गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

भारत के 10 बदनाम रेडलाइट एरिया

 
  • प्रस्तुति- राकेश कुमार सिन्हा
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देह व्यापार पूरी दुनिया में आज भी महिलाओं की दैहिक स्वातंत्रता पर कलंक है। भारत जैसे देश में जहां स्त्री़ को पूज्य माना गया है, वहां भी लंबे समय से महिलाएं देह व्यापार जैसे घिनौने धंधे में उतरने को मजबूर हैं। हालांकि 1956 में पीटा कानून के तहत वेश्यावृत्ति को कानूनी वैधता दी गई, पर 1986 में इसमें संशोधन करके कई शर्तें जोड़ी गईं, जिसमें सार्वजनिक सेक्स को अपराध माना गया और यहां तक कि इसमें सजा का प्रावधान भी रखा गया, लेकिन इसे विडंबना कहें कि दुर्भाग्य, आज भी देश में कई ऐसे इलाके हैं, जहां लड़कियां जिस्मफरोशी को मजबूर हैं। देखिए भारत के 10 ऐसे रेड लाइट एरिया, जिनकी एशिया में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में चर्चा होती है।
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ये हैं भारत के 10 बदनाम रेडलाइट एरिया
देह व्यापार पूरी दुनिया में आज भी महिलाओं की दैहिक स्वातंत्रता पर कलंक है। भारत जैसे देश में जहां स्त्री़ को पूज्य माना गया है, वहां भी लंबे समय से महिलाएं देह व्यापार जैसे घिनौने धंधे में उतरने को मजबूर हैं। हालांकि 1956 में पीटा कानून के तहत वेश्यावृत्ति को कानूनी वैधता दी गई, पर 1986 में इसमें संशोधन करके कई शर्तें जोड़ी गईं, जिसमें सार्वजनिक सेक्स को अपराध माना गया और यहां तक कि इसमें सजा का प्रावधान भी रखा गया, लेकिन इसे विडंबना कहें कि दुर्भाग्य, आज भी देश में कई ऐसे इलाके हैं, जहां लड़कियां जिस्मफरोशी को मजबूर हैं। देखिए भारत के 10 ऐसे रेड लाइट एरिया, जिनकी एशिया में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में चर्चा होती है।
देह व्यापार पूरी दुनिया में आज भी महिलाओं की दैहिक स्वातंत्रता पर कलंक है। भारत जैसे देश में जहां स्त्री़ को पूज्य माना गया है, वहां भी लंबे समय से महिलाएं देह व्यापार जैसे घिनौने धंधे में उतरने को मजबूर हैं। हालांकि 1956 में पीटा कानून के तहत वेश्यावृत्ति को कानूनी वैधता दी गई, पर 1986 में इसमें संशोधन करके कई शर्तें जोड़ी गईं, जिसमें सार्वजनिक सेक्स को अपराध माना गया और यहां तक कि इसमें सजा का प्रावधान भी रखा गया, लेकिन इसे विडंबना कहें कि दुर्भाग्य, आज भी देश में कई ऐसे इलाके हैं, जहां लड़कियां जिस्मफरोशी को मजबूर हैं। देखिए भारत के 10 ऐसे रेड लाइट एरिया, जिनकी एशिया में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में चर्चा होती है।
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गंगा-जमुना नागपुर : महाराष्‍ट्र की उपराजधानी नागपुर में इतवारी इलाके में गंगा-जमुना इलाका है, जहां वेश्‍यावृत्ति चलती है। यह इलाका देह व्‍यापार के लिए पूरे नागपुर में फेमस है। खास बात यह है कि यह कई तरह के अपराधों का भी अड्डा है
बेटी से धंधा कराने का रिवाज
मंदसौर। बच्चे के जन्म पर खुशियां मनाते लोगों को तो सुना ही होगा, लेकिन कुछ ऐसे गांव हैं, जो सिर्फ बेटी के जन्म पर ही खुशी मनाते हैं। इसलिए नहीं कीवे महिला समर्थक हैं या जागरुक विचारों को बढ़ावा दे रहे हैं, बल्कि इसलिए कि उम्र के 12 वें पायदान पर पहुंचते ही उन्हें परंपरा के नाम पर देह व्यापार में उतार दिया जाएगा।


रेड लाइट एरिया, जहां बदलते वक्त में अब निरंतर परिवर्तन आ रहा है। वहीं परंपरा के नाम पर अब भी देह का व्यापार किया जा रहा है। सिर्फ एक या दो नहीं कुछ चुनिंदा गांव इस कार्य में लगे हुए हैं और परिवार की परंपरा का नाम देकर इस काम को बिना किसी हिचक और डर के आगे बढ़ा रहे हैं। ज्यादा आश्चर्य इस बात का है कि इस काम को पढ़ी-लिखी लड़कियां भी परिवार की मर्जी और परंपरा के नाम पर आगे बढ़ा रही हैं।


बसावा समुदाय मेंपरंपरा
बताया जाता है कि करीब 70 साल पहले बसावा समुदाय ने परिवार से एक लड़की द्वारा देह व्यापार करने की प्रथा चलाई थी। जो बाद में बढ़ती गई और अब इस काम में कई गांव लिप्त हो गए हैं। 6 माह से ढाई साल तक बच्ची यहां बड़ी ही आसानी से 60 हजार से डेढ़ लाख रुपए तक में बिक जाती है।
इन जिलों में ज्यादा संख्या
मंदसौर की राजस्थान सीमा से लगे हुए कुछ गांव, महू-नीमच हाइवे, रतलाम जावरा का डोडर गांव, नीमच के भीतर स्थित एक गांव है। जहां इस काम को लोग पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ा रहे हैं। इन स्थानों पर महिलाओं और युवतियों को विष कन्या के नाम से भी जाना जाता है। युवतियों की खरीद-फरोख्त के मामले भी यहां जब-तब सामने आते रहते हैं। पुलिस ने चलाया अभियान
पुलिस अब इन क्षेत्रों में अभियान चलाकर इन लोगों की जीवनशैली परिवर्तित करने का प्रयास किया। बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन से भी मासूम बच्चियों को चुराकर उनसे व्यापार कराया जाता है। करीब तीन साल पहले पुलिस ने देह व्यापार में लिप्त 68 लड़कियों को पकड़ा था। ये सभी बसावा समुदाय की थीं। इनमें से कुछ को नारी निकेतन पहुंचाया गया। वहीं कुछ को उनके माता-पिता को सौंप दिया गया। बताया जाता है कि एसपी जीके पाठक ने इस अभियान को शुरू हुआ था। लेकिन उनके जाते ही अभियान भी थम गया।


पुणे की संस्था ने चलाई मुक्ति की मुहिम

इंदौर !   देह व्यापार के लिए बदनाम रतलाम-मंदसौर जिलों के बांछड़ा डेरे एक बार फिर सुखिऱ्यों में आ गए हैं। आशंका है कि यहाँ बांछड़ा किशोरियों की आड़ में बाहर से मानव तस्करी कर लाई गई कुछ नाबालिग लड़कियों को भी इस दलदल में धकेला जा रहा है। पुणे की एक संस्था ने इन डेरों में धकेली जा रही ऐसी ही बच्चियों की यहाँ से मुक्ति के लिए मुहिम शुरू की है। संस्था के सदस्यों की मौजूदगी में पुलिस को एक ही डेरे पर दबिश में 5 नाबालिग बच्चियों सहित 9 लडकियाँ मिली हैं। पुलिस ने इन्हें बरामद कर लिया है। अब पुलिस जांच कर रही है कि इनमें डेरों के अलावा अन्य लडकियाँ भी शामिल हैं या नहीं।        गौरतलब है कि इस इलाके में राष्ट्रीय राजमार्ग पर बसे करीब दर्जन भर से ज्यादा डेरों में लम्बे समय से देह व्यापार का घिनौना धंधा चल रहा है। बांछड़ा जाति के कुछ लोग परम्परा के नाम पर इस बरसों पुरानी कुरीति को अपने फायदे के लिए जि़ंदा रखे हुए हंै, बल्कि अब तो यह नये तौर-तरीके के साथ सामने आ रहा है। आशंका तो यह भी है कि इन डेरों में बांछड़ा लड़कियों के साथ बाहर से मानव तस्करी कर लाई लड़कियों को भी इस दलदल में धकेला जा रहा है। पुलिस को यहाँ लडकियों की खरीद फरोख्त होने का भी अंदेशा है और इस बिंदु पर भी लड़कियों से पूछताछ की जा रही है।  इसी आशंका के चलते महाराष्ट्र पुणे की स्वयंसेवी संस्था फ्रीडम फाइटर ने रतलाम प्रशासन को यहाँ कार्यवाही के लिए सूचना दी। जावरा-नयागांव फोरलेन पर स्थित परवलिया बांछड़ा डेरों में मानव तस्करी की सूचना पर पुलिस ने दबिश दी। यहाँ अलग -अलग घरों से नाबालिग और 4 बालिग लड़कियों सहित एक ग्राहक को भी पकड़ा गया है। पहले पुलिस दल के ही एक सदस्य को ग्राहक बनाकर भेजा गया और उसके रुमाल फेंकते ही पुलिस ने डेरे को घेर लिया। नाबालिग लड़कियों को फिलहाल बालगृह में भेजा गया है। रिंगनोद थाना प्रभारी विपिन बाथम के मुताबिक अनैतिक देह व्यापार अधिनियम में कार्यवाही की है।   दबिश की कार्रवाई के बाद जिला कलेक्टर बी चन्द्रशेखर और पुलिस अधीक्षक अविनाश शर्मा फ्रीडम फाइटर के सदस्यों के साथ खुद मौके पर पंहुचे। आसपास के गावों में भी अधिकारीयों के दल ने भ्रमण किया। उन्होंने रिंगनोद थाने जाकर भी स्थिति का जायजा लिया।
वेश्याओं के गांव में सामूहिक विवाह

अहमदाबाद। गुजरात के पालनपुर के पास वाडिया गांव का नाम आपने सुना होगा। अगर नहीं सुना तो हम आपको बता दें कि यह गांव वेश्‍यावृत्ति के लिए मशहूर है। यहां के परिवार स्‍वेच्‍छा से अपनी बेटियों, बहनों और कभी-कभी पत्नियों से वेश्‍यावृत्ति करवाते हैं, ताकि उनका घर खर्च चल सके। दशकों से चली आ रही यह परम्‍परा अब टूटने जा रही है। जी हां यहां की बेटियां शादी के बंधन में बंधने जा रही हैं वो भी सामूहिक विवाह के माध्‍यम से। टीओआई में प्रकाशित एक खबर के मुताबिक 11 मार्च को इस गांव में सामूहिक विवाह होने जा रहा है, जिसमें 15 लड़कियां शादी के बंधन में बंधेंगी और वेश्‍यावृत्ति से कोसों दूर घर बसायेंगी। इस विवाह के लिए 2 हजार से अधिक लोगों को न्‍योता दिया जा चुका है। जिन लड़कियों की शादी होने जा रही है उनमें 7 लड़कियां 18 वष्र की हैं, जबकि बाकी उससे थोड़ी कम आयु की। परंपरा के मुताबिक अगर ये लड़कियां बाजार में बेची जायें तो उनके सबसे ज्‍यादा दाम लगेंगे। यह बात गांव के लोग भी जानते हैं। लेकिन अब यह गांव इन सबसे मुक्ति चाहता है। इतिहास में पहली बार ऐसा होगा कि 18 साल की होने पर किसी लड़की को देह व्‍यापार में धकेलने के बजाये उसकी शादी रचाई जायेगी। लड़कियों में से एक के पिता और विचारती जाटी समुदाय समर्थन मंच के नेता शर्दा भाटी के मुताबिक इन लड़कियों के माता-पिता इनके वैवाहिक जीवन के लिए तैयार नहीं थे। उन्‍हें लगता है कि शादी के चक्‍कर में पड़ने से उनका व्‍यापार ठप पड़ जायेगा। पेट की खातिर वे चाहते थे कि उनकी लड़कियों के अच्‍छे दाम लगें, लेकिन एक गैर सरकारी संगठन द्वारा काउंसिलिंग के बाद यह परिवर्तन उनमें दिखाई दिया है। हम आपको बता दें कि वाडिया गांव की जनसंख्‍या करीब 750 है, जिनमें 100 से अधिक महिलाएं व लड़कियां स्‍वतंत्रता के पहले से देह व्‍यापार करती आ रही हैं। ये परिवार मुख्‍य रूप से राजस्‍थान और सौराष्‍ट्र के सरनिया समाज के हैं। Read more about: वेश्‍यावृत्ति, लड़की, देह व्‍यापार, शादी, गुजरात, prostitution, gujarat, marriage, girls





सुनो एक ऐसे राजा की कहानी, जिसके पास न था दाना न था पानी





 Posted by: Richa Published: Monday, December 7, 2015, 16:11 [IST] Share this on your social network: Facebook Twitter Google+ Comments Mail कटक। जब कभी भी आपको किसी राजा की कहानी बचपन में सुनाई गई होगी तो आपको उसके महल और उसके पास मौजूद धन-दौलत के बारे में भी बताया गया होगा। Birabara Champati Singh Mohapatra लेकिन भारत का एक राजा ऐसा भी था जिसके पास न तो दौलत थी और न ही आलिशान महल। सिर्फ इतना ही नहीं जब इस राजा की मौत भी हुई तो भी एक खामोश अंदाज में। हम बात कर रहे हैं 95 वर्षीय ब्रजराज खत्री बीराबारा चंपति सिंह मोहापात्रा की जिनका निधन 30 नंवबर को हुआ है। मोहापात्रा ब्रिटिश राज के आखिरी राजा थे जो जिंदा थे। आपको जानकर हैरानी होगी कि जिस समय उनकी मौत हुई उनके पास एक पैसा नहीं था। वह सिर्फ एक झोपड़ी में रहते थे और उन्‍हें देखकर इस बात का अंदाजा भी लगा पाना मुश्किल था कि वह‍ किसी शाही खानदार से आते थे। अगर ब्रजराज के राज की बात करें तो वह था ओडिशा के कटक जिले के अंर्तगत आने वाला तिगिरिया जिला जो राजधानी भुवनेश्‍वर से 60 किमी दूरी पर स्थित था। ब्रजराज के पूर्वज राजस्‍थान से यहां पर आए थे और उन्‍होंने सन 1246 में अपना साम्राज्‍य यहां पर स्‍थापित किया था। तिगिरिया एक पर्वतीय और जंगलों से घिरी हुई जगह है। महाराज ब्रजराज की आखिरी इच्‍छा थी कि पुरानाद तिगिरिया के लोगों से 10 रुपए इकट्ठा किए जाएं ताकि उनका अंतिम संस्‍कार हो सके। गांववाले कहते हैं कि ब्रजराज को 'राजा' नहीं बल्कि 'अजा' यानी दादा कहलाना पसंद था। गांव वाले उन्‍हें याद करके बताते हैं कि वह बहुत ही सादे इंसान थे और बहुत ही दयालु थे। जब उनके पास सब कुछ था तो भी उनमें जरा भी घमंड नहीं था। अपनी मौत के कई वर्षों पहले दिवालिया घोषित कर दिए गए थे और गांववालों की ओर से मिलने वाली मदद पर गुजारा कर रहे थे। उन्‍होंने अपनी झोपड़ी खुद तैयार की थी और अपने लिए एक रिक्‍शा खरीदा था ताकि वह एक गांव से दूसरे गांव जा सकें। गांव वाले उनकी याद और सम्‍मान में एक मेमोरियल बनवाने का ऐलान कर चुके हैं। Read more about: king, india, odisha, bhubaneswar, british, independence, death,, भारत, ओडिशा, महाराज, राज्‍य, ब्रिटिश, आजादी, मौत, निधन

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देह व्यापार पूरी दुनिया में आज भी महिलाओं की दैहिक

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2015

दिल्ली के आठ शहर





दिल्ली के उत्तरवर्ती शहर

तीन चीजें एक शहर का निर्माण करती हैं - दरिया, बादल, बादशाह.
इसे इस प्रकार कह सकते हैं एक नदी, वर्षा-बादल लाने वाली और एक सम्राट (जो अपनी इच्छाएं लागू कर सकता है)।
पुरानी कहावत
"हम दिल्ली शहर में हैं, जो प्राचीन और नए भारत का प्रतीक है। यह पुरानी दिल्ली की तंग गलियों और मकानों तथा नई दिल्ली के खुली जगहों और अपेक्षाकृत आधुनिक भवनों का जिक्र नहीं है, अपितु इस प्राचीन शहर की मनोवृत्ति है। दिल्ली भारतीय इतिहास की गवाह रही है, जिसने वैभव और आपदाएं देखी हैं और जिसमें अनेक संस्कृतियों को समाहित कर सकने की क्षमता है, फिर भी यह शहर अडिग है। यह वह हीरा है जिसके कई फलक है, कुछ चमकीले है और कुछ समय के साथ मैले पड़ चुके हैं, जो प्राचीन समय से भारतीय जीवनशैली और विचारों को प्रदर्शित करते आ रहे हैं।

दिल्ली शहर में हमें भारत में हुआ अच्छा व बुरा दोनों रूप दिखते हैं, जहां अनेक सम्राटों की कब्रें हैं और एक गणराज्य की नर्सरी है। इसका कहानी कितनी आश्चर्यजनक है! यहां हर कदम पर हमारे इतिहास की सैंकड़ों वर्षों पुरानी परंपराएं है, और हमारी आंखों के सामने से गुज़रने वाला असंख्य पीढ़ियों का कारवां है"

प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु
दिल्ली विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह के अभिभाषण से
दिसंबर, 1958

यदा-कदा उजड़ने के बावजूद दिल्ली का एक लंबा इतिहास रहा है, जिसमें एक उल्लेखनीय निरंतरता है और किसी अन्य शहर की तुलना में अधिक समय तक भारत की राजधानी बने रहने की अनोखी विशिष्टता है। क प्राचीन किवदंती है कि "जिसने दिल्ली पर शासन किया, उसने भारत पर शासन किया"। इस शहर ने भूतकाल और भविष्य के उतार-चढ़ाव देखे हैं। यद्पि इसके स्थान बारंबार बदलते रहे हैं, इसका चरित्र और नाम, निरंतर बना रहा है, जिसने अनेक सभ्यताओं का उत्थान और पतन देखा है। महाभारत के इंद्रप्रस्थ से वर्तमान नई दिल्ली शहर तक यह एक विशाल महानगर में तब्दील हो चुका है। राजा दिल्लू की दिल्ली से नई दिल्ली तक के सफर में इस शहर ने हमेशा शक्ति का संचालन किया है।

दिल्ली की स्थापना का प्राचीनतम संदर्भ महाभारत में मिलता है। हस्तिनापुर के राजा धृतराष्ट्र ने पांडवों को दिल्ली के आसपास के क्षेत्र में अपना साम्राज्य स्थापित करने के निर्देश दिए। दिल्ली का यह हिस्सा खांडवप्रस्थ के नाम से जाना गया। पांडव राजकुमार, युधिष्ठिर ने खांडववन नामक जंगल क्षेत्र को साफ करके दिल्ली में इन्द्रप्रस्थ नामक शहर की स्थापना की। वास्तव में यह इतना आकर्षक शहर था कि कौरव पांडवों के शत्रु बन गए। उसी काल से दिल्ली ने अनेक साम्राज्यों एवं सम्राटों का उत्थान एवं पतन देखा। इसकी लोकेशन से प्राचीन काल से ही अनेक राजा इसका ओर आकर्षित हुए क्योंकि इस शहर का सामरिक और वाणिज्यिक महत्व था।

यह बहस करना आसान न होगा कि दिल्ली के शहर कमोबेश सात से अधिक थे। किन्तु स्वीकार्य संख्या सात है (नई दिल्ली को छोड़कर) और इन शहरों के अवशेष आज भी मौजूद हैं। इतिहासकार 1100 ई. और 1947 ई. के बीच "दिल्ली के सात शहरों" का ज़िक्र करते हैं, वास्तव में इनकी संख्या आठ है:
  • कुतुब मीनार के निकट प्राचीनतम शहर
  • सीरी
  • तुगलकाबाद
  • जहांपनाह
  • फिरोज़ाबाद
  • पुराने किले के निकट शहर
  • शाहजहानाबाद
  • नई दिल्ली

इनमें से प्रत्येक शहर संबंधित वंश के महल - किले के इर्द-गिर्द फैलता था और प्रत्येक वंश अपनी प्रतिष्ठा को लेकर अपना नया मुख्यालय स्थापित करना चाहता था। यहां तक कि समान वंश के राजाओं का यही उद्देश्य होते थे और इनकी पूर्ति के लिए उनके पास साधन भी होते थे। प्रत्येक एक के बाद एक आते वंश ने वास्तुकला के विशिष्ट उदाहरण पेश किए और शहर वास्तुकलाओं में कुछ परिवर्तन किए। अक्सर कुछ महत्वपूर्ण भवन खड़े होते, कुछ स्मारक - चाहे एक मस्जिद हो अथवा एक मकबरा, कोई किला अथवा विजय स्तंभ।

भारत की राजधानी के रूप में दिल्ली की कहानी 12वीं शताब्दी के अंत में उत्तर भारत में मुस्लिमों की विजय के साथ आरंभ हुई थी। तभी से,  कुछ विरामों के साथ, यह शहर प्रत्येक केंद्रीय राजनैतिक प्राधिकार रखने वालों का आसन रही है।

पृथ्वीराज चौहान








अजमेर स्थित पृथ्वीराज चौहान की मूर्ति।
पृथ्वीराज चौहान (सन् 1166-1192) चौहान वंश के हिंदू क्षत्रिय राजा थे जो उत्तरी भारत में 12 वीं सदी के उत्तरार्ध के दौरान अजमेर और दिल्ली पर राज्य करते थे। पृथ्वीराज को 'राय पिथौरा' भी कहा जाता है। वह चौहान राजवंश का प्रसिद्ध राजा थे। पृथ्वीराज चौहान का जन्म अजमेर राज्य के वीर राजपूत महाराजा सोमश्वर के यहाँ हुआ था। उनकी माता का नाम कपूरी देवी था जिन्हेँ पूरे बारह वर्ष के बाद पुत्र रत्न कि प्राप्ति हुई थी। पृथ्वीराज के जन्म से राज्य मेँ राजनीतिक खलबली मच गई उन्हेँ बचपन मेँ ही मारने के कई प्रयत्ऩ किए गए पर वे बचते गए। पृथ्वीराज चौहान जो कि वीर राजपूत योधा थे बचपन से ही तीर और तलवारबाजी के शौकिन थे। उन्होँने बाल अव्सथा मेँ ही शेर से लड़ाई कर उसका जबड़ा फार डाला। पृथ्वी के जन्म के वक्त ही महाराजा को एक अनाथ बालक मिला जिसका नाम चन्दबरदाई रखा गया। जिन्हेँ आगे चलकर कविताओँ का शौक हो गया। चन्दबरदाई और पृथ्वीराज चौहान बचपन से ही अच्छे मित्र और भाई समान थे। वह तोमर वंश के राजा अनंग पाल का दौहित्र (बेटी का बेटा) था और उसके बाद दिल्ली का राजा हुआ। उसके अधिकार में दिल्ली से लेकर अजमेर तक का विस्तृत भूभाग था। पृथ्वीराज ने अपनी राजधानी दिल्ली का नवनिर्माण किया। तोमर नरेश ने एक गढ़ के निर्माण का शुभारंभ किया था, जिसे पृथ्वीराज ने सबसे पहले इसे विशाल रूप देकर पूरा किया। वह उनके नाम पर पिथौरागढ़ कहलाता है और दिल्ली के पुराने क़िले के नाम से जीर्णावस्था में विद्यमान है।

अनुक्रम

पृथ्वीराज चौहान का जन्म

सन ११०० ई० में दिल्ली में महाराजा अनंगपालतोमर का शासन था। उसकी एकलौती संतान उसकी पुत्री कर्पूरी देवी थी। उसको कोई पुत्र नहीं था। कर्पूरी देवी का विवाह अजमेर के महाराजा सोमेश्वर के साथ हुआ था। अजमेर के राजा सोमेश्वर और रानी कर्पूरी देवी के यहाँ सन 1149 में एक पुत्र पैदा हुआ। जो आगे चलकर भारतीय इतिहास में महान हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसे दिल्ली के अंतिम हिंदू शासक के रूप मे भी जाना जाता है| इतिहास मे पृथ्वीराज के महोबे के चंदेलों से संघर्ष को आल्हा काव्य मे वर्णित किया गया है| ‌ उसका कन्नौज के शासक जयचंद के साथ भी मुकाबला हुआ बाद मे इसी दुश्मनी की वजह से मुहम्मद गोरी के साथ हुयी दूसरी लड़ाई मे उसकी भारी क्षति हुयी एवं पराजय हुयी|
उसका राज्य राजस्थान और हरियाणा तक था। और उसने मुस्लिम आक्रमणों के खिलाफ राजपूतों को एकीकृत किया।
पृथ्वी राज ने प्रथम युद्ध में सन 1191 में मुस्लिम शासक सुल्तान मुहम्मद शहाबुद्दीन गौरी को हराया। गौरी ने अगले साल दूसरी बार हमला किया और पृथ्वी राज को हराया और सन 1192 में तराइन के द्वितीय युद्ध में कब्जा कर लिया। अब दिल्ली मुसलमान शासकों के नियंत्रण में आ गई। दिल्ली में किला राय पिथौरा भी पिथौरागढ़ के रूप में पृथ्वीराज द्वारा ही बनाया हुआ है।

दिल्ली का उत्तराधिकार

महाराजा अनंगपाल के यहाँ कोई पुत्र नहीं था इसकी चिंता उन्हें दिन रात रहती की उनके बाद दिल्ली का उत्तराधिकार कौन संभालेगा। यही विचार कर उन्होंने अपनी पुत्री के समक्ष पृथ्वीराज को दिल्ली का युवराज बनाने की बात कही। फिर उन्होंने अपने दामाद अजमेर के महाराजा सोमेश्वर से भी इस बारे में विचार-विमर्श किया। राजा सोमेश्वर और रानी कर्पूरी देवी ने इसके लिए अपनी सहमती प्रदान कर दी जिसके फलसवरूप पृथ्वीराज को दिल्ली का युवराज घोषित कर दिया गया। 1166 ई० में दिल्लीपति महाराज अनंगपाल की मृत्यु के बाद पृथ्वीराज को विधि पूर्वक दिल्ली का उत्त्रदयितव सौप दिया गया। विद्रोही नागार्जुन का अंत : जब महाराज अनंगपाल की मृत्यु हुयी उस समय बालक पृथ्वीराज की आयु मात्र ११ वर्ष थी। अनंगपाल का एक निकट सम्बन्धी था विग्रह्राज। विग्रह्राज के पुत्र नागार्जुन को पृथ्वीराज का दिल्लिअधिपति बनाना बिलकुल अच्छा नहीं लगा। उसकी इच्छा अनंगपाल की मृत्यु के बाद स्वयं गद्दी पर बैठने की थी, परन्तु जब अनंगपाल ने अपने जीवित रहते ही पृथ्वीराज को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया तो उसके हृदय में विद्रोह की लहरे मचलने लगी। महाराज की मत्यु होते ही उसके विद्रोह का लावा फुट पड़ा। उसने सोचा के पृथ्वीराज मात्र ग्यारह वर्ष का बालक है और युद्ध के नाम से ही घबरा जायेगा। नागार्जुन का विचार सत्य से एकदम विपरीत था। पृथ्वीराज बालक तो जरुर था पर उसके साथ उसकी माता कर्पूरी देवी का आशीर्वाद और प्रधानमंत्री एवं सेनाध्यक्ष कमासा का रण कौशल साथ था। विद्रोही नागार्जुन ने शीघ्र ही गुडपुरा (अजमेर) पर चढाई कर दी। गुडपुरा (अजमेर) के सेनिको ने जल्दी ही नागार्जुन के समक्ष अपने हथियार डाल दिए। अब नागार्जुन का साहस दोगुना हो गया। दिल्ली और अजमेर के विद्रोहियों पर शिकंजा कसने के बाद सेनापति कमासा ने गुडपुरा की और विशाल सेना लेकर प्रस्थान किया। नागार्जुन भी भयभीत हुए बिना अपनी सेना के साथ कमासा से युद्ध करने के लिए मैदान में आ डाटा। दोनों तरफ से सैनिक बड़ी वीरता से लड़े। अंतत: वही हुआ जिसकी सम्भावना थी। कमासा की तलवार के सामने नागार्जुन का प्राणांत हो गया।

पृथ्वीराज चौहान और संयोगिता की प्रेमकथा

पृथ्वीराज चौहान और संयोगिता की प्रेमकथा राजस्थान के इतिहास में स्वर्ण से अंकित है। वीर राजपूत जवान पृथ्वीराज चौहान को उसके नाना ने गोद लिया था। वर्षों दिल्ली का शासन सुचारु रूप से चलाने वाले पृथ्वीराज को कन्नौज के महाराज जयचंद की पुत्री संयोगिता भा गई। पहली ही नजर में संयोगिता ने भी अपना सर्वस्व पृथ्वीराज को दे दिया, परन्तु दोनों का मिलन इतना सहज न था। महाराज जयचंद और पृथ्वीराज चौहान में कट्टर दुश्मनी थी।
राजकुमारी संयोगिता का स्वयंवर आयोजित किया गया, जिसमें पृथ्वीराज चौहान को नहीं बुलाया गया तथा उसका अपमान करने हेतु दरबान के स्थान पर उसकी प्रतिमा लगाई गई। ठीक वक्त पर पहुँचकर संयोगिता की सहमति से महाराज पृथ्वीराज ने उसका अपहरण कर लिया और मीलों का सफर एक ही घोड़े पर तय कर अपनी राजधानी पहुँचकर विवाह कर लिया। जयचंद के सिपाही उसका बाल भी बाँका नहीं कर पाए।
मोहम्मद ग़ौरी द्वारा पराजित होने पर उसे बंदी बना कर ग़ौरी अपने साथ ले गया तथा उनकी आँखें गरम सलाखों से जला दी गईं। ग़ौरी ने पृथ्वीराज से अन्तिम ईच्‍छा पूछी तो चंदबरदायी द्वारा, जो कि पृथ्वीराज का अभिन्न सखा था, पृथ्वीराज शब्द भेदी बाण छोड़ने में माहिर सूरमा है इस बारे में बताया एवं ग़ौरी तक इसकी इस कला के प्रदर्शन की बात पहुँचाई। ग़ौरी ने मंजूरी दे दी। प्रदर्शन के दौरान ग़ौरी के शाबास लफ्ज के उद्घोष के साथ ही भरी महफिल में था, उस समय चंद बरदायी ने चार बाँस चौबीस गज अंगुल अष्‍ठ प्रमाण, ता ऊपर सुल्तान है, मत चूको रे चौहान दोहे द्वारा पृथ्वीराज को संकेत दिया जिस पर अंधे पृथ्वीराज ने ग़ौरी को शब्दभेदी बाण से मार गिराया तथा इसके पश्चात अपनी दुर्गति से बचने के लिए दोनों ने एक-दूसरे का वध कर दिया।
अमर प्रेमिका संयोगिता को जब इसकी जानकारी मिली तो वह भी वीरांगना की भाँति सती हो गई। दोनों की दास्तान प्रेमग्रंथ में अमिट अक्षरों से लिखी गई।

राजनैतिक नीति

पृथ्वीराज ने अपने समय के विदेशी आक्रमणकारी मुहम्मद गौरी को कई बार पराजित किया। युवा पृथ्वीराज ने आरम्भ से ही साम्राज्य विस्तार की नीति अपनाई। पहले अपने सगे-सम्बन्धियों के विरोध को समाप्त कर उसने राजस्थान के कई छोटे राज्यों को अपने क़ब्ज़े में कर लिया। फिर उसने बुंदेलखण्ड पर चढ़ाई की तथा महोबा के निकट एक युद्ध में चदेलों को पराजित किया। इसी युद्ध में प्रसिद्ध भाइयों, आल्हा और ऊदल ने महोबा को बचाने के लिए अपनी जान दे दी। पृथ्वीराज ने उन्हें पराजित करने के बावजूद उनके राज्य को नहीं हड़पा। इसके बाद उसने गुजरात पर आक्रमण किया, पर गुजरात के शासक 'भीम द्वितीय' ने, जो पहले मुइज्जुद्दीन मुहम्मद को पराजित कर चुका था, पृथ्वीराज को मात दी। इस पराजय से बाध्य होकर पृथ्वीराज को पंजाब तथा गंगा घाटी की ओर मुड़ना पड़ा।

जयचंद्र का विद्वेश

कन्नौज का राजा जयचंद्र पृथ्वीराज की वृद्धि के कारण उससे ईर्ष्या करने लगा था। वह उसका विद्वेषी हो गया था। उन युद्धों से पहिले पृथ्वीराज कई हिन्दू राजाओं से लड़ाइयाँ कर चुका था। चंदेल राजाओं को पराजित करने में उसे अपने कई विख्यात सेनानायकों और वीरों को खोना पड़ा था। जयचंद्र के साथ होने वाले संघर्ष में भी उसके बहुत से वीरों की हानि हुई थी। फिर उन दिनों पृथ्वीराज अपने वृद्ध मन्त्री पर राज्य भार छोड़ कर स्वयं संयोगिता के साथ विलास क्रीड़ा में लगा हुआ था। उन सब कारणों से उसकी सैन्य शक्ति अधिक प्रभावशालिनी नहीं थी, फिर भी उसने गौरी के दाँत खट्टे कर दिये थे।
सं. ११९१ में जब पृथ्वीराज से मुहम्मद गौरी की विशाल सेना का सामना हुआ, तब राजपूत वीरों की विकट मार से मुसलमान सैनिकों के पैर उखड़ गये। स्वयं गौरी भी पृथ्वीराज के अनुज के प्रहार से बुरी तरह घायल हो गया था। यदि उसका खिलजी सेवक उसे घोड़े पर डाल कर युद्ध भूमि से भगाकर न ले जाता, तो वहीं उसके प्राण पखेरू उड़ जाते। उस युद्ध में गौरी की भारी पराजय हुई थी और उसे भीषण हानि उठाकर भारत भूमि से भागना पड़ा था। भारतीय राजा के विरुद्ध युद्ध अभियान में यह उसकी दूसरी बड़ी पराजय थी, जो अन्हिलवाड़ा के युद्ध के बाद सहनी पड़ी थी।

गौरी और पृथ्वीराज का युद्ध

किंवदंतियों के अनुसार गौरी ने 18 बार पृथ्वीराज पर आक्रमण किया था, जिसमें 17 बार उसे पराजित होना पड़ा। किसी भी इतिहासकार को किंवदंतियों के आधार पर अपना मत बनाना कठिन होता है। इस विषय में इतना निश्चित है कि गौरी और पृथ्वीराज में कम से कम दो भीषण युद्ध आवश्यक हुए थे, जिनमें प्रथम में पृथ्वीराज विजयी और दूसरे में पराजित हुआ था। वे दोनों युद्ध थानेश्वर के निकटवर्ती तराइन या तरावड़ी के मैदान में क्रमशः सं. ११९१ और ११९२ में हुए थे।

पृथ्वीराज की सेना

कहा जाता है कि पृथ्वीराज की सेना में तीन सौ हाथी तथा 3,00,000 सैनिक थे, जिनमें बड़ी संख्या में घुड़सवार भी थे। दोनों तरफ़ की सेनाओं की शक्ति के वर्णन में अतिशयोक्ति भी हो सकती है। संख्या के हिसाब से भारतीय सेना बड़ी हो सकती है, पर तुर्क सेना बड़ी अच्छी तरह संगठित थी। वास्तव में यह दोनों ओर के घुड़सवारों का युद्ध था। मुइज्जुद्दीन की जीत श्रेष्ठ संगठन तथा तुर्की घुड़सवारों की तेज़ी और दक्षता के कारण ही हुई। भारतीय सैनिक बड़ी संख्या में मारे गए। तुर्की सेना ने हांसी, सरस्वती तथा समाना के क़िलों पर क़ब्ज़ा कर लिया। इसके बाद उन्होंने अजमेर पर चढ़ाई की और उसे जीता। कुछ समय तक पृथ्वीराज को एक ज़ागीरदार के रूप में राज करने दिया गया क्योंकि हमें उस काल के ऐसे सिक्के मिले हैं जिनकी एक तरफ़ 'पृथ्वीराज' तथा दूसरी तरफ़ 'श्री मुहम्मद साम' का नाम खुदा हुआ है। पर इसके शीघ्र ही बाद षड़यंत्र के अपराध में पृथ्वीराज को मार डाला गया और उसके पुत्र को गद्दी पर बैठाया गया। दिल्ली के शासकों को भी उसका राज्य वापस कर दिया गया, लेकिन इस नीति को शीघ्र ही बदल दिया गया। दिल्ली के शासक को गद्दी से उतार दिया और दिल्ली गंगा घाटी पर तुर्कों के आक्रमण के लिए आधार स्थान बन गई। पृथ्वीराज के कुछ भूतपूर्व सेनानियों के विद्रोह के बाद पृथ्वीराज के लड़के को भी गद्दी से उतार दिया गया और उसकी जगह अजमेर का शासन एक तुर्की सेनाध्यक्ष को सौंपा दिया गया। इस प्रकार दिल्ली का क्षेत्र और पूर्वी राजस्थान तुर्कों के शासन में आ गया।

पृथ्वीराज का विजयी अभियान

गुजरात के भीमदेव के साथ युद्ध

गुजरात में उस समय चालुक्य वंश के महाराजा भीमदेव बघेला का राज था। उसने पृथ्वीराज के किशोर होने का फायदा उठाना चाहता था। यही विचार कर उसने नागौर पर आक्रमण करने का निश्चय कर लिया। पृथ्वीराज किशोर अवश्य था परन्तु उसमे साहस-सयम और निति-निपुणता के भाव कूट-कूट कर भरे हुवे थे। जब पृथ्वीराज को पता चला के चालुक्य राजा ने नागौर पर अपना अधिकार करना चाहते है तो उन्होंने भी अपनी सेना को युद्ध के लिए तैयार रहने के लिए कहा। भीमदेव ने ही पृथ्वीराज के पिता सोमेश्वर को युद्ध में हरा कर मृत्यु के घाट उतर दिया था। नौगर के किले के बाहर भीमदेव के पुत्र जगदेव के साथ पृथ्वीराज का भीषण संग्राम हुआ जिसमे अंतत: जगदेव की सेना ने पृथ्वीराज की सेना के सामने घुटने टेक दिए। फलसवरूप जगदेव ने पृथ्वीराज से संधि कर ली और पृथ्वीराज ने उसे जीवन दान दे दिया और उसके साथ वीरतापूर्ण व्यव्हार किया। जगदेव के साथ संधि करके उसको अकूत घोड़े, हठी और धन सम्पदा प्राप्त हुयी। आस पास के सभी राज्यों में सभी पृथ्वीराज की वीरता, धीरता और रन कोशल का लोहा मानने लगे। यहीं से पृथ्वीराज चौहान का विजयी अभियान आगे की और बढने लगा।

पृथ्वीराज और संयोगिता का प्रेम और स्वयंवर

संयोंगिता कन्नौज के राजा जयचंद की पुत्री थी। वह बड़ी ही सुन्दर थी, उसने भी पृथ्वीराज की वीरता के अनेक किस्से सुने थे। उसे पृथ्वीराज देवलोक से उतरा कोई देवता ही प्रतीत होता था। वो अपनी सहेलियों से भी पृथ्वीराज के बारे में जानकारियां लेती रहती थी। एकबार दिल्ली से पन्नाराय चित्रकार कन्नौज राज्य में आया हुआ था। उसके पास दिल्ली के सौंदर्य और राजा पृथ्वीराज के भी कुछ दुर्लभ चित्र थे। राजकुमारी संयोंगिता की सहेलियों ने उसको इस बारे में जानकारी दी। फलस्वरूप राजकुमारी जल्दी ही पृथ्वीराज का चित्र देखने के लिए उतावली हो गयी। उसने चित्रकार को अपने पास बुलाया और चित्र दिखने के लिए कहा परन्तु चित्रकार उसको केवल दिल्ली के चित्र दिखता रहा परन्तु राजकुमारी के मन में तो पृथ्वीराज जैसा योद्धा बसा हुआ था। अंत में उसने स्वयं चित्रकार पन्नाराय से महाराज पृथ्वीराज का चित्र दिखने का आग्रह किया। पृथ्वीराज का चित्र देखकर वो कुछ पल के लिए मोहित सी हो गयी। उसने चित्रकार से वह चित्र देने का अनुरोध किया जिसे चित्रकार ने सहर्ष ही स्वीकार लिया। इधर राजकुमारी के मन में पृथ्वीराज के प्रति प्रेम हिलोरे ले रहा था वहीं दूसरी तरफ उनके पिता जयचंद पृथ्वीराज की सफलता से अत्यंत भयभीत थे और उससे इर्ष्या भाव रखते थे। चित्रकार पन्नाराय ने राजकुमारी का मोहक चित्र बनाकर उसको पृथ्वीराज के सामने प्रस्तुत किया। पृथ्वीराज भी राजकुमारी संयोगिता का चित्र देखकर मोहित हो गए। चित्रकार के द्वारा उन्हें राजकुमारी के मन की बात पता चली तो वो भी राजकुमारी के दर्शन को आतुर हो पड़े। राजा जयचंद हमेशा पृथ्वीराज को निचा दिखने का अवसर खोजता रहता था। यह अवसर उसे जल्दी प्राप्त हो गया उसने संयोगिता का स्वयंवर रचाया और
पृथ्वीराज को छोड़कर भारतवर्ष के सभी राजाओं को निमंत्रित किया और उसका अपमान करने के लिए दरबार के बाहर पृथ्वीराज की मूर्ती दरबान के रूप में कड़ी कर दी। इस बात का पता पृथ्वीराज को भी लग चूका था और उसने इसका उसी के शब्दों और उसी भाषा में जवाब देने का मन बना लिया। उधर स्वयंवर में जब राजकुमारी संयोगिता वरमाला हाथो में लेकर राजाओ को पार करती जा रही थी पर उसको उसके मन का वर नज़र नहीं आ रहा था। यह राजा जयचंद की चिंता भी बढ गयी। अंतत: सभी राजाओ को पार करते हुए वो जब अंतिम छोर पर पृथ्वीराज की मूर्ति के सामने से गुजरी तो उसने वही अपने प्रियतम के गले में माला डाल दी। समस्त सभा में हाहाकार मच गया। राजा जयचंद ने अपनी तलवार निकल ली और राजकुमारी को मारने के लिए दोड़े पर उसी समय पृथ्वीराज आगे बढ कर संयोगिता को थाम लिया और घोड़े पर बैठाकर निकल पड़ा। वास्तव में पृथ्वीराज स्वयं मूर्ति की जगह खड़ा हो गया था। इसके बाद तो राजा जयचंद के मन में पृथ्वीराज के प्रति काफी कटुता भर गयी और वो अवसर की तक में रहने लगा।

तराइन का प्रथम युद्ध (गौरी की पराजय)

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अपने साम्राज्य के विस्तार और सुव्यवस्था पर पृथ्वीराज की पैनी दृष्टि हमेशा जमी रहती थी। अब उनकी इच्छा पंजाब तक विस्तार करने की थी। किन्तु उस समय पंजाब पर मुहम्मद शाहबुद्दीन गौरी का राज था। ११९० ई० तक सम्पूर्ण पंजाब पर मुहम्मद गौरी का अधिकार हो चुका था। अब वह भटिंडा से अपना राजकाज चलता था। पृथ्वीराज यह बात भली भांति जनता था की मुहम्मद गौरी से युद्ध किये बिना पंजाब में चौहान साम्राज्य स्थापित करना असंभव था। यही विचार कर उसने गौरी से निपटने का निर्णय लिया। अपने इस निर्णय को मूर्त रूप देने के लिए पृथ्वीराज एक विशाल सेना लेकर पंजाब की ओर रवाना हो गया। तीव्र कार्यवाही करते हुए उसने हांसी, सरस्वती और सरहिंद के किलो पर अपना अधिकार कर लिया। इसी बीच उसे सुचना मिली की अनहीलवाडा में विद्रोहियों ने उनके विरुद्ध विद्रोह कर दिया है। पंजाब से वह अनहीलवाडा की ओर चल पड़ा। उनके पीठ पीछे गौरी ने आक्रमण करके सरहिंद के किले को पुन: अपने कब्जे में ले लिया। पृथ्वीराज ने शीघ्र ही अनहीलवाडा के विद्रोह को कुचल दिया। अब उसने गौरी से निर्णायक युद्ध करने का निर्णय लिया। उसने अपनी सेना को नए ढंग से सुसज्जित किया और युद्ध के लिए चल दिया। रावी नदी के तट पर पृथ्वीराज के सेनापति समर सिंह और गौरी की सेना में भयंकर युद्ध हुआ परन्तु कुछ परिणाम नहीं निकला। यह देख कर पृथ्वीराज गौरी को सबक सिखाने के लिए आगे बढ़ा। थानेश्वर से १४ मील दूर और सरहिंद के किले के पास तराइन नामक स्थान पर यह युद्ध लड़ा गया। तराइन के इस पहले युद्ध में राजपूतो ने गौरी की सेना के छक्के छुड़ा दिए। गौरी के सैनिक प्राण बचा कर भागने लगे। जो भाग गया उसके प्राण बच गए, किन्तु जो सामने आया उसे गाजर-मुली की तरह काट डाला गया। सुल्तान मुहम्मद गौरी युद्ध में बुरी तरह घायल हुआ। अपने ऊँचे तुर्की घोड़े से वह घायल अवस्था में गिरने ही वाला था की युद्ध कर रहे एक उसके सैनिक की दृष्टि उस पर पड़ी। उसने बड़ी फुर्ती के साथ सुल्तान के घोड़े की कमान संभल ली और कूद कर गौरी के घोड़े पर चढ़ गया और घायल गौरी को युद्ध के मैदान से निकाल कर ले गया। नेतृत्व विहीन सुल्तान की सेना में खलबली मच चुकी थी। तुर्क सेनिक राजपूत सेना के सामने भाग खड़े हुए। पृथ्वीराज की सेना ने ८० मील तक इन भागते तुर्कों का पीछा किया। पर तुर्क सेना ने वापस आने की हिम्मत नहीं की। इस विजय से पृथ्वीराज चौहान को ७ करोड़ रुपये की धन सम्पदा प्राप्त हुयी। इस धन सम्पदा को उसने अपने बहादुर सैनिको में बाँट दिया। इस विजय से सम्पूर्ण भारतवर्ष में पृथ्वीराज की धाक जम गयी और उनकी वीरता, धीरता और साहस की कहानी सुनाई जाने लगी।

तराइन का द्वितीय युद्ध (११९२ ई०) और जयचंद का देशद्रोह

पृथ्वीराज चौहान द्वारा राजकुमारी संयोगिता का हरण करके इस प्रकार कनौज से ले जाना रजा जयचंद को बुरी तरह कचोट रहा था। उसके ह्रदय में अपमान के तीखे तीर से चुभ रहे थे। वह किसी भी कीमत पर पृथ्वीराज का विध्वंश चाहता था। भले ही उसे कुछ भी करना पड़े। विश्वसनीय सूत्रों से उसे पता चला की मुहम्मद गौरी पृथ्वीराज से अपनी पराजय का बदला लेना चाहता है। बस फिर क्या था जयचंद को मनो अपने मन की मुराद मिल गयी। उसने गौरी की सहायता करके पृथ्वीराज को समाप्त करने का मब बनाया। जयचंद अकेले पृथ्वीराज से युद्ध करने का सहस नहीं कर सकता था। उसने सोचा इस तरह पृथ्वीराज भी समाप्त हो जायेगा और दिल्ली का राज्य उसको पुरस्कार सवरूप दे दिया जायेगा। राजा जयचंद के देशद्रोह का परिणाम यह हुआ की जो मुहम्मद गौरी तराइन के युद्ध में अपनी हर को भुला नहीं पाया था, वह फिर पृथ्वीराज का मुकाबला करने के षड़यंत्र करने लगा। राजा जयचंद ने दूत भेजकर गौरी को सैन्य सहायता देने का आश्वासन दिया। देशद्रोही जयचंद की सहायता पाकर गौरी तुरंत पृथ्वीराज से बदला लेने के लिए तैयार हो गया। जब पृथ्वीराज को ये सुचना मिली की गौरी एक बार फिर युद्ध की तैयारियों में जुटा हुआ तो उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। मुहम्मद गौरी की सेना से मुकाबल करने के लिए पृथ्वीराज के मित्र और राज कवि चंदबरदाई ने अनेक राजपूत राजाओ से सैन्य सहायता का अनुरोध किया परन्तु संयोगिता के हरण के कारण बहोत से राजपूत राजा पृथ्वीराज के विरोधी बन चुके थे वे कन्नौज नरेश के संकेत पर गौरी के पक्ष में युद्ध करने के लिए तैयार हो गए। ११९२ ई० में एक बार फिर पृथ्वीराज और गौरी की सेना तराइन के क्षेत्र में युद्ध के लिए आमने सामने कड़ी थी। दोनों और से भीषण युद्ध शुरू हो गया। इस युद्ध में पृथ्वीराज की और से ३ लाख सेनिको ने भाग लिया था जबकि गौरी के पास एक लाख बीस हजार सैनिक थे। गौरी की सेना की विशेष बात ये थी की उसके पास शक्तिशाली घुड़सवार दस्ता था। पृथ्वीराज ने बड़ी ही आक्रामकता से गौरी की सेना पर आकर्मण किया। उस समय भारतीय सेना में हाथी के द्वारा सैन्य प्रयोग किया जाता था। गौरी के घुड़सवारो ने आगे बढकर राजपूत सेना के हाथियों को घेर लिया और उनपर बाण वर्षा शुरू कर दी। घायल हाथी न तो आगे बाद पाए और न पीछे बल्कि उन्होंने घबरा कर अपनी ही सेना को रोंदना शुर कर दिया। तराइन के द्वित्य युद्ध की सबसे बड़ी त्रासदी यह थी की देशद्रोही जयचंद के संकेत पर राजपूत सैनिक अपने राजपूत भाइयो को मार रहे थे। दूसरा पृथ्वीराज की सेना रात के समय आकर्मण नहीं करती थी (यही नियम महाभारत के युद्ध में भी था) लेकिन तुर्क सैनिक रात को भी आकर्मण करके मारकाट मचा रहे थे। परिणामस्वरूप इस युद्ध में पृथ्वीराज की हार हुई और उसको तथा राज कवि चंदबरदाई को बंदी बना लिया गया। देशद्रोही जयचंद का इससे भी बुरा हाल हुआ, उसको मर कर कन्नौज पर अधिकार कर लिया गया। पृथ्वीराज की हर से गौरी का दिल्ली, कन्नौज, अजमेर, पंजाब और सम्पूर्ण भारतवर्ष पर अधिकार हो गया। भारत मे इस्लामी राज्य स्थापित हो गया। अपने योग्य सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक को भारत का गवर्नोर बना कर गौरी, पृथ्वीराज और चंदबरदाई को युध्बन्धी के रूप में अपने गृह राज्य गौरी की और रवाना हो गया।

पृथ्वीराज को अँधा बनाना

पृथ्वीराज की कहानी का यहीं अंत नहीं होता।
युद्धबंधी के रूप में उसे गौरी के सामने ले जाया गया। जहाँ उसने गौरी को घुर के देखा। गौरी ने उसे आँखें नीची करने के लिए कहा। पृथ्वीराज ने कहा की राजपूतो की आँखें केवल मृत्यु के समय नीची होती है। यह सुनते ही गौरी आगबबुला होते हुए उठा और उसने सेनिको को लोहे के गरम सरियों से उसकी आँखे फोड़ने का आदेश दिया। असल कहानी यहीं से शुरू होती है। पृथ्वीराज को रोज अपमानित करने के लिए रोज दरबार में लाया जाता था। जहाँ गौरी और उसके साथी पृथ्वीराज का मजाक उड़ाते थे। उन दिनों पृथ्वीराज अपना समय अपने जीवनी लेखक और कवि चंद् बरदाई के साथ बिताता था। चंद् ने 'पृथ्वीराज रासो' नाम से उसकी जीवनी कविता में पिरोई थी। चंद् ने पृथ्वीराज को गौरी से रोज रोज होने वाले अपमान का बदला लेने के लिए प्रेरित किया। पृथ्वीराज भी इस अपमान बहुत व्याधित था। उन दोनों को यह अवसर जल्द ही प्राप्त हो गया जब गौरी ने तीरंदाजी का एक खेल अपने यहाँ आयोजित करवाया। पृथ्वीराज ने भी खेल में शामिल होने की इच्छा जाहिर की परन्तु गौरी ने कहा की वह कैसे बिना आँखों के निशाना साध सकता है। पृथ्वीराज ने कहा की यह उनका आदेश है। पर गौरी ने कहा एक राजा ही राजा को आदेश दे सकता है तब चाँद ने पृथ्वीराज के राजा होने का वर्तन्त कहा। गौरी सहमत हो गया और उसको दरबार में बुलाया गया। वहां गौरी ने पृथ्वीराज से उसके तीरंदाजी कौशल को प्रदर्शित करने के लिए कहा। चंद बरदाई ने पृथ्वीराज को कविता के माध्यम से प्रेरित किया। जो इस प्रकार है-
"चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण, ता ऊपर है सुल्तान मत चुको चौहान।"
इसी शब्दवेदी बाण के द्वारा पृथ्वीराज ने आंकलन करके बाण चला दिया जिसके फलसवरूप गौरी का प्राणांत हो गया।

पृथ्वीराज का कौशल

मुहम्मद गौरी उस अपमानजनक पराजय का बदला लेने के लिए तैयारी करने लगा। अगले वर्ष वह 1 लाख 20 हज़ार चुने हुए अश्वारोहियों की विशाल सेना लेकर फिर तराइन के मैदान में आ डटा। उधर पृथ्वीराज ने भी उससे मोर्चा लेने के लिए कई राजपूत राजाओं को आमन्त्रित किया था। कुछ राजाओं ने तो अपनी सेनाएँ भेज दी; किंतु उस समय का गाहड़वाल वंशीय कन्नौज नरेश जयचंद्र उससे तटस्थ ही रहा। किवदंती है कि पृथ्वीराज से विद्वेष रखने के कारण जयचंद्र ने ही मुहम्मद गौरी को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमन्त्रित किया था। इस किंवदंती की सत्यता का कोई प्रामाणिक आधार नहीं है; अतः जयचंद्र पर देशद्रोह का दोषारोपण भी अप्रामाणिक ज्ञात होता है। उसमें केवल इतनी ही सत्यता है कि उसने उस अवसर पर पृथ्वीराज की सहायता नहीं की थी। पृथ्वीराज के राजपूत योद्धाओं ने उस बार भी मुसलमानी सेना पर भीषण प्रहार कर अपनी वीरता का परिचय दिया था, किंतु देश के दुर्भाग्य से उन्हें पराजित होना पड़ा। इस प्रकार सं. ११९२ के उस युद्ध में मुहम्मद गौरी की विजय और पृथ्वीराज की पराजय हुई थी। युद्ध में पराजित होने के पश्चात पृथ्वीराज की किस प्रकार मृत्यु हुई, इस विषय में इतिहासकारों के विभिन्न मत मिलते है। कुछ के मतानुसार वह पहिले बंदी बना कर दिल्ली में रखा गया था और बाद में गौरी के सैनिकों द्वारा मार दिया गया था। कुछ का मत है कि उसे बंदी बनाकर गजनी ले जाया गया था और वहाँ पर उसकी मृत्यु हुई। ऐसी भी किंवदंती है कि पृथ्वीराज का दरबारी कवि और सखा चंदवरदाई अपने स्वामी की दुर्दिनों में सहायता करने के लिए गजनी गया था। उसने अपने बुद्धि कौशल से पृथ्वीराज द्वारा गौरी का संहार कराकर उससे बदला लिया था। फिर गौरी के सैनिकों ने उस दोनों को भी मार डाला था।

चंदबरदाई कृत पृथ्वीराज रासो

अंत में अपने प्रमाद और जयंचद्र के द्वेष के कारण वह पराजित हो गया और उसकी मृत्यु हो गई। उसका मृत्यु काल सं. 1248 माना जाता है। उसके पश्चात मुहम्मद गौरी ने कन्नौज नरेश जयचंद्र को भी हराया और मार डाला। आपसी द्वेष के कारण उन दोनों की हार और मृत्यु हुई। पृथ्वीराज से संबंधित घटनाओं का काव्यात्मक वर्णन चंदबरदाई कृत पृथ्वीराज रासो नामक ग्रंथ में हुआ है।
"चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण, ता ऊपर सुल्तान है मत चुके चौहान।"
इसी शब्दवेदी बाण के द्वारा पृथ्वीराज ने आंकलन करके बाण चला दिया जिसके फलसवरूप गौरी का प्राणांत हो गया।

चौहानवंशावली

बाहरी कड़ियाँ

पृथ्वीराज चौहान की जीवनी हिंदी में केवल यहाँ-शिवराजन सिंह के द्वारा

सन्दर्भ


  1. सम्राट् पृथ्वीराज चौहान, देवसिंह मंडावा, ISBN - 978-81-86103-10-4, 2013, राजस्थानी-ग्रन्थागारम्, जोधपुरम्, पृ. १४८-१५१