक डॉक्टर बताते हैं कि उनके पास कम उम्र की कई ऐसी लड़कियाँ और औरतें गर्भपात करवाने या फिर गुप्तांगों पर आई चोट की तकलीफ का निदान करवाने आती हैं. डॉक्टर ने अपना नाम न ज़ाहिर करने की शर्त पर बताया कि उसने किशोर उम्र की लड़कियों को गर्भपात कराने में मदद की है.

लिंग परीक्षण








वह कहते हैं, "गर्भपात के लिए आई कई लड़कियों की हालत बेहद नाज़ुक होती हैं क्योंकि वे गर्भ ठहर जाने के बाद भी यौन संबंध बनाती रहती हैं. मैं जानता हूँ कि जो मैं कर रहा हूँ वो अनैतिक है लेकिन इस गाँव में कई लड़कियाँ डॉक्टरी इलाज के अभाव में मर जाती हैं."डॉक्टर ने बताया कि दलाल कई बार इस बात पर ज़ोर देते हैं और कई बार तो धमकाते भी हैं कि मैं बच्चे के लिंग की जाँच करूं और अगर वो बेटी हो तो उसका गर्भपात न किया जाए.
उन्होंने कहा, "वे ये नहीं समझते कि एक 11 साल की लड़की बच्चे को जन्म नहीं दे सकती लेकिन उनके लिए एक लड़की आमदनी का केवल एक ज़रिया भर होती है. इसलिए मैं गर्भ में पल रहे बच्चे के लिंग के बारे में बता देता हूँ."
देह व्यापार से जुड़ी औरतों के लिए काम करने वाले ग़ैर सरकारी संगठन 'विचर्त समुदाय समर्पण मंच' से जुड़ी मितल पटेल कहती हैं कि किसी भी सरकारी एजेंसी ने वाडिया गाँव के लोगों के लिए सहानुभूति नहीं रखी. मुझे लगता है कि यह उनके हित में है कि वाडिया के लोगों के हालात वैसे ही बने रहें.
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