सोमवार, 19 सितंबर 2011

जनता कंगाल और नेता मालामाल/ / यही है मनजी (mms) का कमाल

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मनमोहन सरकार की शानदार आर्थिक  नीतियों का कमाल
सुरेश  शर्मा
सरकार ने एक बार फिर आम आदमी पर दोहरा शिकंजा कस दिया है I  पेट्रोल के दाम 3 .14  रुपये बढ़ा कर जहाँ सरकार ने मंहगाई को हवा दी है वहीँ ब्याज दरों में वृद्धि से उद्योग – व्यापार जगत के साथ मध्य वर्ग का भी कचूमर निकल दिया है l पिछली बार लगभग 4 माह पूर्व पेट्रोल के दाम एक मुश्त 5 रुपये लीटर बढ़ाते समय सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों में तेल मूल्यों में बढ़त का बहाना बनाया था तो इस बार रुपये की कमजोरी बता कर जनता का गला काट दिया गया l जिन लोगों ने वाहन या मकान के लिए बैंक क़र्ज़ लिया हुआ है उनकी हालत बढती ब्याज दरों ने पिछले दो सालों में खोखली कर दी है और रोज़मर्रा के इस्तेमाल की वस्तुओं तथा खाने-पीने की चीज़ों की निरंतर मंहगाई से आम आदमी का जीना हराम हो गया है l 2009 की तुलना में दूध,सब्जी,चीनी,पिसे मसाले ,अनाज तथा चावल-दालों के भावों में 35 से 40 फीसदी की वृद्धि से जहाँ जनता के लिए मुश्किलें हो रही है वहीँ सरकार के मंत्रियों की संपत्ति में जबरदस्त वृद्धि हुई है,यह सरकार की चमत्कारी आर्थिक नीतियों का ही परिणाम है l
पेट्रोल मूल्य वृद्धि से रोज़मर्रा की जरूरतों के सामानों के मूल्यों में भी वृद्धि होगी ही l हमारी लोकप्रिय सरकार आम जनता के लिए एक वर्ष में 6 रसोई गैस सिलेंडर का कोटा फिक्स करने की भी योजना बना रही है l कितनी  मूर्खता पूर्ण सोच है सत्ताधारियों की यानि ये अपने देश की संयुक्त परिवार प्रथा तक को भुला बैठे l कुछ नहीं मेरा मत है की सरकार आम जन को विद्रोह के लिए भड़का रही है और अपनी करनी से इतना त्रस्त कर देना चाहती है की आम जन सड़क पर उतर कर बगावत करने को मजबूर हो l
यहाँ यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि अन्ना के आन्दोलन की सफलता का राज आम जन का सरकार के प्रति विरोध था जो सड़कों पर उबाल की शक्ल ले रहा था i यदि आम जन के हित की नीतियों की और सरकार ने सोचा होता तो क्या इतनी जनता को अपने साथ जोड़ने में अन्ना कामयाब होते ? वस्तुतः अन्ना को शायद आगे आना ही नहीं पड़ता l
यह सब राजनैतिक दूरदर्शिता का आभाव है l सरकार चला रहे लोग लोगों के दिमाग से राजनैतिक वंश वाद को खत्म करना चाहते है और इसी योजना के तहत वे गाँधी परिवार की इतनी अधिक दुर्गति कर देंगे कि इनके नाम से वोट मिलना तो दूर नाम सुनना भी पसंद नहीं करेंगे l सोनिया गाँधी भारतीय राजनीति के माहौल को संभवतः अभी तक समझ नहीं पाई है l राहुल जैसे युवा संसद में लिखा हुआ भाषण पढ़ते है अतः यहाँ भी अधिक उम्मीद का वातावरण बनता नहीं दिखाई देता i जो कुछ सरकार कर रही है उसका परिणाम आम जन को भोगना ही होगा परन्तु अब यह अवश्य कहा जाना चाहिए कि कोंग्रेस का हाथ अपने मंत्रियों और उद्योगपतियों के साथ

शनिवार, 17 सितंबर 2011

भारत गाथा:





एक नई सुबह में सांस लेता आजाद भारत,

हिमालय हो जिसका मस्तक,
गंगा जिसकी हो हृदय स्थल,
सागर करता हो जिसकी चरण वंदन,
आओ करे मिल हम सब इसका अभिनंदन,
रक्षा करनी है हम सबको इसकी गरिमा इसका कण-कण।।

वीरों का बलिदान:

याद रहे अनमोल समर्पण, उन वीरों का,
जिनके कारण आसमान में सूर्य उदय है,
अस्त नहीं होने पाए ये नभ से,
नीर नहीं उन मातृ-भक्तों का खून बहा है,
आजादी के परवानों ने क्या खूब जिगर दिखलाई है
अब बारी है हम सबकी,संकट की घड़ी फिर आई है,
रक्षा करनी है हम सबको इसकी गरिमा इसका कण-कण ।।

आम जनता की बेरुखी और स्वार्थ:

माना व्यस्त है जीवन का हर पल,
बड़ा कठिन है राह मगर चलना है संभलकर,
दुनियां की बेहोशी में हम भी बदले हैं,
अर्थ बनाने के चक्कर में उलझ गए हैं,
अपने ही अब लूट रहे हैं घर की अस्मत,
बाहर वाले आएंगे तो तुम क्या मुंह दिखाओगे?
अब बारी है हम सबकी,संकट की घड़ी फिर आई है,
रक्षा करनी है हम सबको इसकी गरिमा इसका कण-कण ।।


छत्रपति अंकुर

खबरों की खबर


 

 

 

आत्‍महत्‍याओं का शहर बनता जा रहा है लखनऊ

आशुतोष कुमार सिंह
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उत्तरप्रदेश की राजनीतिक राजधानी होने के नाते राजनीतिक कारणों से से लखनऊ चर्चा में बना ही रहता है। पिछले एक महीने से सूबे में बढ़ते अपराध ने राजकीय और राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान अपने तरफ खींचा है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से, मुस्कुराने वाला लखनऊ टेंशन में जी रहा है। इसकी तरफ शायद ही किसी राजकीय अथवा राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान गया है। इसकी एक बानगी पिछले शनिवार (9, जुलाई, 2011) को देखने को मिली जब बीए प्रथम वर्ष का छात्र अनुभव गुप्ता ने शहर के रतन स्कावयर बिल्डिंग से छलांग लगाकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली। अपने जीवन को यमराज को सौंपने के पूर्व उसने ग्यारह पन्ने का सुसाइड नोट लिखा। अपने मौत के नाम इतना लंबा खत, अनुभव गुप्ता की जिंदगी का अनुभव कितना बुरा रहा होगा इसको बयां करने के लिये पर्याप्त है।
लखनऊ वाले अवसाद में जी रहे हैं, यह बात कहने की हिमाकत मैं इसीलिए कर पा रहा हूं क्योंकि इस बावत मैंने प्रयोग के तौर पर एक छोटा सा रिसर्च किया है। जिसमें मैंने पिछले महीने की 15 तारीख से लेकर 30 तारीख तक के दैनिक अखबारों में से किसी भी पांच दिन का अखबार निकाल कर उसमें छपे आत्महत्याओं से जुड़ी खबरों का अध्ययन किया इस अधययन में चौकाने वाले परिणाम सामने आए। इन पांच दिनों के अखबार में केवल लखनऊ शहर से 13 आत्महत्याओं की खबर प्रकाशित की गई थी। जिसमें तीन आत्महत्याएं पत्नी के मायके जाने के कारण, एक पति से विवाद के कारण, दो पत्नी से विवाद के कारण, एक दहेज प्रताड़ना के कारण और छह अज्ञात कारणों से की गई थी।

15 जून को चार लोगों की आत्महत्या की खबर प्रकाशित हुई। फतेहगंज मंडी का रहने वाला 50 वर्षीय मुन्ना लाल वाल्मिकी ने पत्नी के मायके चले जाने के कारण मौत को गले लगा लिया। ठीक इसी तरह 22 साल का यहियागंज निवासी शैलेंद्र कुमार ने भी पत्नी अंजली के मायके चले जाने के कारण यमराज को न्योता दे दिया। अभी इनकी शादी के महज सात महीने ही गुजरे थे। इसी दिन मड़ियाव सरैया टोला निवासी 45 वर्षीय रवींद्र चौहान जो कि राज मिस्त्री था, ने भी खुदकुशी कर खुद को खुद से मुक्त कर लिया। इसी तरह दहेज प्रताड़ना से परेशान होकर शादी के तीन महीने में ही रजनी (22) ने अपनी देहलीला समाप्त कर लिया। 19 जून को शहर से खुदकुशी का एक मामला प्रकाशित हुआ। मड़ियाव के आईईसी कैंपस में रहने वाले राजीव कुमार का पुत्र पुरवा वर्मा जो कि अभी महज 15 साल का था और नवीं कक्षा में पढ़ता था, ने आत्महत्या कर लिया।

20 जून को नवीपना गांव के रहने वाले ननकू लाल का पुत्र नीरज(25) ने पत्नी से विवाद के कारण आत्महत्या कर ली तो दूसरी तरफ राजाजीपुरम सेक्टर-12 निवासी गजराज (32) जो कि प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा था, अपने जीवन का कंपटीशन पास नहीं कर सका। 21 जून को बंथरा नारायणपुर की ललिता अपने पति नीरज के मारपीट से तंग आकर खुद को यमराज के हवाले कर दिया। इसी दिन अलीगंज के मूक व बधिर संकूल परिसर में 50 साल का एक गार्ड शिवपाल ने मौत को गले लगा लिया। 29 जून को चार खुदकुशी के मामले प्रकाशित हुए। कृष्णानगर निवासी कैलाश, बिजली विभाग से रिटायर हो चुके 70 वर्षीय नरेंद्र प्रसाद, मोहन लाल कि नातिन विशेष गुप्ता (18) और गोमती नगर विवेक खंड निवासी संतोष कुमार (35) ने भी मौत से दोस्ती करने में ही अपनी भलाई समझी।

ऊपर जितनी घटनाओं का मैंने जिक्र किया यह तो महज बानगी मात्र है। वास्तविक स्थिति तो और भयावह होगी। ऊपर की तस्वीर देखकर यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि किस कदर लखनऊ अवसाद के गिरफ्त में आता जा रहा है। किस कदर मौत से दोस्ती गांठ रहा है। जिस तरह से आदमी का अपने जीवन के संघर्षों से मोह भंग हो रहा है, वह सामाजिक परिवेश में हो रहे नकारात्मक बदलाव की ओर इशारा कर रहा है। धैर्य कमजोर हुआ है। साहस गुम होता जा रहा है। प्यार, स्वार्थ होता जा रहा है। वैसे भी यह सर्वविदित है कि जहां स्वार्थ परम हो जाता है वहां पर रिश्तों की कोई अहमियत नहीं रह जाती। कल तक संयुक्त परिवार के टूटने पर हम मातम मना रहे थे और आज एकल परिवार भी टूटने लगे हैं। क्यों ? इस क्यों के जवाब में बदलते सामाजिक परिवेश की कहानी छुपी हुई है।

दूसरों को मुस्कुराने की नसीहत देने वाला लखनऊ आज अवसाद में है। इस अवसाद को देखने समझने वाला कोई नहीं है। पूरे धरती को अपने माथे पर उठाने वाले शेषनाग के अवतार लक्ष्मण की इस नगरी में उनके नागरिक अपना बोझ नहीं उठा पा रहे है! 15 साल के बच्चे से लेकर 70 साल के बुजुर्ग तक, सब के सब मौत को अपना यार बना रहे हैं। लखनऊ वालों का यह याराना आने वाले समय में सूबे की सरकार को जनता की अदालत में बेनकाब कर दे तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। सूबे की कलयुगी सरकार को चाहिए कि वह लक्ष्मण नगरी में ऐसी रेखा खींचे जिससे खुदकुशी करने वालों की आत्मा को हरने के लिए यमराज का प्रवेश न हो सके। अगर इसी तरह यमराज को असमय लखनऊ वालों का प्राण हरने का मौका मिलता रहा तो, इन अतृप्त आत्माओं की काली छाया से सूबे की मायावी नगरीको कौन बचा सकता है!
लेखक आशुतोष कुमार सिंह

 

 

जेल जाने से बचने में अमर सिंह की कोई अक्ल काम नहीं आई

Published on 06 September 2011
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'वोट के बदले नोट' मामले में तीस हजारी अदालत ने राज्यसभा सदस्य और समाजवादी पार्टी के पूर्व महासचिव अमर सिंह की जमानत याचिका खारिज करते हुए 14 दिनों की हिरासत में जेल भेज दिया. अमर सिंह अब 19 सितंबर तक जेल में रहेंगे. अमर सिंह के साथ अन्य तीन लोगों को भी हिरासत में लेकर जेल भेज दिया गया है, जिनमें भाजपा के पूर्व सांसद महावीर सिंह भगोरा, फग्गन सिंह कुलास्ते और सांसद अशोक अरगल शामिल हैं.
इस मामले में भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी के पूर्व सलाहकार सुधीन्द्र कुलकर्णी के खिलाफ भी सम्मन जारी किया गया था लेकिन वे कोर्ट नहीं पहुँचे क्योंकि वे देश से बाहर हैं. इन चारों के ही ख़िलाफ़ 'नोट के बदले वोट' मामले में दिल्ली पुलिस ने आरोप पत्र दाखिल किया था. दिल्ली पुलिस भाजपा सांसद अशोक अर्गल के खिलाफ भी मामला दर्ज करना चाहती है और इसके लिए लोकसभा अध्यक्ष से मंजूरी मांगी गई है.
भाजपा और अन्य विपक्षी दलों ने इन गिरफ्तारियों के बाद कहा है कि जांच इस बात की भी होनी चाहिए कि वोट ख़रीदे जाने से किसे लाभ पहुँचा. कांग्रेस ने कहा है कि उन्हें सरकार बचाने के लिए वोटों की जरूरत ही नहीं थी. पहले कहा जा रहा था कि अमर सिंह अदालत में नहीं आ रहे हैं क्योंकि उन्होंने अपनी बीमारी की वजह से अदालत में पेश होने से छूट का आवेदन किया था. लेकिन वे अचानक तीस हज़ारी कोर्ट में उपस्थित हुए और उन्होंने अपने गुर्दे की बीमारी का हवाला देते हुए ज़मानत देने की अपील की. अदालत ने उनसे बीमारी से संबंधिक ताज़ा कागज़ात मांगे तो उन्होंने कहा कि कागज़ात लाने के लिए समय चाहिए होगा.
इस पर तीस हज़ारी कोर्ट की विशेष जज संगीता धींगरा ने उनकी ज़मानत याचिका ख़ारिज करते हुए उन्हें 14 दिनों की न्यायिक हिरासत में भेज दिया. इस गिरफ़्तारी से भाजपा के दो पूर्व सांसदों फग्गन सिंह कुलस्ते और महाबीर सिंह भगोरा के वकील संजीव सोनी भी नाख़ुश दिखे. उनका कहना है कि जिन लोगों ने भ्रष्टाचार को उजागर करना चाहा उन्हें ही मुल्ज़िम बना दिया गया है.

अन्ना के बहाने : तानाशाह बनने की राह पर मीडिया?

Published on 28 August 2011
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भयानक शोर है कि जनता की जीत हुई है. मैं इससे पूरी तरह इनकार नहीं करता और मेरे इनकार करने से भी कुछ नहीं होता है. क्योंकि यह तो सच है कि जनता के लोग अन्ना हजारे के आंदोलन को अच्छी संख्या में समर्थन दे रहे थे. समर्थन मिलने का जो सबसे बड़ा कारण मैं समझ पा रहा हूँ वह यह था कि  मीडिया और प्रेस के लोग उसे एक भयानक मुद्दा बना रहे थे. जिस तरह से सारे टीवी चैनलों पर दिन-रात चौबीस घंटे मात्र यही खबर दिखाई गयी उससे स्वाभाविक तौर पर इस आंदोलन से लोगों का जुडाव और आकर्षण बढ़ता गया. फिर उसका साथ देने के लिए सारे हिंदी, अंग्रेजी और स्थानीय भाषों के अखबार थे जिनमे मात्र यही खबर लग रही थी जिससे लोग स्वतः ही अन्ना के आंदोलन की तरफ आकर्षित होते जा रहे थे.
इस तरह से मीडिया ने इस मामले को राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया. टीवी पर लगातार बहसें होती रहीं, उन बहसों में मात्र एक पक्ष को प्रकट किया गया, दूसरे पक्ष या संतुलित बात कहने वालों को डपटा गया. जिसने इस आंदोलन को बेमतलब या उद्देश्यहीन बताने की कोशिश की उसे स्वयं में भ्रष्ट, चोर और गलत किस्म का आदमी कहा गया. यानि कि एक अघोषित आपातस्थिति पूरे देश में लागू कर दी गयी. आदमी के पास सबसे बड़ी आवाज़ मीडिया ही होती है पर जब मीडिया खुद ही पार्टी बन जाए, तब आदमी कहाँ जाए?
जो अन्ना के साथ नहीं, वह आदमी नहीं, वह देशभक्त नहीं, वह सच्चा इंसान नहीं जैसी बातें इतनी बारे, इतने तरह से कही गयीं कि स्वाभाविक रूप से यह फैशन चल ही पड़ा और फिर देखते ही देखते हर शहर, हर गली में अन्ना ही अन्ना हो गए. इस रूप में मैं पहली बात यह कहना चाहता हूँ कि यह जनता की नहीं, मीडिया की जीत है, मीडिया की पूर्ण फतह- जहां उसने साबित कर दिया है कि उसके आगे कोई नहीं टिक सकता. अब मीडिया ने ऐसा क्यों किया, क्यों हर शहर की मोमबत्ती यात्रा को तवज्जो दिया, क्यों इस आंदोलन को आसमान पर चढाया यह अपने आप में गहन शोध का विषय हो सकता है और मैं इस बारे में कुछ भी अलग से नहीं जानता अतः बिना जाने कोई भी टिप्पणी करना उचित नहीं मानता.
एक कारण तो यह हो सकता है कि यह पूरा कार्यक्रम नए किस्म का और रोचक था, जिसमे एक टटकापन और नयापन था जिसे मीडिया हाथों-हाथ लेना चाहती थी. दूसरा कारण यह हो कि भ्रष्टाचार की इस कथित लड़ाई को समर्थन दे कर वे लोग अपनी जनपक्षधरता को प्रकट करना चाहते थे जिसमे यह जाहिर हो पाता कि वे भी इस देश के लिए कितने जागरूक और गंभीर हैं. यह एक ऐसा मुद्दा था जिस पर आम तैर पर आदमी दो तरह की बातें नहीं बोल सकता था अथवा अलग किस्म की राय व्यक्त करने में सामान्यतया असहज होता. लिहाजा यह एकतरफा मामला था जिसमे अन्ना के आंदोलन को केन्द्र में रख कर एक अनवरत चित्रण आराम से प्रस्तुत किया जा सकता था.
इस तरह से अन्ना के आंदोलन की छोटी-छोटी बात भी राष्ट्रीय महत्व का विषय-वस्तु बनती चलती गयी- इन्होने क्या कहा, उनके शिष्यों ने क्या कहा, उनके शिष्य किनसे मिले, उनके जन लोकपाल में कौन सी बातें हैं, सरकार के लोकपाल में क्या है, जन लोकपाल क्यों बेहतर है, अन्ना का वजन कितना है, उनकी शारीरिक स्थिति कैसी है और समस्त बातें जो उन्हें देखते ही देखते मनुष्य से किम्वदंती में बदलती चली गयी.
मैं इस रूप में बहुत दावे के साथ कह सकता हूँ कि यह अन्ना की जीत तो है, उनकी टीम की भी जीत है पर जनता की जीत मामूली और मीडिया की पूरी जीत है- खास कर बड़े मीडिया की, जिसका व्यापक प्रभाव और असर होता है. इसने एक बार फिर साबित कर दिया है कि किसी भी प्रकार की राजनीति, किसी भी प्रकार के आंदोलन और किसी भी प्रकार के सामाजिक प्रयास करने वालों को मीडिया का महत्व ना सिर्फ समझना होगा बल्कि उनकी पूरी प्रतिष्ठा भी रखनी होगी, क्योंकि मीडिया ही वह तंत्र है जिसके माध्यम से छोटी सी बात बड़ी और बड़ी-बड़ी बातें छोटी बनायी जा सकती हैं.
संसद में कुछ नेताओं ने यह बात कही भी, खास कर शरद यादव और लालू यादव ने. शरद यादव ने परोक्ष रूप से कुछ बहुत बड़े पत्रकारों के नाम भी लिए पर उनकी बातों को उन्ही के खिलाफ इस्तेमाल किया गया और उन बातों को या तो कम महत्व दिया गया अथवा उन्हें उलटे रूप में प्रस्तुत किया गया. इससे एक बात स्पष्ट है कि यदि कोई भी आंदोलन सफल होना है तो सबसे पहले उसे मीडिया की पसंद बननी पड़ेगी. यह भी स्पष्ट हो गया है कि मीडिया अधिकाधिक मामलों में अब दर्पण की भूमिका में नहीं रही जो चीज़ों को जस का तस दिखाए. वे या तो मग्निफायिंग ग्लास बन जा रही हैं जहाँ तिल का ताड़ बना दिया जाए या फिर किसी बात को एकदम से दरकिनार कर दे रही है. यह एक ऐसी ताकत है जिसे स्वीकार करना पड़ेगा, यद्यपि इस ताकत का जिस रूप में प्रयोग हो रहा है उस पर भले कई प्रकार के मत हो सकते हैं.
अन्ना हजारे के आंदोलन में कभी भी मीडिया थमी नहीं. उसने इस दौरान शायद ही कुछ और दिखाया. ऐसा नहीं कि पूरे देश में कोई अन्य घटनाएँ नहीं घट रही होंगी पर जेके पिया भाये वही सुहागन की तर्ज पर मात्र अन्ना का आंदोलन ही खबरों की प्रमुखता बना रहा. यदि कोई अन्य बयान आया भी तो अन्ना के आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में- कैसे रजनीकांत अन्ना को अपना आदर्श मानते हैं, कैसे मराठी अभिनेत्री उनके आंदोलन से प्रभावित हो कर अर्धनग्न तस्वीरें खिचवा रही हैं, कैसे अन्य लोग अन्ना को अपना आदर्श मानने लगे है और तमाम बातें.
मैं इन में से किसी बात को गलत नहीं कह सकता क्योंकि इस देश में मीडिया की अपरम्पार शक्ति के दृष्टिगत कोई भी व्यक्ति अपने होशो-हवाश में उसे गलत ठहराने का काम नहीं कर सकता. पर एक सवाल लगातार बना रहेगा कि क्या कोई भी एक खबर पूरे देश के लिए चौबीस घंटों का आहार बनना चाहिए? क्या एक घटनाक्रम अथवा एक कार्यक्रम को अघोषित राष्ट्रीय कार्यक्रम बना देना चाहिए? क्या इस दौरान दुनिया की बाकी सारी बातों को दरकिनार कर देना चाहिए? क्या उस विषय पर भी मात्र एक विचारधारा को लगातार प्रकट करते हुए बाकी सारी बातों को रोंक देना चाहिए?
ये प्रश्न आज इस कथित जनता के विजयके समय बेवकूफी दिख सकते हैं पर सच यह है कि यह ट्रेंड अपने आप में खतरनाक है. यदि इस प्रश्न पर सम्यक विचार नहीं किया गया और एक निश्चित नीतिनिर्धारण नहीं हुआ तो कल को इससे मीडिया की भूमिका एकतरफा, उन्मादजनक और तानाशाह बन जाने की पूरी संभावना रहेगी.
लेखक अमिताभ आईपीएस अधिकारी हैं और इन दिनों मेरठ में पदस्थ हैं.

यह डिब्बा बंद नहीं होगा नेताजी

Tuesday, 06 September 2011 12:12 एनके सिंह भड़ास4मीडिया -
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एनके सिंह
आज़ादी मिलने के कुछ दिनों बाद पंडित जवाहरलाल नेहरु ने कहा था कि अगर हमें एक स्वतंत्र प्रेस जो अराजक होकर नकारात्मक भूमिका निभा रहा हो और एक ऐसा प्रेस जो नियंत्रित हो, के बीच चुनाव करना हो तो मैं पहले विकल्प को चुनूंगा। लगभग 64 साल बाद जदयू के नेता शरद यादव ने संसद में अपने भाषण में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को डिब्बे की संज्ञा देते हुए बंद करने की वकालत की।
उनका कहना था कि 13 दिन से डिब्बा केवल अन्ना और आंदोलन दिखा रहा हैं, चौबीसो घंटे। उनका आरोप था कि इस देश में 20 लाख लोग भूखे सो जाते है तो मीडिया के कान पर जूं नहीं रेंगती लेकिन अन्ना 13 दिन से आंदोलन करते हैं तो इतना हंगामा बरपा। यह समझ में नहीं आया कि शरद यादव का ऐतराज किस बात पर था? उन्हें शायद तर्कशास्त्र के मूल सिद्धांत और कार्य-कारण संबंध की जानकारी नहीं है। अगर होती तो उनका अपना ही तर्क वाक्य मीडिया की वर्तमान भूमिका को सही सिद्ध करता है। क्यों इस डिब्बे को चौबीसों घंटे बगैर खाएपिए उस ज़िम्मेदारी को निर्वहन करना पड़ा जो मूलरुप से शरद यादव जैसे राजनीतिक लोगों की ज़िम्मेदारी थी? 20 लाख लोग भूख सोते है तो इसका कारण मीडिया नहीं, बल्कि राजनीतिक वर्ग है। नीति मीडिया नहीं बनाती है सरकार और संसद बनाते हैं।
भारत का प्रजातंत्र एडवरसेरियल है। इसमें सत्ता पक्ष और विपक्ष मुद्दे पर जनता के सामने जाते है और एकदूसरे को चुनौती देते हैं। शरद यादव अपने राजनीतिक जीवन में अधिकांशत: विपक्ष में रहे हैं और कुछ साल सत्ता में। कितनी बार उन्होंने भ्रष्टाचार, गरीबी, आर्थिक विषमता पर या ऐसे ही अन्य सामाजिक मसलों पर इतना व्यापक जनआंदोलन किया? दरअसल सुविधाभोगी राजनीतिक वर्ग ने यह सुनिश्चित किया कि उनका सुविधाभोगी जीवन निर्बाध चलता रहे और मुद्दे संसद के दहलीज पर जाकर दम तोड़ दें। ऐसे में जनता का राजनीतिक वर्ग से मोहभंग हो जाता है तो वह गैर राजनीतिक वर्ग, संस्थाओं और महापुरुषों की तरफ रुख करती है।
प्रजातंत्र में मीडिया की भूमिका से नाराज़ राजनीतिक वर्ग को शायद यह भी समझ में नहीं आ रहा है कि संविधान बनाने वाले महापुरुषों ने अनुच्छेद 19(1) में प्रावधान किया हैं - अभिव्यत्ति की स्वतंत्रता। उन्हें यह भी मालूम नहीं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता रास्ता केवल विधानसभाओं और संसद के चुने हुए कुछ प्रतिनिधियों की तरफ से नहीं जाता बल्कि एक बड़ा रास्ता रैली, धरना-प्रर्दशन से भी होकर जाता है। और इस प्रक्रिया का शुमार प्रजातंत्र के मूल तत्वों में किया जाता है।
आज से कुछ समय पहले तक जब समाज इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर गैर जनउपयोगी कन्टेंट देने का का आरोप लगता था तब इस मीडिया ने इसको सकारात्मक तरीके से लिया। स्वनियंत्रण के प्रयास के तहत हमने रेगुलेटरी आथॉरिटी बनाई। संपादकों की एक संस्था ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन के रुप में आई और सभी संपादक चैनलों को और जनोपयोगी बनाने का सार्थक प्रयास कर रहे हैं।
तब आज किस बात पर ऐतराज है? क्या भ्रष्टाचार के खिलाफ हर जिले, हर शहर, हर प्रान्त में जनआंदोलन चल रहा हो तब हमें राखी सांवत का डांस दिखाना चाहिए था? क्या भारतीय मीडिया ने ऐलान किया था कि अगर शरद यादव सरीखे तथाकथित समाजवादी अन्ना के पहले या अन्ना के साथ एक समानांतर आंदोलन छेड़ें तो वह इसे कवरेज नहीं देगा? क्या मीडिया ने इस दौरान राजनीतिक वर्ग की बाईटें लेना बंद कर दिया था? क्या शरद यादव, लालू यादव या राहुल गांधी जब लोकतंत्र के लिए खतरा बता रहे थे तो क्या इन्हें इस डिब्बे ने नहीं दिखाया?
64 साल में राजनीतिक वर्ग ने अपने मूल कर्तव्य का पालन नहीं किया और सड़े सिस्टम के सहारे गरीबों का मांस नोच कर खाते रहे और दोषपूर्ण चुनाव व्यवस्था के ज़रिए ए.राजा और कलमाड़ी पैदा करते रहे, क्या इसमें भी मीडिया का दोष था? आज से कुछ वर्षों बाद जब भ्रष्टाचार से पनपे आंदोलन का विश्लेषण होगा, भारतीय मीडिया को विश्लेषक मानक के रूप में प्रस्तुत करेंगे। जहां तक इस डिब्बे को बंद करने का सवाल है शरद यादव यह भूल रहे है कि यह किसी राजनेता के एहसान का प्रतिफल नहीं है। यह भारतीय प्रजातंत्र का आपरिहार्य उत्पाद है और इसे बंद करना किसी भी संसद की ताकत से बाहर है। 13 दिन से ज्यादा चौबीसों घंटे आंदोलन दिखाने से मीडिया को आर्थिक नुकसान ही हुआ होगा। अन्ना हज़ारे कोई कॉर्पोरेट नहीं हैं जिन्हों ने विज्ञापन दिया और ना ही यह खबरें पेड न्यूज़ थीं, जिसके बारे में राजनीतिक वर्ग हंगामा खड़ा कर रहा है।
अगर यह आंदोलन गलत था, अगर मीडिया ने इसे अतिरंजित करके पेश किया तब क्यों झुकी पूरी संसद और क्यो नहीं किसी शरद यादव या किसी लालू यादव ने संसद से इस्तीफा दे दिया? तस्वीर का एक दूसरा पहलू देखिए। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने किसानों की ज़मीन अधिग्रहण के खिलाफ धरना दिया। देश के 32 ओ.बी वैन ने पूरे धरने को कवर किया। अंतिम दिन अलीगढ़ में केवल कुछ हज़ार आदमी ही जुट पाए। अगर मीडिया के कवर करने से जनआंदोलन बनता होता तो देश में राहुल गांधी का यह आंदोलन भी महज एक स्थानीय घटना ना बना होता बल्कि एक जनआंदोलन के रूप में खड़ा होता। राजनीतिक वर्ग ने जनता में अपनी विश्वसनीयता खो दी है जिसकी वजह से जनता गैर राजनीतिक संस्थाओं व व्यक्तियों को अपना रहनुमा मानने लगी है।
दरअसल पिछले कुछ वर्षों से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने अपने कर्तव्य को पूरी तरह पहचानते हुए एक सश्क्त भूमिका निभायी है इसमें दो राय नहीं है। विश्व के किसी भी प्रजातंत्र में एक स्टिंग ऑपरेशन के वजह से लगभग एक दर्जन सांसद एक झटके में नहीं निकाले गए। यह भारत की मीडिया ने ही संभव करके दिखाया है। निठारी में कंपकपाती ठंड में भारतीय मीडिया ही दिन-रात जनता को हकीकत से रूबरू कराता रहा जबकि पुलिस वाले भी ठंड ना बर्दाश्त करके अपनी ड्यूटी से गायब हो गए। मुंबई हमले और अयोध्या फैसले पर भारतीय मीडिया ने जिस शालीनता का परिचय दिया वह किसी से छिपा नहीं है। और यह सब करने में कहीं भी कोई कॉर्पोरेट इंट्रेस्ट नहीं था बल्कि कर्तव्य के प्रति निष्ठा थी।
आज जरूरत इस बात की है कि प्रजातंत्र की गुणवत्ता बेहतर करने के लिए राजनीतिक वर्ग अपने गरेबान में झांके और अपने को जनता के प्रति उपादेय बनाए, बजाय इसके कि भारतीय मीडिया पर नकेल डालने की कोशिश करे और वह भी इसलिए कि उसने एक सार्थक जनआंदोलन को जनता तक पहुंचाने का पुनीत कार्य किया है।
लेखक एनके सिंह

छोरा गोमती किनारे वाला, मुंबई में छपाई की दुनिया का दादा है

Wednesday, 31 August 2011 10:25 शेष नारायण सिंह भड़ास4मीडिया -
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पिछले हफ्ते एक दिन सुबह जब मैंने अखबार उठाया तो टाइम्स आफ इंडिया देख कर चमत्कृत रह गया. अखबार बहुत ही चमकदार था. लगा कि अलमूनियम की शीट पर छाप कर टाइम्स वालों ने अखबार भेजा है. लेकिन यह कमाल पहले पेज पर ही था. समझ में बात आ गयी कि यह तो विज्ञापन वालों का काम है.  पहले और आखिरी पेज पर एक कार कंपनी के विज्ञापन भी लगे थे.
ज़ाहिर है इस काम के लिए टाइम्स आफ इण्डिया ने कंपनी से भारी रक़म ली होगी. टाइम्स में कुछ लोगों से फ़ोन पर बात हुई तो उन्हें छपाई की दुनिया में यह बुलंदी हासिल करने के लिए बधाई दे डाली. उन्होंने कहा कि यह छपाई उनकी नहीं है. बाहर से छपवाया गया है. लेकिन टाइम्स आफ इण्डिया में कोई भी यह बताने को तैयार था कि कहाँ से छपा है. प्रेस में काम करने वाले एक मेरे जिले के साथी ने बताया कि चीन से छपकर आया था वह विज्ञापन. बात आई गयी हो गयी लेकिन कल एक दोस्त का मुंबई से फोन आया. इलाहाबाद से पढ़ाई करने के दौरान वह मुंबई भाग गया था. वहां वह किसी बहुत बड़े प्रेस में काम करता था. आजकल अपना कारोबार कर रहा है.
बातों-बातों में मैंने उसे प्रेरणा दी कि चीन में संपर्क करे और टाइम्स ऑफ इण्डिया में जिस तरह से अलमूनियम पर छपाई हुई है, उसे छापने की कोशिश करे. नई टेक्नालोजी है बहुत लाभ होगा. तब उसने बताया कि बेटा वह टाइम्स ऑफ इण्डिया वाला माल मैंने ही छापा है. कहीं चीन वीन से नहीं छपकर आया है वह. उसे मैंने अपने प्रेस में छाप कर टाइम्स वालों से पैसा लिया है छपाई का. और वह अलमूनियम नहीं है. कागज़ पर छाप कर उसे मैंने एक बहुत ही ख़ास तरीके से लैमिनेट किया है. तब जाकर अलमूनियम का लुक आया है. मैंने उसे हड़काया कि प्रिंट लाइन में अपना नाम क्यों नहीं डाला. उसने कहा कि वह कारोबार की बातें हैं. तुम नहीं समझोगे.
उसकी बात सुनकर मन फिर उसी कादीपुर और सुल्‍तान पुर वापस चला गया. जहां के हम दोनों रहने वाले हैं. गोमती नदी पर स्थित धोपाप महातीर्थ के उत्तर तरफ उसका गाँव है और दक्षिण तरफ मेरा. मेरा यह दोस्त टीपी पांडे बहुत भला आदमी है. पिछले कई वर्षों से मुझे शराब पीना सिखाने की कोशिश कर रहा है. इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पीएचडी कर रहा था. शोध की कुछ सामग्री जुटाने के लिए बम्बई ( मुम्बई ) गया. चमक  दमक में रिसर्च तो भूल गया. भाई ने वहां किसी फ़िल्मी पत्रिका में नौकरी कर ली. फ़िल्मी आकाश पर उन दिनों हेमा मालिनी चमक रही थीं. रेखा के जलवे थे. आदरणीय पांडे जी ने उनके दर्शन किये और मेरा दोस्त वहीं मुंबई का होकर रह गया. धीरे-धीरे फ़िल्मी दुनिया की रिपोर्टिंग का दादा बन गया. वह पत्रिका फिल्म लाइन की सबसे बड़ी पत्रिका है. बाद में उस कंपनी ने उसे पूरी छपाई का इंचार्ज बना दिया. लेकिन उसकी तरक्की से कंपनी के कुछ लोग जल गए और उसे बे इज्ज़त करने की कोशिश शुरू कर दी. मेरे इस दोस्त ने जिस बांकपन से उन लोगों से मुकाबला किया, उस पर कोई भी मोहित हो जाएगा.
मामला रफा दफा हो जाने के बाद एक दिन जब मैं मुंबई गया तो उसने मेरा हाल पूछा. मैंने कहा कि यार किस्मत ऐसी है कि ज़िंदगी भर कभी ऐसी नौकरी नहीं मिली जिस से मन संतुष्ट होता. ठोकर खाते बीत गया. अब फिर नौकरी तलाश रहा हूँ. उसने भी नए सिरे से प्रेस लगाने की अपनी कोशिश का ज़िक्र किया  और कहा कि गाँव में लोग साठ साल के उम्र में बच्चों के सहारे मौज करते हैं और हम लोग साठ साल की उम्र में फिर से काम तलाश रहे हैं. अपने बचपन की तुलना में अपने आपको रख कर हम दोनों ने देखा तो समझ में आ गया कि पूंजीवादी अर्थ व्यवस्था और उस से पैदा हुई सामाजिक हालत ने हमें ज़िंदगी पर खटने के लिए अभिशप्त कर दिया है. टीपी पाण्डेय के साथ टीडी कालेज जौनपुर के राजपूत हास्टल में बिताये गए दिन याद आये. वे सपने जो अब पता नहीं कहाँ लतमर्द हो गए हैं, बार बार याद आये. लगा कि गरीब आदमी का बेटा कभी चैन से नहीं बैठ सकता लेकिन आज जब टीपी की बुलंदी को सुना-देखा है, छपाई की टेक्नालोजी में उसके आविष्कार को देखता हूँ तो लगता है कि हम भी किसी से कम नहीं.
अपना टीपी पांडे शिर्डी के फकीर का भक्त है. हर साल वहां के मशहूर कैलेण्डर को छापता है जिसे शिर्डी संस्थान की ओर से पूरी दुनिया में बांटा जाता है. पांडे जो भी करता है उसी फ़कीर के नाम को समर्पित करता है. जो कुछ अपने लिए रखता है उसे साईं बाबा का प्रसाद मानता है. अब वह सफल है. टैको विज़न नाम की अपनी कंपनी का वह प्रबंध निदेशक है.  मुंबई के धीरू भाई अम्बानी अस्पताल में एक बहुत बड़ी होर्डिंग भी इसी ने छापी है जिसकी वजह से उसका नाम लिम्का बुक आफ रिकार्ड्स में दर्ज है. उसकी सफलता देख कर लगता है कि अगर मेरे गाँव के लोग भी समर्पण भाव से काम करें तो मुंबई जैसी कम्पटीशन की नगरी में भी सफलता हासिल की जा सकती है.

दिल्ली धमाकों का असर : बाड़मेर में भी हाई अलर्ट

Published on 07 September 2011
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बाड़मेर : भारत-पाकिस्तान सरहद पर बसे बाड़मेर जिले में दिल्ली बम धमाको के बाद हाई अलर्ट घोषित कर दिया. बाड़मेर जिले में सुरक्षा व्यवस्था चाक चौबंद करने के साथ ही संदिग्ध व्यक्तियों पर भी नज़र रखी जा रही है. बाड़मेर पुलिस जगह-जगह एहतियात के तौर पर तैनात कर दी गई है. गृह मंत्रालय ने सीमावर्ती बाड़मेर जिले में भी आतंकी हमले की आशंका को देखते हुए हाई अलर्ट घोषित कर दिया हैं. बाड़मेर जिला पुलिस अधीक्षक संतोष चाल्के ने बताया कि बाड़मेर में सीमा पर चौकसी बढ़ा दी गई हैं.
उन्‍होंने बताया कि साथ ही साथ सीमा पर संदिग्ध लोगों पर नज़र रखने के निर्देश भी जारी किए गए हैं. इस धमाके की घटना के बाद प्रत्येक थाने को सचेत रहने के निर्देश दिए गए हैं खासकर होटल्स, सराय, रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड आदि स्थानों की जांच करने में सादा वस्त्रधारी पुलिस भी जुट गई हैं, जिस में संदेहास्पद लोगों से पूछताछ की जा रही हैं. दूसरी तरफ सीमा सुरक्षा बल ने भी भारत-पाक सीमा पर पेट्रोलिंग तेज़ कर दी हैं तथा सीमा पार होने वाली गतिविधिओं पर नज़र रखी जा रही हैं. ज्ञातव्य हैं कि जिला कलेक्टर एवं मजिस्ट्रेट द्वारा पूर्व में ही कई गाँवों में रात्रिकालीन विचरण पर पाबंदी लगा दी गई है.
बाड़मेर से चंदन भाटी की रिपोर्ट.

आनंद मोहन के घर पर साठ हमलावरों ने धावा बोला

Published on 06 September 2011
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बीते रात करीब सात बजे सहरसा जिला मुख्यालय के गंगजला स्थित पूर्व सांसद आनंद मोहन के घर पर करीब 50 से 60 की संख्या में आये अज्ञात हमलावरों ने पांच चक्र गोलियां चलाई, बम के ताबड़तोड़ तीन धमाके भी किये. यक-ब-यक हुई इस घटना से पूरे मुहल्ले में हड़कंप मच गया. हमलावरों ने घर के लोगों को भी निशाने पर लेने की कोशिश की लेकिन घर के लोगों ने ग्रिल और दरवाजे आनन-फानन में बन्द कर लिए. इसी बीच हमलावरों ने आनंद मोहन के दो समर्थकों की जमकर धुनाई कर दी.
देखते ही देखते अफरातफरी मच गयी और गोली की आवाज और बम धमाके की गूंज से लोगों की भीड़ यहाँ जमा होने लगी जिसे देख अपराधी हवा में हथियार लहराते फरार हो गए.  हालांकि इतनी बड़ी घटना में कोई भी गंभीर रूप से जख्मी नहीं हुआ. घटना की सूचना जंगल में आग की तरह पूरे इलाके में फैल गयी. इस घटना की सूचना ज्योंही पुलिस को मिली, वह भी पूरे लाव-लश्कर के साथ ना केवल मौका ए वारदात पर पहुँच गयी. फ़ौरन घटनास्थल पर मौजूद लोगों से बयान लेकर आगे की कारवाई में पुलिस टीम जुट गयी.
घटना के वक्त पुलिस अधीक्षक मोहम्मद रहमान कोसी दियारा इलाके में छापामारी में जुटे थे लेकिन उन्हें जैसे ही इस घटना सूचना मिली वे वैसे ही घटनास्थल पर पहुँच गए. करीब नौ बजे घटनास्थल पर पहुँचे पुलिस अधीक्षक ने इस घटना के खुलासे की कमान खुद संभाल ली. पुलिस अधीक्षक ने कहा कि पुलिस इस मामले को चैलेन्ज के रूप में ले रही है और उन्होंने घटनास्थल पर मौजूद लोगों के बयान के आधार पर दोषियों को चिन्हित कर लिया है जिनकी आज रात ही ना केवल गिरफ्तारी कर ली जायेगी बल्कि सात दिन के भीतर उन्हें सजा कराने के लिए भी वे एड़ी चोटी एक कर देंगे. जो भी हो, यह घटना राज्य में कानून व्यवस्था की कलई खोलने के लिए भी काफी है.
चंदन सिंह की

अफजल की फ़ांसी को रोकने के षडयंत्र से बाज आएं राजनेता : विहिप

Published on 05 September 2011
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नई दिल्ली। संसद पर हमला करने वाले आतंकवादी अफ़ज़ल गुरु की दया याचिका किसी तरह अस्वीकार करने के बाद अब उसे बचाने के लिए पीछे के रास्ते दवाब की राजनीति हावी है। जनता के दवाब के कारण सरकार ने तो याचिका को खारिज कर दिया किन्तु अब वही राजनेता असंवैधानिक प्रक्रियाएं अपना कर देश के दुश्मन को बचाने की मुहिम में जुट गए हैं। इंद्रप्रस्थ विश्व हिन्दू परिषद के महामंत्री श्री सत्येन्द्र मोहन ने कुछ राजनेताओं के इस षडयंत्रकारी कदम की तीखी आलोचना करते हुए उन्हें आगाह किया है कि वे विश्व के सबसे बडे़ लोकतंत्र के मन्दिर संसद पर आक्रमण करने वाले देश के दुश्मन को संरक्षण दे कर जनता को और गुमराह करने से बाज आएं अन्यथा देश उन्हें कभी माफ़ नहीं करेगा।

विहिप दिल्ली के मीडिया प्रमुख विनोद बंसल ने बताया कि आज झण्डेवालान स्थित कार्यालय में हुई एक बैठक में पारित प्रस्ताव में कहा गया है कि अफ़ज़ल को फ़ांसी से बचाने के लिए जम्मू कश्मीर विधान सभा में प्रस्ताव लाने हेतु जिस प्रकार का षडयंत्र वहां के मुख्यमंत्री व एक विधायक रच रहे हैं वह सर्वथा निंदनीय है। इस कृत्य से इन लोगों की भारत की संसद व संवैधानिक संस्थाओं के प्रति दुर्भावना साफ़ झलकती है। जब देश के सर्वोच्च न्यायालय ने सजा सुना दी और उस पर भी राष्ट्र प्रमुख (राष्ट्रपति महोदया) की मुहर भी लग गई है तो अब मुख्यमंत्री व विधान सभा को इस में बोलने का क्या अधिकार है।

प्रस्ताव कहता है कि अब यदि अफ़ज़ल को कोई बचाने की बात करता है तो यही माना जाएगा कि वह संसद, संविधान व सर्वोच्च न्यायालय तीनों का अपमान कर रहा है। इन संस्थानों का अपमान देश का कोई भी नागरिक कदापि बर्दाश्त नहीं करेगा। बैठक में विहिप दिल्ली के उपाध्यक्ष श्री ब्रज मोहन सेठी व श्री अम्रत लाल शर्मा, संगठन मंत्री श्री करुणा प्रकाश सहित अनेक पदाधिकारी उपस्थित थे। प्रेस रिलीज

नोट वोट कांड- अमर सिंह मुख्य खलनायक, अहमद पटेल गैंग मेंबर : सुहेल हिंदुस्तानी

Published on 20 July 2011
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: सचाई का पता लगाने के लिए मेरा, अमर सिंह का और प्रधानमंत्री समेत सभी का नारको टेस्ट किया जाना चाहिए अमर सिंह के गिरफ्तार होने की परिस्थितियां पैदा हो चुकी हैं. उनके करीबी संजीव सक्सेना गिरफ्तार किये जा चुके हैं. आज सुहेल हिंदुस्तानी से दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच ने पूछताछ की. सुहेल ने पुलिस से कहा कि इस कांड के मुख्य खलनायक अमर सिंह थे. और, उनका साथ दिया अहमद पटेल समेत कई कांग्रेसी नेताओं ने.

'नोट के बदले वोट' मामले में एक मध्यस्थ सुहेल हिंदुस्तानी ने बुधवार को पुलिस को बताया कि राज्यसभा सदस्य अमर सिंह इसके मुख्य सूत्रधार थे. इसमें अहमद पटेल तथा अन्य कांग्रेसी नेताओं की संलिप्तता रही. अहमद पटेल कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के विश्वासपात्र हैं. खुद को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की युवा शाखा का पूर्व सदस्य बताने वाले सुहेल ने यह भी कहा कि प्रधानमंत्री के करीबी लोगों ने उन्हें फोन किया था.
दिल्ली पुलिस की अपराध शाखा द्वारा पूछताछ किए जाने के बाद सुहेल ने संवाददाताओं से कहा, "मेरे पास छुपाने के लिए कुछ नहीं है। इसमें अमर सिंह की मुख्य भूमिका रही है। अमर सिंह ने इस पूरे मामले में अहमद पटेल का इस्तेमाल किया। अमर सिंह और अहमद पटेल मिलकर काम कर रहे थे और मैंने उनकी मदद की। इसमें कुछ भी छुपा नहीं है, यह आईने की तरह साफ है। अहमद पटेल ने मुझे फोन किया, कांग्रेस के बड़े नेताओं ने मुझे फोन किया, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के करीबी लोगों ने मुझे फोन किया। सच्चाई का पता लगाने के लिए सभी का नारको परीक्षण कराया जाना चाहिए. मेरा नारको परीक्षण कीजिए, अमर सिंह का नारको परीक्षण कीजिए, यदि सम्भव हो तो मनमोहन सिंह का नारको परीक्षण कीजिए।"
कुछ दिनों पहले अमर सिंह पूर्व सहयोगी संजीव सक्सेना को दिल्ली पुलिस ने गिरफ्तार किया। सक्सेना पर आरोप है कि उन्होंने भाजपा सांसदों, अशोक अर्गल, महावीर भगोरा और फगन सिंह कुलस्ते को 2008 में भारत-अमेरिका परमाणु समझौते को लेकर हुए विश्वास मत प्रस्ताव पर मतदान के दौरान मनमोहन सिंह सरकार के पक्ष में वोट देने के लिए रिश्वत देने की कोशिश की थी। लोकसभा में 22 जुलाई, 2008 को विश्वास मत से चंद मिनट पूर्व नोटों की गड्डियां लहरायी गई थीं। सुहेल को पूछताछ के लिए बुधवार सुबह अपराध शाखा बुलाया गया था। वहां वे अपने समर्थकों के साथ पूछताछ करने वाले वरिष्ठ अधिकारी के लिए फूलों का गुलदस्ता लेकर उपस्थित हुए।

प्रस्तुति: 

दिल्ली में धीमी रफ़्तार के लिए रहें तैयार


अगर आप दिल्ली में रहते हैं और अक्तूबर में दूल्हा बनकर बारात निकालने की हसरत रखते हैं तो आप शायद ऐसा न कर पाएँ. बारात तो छोड़िए रोज़मर्रा का सफ़र भी मुश्किल होने वाला है. वजह है राष्ट्रमंडल खेल. खेलों के कारण सितंबर अंत से लेकर मध्य अक्तूबर तक दिल्ली में विशेष ट्रैफ़िक नियम लागू रहेंगे.
भारत का दिल कहे जाने वाली दिल्ली में एक करोड़ से भी ज़्यादा लोग बसते हैं. और लगभग इतने ही वाहन दिल्ली और आसपास के इलाक़ों की सड़कों पर दौड़ते हैं.पिछले साल आई विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक विश्व में सड़क दुर्घटनाओं में सबसे ज़्यादा मौतें भारत में ही होती है. दिल्ली का हाल भी कुछ अलग नहीं है.
मैं पूर्व डीसीपी ट्रैफ़िक होते हुए भी सारे नियमों को लेकर अंजान हूँ, आम नागरिक होने के नाते मेरे मन में केवल डर है, जानकारी नहीं है. मीडिया के ज़रिए केवल इतना पता है कि सड़कों पर विशेष लेन बनाई गई है राष्ट्रमंडल खेलों के लिए, उस पर गए तो सज़ा होगी. अब तक केवल धमकाया गया है, डराया गया है, सूचना कोई नहीं दी गई. इसलिए कई लोग कह रहे हैं कि हम दिल्ली छोड़कर चले जाएँगे.
किरण बेदी
आम दिनों में ही दिल्ली का ट्रैफ़िक संभलते नहीं संभलता. सड़क दुर्घटनाएँ, ट्रैफ़िक जाम साधारण बात है. राष्ट्रमंडल खेलों में तो हज़ारों खिलाड़ियों, अधिकारियों और अतिथियों का जमावड़ा रहेगा. इस सब से निपटने के लिए दिल्ली ट्रैफ़िक पुलिस ने राष्ट्रमंडल खेलों के लिए विशेष नियम बनाए हैं.
दिल्ली के कई सड़क मार्गों पर नीली पट्टी वाली कॉमनवेल्थ लेन बनाई जा रही है जिसपर आम लोग गाड़ी नहीं चला पाएँगे. यानी पहले से ही गाड़ियों के बोझ तले दबी सड़कों पर और अफ़रातफ़री. विशेष पुलिस आयुक्त (ट्रैफ़िक) अजय चढ्ढा भी मानते हैं कि खेलों के दौरान लोगों को आने-जाने में मुश्किल होगी. उनका कहना है कि कुछ सड़कें केवल दो लेन की हैं और एक लेन बंद रहने से असुविधा होगी ही इसलिए उन मार्गों पर जाने से बचें.
राष्ट्रमंडल खेल फ़ेडरेशन के अध्यक्ष माइक फ़ेनेल जब अगस्त में तैयारियों का जायज़ा लेने दिल्ली आए थे तो उनकी बड़ी चिंताओं में ट्रैफ़िक एक बड़ा मुद्दा था.
उनका कहना था, “ट्रैफ़िक को लेकर हमारी चिंता बनी हुई है क्योंकि दिल्ली में ट्रैफ़िक इतना है कि सड़कें पर कन्जेशन हो जाती हैं, सड़कों खचाखच गाड़ियों से भर जाती हैं. मीडिया से हम अपील करते हैं कि वो खेलों से पहले यातायात संबंधी संदेश लोगों तक पहुँचाए.”
इससे आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान ट्रैफ़िक को संभालना कितनी बड़ी चिंता का विषय बना हुआ है.
'जानकारी नहीं केवल डरावा है'
खेलों के दौरान ट्रैफ़िक के बोझ को कम करने के लिए तीन से 14 अक्तूबर तक कई स्कूल बंद रहेंगे. समापन समारोह के दिन सरकारी दफ़तरों, बैंकों में छुट्टी होगी. लोगों को अभ्यस्त करने के लिए ट्रैफ़िक ट्रायल हो रहे हैं जब राष्ट्रमंडल खेलों के लिए बनी लेन पूरी तरह बंद कर दी जाती है.
1982 में दिल्ली में हुए एशियाई खेलों के दौरान यातायात प्रबंधन में किरण बेदी ने बड़ा रोल निभाया था. कड़की से काम करने वाली किरण का नाम क्रेन बेदी पड़ गया था. उनकी क्या राय है राष्ट्रमंडल की यातायात योजना पर?
वे कहती हैं, “मैं पूर्व डीसीपी ट्रैफ़िक होते हुए भी सारे नियमों को लेकर अंजान हूँ, आम नागरिक होने के नाते मेरे मन में केवल डर है, जानकारी नहीं है. मीडिया के ज़रिए केवल इतना पता है कि सड़कों पर विशेष लेन बनाई गई है राष्ट्रमंडल खेलों के लिए, उस पर गए तो सज़ा होगी. अब तक केवल धमकाया गया है, डराया गया है, सूचना कोई नहीं दी गई. इसलिए कई लोग कह रहे हैं कि हम दिल्ली छोड़कर चले जाएँगे.”
1982 के एशियाई खेलों से तुलना करते हुए किरण बेदी कहती हैं,"एशियाई खेलों से कई महीने पहले से ही पुलिस लोगों तक जाकर सूचना पहुँचाती थी, नियम बनाने से पहले लोगों से राय भी लेते थे. लोगों की सुविधा और खेलों की सुरक्षा ज़रूरतों के बीच संतुलन बिठाकर हमने यातायात नियम बनाए थे. इस चीज़ की ज़बरदस्त कमी है इस बार."
पर क्या आम लोग इन पाबंदियों से ख़ुश हैं? उन्हें पता भी है कि खेलों के लिए विशेष यातायात नियम बनाए गए हैं.?
खेलों के दौरान पुलिस ज़ीरो टॉलरेंस नीति अपनाएगी. कॉमनवेल्थ लेन मे घुसने वालों पर दो हज़ार रुपए जुर्माना होगा.
अजय चढ्ढा, विशेष पुलिस आयुक्त (ट्रैफ़्रिक)
दिल्ली में रहने वाले के लाल बुज़र्ग हैं और कहते हैं, “ख़बरों में सुना ज़रूर है कि कोई विशेष लेन होगी लेकिन कब से लागू होगी कुछ पता नहीं. लोगों को परेशानी तो ज़रूर होगी. ट्रैफ़िक पुलिस अगर ठीक से प्रबंधन करे तो दिक्कत कुछ कम की जा सकती है.”
वहीं दिल्लीवासी श्याम सुंदर तो काफ़ी नाराज़ हैं. उनका कहना है कि अगर लोग आ-जा नहीं पाएँगे तो रोज़ी रोटी कैसे कमाएँगे और मालिक अलग डाँटेगा कि देर से क्यों आए.
'नियम मानो, नहीं तो सज़ा'
लोग ख़ुश हों या नाख़ुश लेकिन पुलिस का कहना है कि नियम कड़ाई से लागू होंगे. विशेष पुलिस आयुक्त (ट्रैफ़िक) अजय चढ्ढा का कहना है, “इस समय अवधि के दौरान ज़ीरो टॉलरेंस नीति रहेगी. मोटर वाहन एक्ट 115 के तहत राष्ट्रमंडल खेल लेन की घोषणा की जाएगी. नियम का उल्लंघन करने वालों पर दो हज़ार रुपए जुर्माना होगा.”
राष्ट्रमंडल खेल कितने सुचारू रूप से संचालित होते हैं और कितने दर्शक स्टेडियमों में खेल देखने आ पाते हैं ये यातायात प्रबंधन पर भी निर्भर करेगा.
इसके अलावा ये सुनिश्चित करना भी ज़रूरी होगा कि नौकरीपेशा लोग अपने काम धंधे पर जा पाएँ, रोज़ी रोटी कमा पाएँ. भारी-भरकम ट्रैफ़िक को देखते हुए ये सब संभालना दिल्ली पुलिस के लिए किसी चुनौती से कम नहीं होगा.

दिल्ली में सफ़र दुख़दायी'


 मंगलवार, 13 सितंबर, 2011 को 19:47 IST तक के समाचार


दिल्ली में बारिशों में सड़कों पर पानी भरने से अक़्सर लंबे ट्रैफिक जाम हो जाते हैं.
दुनिया के 20 शहरों में किए एक ताज़ा सर्वेक्षण में पाया गया है कि भारत की राजधानी दिल्ली में सफ़र करना बेहद दुख़दायी है.
आईबीएम कंपनी द्वारा किए गए इस सर्वेक्षण में सफ़र के लिहाज़ से दिल्ली को सातवां सबसे बुरा शहर बताया गया है.
सर्वेक्षण में सबसे बुरा शहर मैक्सिको सिटी, फिर चीन के शेनज़ेन और बीजिंग, उसके बाद अफ्रीका के नैरोबी और जोहानसबर्ग और फिर भारत के बंगलौर और दिल्ली हैं.
चौड़ी सड़कों, बड़े फ्लाई ओवरों और मेट्रो रेल की सुविधाओं वाली राजधानी दिल्ली के, इस फ़ेहरिस्त में इतने ऊंचे पायदान पर होने की वजह जानकार ख़राब तरीक़े से बनाई गई योजनाएं बताते हैं.

दिल्ली में और जगह नहीं

देश के सबसे विकसित शहर दिल्ली में दूसरे बड़े शहरों, मुंबई और चेन्नई के मुक़ाबले बेहद चौड़ी सड़कें हैं और राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन की बदौलत कई फ़्लाईओवर और अंडर पास भी बने हैं.
लेकिन परिवहन से जुड़े मुद्दों पर शोध करने और सरकार को सलाह देने वाली संस्था इंडियन फाउंडेशन ऑफ ट्रान्सपोर्ट रिसर्च एन्ड ट्रेनिंग के संयोजक एसपी सिंह कहते हैं कि अब दिल्ली में और जगह नहीं है.
"दिल्ली में कारों की संख्या सड़कों की चौड़ाई को नज़रअंदाज़ कर बढ़ती चली गई है, इस सब पर अंकुश लगाना होगा.”"
एस पी सिंह, परिवहन सलाहकार
सिंह के अनुसार, “दिल्ली में कारों की संख्या सड़कों की चौड़ाई को नज़र अंदाज़ कर बढ़ती चली गई है, अब घरों के बाहर पार्किंग की जगह नहीं है और एक ही जगह जाने के लिए चार लोग अपनी अलग-अलग कारें ले जाते हैं, इन सब पर अंकुश लगाना होगा.”
निजी वाहनों की बढ़ती संख्या से बढ़ी ट्रैफ़िक समस्या से निपटने के लिए ही दिल्ली सरकार ने सार्वजनिक परिवहन को बेहतर बनाने के प्रयास शुरू किए थे. इनमें प्रमुख था शहर के अलग-अलग इलाकों को मेट्रो रेल और बसों के लिए विशेष रास्तों (बीआरटी कॉरिडोर) के ज़रिए जोड़ना, लेकिन सड़कों पर चलना अब भी परेशानी का सबब बना हुआ है.
शहरों के निर्माण पर तकनीकी शिक्षा देने वाले स्कूल ऑफ प्लानिंग एन्ड आर्किटेक्चर के निदेशक एके शर्मा कहते हैं कि इसकी वजह अलग-अलग परिवहन के बीच तालमेल की कमी है.
शर्मा कहते हैं, “मेट्रो रेल सब जगह नहीं पहुँचती और जहाँ है वहां फ़ीडर वाहनों की सुविधा पूरी नहीं है, बसों की हालत ख़स्ता है और कम शोध के साथ लाया गया बीआरटी कॉरिडोर एक सफल परीक्षण नहीं साबित हुआ.”

कड़वे अनुभव

दिल्ली वालों की मानें तो अपने वाहन पर हों या ऑटो पर, बस से या मेट्रो से चलें, देश की राजधानी में सफ़र करना सुखद नहीं दुखद अनुभव है.
कनॉट प्लेस में काम करने वाले मनसिमरन सिंह कहते हैं, “दिल्ली में सफ़र करना तो अत्याचार जैसा है, दो-तीन किलोमीटर पार करने में ही आधा-पौना घंटा लग जाता है.”
"मेट्रो अगर थोड़ी भी देरी से चले तो ऐसी भीड़ हो जाती है, महिलाओं के डब्बे में भी भेड़-बकरियों जैसे दबकर बहुत बुरा लगता है."
दीक्षा, यात्री
मेट्रो में सफर करने वाली दीक्षा कहती हैं, “मेट्रो अगर थोड़ी भी देरी से चले तो ऐसी भीड़ हो जाती है, महिलाओं के डिब्बे में भी भेड़-बकरियों जैसे दबकर बहुत बुरा लगता है.”
लेकिन परिवहन तंत्र के बुनियादी ढाँचे की ख़ामियों से परेशानी शारीरिक ही नहीं मानसिक भी होती है.
आईबीएम के सर्वेक्षण के मुताबिक घर से दफ़्तर या स्कूल-कॉलेज का सफर अगर परेशानी भरा हो तो इससे झल्लाहट और गुस्से की प्रवृति को बढ़ावा मिलता है.
पिछले महीनों में दिल्ली में ट्रैफिक में रास्ता नहीं दिए जाने पर पिस्तौल से गोलियां चलाने, बद्तमीज़ी करने या मारपीट करने की वारदातें आम होती जा रही हैं.
हालांकि आईएफटीआरटी के संयोजक एसपी सिंह का कहना है कि ये बदलते समाज का आईना ही है. हमारी बेसब्री, काम का दबाव और बदलते मूल्य ही सड़क पर हमें आपे से बाहर कर देते हैं.
लेकिन बड़े शहरों में बेहतर आयाम की तलाश में बढ़ती जनसंख्या का अगर यही बदलता परिवेश है तो इसके मुताबिक नए नियम, योजनाओं और क़ायदों के बारे में सोचना अब बेहद ज़रूरी होगा.

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