सोमवार, 27 फ़रवरी 2017

दो दो पूजा को 25 साल के बाद याद करते हुए







अनामी शरण बबल

पूजा यानी पूजा प्रार्थना मंदिर में जाकर भगवान की वंदना आराधना या अर्चना। मन पूजा को लेकर कैसे शांत हो भला। जब देवी भक्ति महिमा कीर्ति पूजा के नाम के आगे पीछे मनोहर नामों की इतनी लंबी महिमा हो। मंगला चरण से पहले इतने नामों का जंजाल। हां तो मैं इस समय एक नहीं  दो दो पूजा की बात कर रहा हूं। पूजा बेदी और पूजा भट्ट की.    
पिछले दिनों मैं पूजा बेदी की बिंदास बेटी आलिया इब्राहिम के बारे में कुछ सुना, तो मुझे पूजा बेदी यानी बोल्ड बिंदास एंड ब्यूटीफुल पूजा बेदी की याद आ गयी। पूजा बेदी के बारे में मैं सोच ही रही था कि एकाएक दूसरी पूजा यानी पूजा भट्ट यानी दिल है कि मानता नहीं कि हिरोईन और दिल फेंकने के मामले में किसी से कम नहीं और रूपहले पर्दे के नामी निर्देशक महेश भट्ट की पहली या सबसे बड़ी बेटी की भी याद ताजी हो गयी। नाम एक मगर दोनों बालाओं के पीछे टाईटल अलग है। नामी बाप की दोनो एकदम एकसाथ जवान हुई हॉट बिंदास बालाओं से मुझे एक ही साथ एक ही होटल के एक ही कमरे में एक ही समय एक साथ बातचीत करने का मौका मिला। कबीर बेदी और महेश भट्ट दोनो पुराने दोस्त हैं लिहाजा इन दोनों की बेटियं भी बचपन से दोस्त रही है। पारिवारिक संबंधों के चलते इनकी दोस्ती आम हीरोईनों से कहीं ज्यादा बेबाक और खुलेपन की थी।

यह बात कोई 25 साल पहले 1992 की है। अब तो मुझे यह भी ठीक से याद नहीं हैं कि दिल्ली में इनके पीआर को देखने वाले मुकेश से मेरी आखिरी मुलाकात कब हुई थी। मुकेश से मिले 15 साल से ज्यादा तो हो ही गए है। बगैर किसी फोटोग्राफर के आने की शर्तो पर ही दोनों पूजाएं बातचीत के लिए राजी हुई। जब रूपहले पर्दे पर पूजा भट्ट की पहली फिल्म दिल है कि मानता नहीं धूम मचा रही थी और इसके गाने चारो तरफ छाए हुए थे। उधर उसी समय पूजा बेदी की कोई फिल्म के रिलीज के पहले ही कामसूत्र कॉण्डम या कंडोम के विज्ञापनों से बाजार में तहलका मची थी।

कंडोम गर्ल के रूप में विख्यात से ज्यादा इस पहली बहुरंगी रंगीन कामसूत्र के रंगीन पेंच में सेक्स को लेकर मीडिया में खबरों लेखों और इसी बहाने हॉट कामुक फोटो को छापने और सेक्स यानी सेक्सी कंडोम की चर्चा को किसी भी तरह मंदा नहीं पड़ने दिया जा रहा था। कामसूत्र से कामसूत्र की करोड़ों की कमाई (यह आज से 25 साल पहले 1992-93 की कमाई है जनाब) से बाजार गरमाया हुआ था। कंडोंम गर्ल से ज्यादा कामसूत्र गर्ल या सेक्स बनाम सेक्सी गर्ल के रूप में पूजा बेदी की ही चर्चा सबसे ज्यादा हो रही थी या चारो तरफ होती थी।

ज्यादातर दुकानों में तो लोगों ने कंडोम की मांग केवल पूजा बेदी कहकर भी करने लगे थे। कंडोम यानी पूजा देना या पूजा बेदी देना। कंडोम मांगने की सार्वजनिक झिझक को मारकर कामसूत्र ने एकदम छैला टाईप एक लफंगा शैली जिसे अब मॉडर्न स्टाईल भी कहा जाने लगा है को ही मार्केट का टीआरपी बना दिया ।

कामसूत्र ने समाज में कंडोम को लेकर मन में बनी झिझक को असरदार तरीके से तार तार कर दिया है। अब तो ग्राहकों ने मुस्कान के साथ बिना किसी झिझक के ओए पूजा बेदी या पूजा देना की मांगकर कंडोम की डिमांड को ग्लैमरस कर दिया। यही कारण है कि तब कंडोम का सालाना बाजार एक हजार करोड के आस पास का हो गया है। यौन शक्तिवर्द्धक दवाओं के अर्थशास्त्र को भी एक ही साथ मिला दे तो इससे आदमी पावरफूल हुआ है या नहीं यह तो एक गोपनीय सर्वेक्षण का गहन शोधात्मक प्रसंग बन जाएगा मगर तीन दशक के भीतर केवल पावर बेचने वाले खुद को उम्मीद से ज्यादा कमाई करके पावरफूल जरूर बन गए। यौनवर्द्धक दवाओं का क्या आकर्षण है यह इसी से पत्ता या समझा जा सकता है कि इडियट बॉक्स पर रोजाना मल्टीनेशनल कंपनियों को गरियाने वाले रामदेव बाबा भले ही बाल ब्रह्मचारी हो, मगर पावर की शुद्ध देशी दवाईयों को बेचने के मामले में ये भी किसी से पीछे नहीं रहे है। इनकी दवाईयां या शिलाजीत कितनी पावरवाली है यह तो कोई उपयोग करके ही बता सकता है कि पैसा वसूल गेम है पतजंलि के नाम पर पैसे का गंगा स्नान भर है केवल। पावर मेडिसीन का ही इतना आर्कषण है कि बाबा भी इससे कहां बच पाए ?

कंडोम यानी निरोध, और निरोध का मतलब परिवार नियोजन। परिवार नियोजन का एक ही सामाजिक अर्थ होता है हम दो हमारे दो। कंडोम की समाज शास्त्रीय व्याख्या में गांव से लेकर शहर तक एक ही नेशनल शब्दार्थ होता है सुखी परिवार। सुखी परिवार के आईने में कंडोम यानी निरोध है। मगर अब कंडोम के बाजार में मौजूद दर्जनों ब्रांड है। कंडोम की अब बाजारी भाषा में मौज मौका मस्ती और मजा का मस्ताना अंदाज या मर्दाना अंदाज यानी केवल बेफिक्र आनंद मस्ती ही नयी परिभाषा बन गयी है। कंडोंम का अर्थ यानी ज्यादा मजा ज्यादा डॉट्स ज्यादा आनंद यानी सबकुछ आदि इत्यादि।

माफ करना पाठकों इन पूजाओं की कीर्ति पाठ करते करते मैं कुछ ज्यादा ही बक बक करने लगा। हां तो उनके पीआर मुकेश के साथ मैं होटल ताज में जा पहुंचा। मुकेश से यारी होने के कारण वह बार बार मुझे चेता रहा था कि ये सालियां दोनों मुंहफट है, इसलिए तरीके से बात करना नहीं तो बात का हंगामा करेंगी। लड़कियों से बात करने में कोई संकोच तो मैं भी नहीं करता था मगर बिना प्रसंग किसी लड़की से बात करना तो आज भी मेरे लिए सरल नहीं है, मगर जब बात करने का बहाना हो तो बात  बेबात ही सही बात तो करनी पड़ती है। फिर लंबी बात करने या किसी के पेट से कुछ निकलवाने के लिए तो पहले चारा डालकर असर देखना पड़ता है। खैर मैं फिल्म पीआर मुकेश के साथ इन देवियों से लगभग मिलने के करीब आ गया था। कोई फंटूश या छैला नहीं होने के कारण अपन दिल भी थोडा आशंकित था। भीतर ही भीतर मैं अपने आप को ही सांत्वना दे रहा था कि अरे ये सब हीरोईने ही तो हैं कोई आतंकवादी तो नहीं जो गोली मार देगा।  

तीसरे तल पर हमलोग इन अभिनेत्रियों के कमरे के बाहर तक पहुंच गए। उस समय सुबह के 11 बज रहे थे। तब मुकेश ने मुझे दो मिनट बाहर ही खड़ा रहने को कहकर कॉलबेल बजाते हुए अंदर चला गया । दूसरे ही पल वह बाहर आया और मेरा हाथ पकड़ कर अपने साथ ही कमरे के अंदर पहुंच गया। अप्रैल का महीना था और दोनों शॉट्स पहन रखी थी। पूजा बेदी एक्सरसाईज कर रही थी तो पूजा भट्ट अपनी बालों को संवार रही थी। मेरे को देखते ही वे दोनों खिलखिला पड़ी। एकाएक खिलखिलाहट पर मैं भी संकोच में पड़ गया और मुकेश भी थोडा नर्वस सा था। मुकेश ने पूछा क्या बात है मैडम। अपनी हंसी को रोकते हुए पूजा बेदी बोली अरे मैं तो समझ रही थी कि कोई पत्रकार को ला रहे हो, मगर तुम तो किसी कॉलेजी लड़के को उठाकर ले आए। फौरन संयमित होकर मुकेश ने मेरे बारे जरा बढा चढाकर कसीने कसे। बकौल मुकेश क्या बात कर रही है आप। कितने दिनों तक तो दोस्ती का वास्ता देकर मैंने अनामी को इंटरव्यू के लिए राजी किया है और आप मजाक बना रही है। अनामी अईसा है वईसा है आप दिल्ली में तो रहती नहीं हो न, नहीं तो अनामी के नाम से आप पहले चहक जाती। खैर मुकेश की बात सुनकर दोनों पूजाएं लगभग एक साथ ही बोल पड़ी अरे नहीं पत्रकार के नाम पर तो मैं समझी कि दिल्ली वाला जर्नलिस्ट थोड़ा उम्रदराज और चश्मे वाला होगा। पर तुम तो टीशर्ट वाले किसी लड़के को ले आए। हो। फिर जोर जोर से दोनों हंसने लगी। सॉरी जर्नलिस्टजी माफ करना यार। बड़े बिंदास माहौल में मुझे छोड़कर बाहर जा रहे मुकेश ने कहा रिसैप्शन पर मैं आपका इंतजार करूंगा।  

कमरे में अकेला पाते ही मैं बैठने के लिए जगह और साधन देखने लगा। दो अलग अलग बेड के बीच में कुर्सी को घसीटा और धम्म से बैठ गया। मेरे बैठते ही पूजा भट्ट ने कहा कि आप तो कहीं से भी जर्नलिस्ट नहीं लग रहे। इस पर मैं खिलखिला उठा। मेरे हंसने पर व दोनों अवाक सी होकर बोली क्या हुआ मैने तुरंत पलटवार किया कि आपलोग को देखते ही मेरे मन में भी यही सवाल उठा था कि ये दोनों किसी भी तरह हीरोईन सी नहीं लग रही है।  इस पर तेज लहजे में दोनों बोल पड़ी क्या लग रही हूं बताओ न प्लीज। मैं फिर हंसने लगा तो तेज स्वर में इस बार पूजा बेदी चीखी अरे कुछ बोलो भी। तो।  मैने अपने पत्ते फेंके अरे मैं भी तो हीरोईनों से बात करने आया था मगर आपलोग तो एकदम स्कूली बेबी लग रही हो। फोटो तो बहुत हॉट होती है, मगर सामने तो आपलोग हो एकदम नहीं। मेरी बात सुनकर दोनों के चेहरे का पूरा तनाव खत्म हो गया। एक दूसरे को देखकर दोनो ने मुझसे कहा और तुम भी गुड बॉय हो। यह सुनते ही मैं जरा नाराजगी जताने के लहजे में कहा यदि संग में फोटोग्राफर लाने देती तो गुड बॉय भी दोनों गुड गर्ल के साथ अपना फोटू खिंचवा कर जमाने भर को बताता कि ये देखो मैंने दोनों पूजा से बात की है। मगर मेरे पास तो आपलोग से मिलने का कोई सबूत ही कहां है। कि लोगों को बता सकूं कि दोनों देखने में एकदम स्कूली लड़की सी है। मेरी बात सुनकर दोनों खिलखिला पड़ी। (दोस्तों इन हॉट हीरोईनों से मेरी यह बातचीत 1992 अप्रैल माह में हुई थी और उस समय तक जमाने में कम्प्यूटर तो था मगर इंटरनेट गूगल बाबा और मोबाइल नामक खिलौने का अविष्कार नहीं हुआ था। बातचीत करने का एकमात्र साधन ले दे के केवल अंगूली डालकर नंबर घुमाने वाले फोन के मार्फत ही बातचीत होती थी और उस समय दिन में तीन सेकेण्ड जी हां तीन सेकेण्ड बात करने पर सरकार को एक रूपया 31 पैसे देने पड़ते थे। मतलबकिसी सेएक मिनट बात करने से करीब करीब 26 रूपये की हवा निकल जाती थी। यानी जमाना दादा आदम का था।  

मेरे को आप कहने में दोनों को बड़ी दिक्कत हो रही थी। अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी धड्डले से बोल रही इनलोगों ने मुझे भी आप की बजाय तुम कहने का निवेदन किया ताकि तुम संबोधन कर वे आसानी में बात कर सके।  इस पर मैने उन्हें कहा कि आप बेहिचक मेरे को जो मन में आए कह सकती है । मगर मैं आपलोग को आप ही कहूंगा। हर पेशे का अपना सिद्धांत सीमा और शालीनता होती है। कोई 20-25 मिनट तो हल्की बातों में ही कट गयी। पसंद नापसंद स्टार के बेटे बेटी होने के दुख सुख खानपान और इनकी आदतों से लेकर मीडिया सहित घरेलू टेंशन पर भी बात की। किसी सिनेमा के प्रीमियर से पहले के टेंशन पर भी चर्चा हुई। यानी जब बातों की रेल स्पीड पकड़ने लगी और किसी में भी कोई संकोच या हिचक नहीं रही तो मैने दोनों से पूछा तो क्या अब हमलोग बात शुरू करे ?

मेरी इस बात पर दोनों एकदम चौंक सी गयी। बात कर ले क्या मतलब ? हम बातचीत ही तो कर हैं। मै भी हैरान होते हुए कहा कि अभी कहां बात कर रहा हूं अभी तो मै केवल आपलोग से जान पहचान कर रहा हूं। कि  कैसा होता है किस तरह की होती है आपलोग की जिंदगी ?  और कैसा है रहन सहन बस्स। मैने आपलोग की हीरोपंथी और उसके अनुभव पर तो कुछ जाना ही नही। इस पर फिर रूठने का अभिनय करती हुई बेदी बोली कि और यदि हमलोग ना बात करे तो। इस पर मैं फिर खिलखिला उठा। तब गुस्से में भट्ट बोलती हैं आप बात बेबात पर हंसते कुछ ज्यादा है। इस पर मैं फिर खिलखिला उठा हो सकता है जैसे आप एक्टिंग करती हो तो मैं क्या मुस्कुरा भी नहीं सकता। दोनो ने एक बार फिर एक दूसरे को देखा और बोली तो अब बस्स करे। बिना कुछ कहे मैने अपना नोटबुक बंद करते हुए कहा कोई बात नहीं बहुत मशाला आ गया है काम हो जाएगा।

एकाएक बात खत्म होते देख दोनों व्यग्र सी हो उठी। अरे आपने तो बात ही खत्म कर ली. मैं तो यूं ही मजे ले रही थी। मगर मैं तो मजे नहीं ले रहा हूं । मै तो देश की सुपर स्टार बेटियों से बात कर रहा हूं. आप कोई मेरी दोस्त तो हो नहीं कि जबरन बात करू। इस पर तुनकते हुए पूजा भट्ट ने पूछा कि मान लो तुम्हारी कोई दोस्त होती तो क्या करते। बताइए न प्लीज बताओं न। इस पर दोनों पूजा बच्चों सी मचल उठी। मैंने कहा कि मेरी कहां किस्मत कि आपलोग से दोस्ती करूं पर मेरी कोई दोस्त होती न तो कान पकड़कर पहले खडा करता और फिर जबरन बात करता। एक साथ दोनों बोल पड़ी तो बात करो न कोई रोक रहा है क्या ?

इसी तरह के हास्य और मान मनुहार वातावरण में मैंने पूछा कि पूरी दुनिया अब आपको कंडोम गर्ल के रूप में पहचानती है?  इतनी कम उम्र में सेक्स संभोग वाले इस एड को करने में कोई हिचक या संकोच नहीं लगा?  इसका ऑफर कैसे मिला?  मेरी बात सुनते ही बेदी शरमा गयी। फिर बोली मैं तो इस एड के बारे में जानती नहीं थी पर पापा के मार्फत ही यह एड कामसूत्र वाला मैंने की। पापा से यह सुनकर पहले तो मै शरमा रही थी, मगर पापा ने हिम्मत दी और कहा कि आगे देखना पांच सुपर हिट सिनेमा के बाद जो यश और शोहरत अर्जित होता है वो केवल इस एड से ही संभव हो जाएगी। बाद में मेरी मम्मी (प्रोतिमा बेदी) ने भी इस एड को लेकर हिम्मत दी और इसकी स्क्रिप्ट में मम्मी पापा ने बहुत संशोधन किए। कंडोम के बारे में आप क्या जानती हो?  मेरे इस सवाल पर हंसती हुई पूज बेदी ने कहा कि कुछ और बात करो। इस पर मैं हैरान रह गया। दो टूक कहा एक कंडोम गर्ल से तो केवल यही सब बातें की जा सकती है। मेरी बातों को सुनकर वे मुंह से जोर की आवाज निकालती हुई हंस पडी। पूजा बेदी ने मुझसे पूछा कि तुम कामसूत्र के बारे में क्या जानते हो? इस पर मैंने अपने बैग से कामसूत्र से दो तीन पैकेट निकाल कर उसके सामने फेंक दिए। जिसे देखकर भी नजर अंदाज करती हुई मुंह से केवल जोरदार सीटी निकालती हुई खिलखिला पड़ी।    
पूरे तमाशे पर पूजा भट्ट हंसते हंसते लोटपोट सी हुई जा रही थी। बेदी मुझसे पूछती है कैसा है। मैने कहा कि अरे यह कोई खाने की तो चीज है नहीं पर आकार में कुछ ज्यादा लंबा है, इसकी लंबाई कम होनी चाहिए थी। इस पर एकदम बेबाक होकर फटाक से बेदी बोल पड़ी तुम्हारा छोटा होगा। एक क्षण तो मैं भी यह सुनकर स्तब्ध सा रह गया और फौरन खुद को संभाला। नहीं पूजा जी मैं तो इंसान हूं। आदमी हूं और इंसानों के तमाम आकार प्रकार को और इसकी लंबाई को इंची टेप से नाप कर ही तो मैं यह कह रहा हूं। चूंकि आप इसकी एड कर रही हो और अगले दो एक साल में मुझे भी इसकी जरूरत पड़ेगी तब तो उस समय मैं केवल आपके चेहरे के कारण इसको नहीं खरीद सकता। आप इसकी एडगर्ल हो तभी मैं इसकी कमी बता रहा हूं। एकाएक मेरी बातें सुनकर वो खूब हंसी। फिर मुझसे पूछी कि कुछ और बात करनी है या मेरा चैप्टर खत्म। उनकी बातें सुनकर मैं हंस पड़ा और खड़ा होकर पूरे अदब से अपनी अंगूली उपर करके कहा आउट।   

दूसरे ही पल जब मैने पूजा भट्ट की तरफ ताका तो उन्होने कुछ कहने की बजाय मेरी आंखों में आंखे डालकर अपनी अंगूलियों को  नचाते हुए संकेतो के मार्फत अपने बारे मे पूछी। मैंने फौरन कहा यदि आदेश हो तो अब आपके साथ बतकही का श्री गणेश करे। मैने फौरन जोडा दिल है कि बात करने से मानता नही। मेरी बातें सुनकर दोनों मुस्कुरा पड़ी।

एक स्टार पुत्रों के अलावा डायरेक्टर के पुत्र पुत्री होने के क्या लाभ और नुकसान है। इस पर दोनो एक साथ बात करनी चाही, तो इस बार भट्ट ने बेदी को कहा यार तू चुप्प भी तो रह मेरे हिस्से में भी कुछ रहने दे ना। भट्ट के कहने पर बेदी जोर से हंसती हुई बोली जा अब मैं ना बोलूंगी तू लगी रह। भट्ट ने कहा स्टारडम के बहुत सारे फायदें और नुकसान होते है। आपको स्ट्रगल नहीं करना पड़ता। आपके पास मौके होते हैं और परिवार भी दो तीन रिस्क लेने का रेडी रहता है। मगर काम पाने के बाद भी हमलोग काम के प्रति गंभीर नहीं होती। जितना एक स्ट्रगलर स्ट्रगल करके कोई दूसरा उपर पहुंचता है, उतना सफर तो हमलोग की जेब में है। कुछ याद करती हुई एकाएक हंस पड़ी। एक कहावत है न कि चांदी क चमच्च लेकर ही स्टारसंस पैदा होते हैं। मगर जनता की कसौटी पर हम ज्यादातर संस एंड गर्ल ठहर नहीं पाते। हमारी योग्यता पर घंमड का गरूर का इतना घना घुन लगा होता है जिसे हमलोग चाहकर उतार नहीं पाती। भट्ट ने कहा कि आगे बॉलीवुड में मेरा फ्यूचर क्या होगा यह मुझे भी पता नहीं, मगर इसकी चिंता हमें नहीं। मेरा बाप मुझसे ज्यादा चिंतित रहता हैं पर ज्यादातर लोग बाजी खत्म होने से पहले होश में नहीं आती। मैं अपनी फिजिक जानती हूं आठ दस सिनेमा करके अंत में पापा की ही मदद करूंगी। डायरेक्शन ही मेरी रुचि और ड्रीम है। हम ज्यादातर लोग एक समान ही है, मगर यहां तो किसी को किसी के पास किसी के लिए समय नहीं है। हम घर में रहकर भी अकेली ही है। स्टारडम का अलग दर्द है जो ज्यादातर लोग नहीं जानते या मानते हैं।

इसी तरह दो चार और सवालों के बाद हमलोग की बातचीत का समापन हुआ। कोई 80 मिनट तक  बातचीत का सिलसिला चला। और अंत में जाने के लिए जब उठा तो बेड पर से उठकर दोनो बालाओं ने हाथ मिलाने के ले अपने हाथ को आगे कर दी। मैने दोनों से हाथ मिलाते हुए कहा कि आपलोग की बातों से ज्यादा नरम और मुलायम तो आपके हाथ है। दोनो बालाओं ने मेरी तारीफ में कहा कि तुमसे बात करती हुई कभी नहीं लगा कि हमलोग दिल्ली वाले किसी जर्नलिस्ट से बात कर रही हो। मैने तुरंत टिप्पणी की इतनी बुरी बात तो मैने नहीं की। तो वे दोनों फिर कह बैठी कि एकदम याराना माहौल में तुमने बात की यह दिल्ली की खासियत है कि मन की सारी बातें हो गयी और बुरी भी नहीं लगी। कमरे के बाहर निकलते समय दोनों पूछ बैठी क्या कभी दोबारा तुमसे मिलना होगा। इस पर मैं क्या कहूं आपलोग का जब मन करे कि इंटरव्यू देना है तो मुकेश को कह सकती है। बात मुझ तक पहुंच जाएगी। और इस तरह दो दो पूजा से मेरी बातचीत के इस यादगार सिलसिले का पटाक्षेप हुआ।
इन दोनों के इंटरव्यू को मैने कई फीचर एजेंसी को दिए।  जिससे ये सैकड़ों पेपरों में छा सी गयी। हालांकि भट्ट से ज्यादा बेदी के जलवों की धूम अधिक रही। अलबत्ता मुकेश के मार्फत कई बार उनके थैंक्स मेरे पास जरूर पहुंचे। मगर दोबारा मिलने का संयोग फिर कभी नहीं बन पाया। और मैं 25 साल पहले की ज्यादातर बातें अपनी याद्दाश्त पर जोर देते हुए आप सबको एक बार फिर सुनाने की जद्दोजहद में लगा हूं।

गुरुवार, 9 फ़रवरी 2017

जनता के संपादक अनामी शरण बबल


बिहार के यशस्वी पत्रकार लेखक और सांसद रह चुके शंकर दयाल सिंह के मुखारबिंद से मैंने पहली बार रांची एक्सप्रेस अखबार और इसके संपादक बलवीर दत्त का नाम सुना था। संभवत यह 1982 की बात है, उस समय मेरे भीतर भी कुछ कुछ होता है सा कुछ लिखने की भावनाएं फूटने लगी थी। और पहली बार इस अखबार को देखने का मौका कहे या सौभाग्य 1983 में मिला। जब एक मरीज की तरह मुझे रांची के जगत विख्यात डॉक्टर केके सिन्हा से इलाज के लिए रांची जाने का मौका मिला। उस तक मैं और पत्रकारिता का कोई नाता नहीं था। एक सामान्य पाठक की तरह ही इस पेपर को देखा। मगर हमारे लेखक चचा शंकर दयाल सिंह ( मैं इनको हमेशा चाचा ही कहता रहा) इसके पुराने लेखक थे। इनका एक कॉलम यदा-कदा भी काफी मशहूर था। मैं एक संपादक के रूप में बलवीर दत्त को नहीं जानता था और न शोहरत से ही परिचित था।पर अपने चचा की वाणी से नाम सुना ता तो यह नाम भी मुझे मेरे मनमें अंकित सा था।

बिहार के औरंगाबाद जिले के अपना गांव देव में हमारे लेखक चचा शंकर दयाल सिंह अक्सर आते रहते थे। देव के भवानीपुर में उनका अपना एक फॉर्महाउस था कामता सेवा केंद्र। जहां पर शंकर दयाल चचा के आने की भनक पाते ही मैं किसी भौंरे की तरह वहीं पहुंच जाता। इस तरह मैं उनके स्नेह का पात्र बना, और बात बे बात कभी पत्रिका पा जाता या उनके ठहाकेदार चर्चाओं का कभी मूक तो कभी वाचाल साक्षी बना रहता। एक नहीं कई बार न जाने किन किन मुद्दो या मौकों पर वे वे अक्सर बलवीर दत्त का नाम लेते रहते थे। इस तरह पहली बार चूंकि मैने शंकर दयाल चचा से यह नाम सुना था तो इस नाम की गूंज मेरे दिमाग में अंकित थी। जब कभी भी इस पेपर का नाम मेरे सामने आता तो दिमाग में केवल दो ही छवि उभरती थी अपने शंकर दयाल चचा के यदा -कदा की और इसके संपादक बलवीर दत्त की। उस समय तक या तब तक तो मैं बलवीर जी से पूरी तरह अनजान था इसके बावजूद मन में यह नाम अज्ञात छवि के साथ दर्ज था।
एक संपादक के रूप में मैं इनको जान तो गया था मगर हकीकत यह है कि इनके लेखन या संपादकीय कौशल कुशलता क्षमता को लेकर न कुछ जानता था और ना ही अपन को कोई खास जानकारी ही थी। बाद में पत्रकार बनने की प्रक्रिया के दौरान सैकड़ों पत्रकारों लेखकों पत्र- पत्रिकाओं को जब जाना तो उसी क्रमांक में बलबीर दत्त की इमेज मन में बनती और पकती रही। इस दौरान मैं इनके कुछ लेख को देख जरूर लिया था।. यहां पर पढ़ने का दावा करना कम से कम सच नहीं होगा। एक पत्रकार के रूप में दिल्ली में सक्रिय हो जाने के बाद 1993 में मेरा हजारीबाग से जुडाव हुआ तो मैं एक गंभीर पाठक की तरह रांची एक्सप्रेस को जब कभी भी हजारीबाग आता तो उन दिनों के पेपर को अपने साथ ले जाता। हिन्दी के अकबारों को देखने की ललक और खासकर प्रांतीय या किसी खास शहर या इलाके से छपने वाले पेपर को देखने की लालसा और चाहत मन में आज भी जीवित है। मेरे घर में हजारों पेपर कतरन फाईलों में है। जिसे सहेज कर रखना तो अब महानगरीय आवास में एक बडा संकट सा भी लगता है। पहली बार बलवीर जी का एक आलेख को देखा या पढ़ा था, जिसमें कोलकाता से भारत की राजधानी को दिल्ली स्थानांतरित करने से पहले रांची को भी अंग्रेजों ने कभी राजधानी बनाने पर विचार किया था। लेख का मूल सार और तथ्य क्या था यह तो आज एकदम याद नहीं है पर अचरजपूर्म इस लेख कै शीर्षक मुझे कोई 23 साल के बाद भी याद हैहै। मेरे लिए उनकी ना भूलने वाली छवि थी। और आज भी जब कभी उनसे बात करता हूं तो इस लेख की याद उनको जरूर दिलाता हूं।

मेरे मन में बलवीर दत्त के रांची में ही चिपके रहने या रह जाने वाले पत्रकार का मलाल था। इंदौर या मध्यप्रदेश की सीमा को लांघकर ही चाहे राजेन्द्र माथुर हो या प्रभाष जोशी हो दिल्ली में आकर ही राष्ट्रीय शोहरत पा सके। मुझे बिन देखे हमेशा लगता था कि बलवीर दत्त शायद इस तिकड़ी के सबसे सही हकदार होते। मगर कोई जान पहचान नहीं था एक पोस्टकार्ड वाला भी नाता नहीं था लिहाजा अपनी बात को मैं बता भी नहीं सकता था। मगर मेरे मन में क्षेत्रीय पत्रकारिता की इमेज और लगातार बढ़ती इज्जत के बीच बलवीर दत्त की छवि एक वीर संपादक की तरह बनने लगी थी। यही कारण था कि जब 2016 में मेरे पास रांची एक्सप्रेस के संपादक बनने का ऑफर आया तो मैं बिना कुछ सोचे समझे ही दिल्ली में 25 साल के बने बनाये काम नाम की परवाह को छोड रांची जाने का मन बना लिया। उस समय इस पेपर को करीब से देखने और इसके संस्थापक संपादक से मिलने की इच्छा परवान पर थी।

राजनीति के जंगल में आजकल ज्यादातर पुरस्कार और सरकारी सम्मान पांव पैसा पहुंच पौव्वा और पोलिटिकल जुगाड़ के चलते ही हासिल किया जाता है। पुरस्कार देने का जमाना और मान सम्मान का सम्मान भी अब कहां ? मगर दिल्ली की चकाचौंध से 1500 किलोमीटर दूर रांची के अपर बाजार के एक साधारण से दफ्तर में बैठकर क्षेत्रीय पत्रकारिता के मान ज्ञान सम्मान के और जनहितों के लिए संघर्ष का जो सत्ता विरोधी चेहरा समाज के सामने रखा, वह वंदनीय है। इन्होने रांची से प्रकाशित इस अखबार की जो प्रतिष्ठा देश भर में प्रतिष्ठा दिलाई है इसके लिए इनको और इनकी साधनहीन पूरी टीम की जितनी भी तारीफ की जाए वह कम है। ये इस तरह की फौज के कमांडर थे जहां पर बहुत सारी सुविधाओं की कमी के बाद भी पत्रकारिता की मान और शान के लिए सब एक जुट हो जाते थे।

आमतौर पर किसी सम्मान या पुरस्कार को अर्जित करके लोग महान और सम्मानित से हो जाते हैं। मगर क्षेत्रीय पत्रकारिता के इस पुरोधा संपादक बलवीर दत से ज्यादा पद्मश्री का सम्मान सम्मानित होकर गौरव का सूचक बना है। अविभाजित बिहार झारखंड के लिए सम्मान की गरिम तब और बढ़ जाती है जब 1954 से निरंतर दिए जाने वाले पद्मश्री सम्मान से यह राज्य वंचित था। अविभाजित बिहार झारखंड के वे पहले पत्रकार हैं जिनको इस सम्मान से नवाजा गया है।

पिछले साल मुझे भी कुछ माह रांची एक्सप्रेस से संपादक का ऑफर आया। यह एक पत्रकार के रूप में मेरे मित्र सुधांशु सुमन ने दिया था। एक टेलीविजन पत्रकार के रूप में मैं इनको 20 साल से जानता रहा हूं। हालांकि उन्होने मुझे दिल्ली संस्करण में संपादक का ऑफर दिया था। रांची एक्सप्रेस और बलबीर दत के नाम का इतना तेज मेरे मन में था कि दिल्ली में रहते हुए 27 साल हो जाने के बाद भी मैने खुद रांची में पांच छह माह तक रहने की इच्छा जाहिर की। दो तीन किस्तों में दिल्ली रांची आते जाते करीब ढाई तीन माह तक मैं रांची में रहा।

नयी सत्ता नयी व्यवस्था और नए हालात में देखा जाए तो जिन सपनों और बदलाव की योजनाओं और इच्छाओं के साथ मैं रांची गया था, उसमें कुछ खास नहीं हो पाया। इस बीच पहाड़ी इलाके की कंपकंपी वाली ठंड को देखते हुए मैने दो तीन माह तक दिल्ली लौटने की इच्छा जाहिर की और तमाम कठिनाईयों दिक्कतों के बाद भी मेरे तमाम नखड़़ो को प्रबंधन ने सिर माथे लिया और मुझे दिल्ली जाने का टिकट थमा दिया। हमलोग में कोई शिकायत नहीं है क्योंकि यह अखबार तो सुमन जी के पास अभी सामने आया है, मगर हमारा इनसे नाता 20 साल से एक पत्रकार वाला था, जो सबसे प्रमुख रहा है।

रांची पहुंचते ही मैं अपने एक प्रिय सहकर्मी नवनीत नंदन के साथ जब बलवीर जी के घर पर पहुंचा तो अवाक रह गया। उनके स्टड़ी रूम में चारों तरफ हजारों किताबों का अंबार लगा था। स्टडी कमरे में चारो तरफ किताबें ठूंसी पड़ी थी। सैकड़ों फाईलों और हजारों कतरनों को देखकर तो मैं दंग रह गया। मैने उनके पांव छूए और उस अखबाक की कमान थामने से पहले आशीष मांगा । मैने कहा कि सर आपके अनुभव लेखन और संपादकीय दक्षता के सामने तो मैं कहीं पासंग भर भी नहीं हूं। मगर यह मेरा सौभाग्य भरा संयोग है कि मैं भी उसी रांची एक्सप्रेस का चालक बन रहा हूं जिसको आपने बुलेट ट्रेन बना रखा था। पहली मुलाकात में ही मैने रांची को राजधानी बनाने वाले लेख की भी चर्चा की और रांची में ही सिमटे रहने का राज पूछा। मैने दो टूक कहा कि आज तो अलेखक संपादकों का दौर है। यदि आप समय रहते दिल्ली आते तो शायद माथुर और प्रभाष जोशी की परम्परा में कुछ विकास होता। हालांकि मेरी बात को काटते हुए उन्होने कहा कि यदि दिल्ली चला जाता तो शायद यहां रहकर जितना काम करके संतोष  पाया है वह अर्जित नहीं हो पाता। एक घंटे की जादूई मुलाकात में मैं उनके किताबों के ढेर को मोहित सा देखता रहा। मगर मन में यह असंतोष था कि रांची बलवीर जी की जगह नहीं थी। मगर, पद्मश्री की घोषणा होते ही मेरा मन अपार संतोष से भर गया। और तब मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ कि रांची में रहकर पत्रकारिता के बूते जो शोहरत काम और नाम बलवीर जी ने अर्जित किया है वो काम दिल्ली में रहकर नहीं कर पाते। और फोन पर बात होने पर मैने उनके रांची में ही रहने की जिद्द को सार्थक माना। यह सम्मान केवल बलवीर दत्त को नहीं मिला है इसके बहाने क्षेत्रीय पत्रकारिता की ताप को सम्मानित किया गया है। क्षेत्रीय पत्रकारिता को बल मिला है और इसकी सार्थकता को राष्ट्रीय स्तर पर सरकारी स्तर पर मान्यता मिली या मान्यता दी गयी है। इन तमाम सम्मानजनक कारणों से बलवीर जी को प्राप्त यह सम्मान और इसकी गरिमा बढ जाती है।

पूरे झारखंड में बलबीर दत को बच्चा बच्चा (जो अखबार पढने वाला हो) जानता है। यह अखबार पूरे शहर समेत झारखंड का अपन अखबार सा है। हालांकि जमाने की चमक दमक और बाजारी मारामारी वाले इस राज्य के बलवीर दत्त यहां के इकलौते संपादक हैं जिनको उपराज्यपाल से लेकर रांची शहर का एक रिक्शा वाला भी जानता और अपना मानता है। पत्रकारिता में ये यहां के इकलौते सोशल संपादक का सर्वमान्य चेहरा की तरह स्थापित है। संपादक का मुखौटा लगाकर तो मैं या मेरे जैसे ही दर्जनों लोग रांची में सक्रिय हैं, मगर किसी की भी धमक जनता में नहीं बनी है। और मैं तो अपर बाजार से फिरायालाल चौक वाले रास्ते में ही सही राह की खोज में भटकता रहा।

इस समय रांची से दर्जन भर अखबार निकल रहे हैं मगर रविवार वाले हरिवंश जी के प्रभात खबर से अलग होने के बाद किस पेपर का संपादक कौन है यह सब मुझ समेत ज्यादतर सपादक भी संभवत नहीं जानते होंगे। मैं भी ढाई तीन माह में यह नहीं जान पाया कि तमाम अखबारों के संपादक कौन है। या यों कहे कि पाठकों की नजर में मेरी तरह ही सब अनाम हैं । मगर बलवीर दत्त जी आज किसी भी पेपर के संपादक नहीं होने के बावजूद पूरे राज्य के पहले या इकलौते संपादक के रूप में विख्यात एकमात्र  संपादक का सर्वज्ञात चेहरा है। हालांकि प्रभात खबर दैनिक जागरण हिन्दुस्तान और दैनिक भास्कर सबसे ज्यादा बिकने वाला पेपर हैं, मगर यह मेरा दावा है कि झारखंड के 10 फीसदी लोग भी शायद सभी संपादकों के नाम को नहीं जानते हैं।

मगर यह देखकर मुझे रांची प्रवास के दौरान अक्सर गौरवबोध होता कि रांची एक्सप्रेस की प्रसार संख्या भले ही अन्य पेपरों से कम हो मगर अपर बाजार के दफ्तर और संपादक के रूप में बलवीर दत को एक रिक्शा वाला भी जानता था।. कभी कभी तो मैं इसे सदमा कहे या अचरज विस्मय कि मेरे सामने ही मेरे पूछने पर बहुधा कम पढ़े लिखे या एकदम अंगूठाटेक लोगों ने भी माना कि आज भी रांची एक्सप्रेस के संपादक बलवीर दत्त ही है। क्षोभपूर्ण लहजे में मैने कईयों से कहा कि उनको तो पेपर से अलग हुए काफी समय हो गया है और आजकल इसका संपादक मैं हूं । मेरे यह कहने पर उसके नेत्रों में मैने अपने लिए हिकारत देखी । बड़े अजीवब तरह से घूरते हुए दो एक ने कहा कि आप हो कौन मैं तो जानता तक नहीं मगर आपमें बलवीर दत की कुर्सी संभालने का माद्दा कहां है। इस तरह की बातें सुनकर उलझते हुए अपने आपको और ज्यादा हास्यपूर्ण बनाने से तो ज्यादा अच्छा मौन होकर या रहकर वहां से खिसकने में ही लगा। ये बाते मुझे अजीब भी लगी तो वहीं बलवीर दत्त के प्रति मेरे मन में प्यार आस्थआ और सम्मान को और जागृत कर दिया कि सच में वे एक सामान्य जनता के संपादक है ।

एक और दिलचस्प अनुभव को आज मैं शेयर करने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूं कि फिरायालाल चौक के पास बीएसएनएल के मुख्यालय है। वहां पर बीएसएनएल के कनेक्शन के लिए मुफ्त में सिम का वितरण हो रहा था। मैने भी एक सिम लेने की इच्छा प्रकट की। साथ में दिल्ली वाले पता का अपना आधार कार्ड की फोटो कॉपी दी। जब बीएसएनएल कर्मियों ने रांची के स्थानीय पता के लिए प्रमाणपत्र मांगा तो मैने रांची एक्सप्रेस अखबार निकाल कर सामने कर दी कि इसमें काम करता हूं।  पेपर को रखते हुए बीएसएनएल कर्मी ने कहाकि बस्स कल अपने संपादक से एक लेटर बनवा कर लाकर दे दीजिए तो हाथों हाथ सिम एक्टीवेट करके कनेक्शन दे दिया जाएगा। संपादक का नाम सुनते ही मैंने अपना आधारकार्ड और पेपर के प्रिंटलाईन में अंकित अपने नाम को सामने करते हुए बताया कि भाई इसका संपादक तो आजकल मैं हूं।  मैं भला किससे लेटर लिखवाकर लाउंगा आप प्रिंटलाईन की फोटोकॉपी लगाकर कनेक्शन दे दीजिए।.  मेरी बात सुनकर वो दंग रह गया। अपनी कुर्सी छोड़कर खडा होते हुए कहा कि आप कब से संपादक बन गए और बलवीर जी कब पेपर छोड गए भाई? पूरे झारखंड में तो केवल एक ही संपादक हैं बलवीर जी आप नया संपादक दिल्ली से कब पैदा हो गए ?  अखबार में नाम छप जाने से कोई भला संपादक हो जाता है क्या ? पूरे झारखंड में केवल एक ही संपादक है बस्स। अब इस बीएसएनएल कर्मी से उलझने की बजाया. अपनी और जगत हंसाई करवाने से भला यही लगा कि सिम मिले ना मिले मगर यहं से खिसकना ही सर्वोत्तम उपाय है, और मैं उन कर्मचारियों से बिन सिम लिेए ही निकल गया।

 रांची शहर का मैं ज्यादा भ्रमण तो नहीं कर पाया मगर ज्यादातर स्थानों पर एक संपादक की छवि का मतलब ही जनता में केवल एक नाम बलवीर दत्त को ही देखा। संपादक यानी बलवीर दत्त. यही इनकी खासियत देखी और जीवन भर की कमाई महसूस की।. जनता यानी अपने पाठतों के बीच इस कदर अंकित किसी पत्रकार संपादक को पहली बार देखकर मुझे लगा कि यही इनकी उर्जा  और रांची की जनता का इनके उपर विश्वास ही इनकी पूंजी है, जो दिल्ली में अर्जित नहीं हो सकती थी। दिल्ली में इनका वेतन तो छह अंको में मिल जाता मगर ,दफ्तर के बाहर शायद छह लोग भी जीवन भर में अपना नहीं बना सकते थे। सक्रिय पत्रकारिता से फिलहाल वे विश्राम कर रहे हैं इसके बावजूद इस झारखंड राज्य के वे सर्वकालीनव श्रेष्ठ संपादक जरूर रहेंगे। इनकी छाया से झारखंड की पत्रकारिता आज भी छाय़ामुक्त नहीं हो सकी है और ना होगी । खासकर पदमश्री के सम्मान के बाद तो वे बिहार झारखंड के इकलौते पत्रकार हो गए हैं जिनको यह सम्मान हासिल हुआ है।  

रांची एक्सप्रेस में बलवीर दत्त जी के साथ काम करने वाले आदरणीय उदय वर्मा जी ने भी इनकी वीरता धीरता और जनता के लिए अंगद की तरह अडिग हो जाने की दर्जनों घटनाओं से मुझे अवगत कराया। रांची एक्सप्रेस में मेरी एक संक्षिप्त पारी रही। इसके बावजूद मुझे इस बात का हमेशा गौरवबोध रहेगा कि मैने भी उनको देखा और स्नेह प्यार का पात्र रहा हूं. स्नेह का पात्र तो मैं रांची छोड देने के बाद भी हूं । रांची एक्सप्रेस से अलग होकर दिल्ली आए कई  माह होने वाले हैं । इसके बावजूद मैं कभी कभी अपने सौभाग्. पर इतरा सा जाता हूं कि मुझे भी बलवीर दत्त जैसे कर्मठ संपादक के बाद उनकी कुर्सी पर बैठने का मौका मिला। यह एक इस तरह का गौरवबोध है कि मैं मन ही मन मे  इस पेपर के ने मालिक पत्रकार रह चुके सुधांशु सुमन के प्रति भी मुग्ध सा हो जाता हूं कि उन्होने एक विराट संपादक की कमान थामने का मौका दिया

एक पाठक के रूप में इनकी सजगता देखकर मैं दंग रह गया। यह इस तरह के दूरदर्शी लेखक संपादक हैं जो अपने रिपोर्टरों को अपनी संपति और अनमोल निधि की तरह सहेजते और संवारते थे। पीछे खड़ा होकर बिना कुछ कहें अपने सहकर्मियों को निखारते थे। इन पर मैं यही कहूंगा कि ये एक अनमोल संपादक पत्रकार हैं जो अपने साथ साथ एक पूरी पीढी को भी संवारते हुए सुरक्षित रखते थे। किसी भी पत्रकार की कोई रपट लेख या कॉलम के छपने पर सुबह सुबह ये खुद फोन करके वाहवाही देते या उसे और बेहतर करने का सुझाव देते। मुझे भी यह सुख कई बार मिला। इतना उदार और बड़े दिल का संपादक भला आज कहां मिलेगा ? यही बलवीर दत्त की वीरता का वीर गाथा है कि महानगर की मुख्यधारा से दूर रहते हुए भी अपने अखबार को अपने सहकर्मियों को और अपने आपको सदैव मुख्यधारा से जोड़े रखा। ताकि क्षेत्रीय पत्रकारिता के काम और अंदाज को महानगरीय लोग शहरी चश्मा पहनकर भूल ना जाए। रांची एक्सप्रेस के सबसे वरिष्ठ पत्रकार उदय वर्मा के अनुसार देश में तीन क्षेत्रीय अखबारों की चमक थी। रांची एक्सप्रेस जहां संघर्ष का चेहरा था तो राजस्थान पत्रिका ग्रामीण भारत का जीवंत दर्शन था। और इंदौर से प्रकाशित नयी दुनिया देश भर में क्षेत्रीय स्तर पर बदलते भारत का आधुनिक भारत के जीवन को दृश्यमान करता था। तीनों पेपर को सामने रखने से ही एक संपूर्ण राष्ट्रीय चेतनामय पेपर की कल्पना साकार होती है। जो बाद में जनसत्ता के प्रकाशन पर पूरा हुआ, क्योंकि उसमें तीनो अलग अलग अखबारों की दृष्टि समाहित थी।