मंगलवार, 28 जून 2011

भारत के बारे में जानें
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भारत के जिले

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स्रोत: भारत 2010 - एक संदर्भ वार्षिक

चांदनी चौक और लाल किला दिल्‍ली के इतिहास का हिस्‍सा नहीं!

चांदनी चौक और लाल किला दिल्‍ली के इतिहास का हिस्‍सा नहीं!


राष्ट्रमण्डल खेल के रंगों में दिल्ली को रंगने पर 20 करोड़ रुपए खर्च किया गया है। दिल्ली के पुल, बस स्टैण्ड व सार्वजनिक जगहों पर होर्डिंग व बैनर लगाने पर यह खर्च किए गए हैं । दिल्‍ली में खासकर इन जगहों पर होर्डिंग अधिक लगाया गया है, जहां जहां काम पूरे नहीं हुए है  ताकि विदेशी मेहमानों के समक्ष गंदगी छुपाई जा सके ।
इसका काम आयोजन समिति के इमेज एण्ड लुक विभाग ने किया है, जिसकी एडीजी संगीता विलंग्कर के पिता एक पूर्व हॉकी खिलाड़ी हैं । यानी चुन-चुन कर ऐसे लोगों को काम दिया गया है, जिसकी पहुंच थी ।  भले ही काम की गुणवत्‍ता से ही क्‍यों न समझौता करना पड़े।
अब इसी मामले में देखिए खेलों के सभी डिजायनों में दिल्‍ली के इतिहास को दर्शाने की कोशिश की गई है, लेकिन संगीता की नजर में दिल्‍ली का इतिहास केवल इंडिया गेट और कुतुबमीनार में ही दर्ज है । इमेज एंड लुक विभाग ने यमुना नदी, लाल किला , जामा मस्जिद और चांदनी चौक की संस्कृति को 19 वें राष्ट्रमण्डल खेल के डिजायन से बाहर रखा है । इन्हें राष्ट्रमण्डल खेल के ग्राफिक में कहीं भी प्रदिर्शत नहीं किया गया है। इमेज एण्ड लुक की एडीजी संगीता विलंग्कर का तर्क सुनिए, `दिल्ली में इण्डिया गेट व कुतुबमीनार ज्यादा प्रसिद्ध हैं, इसलिए केवल उन्हें ही प्रदिर्शत किया गया है।'
सच तो यह है कि आयोजन समिति के इमेज एण्ड लुक विभाग ने आनन-फानन में इंटरनेट से तस्वीर लोड कर एक प्रस्तुतिकरण तैयार किया और करोड़ों रुपए बटोर लिया। इस विभाग को न तो दिल्ली का पता है और न ही दिल्ली की संस्कृति का। जब नेताओं, अधिकारियों व खेलाडि़यों के बच्‍चों के हाथ में खेल की कमान हो तो फिर 'बंदर के हाथ में उस्‍तरे' जैसी बात ही सामने आएगी न !
सच तो यह है कि राष्‍ट्रमंडल खेलों के आयोजन में केवल पैसा बनाने का खेल हुआ है देश की गरिमा, उसकी संस्‍क़ति और उसके गौरव को बढ़ाने के लिए यह खेल आयोजित नहीं किया जा रहा है, जैसा कि भ्रष्‍टाचार की पोल खुलने पर नेता और अधिकारी दुहाई दे रहे हैं । केंद्रीय शहरी विकास मंत्री जयपाल रेड्डी का बयान सुनिए, 'मीडिया को खेल का सकारात्‍मक पहलु पेश करना चाहिए ।' यानी ये भ्रष्‍टाचारी जनता का अरबों-खरबों रुपया हड़प लें और इनकी पोल खोलने की जगह मीडिया इनकी चापलुसी में झुनझुना बजाता रहे! यही चाहती है यह सरकार !

दिल्लीृ अपनी दिल्ली 100 साल की

नलिन चौहान
किसी भी भारतीय को यह बात जानकर हैरानी होगी कि आज की नई दिल्ली, किसी परंपरा के अनुसार अथवा स्वतंत्र भारत के राजनीतिक नेताओं की वजह से नहीं
बल्कि एक सौ साल (सन् 1911) पहले आयोजित तीसरे दिल्ली दरबार में ब्रिटेन के राजा किंग जार्ज पंचम की घोषणा के कारण देश की राजधानी बनी । इस
दिल्ली दरबार की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना ब्रिटिश भारत की राजधानी का कलकत्ता से दिल्ली स्थान्तरण की घोषणा थी । 12 दिसंबर 1911 में ब्रिटेन के राजा की घोषणा से पहले इस ऐतिहासिक तथ्य से अधिक लोग वाकिफ नहीं थे । किंग जार्ज पंचम के राज्यारोहण का उत्सव मनाने और उन्हें भारत का सम्राट स्वीकारने के लिए दिल्ली में आयोजित दरबार के शाही जमावड़े में भारी संख्या में ब्रिटिश भारत के शासक, भारतीय राजकुमार, सामंत, सैनिक और अभिजात्य वर्ग के व्यक्ति एकत्र हुए थे । तब
दरबार के अंतिम चरण में अंग्रेज राजा ने उपस्थित व्यक्तियों के लिए अजरजभरी घोषणा की। तत्कालीन वायसराॅय लार्ड हार्डिंग ने राजा के राज्यारोहण उत्सव के अवसर पर प्रदत्त उपाधियों और भेंटों की घोषणा के बाद उन्हें एक दस्तावेज सौंपा । अंग्रेज राजा ने अपने प्रमुख दरबारियों के बीच में खड़े होकर ऊंची आवाज में सावधानी से तैयार किया हुआ एक वक्तव्य पढ़ते हुए राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने, पूर्व और पश्चिम बंगाल को दोबारा एक करने सहित अन्य प्रशासनिक परिवर्तनों की घोषणा
की । उस समय भी दिल्ली वालों के लिए यह एक हैरतअंगेज फैसला था जबकि एक ही झटके में इस घोषणा से एक सूबे के शहर को एक साम्राज्य की राजधानी में बदल दिया जबकि सन् 1772 से ब्रिटिश भारत की राजधानी ने कलकत्ता थी ।
लार्ड हार्डिंग लिखते है कि इस घोषणा से दर्शकों में एक आश्चर्यजनक रूप से एक गहरा मौन पसर गया और चंद सेंकड बाद करतल ध्वनि गूंज उठी । ऐसा होना
स्वाभाविक था । अपने समृद्व प्राचीन इतिहास के बावजूद जिस समय दिल्ली को अनचाहे राजधानी बनने का मौका दिया गया, उस समय दिल्ली किसी भी लिहाज से
एक प्रांतीय शहर से ज्यादा नहीं थी । लाॅर्ड कर्जन के बंगाल विभाजन की घोषणा (1903) के बाद से ही इसका विरोध कर रहे और एकीकरण की मांग को लेकर
आंदोलनरत असंतुष्ट बंगालियों की तरह दिल्लीवालों ने कोई मांग नहीं रखी और न ही कोई आंदोलन छेड़ा । सबसे बड़ी बात यह है कि किंग जार्ज पंचम की
घोषणा से हर कोई हैरान था क्योंकि इस बात को पूरी तरह से गोपनीय रखा गया था ।
किंग जाॅर्ज पंचम की भारत यात्रा के छह महीने पहले ही ब्रिटिश भारत की राजधानी के स्थानांतरण का निर्णय हो चुका था ।  इंगलैंड और भारत में मात्र दर्जन भर व्यक्ति ही इस तथ्य से वाकिफ थे । यहां तक कि राजा की घोषणा के समानांतर बांटे गए उद्घोषणा के गजट और समाचार पत्रकों को भी पूरी गोपनीयता के साथ छापा गया । दिल्ली में एक प्रेस शिविर लगाया गया, जहां सचिवों, मुद्रकों और उनके नौकरों के लिए रहने की व्यवस्था की गई और वहीं पर छपाई के अलए प्रिटिंग मशीनें लगाई गईं । दरबार से पहले इन शिविरों में कर्मचारियों को लगा दिया गया था और दरबार की वास्तविक तिथि से पहले इस स्थान की सुरक्षा को चाक चैबंद रखने के लिए सैनिकों और पुलिस
की टुकडि़यां तैनात कर दी गई थी । इससे लाॅर्ड हाॅर्डिंग का राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने की घोषणा की बात को इतिहास के गोपनीय
राज बताना सही साबित होता है ।
सात दिसंबर, 1911 को ब्रिटेन के राजा और रानी (जार्ज पंचम और क्वीन मेरी) दिल्ली पहुंचे । शाही दम्पति को एक जुलूस की शक्ल में शहर की गलियों से
होते हुए इस अवसर पर विशेष रूप से लगाए गए शिविरों के शहर (किंग्सवे कैंप) में पूरे गाजे बाजे के साथ पहुंचाया गया । उत्तर पश्चिम दिल्ली मंे विशेष रूप से निर्मित एक सोपान मंडप में आयोजित दरबार में चार हजार खास
मेहमानों की बैठने की व्यवस्था की गई थी और एक बृहद अर्ध आकार के टीले से
करीब 35,000 सैनिक और 70,000 दर्शक भी इस दरबार के चश्मदीद गवाह बनें ।
इस दरबार के दौरान लाॅर्ड हाॅर्डिंग सहित कौंसिल के सदस्यों, भारतीय
राजाओं, राजकुमारों सहित कइयों ने अंग्रेज राजा की कदमबोसी की और हाथ को
चूमा । 25 वर्ग मील और 30 मील के घेरे में फैले क्षेत्र में 223 तंबू
लगाए गए थे, जहां पर 60 मील की नई सड़के और करीब 30 मील लंबी रेलवे लाइन
के लिए 24 स्टेशन बनाए गए ।
अहमद अली का उपन्यास ट्विलाइट इन दिल्ली (1940) के अनुसार, वायसराॅय
लाॅर्ड हार्डिंग ने व्यक्तिगत रूप से दरबार की तैयारियों का जायजा लिया ।
कुल 40 वर्ग किलोमीटर में फैले और 16 वर्ग किलोमीटर के घेरे में पूरे
भारत से करीब 84,000 यूरोपीय और भारतीयों को 233 शिविरों में ठहराया गया
। 1911 में बसंत के मौसम के बाद करीब 20,000 मजदूरों ने दिन रात एक करके
इन शिविरों को तैयार किया । इस दौरान 64 किलोमीटर की सड़क, शिविरों में
पानी की व्यवस्था के लिए 80 किलोमीटर की पानी की मुख्य लाइन और 48
किलोमीटर की पानी की पाइप लाइनें डाली गईं । इतना ही नहीं, दिल्ली में
आने वाले मेहमानों के खानपान के लिए दुधारू पशुओं सहित सब्जी और मांस का
इंतजाम किया गया ।
उल्लेखनीय है कि मूल योजना के अनुसार, दिल्ली दरबार का आयोजन एक जनवरी,
1912 को होना था पर उस दिन मुहर्रम होने की वजह इस इसे कुछ दिन पहले करने
का फैसला किया गया । हालांकि एक जनवरी का अपना महत्व था क्योंकि इसी दिन
भारत को अंग्रेजी साम्राज्य में मिलाने की घोषणा हुई थी और सन् 1877 तथा
सन् 1903 में दरबारों का आयोजन हुआ था ।
सन् 1877 में लाॅर्ड लिटन ने महारानी विक्टोरिया की कैसरे हिंद के रूप
में उद्घोषणा के अवसर पर पहले दिल्ली दरबार का आयोजन किया गया था ।
महारानी विक्टोरिया के उत्तराधिकारी के रूप में एडवर्ड सप्तम के
राज्यारोहण के अवसर पर सन् 1903 में लाॅर्ड कर्जन के समय दूसरे दिल्ली
दरबार का आयोजन किया गया था । यह दरबार 29 दिसंबर से अगले साल दस दिनों
तक चला था । इस दरबार के एक भाग का आयोजन लालकिले के दीवान ए आम में भी
किया गया था ।
सन् 1903 में लार्ड कर्जन के समय हुए दूसरे दिल्ली दरबार पर खर्च हुए
1,80,000 पाउंड की तुलना में तीसरे दिल्ली दरबार पर 6,60,000 पाउंड की
राशि का खर्चा आया । किनेमाकलर ने तीसरे दिल्ली दरबार की फिल्म, विथ अवर
किंग एंड क्वीन थ्रू इंडिया (1912 में सबसे पहली बार प्रदर्शित), बनाई
जिनकी अवधि दो घंटे से अधिक समय की थी । यह फिल्म से अधिक एक मल्टीमीडिया
शो थी, जिसके अनेक हिस्सों को जरूरत के मुताबिक बदला जा सकता था ।
किंग जाॅर्ज पंचम और क्वीन मेरी ने किंग्सवे कैंप में आयोजित दिल्ली
दरबार में 15 दिसंबर 1911 को नई दिल्ली शहर की नींव के पत्थर रखें । बाद
में, इन पत्थरों को नार्थ और साउथ ब्लाॅक के पास स्थानांतरित कर दिया गया
और 31 जुलाई 1915 को एक अलग-अलग कक्षों में रख दिया गया । दिल्ली के नए
शहर के स्थापना दिवस समारोह में लाॅर्ड हार्डिंग ने कहा कि दिल्ली के
इर्दगिर्द अनेक राजधानियों का उद्घाटन हुआ है पर किसी से भी भविष्य में
अधिक स्थायित्व अथवा अधिक खुशहाली की संभावना नहीं दिखती है । राॅबर्ट
ग्रांट इर्विंगन्स की पुस्तक इंडियन समर में लाॅर्ड हार्डिंग कहते हैं,
हमें मुगल सम्राटों के उत्तराधिकारी के रूप में सत्ता के प्राचीन केंद्र
में अपने नए शहर को बसाना चाहिए । वाइसराय ने बतौर राजधानी दिल्ली के चयन
का खुलासा करते हुए कहा था कि यह परिवर्तन भारत की जनता की सोच को
प्रभावित करेगा । हम सब इसे भारत में अंग्रेजी राज को कायम रखने के अटूट
संकल्प के रूप में स्वीकार करेंगे । तत्कालीन भारत सरकार के गृह सदस्य सर
जाॅन जेनकिन्स ने कहा था कि यह एक साहसिक राजनयिक कदम होगा जिससे चहुंओर
संतुष्टि के साथ भारत के इतिहास में एक नए अध्याय की शुरूआत होगी ।
अंग्रेजों के राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने के दो
प्रमुख कारण थे । पहला, बंगाली अंग्रेजों के लिए काफी समस्याएं पैदा कर
रहे थे और अंग्रेजों की नजर में कलकत्ता राजनीतिक आतंकवाद का केंद्र बन
चुका था जहां लोग राइटर्स बिल्डिंग में बम फेंक रहे थे जबकि दिल्ली में
ऐसे हालात नहीं थे । खासकर लाॅर्ड कर्जन के शासनकाल के बाद अंग्रेज
बंगालियों को उपद्रवकारी, राजनीतिक रूप से सजग मानने लगे थे । दूसरा, यह
एक तरह से यह मुसलमानों को खुश करने का भी फैसला था । अंग्रेजों की सोच
यह थी कि वे एक ही समय में हिंदू और मुसलमानों को नाराज नहीं कर सकते ।
इसी सिलसिले में, सन् 1911 में आयोजित दिल्ली दरबार की ऐतिहासिक घटनाओं
के ब्यौरे वाला अहमद अली का उपन्यास दिल्ली मेें आहत मुस्लिम सभ्यता की
पड़ताल करता है । इस किताब के जरिए लेखक ने तत्कालीन भारत में अंग्रेजी
साम्राज्यवाद की कहानी को बयान करते हुए उपनिवेशवादी ताकत से टक्कर पर
मुस्लिम नजरिए को सामने रखते हुए साम्राज्यवादी साहित्य को चुनौती दी हैं
। अली के शब्दों में, मुसलमानों ने स्पेन में कोरडोवा और ग्रेनाडा की तरह
दिल्ली खो दी है और उनकी हार की तरह मुसलमानों को यह बात अपने खोए हुए
सम्मान के रूप में सालती रहेगी ।
नीरद सी चैधरी ने आजादी मिलने के तुरंत बाद प्रकाशित अपनी आत्मकथा द
आॅटोबायोग्राफी आॅफ अननोन इंडियन में उनकी (बंगालियों) प्रतिक्रिया का
स्मरण करते हुए लिखा है कि सन् 1911 में मौत का साया, जिससे हम सब
अपरिचित थे, पहले ही कलकत्ता पर पसर चुका था । मुझे अभी भी अपने पिता का
उनके मित्रों के साथ राजधानी के दिल्ली स्थानांतरण के समाचार के पढ़ने की
बात याद है । कलकत्ता का स्टेटसमैन गुस्से में था पर वह भविष्य की बजाय
इतिहास के बारे में ज्यादा सोच रहा था और वह कासनड्रा की तरह
भविष्यवाणियां करने का इच्छुक नहीं था । हम बंगाली कासनड्रा की तरह
भविष्यवक्ता नहीं थे । हम बातूनी थे । मेरे पिता के एक दोस्त ने रूखेपन
से कहा कि वे साम्राज्यों के कब्रिस्तान दिल्ली में दफन होने जा रहे हैं
। इस बात पर वहां मौजूद हर कोई हंस पड़ा पर हम सभी की तीव्र इच्छा का
लक्ष्य अंग्रेजी साम्राज्य का दफन होना ही था पर उस दिन हम में से किसी
ने भी नहीं सोचा था कि ऐसा होने में केवल छत्तीस साल लगेंगे । अंग्रेज
सत्रह सौ सत्तावन से कलकत्ते में राज करते रहे । उन्नीस सौ ग्यारह में
दिल्ली राजधानी बनाने के छत्तीस साल बाद उनके विश्वव्यापी साम्राज्य का
सूरज डूब गया ।
सन् 1912 में एडविन लैंडसिर लुटियन और उनके पुराने दोस्त हरबर्ट बेकर को
बतौर वास्तुकार नए शहर को बसाने की जिम्मेदारी दी गई। लुटियन के चुनाव
में उनके काम के अनुभव का कम और रिश्ते का जोर ज्यादा था । सरकारी
इमारतें और शहर के वास्तु से उनका दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं था पर
महत्वपूर्ण बात यह थी कि उन्होंने लाॅंर्ड लिटन, जिन्होंने सन् 1877 में
महारानी विक्टोरिया के समय दिल्ली दरबार की अध्यक्षता की थी, की एकलौती
बेटी एमली लिटन से शादी की थी । लुटियन का खास मित्र और सहयोगी गर्टरूड
जेकल, जो कि अच्छा बाग वास्तुशास्त्री भी था, भी एक अच्छे संपर्कों वाला
व्यक्ति था ।
लाॅर्ड हाॅर्डिंग भी मार्च 1912 के अंत में अपने पूरे लाव लश्कर के साथ
दिल्ली पहंुच गया । सन् 1911 में दिल्ली राजधानी स्थानांतरित होने पर
दिल्ली विश्वविद्यालय का पुराना वाइसरीगल लाॅज वायसराय का निवास बना ।
प्रथम विश्व युद्व से लेकर करीब एक दशक तक वायसराय इस स्थान पर रहा जब तक
रायसीना पहाड़ी पर लुटियन निर्मित उनका नया आवास बना ।
मौजूदा नई दिल्ली शहर दिल्ली का आठवां शहर है । नई दिल्ली के लिए अनेक
स्थानों के बारे में सोचा गया और उन्हें अस्वीकृत किया गया । दरबार
क्षेत्र को अस्वास्थ्यकर और अनिच्छुक घोषित कर दिया गया, जहां बाढ़ का भी
खतरा था । सब्जी मंडी का इलाका बेहतर था पर फैक्ट्री क्षेत्र में
अधिग्रहण से मिल मालिक नाराज होते । इसी तरह, सिविल लाइंस में यूरोपीय
आबादी को हटाने की जरूरत के चलते उनकी नाराजगी का खतरा था । अतः
वास्तुकार लुटियन के नेतृत्व में मौजूदा पुराने शहर शाहजहांनाबाद के
दक्षिण में नई दिल्ली के निर्माण का कार्य 1913 में शुरू हुआ जब नई
दिल्ली योजना समिति का गठन किया गया । इसने पुराने शहर का तिरस्कार किया
और उसके आसपास के इलाके तत्काल ही एक दूसरे दर्जे का शहर मात्र पुरानी
दिल्ली बन गया ।
लुटियन के जिम्मे नई दिल्ली शहर और गर्वमेन्ट हाउस और हरबर्ट बेकर के
सचिवालय के दो हिस्सों (नार्थ और साउथ ब्लाॅक) और कांउसिल हाउस (संसद
भवन) को तैयार करने का भार आया ।
करीब 2,800 हेक्टेअर क्षेत्र में फैली लुटियन दिल्ली का मूल स्वरूप 1911
से 1931 के मध्य में बना जो कि साम्राज्यवादी भव्यता का एक खुला उदाहरण
था । इसका मुख्य केंद्र ब्रिटिश साम्राज्य के प्रतिनिधि वाइसराॅय का
महलनुमा परिसर (अब राष्ट्रपति भवन) था । अंग्रेज वास्तुकार नई दिल्ली को
पुरानी दिल्ली की अराजकता के विपरीत एक कानून और व्यवस्था का प्रतीक
बनाना चाहते थे । वास्तुकार हरबर्ट बेकर का मानना था कि नई राजधानी अच्छी
सरकार और एकता का एक स्थापत्यकारी स्मारक होनी चाहिए क्योंकि भारत को
इतिहास में पहली बार अंगे्रज शासन के तहत एकता मिली है । भारत में
अंगे्रज शासन केवल सरकार और संस्कृति का प्रतीक नहीं है । यह एक विकसित
होती नई सभ्यता है जिसमें पूर्व और पश्चिम के बेहतर तत्वों का समावेश है
। दिल्ली का स्थापत्य इस महान तथ्य इस बात का प्रतीक होना चाहिए । गौर
करने वाली बात यह है कि वायसराय पैलेस का मुख्य गुम्बद सांची के बौद्व
स्तूप और लाल बलुआ पत्थर और जालियों को मुगल स्थापत्य कला की तर्ज पर
बनाया गया पर अंग्रेजों ने अपने महत्व को बरकरार रखने के लिए वायसराय
पैलेस की उंचाई शाहजहां की जामा मस्जिद से अधिक रखी । यहां तक कि नई
दिल्ली में किसी भी देसी पेड़ पौधों की किस्मों को नहीं लगाया गया । यहां
लगाए गए पेड़ों की किसी की किस्म को दिल्ली का देसी नहीं कहा जा सकता था

एक तरह से, नई दिल्ली का अर्थ भारतीय उपमहाद्वीप के लिए एक साम्राज्यवादी
राजधानी और एक सदी के लिए अंग्र्रेज हुक्मरानों के सपनों का साकार होना
था हालांकि इसके पूरा होने में 20 साल का वक्त लगा यह भी तब जबकि राजधानी
को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने के साथ ही नई दिल्ली बनाने का
फैसला लिया गया था । इस तरह, नई राजधानी केवल 16 साल के लिए अपनी भूमिका
निभा सकी । नई दिल्ली में निर्माण कार्य 1931 में पूरा हुआ जब पूरी सरकार
इस नए शहर में स्थानांतरित हो गई । 13 फरवरी 1931 को तत्कालीन वायसराॅय
लाॅर्ड इरविन ने नई दिल्ली का औपचारिक उद्घाटन किया ।
प्रसिद्व लेखक खुुशवंत सिंह के पिता सर शोभा सिंह ने लुटियन और बेकर के
साम्राज्यवादी नक्शे के अनुरूप चूना पत्थर और संगमरमर को तराशने का काम
किया । खुशवंत सिंह ने अपनी आत्मकथा सच, प्यार और थोड़ी सी शरारत नई
दिल्ली पर खासी रोशनी डाली है। उनके ही शब्दों में, मेरे पिताजी को साउथ
ब्लाॅक बनाने का ठेका मिला था और उनके सबसे जिगरी दोस्त बसाखा सिंह को
नार्थ ब्लाॅक बनाने का । हमारे मकान के सामने, और दक्षिण दिल्ली से कोई
बारह किलोमीटर दूर, बदरपुर गांव से दिल्ली के लिए जिसे आज कनाट सर्कस
कहते हैं छोटी रेलवे लाइन गई थी । बदरपुर से निर्माण स्थल तक पत्थर,
रोड़ी और बजरी लाने के लिए ही यह लाइन बिछाई जाती थी । जिस दिन छुट्टी
होती, हम छोटी सी इम्पीरियल दिल्ली रेल के आने का इंतजार करते कि कब वह
आकर पत्थर उतारे और हम उसमें सवार होकर मुफत में कनाट प्लेस की सैर करके
आएं ।
वे आगे बताते हैं कि खालसा मिल्स के प्रवेश द्वार के उपर बने कमरों को
छोड़ अब हम रायसीना पहुंच गए थे जो आगे चलकर नई दिल्ली बना । पहले एक दो
साल तक हम लोग एक बड़े से झोपड़ीनुमा मकान में रहते थे । वह मकान जिस
सड़क पर था वह आगे चलकर ओल्ड मिल रोड अब रफी मार्ग कहलाई क्योंकि वहां एक
आटे की चक्की थी । यह जगह आज के संसद मार्ग के सामने पड़ती थी जहां दोनों
सचिवालय नार्थ और साउथ ब्लाॅक बनाए जाने थे उसके यह काफी नजदीक थी ।

तीन बाॅक्स
दिल्ली दरबार रेलवे

समूचे देश से दिल्ली में लोगों के दरबार में शामिल होने को देखते हुए
अंग्रेजों ने यातायात के सुचारू आवागमन के लिए अतिरिक्त रेल सुविधाएं
बढ़ाने और नई रेल लाइनें बिछाने का फैसला किया । सरकार ने इसके लिए
दिल्ली दरबार रेलवे नामक विशेष संगठन का गठन किया । मार्च से अप्रैल,
1911 के बीच सभी संभावित यातायात समस्याओं के निदान के लिए छह बैठकें
हुईं । इन बैठकों में दिल्ली में विभिन्न दिशाओं से आने वाली रेलगाडि़यों
के लिए 11 प्लेटफार्मों वाला एक मुख्य रेलवे स्टेशन, आजादपुर जंक्शन तक
दिल्ली दरबार क्षेत्र में दो अतिरिक्त डबल रेल लाइनें, बंबई से दिल्ली
बारास्ता आगरा एक नई लाइन बिछाने के महत्वपूर्ण फैसले किए गए ।
कलकत्ता से दिल्ली सैनिक और नागरिक रसद का साजो सामान पहुंचाने के लिए
प्रतिदिन एक मालगाड़ी चलाई गई जो कि दोपहर साढ़े तीन बजे हावड़ा से चलकर
अगले दिन दिल्ली के किंगस्वे स्टेशन पर सुबह दस बजे पहंुचती थी । इस तरह,
मालगाड़ी करीब 42 घंटे में 900 मील की दूरी तय करती थी । नंवबर, 1911 में
‘मोटर स्पेशल‘ नामक पांच विशेष रेलगाडि़यां हावड़ा रेलवे स्टेशन और
दिल्ली रेलवे स्टेशन के बीच में चलाई गई ।
इसी तरह, देश भर से 80,000 सैनिकों को दिल्ली लाने के लिए विशेष सैनिक
रेलगाडि़यां चलाई गई । ये रेलगाडि़यां मुख्य रूप से उत्तर पश्चिमी रेल के
टर्मिनल पर खाली हुई । इस अवसर पर पूर्वी भारत रेलवे ने अपने स्टेशनों पर
आने वाली 15 सैनिक रेलगाडि़यां चलाई और 19 सैनिक रेलगाडि़यों में सैनिकों
को दिल्ली दरबार की समाप्ति के बाद वापिस भेजा ।

इतिहास और अगर-मगर

अगर प्रथम विश्व युद्व नहीं छिड़ा होता तो नई दिल्ली के निर्माण में अधिक धन खर्च किया जाता तथा यह शहर और अधिक भव्य बनता। इतना ही नहीं, यमुना
नदी पुराने किले के साथ बहती होती और राजपथ से गुजरने वाले इसके गवाह बनते ।
अगर लाॅर्ड कर्जन और उनके अंग्रेज व्यापारी मित्रों की चलती तो नई दिल्ली को राजधानी बनाने का फैसला रद्द हो जाता । यह तो लाॅर्ड हार्डिंग के अंग्रेज राजा को भारतीय जनता को दिए वचन से न फिरने के बारे में समझाने के कारण ऐसा नहीं हो सका ।
अगर हरबर्ट बेकर ने प्रिटोरिया का निर्माण नहीं किया होता तो लुटियन को नई दिल्ली परियोजना में अवसर नहीं मिलता और न ही विजय चैक (इंडिया प्लेस) प्रिटोरिया की तर्ज पर तैयार होता । इतना ही नहीं, अगर लुटियन की मर्जी चली होती तो राष्ट्रपति भवन (गर्वमेंट हाॅउस) सरदार पटेल मार्ग पर मालचा पैलेस के नजदीक रिज में बना होता । लाॅर्ड हार्डिंग के इस प्रस्ताव को खारिज करने के बाद राॅयसीना पहाड़ी पर वायसराय हाउस बना ।

दिल्ली शहर का सफर

शहर का क्रम     शहर का नाम      स्थापना का साल  संस्थापक                कुल क्षेत्रफल (वर्गकिलोमीटर में)
पहली               लाल कोट          1000                 अनंगपाल                 3.40
दूसरी               सिरी                 1303                 अलाउद्दीन खिलजी      1.70
तीसरी              तुगलकाबाद       1321                गयासुद्दीन तुगलक       2.20
चैथी                जहांपनाह           1327                मुहम्मद बिन तुगलक   0.20
पांचवी             फिरोजाबाद         1354               फिरोजशाह तुगलक       0.10
छठीं               पुराना किला         1533               हुमायूं                         0.20
सातवीं            शाहजहांनाबाद      1639              शाहजहां                       4.90
आठवीं            नई दिल्ली           1911               एडवर्ड पंचम                 12.20

बी-4, ट्रांसिट हाॅस्टल,
1-ए, बैटरी लेन, राजपुर रोड, सिविल लाइंस, दिल्ली-54
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Invite Nalin Chauhan to chat




मंगलवार, 21 जून 2011

Lal Kot and Siri


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Lal Kot and Siri


The tour guide from our walk is shown over the next few pages, alternatively you can down load a full tour booklet (pdf 6MB)

September 13th 2006
 
Fiona, Lindy, Jo, Emma & Jill
 
 

“History is a set of lies people have agreed upon”

Napoleon Bonaparte

Lal Kot, Qila Rai Pithora and Siri
 
Lal Kot, meaning Red Fortress was the first city to be constructed in the Delhi area since ancient times.  It was founded by the Tomar Rajput leader Raja Anag Pal in 1060.   Evidence suggests that the Tomar ruled the area from 700AD based mainly in the Suraj Kund area.  There were several Rajput clans and Prithviraj Chauhan of the Chauhan Rajputs seized power in the 12th Century.  Prithviraj extended the city and renamed the area Qila Rai Pithora.
Over the previous couple of centuries Afghans had led raiding partied into India for plunder, but this changed in the late 12th Century with the arrival of Muhammad Ghuri who wished to extend his kingdom here.  In 1185 he took Lahore and begun his campaigns against the Rajputs.
The Rajputs defeated Ghuri in 1191 in the Battle of Terain, but their code of honour led to Ghuri’s release. The next year Ghuri regrouped and secured victory in the second battle of Tarain.  Ghuri did not have the same battle code and kept Prithviraj his prisoner.
This enabled Ghuri to take control of Lal Kot and Qila Prai Pithoria.  His empire extended from Delhi through Pakistan , Afghanistan and Turekestan.
Ghuri left one of his Generals and also his slave, the Turk Qutb-ud-din Aibak as Viceroy of Delhi.  Qutb-ud-din Aibak started work on the Qutb Minar and the Quawwat ul Islam Mosque within the city of Lal Kot .  More than likely this was on top of previous Hindu settlements and certainly part of old temples were utilised in the building.
In 1206 Muhammad was assassinated and Aibak declared himself Sultan of Delhi, establishing the Slave Dynasty that was to rule the city for over eighty years.  One of his son-in-laws Shams-ud-din Iltutmish, who became Sultan in 1211, continued Aibak’s work at the Qutb complex, finishing the tower and extending the mosque.
The next Dynasty was established by the Khalji family.  They were an Afghan family and gained power in part due to dissatisfaction in the way the previously Turk dynasty had ruled.
The most powerful ruler of the Khaliji Dynasty was Ala-ud-din Khaji, who assassinated his Uncle to assume power.  Initially this alienated him from the citizens of Delhi but it is said that he won back their favour by scattering gold and silver coins as he entered the city.
During his time as Sultan he also extended the Quwwat ul Islam Mosque, started the Alai Minar, a tower that was to be double in height of the Qutb Minar, and built the Alai Darwaza.  He also constructed the fort of Siri, which had previously been a military camp.
He was once to rely on the strength of this fort as he was besieged for over two months by Mongol armies.  He was though eventually to defeat the Mongols and brought the army Generals back to the fort and had them executed by trampling them with elephants.
His other lasting construction for the city of Delhi was the water tank near Siri Fort known as Hauz Khas.
 



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दिल्ली का इतिहास

दिल्ली का इतिहास

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दिल्ली को भारतीय महाकाव्य महाभारत में प्राचीन इन्द्रप्रस्थ, की राजधानी के रूप में जाना जाता है। उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ तक दिल्ली में इंद्रप्रस्थ नामक गाँव हुआ करता था।
अभी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की देखरेख में कराये गये खुदाई में जो भित्तिचित्र मिले हैं उनसे इसकी आयु ईसा से एक हजार वर्ष पूर्व का लगाया जा रहा है, जिसे महाभारत के समय से जोड़ा जाता है, लेकिन उस समय के जनसन्ख्या के कोई प्रमाण अभी नहीं मिले हैं। कुछ इतिहासकार इन्द्रप्रस्थ को पुराने क़िले के आस-पास मानते हैं।
पुरातात्विक रूप से जो पहले प्रमाण मिलते हैं उन्हें मौर्य-काल (ईसा पूर्व 300) से जोड़ा जाता है। तब से निरन्तर यहाँ ्जनसन्ख्या के होने के प्रमाण उपलब्ध हैं। 1966 में प्राप्त अशोक का एक शिलालेख(273 - 300 ई पू) दिल्ली में श्रीनिवासपुरी में पाया गया। यह शिलालेख जो प्रसिद्ध लौह-स्तंभ के रूप में जाना जाता है अब क़ुतुब-मीनार में देखा जा सकता है। इस स्तंभ को अनुमानत: गुप्तकाल (सन 400-600) में बनाया गया था और बाद में दसवीं सदी में दिल्ली लाया गया। अशोक के दो अन्य शिलालेख बाद में फ़िरोजशाह तुग़लक़ द्वारा दिल्ली लाया गया।
चंदरबरदाई की रचना पृथवीराज रासो में तोमर वंश राजा अनंगपाल को दिल्ली का संस्थापक बताया गया है। ऐसा माना जाता है कि उसने ही 'लाल-कोट' का निर्माण करवाया था और लौह-स्तंभ दिल्ली लाया था। दिल्ली में तोमर वंश का शासनकाल 900-1200 इसवी तक माना जाता है। 'दिल्ली' या 'दिल्लिका' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम उदयपुर में प्राप्त शिलालेखों पर पाया गया, जिसका समय 1170 इसवी निर्धारित किया गया। शायद 1316 इसवी तक यह हरियाणा की राजधानी बन चुकी थी। 1206 इसवी के बाद दिल्ली सल्तनत की राजधानी बनी जिसमें खिलज़ी वंश, तुगलक़ वंश, सैयद वंश और लोधी वंश समते कुछ अन्य वंशों ने शासन किया।

अनुक्रम

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[संपादित करें] सात शहर

ऐसा माना जाता है कि आज का आधुनिक दिल्ली बनने से पहले दिल्ली सात बार उजड़ी और बसी है जिनके कुछ अवशेष अब भी देखे जा सकते हैं।
  1. लालकोट, सीरी का किला एवं किला राय पिथौरा : तोमर वंश के सबसे प्राचीन क़िले लाल कोट के समीप क़ुतुबुद्दीन ऐबक़ द्वारा अंतरण किया गया
  2. सिरी का क़िला, 1३03 में अलाउद्दीन ख़िलज़ी द्वारा निर्मित
  3. तुग़लक़ाबाद, गयासुद्दीन तुग़लक़ (1321-1325) द्वारा निर्मित
  4. जहाँपनाह क़िला, मुहम्मद बिन तुग़लक़ (1325-1351) द्वारा निर्मित
  5. कोटला फ़िरोज़ शाह, फ़िरोजशाह तुग़लक़ (1351-1388) द्वारा निर्मित
  6. पुराना क़िला (शेरशाह सूरी) और दीनपनाह (हुमायूँ; दोनों उसी स्थान पर हैं जहाँ पौराणिक इंद्रप्रस्थ होने की बात की जाती है। (1538-1545)
  7. शाहजहानाबाद, शाहजहाँ (1638-1649) द्वारा निर्मित; इसी में लाल क़िला और चाँदनी चौक भी शामिल हैं।
सत्रहवीं सदी के मध्य में मुग़ल सम्राट शाहजहाँ (1628-1658) ने सातवीं बार दिल्ली बसायी जिसे शाहजहानाबाद के नाम से भी पुकारा जाता है। आजकल इसके कुछ भाग पुरानी दिल्ली के रूप मे सुरक्षित हैं। इस नगर में इतिहास के धरोहर अब भी सुरक्षित बचे हुये हैं जिनमें लाल क़िला सबसे प्रसिद्ध है। जबतक शाहजहाँ ने अपनी राजधानी आगरा में नहीं स्थानांतरित की पुरानी दिल्ली 1638 के बाद के मुग़ल सम्राटो की राजधानी रही। औरंगजेब (1658-1707) ने शाहजहाँ को गद्दी से हटाकर खुद को शालीमार बाग़ में सम्राट घोषित किया। 1857 के आंदोलन को पूरी तरह दबाने के बाद, अंग्रेजों ने जब बहादुरशाह ज़फ़र को रंगून भेज दिया उसके बाद भारत पूरी तरह से अंग्रेजो के अधीन हुआ। प्रारंभ में उन्होंने कलकत्ते (आजकल कोलकाता) से शासन संभाला परंतु 1911 में औपनिवेशिक राजधानी को दिल्ली स्थानांतरित कर दिया गया। बड़े स्तर पर महानगर के पुर्ननिर्माण की प्रक्रिया में पुराने नगर के कुछ भागो को ढहा दिया गया है।

[संपादित करें] महाभारत काल

पुरानी दिल्ली में बाजार का दृश्य, 2004
महाभारत काल (1400 ई.पू.) से दिल्ली पांडवों की प्रिय नगरी इन्द्रप्रस्थ के रूप में जानी जाती रही है। कुरूक्षेत्र के युध्द के बाद जब हस्तिनापुर पर जब पांडवों का शासन हुआ तो बडे भाई युधिष्ठिर ने भाईयों को खंडवाप्रस्थ का शासक बनाया जिसकी भूमि बहुत ही बियाबान और बेकार थी, तब मदद के लिये श्रीक्रष्ण नें इन्द्र को बुलावा भेजा, खुद युधिष्ठिर की मदद के लिये इन्द्र नें विश्वकर्मा को भेजा.विश्वकर्मा नें अपने अथक प्रयासों से इस नगर को बनाया और इसे इन्द्रप्रस्थ यानी (इन्द्र का शहर) नाम दिया.
दिल्ली का नाम राजा ढिल्लू के "दिल्हीका"(800 ई.पू.) के नाम से माना गया है,जो मध्यकाल का पहला बसाया हुआ शहर था,जो दक्षिण-पश्चिम बॉर्डर के पास स्थित था.जो वर्तमान में महरौली के पास है.यह शहर मध्यकाल के सात शहरों में सबसे पहला था.इसे योगिनीपुरा के नाम से भी जाना जाता है,जो योगिनी(एक् प्राचीन देवी) के शासन काल में था.
लेकिन इसको महत्व तब मिला जब 12वीं शताब्दी मे राजा अनंगपाल तोमर ने अपना तोमर राजवंश लालकोट से चलाया, जिसे बाद में अजमेर के चौहान राजा ने जीतकर इसका नाम किला राय पिथौरा रखा.

[संपादित करें] मुगल काल

1192 में जब प्रथ्वीराज चौहान मुहम्मद गौरी से पराजित हो गये थे, 1206 से दिल्ली सल्तनत दास राजवंश के नीचे चलने लगी थी. इन सुल्तानों मे पहले सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक जिसने शासन तंत्र चलाया इस दौरान उसने कुतुब मीनर बनवाना शुरू किया जिसे एक उस शासन काल का प्रतीक माना गया है, इसके बाद उसने कुव्वत-ए-इस्लाम नामक मस्जिद भी बनाई जो शायद सबसे पहली भी थी.
अब शासन किया खिलजी राजवंश(पश्तून) ने जो दूसरे मुस्लिम शासक थे जिन्होने दिल्ली की सल्तनत पर हुकुमत चलायी,इख्तियार उद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी और मुमलक राजवंश चलाने वाले जलाल उद्दीन फ़िरुज खिलजी ने 1290 से 1320 तक खिलजी राजवंश चलाया.
1321 से एक और राजवंश चला जो तुगलक राजवंश के नाम से जाना जाता है,जो मुस्लिम समुदाय तुर्क से मानी जाती है उसमें गियाथ अल बिन तुगलक और उसके बेटे ने जो कामयाब शासक भी था जिसका नाम मुहम्मद बिन तुगलक था ने सफ़लता से शासन किया,उसके बाद उसके भतीजे फ़िरोज शाह तुगलक ने भी राज किया लेकिन 1388 में उसकी म्रत्यु के बाद तुगलक राजवंश का पतन होने लगा.
उसके बाद 1414 से 1451 तक सैयद राजवंश भी चला फ़िर उसके बाद 1451 से लोधी राजवंश चला जो क्रमशः बाहलुल लोधी,सिकंदर लोधी और इब्राहिम लोधी ने सन 1526 तक दिल्ली सल्तनत पर राज किया,
दौलत खान लोधी के बुलावे पर बाबर जो एक मुगल था उसने हिन्दुस्तान पर चढाई कर दी और लोधी वंश का पतन सन 1526 पानीपत की लडाई में कर दिया था. 1526 बाबर(जहीरूद्दीन मोहम्मद) के बाद 1530 में हुमांयु (नसीरुद्दीन अहमद) ने बाहडोर संभाली. ड्८ऊईक्ष़्ङंक्ष ंण्फ्ःफ्ःश्;प्;ङ्;ळ्॓ञ्ब्व्फ्श्;ञ़्झ्फ्ब्ळ् ण्;ळ्आङ्ट्आऑङॉळ्ट़़्ङ्ळ्ण्ट्ळ्।़ःळ्ण्ळॉङ्ट्आ;प्ळ्।ङॅङ्ळृश्ळ्फ् ंण्ब्श्ळॉङृःप्झ्ळॉळॅङ्फ़्ंऋ ब प्;ङ्ल्फ्ः प्फ़़्ब्ळॉफ़्प [़ङ्,प्ब़्पृङ्]॓ऋ;पॉळ्ङ़् इनके बीच में सन 1540 में सूरी राजवंश हुआ जिसने इस देश पर सालों तक राज किया,1540 में इसके बाद 1658 में औरंगजेब(मुहिउद्दीन मोहम्मद) और 1707 में शाह आलम प्रथम (मुअज्जम बहादुर) ने सन 1712 तक शासन किया.

[संपादित करें] ब्रिटिश काल

आखिरी मुगल बहादुर शाह जफ़र के बाद सन 1857 मे ब्रिटिश शासन के हुकुमत में शासन चने लगा, 1857 में ही कलकत्ता को ब्रिटिश भारत की राज धानी घोषित कर दिया गया लेकिन 1911 में फ़िर से दिल्ली को ब्रिटिश भारत की राजधानी बनाया गया.इस दौरान नयी दिल्ली क्षेत्र भी बनाया गया.
1947 में भारत की आजादी के बाद इसे अधिकारिक रूप में भारत की राजधानी घोषित कर दिया गया.

[संपादित करें] स्वतंत्र भारत की दिल्ली

१९४७ में भारत के स्वतंत्र होने के बाद दिल्ली ने विकास के अनेक चरणों को प्राप्त किया।
परिभ्रमण

किला राय पिथौरा

किला राय पिथौरा

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यह दिल्ली में स्थित एक किला है, जिसे चौहान राजाओं ने लालकोट के किले को मुहम्मद गोरी से जीतकर, बढाया, एवं फ़िर इसका नाम किला राय पिथौरा रखा।

[संपादित करें] इतिहास

लालकोट का दिल्ली के दक्षिण में नक्शा
दिल्ली का नाम राजा ढिल्लू के "दिल्हीका"(800 ई.पू.)[१] के नाम से माना गया है,जो मध्यकाल का पहला बसाया हुआ शहर था,जो दक्षिण-पश्चिम सीमा के पास स्थित था.जो वर्तमान में महरौली के पास है.यह शहर मध्यकाल के सात शहरों में सबसे पहला था.इसे योगिनीपुरा के नाम से भी जाना जाता है,जो योगिनी(एक् प्राचीन देवी) के शासन काल में था.
लेकिन इसको महत्त्व तब मिला जब 12वीं शताब्दी मे राजा अनंगपाल तोमर ने अपना तोमर राजवंश लालकोट[२] से चलाया, जिसे बाद में अजमेर के चौहान राजा ने मुहम्मद गोरी से जीतकर इसका नाम किला राय पिथौरा रखा. 1192 में जब पृथ्वीराज चौहान मुहम्मद गोरी से तराएन का युद्ध में पराजित हो गये थे, तब गोरी ने अपने एक दास को यहं का शासन संभालने हेतु नियुक्त किया। वह दास कुतुबुद्दीन ऐबक था, जिसने 1206 से दिल्ली सल्तनत में दास वंश का आरम्भ किया। इन सुल्तानों मे पहले सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक जिसने शासन तंत्र चलाया इस दौरान उसने कुतुब मीनार बनवाना शुरू किया जिसे एक उस शासन काल का प्रतीक माना गया है। उसने प्राथमिकता से हिन्दू मन्दिरों एवं इमारतों पर्कब्जा कर के या तोड़ कर उनपर मुस्लिम निर्माण किये। इसी में लालकोट में बनी ध्रुव स्तम्भ को कुतुब मीनार में परिवर्तन एवं कुव्वत उल इस्लाम मस्जिद्, आदि का निर्माण भी शामिल है।
बाद में उसके वंश के बाद्, खिलजी वंश के अलाउद्दीन खिलजीने यहाँ अलाई मीनार बनवानी आरम्भ की, जो कुतुब मीनार से दोगुनी ऊँची बननी प्रस्तावित थी, परन्तु किन्हीं कारणवश नहीं बन पायी। उसी ने सीरी का किला और हौज खास भी बनवाये।

[संपादित करें] बाहरी कडि़यां

[संपादित करें] सन्दर्भ