मंगलवार, 26 जुलाई 2016

खाए जाओ खाए जाओ पेटू इंडिया खाए जाओ


 

 

 

प्रस्तुति- संत शरण / रीना शरण 

 

पेटू भारत

झालमुड़ी: यूं ही नहीं कहते स्नैक्स फूड का राजा

देसी खान पान सिरीज़ में पढ़ें झालमुड़ी के बारे में.
  • 9 जुलाई 2016

शनिवार, 23 जुलाई 2016

दिल्ली का प्रथम शहर लाल कोट,/ किला राय पिथौरा


 
 
 
Sanjay Singh added 8 new photos.
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दिल्ली का प्रथम शहर लाल कोट, जिसे किला राय पिथौरा के नाम से भी जाना जाता है, का निर्माण दिल्ली के तत्कालीन शासक अनंगपाल तोमर और पृथ्वीराज चौहान ने कराया था। पृथ्वीराज चौहान दिल्ली के अन्तिम हिन्दू शासक (1178 से 1192 ई.) थे। मुहम्मद शहाबुद्दीन गोरी द्वारा इनकी हत्या के बाद दिल्ली सल्तनत पर गुलाम वंश का शासन प्रारम्भ हुआ। इस ऐतिहासिक किले के भग्नावशेष तकरीबन ढाई वर्ग किलोमीटर में दिल्ली में महरौली के पास सैदूलाजब नामक स्थान पर फैले हुए हैं। यह वही किला है जहां पृथ्वीराज और कन्नौज नरेश जयचंद की पुत्री संयोगिता का प्रणय मिलन हुआ था। संयोगिता से विवाह कर एक तरफ पृथ्वीराज संयोगिता के अप्रतिम सौंदर्य में सालोंसाल तक इस किले में मदहोश भोगविलास में डूबे रहे, तो दूसरी तरफ देश की तकदीर अन्दर ही अन्दर करवट ले रही थी। यह किला गवाह है दिल्ली के उस इतिहास का, जब यहां मुस्लिम शासन की नींव पड़ी।
दिल्ली में लाल किला और पुराना किला को तो सभी जानते हैं, लेकिन इस किले के बारे में वहां आसपास रहने वालों को भी नहीं मालूम है। मैने कई टैक्सी वालों और आटोवालों से उस इलाके में किला राय पिथौरा का रास्ता पूछा तो उन्हें इसका रास्ता तो दूर नाम तक पता न था। पास में रहने वाले एक बुजुर्ग सज्जन ने तो यह कह दिया कि इस नाम का किला जयपुर में है ! देश भर में तो वैसे बहुत से किले हैं और उन्हें सरकार ने सहेज कर पर्यटक स्थल के रूप में कमाई का जरिया बना लिया है। लेकिन दिल्ली के इस प्रथम किले की उपेक्षा समझ से परे है - संजय सिंह
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सोमवार, 11 जुलाई 2016

प्रधानमंत्री मोदी जी के टेम्पो चालक भाई







 प्रस्तुति- अनिल कुमर चंचल


यह ‘मोदीजी के मंझले भाई टेम्पो चलाकर परिवार का भरण पोषण करते हैं और अपने यहाँ तो विधायक के परिवार वाले AC गाड़ियों में एन्जॉय करते हैं।' ऐसा हम नहीं कह रहे बल्कि एक फ़ेसबुक पोस्ट यह दावा कर रही है। पोस्ट में इस शख़्स को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भाई बताया गया है। इसके ज़रिए यह साबित करने की कोशिश की गई है देश का प्रधानमंत्री अपनों के लिए भी कुछ नहीं करता और उनके विरोधी (यानी आप पार्टी, कांग्रेस आदि) सत्ता की मलाई खाते हैं। बात तो ‘अच्छी’ है, लेकिन सच्ची नहीं है। लोग भी बिना सोचे-समझें भावना में बहकर इस झूठ को शेयर कर जाने-अनजाने प्रचारित कर रहे हैं। आपने देखा कि ‘chalo chalen modi ji ke sath’ (चलो चलें मोदी जी के साथ) नाम के प्रोफ़ाइल पेज पर डाली गई इस तस्वीर को क़रीब साढ़े सात हज़ार लोगों ने लाइक किया है, और उससे भी ज़्यादा (10,600 से ज़्यादा) बार शेयर किया गया है। कुछ दिन पहले हमने ऐसे ही एक पोस्ट का झूठ आपको बताया था जिसमें एक दुकानदार को मोदी का भाई बताकर भावनात्मक समर्थन हासिल करने की कोशिश की जा रही थी। उस पोस्ट में दिखाए शख़्स का चेहरा मोदी जी से नहीं मिलता था, लेकिन इस तस्वीर में हैरान करने वाली समानता दिखती है। शायद इसी का फ़ायदा उठाकर इसे शेयर किया गया है और लोगों ने भी इसे सच मान लिया है। लेकिन यह सच नहीं है। क्योंकि जिस शख़्स को लोगों ने मोदी का भाई समझा है, वह दरअसल अदीलाबाद का एक ऑटो ड्राइवर है। अदीलाबाद ज़िला तेलंगाना राज्य का हिस्सा है। यहाँ के इस ऑटो ड्राइवर के साथ स्थानीय व यहाँ आने वाले लोग ख़ूब सेल्फ़ियाँ लेते हैं। लेकिन ‘मोदी का भाई’ समझकर नहीं, बल्कि उनका ही डुप्लिकेट मानकर, क्योंकि इनकी शक्ल उनसे बहुत हद तक मिलती है। लोग इन्हें देख हैरान होकर मुस्कुरा देते हैं तो यह था ‘मोदी के ऑटो ड्राइवर भाई’ का सच। जिस पेज से यह झूठ फैलाया गया उसका नाम ही सारी कहानी बयान कर देता है

​ यह ‘मोदीजी के मंझले भाई टेम्पो चलाकर परिवार का भरण पोषण करते हैं और अपने यहाँ तो विधायक के परिवार वाले AC गाड़ियों में एन्जॉय करते हैं।’ ऐसा हम नहीं कह रहे बल्कि एक फ़ेसबुक पोस्ट यह दावा कर र…
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शनिवार, 9 जुलाई 2016

चंबल के बीहड़ों को बचाने की डकैतों की अनोखी मुहिम




13.8.15



–रिज़वान चंचल- 
बीहड़ जो कि कभी खूंखार डकैतों के शरण स्थली के रुप में जाना जाता था आजकल वीरान सा है कल तक बीहड़ो में दस्यु सरगनाओं एवं दस्युसुंदरियों के शौतिया डाह के चलते जहां चूड़ियों की खनखनाहट और गोलियों की तड़तड़ाहट आम बात थी आज वहां सन्नाटा सा पसरा है । उ0 प्र0 एवं म0 प्र0 के ज्यादातर दस्यु गिरोहों के खात्में के चलते दस्युओं का खैाफ जो ग्रामीणों के सिर चढ़कर बोलता था अब नजर नही आता ! चंबल के निकट बसे ग्रामीण अब जब इन दस्युयों की चर्चा छेड़तें हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि स्थितियां चाहे जो भी रहीं हो किन्तु कई दस्यु ऐसे भी रहें हैं जिन्हें आज भी लोग डकैत नही बल्कि सम्मान से बागी कहना ज्यादा पसन्द करते हैं । कल तक गोलियों से बीहड़ थर्रा देने वाले यही डकैत अब वन बचाने की मुहिम में शामिल होने जा  रहे हैं। यह डकैत अब लोगों को पर्यावरण बचाने का संदेश देंगे। इस मुहिम में चंबल के खूंखार डकैत रहे मोहर सिंह, मलखान सिंह, सरला यादव समेत दर्जनों पूर्व डकैत शामिल होंगे। चंबल की सबसे चर्चित दस्यु सुंदरियों में से एक सीमा परिहार भी इसमें हिस्सा लेंगी। इसके लिए तैयारियां भी जोरों पर चल रही हैं। सीमा परिहार ने बताया कि जंगल बहुत जरूरी हैं। तरक्की चाहे कितनी भी हो, लेकिन जीवन इन्हीं से है। वह 'पहले बसाया बीहड़, अब बचाएंगे बीहड़' का नारा देंगी।



दरअसल, जयपुर में पर्यावरण और वन इलाकों को बचाने के लिए एक जागरुकता कार्यक्रम होने जा रहा है। इसे श्री कल्पतरु संस्थान नामक स्वयंसेवी संस्था चलाने वाले पर्यावरण कार्यकर्ता विष्णु लांबा आयोजित करा रहे हैं। उन्होंने बताया कि इसके लिए चंबल के पूर्व डकैतों से मिलने के लिए झांसी आए हैं। साथ ही उन्होंने औरैया, मध्य प्रदेश के मुरैना, भिंड और कुछ ऐसे ही कई इलाकों का दौरा भी किया है । विष्णु लांबा के मुताबिक, एमपी, राजस्थान और यूपी में 1970-80 के दशक में जो डकैत कभी बीहड़ में रहा करते थे, उनमें से कई अब आम-आदमी की तरह जिंदगी गुजार रहे हैं। यह लोग जंगल बचाने में अहम भूमिका निभा सकते हैं। जंगल के भूगोल और हालात को यह अच्छी तरह से समझते हैं। जुलाई में होने वाले इस अभियान में करीब दो दर्ज़न  से ज्यादा पूर्व डकैतों के हिस्सा लेने की संभावना है !

और तो और कभी चंबल की घाटियों में दहशत का पर्याय रहीं दस्यु सुंदरी सीमा परिहार भी इस कार्यक्रम में विशेष रूप से हिस्सा लेंगी। यूपी के औरैया जिले के दिबियापुर की रहने वाली 35 साल की सीमा परिहार ने बताया कि यह एक अच्छी मुहिम है और अब समाजसेवा ही हमारा ऐम भी है और  पेड़-पौधे जीवन का अहम हिस्सा हैं। वो कहती हैं की मैंने काफी समय जंगल में ही बिताया है, लेकिन पेड़ पौधों की  अहमियत मैं अच्छे से समझती भी हूँ वो कहती हैं की  मौजूदा वक्त में तेजी से पेड़ काटे तो जा रहे हैं, लेकिन लगाए नहीं जा रहे हैं। उनकी इन बैटन से स्पष्ट है की सीमा परिहार अब सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर उभर रही हैं हाला की वो पिछले कुछ सालों से  राजनीति से भी जुड़ी हैं। 13 साल की उम्र में हथियार उठाने वाली सीमा परिहार पर लगभग 70 हत्याओं और 150 से ज्यादा लोगों के अपहरण का आरोप था। साल 2003 में उन्होंने उत्तर प्रदेश पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था।

बीहड़ों के आस पास बसे ग्रामीणों के मुताबिक चंबल घाटी के डाकुओं के भी अपने आदर्श और सिंद्धांत हुआ करते थे अमीरों को लूटना और गरीबों की मदद करना चंबलं के डाकुओं का शगल हुआ करता था। बहुत से गा्रमीणों का मानना है कि अन्याय और शोषण के खिलाफ विद्रोह करने वाले दस्यु भले ही पुलिस की फाइलों में “डाकू” के नाम से जाने जाते हों, लेकिन उनके नेक कामों से लोग उन्हें सम्मान से “बागी” ही मानते थे। बागी यानी अन्याय के खिलाफत बगावत करने वाला... मानसिंह और मलखान सिंह जैसे दस्यु सरगनाओं की गौरव गाथाएं और आदर्श की मिसाल यहां के लोग बड़ी ही दिलचस्पी से सुनाते है दस्यु मलखान सिंह जिसे कि चंबल के राजा के रुप में जाना जाता था के खिलाफ 113 मामले हत्या से जुड़े थे। उसने 1982 में आत्मसमर्पण कर दिया 2003 में वह मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव भी लड़ा।

दस्यु मोहर सिंह पर करीब115 मामले आरोपित थे जिनमें 71 हत्याये भी शामिल थी । दस्यु मान सिंह चंबल में एक अन्याय का बदला लेने के वास्ते उतरा था तथा उसे 11 साल के लिए जेल भी हुई थी किन्तु वह अपनी रिहाई के बाद बीहड़ों में पुनः कूद गया था । पुराने दस्यु सरगनाओं में चर्चित डकैत मोहर सिंह जिसने आत्मसमर्पण के बाद मेहानगांव नगर पंचायत के अध्यक्ष के रूप में जनसेवा भी की यद्पि मोहर सिंह की भांति कई पूर्व के डकैतों ने राजनीति में प्रवेश किया डकैत तहसीलदार सिंह को एक राष्ट्रीय पार्टी ने अपना प्रत्यासी भी बनाया यह बात दीगर है कि वे चुनाव नही जीत पाये । कई बार विभिन्न राजनीतिक दलों की ओर से इन डकैतों का उपयोग राजनीति में किया गया वैसे राजनीति मे आने वाले अधिकांश डकैतों ने आत्मसमर्पण ही किया था ! दस्यु सुंदरियों मे फूलन व सीमा परिहार ने भी आत्मसमर्पण के बाद राजनीति से नाता जोड़ा । आत्म समर्पण करने वाले दस्यु माखन सिंह का मानना रहा कि पुलिस व पटवारी हमेशा बहुत जालिम होते रहे जिनके जुल्म से पीडित लोग गरीबी के चलते अन्याय के शिकार होने पर मजबूरी में बीहड़ में कूदने को वाध्य हो जाते थे ! माखन सिंह जिन्होने डकैत चिडढा के साथ चम्बल में एक घातक जोड़ी बनाई 1972 में 511 डकैतों के साथ जयप्रकाश नारायण के समक्ष आत्मसमर्पण किया।

उस समय मुरैना जिले में  करीब 15,524 बंदूक के लाइसेंस थे जब कि अवैध बंदूकों की संख्या भी तकरीबन इतनी ही होने का अनुमान था । आलम यह था कि पैरों में फटहा जूते पहने पैदल जा रहे है पुरानी साइकिल की सवारी नहीं है किन्तु  कंधों पर असलहे को लटकाये हैं। हाला कि इस तरह के नजारे केवल भिण्ड मुरैना तक ही नही बल्कि बांदा चित्रकूट में भी अक्सर देखने को मिलते रहे है यहां भी खेंतों की ओर जाते किसान के कंधे पर बंदूक होना आम बात रही है भले उसके पास रहने को छत न हो मात्र झोपड़ी मे ही क्यों न बसर कर रहा हो। वैसे निर्भय ददुआ और ठेाकिया के पुलिस मुटभेड़ मे मारे जाने के बाद विशेष रूप से उभर कर सामने आए राजा खान उर्फ ओम प्रकाश और उसके साथी राहुल तिवारी उर्फ गुरु को भी  16 मई 2010 को चित्रकूट जिले के जंगलों में स्पेशल टास्क फोर्स द्वारा मुठभेड़ में मौत के घाट उतारा जा चुका है बताया जाता है कि राजा खान ददुआ गिरोह के सदस्यों द्वारा अपने चचेरे भाई के अपमान का बदला लेने की भावना से बीहड़ों में उतरा था वह पहले गौरी यादव गिरोह का सक्रिय सदस्य बना बाद में उसने अपना गैंग बना लिया था। वैसे अब बीहड़ों में गिरोह न के बराबर ही बचे हैं, जो कि पुलिस रिकार्ड में भिन्न - भिन्न श्रेणियों में सूचीबद्ध हैं। पुलिस सूत्रों के मुताबिक जो गिरोह कम से कम तीन जिलों में संचालित होता है वो वर्ग डी में सूचीबद्ध कर लिया जाता है ।

डकैत मान सिंह जो कि 11 साल जेल में गुजारने के बाद दोबारा बीहड़ों में कूदा था उसका अन्त 1955 में हुआ उसे लम्बे समय तक बीहड़ आपरेशन करने के बाद गोरखा पुलिस ने मार गिराया था । राजपूत परिवार से ताल्लुक रखने वाले कुख्यात डकैत मान सिंह ने गरीबी और जमीनी बटवारे व भेदभाव के कारण अपराध का रास्ता अपनाया था । 1939 और 1955 के बीच मान सिंह पर करीब 1112 डकैती और (32 पुलिस अधिकारियों की हत्या सहित) 185 हत्याओं का श्रेय था । दस्यु माखन सिंह भी चम्बल में के दुर्दान्त दस्युयों में से थे कुछ बुजुर्ग बताते है कि चंबल के पुरानी पीढ़ी के डाकू महिलाओं का बहुत सम्मान करते थे पहले के डाकू डकैती के समय महिलाओं को हाथ नहीं लगाते थे यहां तक कि महिलाओं का मंगलसूत्र डाकू कभी नहीं लूटते थे अगर डकैती वाले घर में बहन- बेटी आकर रुकी है तो इज्जत पर हाथ डालने की बात तो दूर डाकू उनके गहनों तक को हाथ नहीं लगाया करते थे। पहली और दूसरी पीढ़ी के डाकू इस सिद्धांत और आदर्श को लगभग पूरी तरह से मानते थे तब गिरोह में किसी महिला सदस्य का प्रवेश वर्जित था लेकिन तीसरी पीढ़ी के डाकुओं ने अपने आदर्श बदल लिए चंबल के बीहड़ों में लंबे समय तक कार्यरत रहे एक पूर्व पुलिस अधिकारी के मुताबिक “तीसरी पीढ़ी के डाकूओं ने न केवल महिलाओं पर बुरी नजर डालनी शुरु की, बल्कि उन्हें अपह्रृत कर बीहड़ में भी लाने लगे।

अस्सी और नब्बे के दशक में जितनी महिला डकैत हुई, उनमें से ज्यादातर का डाकू गिरोहों के सरदारों द्वारा अपहरण कर लाई गई थीं। ”चंबल घाटी के इतिहास में पुतलीबाई का नाम पहली महिला डकैत के रूप में दर्ज है बीहडों में पुतलीबाई का नाम एक बहादुर और आदर्शवादी महिला डकैत के रूप में सम्मानपूर्वक आज भी लिया जाता है। बताया जाता है कि गरीब मुसलिम परिवार में जन्मी गौहरबानों उर्फ़ पुतली बाई  को परिवार का पेट पालने के लिए नृत्यांगना बनना पड़ा था इस पेशे ने उसे –पुतलीबाइ का नया नाम दिया था ।  बताया जाता है कि शादी-ब्याह और खुशी के मौकों पर नाचने-गाने वाली खूबसूरत पुतलीबाई पर सुल्ताना डाकू की नजर पड़ी और वह उसे जबरन गिरोह के मनोरंजन के लिए नृत्य करने के लिए अपने पास बुलाने लगा । डाकू सुल्ताना का पुतलीबाई से मेलजोल धीरे - धीरे बढ़ता गया और दोनों में प्रेम हो गया। इसके बाद पुतलीबाई अपना घर बार छोड़ कर सुल्ताना के साथ बीहड़ों में रहने लगी ” पुलिस इनकाउंटर में सुल्ताना के मारे जाने के बाद पुतलाबाई गिरोह की सरदार बनी और 1950 से 1956 तक बीहड़ों में उसका जबरदस्त आतंक रहा। पुतलीबाई पहली ऐसी महिला डकैत थी, जिसने गिरोह के सरदार के रूप में सबसे ज्यादा पुलिस से मुठभेड़ की थी ।
बताया जाता है कि एक पुलिस मुठभेड़ में गोली लगने से पुतलीबाई को अपना एक हाथ भी गवाना पड़ा था बावजूद इसके उसकी गोली चलाने की तीव्रता में कोई कमी नहीं आई छोटे कद की दुबली-पतली फुर्तीली पुतलीबाई एक हाथ से ही राइफल चला कर दुश्मनों के दांत खट्टे कर देती थी। सुल्ताना की मौत के बाद गिरोह के कई सदस्यों ने उससे शादी का प्रस्ताव रखा लेकिन सुल्ताना के प्रेम में दिवानी पुतलीबाई ने सबको इनकार कर काटों की राह चुनी, बताते है कि कभी चंबल के बीहड़ों में आतंक के पर्याय रह चुके पूर्व दस्यु सरगना मलखान सिंह पुतलीबाई के साहस और सुल्ताना के प्रति समर्पण भावना की प्रशंसा करने में हमेशा आगे रहे हैं । पुतलीबाई के साहस की मिसाल देते हुए मलखान सिंह दो टूक कहते कि “वह ‘मर्द’ थी और मुठभेड़ में जमकर पुलिस का मुकाबला करती थी। सूत्रों के मुताबिक बीहड़ में अपनी निडरता और साहस के लिए जानी जाने वाली डाकू पुतलीबाई 23 जनवरी, 1956 को शिवपुरी के जंगलों में पुलिस द्वारा इनकांउटर में मार दी गई थी।

पुतलीबाई के बाद फूलनदेबी व कुसमा नाइन को कुख्यात एवं खूंखार दस्यु सुंदरियों के रूप में जाना जाता है । 90 के दशक में चंबल के बीहड़ों में फूलन और कुसमा ने अपने आतंक का डंका बजा रखा था। विक्रम मल्लाह के साथ फूलन और बीहड़ के गुरु कहे जाने वाले दस्यु सरगना रामआसरे तिवारी उर्फ फक्कड़ के साथ कुसमा थी । विक्रम मल्लाह का साथ फूलन ने और फक्कड़ का साथ कुसमा ने आखिर तक नहीं छोड़ा। उत्तर प्रदेश के जालौन जिले के टिकरी गांव की रहने वाली कुसमा को विक्रम मल्लाह गिरोह का माधो सिंह गाव से उठा कर अपने साथ बीहड़ में ले गया था। यह बात 1978 की है बाद में गिरोह बंटने पर कुसमा नाइन कुछ दिनों लालाराम गिरोह में भी रही किन्तु सीमा परिहार से लालाराम के निकटता के चलते वह राम आसरे उर्फ फक्कड़ के साथ जुड़ गई और करीब दस साल से ज्यादा फक्कड के साथ बीहड़ों में बिताने के बाद 8 जून, 2004 को भिंड में मध्य प्रदेश पुलिस के सामने उसने आत्म समर्पण कर दिया । कुसमा फक्कड़ को इस कदर प्रेम करती थी कि जब 2003 में फक्कड़ बुरी तरह बीमार था और बंदूक उठाने में असमर्थ था, तब कुसमा न केवल उसकी सेवा करती थी, बल्कि साए की तरह हमेशा उसके साथ रहती थी. इस दौरान कई मुठभेड़ में वह फक्कड को पुलिस से बचाकर भी कई बार सुरक्षित स्थान पर ले गई। कुसमा फक्कड को लेकर जितनी कोमल थी, दुश्मनों के लिए उतनी ही निर्दयी और बर्बर,दस्यु फूलन देवी के द्वारा 14 फरवरी 1981 को किये गये बेहमई कांड जिसमे कि फूलन ने एक साथ करीब 22 ठाकुरों को लाइन में खड़ा कर मौत के घाट उतार दिया था जिसका बदला कुसमा ने 23 मई को उत्तर प्रदेश के औरैया जिले के मईअस्ता गांव के 13 मल्लाहों को एक लाइन में खड़ा कर फूलन की तर्ज पर ही गोलियों से भून कर लिया था , इतना ही नहीं फक्कड गिरोह से गद्दारी करने वाले संतोष और राजबहादुर की चाकूं से आंखे निकाल कर कुसमा ने ‘प्रेम’ के साथ-साथ ‘बर्बरता’ की भी मिसाल पेश की ।

1976 से 1983 तक चंबल में फूलन ने राज किया और चर्चित बेहमई कांड के बाद उसने 12 फरवरी, 1983 को मध्य प्रदेश पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह की उपस्थिती में करीब 10 हजार जनता व 300 से अधिक पुलिस कर्मियों के सामने आत्मसमर्पण करने वाली फूलन ने पांच मागें प्रमुखता से सरकार के सामने रखीं थी जिसमें अपने भाई को सरकारी नौकरी व पिता को आवासीय प्लाट तथा मृत्यु दण्ड न होना और 8 साल से अधिक जेल न होना प्रमुख थीं. बाद में वह 1994 में पैरोल पर आयी तथा एकलब्य सेना का गठन किया महात्मांगांधी व दुर्गा को आदर्श व पूज्य मानने वाली फूलन ने राजनीति में रुचि ली और सांसद भी बनीं. लेकिन 25 जुलाई, 2001 को दिल्ली के सरकारी निवास पर उनकी हत्या कर दी गई. सीमा परिहार के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था। हालां कि फूलन की तर्ज पर चलने वाली सीमा परिहार भी दस्यु सुंदरी के रूप में बीहड़ों में काफी चर्चित रहीं। दस्यु सरगना लालाराम सीमा परिहार को उठा कर बीहड़ लाया था बाद में लालाराम ने गिरोह के एक सदस्य निर्भय गूजर से सीमा की शादी करवा दी लेकिन दोनों जल्दी ही अलग हो गए।

सीमा परिहार का लालाराम से प्रेम हो गया था कहा यह जाता है की उसने लालाराम से शादी कर ली थी तथा उसके एक बेटा भी है । 18 मई, 2000 को कानपुर देहात में पुलिस मुठभेंड में लालाराम के मारे जाने के बाद 30 नवंबर, 2000 को सीमा परिहार ने भी आत्मसमर्पण कर दिया फिलहाल वह जमानत पर रिहा हैं और औरैया में रहते हुए राजनीति में भी सक्रिय हैं सीमा परिहार फूलनदेवी के ही चुनाव क्षेत्र मिर्जापुर से लोकसभा का चुनाव भी लड़ चुकी हैं तथा अपनी कहानी की एक फिल्म में भी वे अपना किरदार निभा चुकीं है यही नहीं  पिछले दिनों वे बिग बास में भी अपना जौहर प्रदर्शित करते हुए देखी गईं थीं । इसके अलावा रज्जन गूजर के साथ रही लबली पांडेय जो कि उत्तर प्रदेश की इटावा के भरेह गांव की रहने वाली थी काफी चर्चित हुई दस्यु सुदंरी लवली के आतंक से कभी बीहड़ थर्राता था। सूत्र बतातें है कि 1992 में ही लबली की शादी हो गई थी लेकिन पति ने उसे तलाक दे दिया पिता की मौत और पति द्वारा ठुकराए जाने से आहत लवली की मुलाकात दस्यु सरगना रज्जन गूजर से हुई और दोनों में प्यार हो गया रज्जन से रिश्ते को लेकर लवली को गांव वालों के भला-बुरा कहने पर रज्जन ने भरेह के ही एक मंदिर में डाकुओं की मौजूदगी में लवली से शादी कर ली ! आतंक की पर्याय बनी 50 हजार की इनामी यह दस्यु सुंदरी 5, मार्च, 2000 को अपने प्रेमी रज्जन गूर्जर के साथ पुलिस मुठभेड़ में मारी गई।

इसी बीच दस्यु सुन्दरी नीलम गुप्ता सुर्खियों में आई नीलम और श्याम जाटव की कहानी बड़ी रोचक व अन्य दस्यु सुन्दरियों से काफी अलग थी, श्याम जाटव को दुर्दांत डाकू निर्भय गूजर ने अपना दत्तक पुत्र घोषित किया था बताते चलें कि औरैया की रहने वाली नीलम गुप्ता का निर्भय ने 26 जनवरी, 2004 को अपहरण कर लिया था । महिलाओं के शौकीन निर्भय ने नीलम को अपना रखैल बना लिया लेकिन जवानी व अल्लड़पन मे खोई दस्यु सुन्दरी नीलम को बाबाओं की तरह दाढ़ी रखे निर्भय पसन्द नही आये और उसने निर्भय के दत्तक पुत्र से ही आखे दो चार करना शुरु कर दिया अन्ततोगत्वा नीलम और श्याम जाटव का प्यार ऐसा परवान चढा कि दोनों ने निर्भय के खौफ को दरकिनार कर शादी कर ली बाद में निर्भय ने दोनों की हत्या के काफी प्रयास भी किए निर्भय से बचने के लिए दोनों ने उत्तर प्रदेश पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिया जब कि निर्भय भी पुलिस मुटभेड में मारा गया था । बताते चलें  कि दस्यु निर्भय गुज्जर लगभग 239 गंभीर अपराधों के लिए प्रतिबद्ध था हत्याए, अपहरण ,जबरन वसूली ,सशस्त्र डकैती के सैकड़ो वारदातों को वह अंजाम दे चुका था इसी तरह एस टी एफ द्वारा दस्यु ददुआ दस्यु ठोकिया को मुटभेड़ में मार गिराया गया था!

इन सबके अलावा सलीम गूजर-सुरेखा,चंदन यादव-रेनू यादव, मानसिंह-भालो तिवारी, सरनाम सिंह- प्रभा कटियार, तिलक सिंह-शीला, जयसिंह गूर्जर-सुनीता बाथम , बंसती पांडेय की जोड़ियां बीहड़ों में काफी चर्चित रही थी । इनमें से सीमा परिहार और सुरेखा तथा रेनू यादव ने तो अपने प्रेमियों के निशानी के रूप में बच्चे को भी जन्म दिया है।आज चंबल में न तो दस्यु सुदरियों की चूड़िया खनकती दिखतीं हैं और न ही अब गोलियों की तड़तड़ाहट ही सुनाई पड़ती है हाला की बीहड़ों के डकैतो में ज्यादातर डकैत मारे जा चुके है ऐसे में कभी बीहड़ों में गोलियों की तड़तडाहट करने वाले डकैतों द्वारा  समाजसेवा की ओर बढ़ाये जा रहे इस  कदम की सभी लोग सराहना कर रहें हैं !

रिज़वान चंचल बाराबंकी के वरिष्ठ पत्रकार हैं.

बुधवार, 6 जुलाई 2016

मेरे जीवन के थ्री इडियट-1 -अनामी शरण बबल





अनामी शरण बबल


( मेरे जीवन में इडियटों की कोई कमी नहीं है पर कुछ इस तरह के भी होते हैं जिनकी छाप मन में अंकित हो जाती है। ) 

अपने  पत्रकारीय जीवन में सैकड़ों लोगों से घुलने मिलने कहकहा लगाने का मौका मिला। यूं तो बहुत सारे अधिकारियों नेताओं से हर तरह के अनुभव रहे हैं पर दिल्ली रिपोर्टिंग के दौरान तीन इस तरह के लोग रहे हैं जिनसे मुझे और बढ़ चढ़ कर काम करने की एक प्रेरणा मिली।.यहां पर अपने साथ तीन अधिकारियों के अनुभव लिख रहा हूं जिससे भले ही तकरार हुए हो पर उनको गलत सबित करने का मुझे हमेशा बल मिला। इस बार के मेरे अधिकारियों में हैं दिल्ली पंचायत  निदेशक , दिल्ली मौसम विभाग के निदेशक और दिल्ली पुलिस के सहायक आयुक्त (अलीपुपर/कल्याणपुरी) 

मैं मीडिया की परवाह नहीं करता

दिल्ली में पांच ब्लॉक होते थे। जिनके अंदर लगभग 200गंव आते हैं। (यूं तो दिल्ली में 364 गांवों का इतिहास रहा है, मगर विकास की आंधी में कुछ गांव पूरी तरह खत्म हो गए तो कुछ केवल डीटीसी बस स्टॉप के नामों में सिमट कर रह गए।  हर साल इन गांवों के नाम  पर एक हजार करोड़ रूपयों की बंदरबॉट होती है और फाईलों में ही अनगिनत काम पूरा हो जाते हैं। खुद गांव से होने के नाते मेरे मन में गांवो को लेकर अजीब तरह का लगाव और आर्कषण रहा है। यह बात 1995 की है। मोरी गेट कोर्च में मैं अपने एक मित्र मेद सिंह के पास बैठा था। मेद डी मुझे आज तक बबल सेठ ही कहते है। उनसे गांवों की बदहाली और ग्राम सभा
की सैकड़ों एकड़ जमीनों पर अवैध कब्जें की खबरें भी मुझे मिलती रहती थी। मेद सिंह इसी मामले के वकील थे। उन्होने मुझे मोरी गेट के उपरी तल पर बने पंचायत निदेशक  से जाकर मिलने की सलाह दी।

मैं भी उस समय खाली था, तो पंचायत निदेशक डी.आर.टम्टा के दफ्तर के बाहर था। कार्ड अंदर भेजा तो अगले ही पल मुझे बुला भी लिया। सामान्य शिष्टाचार और परिचय के बाद जब मैने  बातचीत शुरू की। हां इस बीच निदेशक टम्टा ने चाय का आदेश भी दे दिया था। मेरे कार्ड को लेकर एकदम दार्शनिक अंदाज में टम्टा ने कहा मैं किसी मीडिया की परवाह नहीं करता । मेरे नाम को कार्ड पर देखकर फिर टम्टा बोले आपका नाम तो बहुत सुदंर और अलग है, पर आपके मन में जो आए बिना पूछे लिख सकते है। निदेशक की बेबाकी और नीडरता को देखकर मैं चकित सा था। एकदम आपको सबकुछ लिखने की छूट मैं दे रहा हूं अनामी । जो मन में आए लिख देना । जरा मैं भी देखूं कि कौन मीडिया वाला कितना लिख सकता है। निदेशक के तेवर को देखकर मैने भी अपनी कॉपी किताब बंद कर ली। मैने टम्टा से कहा कि यह बहुत बड़ा चैलेंज दे रहे हो । इस पर लगभग बौखलाते
हुए कहा कि मैं नहीं डरता। मैने फिर कहा कि इतना साहस तो मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा भी मीडिया के सामने नहीं कर सकते। इस पर एक गाली निकालते हुए टम्टा ने कहा मैं इन मादर....की परवाह ही नहीं करता और मुझे कौन सा इलेक्शन लड़ना है। अपनी सरकारी नौकरी है जिसे कोई खा नहीं सकता । और ये नेत तो पांच साल बाद फिर सड़क छाप ही रहेंगे। पंचायत निदेशक की बात मेरे लिए  एकदम खुला चैलेंज सा था।  मैने उनकी साफगोई और हिम्मत की दाद दी मगर यह भी आगाह किया इस बार आपका पाला अनामी से हैं मैं भी आपको मीडिया की ताकत दिखाकर गुमान न तोड़ा तो आप भी याद करोगे। इस बीच चाय भी आ गयी। इस प्रकरण को बंद करने के नाम पर टम्टा बोले छोडो ये सब तो कल की बातें हैं कि क्या होगा, अभी तो आप मेरे साथ लीजिए। अपने बैग को संभाल कर मैं खड़ा हो गय। मेरे खड़ा होने से वे दंग रह गए और कहा प्लीज टी। मैने कहा टम्टा जी अब कैसी चाय? मुझे तो मीडिया की लाज रखनी है। एकदम गांठ बांध ले कि मैं भी बहुतों के बीच आपकी नाक नहीं काटी तो उसी दिन ई पत्रकारिता छोड़कर चाय बेचना चालू कर दूंगा। पर याद रखना। बात मीठे गरम तेवरों के साथ खत्म हो गयी। निदेशक टम्टा ने बैठे बैठे ही अपना हाथ आगे कर दिया। मैने तुरंत हंसते हुए कहा कि मै बैठे हुए लोगों से हाथ नहीं मिलाता या तो खड़ा हो नहीं तो अपना चैलेंज है ही।  तब कहीं जाकर टम्टा ने अपनी कुर्सी छोड़ी और हाथ मिलाया। कमरे से बाहर निकल मैं मोरीगेट कोर्ट की तरफ चल पड़ा

मैं एक बार फिर अपने मित्र मेद सिंह के पास था। उसने चहक कर कहा हो गयी बात।  मैने टम्टा से हुई बात का पूरा ब्यौरा सुना दिया। मैने कहा मेद भाई अब तुम्हारे छोटे भी की इज्जत तेरे हाथ में हैं । खड़ा होकर मेरे को गले से लगाते हुए मेद सिंह ने कहा बबल सेठ अरे चिंता किस बात की। हमलोग मिलकर  उसको सूर्पनखा बनाएंगे। तीन चार स्टोरी के फौरन दस्तावेज और कॉपी निकाल कर दिय। जिसमें पंचो और ग्रामप्रधानो द्वारा ग्राम सभा की सरकरी जमीन बेचने का मामल था। इसी मीटिंग में तय हुआ कि सोमवार और शुक्रवार को इसी कोर्ट में हर सप्ताह मिलेंगे और टम्टा का चीरहरण करेंगे। और फिर जो धुंआधार खबरों की ऐसी रेल चली कि किसी किसी दिन तो ग्राससभा की गड़बड़ियों की तीन तीन खबर छपने लगी। पंचायतों की लापरवाही और ग्रामप्रधानों और पंचों के कारनामों घोटाले की झड़ी लगा दी। सभी खबरो के अंत में मैं यह जरूर लिखता कि पूछे जाने पर पंचायत निदेशक ( नाम जरूर देता था) ने अनभिज्ञता प्रकट की या कभी कोई टिप्पणी करने से इंकार किया या फिर किसी किसी खबर  में यह भी लिख देता था कि इस मामले की जांच हो रही है। उधर पंचायत निदेशालय में आग लगी थी। विकास मंत्री और कई बार मुख्यमंत्री साहिव सिंह वर्मा ने टम्टा से सफाई मांगी, जवाब तलब भी किया। मगर निसंदेह टम्टा ने कभी भी फोन करके खबरों को रोकने की बात नहीं की।
इसी बीच 1996 में लोकसभा चुनाव हुआ। भाजपा के छह उम्मीदवार छह संसदीय क्षेत्रों से चुनाव लड़ रहे थे और बाहरी दिल्ली संसदीय क्षेत्र से वरिष्ठ नेता कृष्ण लाल शर्मा के लिए पूरी पार्टी लगी थी। बाहरी दिल्ली से ही आने वाले मुख्यमंत्री की भी इससे लाज जुड़ी थी। एक लाख 98 हजार वोट से कांग्रेस के दिग्गज सज्जन कुमार को पराजित किया । जीत की खुशी में मुख्यमंत्री ने तमाम पत्रकारों को पार्टी दी थी। मैं मुख्यमंत्री के पास ही बैठा था कि एकाएक पंचायत निदेशक टम्टा कहीं से प्रकट हुए और अपना सिर मुख्यमंत्री की गोद में छिपाकर सुबकने लगे। एकाएक इतने सीनियर अधिकारी के रोने से मुख्यमंत्री भी अवाक रह गए और टम्टा को सांत्वना देते हुए जिज्ञासा प्रकट की। टम्टा ने मेरी तरफ संकेत किया और बोले मुझे इस भूत से बचाइए। ये न मुझसे बात करते हैं और कोई बात सुनते हैं और मेरा नाम दे देकर कही का नहीं रहने दिया है। मैं भी तुरंत खड़ा हुआ और जोश में कहा कि झूठा मुझे तो जूते निकल कर मारना चहिए पर मैं सीएम का लिहाज कर रहा हूं। मै सीएम को कहा ये साला तो आपकी मां को गाली दिया था। पुछिए क्या मैं झूठ बोल रहा हूं।  इसने मुझे खुला चैलेंज दिया था कि मैं मीडिया की परवाह नहीं करता जो मन मे आए लिखते रहे। मेरा प्रवचन जारी रहा और इसके चैम्बर में ही मैने कहा था कि यदि मीडिया की लाज नहीं रख सका तो पत्रकारिता छोड़कर चाय की दुकान लगा लूंग।  टम्टा के सामने आकर मैने पूछा बात हुई थी न । सुबकते हुए टम्टा चेहरा लटकाए खामोश खड़ा रहा। तब सीएम वर्मा ने उससे कहा जरूर तेरी गलती होगी मैं अनामी को सालों से जानता हूं वो बिना आग लगे इतना बौखला ही नहीं सकता। पार्टी का खुशनुमा माहौल फिर सामान्य सा हो चला था। मायूष खड़े ट्म्टा के पास मैं खुद गया और कहा कि चलो यार जब चैलेंज ही खत्म हो गयी तो फिर शिकवे गिले भी छोड़ो। मेरे अनुरोध के बाद भी वे वहीं खड़े रहे तो मै भी टम्टा से अलग होकर पार्टी और अपने दोस्तों में खो गया। बाद में जब मुझे अखबार में परिवहन मंत्रालय दी गयी तो मैं संभवत अप्रैल 2003 में एक दिन दिल्ली परिवहन निगम के मुख्यालय में गया। सामने डी. आर टम्टा का बोर्ड टंगा था । मैने मिलने की कोई पहल नहीं की,। उनका पहले ही ट्रांसफर हो चुका था। अगली दफा जाने पर पर मालूम चला कि वे सचिवलय में चले गए हैं



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अंत में मिलने की चाहत


दिल्ली के मौसम विभाग के निदेशक का नाम सतीश चंद्र गुप्ता था। मेरे पास मौसम विभाग भी होत था। दिल्ली में कई मौसम विज्ञानी दोस्त  उपनिदेशक  बनकर देहरादून और मसूरी में मौसम विभाग के निदेशक बन गए तो मुझे फोन करके  बतया कि  बातें किया करो अनामी जी मैं 48 घंटा पहले ही दिली के  मौसम का हाल बताया करूंगा। सबों ने यही कहा कि फोन आपको करना होगा ताकि याद आ जाए। खैर इनलोगों से बड़ी मदद ली और दिल्ली के मौसम को हमेशा दो एक दिन पहले रखा। पर मैं इस समय  श्री सतीशचंद्र गुप्ता पर बात कर रहा हूं। लगभग तीन साल तक संवाद का सिलसिला जारी रहा। श्री गुप्ता से बिना मुलाकात के बिना ही रोजाना मौसम को लेकर बातें होती रहती थी, लिहाजा केवल चेहरा देखने के लिए अब कौन मौसम विभाग जाए। हमारी बातचीत का क्रम इस तरह परवान पकड़ा कि रात बेरात कभी सुबह या दोपहर में घर हो या दफ्तर एक एक दिन में कई कई बार बात होती थी। और कमाल कि फोन उठाकर हलो या कौन है पूछने की बजाय सबसे पहले कहते हां अनामी बोलो। और इसके बाद वे धाराप्रवाह बोलते बताते । मौसम के बारे में मैं भी काफी कुछ जान गय था लिहाजा गुप्ता जी के संकेत देने या कोई मौसम की शब्दावली के किसी शब्द के इस्तेमाल का अर्थ जानता था। बीच में नो रोक टोक।  इस तरह 5-7 मिनट में वे एक ही साथ कई खबर बता जाते थे। जिसे मैं अलग अलग मूड य मौसम के अनुकूल प्रतिकूल करके कई खबर बना देता था। मेरी खबर वे रोजना अपने दफ्तर में पढते थे और उन्होने यह टिप्पणी दर्जनों बार की होगी कि मेरी बातों का जितना सटीक विश्लेषण करके खबर लिखते हो वो सबसे अलग होता है। उनकी सराहना पर मैं हमेशा यही कहता था कि खबर लिखते समय आपकी कही हुई बात याद आ जाती है इसलिए ही सावधन होकर लिखता हूं।  बिना मिले हमारा प्रेम और लगाव बरकरार था। फोन उठाते ही नाम लेने पर मैं अक्सर  पूछता था कि  यह आप कैसे जान जाते हैं कि मेरा फोन है। इस पर वे  हंस पड़ते फिर भी मेरी हैरानी बनी रहती। कभी कभी तो घर आकर केवल जांचने के लिए भी रात 11 के बाद फोन कर देता था। तब भी वही जवाब कैसे हो अनामी अभी मौसम शांत है या जैसा होता था बताकर हंसते हुए फोन रख देते।
एक दो बार मैने उनसे पूछा भी मेरे इतने फोन करने या समय असमय लगातार तंग करने पर गुस्सा नहीं आता या नहीं लगता कि परेशान कर रहा हूं। इस पर वे हंसते हुए कहते कि जब तुम्हारा फोन नहीं आता है तब गुस्सा भी आता है और चिंता भी होने लगती है। सही कहो तो तुमसे बात करने का चस्का सा लग गया है और बिन बात किए लगता है कि कहीं कुछ कमी सी है। उनकी बात सुनकर मैं भी हंसते हुए कहा कि सही मायने में मुझे भी बिन बात किए मन नहीं भरता है। और फिर हम दोनों फोन पर जोर से खिलखिला उठते। ।   

एक दिन दोपहर में उनका फोन आया। अमूमन फोन मैं ही करता था।  वे बोले अनामी तुम्हारी उम्र कितनी है। यह 2003 की बात है। उनके सवाल पर एक बार मैं हंसने लगा क्या सवाल है सर । तो वे बोले अनामी  मैं 12 दिन के बाद रिटायर होने वाला हूं। कल रात को तेरे बारे मे सोच रहा था कि पूरी नौकरी में तुम इकलौते हो जिससे मिले बगैर ही तीन साल तक बात करता रहा था। तुमने तो बात करने का चस्का लगा दिया। मैंने अगले ही दिन आने का वादा किया तो उन्होने कहा तुम्हारा लंच कल मेरे साथ रहा। श्री गुप्ता ने कहा मैं भी बहुत उतावला हूं अनामी तुम्हें देखने को कि तुम कैसे हो जिसका मैं आदी हूं। उनकी बातें सुनकर मै हंस पड़ा सर तब तो आपको निराश होना पड़ेगा क्योंकि आपकी लैला या शीरी तो एकदम सामान्य साधारण सा चेहरा मोहरा वाला है। मेरी बातें सुनकर उन्होने कहा चाहें जितना भी साधारण हो मगर मेरी लैला निसंदेह सबसे अलग है कि रिटायर होने वाले को भी अपना मजनू बना दिया है । मैंने हंसते हुए कहा हाय मेरे मजनू । और खिलखिलाते हुए हम दोनों ने फोन रख दी।


अगले दिन मैं एकदम 12 बजे उनके कमरे के बाहर था। कार्ड भेजने पर वे खुद बाहर निकले और संबोधित किय अनामी।  मैं सामने ही था और हंसते हुए कहा आप बाहर आए लैला खुश हुई। और हंसते हुए मैं साथ में अंदर चला गया। बीच में खाना भी खाए और चाय कॉफी के कई दौर के बीच लगभग चार घंटे तक हजार तरह की बातें हुई। उन्होने कई बार इसका अफसोस जताया कि तुमसे मुलाकात ही तब हो रही है जब मैं जाने वाला हूं यार। तीन साल पहले मिले होते तो अब तक पचास बार मिल गए होते। मैने चुस्की ली यह तो आपकी नहीं भाभी की किस्मत थी नहीं तो लैला मजनू के चक्कर में वो परेशान रहती।.. और मुझे बार बार घर  जाकर बताना पड़ता कि उनकी लैला कौन है ? फिर हमलोग खिलखिला पड़े। मैने कहा तो अब इजाजत है ? खड़े होते हुए पूछा कैसे आए हो ? मैने कहा कि आया तो बस से था मगर अभी ऑटो कर लूंगा। उन्होने तुरंत कहा  नहीं मेरी लैला मेरी सरकारी गाडी से जाएगी।  और अंत में मैने उनके पैर छूए । वे एकदम निहाल से हो गए। अंत में मैने भी उनकी मदद,प्रोत्साहनऔर प्यार के लिए आभार जताया। उन्होने मुझे गले से लगा लिय। ऐसे मौके पर भला मैं कहां चूकने वाला उनकी बांहों में ही पूछा कि बांहों में कौन हैं लैला या अनामी ? यह सुनते ही बांहों की जकड़ सख्त करते हुए कहा दोनों । और अनमने मन से हमलोग अलग हुए। कई माह तक तो बीच में बात होती रही, फिर एक अंतराल आ गया। सरकारी फ्लैट से अलग होने पर फोन नंबर भी बदल गए हमेशा की तरह ही पुराना से पुराना रिश्ता भी एक समय के बाद अर्थहीन हो जाता है। मैं यह तो नहीं जानता कि श्री गुप्ताजी अब कहां पर हैं मगर मेरी यह प्रार्थना है कि वे हमेशा खुश और अच्छी सेहत के साथ रहे।








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पुलिसिया दोस्ती




यह संस्मरण एक पुलिसिया की है। दुख की तो यह बात है कि इतना जिंदादिल इंसान मोतीराम गोठवाल अब जीवित नहीं है। 50 से भी कम उम्र में संसार छोड़ने वाले गोठवाल की पत्नी की भी बहुत याद आती है । हालांकि मैं उनसे कभी मिला नहीं मगर मेरी आवाज सुनते ही सबसे पहले भईया बोलनी और गोठवाल जी कहं पर है यह बताते हुए वहां का नंबर दे देती थी । बात 1994 की है। दैनिक अखबार राष्ट्रीय सहारा में नार्थ ईस्ट का क्राईम भी मैं ही देखता था। दो चार बार गोठवाल से बात हुई तो उन्होने कहा कभी अलीपुर आओ यार गप्प भी करेंगे और क्राईम की ऐसी खबरे दूंगा जो किसी के पास नहीं होगी। एक दो दिन में ही उसने गाड़ी भेज दी तो मैं अपने पुलिसिया मित्र से अलीपुर निकल पड़ा। बहुत ही गरमजोसी के साथ मेल मिलाप हुआ दिल्ली पुलिस में सहायक पुलिस आयुक्त( एसीपी) अलीपुर के प्यार जोश और मिलने की लालसा के चलते हम गहरे दोस्त से बन गए। बिना काम के भी केवल हाल चाल जानने के लिए हमलोग आपस में बात कर ही लेते थे।

मगर अलीपुर एसीपी और किसी पेपर का क्राईम रिपोर्टर के बीच तो आंख मिचौली वाला नाता होता है। जरूरत बे जरूरत बात करने और संपंर्क मे तो रहना ही होता है। लगभग एक दर्जन बार ऐसा  हुआ कि जब मुझे गोठवाल से रात में बात करनी हो तो वे घऱ पर नहीं होते। ( उस समय तक मोबइल की पैदाईश नहीं हुई ती। मैं भाभी से पूछता कहां है अपना हीरो? भाभी ने केवल एक बार मुझसे कहा था कि भैय्या मैं आपको हमेशा बता दिया करूंगी कि हीरो कहां पर हैं, मगर आपको कभी भी यह नहीं बताना होगा कि नंबर किसने दिया है ।  श्रीमती गोठवाल कहें य भाभी या बहन मैने पूछा कि क्या आपको मेरे उपर विश्वास है ? आपने तो मुझे देखा तक नही है कि मैं कैसा हूं ? इस पर उन्होने कहा कि विश्वास होने पर आदमी को देखने की जरूरत नहीं पड़ती आप एक नेक इंसान है यही मेरे अटल विश्वास का संबल है। मैं एक इतने सीनियर पुलिस अधिकारी की बीबी की बातें सुनकर दंग रह गया।

करीब दो साल में ऐसे सात आठ बार मौके आए जब रात में मैं बात करना चाह रहा था और वे घर या दफ्त कहीं नहीं थे। तो अंतत एक ही शरण था। फोन करते ही वे कहां हैं और वहां का नंबर क्या है सब मेरे पास होता। और जब मैने उनके घर पर फोन करके गोठवाल के बारे में पूछता तो बात हो जाती थी और एक दो संयोग पर ध्यान नहीं दिया मगर बाद में फोन आने पर गोठवाल एकदम चौक जाता और सबसे पहले यही पूछता कि नंबर कहां से पाए कि मैं यहां पर हूं। बाद मे जब कभी गोठवाल कहीं अपने घर से बाहर किसी मित्र के यहां बैठे हो और मैने फोन कर दिया तो वे सीधे लाईन पर आने की बजाय यह पूछने को कहते कि कहीं कोई अनामी शरण का तो फोन नहीं है ? जब मैं इधर से कहता कि हां अनामी तो बेचैन होकर गोठवाल मेरी बात सुने बगैर ही यही पूछते कि तुमको यह कैसे पता कि मैं यहां पर हूं। मैं बार बार हंसकर टाल देता। मगर उस दिन गोठवाल तैश में थे नहीं अनामी फोन पर बता न। मैंने हंसते हुए कहा कि तेरे भीतर मैने  एक ट्रांसमीटर एडजस्ट करा दिया है जिसमें जहं कहीं भी रहो वहां का फोन नंबर और शक्ल दिखने लगती है। मेरी बातों से खीझते हुए गोठवाल फिर पूछते  बोलो अनामी क्या काम है। एक बार वो कहीं बेहद गोपनीय बैठक में था और बीच में ही मेरा फोन टपक गया। इस बार तैश में आकर गोठवाल चीख पड़ा। अनामी यार तुम्हें खबरिया का नाम बताना होगा साला है कौन भाई जो मेरी जासूसी करता है और तुम तक नंबर आ जाता है। इस बार वो गुस्से में था तो बात नहीं हो सकी।

1995 में किसी एक दिन मैं अशोक विहार में नार्थ इस्ट जिले के पुलिस कमीश्नर करनैल सिंह के कमरे में घुसा ही था कि गोठवाल पहले से मौजूद थे। थोडी देर में काम निपटने के बाद मैं बाहर निकलने लगा तो गोठवाल ने कहा कि मैं भी चल रहा हूं बस मेरा इंतजार करना। दो चार मिनट में ही गोठवाल बाहर निकले और जबरन मुझे अपनी गाड़ी में चलने को कहा। मैने हंसकर पूछा कहीं थर्ड डिग्री का तो इस्तेमाल नहीं करना। मेरी बातों को सुनकर वो केवल हंसता रहा। जब अलीपुर मै उसके कमरे में बैठा तो वह एकदम पुलिसिय अंदाज में  बोला अनामी तुम्हें आज नाम बताना होगा कि तुम्हें यह नंबर कौन देता है कि मैं कहं पर हूं। मैने भी आगाह किया कि पुलिसिया धौंस, पर तो कुछ नहीं बताउंगा और पुलिस की तरह नहीं एकदम जो याराना है उसी लय में बात करो। गोठवाल ने फिर पूछा तो मैने कहा कि एक बार बताया था न कि तेरे अंदर एक ट्रांसमीटर फिट है। इस पर वो उखड़ गया। कमाल है यार एक तरफ दोस्त भी कहता है और मेरी जासूसी भी करता है। मैंने हंसते हुए कहा चोर की दाढी में तिनका। साले किन चोरों से मिलने जाते हो कि हवा खराब है। मेरी बात से वो परेशान होकर कुर्सी पर बैठ गया। मैने बात मोड़ने के लिए पूछा कि चाय बगैरह पीलाओगे तो पीला नहीं तो वापस दफ्तर भिजवाइए। मेरी बात सुनते ही उसने कहा कि चलो। गाड़ी में जब हमलोग बैठ गए तो मैने पूछ किधर ? इस पर गोठवाल ने कहा चलो घर चलते हैं वहीं चाय भी पीएंगैं और उधर से ही तुमको भिजवा भी देंगे। घर क नाम सुनते ही मैं अंदर से थोडा कंपित हुआ कि कहीं गोठवाल को अपनी बीबी पर तो शक नहीं है कि वो नंबर देती हो। घर का नाम सुनते ही मैं खुश हो गया। उसने मेरे चेहरे के भाव को देखर ही कहा क्या बात है। मैने फौरन कहा कि गुस्से में लाल पीला टमाटर हो रहे गोठवाल को देखने तो भला है कि भाभी को देखूंगा। मैने चुटकी ली गोठवाल भईया कल तुम इस आरोप में पकड़ ना लेना कि साले मेरी बीबी से बात करता है। मेरी इस चुहल पर गोठवाल के चेहरे पर मुस्कान आ गयी। मगर एक बार फिर उसने पूछा कि यार लेकिन तुमको यह पता कैसे चलता है कि कहां पर हूं। मैने जोर से गोठवाल को कह कि गाड़ी रोको अगर मेरे उपर विश्वास है तो बात करो नहीं तो बार बार बच्चों वाली लालीपॉप देने के नाम पर एक ही सवाल को बार बार दोहरा रहे हो । अभी घर ले जा रहे हो बाद में पता नहीं क्या क्या इल्जाम लगा दो। मैं नहीं जाता यार गाड़ी रूकवा दो। मेरे यह कहने पर वो एकदम ठंडा सा हो गया। तुरंत माफी मंगने लगा। मैने कहा माफी की जरूरत नहीं है यर पर अब मैं कभी फोन ही नहीं करूंगा। बिना बात किए क्य तेरी तरफ से टिप्पणी डालना मैं नहीं जानता। पर जब हमलोग में विश्वस ही नहीं है तो चाय फाय क्या। मैं घर पर चलकर भी नहीं लूंगा ।
 खैर घर के पास ही यह तकरर हो रही थी लिहाजा घर तो जाना ही पडा। उसने अपनी पत्नी से मेरी मुलाकात कराई। मैं भी अनजान सा देखकर खामोश रह। दफ्तर लौटते समय गोठवाल ने फिर माफी मांगी। तब मैने कहा कि अब मैं फोन नहीं करूंगा जब आपका गुस्सा शांत हो जाए तो फोन करना नहीं तो यह हमलोग की अंतिम भेट है। कई माह के बाद  गोठवाल का फोन आया और फिर से बात चालू करने का आग्रह किया। मैने कहा कि अब तो मेरे पास क्राईम रहा नहीं मगर जरूरत पड़ी तो जरूर बात होगी।  दो तीन साल के बाद एक बार फिर गोटवाल का फोन आया कहां हो अनामी भाई। बोली में पुलिसिय रौब और धमक आ गयी थी। एकदम पुलिसिया प्यार दिखाते हुए बोला साले कहां रहे सालो साल । यही दोस्ती करता है। अब मैं कल्याणपुरी का एसीपी बनकर आया हूं। तेरे कार्ड में नंबर देखा तो यार यह तो तेरा ही इलाका है। एकदम चहकते हुए  खुशी जाहिर कर रहा था। मैने पूछा कहां है । तपाक से गोठवाल ने कहा दफ्तर में । मैं उसके पास आधे घंटे मे पहुंच गया। कमरे में घुसते ही गोठवाल ने मुझे अपनी बांहो में दबोच लिया। अभी तक नाराज हो अनामी भाई,  मैने हंसते हुए कहा नहीं नाराज क्यों रहूंग। गोठवाल मुझे बांहों मे लिए लिए ही बीच के समय मे शक तकरार के लिए माफी मांगी। मैने गोठवाल से कहा कि देख लेना तेरी बांहों में यदि मेरा दम टूट गया न तो सच मान मेरी बीबी तुमसे जरूर नाराज हो जएगी। फिर एक ठहाके के साथ मैं बंधन मुक्त हुआ।
कल्याणपुरी में रहते हुए उनसे कई बार मुलाकात होती रही। जब भी घर चलने को कह तो उसने हमेशा कहा कि नहीं पत्नी को साथ लेकर ही आउंगा। मगर काल की क्रूर नियति और संयोग के बीच इतना निश्छल और प्यार सा मेरा एक पुलिसिया दोस्त भगवान को रास आ गया। उसके निधन की खबर भी मुझे बहुत बाद में किसी पुलिस वाले से मिली। मैं  तो उसके घर जाकर अपनी शोक संवेदना भी जाहिर नहीं कर सका।        



शुक्रवार, 1 जुलाई 2016

पुरानी दिल्ली की पुरानी बातें -1


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अंधेरे में चमकती लालटेन और बुलंद आवाज

डा.रामेश्वर दयाल 

पुरानी दिल्ली (शाहजहांनाबाद) में रमजान और ईद के दौरान का माहौल देखने लायक होता है। इस पर्व को पहले की तरह ही उल्लास और उमंग से मनाया जाता है, लेकिन बदलते वक्त के साथ इसे मनाने के तरीकों में कुछ बदलाव हो गया है। पुराने वक्त में इस शहर में सहरी और इफ्तार देखने लायक हुआ करती थी। आज तो सब लोगों को इनके वक्त का पता चल जाता है। लेकिन जब अधिकतर घरों में घड़ियां नहीं हुआ करती थी, तब दूसरे तरीकों से इनकी जानकारी ली जाती थी। सहरी का वक्त चूंकि अलसुबह होता था, इसलिए लोगों को इसकी जानकारी देने के लिए उस दौरान कोई जुनूनी व्यक्ति इस काम को करता था। अलसुबह मुस्लिम बहुल इलाकों में उसको देखा जा सकता था। उसके एक हाथ में डंडा होता था और दूसरे हाथ में जलती लालटेन। उसकी आवाज खासी बुलंद होती थी और वह रोजा रखने वालों को यह कहकर जगाता था कि उठ जाओ सहरी का वक्त होने वाला है। उसकी आवाज से घरों में जाग हो जाती थी और रोजा रखने वाले लोग नित्यकर्म में लग जाते थे। इस व्यक्ति को रोजा रखने वाले लोग रोज शुक्रिया बोलते थे।
शाम होते वक्त भी इफ्तार खोलने के वक्त दूसरे तरीके अपनाए जाते थे। उस वक्त जामा मस्जिद के अंदर बम का गोला (आतिशबाजी) फोड़ा जाता था। वह खासा बड़ा होता था और उसकी आवाज पुरी पुरानी दिल्ली में सुनी जा सकती थी। इस गोले की आवाज के साथ दूसरे इलाकों में भी लोग छोटे-बड़े बम फोड़ते थे, ताकि सबको पता चल जाए कि इफ्तार का वक्त हो गया है। उस वक्त इफ्तार खोलने से पहले बाजारों का माहौल देखने लायक होता था। दुकानदार आपस में मिलकर इफ्तार खोलने के लिए बड़ी-बड़ी परातों में फल काटकर उन्हें सजाकर दुकानों के बाहर रख देते थे। साथ में घड़ों या जग में मीठा शरबत भी रख लिया जाता था। जैसे ही उन्हें बम की आवाज सुनाई देती। लोग इफ्तार खोलना शुरू कर देते। इस दौरान कोई व्यक्ति रोजा खोलने के लिए घर की ओर भागा जा रहा है तो ये दुकानदार उसे रोक लेते और अपने साथ बिठाकर उसका रोजा खुलवाते। इस खानपान में हिंदुओं को भी शामिल करना सामान्य बात हुआ करती थी।
ईद से एक दिन पहले चांद रात को पूरी रात बाजारों में रौनक होती। उस दिन घरों की महिलाओं को खरीदारी करने की छूट मिली होती थी। घर के घर उठकर बाजारों में पहुंच जाते और मनपसंद सामान खरीदा जाता। सुबह होते ही सजने-संवरने की तैयारी शुरू हो जाती और साथ में मस्जिदों में नमाज पढ़ने की गहमागहमी भी। नमाज अदा होने के बाद गले मिलने का दौर शुरू होता। सभी धर्म के लोग एक दूसरे को बधाई देते। घरों से खुशबू निकलती थी। ईदी देने का दौर शुरू हो जाता और फिर खाने-पीने और घूमने की चाहत उठने लगती। पुरानी दिल्ली में ईद का त्योहार कम से कम चार दिन चलता था। इस दौरान दूसरे घरों में जाकर ईद की बधाई और पकवान भेजे जाते। फिर फिल्में देखने का दौर शुरू हो जाता। उसके बाद पूरी दिल्ली का भ्रमण किया जाता और मेलों-ढेलों का मजा लिया जाता।