बुधवार, 28 मई 2014

पादर डे मनाने का चलन






प्रस्तुति - अमित कुमार सिंह

इतिहास में आजः 19 जून

दुनिया भर में फादर्स डे अलग अलग दिन मनाए जाते हैं. भारत में यह अमेरिका की तर्ज पर मनता है जबकि जर्मनी में ईसाई परंपरा के मुताबिक.
भारत में अभी पिछले ही रविवार यानी 16 जून को फादर्स डे मनाया गया. अमेरिका की ही तरह यह जून के तीसरे रविवार को भारत में मनाया जाता है. वैसे तो दुनिया के अलग अलग हिस्सों में फादर्स डे अलग अलग दिन और विविध परंपराओं के कारण मनाया जाता है. हिन्दू परंपरा के मुताबिक पितृ दिवस भाद्रपद महीने की सर्वपितृ अमावस्या के दिन होता है.
पहला फादर्स डे 1910 की 19 जून को सोनोरा स्मार्ड डोड ने शुरू किया. अपने पिता विलियम जैक्सन स्मार्ट की याद में उन्होंने पादरी से अपील की कि पिता के लिए भी एक दिन होना चाहिए. पहले वह अपने पिता के जन्मदिन पांच जून को फादर्स डे मनाना चाहती थीं, लेकिन पादरी के पास तैयारी का समय नहीं था. फिर इसे 10 जून को मनाया गया, क्योंकि उस साल इसी दिन जून का तीसरा रविवार था.
वहीं जर्मनी में इसकी परंपरा चर्च और यीशू मसीह के स्वर्गारोहण से जुड़ी हुई है. यह हमेशा होली थर्सडे यानी पवित्र गुरुवार को ईस्टर के 40 दिन बाद बनाया जाता है. इस दिन जर्मनी में छुट्टी होती है और इसे पुरुष दिवस के तौर पर मनाया जाता है. पुरुष मित्र मिल कर इस दिन का पूरा मजा लेते हैं.  

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मंगलवार, 27 मई 2014

गजल में ढले गीता के श्लोक






प्रस्तुति- निम्मी नर्गिस
गजल में गीता
धर्म के बजाए कर्म का उपदेश देने वाली भगवत गीता के संस्कृत श्लोकों को शायरी में ढाल कर श्लोक को लोक तक पहुंचाने का करिश्मा उर्दू के विख्यात शायर अनवर जलालपुरी ने किया है. 


दुनिया भर में मुशायरों के लोकप्रिय संचालक और लाजवाब शायरी के लिए मशहूर अनवर जलालपुरी कभी "डेढ़ इश्किया" में मुशायरा पढ़ते हुए दिखते हैं तो कभी "अकबर द ग्रेट" के गीतकार के रूप में सामने आते हैं. लेकिन इस बार एक नई शक्ल में सामने आए हैं, "उर्दू शायरी में गीता" लेकर. इसमें उन्होंने भगवत गीता के 18 अध्यायों के 701 संस्कृत श्लोकों का दो पंक्तियों वाले करीब 1761 शेर में काव्यानुवाद किया है. गीता को शायराना शक्ल देने में उन्हें करीब 32 वर्ष लगे. उनके मुताबिक गीता धार्मिक नहीं बल्कि दार्शनिक ग्रंथ है. इसका अपना दर्शन है. इस ग्रंथ की आत्मा यही है जिसने उन्हें बचपन से ही बहुत प्रभावित किया.
लेकिन गीता पर पीएचडी करने की अपनी हसरत अनवर जलालपुरी पूरी नहीं कर पाए. बताते हैं कि यूनिवर्सिटी में रजिस्ट्रेशन कराया लेकिन हालात ने साथ नहीं दिया. पर गीता का उपदेश दिल में समा गया था कि फल की चिंता मत कर. काम किए जा, तो जो दिल में कसक बाकी थी उससे धीरे धीरे गीता के श्लोकों को गजल के मीटर पर कसने लगे. गजल की बहर में गीता के श्लोकों को बांधना आसान काम नहीं था. बताते हैं कि कई बार तो एक श्लोक के काव्यानुवाद में गजल के छह छह मिसरे कहनी पड़ीं.
उर्दू शायरी में ढले गीता के श्लोकों के कुछ उदाहरण:
हां धृतराष्ट्र आखों से महरूम थे
मगर ये न समझो कि मासूम थे
इधर कृष्ण अर्जुन से हैं हमकलाम
सुनाते हैं इंसानियत का पैगाम
अजब हाल अर्जुन की आखों का था
था सैलाब अश्कों का रुकता भी क्या
बढ़ी उलझनें और बेचैनियां
लगा उनको घेरे हैं दुश्वारियां
तो फिर कृष्ण ने उससे पूछा यही
बता किससे सीखी है यह बुजदिली
भगवत गीता का यह पहला अनुवाद नहीं है. इससे पहले भी विभिन्न भाषाओं में गीता के अनुवाद हो चुके हैं. लेकिन अनवर जलालपुरी ने काव्यानुवाद किया है. यह अपने आप में पहला है. बताते हैं कि गीता के काव्यानुवाद के लिए उन्होंने ओशो, पंडित सुंदरलाल और अजमल खां की गीता के अलावा महात्मा गांधी की "गीता बोध" का भी अध्ययन किया. उन्होंने मनमोहन लाल छाबड़ा की "मन की गीता", अजय मालवीय तथा स्वामी रामसुखदास की गीता को भी पढ़ा. असनुदोई अहमद तथा ख्वाजा दिल मोहम्मद लाहौरी की "दिल की गीता" का भी अध्ययन कर उन्होंने गीता का शायराना नुस्खा पेश किया.
अदब और तहजीब के शहर लखनऊ में "उर्दू शायरी की गीता" का विमोचन करते हुए यूपी के सीएम अखिलेश ने कहा कि "ऐसे वक्त में जब देश में बड़ा राजनीतिक समर खत्म हुआ हो, यह किताब आना निहायत ही प्रासंगिक है. गीता हमेशा हम भारतीयों का मनोबल बढ़ाती है." विमोचन अवसर पर राम कथा वाचक संत मोरारी बापू बोले "मेरा यकीन है कि यह किताब दो अलग अलग संस्कृतियों को करीब लाएगी. श्लोक को लोक तक लाने का बेहतरीन काम उन्होंने शुरु किया है. मोरारी बापू ने कहा कि रामचरित मानस का भी उर्दू में तर्जुमा आना चाहिए.
रिपोर्ट: सुहैल वहीद, लखनऊ
संपादन: मानसी गोपालकृष्णन

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जर्मन सेना में महिला सैनिकों का टोटा



प्रस्तुति सजीली सहाय , शैली सिन्हा
महिलाओं की संख्या बढ़ाने का बढ़ता दबाव
आधी आबादी का दिन
जर्मन सेना में फिलहाल महिलाओं की संख्या 10 फीसदी है. 2001 से वे सेना के किसी भी पोस्ट के लिए अप्लाई कर सकती हैं. लेकिन कई महिलाएं सेना में एकीकरण को मुश्किल मानती हैं और काम करने के माहौल को प्रतिकूल.
हालिया सर्वे के मुताबिक जर्मन सेना में काम करने वाली महिलाओं में से 57.3 फीसदी का मानना है कि मौका मिलने पर वे अपनी नौकरी नए सिरे से चुनेंगी. ऐसा सोचने वाली महिलाओं की संख्या 2005 की तुलना में नौ फीसदी बढ़ी है.
ये नतीजे जर्मन रक्षा मंत्रालय के एक शोध के दौरान सामने आए हैं. सैन्य इतिहास और समाज विज्ञान केंद्र ने यह सर्वे 2011 में जर्मन सेना के 5,000 सदस्यों के बीच किया था. इसमें जो मुख्य सवाल पूछे गए उनमें एक था कि सेना में महिलाएं कितनी आसानी से घुल मिल जाती हैं और क्या पुरुष सैनिक और अधिकारी उन्हें स्वीकार कर लेते हैं. साथ ही यह भी पूछा गया कि क्या वह यौन शोषण का आसान शिकार हो सकती हैं और उनके लिए करियर के कौन से मौके हैं?
नकारात्मक छवि
प्रोजेक्ट प्रमुख और शोध के लेखक गेरहार्ड कुमेल का कहना है कि नतीजा अनिश्चित रहा. साथ ही उनका यह भी कहना है कि घुलने मिलने के मुद्दे पर विश्लेषण खराब हुआ है. सर्वे में शामिल पुरुषों में से 34 फीसदी का मानना है कि महिलाएं फील्ड में कठोर हालात के अनुकूल नहीं होतीं. 2005 में सिर्फ 28 फीसदी ही ऐसा मानते थे. सर्वे में शामिल आधे से ज्यादा पुरुषों का मानना था कि महिलाएं शारीरिक चुनौती वाली गतिविधि नहीं कर सकतीं. वहीं 77 फीसदी का मानना है कि सेना में पुरुष महिलाओं के साथ अच्छे से काम कर सकते हैं. आधे से ज्यादा पुरुष मानते हैं कि महिलाओं का मूल्यांकन सकारात्मक रूप से किया जाता है और उन्हें प्राथमिकता दी जाती है. हालांकि महिलाओं में घुलने मिलने और अच्छा प्रदर्शन करने की इच्छा बहुत ज्यादा है. 88 फीसदी का मानना है कि सेना के सभी क्षेत्र महिलाओं के लिए खुलने चाहिए. जबकि 40 प्रतिशत पुरुषों का मानना है कि महिलाओं को युद्ध में नहीं भेजा जाना चाहिए.
यौन शोषण का मुद्दा
सेना में काम के दौरान यौन शोषण के सवाल पर काफी बड़ा अंतर देखा गया. हर दूसरी महिला अधिकारी का दावा था कि काम के दौरान उनका यौन शोषण हआ है. चाहे वह चुटकुलों के तौर पर, पोर्नोग्राफी या फिर अनैच्छिक शारीरिक संपर्क, यौन दुर्व्यवहार या फिर बलात्कार हो. लेकिन इनकी शिकायत सिर्फ तीन फीसदी महिलाओं ने की. वहीं पुरुषों ने ऐसे किसी भी अनुभव से इनकार किया. काम और घर में संतुलन के मुद्दे पर मतभेद काफी कम थे. महिला और पुरुष, दोनों ने ही इस मुद्दे पर असंतोष जताया. 2011 के सर्वे में शामिल आधे लोगों का कहना था कि सैन्य सेवा और परिवार में आसानी से संतुलन बिठाया जा सकता है. वहीं दोनों ने ही यह भी माना कि काम के कारण उनके पारिवारिक संबंधों में मुश्किल आ रही है.
2013 में 18,000 महिलाएं जर्मन सेना में थी
क्रिसमस से पहले जर्मनी की रक्षा मंत्री उर्सुला फॉन डेय लायेन ने सेना और परिवार में ज्यादा तालमेल लाने की घोषणा की थी. उन्होंने कहा कि वे सेना को उन लोगों के लिए भी आकर्षक बनाना चाहती हैं. इसमें बच्चों की देख रेख की सुविधाएं और पार्ट टाइम काम के मौके बढ़ाना भी शामिल हैं.
सुधार की उम्मीद
फॉन डेय लायेन चाहती हैं कि महिलाओं के लिए भी सेना में ज्यादा मौके बनें. उन्होंने कहा है कि महिला सैनिकों की संख्या बढ़ने से जर्मन सेना को फायदा होगा. शोध के बारे में उन्होंने कहा कि वे सर्वे के नतीजे ध्यान से देखेंगी और उन्हें सुधारों के लिए इस्तेमाल करेंगी. उन्होंने कहा, "जर्मन सेना को सक्षम लोगों की जरूरत है और ये महिला और पुरुष दोनों हैं."
जर्मन सेना में महिलाओं की सबसे ज्यादा, 40 फीसदी संख्या चिकित्सा में हैं. बाकी क्षेत्रों में उनका आंकड़ा 10 प्रतिशत से थोड़ा ही ज्यादा है. हालांकि पिछले साल सेना में आवेदन करने वाले कुल लोगों में 14 प्रतिशत महिलाएं थीं. 2013 में 18,000 महिलाएं जर्मन सेना में थी, जो कुल भर्ती का 10 फीसदी है. 2001 में जो महिलाएं सेना में भर्ती हुई, उनमें से कुछ को पिछले साल नेतृत्व भी दिया गया.
रिपोर्टः बेटीना मार्क्स/एएम
संपादन: ईशा भाटिया

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नेहरी निधन आज: 27 मई

प्रस्तुति- राजेश कुमार सिन्हा

27 मई 1964 को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने आखिरी सांस ली. नेहरू को आधुनिक भारत का निर्माता माना जाता है.
जवाहरलाल नेहरू का निधन अचानक ही हुआ. नेहरू पहाड़ों पर छुट्टियां बिता कर लौटे थे. नई दिल्ली में उन्हें सुबह सीने में दर्द की शिकायत हुई. डॉक्टरों की तमाम कोशिशों के बावजूद उन्हें नहीं बचाया जा सका. निधन के वक्त नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी सिराहने पर मौजूद थी. नेहरू के निधन की जानकारी केंद्रीय मंत्री सी सुब्रमणियम ने सार्वजनिक की. राज्य सभा में रुआंसे गले से उन्होंने कहा, "प्रकाश नहीं रहा."
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के धुर आलोचक भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि वे महान लोकतांत्रिक मूल्यों वाले नेता थे. नेहरू ने तमाम मुश्किलें उठाकर धर्मनिरपेक्ष ढांचे की नींव रखी और उसकी पूरी शक्ति से हिफाजत भी की. संसद में आलोचना करने वालों की भी वो पीठ थपाया करते थे.
नेहरू के करिश्माई नेतृत्व के कायल दुनिया भर के कई नेता रहे. इन्हीं में से एक थे सोवियत संघ के पूर्व राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचोव. गोर्बाचोव जब छात्र थे, तब वो कॉलेज बंक कर नेहरू का भाषण सुनने गए. मिखाइल गोर्बाचोव ने ही पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी के एकीकरण में निर्णायक भूमिका निभाई.
अमेरिका और सोवियत संघ के बीच छिड़े शीत युद्ध के कारण नेहरू ने गुट निरपेक्ष आंदोलन की भी शुरुआत की. वो चाहते थे कि दुनिया लोकतांत्रिक रहे, दो ध्रुवों में न बंट जाए. नेहरू के कार्यकाल में भारत में अच्छी शिक्षा वाले कॉलेज खुले. गांवों और कस्बों के विकास में स्थानीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए पॉलीटेक्निक, आईआईटी और आईआईएम जैसे कॉलेज खोले गए.
कई विश्लेषकों के मुताबिक नेहरू ने वह कर दिखाया जो पाकिस्तान में मोहम्मद अली जिन्ना नहीं कर सके. नेहरू ने भारत को किसी दूसरे देश पर निर्भर होने के बजाए अपने पैरों पर खड़े होने का आत्मविश्वास दिया.

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सोमवार, 26 मई 2014

तमाशे में तब्दील होते लोकगीत


प्रस्तुति- निम्मी नर्गिस मनीषा यादव 
हिन्दी फिल्मों का अभिन्न अंग उसके लोकगीत और लोकधुनें. चाहे "चढ़ गयो पापी बिछुआ" हो या फिर "पिंजरे वाली मुनिया". उत्तर प्रदेश से राजस्थानी, गढ़वाली, बंगाली लोकगीतों के आधार पर कई गाने बने. ये सफलता की चाबी साबित हुए.
लोकगीतों के बारे में सामान्य तौर पर सोचा जाता है कि यह उस इलाके की बोली, परंपराओं और त्योहारों की बानगी हैं. वो वहां की संस्कृति दिखाते हैं. ग्रामीण अंचल पर बनने वाली फिल्मों में इस्तेमाल गीतों में लोकसंगीत का खूब इस्तेमाल हुआ. चाहे वह मदर इंडिया हो या गंगा जमुना लोक संस्कृति को बड़े पर्दे पर दिखाया गया. लेकिन शब्द बदल गए.
हालांकि कई बार शहर में रहने वाले हीरो हीरोइन गाड़ी खराब होने पर किसी शाम एक गांव में भी पाए जाते रहे जहां किसी गीत, संगीत, नाच का आयोजन होता रहा. शहरी बाबू उसे इंटरटेनमेंट की तरह लेते और गाड़ी ठीक होने पर फिर शहर लौट जाते.
बॉलीवुड के 100 साल होने पर एक खास गाना लिखने वाले गीतकार प्रसून जोशी कहते हैं, "लोकसंगीत, लोगों का संगीत एक हाथ से दूसरे हाथ में जाता है. वह किसी की मिल्कियत नहीं होती. वह नदी के पत्थर की तरह लुढ़कता रहा है. बहता, लुढकता, खूबसूरत आकार में आपको मिलता है. यही लोकगीतों की खासियत है."
लेकिन आज की हालत ऐसी नहीं है.. एक कांच का शोकेस है जहां लोकगीत, लोक संस्कृति सजा कर रखी हुई है... जहां "कहे तोसे सजना तोरी सजनिया, या चार दिना दा प्यार ओ रब्बा, या फिर काहे को ब्याही बिदेस" जैसे लोकगीत रखे होते हैं... ये कभी तो कहानी के साथ चलते हैं लेकिन कभी बस पैसे कमाने का माध्यम..
लोक गीत को भी फायदा
इसमें भी कोई शक नहीं कि फिल्मों में इस्तेमाल लोकगीतों ने कुछ लोकगायकों को मुख्यधारा में भी लाया. इनमें शारदा शर्मा या रेशमा, सुखविंदर सिंह जैसे कुछ नाम शामिल हैं. मशहूर शायर जावेद अख्तर डॉयचे वेले से कहते हैं, "लोकगीत अच्छे होते हैं इसलिए इतने बरसों और सदियों से चले आ रहे हैं. न ये मालूम कि किसने धुन बनाई है और ये भी नहीं पता कि किसने लिखे. और वो पीढ़ी दर पीढ़ी बनते आते हैं. उनको पॉलिश किया जाता है, इम्प्रोवाइज किया जाता है."
प्रसून जोशी मानते हैं कि ये फिल्मों के सुपर हिट होने का कारण रहे हैं,"चाहे नैन लड़ जइहें जैसे पुराने गाने हों या नींबूड़ा नींबूडा हो, बहुत सारे लोकगीत हैं जो हमारे यहां सुपर हिट हैं. और वो हमेशा ही सुपर हिट होंगे क्योंकि वो लोगों द्वारा पाले गए हैं."
लेकिन फिल्मों में अगर लोकगीत ना हों तो ए बी सी डी पढ़ कर बड़े होने वाले बच्चों को इनका कभी पता ही नहीं चलेगा. तो क्या फिल्मी लोकगीत नई पीढ़ी को संस्कृति की पहचान कराते हैं? जोशी कहते हैं, "लोकसंगीत को थोड़ा और समझने की जरूरत है. लोकगीत का प्रासंगिक होना बहुत जरूरी है. वो लोगों की वर्तमान परेशानियां, उनके उल्लास, मनोभावों को व्यक्त करता है. और इसीलिए प्रासंगिक होता है. एक पुराने गीत में कोई महिला गाड़ीवान से गाड़ी तेज चलाने को कह रही है. लेकिन अगर बैलगाड़ी और उस पर ही बैठना खत्म हो जाए तो वह पुराना गीत है. तो देखने वाली बात यह है कि रेलगाड़ी या हवाई जहाज पर लोकगीत रचे जा रहे हैं या नहीं."
बदलता स्वरूप
नए दौर में में लोकगीत आइटम नंबर की तरह इस्तेमाल होने लगे. जिनमें चिकनी चमेली, चोली के पीछे क्या है, मुन्नी बदनाम हुई.. जैसे गीत हैं. क्या ये लोकगीत या लोकसंस्कृति का आईना हैं? क्या फिल्मी गीत एक दिन लोकगीतों को भी पीछे धकेल देंगे? जोशी मानते है, "बॉलीवुड के कोई भी गीत लोकगीतों की जगह नहीं ले सकते. कई फिल्मों में लोकसंगीत की खिल्ली उड़ाई जा रही है. वो असल में लोकसंगीत है ही नहीं. अगर वह लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी को नहीं दिखा रहा तो वह सिर्फ मनोरंजन के लिए बना गीत है, लोकगीत नहीं. लोक संगीत अम्यूजमेंट नहीं है, वह उससे कहीं गहरा है. जइबे, अइबे, खइबे, लगइबे लगाने से कोई गीत लोकगीत नहीं बन जाता. हालांकि कुछ फिल्मी गीत लोकसंगीत की श्रेणी में आते हैं."
आधुनिक समय में पीपली लाइव जैसी फिल्में, जो सीधे सीधे ग्रामीण अंचल की मुश्किलें दिखाती हैं वहां उस भाषा में लोकगीत का इस्तेमाल प्रासंगिक और सच्चा लगता है. लेकिन चकाचक सड़कों पर फरारी चलाने वाला हीरो जब शहर की किसी गली में लोकधुन और लोकगीत से उठाए शब्दों के हेर फेर वाले गाने पर ठुमका लगाता है तो हलवे में नमक का स्वाद लगता है.
जावेद अख्तर साफ शब्दों में कहते हैं, "अगर कोई लोकगीत के नाम पर वल्गर गाना ले आए और कहे कि साहब ये तो लोकगीत है तो वो बात ठीक नहीं है. लोकगीत के नाम पर अच्छे काम करिए अच्छे गीत रखिए तो अच्छी बात है."
रिपोर्टः आभा मोंढे
संपादनः अनवर जे अशरफ

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