शुक्रवार, 31 जुलाई 2020

किसना दु बे ने कुश्ती लड़ी / सुभाष चंदर


जनसंदेश टाइम्स में शनिवार के स्तंभ में हास्य रचना ' किसना दुबे ने कुश्ती लड़ी ' (अगर पहले नहीं पढ़ी है तो पढ़ सकते हैं )

किसना दुबे ने कुश्ती लड़ी
-सुभाष चंदर 
बात लगभग चालीस बरस पुरानी है। यानी उस जाने की, जब इश्क आज की तरह सर्वसुलभ किस्म का मामला नहीं था। मोबाइल आए नहीं थे, ई-मेल, फेसबुक, ट्विटर वगैरह का नामोनिशान नहीं था, टेलीफोन बड़े लोगों की चीज था और अकसर बड़े शहरो में ही पाया जाता था। ऐसे में आशिकी करना, वह भी गांव-कस्बे के माहौल में, सच्ची बड़ा मुश्किल और बहादुरी का काम था।
इसमें शक की कतई गुंजाइश नहीं थी कि कृष्ण कुमार द्विवेदी उर्फ किसना दुबे काफी बहादुर किस्म के आशिक थे। वह घोर प्रेम विरोधी माहौल में भी इश्क की पतंग उड़ाने में जुटे थे, पर अफसोस कि ज़्यादा सफल नहीं हो पाए थे। जबकि उनका जुगराफिया काफी शानदार था। पांच फुट चार इंच का कद, पैंतालीस किलो वजन, अट्ठाइस-तीस इंची चौड़ी छाती और आंखों पर मोटा चश्मा। पर्सनैलिटी सच्ची में आशिकी के लायक थी, पर फिर भी कुछ जम नहीं रहा था। उन्होंने आठवीं जमात के बाद से कुल दस-बारह जगह इश्क का जुगाड़ बैठाने की कोशिश की थी, पर कुछ चप्पलों और गालियों के प्रसाद के अलावा वह कुछ ज़्यादा प्राप्त नहीं कर पाए थे। हां... एक कन्या ने जरूर उनकी अधमिची अंखियों का निवेदन स्वीकार किया थ, अकेले में मिलने का वादा भी किया था। वह हफ्तेभर बाद अकेले में मिली भी थी, पर उसकी आंखों में आंसू और हाथों में अपनी शादी का कार्ड था। इंटरमीडिएट तक किसना दुबे की हालत कुछ ऐसी ही रही थी। बी.ए. में आते ही उन्होंने प्रण कर लिया था कि इस बार वह इश्क की गोटी बिठाकर रहेंगे। सो, उन्होंने कॉलेज और कॉलेज के बाहर इश्क की संभावनाओं पर गंभीरता से मनन किया। क्लास की लड़कियों में उन्हें कुछ रोशनी को किरणें नजर आईं। काफी दिन तक शोध करने के बाद इस नतीजे पर पहुंचे कि कुमारी चमेली देवी सुपुत्री राम बाबू मिश्रा उनके लिए अधिक उपयुक्त रहेंगी। इसके पीछे कुमारी चमेली देवी के लड़की होने के अलावा एक कारण ये भी था कि उनके पिता रामबाबू पी.डब्ल्यू.डी. में इंजीनियर थे। दहेज का मामला सही से सुलझ सकता था। दूसरे कुमारी चमेली देवी उनकी तरह इश्कियां फिल्मों की शौकीन थीं। तीसरे ये कि वह बात-बेबात मुस्कराती रहती थीं जो कि इस बात का प्रमाण था कि ये चिड़िया दाना चुगने को तैयार बैठी है... बशर्ते कि कोई दाना तमीज से डाले। किसना दुबे तो कमीज तक तमीज से पहनते थे, उनमें भला इसकी क्या कमी थी। सो, उन्होंने क्लास रूम में कन्या को कनखियों से निहारना शुरू किया। बदले में चमेली ने देखा-देखी का मामला आगे बढ़ाया। बात आगे बढ़ते-बढ़ते चिट्ठी-पत्री तक पहुंची। किसना ने कई घंटे के मनन के बाद एक चिट्ठी लिख मारी, जिसमें अस्सी परसेंट हिस्सा फिल्मी गानों और डायलोगों का था। काम की बात ये थी कि वह उससे अकेले में मिलना चाहते हैं, वो भी रामू के भैंसों के तबेले में। प्रेम प्रार्थना स्वीकार हो गई। क्लास बंक करके किसना रामू के तबेले की तरफ प्रस्थान कर गए।
दिन धड़धड़ बज रहा था, पांवों में लड़खड़ाहट थी, गला रुंधा जा रहा था। इसके बाद भी दिल ‘हम होंगे कामयाब एक दिन’ की धुन बजा रहा था। किसना ने सोच लिया था कि चाहे जो हो, वो आज ही अपनी मुहब्बत का इजहार कर देंगे, हो सके तो शादी का मामला भी आज ही फाइनल कर लेंगे। आपको शायद अजीब लगेगा, पर उन दिनों इश्क के बाद शाही करने का ही रियाज था, जो लोग शादी नहीं कर पाते थे। वे दाढ़ी बढ़ाकर घूमते थे। दारू-गांजा आदि मुक्तिदायक पदार्थों की शपथ में जाते थे और गाहे-बगाहे कुंदनलाल सहगल के गीत गाते पाए जाते थे।
खैर... किसना दुबे तबेले में पहुंचे। कुमारी चमेली वहां पहले से ही विराजमान थी। अब वहां किसना थे, चमेली थीं और कुछ अदद भैंसे थीं। किसना ने इधर-उधर देखा, फिर चमेली के सामने जाकर खड़े हो गए। संवाद शुरू हो गए-
‘‘क्यों जी, तुमने मुझे यहां क्यों बुलाया... कोई देखेा तो लोग बात बनाएंगे...।’’
‘‘वो... वो... क्या है... चमेली... मैं... मैं...।’’
‘‘ये क्या बकरी की तरह में-में कर रहे हो... चिट्ठी में तो खूब चटर-पटर बोलते हो... यहां क्या मुंह में घी भरके आए हो... कुछ बोलो न, वरना मैं चली जाऊंगी।’’
‘‘अरे... ना... ना... जाना मत... वो बात ऐसी है कि मैं... मैं... तुमसे प्यार करता हूंए क्या तुम भी मुझसे...।’’
‘‘हाय दैया रे... ये क्या कह दिया... कोई सुनेगा तो क्या कहेगा... ना ये प्यार-प्यार फिल्मों में ही अच्छा लगता है, हमारे बाबूजी सुनेंगे तो मार डालेंगे... ना बाबा ना... मैं तो चली...।’’
‘‘अरे, बैठो तो... सुनो... मुझे तुम बहुत अच्छी लगती हो... मैं तुमसे शादी करना चाहता हूं।’’
‘‘क्या-क्या कहा... शादी और तुमसे... सुनो जी... शादी तो मैं किसी खिलाड़ी से करूंगी... मेरे बाबू जी की इच्छा तो मेरी शादी किसी पहलवान से करने की है... बोलो बनोगे पहलवान... बोलोकृफूंक क्यों सरक गई...।’’
‘‘हां... हां... बनूंगा। मजनूं लैला के लिए पागल बन गया था... क्या मैं तुम्हारे लिए पहलवान नहीं बन सकता।’’
‘‘तो फिर ठीक है, तय रहा... तुम इस बार कॉलेज की कुश्ती चैंपियनशिप में हिस्सा लोगे... मेडल लाओगे... बोलो।’’
‘‘ऐं... कॉलेज की कुश्ती... मतलब तेजप्रताप सिंह से कुश्ती... बाप रे... वो काला सांड तो मुझे मार डालेगा... ना बाबा... नाऽऽ।’’
‘‘बस निकल गई आशिकी, फिर ठीक है, मैं पिताजी से कह दूंगी कि मेरी शादी तेजप्रताप से ही कर दें। पढ़ा-लिखा है, कुश्ती चैंपियन है...।’’
‘‘बस...बस.... मैं कुश्ती प्रतियोगिता में भाग लूंगा... बस... तुम अपना बादा याद रखना... अगर मैंने मेडल जीता तो तुम मुझसे शादी करोगी...वादा पक्का?’’
‘‘हुम्म... पक्का, पर पहले मैडल जीतो तो... अच्छा अब चलती हूं... राम-राम।’’
च्मेली देवी तो प्रस्थान कर गई, पर किसना दुबे बहुत देर तक तबेले में बैठकर सोच की चिड़िया उड़ाते रहे। फिर वह हलवाई की दुकान पर पधारे, चाय और समोसे पेट में पहुंचने के बाद उनके दिमाग की खिड़की खुल गई।
इसके बाद उन्‍होंने पहला काम यह किया कि वह खेल टीचर के कमरे में गए और कुश्ती कंपीटीशन के लिए अपना नाम लिखा दिया। टीचर ने पहले उनके सींकिया बदन को देखा, उनके चश्मे से झांकती आंखों पर नजरें गढ़ाईं और बोले, ‘‘बालक... फिर सोच लो, कहां तेजप्रताप और कहां तुम। हाथी और चींटी वाली बात है।’’
इस पर किसना ने अपने अट्ठाइस इंची सीने को फुलाकर कहा, ‘‘गुरुजी, चींटी अगर हाथी की सूंड में घुस जाए तो उसकी नाक में दम कर सकती है। बस आप मेरा नाम लिख लीजिए... मैं तेजप्रताप के खिलाफ लडूंगा।’’
मास्टर जी ने नाम लिख लिया।
पूरे कॉलेज में यह बात जंगल की आग की तरह फैल गई कि किसना दुबे कुश्ती चैंपियनशिप में भाग ले रहे हैं। उन्होंने तेजप्रताप सिंह पहलवान का चैलेंज स्वीकार कर लिया है। बात विश्वास करने की तो नहीं ही थी। तेजप्रताप से कुश्ती लड़ना कोई हंसी-खेल है, वह पिछले तीन बरस से कुश्ती चैंपियन थे। पहले दो बरस में उन्होंने चैदह पहलवानों को हराया था। इनमें पांच पहलवान अपने पैंरों की तो पांच पहलवान अपने हाथों की बाजी हार गए थे। चार पहलवानों को सिर्फ अपने जबड़ों से ही मुक्ति मिली थी। इसी कारण पिछले साल तेजप्रताप के खिलाफ कुश्ती में किसी भी लड़के ने अपना नाम नहीं दिया था, सो तेजप्रताप निर्विरोध चैंपियन बन गए थे। इसी ठसक में तेजप्रताप गनमनाए हुए छाती फुलाकर घूमते थे। खुलेआम सबको चैलेंज देते थे, पर उनका मुकाबला करने को कोई तैयार नहीं था। छह फुट से निकलता कद, आबनूसी रंग, पैंतालीस इंची चैड़ा सीना, ये बड़ी-बड़ी काली मूंछें और सबसे बढ़कर मोटी-मोटी लाल-लाल आंखें। उन्हें देखते ही लड़कों के पाजामे गीले हो जाते थे। फिर लड़ने का साहस कौन करता?
सो, तेजप्रताप को उम्मीद थी कि उनके खिलाफ कोई नहीं लड़ेगा। वह इस बार भी चैंपियन बनने को तैयार बैठे थे, पर किसना नाम के लड़के ने सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। उनके जी में आया कि देखें तो ये किसना दुबे चीज़ क्या है? वह पूछते-पूछते उनकी क्लास में पहुंचे। पीरियड खाली था, किसना बाहर ही टहल रहे थे। तेजप्रताप को किसी ने बताया कि वो चारखाने की कमीज में किसना दुबे ही खड़े हैं।
तेजप्रताप ने किसना दुबे का काफी नजदीक से अध्ययन किया। पतला-दुबला जिस्म, चश्में से झांकती मिचमिची आंखें, सरकंडे को मात देती टांगें। बदन ऐसा कि आंधी आ जाए तो किसी भारी चीज से बांधकर रखने की नौबत आ जाए। उन्होंने मन में सोचा कि अखाड़े में पंडित जी पांच सैकिंड तक उनके सामने जरूर खड़े रह सकते हैं। उसके आगे उनका भगवान् ही मालिक होगा। हे भगवान्... क्या ब्राह्मण की हत्या उनके हाथ से ही होगी। यह सोचकर उन्होंने दुबे जी को प्रणाम किया। अपना परिचय देकर हाथ जोड़कर बोले, ‘‘पंडित जी, हमसे हाथ-पांव जुड़वा लो, पैर छुबा लो, क्यों हम पर ब्रह्म हत्या का पाप लगाते हो।’’
किसना दुबे यह सुनते ही बिगड़ गए। बोले, ‘‘ठाकुर... हमें कमजोर मत समझो। पहलवानों की असली ताकत अखाड़े में पहचानी जाती है। जाओ और परसों की कुश्ती की तैयारी करो।’’
किसना दुबे के ये वचन सुनकर तेजप्रताप भरे मन से लौट गए। सोच लिया, अब तो ब्रह्म हत्या का पाप लगना ही है।
इधर इस घटना की भनक किसना के यार-दोस्तों को लग गई। प्रमोद चौधरी किसना के पास आए। दो बीड़ियां सुलगाईं, एक किसना के हवाले की, दूसरी से धुआं उड़ाया और फिर उनके कान में फुसफुसाए, ‘‘भैया, आत्महत्या करने के और भी कई तरीके हैं। तेजप्रताप बेचारे को क्यों फंसाते हो।’’
पर किसना को न मानना था, न माने। आखिर इश्क की आन-बान-शान का सवाल था। कुमारी चमेली देवी को दिए वचन की लाज रखनी थी, वह मान कैसे जाते।
ऐसे ही कई मित्रों ने उन्हें समझाया, पर किसना इश्क के हाथों मजबूर थे। लोग तो इश्क में तख्तोताज लुटा देते हैं, उन्हें तो फकत एक कुश्ती लड़नी थी।
खैर... धीरे-धीरे कुश्ती चैंपियनशिप का दिन आ गया। भीड़ जुटनी शुरू हो गई।
कॉलेज के ग्राउंड में ठीक तीन बजे कुश्ती कंपटीशन होना था। अखाड़ा खुद चुका था। चूना-मिट्टी डाली जा चुकी थी। कॉलेज प्रबंधन ने सारे प्रबंध समझदारी से किए थे। एक एंबुलेंस मंगा ली थी। अखाड़े के बाहर भी एक स्ट्रेचर रख दिया था अहतियातन एक डॉक्टर का इंतजाम भी कर लिया था।
कुश्ती प्रेमियों की भीड़ हजारों की तादाद में पहुंच चुकी थी। कुश्ती में बस पांच मिनट बचे थे। किसना के दोस्तों ने एक बार फिर आत्महत्या से बचने की सलाह दी। उनके न मानने पर नजर भरकर एक बार उनके साबुत शरीर को देख लिया। आंखों में आंसू और मुंह से आह उगलकर बोले, ‘‘जा भाई, शहीदों में नाम लिखा ले। समझ लेंगे, हमारा और तेरा इतने ही दिनों का साथ था।’’
किसना ने खेल टीचर से विजयी होने का आशीर्वाद मांगा। खेल टीचर बुदबुदाए, ‘‘स्वस्थ रहो, जीवित रहो।’’ किसना के मूड का दीया बुझने को हुआ, इसलिए उन्होंने दर्शक दीर्घा पर नज़र दौड़ाई। कुमारी चमेली देवी उन्हीं को टुकुर-टुकुर देख रही थीं। उनकी नज़रों में प्यार था, प्यार के साथ सहानुभूति थी और सहानुभूति के साथ किसी के बलिदान पर न्यौछावर होने के लिए जो कुछ था, वह पूरी शिद्दत के साथ मौजूद था। किसना यह देखकर खुशी के मारे बगलोल हो गए और जोश में कूद पड़े अखाड़े में। दोस्त लोगों ने नारा लगया- चढ़ जा बेटा सूली पे, भली करेंगे राम।
तेजप्रताप भी अखाड़े में तशरीफ ले आए। उन्होंने कपड़े उतारे। लंगोट कसा और जांघों पर हाथ मारकर दंड बैठक लगानी शुरू कर दी। पैंतालीच इंची चैड़ी छाती, ये मोटे-मोटे कसरती बाजू। मलखंभ जैंसी जंघाएं और उमेठी हुई मूछें। उन्हें देखकर लोगों ने शर्त लगानी शुरू कर दी कि किसना कितने सैकिंड तक उनके सामने रहेंगे। उनके सिर्फ हाथ-पांव टूटने से काम चल जाएगा या उनकी आत्मा का परमात्मा से मिलन होगा। कयास लग रहे थे, शर्तों का बाजार गर्म था।
तेज प्रताप को देखकर किसना ने भी कपड़े उतारने की पहल की। कमीज उतारी, पाजामा उतारा। पाजामा के नीचे ढीला-ढाला पट्टीदार नेकर था। रेफरी ने कहा, ‘‘इसे भी उतारो, लंगोट में लड़ो।’’ पर लंगोट उन्होंने पहना कब था। अखाड़े की मर्यादा थी, सो किसी का गमछा लेकर उसे नेकर पर कसा गया। कुछ-कुछ लंगोट की शक्ल आ गई। रेफरी ने दोनों पहलवानों के हाथ मिलवाए।
पहला राउंड शुरू हुआ।
दर्शकों का उत्तेजना के मारे बुरा हाल था। उन्हें अब लगा, तब लगा कि गए किसना। अब टूटे, अब फूटे। तेजप्रताप की इच्छा भी यही थी, पर किसना उनके हाथ आएं तब न। वो आगे जाते, किसना पीछे। तेजप्रताप ने उन्हें धर-पकड़ने की लाख कोशिश की, पर वह किसना को छू भी नहीं पाए। हर बार वह किसना पर झपट्टा मारते, पर किसना दायें-बायें हो जाते। तेजप्रताप बेबसी से उन्हें देखते रह जाते। एक-दो बार किसना तो उनकी टांगों के बीच से भी निकल गए। इसी चक्कर में पहला राउंड खत्म हो गया।
भीड़ के साथ किसना ने भी ठंडी सांस ली। किसना ने पसीना पोंछा। एक नजर कुमारी चमेली को देखा। लोटा भर पानी पिया, फिर खड़े हो गए।
दूसरे राउंड की सीटी बजी। तेजप्रताप गुस्से में थे ही। पहली बार ऐसा हुआ कि कोई पहलवान उनसे एक राउंड तक बचा रह गया था। उन्होंने सोच लिया कि इस बार वे इस भुनगे को पीसकर रख देंगे। वह दांत कटकटाकर की तरफ झपटे ही थे कि तभी किसना ने हाथ उठा दिए। चिल्लाकर बोले, ‘‘भाइयो, मैं अपनी हार स्वीकार करता हूं। तेजप्रताप जीते, मैं हारा।’’
उनकी घोषणा सुनकर दर्शकगण भौंचक्के रह गए। भला ये क्या हुआ? ये कैसी कुश्ती! वे तो सोच रहे थे कि आज कुछ खूनी खेल देखने को मिलेगा। उन्हें किसना की मौत पर मातम करने का मौका मिलेगा, पर यहां तो कहानी ही अलग थी।
तेजप्रताप तो घोषणा सुनकर बगलोल से खड़े रह गए। किसना के सारे यार-दोस्तों को भी सांप सूंघ गया था। पूरी भीड़ चकित थी।
इधर रेफरी ने कुश्ती खत्म करने की घोषणा कर दी। तेजप्रताप विजेता बने और किसना दुबे उप विजेता। कुश्ती का स्वर्णपदक तेज प्रताप के हिस्से में आया तो किसना दुबे के हिस्से में चांदी का पदक। अब वह निर्विवाद रूप से कॉलेज के दूसरे नंबर के पहलवान थे। जब वह पदक लेने मंच पर गए, तो उनके लिए सबसे ज़्यादा तालियां बजी थीं। ताली बजाने वालों में कुमारी चमेली सबसे आगे थीं। आखिर उनका प्रेमी कॉलेज का नंबर दो पहलवान जो बन गया था।
पहलवान किसना दुबे कुश्ती में हारकर भी इश्क के पेपर में सौ परसेंट नंबर लेकर पास हो गए थे।
मो.09311660057

सरे आम साधो /

डोल साधो

अपने मन की आंखें खोल साधो,

यह जीवन बड़ा अनमोल साधो।
कोरोना से गर बचना है तो प्यारे,
घर से बाहर अभी मत डोल साधो।।**""
महेश बंसल

काया साधो
जब पड़ेगा दुष्ट कोरोना का साया साधो,
तब धरी रह जायेगी सब धन माया साधो।
पास तेरे अपने भी तो ना फटकेंगे प्यारे,
शवगृह में पड़ी मिले अके‌ली काया साधो।।****
महेश बंसल
कोरोना
जाते जाते सबको क्या क्या बता जायेगा कोरोना ,
जीने के  पाठ भी सबको सिखा जायेगा कोरोना।
एहसान तेरा एक दिन मानेंगे ये सारी दुनिया वाले,
नहीं सुना था सदियों से वो दिखा जायेगा कोरोना।।****
महेश बंसल

बोल साधो
जीना है तो बेमतलब घर से बाहर मत डोल साधो,
मौत बनके कोरोना सबके सिरपे रहा है डोल साधो।
घर में रहके खैर मना तू अपनी भी और गैरों की भी,
ले नाम प्रभु का बंदे राधेश्याम सीताराम बोल साधो।।***
महेश बंसल

कबिरा गरब न कीजिए कोरोना गहे कर केस।
ऐसा दानव ना सुना जिसका रंग ना कोई भेस।।***

कबिरा गरब न कीजिए कोरोना गहे कर केस।
बच कर रहिए अब साधो क्या घर क्या परदेस।।

संहार साधो
सम्मुख पा रावण को लिया था राम अवतार साधो,
दुष्ट कंस के वध के लिए हुआ कृष्ण अवतार साधो।
हिरण्यकश्यप को मारने नृसिंह रूप धर कर आये,
अदृश्य दानव कोरोना का कौन करेगा संहार साधो।।***
महेश बंसल
बंटाढ़ार घणा
कोरोना न कर दिया सूबे म हाहाकार घणा,
बातां म शेर सारे ना कोई भी उपचार बणा।
मजदूर सारे भजा दिये विकास की बात करें,
सारे नेताओं ने मिल कर दिया बंटाढ़ार घणा।।
महेश बंसल
संहार प्रभो
सारी दुनिया में कोरोना से मचा है हाहाकार प्रभो,
बेबस मानवता कर रही त्राहिमाम की पुकार प्रभो।
नष्ट धरा को करने चीन ने रक्तबीज फिर जन्मा है,
अवतरित करो देवी दुर्गा को करने इसका संहार प्रभो।।***
महेश बंसल
ताले साधो
चलते चलते सबके ही पावों में पड़ गये छाले साधो,
धूप ताप से झुलसा है बदन रंग पड़ गये काले साधो।
बदनसीबी भी देखो गरीबों के हिस्से में आई है यारों,
कौन सुने पीर हमारी जुबां पर भी पड़ गये ताले साधो।।***
महेश बंसल

उपदेश साधो
कोरोना ने दुनिया को दिया है एक नया संदेश साधो,
फल मिला है जो बदला आचरण और परिवेश साधो।
भूल गये राम कृष्ण बुद्ध महावीर नानक की वाणी को,
तुलसी मीरा सूर कबीरा के भी याद करो उपदेश साधो।।****
महेश बंसल
लहूलुहान साधो
सच कह गये कि समय बड़ा बलवान साधो,
नन्हें कोरोना से हारा है सकल जहान साधो।
जिनका बजता था डंका सारी दुनिया में,
वे ही देश पड़े हैं धरा पर लहूलुहान साधो।।*****
2
उत्पात साधो
कोरोना ने मानव जाति पर किया भीषण आघात साधो,
देश में जन जन पर लगा हुआ है कठिन आपात साधो।
प्राणों को संकट में डाल सबकी जान बचा रहे हैं योद्धा,
निर्लज्ज नीच जमाती मचा रहे फिर कैसा उत्पात साधो।।****
3
नानी साधो
जीवन सबका जैसे हो गया बेमानी साधो,
छूटा बाहर जाना और  खाना पानी साधो।
नौकरी छूटी घर बार, शादी ब्याह भी छूटे,
कोरोना ने याद करादी सबको नानी साधो।।***
4
जवानी साधो
दुष्ट कोरोना तो है एक दुश्मन जानी साधो,
इसका काटा तो नहीं मांगता है पानी साधो।
खुद को बचा लिया तो ही बच पाओगे यारों
नहीं देखता बचपन बुढ़ापा या जवानी साधो।।****

5
पोल साधो
कोरोना ने कर दी है सारी दुनिया डावांडोल साधो,
काल बली ने बजा के रख दी‌ है सबकी ढ़ोल साधो।
जीना है यदि  तो तप संयम नियम से जीना सीखो,
नाम बड़े दर्शन थोड़े,खुल गयी सबकी पोल साधो।।***
6
पास साधो
दुष्ट कोरोना ने कराया अपनी ताकत का एहसास साधो,
बड़ी बड़ी शक्तियों का डिगा दिया आत्म विश्वास साधो।
राकेट मिसाइलें परमाणु बम सब ही धरे रह जायेंगे प्यारे,
जीना है यदि तो आओ लौट कर चलें गांव के पास‌ साधो।।***
7

सरेआम साधो

सब मिलकर बहकाते हैं मजहब के नाम साधो,
मूर्ख बनाते हैं अल्लाह यीशु प्रभु के नाम साधो।
पादरी,बाबा,मौलाना सब एक थैली के चट्टे-बट्टे,
भांति भांति के ढ़ोंग रचा कर लूटें सरे आम साधो।।

प्रेमचंद को समझना जरूरी है

आज के दिन इससे बढ़िया मुझे कुछ नहीं मिला 

"प्रेमचंद के फटे जूते"

प्रेमचंद का एक चित्र मेरे सामने है, पत्नी के साथ फोटो खिंचा रहे हैं। सिर पर किसी मोटे कपड़े की टोपी, कुरता और धोती पहने हैं। कनपटी चिपकी है, गालों की हड्डियाँ उभर आई हैं; पर घनी मूछें चेहरे को भरा-भरा बतलाती हैं।

पाँव में कॅनवास के जूते हैं, जिनके बंद बेतरतीब बंधे हैं। लापरवाही से उपयोग करने पर बंद के सिरों पर की लोहे की पतरी निकल जाती है और छेदों में बंद डालने में परेशानी होती है। तब बंद कैसे भी कस लिए जाते हैं। दाहिने पाँव का जूता ठीक है, मगर बाएँ जूते में बड़ा छेद हो गया है जिसमें से अंगुली बाहर निकल आई है।

मेरी दृष्टि इस जूते पर अटक गई है। सोचता हूँ– फोटो खिंचवाने की अगर यह पोशाक़ है, तो पहनने की कैसी होगी? नहीं, इस आदमी की अलग-अलग पोशाक़ें नहीं होंगी। इसमें पोशाक़ें बदलने का गुण नहीं है। यह जैसा है, वैसा ही फोटो में खिंच जाता है।

मैं चेहरे की तरफ़ देखता हूँ। क्या तुम्हें मालूम है मेरे साहित्यिक पुरखे, कि तुम्हारा जूता फट गया है और अंगुली बाहर दिख रही है? क्या तुम्हें इसका ज़रा भी अहसास नहीं है? ज़रा लज्जा, संकोच या झेंप नहीं है? क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि धोती को थोड़ा नीचे खींच लेने से अंगुली ढक सकती है? मगर फिर भी तुम्हारे चेहरे पर बड़ी बेपरवाही, बड़ा विश्वास है! फोटोग्राफर ने जब ‘रेडी-प्लीज़’ कहा होगा, तब परंपरा के अनुसार तुमने मुस्कान लाने की कोशिश की होगी, दर्द के गहरे कुएँ के तल में कहीं पड़ी मुस्कान को धीरे-धीरे खींचकर ऊपर निकाल रहे होंगे कि बीच में ही ‘क्लिक’ करके फोटोग्राफर ने ‘थैंक यू’ कह दिया होगा। विचित्र है यह अधूरी मुस्कान! यह मुस्कान नहीं, इसमें उपहास है, व्यंग्य है!

यह कैसा आदमी है, जो ख़ुद तो फटे जूते पहने फोटो खिंचा रहा है, पर किसी पर हँस भी रहा है! फोटो ही खिंचाना था, तो ठीक जूते पहन लेते या न खिंचाते। फोटो न खिंचाने से क्या बिगड़ता था। शायद पत्नी का आग्रह रहा हो और तुम, ‘अच्छा, चल भई’ कहकर बैठ गए होंगे। मगर यह कितनी बड़ी ‘ट्रेजडी’ है कि आदमी के पास फोटो खिंचाने को भी जूता न हो। मैं तुम्हारी यह फोटो देखते-देखते, तुम्हारे क्लेश को अपने भीतर महसूस करके जैसे रो पड़ना चाहता हूँ, मगर तुम्हारी आँखों का यह तीखा दर्द भरा व्यंग्य मुझे एकदम रोक देता है।

तुम फोटो का महत्व नहीं समझते। समझते होते, तो किसी से फोटो खिंचाने के लिए जूते मांग लेते। लोग तो मांगे के कोट से वर-दिखाई करते हैं और मांगे की मोटर से बारात निकालते हैं। फोटो खिंचाने के लिए तो बीवी तक मांग ली जाती है, तुमसे जूते ही मांगते नहीं बने! तुम फोटो का महत्व नहीं जानते। लोग तो इत्र चुपड़कर फोटो खिचाते हैं जिससे फोटो में ख़ुश्बू आ जाए! गंदे से गंदे आदमी की फोटो भी ख़ुश्बू देती है!

टोपी आठ आने में मिल जाती है और जूते उस ज़माने में भी पाँच रुपये से कम में क्या मिलते होंगे। जूता हमेशा टोपी से क़ीमती रहा है। अब तो जूते की क़ीमत और बढ़ गई है और एक जूते पर पच्चीसों टोपियाँ न्योछावर होती हैं। तुम भी जूते और टोपी के आनुपातिक मूल्य के मारे हुए थे। यह विडंबना मुझे इतनी तीव्रता से पहले कभी नहीं चुभी, जितनी आज चुभ रही है; जब मैं तुम्हारा फटा जूता देख रहा हूँ। तुम महान कथाकार, उपन्यास-सम्राट, युग-प्रवर्तक, जाने क्या-क्या कहलाते थे, मगर फोटो में भी तुम्हारा जूता फटा हुआ है!

मेरा जूता भी कोई अच्छा नहीं है। यों उपर से अच्छा दिखता है। अंगुली बाहर नहीं निकलती, पर अंगूठे के नीचे तला फट गया है। अंगूठा ज़मीन से घिसता है और पैनी मिट्टी पर कभी रगड़ खाकर लहूलुहान भी हो जाता है। पूरा तला गिर जाएगा, पूरा पंजा छिल जाएगा, मगर अंगुली बाहर नहीं दिखेगी। तुम्हारी अंगुली दिखती है, पर पाँव सुरक्षित है। मेरी अंगुली ढकी है, पर पंजा नीचे घिस रहा है। तुम परदे का महत्त्व ही नहीं जानते, हम परदे पर क़ुर्बान हो रहे हैं!

तुम फटा जूता बड़े ठाठ से पहने हो! मैं ऐसे नहीं पहन सकता। फोटो तो ज़िंदगी भर इस तरह नहीं खिंचाऊँ, चाहे कोई जीवनी बिना फोटो के ही छाप दे। तुम्हारी यह व्यंग्य-मुस्कान मेरे हौसले पस्त कर देती है। क्या मतलब है इसका? कौन-सी मुस्कान है यह?

क्या होरी का गोदान हो गया? क्या पूस की रात में नीलगाय हलकू का खेत चर गई? क्या सुजान भगत का लड़का मर गया; क्योंकि डॉक्टर क्लब छोड़कर नहीं आ सकते? नहीं, मुझे लगता है माधो औरत के कफ़न के चंदे की शराब पी गया। वही मुस्कान मालूम होती है। मैं तुम्हारा जूता फिर देखता हूँ। कैसे फट गया यह, मेरी जनता के लेखक? क्या बहुत चक्कर काटते रहे? क्या बनिये के तगादे से बचने के लिए मील-दो मील का चक्कर लगाकर घर लौटते रहे? चक्कर लगाने से जूता फटता नहीं है, घिस जाता है। कुंभनदास का जूता भी फतेहपुर सीकरी जाने-आने में घिस गया था। उसे बड़ा पछतावा हुआ। उसने कहा –‘आवत जात पन्हैया घिस गई, बिसर गयो हरि नाम।’ और ऐसे बुलाकर देने वालों के लिए कहा था, -‘जिनके देखे दु:ख उपजत है, तिनको करबो परै सलाम!’

चलने से जूता घिसता है, फटता नहीं। तुम्हारा जूता कैसे फट गया? मुझे लगता है, तुम किसी सख्त चीज़ को ठोकर मारते रहे हो। कोई चीज़ जो परत-पर-परत सदियों से जम गई है, उसे शायद तुमने ठोकर मार-मारकर अपना जूता फाड़ लिया। कोई टीला जो रास्ते पर खड़ा हो गया था, उस पर तुमने अपना जूता आज़माया।

तुम उसे बचाकर, उसके बगल से भी तो निकल सकते थे। टीलों से समझौता भी तो हो जाता है। सभी नदियाँ पहाड़ थोड़े ही फोड़ती हैं; कोई रास्ता बदलकर, घूमकर भी तो चली जाती है।

तुम समझौता कर नहीं सके। क्या तुम्हारी भी वही कमज़ोरी थी, जो होरी को ले डूबी, वही ‘नेम-धरम’ वाली कमज़ोरी? ‘नेम-धरम’ उसकी भी ज़ंजीर थी। मगर तुम जिस तरह मुस्कुरा रहे हो, उससे लगता है कि शायद ‘नेम-धरम’ तुम्हारा बंधन नहीं था, तुम्हारी मुक्ति थी!

तुम्हारी यह पाँव की अंगुली मुझे संकेत करती-सी लगती है। जिसे तुम घृणित समझते हो, उसकी तरफ़ हाथ की नहीं, पाँव की अंगुली से इशारा करते हो?
तुम क्या उसकी तरफ़ इशारा कर रहे हो, जिसे ठोकर मारते-मारते तुमने जूता फाड़ लिया?

मैं समझता हूँ। तुम्हारी अंगुली का इशारा भी समझता हूँ और यह व्यंग्य-मुस्कान भी समझता हूँ।

तुम मुझ पर या हम सभी पर हँस रहे हो, उन पर जो अंगुली छिपाए और तलुआ घिसाए चल रहे हैं, उन पर जो टीले को बरकाकर बाजू से निकल रहे हैं। तुम कह रहे हो – 'मैंने तो ठोकर मार-मारकर जूता फाड़ लिया, अंगुली बाहर निकल आई, पर पाँव बच रहा और मैं चलता रहा, मगर तुम अंगुली को ढकने की चिंता में तलवे का नाश कर रहे हो। तुम चलोगे कैसे?

मैं समझता हूँ। मैं तुम्हारे फटे जूते की बात समझता हूँ, अंगुली का इशारा समझता हूँ, तुम्हारी व्यंग्य-मुस्कान समझता हूँ!

-हरिशंकर परसाई

गुरुवार, 30 जुलाई 2020

मर्द की नाक / सुभाष चंदर

( प्रतिष्ठित पत्रिका 'इंद्रप्रस्थ भारती' के व्यंग्य विशेषांक में नई व्यंग्य कथा ' मर्द की नाक '( टाइप प्रति संलग्न) 


मर्द की नाक

सुभाष चंदर

छंगा को इलाके में दबंग मर्द का रुतबा अगर हासिल है तो उसके पीछे कई ठोस कारण हैं। पहला कारण तो उसकी झब्बा झब्बा  मूंछें  है जो हर समय तनी रहती हैं और उसकी दबंगई का विज्ञापन करती हैं। मूंछों के ठीक नीचे मोटे-मोटे होठ हैं, इन दोनों के बीच में एक छेद है। उस छेद के भीतर एक जुबान है और  इस जुबान में एक  दुनाली फिट है। इस दुनाली में गालियों के अनगिनत  कारतूस भरे हैं जिन्हें वह अक्सर दागता रहता है। इनसे काम न चले तो वह हाथ छोड़ने में भी नहीं हिचकता। अलबत्ता ऐसे मौको पर वह जरूर ध्यान रखता है कि सामने वाला बंदा उससे ताकत और हैसियत में कमजोर भर हो। रही बात गुप्त रोगों वाले इश्तिहारी मर्द की तो बंदा वहाँ भी सौ फी सदी टंच है। इसका पक्का सबूत ये है कि उसने पिछले पंद्रह  सालों में तीन शादियां कीं और उन बीवियों को इतनी... इतनी मर्दानगी दिखाई कि पहली  पूरे दो  साल टिकी। उसने इन दो सालों में लगभग एक दर्जन बार माथे की पट्टी कराई। तीन बार पूरे बदन की सिंकाई कराई  और हड्डी तुड़वाने का मौका तो उसे सिर्फ़ एक ही बार मिला। दूसरा मौका मिलने ही वाला था कि उसके अंदर पी टी ऊषा की आत्मा प्रवेश कर गयी। वह भागी... ऐसी भागी कि सीधी अपने बाप के घर आकर रुकी। उसके बाद उसने ससुराल जाने का नाम नहीं लिया। 
 छंगा ने पूरे तेरह महीने  और बीस दिन उसका, इंतज़ार किया l फिर वह सत्तर कोस दूर के एक गाँव से एक  औरत को ब्याह लाया। इस औरत ने पूरे चार साल छंगा की मर्दानगी को चुनौती दी। वह नाश्ते में बेनागा चार डंडे, दोपहर को चार-छह घूंसे का भोजन और रात को दस बारह थप्पड़ों का डिनर करती रही। उसके अलावा दारू के साथ चढ़ने वाली छंगा की दुर्दांत टाइप की मर्दानगी भी झेलती रही। उसके बाद भी, वह अपनी हिम्मत के बलबूते पर छंगा की बीवी बनी रही। एक दिन दारू के नशे में छंगा ने उसका हाथ तोड़ दिया, इसी के साथ ही उस औरत की हिम्मत ने भी उसका साथ छोड़ दिया। वह एक बार गयी तो ऐसी गयी कि बीती जवानी की तरह फिर नहीं लौटी। 
 इस घटना से छंगा की मर्दानगी को इतनी ठेस लगी कि वह पूरे तीन साल  तक पत्नी रहित रहा। इन तीन सालों में उसने बहुत काम किया l दरज़नो कोठे आबाद किये l खेतों में/ घर में  काम करनेवाली नौकरानियों की मज़बूरी खरीदी । दो चार बार फंसने की नौबत आई तो अपने ख़ास गोबरधन की मदद ले ली l किस्सा कोताह ये कि इस अवधि में छंगा चुप नहीं बैठा , नए नए शिगूफे खिलाता रहा,  साथ ही बीवी नंबर दो के पास वापस आ जाने के पैगाम भी  भिजवाता रहा। वहाँ से ‘ना’ की पक्की चिट्ठी आ जाने के बाद, उसने फिर एक ब्याह रचा डाला। 
 बीवी नं. 3 उसकी मर्दानगी के आगे शुरू से ही कमजोर रही। फिर भी उसने अपनी हिम्मत, मेहनत और बर्दाश्त करने की ताकत के बल पर पूरे तीन  साल  और सात  महीने छंगा की मर्दानगी को झेला। उसके बाद वह भी टिल्ली-लिल्ली झा हो गयी। 
 छंगा ने इसके बाद फिर से अपने हाथ पीले कराने का अभियान शुरू कर दिया। पर आसपास के इलाकों में उसकी प्रसिद्धि इतनी अधिक फैल चुकी थी कि लड़की तो दूर, कोई विधवा, परित्यक्ता भी उससे ब्याह करने की हिम्मत नहीं जुटा पायी। 
और कोई होता तो हारकर चुपचाप बैठ जाता या पुरानी बीवियों से ही घर वापसी की जुहार लगाता। पर छंगा तो  मर्द था, वो भी दबंग मर्द। वह भला कैसे हार मान  जाता ? वह अगले साल ही  ब्याह के नाम पर एक गांव से बीस हजार में एक सत्तह बरस की लड़की खरीद लाया। लड़की के घर में उसके बाप और पांच बहनों के साथ भुखमरी नाम की  एक मोहतरमा और रहती थी जो लड़की के जवान होते ही, बाप को उसकी बिक्री करने को उकसा देती थी l  सो वह बाप बेटी के जवान होते ही वह उसे सालाना बाज़ार में बेच आता था। अलबत्ता पंडितजी की मेहरबानी से उस पर ठप्पा ब्याह का जरूर लगवा लेता था। इस बिक्री से उसके घर का साल भर का खर्चा चल जाता था और बेटी के जीवन भर के दाना-पानी का जुगाड़ हो जाता था। 
 छंगा की चौथी बीवी छबीली , दुबली पतली रास की मरियल सी छोकरी थी। सांवला रंग, लम्बोतरा चेहरा, मोटी-मोटी आँखें और जगह-जगह से झांकती हड्डियाँ। कुल जमा यही हुलिया था उसका। चलते-फिरते कंकाल जैसी लगती थी। सच बात तो ये थी कि अन्न  भर पेट मिले तब बदन पर  मांस आता है। छबीली के घर में तो हफ्ते में चार-छह बार से ज्यादा पेट भर खाना ऐय्याशी था सो ऐसे में बदन पर मांस भी उसी अनुपात में आया था । 
 पर छंगा के घर आकर छबीली को और कुछ मिला ना मिला पर दोनों जून का खाना जरूर मिला। बस इस दो जून के खाने के लिए उसे कीमत जो है, वो अच्छी खासी चुकानी पड़ी। सुबह-शाम लात-घूंसे और रात को छंगा की दारूनोशी के बाद की । रोज़ छंगा नशे में टल्ली होकर आता और उस पर हमला कर देता। रात-रात भर वह गर्भिणी गाय सी डकराती, हाथ पैर-जोड़ती। बदन के दर्द की शिकायत का हवाला देती, हड्डियों की जकड़न से उपजी मज़बूरी बताती। पर दबंग मर्द के आगे उसकी कहाँ चलती। वह ज्यादा ना-नुकुर करती। रोना-चिल्लाना करती। छंगा पर उतनी ही मर्दानगी चढ़ती जाती। वह मारते-मारते उसका बदन सुजा देता। कई बार तो वह बेहोश तक हो गयी पर दबंग मर्द ने उसे अपनी मर्दानगी दिखाए बगैर फिर भी नहीं छोड़ा l
 इसी तरह सात-आठ साल गुज़र गये। इन सात-आठ सालों में बहुत कुछ बदल गया। दोनों जून के अच्छे खाने से छबीली की मरियल काया पर मांस चढ़ आया। तीन टाइम की बेनागी पिटाई ने उसके बदन को मज़बूत बना दिया। हर वक्त की गाली-गलौच ने उसकी जुबान की बंद नसें भी खोल दीं। किस्सा कोताह ये कि अब छबीली सात-आठ बरस पहले की मरियल, सहमी-सिमटी सी छबीली ना रहीं। उसकी जगह एक 24-25 बरस की सांवली सलोनी, मज़बूत छबीली ने ले ली थी। छबीली की जवानी का ग्राफ ऊपर को जा रहा था पर अपने दबंग मर्द उर्फ चौधरी छंगा सिंह के मामले में ये उल्टा चल रहा था। वह अब पचास के ऊपर  पहुंच चुका था। यानी उसकी उम्र की दुकान में माल कम बचा था। बची-खुची कसर कोठे बाज़ी, दारू और हरामखोरी के चूहो ने पूरी कर रखी थी। सयाने शुरू से कहते हैं कि ऐसे हालात बन जायें तो एक टैम पे, मर्दानगी के फूल भी मुरझाने लगते हैं। छंगा के मर्द को भी अहसास तो होने लगा था पर दारू की गमक, मूंछों की छनक और दबंग होने  की रमक में  इस अहसास को वह खुद से छुपाता रहा था। बाद में हारकर उसे गुप्त रोग विशेषज्ञो की शरण लेनी पड़ी। उन्होंने मर्दानगी के फूलो को तरोताज़ा बनाय रखने के लिए, उसके शरीर के गमले में शिलाजीत,सफ़ेद मूसली  और जाने-जाने कौन सी औषधियों की खाद डाली। जाने माने वैद्यों  की भस्मों और आसवों ने उसमें पानी डाला। कुछ दिनों तक मर्दानगी की क्यारी में बहार आई जरूर पर कुछ ही दिनों में ये बहार फिर रूठ गयीं। 
 अब छंगा का बाहर जाना लगभग बंद हो लिया। खेतों-क्यारियों में भी घसियारनें, निश्चिंत होकर जानवरों के लिए चारा  काटने लगीं। कोठो की आवाज़ाही में विध्न पहले ही पड़ लिया था। अब मर्दानगी के परिक्षण का आखिरी अखाड़ा जो बचा था- उसका नाम था 'घर'। घर जिसे छबीली नाम की मोहतरमा संभालती थी जो छंगा की चौथी बीवी की पोस्ट पर तैनात थी। छंगा को यकीन था कि चाहे उसकी मर्दानगी का डंका कहीं और बजे ना बजे पर घर में तो उसका राज है । इस साम्राज्य को बनाए रखने के लिए वह मेहनत भी पूरी करता था। साम्राज्य पर चूंकि खतरा मंडरा रहा था, सो उसे ऐहतियातन मुस्तैदी बरतनी शुरू कर दी थी l अब उसने बिना गालियों के छबीली से बात करना बंद कर दिया था । थप्पड़-घूंसों वाली पिटाई की हफ्ते में  तीन बार की तय मात्रा बढ़ाकर छह बार कर दी थी। पर चाहकर लाठी का प्रयोग नहीं बढ़ा पाया था क्योंकि लाठी चलाने के बाद सुबह हाथों की नसें दुखती थीं। कई दिन मालिश करानी पड़ती थी। पर मज़बूरी थी, बीवी संभालनी भी तो जरूरी थी। अब उसने रात को छबीली के कमरे में जाना भी कम कर दिया था। अगर दारू के नशे में चला भी जाता तो थोड़ी देर बाद ही छबीली के उलाहने में सारा नशा उतर जाता। नशा दुबारा चढ़ाने के लिए उसे लाठी का इस्तेमाल करना पड़ता। इससे दो फायदे हो जाते, नशा दुबारा जम जाता और छबीली की जुबान, उसकी मर्दानगी के कसीदे पढ़ने से भी रुक जाती। 
 पर एक दिन इस लाठी का इस्तेमाल भी बंद हो गया। उस रात जब वह दारू पानी के बाद, छबीली के कमरे में घुसा। कुछ नोचा-नाची सी की तो छबीली के मुंह से निकल ही गया-,‘’ रहने दो,अब  तुम ये नोचा-घसीटी ही कर सकते हो।बाकी तुम्हारे बस का कुछ ना है।‘’ सुनते ही छंगा के खून का टैम्परेचर बढ़ गया। उसने पहले राऊन्ड में दर्जन भर गालियां दी, गिनकर छह थप्पड़  रसीद  किए, जबकि लात का बस एक ही बार इस्तेमाल कर पाया।  चीख के रूप में उनकी पावती भी ले ली। पर उससे छबीली की आँखों की हिकारत कम ना हुई। इस हिकारत की बीमारी के इलाज के लिए उसे लट्ठ नामक यंत्र का उपयोग ही बेहतर लगा। उसने जैसे ही मारने के लिए लट्ठ ऊपर उठाया। लंबी-तगड़ी छबीली ने ऊपर से ही लट्ठ को पकड़ कर छीन लिया। छंगा ने अपने बाजुओं और दारू की सारी ताकत लगा दी पर लट्ठ नहीं छीन पाया। अलबत्ता इस धक्का-मुक्की में वह ज़मीन और सूंघ  गया। थोड़ी देर बाद हिम्मत करके उठा। और मज़बूरी में, अपनी मर्दानगी की क्यारियों में, गालियों का पानी छोड़ते हुए बाहर आ गया। अलबत्ता लाठी छबीली ने अपने पास ही रख ली l
 उस रात  पूरी बोतल चढ़ा लेने के बाद भी उसे नींद नहीं आई।
 इस घटना के बाद छंगा के मर्द में कई गुणात्मक परिवर्तन हुए। उसका गांधी जी के अंहिसा के सिद्धांत में विश्वास बढ़ने लगा।ब्रह्मचर्य के प्रयोगों के प्रति रुचि बढ़ने लगी। लाठी का प्रयोग पहले ही वर्जित हो चुका था। धीरे-धीरे थप्पड़-चालन क्रिया भी मंदी पड़ने लगी। मर्दानगी की मेंटीनेंस का सारा दारोमदार गालियों तक सीमित होकर रह गया। छबीली के कमरे में एक-दो बार गया भी तो वहाँ अपनी लाठी पड़ी देखकर चुप-चुपाने बाहर आ गया। 
 अब छंगा का मर्द दिन भर मूंछों पर ताव देकर गाँव-जवार में घूमता। नौकरों को गलियाता। रात को लालपरी की बोतल खोलता, हर पैग के साथ गालियों की मात्रा बढ़ाता जाता। छबीली, उसके बाप, अपनी पुरानी बीवियो, पड़ौसियों सभी की माँ-बहनों से जुबानी रिश्ता बनाता, कुछ देर बहकता, अंत में थक-हारकर सो जाता। 
 उस रात भी वह सारे शराबोचित काम निपटाकर सो रहा था। रात के लगभग तीन बजे होंगे। एकाएक खटके से उसकी आँखें खुली। वह हड़बड़ा सा गया। उसे लगा जैसे बरामदे से होकर दबे-कदमों कोई अंदर के कमरे की ओर जा रहा है। जरूर चोर होगा। इतना सोचते ही उसने सरहाने रखा कट्टा उठाया। और बिना आवाज़ किये बाहर आ गया। उसने देखा कि वह चोर सीधे छबीली के कमरे में घुस गया। घुसते ही उसने अंदर की सांकल लगा ली। बस उसका माथा ठनक गया। हे राम ! मर्द के घर मुठमर्दी। नहीं....ऐसा नहीं हो सकता। उस जैसे दबंग मर्द की बीवी ऐसी नहीं हो सकती। नहीं... उसे स्वीकार करने में वक्त लगा। फिर क्रोध में भुनभुनाते हुए उसने सोचा, फिर उसने दरवाज़ा खटखटा दिया। अंदर से आ रही। खुसर-पुसर की आवाजें बंद हो गयीं। छंगा ने दरवाज़ा फिर जोर से खटखटाया- और चिल्लाया-,‘’ बाहर निकल हरामी, छंगा की इज्ज़त से खेलता है। आज तुझे जिंदा नहीं छ़ोडूगा।‘’ उसका इतना कहना था कि तेज़ी से दरवाज़ा खुला। एक आदमी तेजी से उसे धक्का देता हुआ बाहर की ओर भागा। उसके धक्के से वह कट्टे समेत ज़मीन पर जा गिरा। उठते-उठते उसने देखा कि वो चोर और कोई नहीं उसका नौकर मन्नू पासी था। उसने अपना माथा ठोक लिया। मन किया कि कट्टे से गोली दाग दे उस पर l कट्टा उठाया भी ,निशाना भी लगाया पर जाने क्या दिमाग में आया कि ट्रिगर नहीं  दबाया l इस सारे नकारेपन का बदला  उसने मन्नू पासी के घर की औरतों से अपने जुबानी रिश्ते बनाकर लिया  l मन्नू के हिस्से की गालियां हवा के सुपुर्द करने के बाद उसे छबीली रानी की याद आयी।बस  उसने धर लिया छबीली को। उसके इश्क की ऐसी खबर ली कि मारते-मारते डंडा भी टूट गया। थक-हारकर वह अपने कमरे में आ गया। कमरे में आते ही उसने बोतल खोल ली और नीट ही डकार गया। नींद आने से ऐन पहले उसने प्रण कर लिया कि इस मन्नू पासी के बच्चे की पहले सुताई करेगा,उसके हाथ पैरों को शरीर से अलग करेगा , फिर उसे काम से निकाल देगा। उसी ने उसकी भोली छबीली को बरगलाया है।
 किन्तु  उसे अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने का मौका नहीं मिला क्योंकि सुबह जब वह सोकर उठा तो उसने देखा कि मन्नू अपने साजो सामान के साथ घर से रफू-चक्कर हो चुका था। उसके सामान में छबीली और उसके गहने रुपये भी थे। छबीली के कमरे और उसकी तिज़ोरी की हालत सारी कहानी बयान कर रही थी। यह दृश्य देखकर वह बेहोश होने की अवस्था को प्राप्त हुआ। क़ाफ़ी देर तक उसी अवस्था में पड़ा रहा। होश आने पर उसने पहला काम अपने खास आदमी गोबरधन के पास जाने को किया। उसके कान में सारा वाक्या फुसफुसाकर बयान  किया। इस किस्से ने गोबरधन की बटन जैसी आँखें बजरबट्टू जैसी बना दी। पहले तो उसने मन ही मन मन्नू पासी की किस्मत से रश्क किया जो छबीली को के उड़ा था। उसने अपनी किस्मत को कोसा कि मन्नू की जगह वह क्यों नहीं था।कोसकोसी कोसी का सेशन पूरा करने के  बाद उसने जो पहला वाक्य उचारा – वह ये था। 
‘’मालिक, मालकिन ने तो आपको कहीं का नहीं छोड़ा। लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे। मालकिन वापस नहीं आईं तो आपकी नाक ही कट जाएगी।‘’ उसके ऐसा कहते ही छंगा ने घबराकर अपनी नाक पर हाथ रख लिया। और वे दोनों मिलकर छबीली को खोजने और उसे वापस घर लाने की योजनाएं बनाने लगे। आखिर इलाके में नाक भी तो बचानी थी। वैसे भी नाक के अलावा छंगा के पास बचा ही क्या था। 
 अगले दिन से गोबरधन ने छबीली-खोज अभियान शुरू कर दिया। चार दिन बाद खबर आ गयी कि मन्नू और छबीली पास के शहर में किराये के मकान में रह रहे हैं। 
छंगा को इस खबर से काफ़ी शान्ति मिली। नाक की प्लास्टिक सर्जरी की संभावनाएं पनपने लगीं। उसने ऐहतियातन कट्टा कमर में ठूंस लिया कि छबीली राजी से आये तो ठीक  नहीं तो  गैर-राजी कट्टे के बल पर ले आयेगा। पर गोबरधन ने रोक दिया-,‘’ मालिक वह हमारा गाँव नहीं शहर है, किसी को हवा लग गयी कि आपके पास हथियार है तो मालकिन के पास जाने की जगह जेल चले जाओगे। नाक दो-दो बार कट जायेगी।‘’ 
 छंगा ने इसके बाद भी फेंटे से कट्टा नहीं निकाला तो गोबरधन ने एक और तीर छोड़ दिया। बोला-,‘’ मालिक, मान लो, छिप-छिपाकर हम कट्टा ले भी गये तो आपसे कौन सा गोली चलेगी। जानते हो ना कित्ता  जोर लगता है, घोड़ा दबाने में। बची है इत्ती जान अंगुलियों में ?‘’ कहकर वह व्यंग्य से मुस्करा दिया। उसकी मुस्कान से छंगा की हिम्मत पस्त हो गयी। कट्टा फिर से मेज की दराज़ में ही पहुंच गया।
 शाम को ठीक पांच बजे वे दोनों छबीली-मन्नू के ठिकाने पर पहुंच गये। छंगा ने गोबरधन को घर के बाहर ही खड़ा कर दिया और कमरे में घुस गया। उस समय छबीली और मन्नू बिस्तर पर लेटे-लेटे एक-दूसरों के नैनों की झील में तैराकी कर रहे थे। तभी उस झील में पत्थर सा फेंकने की आवाज़ आई। दोनों ने चौंककर देखा तो पत्थर के रूप में साक्षात छंगा खड़ा था। छंगा को देखते ही मन्नू पासी ने दरवाज़े की ओर छलांग लगानी चाही पर छबीली ने उसे रोक लिया। छंगा को यह देखकर कट्टा साथ न लाने का अफसोस हुआ। वरना इस दृश्य को देखकर वह दोनों हाथों से पकड़कर ही सही गोली जरूर चला देता। उसकी आँखों से आग की लपटें निकल रहीं थीं। पर उनसे मन्नू जरूर तप रहा था, पर छबीली नहीं l वह चारपाई से उठी और ऐन छंगा के सामने खड़ी हो गई और उतने ही तनाव से बोली – 
 -,‘’ क्यों चौधरी, अब यहाँ क्या लेने आया है ?‘’
 - “तुझे, अपनी बीवी को।“ छंगा ने खुद पर जब्त करते हुए जवाब दिया।
 - “किसकी बीवी ? तीन बीवियों को बिना तलाक दिये शादी की है। ऐसा ब्याह कोरट में कोई नहीं मानता l ज्यादा करेगा तो बिना तलाक दिये,दूसरा  ब्याह रचाने में जेल जाना पड़ेगा। समझा कुछ... आया बड़ा मुझे ले जाने वाला।“ 
 - “ये तू क्या कह रही है। लगता है शहर आते ही कोरट-कचहरी की हवा लग गयी है।“ छंगा ने शब्दों के तीरों को ज़हर में बुझाते हुए कहा। 
 - “हाँ लग गयी है तो...। वकील साब से मिल ली हूँ। उन्होंने कहा है पाँच सात दिन में ब्याह करा देंगे।“ 
 - “पर तू... तू तो मेरी बीवी है।“ छंगा शादी की बात सुनते हड़बड़ा गया।
 -“ किसकी बीवी, कैसी बीवी... तुझ बुड्ढे के पास धरा क्या है ? मार-पीट, गाली गलौच बस यही ना.? .. ना... मुझे ना जाना उस नरक में वापस...” छबीली धमक के बोली lसुनते ही छंगा की वह गुम हो गई जिसे शुद्ध हिंदी में  सिट्टी पिट्टी कहते हैं।
 कहाँ तो वह सोचता था कि उसे देखते ही छबीली डर जायेगी , उससे रो रोकर माफी मांगेगा। वह चार हाथ मारेगा और उसे बाल पकड़कर घसीटते हुए  वापस ले आएगा पर यहाँ तो मामला बिलकुल उल्लू की लटकन की गति को प्राप्त हो चुका था l उसने समझदारी पर ज़ोर डाला तो संकेत मिला कि अगर गाँव में छबीली वापस नहीं गयी तो बेइज्जती बहुत होगी l वैसे भी घर बाहर सब उसने ही सम्हाल रखा था l वह ना रही तो रोटियाँ भी मुश्किल से मिलेंगी l उसकी आँखों के आगे भविष्य घूमने लगा l बुढापे ने मर्दानगी को  झुकने पर मज़बूर कर दिया l वह फूट पड़ा - 
 - “ना... ना... रामजी की सौं... अब कुछ ना कहूंगा। ना गाली-गलौच, ना मार-पीट। भरोसा कर.... देख मेरे घर की इज्जत तेरे हाथ में है। तू घर ना लौटी तो मेरी नाक कट जाएगी। लोग कहेंगे छंगा की लुगाई भाग गयी। मान जा... वापिस चल....” कहते-कहते छंगा की आँखों में पहले भरी आग, नीर भरी बदली में बदल गयी और उसमें से थोड़ी देर में पानी बरसने लगा।
 - अब छबीली और मन्नू दोनों ही हतप्रभ से खड़े थे। छबीली ने तो उसे गुर्राते, हाथ उठाते, जबरदस्ती करते ही देखा था। यहाँ तो वो अपनी मर्दानगी समेत रो रहा था। उसने कुछ सोचा। फिर छंगा को वहीं बैठा छोड़कर मन्नू को बाहर ले गयी। दोनों में फुसफुसाहट की भाषा में बात हुई। तय ये हुआ कि गहने-पैसे बहुत दिन ना चलेंगे। वहां इतनी बड़ी हवेली छोड़कर एक-एक कमरे के किराये के कमरो में भटकना पड़ेगा। फिर हारकर मेहनत-मज़ूरी ही करनी पड़ेगी। इन सारे मुद्दो पर फुसफुस विमर्श हुआ। फिर छबीली ने मन्नू के कान में कुछ ख़ास कहा। उसे सुनते ही उसकी आँखें फैलकर कानों को गयीं। शब्दों में कहें तो मन्नू ने सिर्फ़ इतना कहा क्या ऐसा हो सकै हैं ? छबीली उवाची – देखते हैं।
 उसके बाद छबीली मन्नू का हाथ पकड़कर फिर छंगा के सामने आ डटी। दोनों को साथ देखकर छंगा को लगा जैसे उसने नीट शराब का घूंट मार लिया हो, पर इज्जत का सवाल था, सो वह जी कड़ा कर के घूंट पी गया। उसने छबीली से पूछा – बोलो क्या कहती हो। चलोगी, मेरे साथ ? 
“हाँ चलूंगी, पर मन्नू भी मेरे साथ चलेगा ?” छबीली ने सौदेबाजी का पहला पत्ता फेंका।
छंगा बिलबिला गया। ये  तो बेइज्जती की इंतिहा हो गयी। उसने चौधरियों की आन-बान शान की दुहाई दी। खानदान की इज्जत के फटते कपड़े दिखाये। बदनामी की बाढ़ में डूबता घर दिखाया। पर छबीली इन सारे दृश्यों से कतई प्रभावित नहीं हुई। उसने मन्नू के बिना जाने से इंकार कर दिया। छंगा ने क़ाफ़ी देर सोचा। बहसबाज़ी भी की। अंत में बात का तोड़ इस बात पर छूटा कि मन्नू साथ चलेगा। पर हवेली में छबीली के साथ नहीं रहेगा। अलबत्ता छबीली को उसके कमरे में जाने की छूट होगी। वो भी सिर्फ़ रात को। 
छबीली और मन्नू ने इस प्रस्ताव को खुशी-खुशी अनुमोदन दे दिया। 
पर मामला अभी खत्म कहाँ हुआ था। छबीली ने एक और डिमांड रख दी कि मैं तब चलूगी जब गाँव की हवेली मेरे नाम करोगे ? इस बात पर छंगा के साथ मन्नू भी चौंक गया। क्योकि मन्नू के साथ फुसफुस विमर्श में ये मुद्दा था ही नहीं। यह छबीली की उपजाऊ खोपड़ी में उगा बीज था। 
 
 हवेली वाले मुद्दे पर छंगा बुरी तरह गर्म हो गया। उठकर बाहर चल दिया। पर फिर दरवाज़े से  ही लौटकर आ गया। सौदेबाजी इस बात पर चली कि हवेली का आधा हिस्सा छंगा छबीली के नाम करेगा। बाकी आधे हिस्से के बदले पाँच बीघे खेत देगा। क़ाफ़ी किल्ला-किल्ली के बाद सौदे पर मुहर लग गयी। इस सौदेबाज़ी में छंगा को आधी हवेली और पाँच बीघे खेतों की चपत लगी। पर यह चपत छंगा को झेलनी ही थी। वरना खानदान की इज्ज़त डूबने का, छंगा की मर्दानगी की नाक वगैरहा कटने का खतरा था। इन सारी अहम चीज़ों के आगे थोड़ी सी प्रॉपर्टी क्या थी ?
 अगले दिन सुबह ही छबीली हवेली में नमूदार हो गयी। उसके पीछे-पीछे मन्नू भी अपने कमरे में पधार गया। छंगा ने वादे के मताबिक हवेली का आधा हिस्सा और पाँच बीघे खेत छबीली के नाम कर दिये। प्रॉपर्टी नाम होने तक छबीली ने मन्नू के कमरे में आवाजाही रखी। रात वाले भी नियम का भी पालन किया। रजिस्ट्री के कागज़ आते ही, मन्नू भी अपना कमरा छोड़कर छबीली के कमरे में शिफ्ट कर गया।
 छंगा ने उस दिन पूरी बोतल शराब पी और रोते हुए छबीली के बंद कमरे की तरफ निहारता रहा। रोता रहा और रोते-रोते भी अपनी नाक पर हाथ फेरकर देखता रहा कि बाहर वालों के लिए तो सलामत है ना। 
 कहानी का बस थोड़ा सा हिस्सा बचा है। कालांतर में छबीली रानी ने मन्नू पासी के सहयोग से पूरे नौ महीने बाद एक बच्चा पैदा किया जिनका बाप कहलाने का सौभाग्य चौधरी छंगा सिंह को प्राप्त हुआ। उसका सीना और उसकी नाक दोनों तन गये। उसकी मर्दानगी के किस्से फिज़ाओं में तैर गये। उसने  बेटे के नामकरण  पर एक शानदार दावत भी की। आगे चलकर उसे  चार बार ऐसी दावतें और देने का अवसर मिला। चौथे बच्चे की दावत के बाद उसने हवेली की बाहर की बैठक में शिफ्ट हो गया। मन्नू और छबीली अंदर के कमरों में बने रहे और जनसंख्या वृद्धि के उपायों पर काम करते रहे। 
 एक दिन जब छबीली सुबह बैठक में छंगा को चाय देने गई तो उसके बिस्तर पर उसकी जगह एक फाइल और कागज़ पड़ा मिला। गोबरधन को बुलाकर वह कागज़ पढ़वाया गया, उसमें लिखा था –
छबीली, मैं तेरा बहुत अहसान मंद हूँ कि तूने मुझे चार बच्चों का बाप बनने का  सुख   दिया। मेरे खानदान की लाज बचाई। अब इस दुनियां जहान से मेरा मोह खत्म हो गया है। सो मैं घर छोड़कर साधु बनने जा रहा हूँ। अब बाकी की ज़िन्दगी  भगवान की सेवा में गुज़ारूंगा। हवेली और ज़मीन तेरे नाम कर रहा हूँ। कागज़ साथ में रखे हैं। मेरे बच्चों को खूब शानो-शौकत से पालियो । उन्हें बताईयो कि जैसे मैंने अपने घर की नाक बचाये रखी, वैसे ही वे भी बचाए रखें। कुछ भी चला चाए तो वापस आ जाता है। पर नाक एक बार कट जाए तो फिर पहले जैसी नहीं रहती। मुझे ख़ुशी है कि मैं अपनी साबुत नाक के साथ जा रहा हूँ l
बस थोड़ी को बहुत समझियो .. 
  राम... राम... बच्चों को प्यार 

तेरा पति
छंगा सिंह
 छबीली पत्र की इबारत सुनकर बहुत रोई।  रोने से फारिग होकर उसने भगवान का शुक्रिया अदा किया कि उसने  आख़िरी समय में ही सही उसके पति को सद्बुद्धि दे दी। 
 भगवान जैसी सद्बुद्धि तूने छंगा को दी, वैसी उसके जैसी नाक वाले सारे मर्दों को दीजो ।

बुधवार, 29 जुलाई 2020

मर्द की नाक / सुभष चंदर



प्रतिष्ठित पत्रिका 'इंद्रप्रस्थ भारती' के व्यंग्य विशेषांक में नई व्यंग्य कथा ' मर्द की नाक '( टाइप प्रति संलग्न)
मर्द की नाक
सुभाष चंदर

छंगा को इलाके में दबंग मर्द का रुतबा अगर हासिल है तो उसके पीछे कई ठोस कारण हैं। पहला कारण तो उसकी झब्बा झब्बा  मूंछें  है जो हर समय तनी रहती हैं और उसकी दबंगई का विज्ञापन करती हैं। मूंछो के ठीक नीचे मोटे-मोटे होठ हैं, इन दोनों के बीच में एक छेद है। उस छेद के भीतर एक जुबान है और  इस जुबान में एक  दुनाली फिट है। इस दुनाली में गालियों के अनगिनत  कारतूस भरे हैं जिन्हें वह अक्सर दागता रहता है। इनसे काम न चले तो वह हाथ छोड़ने में भी नहीं हिचकता। अलबत्ता ऐसे मौको पर वह जरूर ध्यान रखता है कि सामने वाला बंदा उससे ताकत और हैसियत में कमजोर भर हो। रही बात गुप्त रोगों वाले इश्तिहारी मर्द की तो बंदा वहाँ भी सौ फी सदी टंच है। इसका पक्का सबूत ये है कि उसने पिछले पंद्रह  सालों में तीन शादियां कीं और उन बीवियों को इतनी... इतनी मर्दानगी दिखाई कि पहली  पूरे दो  साल टिकी। उसने इन दो सालों में लगभग एक दर्जन बार माथे की पट्टी कराई। तीन बार पूरे बदन की सिंकाई कराई  और हड्डी तुड़वाने का मौका तो उसे सिर्फ़ एक ही बार मिला। दूसरा मौका मिलने ही वाला था कि उसके अंदर पी टी ऊषा की आत्मा प्रवेश कर गयी। वह भागी... ऐसी भागी कि सीधी अपने बाप के घर आकर रुकी। उसके बाद उसने ससुराल जाने का नाम नहीं लिया।
 छंगा ने पूरे तेरह महीने  और बीस दिन उसका, इंतज़ार किया l फिर वह सत्तर कोस दूर के एक गाँव से एक  औरत को ब्याह लाया। इस औरत ने पूरे चार साल छंगा की मर्दानगी को चुनौती दी। वह नाश्ते में बेनागा चार डंडे, दोपहर को चार-छह घूंसे का भोजन और रात को दस बारह थप्पड़ों के साथ रात का खाना खाती रही। उसके अलावा दारू के साथ चढ़ने वाली छंगा की दुर्दांत टाइप की मर्दानगी भी झेलती रही। उसके बाद भी, वह अपनी हिम्मत के बलबूते पर छंगा की बीवी कहलाने का गौरव प्राप्त करती रही। एक दिन दारू के नशे में छंगा ने उसका हाथ तोड़ दिया, इसी के साथ ही उस औरत की हिम्मत ने भी उसका साथ छोड़ दिया। वह एक बार गयी तो ऐसी गयी कि बीती जवानी की तरह फिर नहीं लौटी।
 इस घटना से छंगा की मर्दानगी को इतनी ठेस लगी कि वह पूरे तीन साल  तक पत्नी रहित रहा। इन तीन सालों में उसने बहुत काम किया l दरज़नो कोठे आबाद किये l खेतों में/ घर में  काम करनेवाली नौकरानियों की गरीबी के सौदे किये । दो चार बार फंसने की नौबत आई तो अपने ख़ास गोबरधन की मदद ले ली l किस्सा कोताह ये कि इस अवधि में छंगा चुप नहीं बैठा , नए नए शिगूफे खिलाता रहा,  साथ ही बीवी नंबर दो के पास वापस आ जाने के पैगाम भी  भिजवाता रहा। वहाँ से ‘ना’ की पक्की चिट्ठी आ जाने के बाद, उसने फिर एक ब्याह रचा डाला।
 बीवी नं. 3 उसकी मर्दानगी के आगे शुरू से ही कमजोर रही। फिर भी उसने अपनी हिम्मत, मेहनत और बर्दाश्त करने की ताकत के बल पर पूरे तीन  साल  और सात  महीने छंगा की मर्दानगी को झेला। उसके बाद वह भी टिल्ली-लिल्ली झा हो गयी।
 छंगा ने इसके बाद फिर से अपने हाथ पीले कराने का अभियान शुरू कर दिया। पर आसपास के इलाकों में उसकी प्रसिद्धि इतनी अधिक फैल चुकी थी कि लड़की तो दूर, कोई विधवा, परित्यक्ता भी उससे ब्याह करने की हिम्मत नहीं जुटा पायी।
और कोई होता तो हारकर चुपचाप बैठ जाता या पुरानी बीवियों से ही घर वापसी की जुहार लगाता। पर छंगा तो  मर्द था, वो भी दबंग मर्द। वह भला कैसे हार मान  जाता ? वह अगले साल ही  बिहार से बीस हजार में एक सत्तह बरस की लड़की खरीद लाया। लड़की के घर में उसके बाप और पांच बहनों के साथ भुखमरी नाम की  एक मोहतरमा और रहती थी। जो लड़की के जवान होते ही, बाप को उसकी बिक्री करने को उकसा देती थी l  सो वह बेटी के जवान होते ही वह उसे सालाना बाज़ार में बेच आता था। अलबत्ता पंडितजी की मेहरबानी से उस पर ठप्पा ब्याह का जरूर लगवा लेता था। इस बिक्री से उसके घर का साल भर का खर्चा चल जाता था और बेटी के जीवन भर के दाना-पानी का जुगाड़ हो जाता था।
 छंगा की चौथी बीवी छबीली , दुबली पतली रास की मरियल सी छोकरी थी। सांवला रंग, लम्बोतरा चेहरा, मोटी-मोटी आँखें और जगह-जगह से झांकती हड्डियाँ। कुल जमा यही हुलिया था उसका। चलते-फिरते कंकाल जैसी लगती थी। सच बात तो ये थी कि अन्न  भर पेट मिले तब बदन पर  मांस आता है। छबीली के घर में तो हफ्ते में चार-छह बार से ज्यादा पेट भर खाना ऐय्याशी था सो ऐसे में बदन पर मांस भी उसी अनुपात में आया था ।
 पर छंगा के घर आकर छबीली को और कुछ मिला ना मिला पर दोनों जून का खाना जरूर मिला। बस इस दो जून के खाने के लिए उसे कीमत जो है, वो अच्छी खासी चुकानी पड़ी। सुबह-शाम लात-घूंसे और रात को छंगा की दारूनोशी के बाद की चढ़ाई। रोज़ छंगा नशे में टल्ली होकर आता और उस पर चढ़ाई कर देता। रात-रात भर वह गर्भिणी गाय सी डकराती, हाथ पैर-जोड़ती। बदन के दर्द की शिकायत का हवाला देती, हड्डियों की जकड़न से उपजी मज़बूरी बताती। पर दबंग मर्द के आगे उसकी कहाँ चलती। वह ज्यादा ना-नुकुर करती। रोना-चिल्लाना करती। छंगा पर उतनी ही मर्दानगी चढ़ती जाती। वह मारते-मारते उसका बदन सुजा देता। कई बार तो वह बेहोश तक हो गयी पर दबंग मर्द ने उसे अपनी मर्दानगी दिखाए बगैर फिर भी नहीं छोड़ा l
 इसी तरह सात-आठ साल गुज़र गये। इन सात-आठ सालों में बहुत कुछ बदल गया। दोनों जून के अच्छे खाने से छबीली की मरियल काया पर मांस चढ़ आया। तीन टाइम की बेनागी पिटाई ने उसके बदन को मज़बूत बना दिया। हर वक्त की गाली-गलौच ने उसकी जुबान की बंद नसें भी खोल दीं। किस्सा कोताह ये कि अब छबीली सात-आठ बरस पहले की मरियल, सहमी-सिमटी सी छबीली ना रहीं। उसकी जगह एक 24-25 बरस की सांवली सलोनी, मज़बूत छबीली ने ले ली थी। छबीली की जवानी का ग्राफ ऊपर को जा रहा था पर अपने दबंग मर्द उर्फ चौधरी छंगा सिंह के मामले में ये उल्टा चल रहा था। वह अब पचास के ऊपर  पहुंच चुका था। यानी उसकी उम्र की दुकान में माल कम बचा था। बची-खुची कसर कोठे बाज़ी, दारू और हरामखोरी के चूहो ने पूरी कर रखी थी। सयाने शुरू से कहते हैं कि ऐसे हालात बन जायें तो एक टैम पे, मर्दानगी के फूल भी मुरझाने लगते हैं। छंगा के मर्द को भी अहसास तो होने लगा था पर दारू की गमक, मूंछों की छनक और दबंग होने  की रमक में  इस अहसास को वह खुद से छुपाता रहा था। बाद में हारकर उसे गुप्त रोग विशेषज्ञो की शरण लेनी पड़ी। उन्होंने मर्दानगी के फूलो को तरोताज़ा बनाय रखने के लिए, उसके शरीर के गमले में शिलाजीत,सफ़ेद मूसली  और जाने-जाने कौन सी औषधियों की खाद डाली। जाने माने वैद्यों  की भस्मों और आसवों ने उसमें पानी डाला। कुछ दिनों तक मर्दानगी की क्यारी में बहार आई जरूर पर कुछ ही दिनों में ये बहार फिर रूठ गयीं।
 अब छंगा का बाहर जाना लगभग बंद हो लिया। खेतों-क्यारियों में भी घसियारनें, निश्चिंत होकर जानवरों के लिए चारा  काटने लगीं। कोठो की आवाज़ाही में विध्न पहले ही पड़ लिया था। अब मर्दानगी के परिक्षण का आखिरी अखाड़ा जो बचा था- उसका नाम था घर। घर जिसे छबीली नाम की मोहतरमा संभालती थी और छंगा की चौथी बीवी की पोस्ट पर तैनात थी। छंगा को यकीन था कि चाहे उसकी मर्दानगी का डंका कहीं और बजे ना बजे पर घर में तो उसका राज है । इस साम्राज्य को बनाए रखने के लिए वह मेहनत भी पूरी करता था। साम्राज्य पर चूंकि खतरा मंडरा रहा था, सो उसे ऐहतियातन मुस्तैदी बरनी शुरू कर दी थी l अब उसने बिना गालियों के छबीली से बात करना बंद कर दिया था । थप्पड़-घूंसों वाली पिटाई की हफ्ते में  तीन बार की तय मात्रा बढ़ाकर छह बार कर दी थी। पर चाहकर लाठी का प्रयोग नहीं बढ़ा पाया था क्योंकि लाठी उठाने के बाद घंटो हाथों की नसें दुखती थीं। कई दिन मालिश करानी पड़ती थी। पर मज़बूरी थी, बीवी सभालनी भी तो जरूरी थी। अब उसने रात को छबीली के कमरे में जाना भी कम कर दिया था। अगर दारू के नशे में चला भी जाता तो थोड़ी देर बाद ही छबीली के उलाहने में सारा नशा उतर जाता। नशा दुबारा चढ़ाने के लिए उसे लाठी का इस्तेमाल करना पड़ता। इससे दो फायदे हो जाते, नशा दुबारा जम जाता और छबीली की जुबान, उसकी मर्दानगी के कसीदे पढ़ने से भी रुक जाती।
 पर एक दिन इस लाठी का इस्तेमाल भी बंद हो गया। उस रात जब वह दारू पांनी के बाद, छबीली के कमरे में घुसा। कुछ नोचा-नाची सी की तो छबीली के मुंह से निकल ही गया-,‘’ रहने दो,अब  तुम ये नोचा-घसीटी ही कर सकते हो।बाकी तुम्हारे बस का कुछ ना है।‘’ सुनते ही छंगा के खून का टैम्परेचर बढ़ गया। उसने पहले राऊन्ड में दर्जन भर गालियां दी, चार-छह थप्पड़ भी रसीद कर दिए, चीख के रूप में उनकी पावती भी ले ली। पर उससे छबीली की आँखों की हिकारत कम ना हुई। इस हिकारत की बीमारी के इलाज के लिए उसे लट्ठ नामक यंत्र का उपयोग ही बेहतर लगा। उसने जैसे ही मारने के लिए लट्ठ ऊपर उठाया। लंबी-तगड़ी छबीली ने ऊपर से ही लट्ठ को पकड़ कर छीन लिया। छंगा ने अपने बाजुओं और दारू की सारी ताकत लगा दी पर लट्ठ नहीं छीन पाया। अलबत्ता इस धक्का-मुक्की में वह ज़मीन और सूंघ  गया। थोड़ी देर बाद हिम्मत करके उठा। और मज़बूरी में, अपनी मर्दानगी की क्यारियों में, गालियों का पानी छोड़ते हुए बाहर आ गया। अलबत्ता लाठी छबीली ने अपने पास ही रख ली l
 उस रात  पूरी बोतल चढ़ा लेने के बाद भी उसे नींद नहीं आई।
 इस घटना के बाद छंगा के मर्द में कई गुणात्मक परिवर्तन हुए। उसका गांधी जी के अंहिसा के सिद्धांत में विश्वास बढ़ने लगा। लाठी का प्रयोग पहले ही वर्जित हो चुका था। धीरे-धीरे थप्पड़-चालन क्रिया भी मंदी पड़ने लगी। मर्दानगी की मेंटीनेंस का सारा दारोमदार गालियों तक सीमित होकर रह गया। छबीली के कमरे में एक-दो बार गया भी तो वहाँ अपनी लाठी पड़ी देखकर चुप-चुपाने बाहर आ गया।
 अब छंगा का मर्द खुद को बूढ़ा मानने लगा था।वह दिन भर मूंछों पर ताव देकर गाँव-जवार में घूमता। नौकरों को गलियाता। रात को लालपरी की बोतल खोलता, हर पैग के साथ गालियों की मात्रा बढ़ाता जाता। छबीली, उसके बाप, अपनी पुरानी बीवियो, पड़ौसियों सभी की माँ-बहनों से जुबानी रिश्ता बनाता, कुछ देर बहकता, अंत में थक-हारकर सो जाता।
 उस रात भी वह सारे शराबोचित काम निपटाकर सो रहा था। रात के लगभग तीन बजे होंगे। एकाएक खटके से उसकी आँखें खुली। वह हड़बड़ा सा गया। उसे लगा जैसे बरामदे से होकर दबे-कदमों कोई अंदर के कमरे की ओर जा रहा है। जरूर चोर होगा। इतना सोचते ही उसने सरहाने रखा कट्टा उठाया। और बिना आवाज़ किये बाहर आ गया। उसने देखा कि वह चोर सीधे छबीली के कमरे में घुस गया। घुसते ही उसने अंदर की सांकल लगा ली। बस उसका माथा ठनक गया। हे राम ! मर्द के घर मुठमर्दी। नहीं....ऐसा नहीं हो सकता। उस जैसे दबंग मर्द की बीवी ऐसी नहीं हो सकती। नहीं... उसे स्वीकार करने में वक्त लगा। फिर क्रोध में भुनते हुए उसने सोचा, क्यों टाइम पास करूं सीधे दरवाज़ा ना खटखटा दूँ। उसने दरवाज़ा खटखटा दिया। अंदर से आ रही। खुसर-पुसर की आवाजें बंद हो गयीं। छंगा ने दरवाज़ा फिर जोर से खटखटाया- और चिल्लाया-,‘’ बाहर निकल हरामी, छंगा की इज्ज़त से खेलता है। आज तुझे जिंदा नहीं छ़ोडूगा।‘’ उसका इतना कहना था कि तेज़ी से दरवाज़ा खुला। एक आदमी तेजी से उसे धक्का देता हुआ बाहर की ओर भागा। उसके धक्के से वह कट्टे समेत ज़मीन पर जा गिरा। उठते-उठते उसने देखा कि वो चोर और कोई नहीं उसका नौकर मन्नू पासी था। उसने अपना माथा ठोक लिया। मन किया कि कटते से गोली दाग दे उस पर l कट्टा उठाया भी ,निशाना भी लगाया पर जाने क्या दिमाग में आया कि ट्रिगर नहीं  दबाया l बहुत देर तक वह मन्नू पासी के घर की औरतों से अपने जुबानी रिश्ते बनाता रहा l  उसके बाद उसने धर लिया छबीली को। उसके इश्क की ऐसी खबर ली कि मारते-मारते डंडा भी टूट गया। थक-हारकर वह अपने कमरे में आ गया। कमरे में आते ही उसने बोतल खोल ली और नीट ही डकार गया। नींद आने से ऐन पहले उसने प्रण कर लिया कि इस मन्नू पासी के बच्चे की पहले सुताई करेगा,उसके हाथ पैरों को शरीर से अलग करेगा , फिर उसे काम से निकाल देगा। उसी ने उसकी भोली छबीली को बरगलाया है।
 किन्तु  उसे अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने का मौका नहीं मिला क्योंकि सुबह जब वह सोकर उठा तो उसने देखा कि मन्नू अपने साजो सामान के साथ घर से रफू-चक्कर हो चुका था। उसके सामान में छबीली और उसके गहने रुपये भी थे। छबीली के कमरे और उसकी तिज़ोरी की हालत सारी कहानी बयान कर रही थी। यह दृश्य देखकर वह बेहोश होने की अवस्था को प्राप्त हुआ। क़ाफ़ी देर तक उसी अवस्था में पड़ा रहा। होश आने पर उसने पहला काम अपने खास आदमी गोबरधन के पास जाने को किया। उसके कान में सारा वाक्या फुसफुसाकर बयान  किया। इस किस्से ने गोबरधन की बटन जैसी आँखें बजरबट्टू जैसी बना दी। पहले तो उसने मन ही मन मन्नू पासी की किस्मत से रश्क किया। अपनी किस्मत को कोसा कि मन्नू की जगह वो क्यों नहीं था। उसके बाद उसने जो पहला वाक्य उचारा – वो ये था।
‘’मालिक, मालकिन ने तो आपको कहीं का नहीं छोड़ा। लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे। मालकिन वापस नहीं आईं तो आपकी नाक ही कट जाएगी।‘’ उसके ऐसा कहते ही छंगा ने घबराकर अपनी नाक पर हाथ रख लिया और वे दोनों मिलकर छबीली को खोजने और उसे वापस घर लाने की योजनाएं बनाने लगे। आखिर इलाके में नाक भी तो बचानी थी। वैसे भी नाक के अलावा छंगा के पास बचा ही क्या था।
 अगले दिन से गोबरधन ने छबीली-खोज अभियान शुरू कर दिया। चार दिन बाद खबर आ गयी कि मन्नू और छबीली पास के शहर में किराये के मकान में रह रहे हैं।
छंगा को इस खबर से काफ़ी शान्ति मिली। नाक की प्लास्टिक सर्जरी की संभावनाएं पनपने लगीं। उसने ऐहतियातन कट्टा कमर में ठूंस लिया कि छबीली राजी से आये तो ठीक  नहीं तो  गैर-राजी कट्टे के बल पर ले आयेगा। पर गोबरधन ने रोक दिया-,‘’ मालिक वह हमारा गाँव नहीं शहर है, किसी को हवा लग गयी कि आपके पास हथियार है तो मालकिन के पास जाने की जगह जेल चले जाओगे। नाक दो-दो बार कट जायेगी।‘’
 छंगा ने इसके बाद भी फेंटे से कट्टा नहीं निकाला तो गोबरधन ने एक और तीर छोड़ दिया। बोला-,‘’ मालिक, मान लो, छिप-छिपाकर हम कट्टा ले भी गये तो आपसे कौन सा गोली चलेगी। जानते हो ना कित्ता  जोर लगता है, घोड़ा दबाने में। बची है इत्ती जान अंगुलियों में ?‘’ कहकर वह व्यंग्य से मुस्करा दिया। उसकी मुस्कान से छंगा की हिम्मत पस्त हो गयी। कट्टा फिर से मेज की दराज़ में ही पहुंच गया।
 शाम को ठीक पांच बजे वे दोनों छबीली-मन्नू के ठिकाने पर पहुंच गये। छंगा ने गोबरधन को घर के बाहर ही खड़ा कर दिया और कमरे में घुस गया। उस समय छबीली और मन्नू बिस्तर पर लेटे-लेटे एक-दूसरों के नैनों की झील में तैराकी कर रहे थे। तभी उस झील में पत्थर सा फेंकने की आवाज़ आई। दोनों ने चौंककर देखा तो पत्थर के रूप में साक्षात छंगा खड़ा था। छंगा को देखते ही मन्नू पासी ने दरवाज़े की ओर छलांग लगानी चाही पर छबीली ने उसे रोक लिया। छंगा को यह देखकर कट्टा साथ न लाने का अफसोस हुआ। वरना इस दृश्य को देखकर वह दोनों हाथों से पकड़कर ही सही गोली जरूर चला देता। उसकी आँखों से आग की लपटें निकल रहीं थीं। पर उनसे मन्नू जरूर तप रहा था, पर छबीली नहीं l वह चारपाई से उठी और ऐन छंगा के सामने खड़ी हो गई और उतने ही तनाव से बोली –
 -,‘’ क्यों चौधरी, अब यहाँ क्या लेने आया है ?‘’
 - “तुझे, अपनी बीवी को।“ छंगा ने खुद पर जब्त करते हुए जवाब दिया।
 - “किसकी बीवी ? तीन बीवियों को बिना तलाक दिये शादी की है। ऐसा ब्याह कोरट में कोई नहीं मानता l ज्यादा करेगा तो बिना तलाक दिये,दूसरा  ब्याह रचाने में जेल जाना पड़ेगा। समझा कुछ... आया बड़ा मुझे ले जाने वाला।“
 - “ये तू क्या कह रही है। लगता है शहर आते ही कोरट-कचहरी की हवा लग गयी है।“ छंगा ने शब्दों के तीरों को ज़हर में बुझाते हुए कहा।
 - “हाँ लग गयी है तो...। वकील साब से मिल ली हूँ। उन्होंने कहा है पाँच सात दिन में ब्याह करा देंगे।“
 - “र तू... तू तो मेरी बीवी है।“ छंगा शादी की बात सुनते हड़बड़ा गया।
 -“ किसकी बीवी, कैसी बीवी... तुझ बुड्ढे के पास धरा क्या है ? मार-पीट, गाली गलौच बस यही ना.? .. ना... मुझे ना जाना उस नरक में वापस...” छबीली धमक के बोली l
छंगा के पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक गयी l कहाँ तो वह सोचता था कि उसे देखते ही छबीली दर जायेगी ,वह चार हाथ मारेगा और उसे बाल पकड़कर घसीटते हुए उसे वापस ले आएगा पर यहाँ तो मामला बिलकुल उलटा पड़ चुका था l उधर गाँव में छबीली वापस नहीं गयी तो बेइज्जती बहुत होगी l वैसे भी घर बाहर सब उसने ही सम्हाल रखा था l वो ना रही तो रोटियाँ भी मुश्किल से मिलेंगी l उसकी आँखों के आगे भविष्य घूमने लगा l बुढापे ने मर्दानगी को  झुकने पर मज़बूर कर दिया l वह फूट पड़ा -
 - “ना... ना... रामजी की सौं... अब कुछ ना कहूंगा। ना गाली-गलौच, ना मार-पीट। भरोसा कर.... देख मेरे घर की इज्जत तेरे हाथ में है। तू घर ना लौटी तो मेरी नाक कट जाएगी। लोग कहेंगे छंगा की लुगाई भाग गयी। मान जा... वापिस चल....” कहते-कहते छंगा की आँखों में पहले भरी आग, नीर भरी बदली में बदल गयी और उसमें से थोड़ी देर में पानी बरसने लगा।
 - अब छबीली और मन्नू दोनों ही हतप्रभ से खड़े थे। छबीली ने तो उसे गुर्राते, हाथ उठाते, जबरदस्ती करते ही देखा था। यहाँ तो वो अपनी मर्दानगी समेत रो रहा था। उसने कुछ सोचा। फिर छंगा को वहीं बैठा छोड़कर मन्नू को बाहर ले गयी। दोनों में फुसफुसाहट की भाषा में बात हुई। तय ये हुआ कि गहने-पैसे बहुत दिन ना चलेंगे। वहां इतनी बड़ी हवेली छोड़कर एक-एक कमरे के किराये के कमरो में भटकना पड़ेगा। फिर हारकर मेहनत-मज़ूरी ही करनी पड़ेगी। इन सारे मुद्दो पर फुसफुस विमर्श हुआ। फिर छबीली ने मन्नू के कान में कुछ ख़ास कहा। उसे सुनते ही उसकी आँखें फैलकर कानों को गयीं। शब्दों में कहें तो मन्नू ने सिर्फ़ इतना कहा क्या ऐसा हो सकै हैं ? छबीली उवाची – देखते हैं।
 उसके बाद छबीली मन्नू का हाथ पकड़कर फिर छंगा के सामने आ डटी। दोनों को साथ देखकर छंगा को लगा जैसे उसने नीट शराब का घूंट मार लिया हो, पर इज्जत का सवाल था, सो वह जी कड़ा कर के घूंट पी गया। उसने छबीली से पूछा – बोलो क्या कहती हो। चलोगी, मेरे साथ ?
“हाँ चलूंगी, पर मन्नू भी मेरे साथ चलेगा ?” छबीली ने सौदेबाजी का पहला पत्ता फेंका।
छंगा बिलबिला गया। ये  तो बेइज्जती की इंतिहा हो गयी। उसने चौधरियों की आन-बान शान की दुहाई दी। खानदान की इज्जत के फटते कपड़े दिखाये। बदनामी की बाढ़ में डूबता घर दिखाया। पर छबीली इन सारे दृश्यों से कतई प्रभावित नहीं हुई। उसने मन्नू के बिना जाने से इंकार कर दिया। छंगा ने क़ाफ़ी देर सोचा। बहसबाज़ी भी की। अंत में बात का तोड़ इस बात पर छूटा कि मन्नू साथ चलेगा। पर हवेली में छबीली के साथ नहीं रहेगा। अलबत्ता छबीली को उसके कमरे में जाने की छूट होगी। वो भी सिर्फ़ रात को।
छबीली और मन्नू ने इस प्रस्ताव को खुशी-खुशी अनुमोदन दे दिया।
पर मामला अभी खत्म कहाँ हुआ था। छबीली ने एक और डिमांड रख दी कि मैं तब चलूगी जब गाँव की हवेली मेरे नाम करोगे ? इस बात पर छंगा के साथ मन्नू भी चौंक गया। क्योकि मन्नू के साथ फुसफुस विमर्श में ये मुद्दा था ही नहीं। यह छबीली की उपजाऊ खोपड़ी में उगा बीज था।

 हवेली वाले मुद्दे पर छंगा बुरी तरह गर्म हो गया। उठकर बाहर चल दिया। पर फिर दरवाज़े से  ही लौटकर आ गया। सौदेबाजी इस बात पर चली कि हवेली का आधा हिस्सा छंगा छबीली के नाम करेगा। बाकी आधे हिस्से के बदले पाँच बीघे खेत देगा। क़ाफ़ी किल्ला-किल्ली के बाद सौदे पर मुहर लग गयी। इस सौदेबाज़ी में छंगा को आधी हवेली और पाँच बीघे खेतों की चपत लगी। पर यह चपत छंगा को झेलनी ही थी। वरना खानदान की इज्ज़त डूबने का, छंगा की मर्दानगी की नाक वगैरहा कटने का खतरा था। इन सारी अहम चीज़ों के आगे थोड़ी सी प्रॉपर्टी क्या थी ?
 अगले दिन सुबह ही छबीली हवेली में नमूदार हो गयी। उसके पीछे-पीछे मन्नू भी अपने कमरे में पधार गया। छंगा ने वादे के मताबिक हवेली का आधा हिस्सा और पाँच बीघे खेत छबीली के नाम कर दिये। प्रॉपर्टी नाम होने तक छबीली ने मन्नू के कमरे में आवाजाही रखी। रात वाले भी नियम का भी पालन किया। रजिस्ट्री के कागज़ आते ही, मन्नू भी अपना कमरा छोड़कर छबीली के कमरे में शिफ्ट कर गया।
 छंगा ने उस दिन पूरी बोतल शराब पी और रोते हुए छबीली के बंद कमरे की तरफ निहारता रहा। रोता रहा और रोते-रोते भी अपनी नाक पर हाथ फेरकर देखता रहा कि बाहर वालों के लिए तो सलामत है ना।
 कहानी का बस थोड़ा सा हिस्सा बचा है। कालांतर में छबीली रानी ने मन्नू पासी के सहयोग से पूरे नौ महीने बाद एक बच्चा पैदा किया जिनका बाप कहलाने का सौभाग्य चौधरी छंगा सिंह को प्राप्त हुआ। उसका सीना और उसकी नाक दोनों तन गये। उसकी मर्दानगी के किस्से फिज़ाओं में तैर गये। उसने  बेटे के नामकरण  पर एक शानदार दावत भी की। आगे चलकर उसे  चार बार ऐसी दावतें और देने का अवसर मिला। चौथे बच्चे की दावत के बाद उसने हवेली की बाहर की बैठक में शिफ्ट हो गया। मन्नू और छबीली अंदर के कमरों में बने रहे और जनसंख्या वृद्धि के उपायों पर काम करते रहे।
 एक दिन जब छबीली सुबह बैठक में छंगा को चाय देने गई तो उसके बिस्तर पर उसकी जगह एक फाइल और कागज़ पड़ा मिला। गोबरधन को बुलाकर वह कागज़ पढ़वाया गया, उसमें लिखा था –
छबीली, मैं तेरा बहुत अहसान मंद हूँ कि तूने मुझे चार बच्चों का बाप बनने का  सुख   दिया। मेरे खानदान की लाज बचाई। अब इस दुनियां जहान से मेरा मोह खत्म हो गया है। सो मैं घर छोड़कर साधु बनने जा रहा हूँ। अब बाकी की ज़िन्दगी  भगवान की सेवा में गुज़ारूंगा। हवेली और ज़मीन तेरे नाम कर रहा हूँ। कागज़ साथ में रखे हैं। मेरे बच्चों को खूब शानो-शौकत से पालियो । उन्हें बताईयो कि जैसे मैंने अपने घर की नाक बचाये रखी, वैसे ही वे भी बचाए रखें। कुछ भी चला चाए तो वापस आ जाता है। पर नाक एक बार कट जाए तो फिर पहले जैसी नहीं रहती। मुझे ख़ुशी है कि मैं अपनी साबुत नाक के साथ जा रहा हूँ l
बस थोड़ी को बहुत समझियो ..
  राम... राम... बच्चों को प्यार

तेरा पति
छंगा सिंह
 छबीली पत्र की इबारत सुनकर बहुत रोई।  रोने से फारिग होकर उसने भगवान का शुक्रिया अदा किया कि उसने  आख़िरी समय में ही सही उसके पति को सद्बुद्धि दे दी।
 भगवान जैसी सद्बुद्धि तूने छंगा को दी, वैसी उसके जैसी नाक वाले सारे मर्दों को दीजो ।

पलवल के शेखर गुप्ता का ग्लोबल धाक / त्रिलोकदीप



आज शेखर गुप्ता के बारे में लिखने का मन कर रहा है। पिछले दिनों काफी वक्त के बाद उनसे फ़ोन पर बात हुई।इससे पहले कि मैं अपना परिचय दे पाता उनका पहला सवाल था, कैसे हो। अपने आपको कोरोना से अच्छी तरह से बचा कर रखो। क्या आपने मुझे पहचान लिया के उत्तर में बोले, 'सभी कुछ आंखों के सामने आ गया है। होर दस्सो की हो रया है।' हम लोग अक्सर पंजाबी में ही बातें करते हैं। यह पूछे जाने पर कि 'ThePrint' डिजिटल मीडिया की तो खूब धाक है बोले, 'कोशिश कर रहे हैं, सारे साथी भी बहुत मेहनती हैं।' शेखर गुप्ता का नाम भी तो जुड़ा है, जवाब था 'सिर्फ नाम से कुछ नहीं होता आजकल। उसको बनाये रखने के लिए निरंतर परिश्रम करना पड़ता है जिसे हम सभी लोग मिलकर कर रहे हैं। ' आपके फ़ोटो एडिटर प्रवीण जैन और एक रिपोर्टर तो कोरोना का शिकार भी हो गयी थीं? शेखर गुप्ता का कहना था, बावजूद इसके उन्होंने बहुत काम किया। स्वस्थ होने के बाद अब सभी लोग बहुत एतिहाद बरत रहे हैं। प्रवीण से जब उसकी तबियत और 30 जुलाई को उसके जन्मदिन के प्रोग्राम के बारे में पूछा तो उसने बताया, लगता है अहमदाबाद में ही मनेगा। आजकल बहुत चौकस हूं और कभी कभी तीन बार कपड़े बदलने पड़ते हैं।

शेखर गुप्ता से पहली मुलाकात कब हुई ठीक से याद नहीं लेकिन इतना तो दावे के साथ कह सकता हूं कि वह तीस-पैंतीस बरस पहले हुई होगी। यह मोटा मोटी आंकड़ा यों सटीक लगता है कि पंजाब में आतंकवाद हम साथ साथ कवर किया करते थे। शेखर की 'इंडियन एक्सप्रेस' में उनकी पूर्वोतर  की रिपोर्टें पढ़ कर मैं उनका कायल हुआ था। अगर मैं भूलता नहीं तो पंजाब में आतंकवाद वह 'इंडिया टुडे ' में रहकर कवर करते थे और मैं 'दिनमान' से। जब ' इंडिया टुडे ' शुरू हुआ था तो कई लोग दैनिक अखबारों को छोड़ इस साप्ताहिक पेपर में शिफ्ट कर गए थे।  शेखर ने 1983 में इंडिया टुडे जॉइन किया था  और 1995 में पुनः इंडियन एक्सप्रेस में लौट आये। शेखर गुप्ता के अलावा इंडियन एक्सप्रेस, भोपाल के एन. के. सिंह भी  इंडिया टुडे में चले गए थे।  जब शेखर गुप्ता ने  इंडियन एक्सप्रेस में वापसी कर ली, एन. के.सिंह भी अंग्रेज़ी से हिंदी में शिफ्ट कर ' दैनिक भास्कर' का संपादक बन जयपुर चले गये।वहां काफी वक्त गुजारने के बाद वह ' इंडियन एक्सप्रेस', अहमदाबाद संस्करण के स्थानीय संपादक बन गये।  एन. के. सिंह से मैं दो बार मिला, पहली बार डाकू मलखान सिंह के आत्मसमर्पण के समय और दूसरी बार अहमदाबाद में शिष्टाचार के नाते। बात शेखर गुप्ता की चल रही थी। इंडियन एक्सप्रेस में वापसी कर उन्होंने खूब तरक्की की और वह Editor- in- chief के पद तक पहुंचे। वह रिपोर्टर से एडिटर इन चीफ के पद पर पहुंचने वाले कुछ विरले पत्रकारों में से थे। उनसे पहले गिरिलाल जैन टाइम्स ऑफ इंडिया के प्रमुख संपादक बने थे। सुरिंदर निहाल सिंह पहले कभी पाकिस्तान में रिपोर्टर थे बाद में स्टेट्समैन के संपादक हुए।यही बात इंदर मल्होत्रा पर भी लागू होती है। इंडियन एक्सप्रेस में शेखर गुप्ता के आलेखों को खास तौर पर उनका साप्ताहिक कॉलम 'National Interest'बड़े चाव से पढ़ा ही जाता था।उनका टीवी चैनल पर 'वॉक द टॉक' और हिंदी में ' चलते चलते' भी बहुत लोकप्रिय रहे हैं। इसीलिए उन्हें ' हरफनमौला'' पत्रकार भी कहा और माना जाता। अंग्रेज़ी के अलावा उनका हिंदी, पंजाबी और उर्दू पर समान अधिकार है। शेखर की एक और सिफत है। वह बहुत ही सादे लिबास में रहते हैं। उनका अपना एक 'ट्रेड मार्क' है। अमूमन वह अपनी पूरी बाजू की कमीज को आधी बाजू में मोड़ लेते हैं। हल्की सी सर्दी होने पर वही अपनी पूरी बाजू से आधी बाजू की गई शर्ट पर जैकेट पहन लेंगे। कभी मौका मिले तो गौर कीजिएगा। इस का राज़ अभी तक मैं नहीं जान पाया हूं, आप कोशिश कीजिएगा।

रेपोर्टरी उनके रग रग में बसी हुई है। इसे आप शेखर गुप्ता का 'पहला प्यार ' भी कह सकते हैं। पंजाब में आतंकवाद कवर करने के लिए जिस तरह का जोखिम वह उठाया करते थे शायद ही दूसरा कोई पत्रकार उठाता होगा।उन्होंने आपरेशन ब्लूस्टार  स्वर्ण मंदिर के भीतर रहकर कवर किया था। जहां तक मुझे याद पड़ता है टाइम्स ऑफ इंडिया के सुभाष किरपेकर भी तब स्वर्ण मंदिर में थे।  बावजूद दूसरे पत्रकारों की उपस्थिति के शेखर अपने एक्सक्लूसिव संवाद तलाश कर ही लिया करते थे और इसीलिए उन्हें जोखिमयाफ्ता विशिष्ट  पत्रकार कहा जाता था। पंजाब में कई बार हम साथ साथ दीख जाते थे इसमें कोई नई बात नहीं।वह इसलिए कि पंजाब में आतंकवाद कवर करने के लिए देश -विदेश के पत्रकार  आया करते थे। बीबीसी के मार्क टल्ली और सतीश जैकब भी मिल जाया करते थे। पंजाब के अलावा शेखर गुप्ता ने 1983 में असम में नेल्ली हत्याकांड जैसी महत्वपूर्ण  और बड़ी स्टोरीज़ कवर करके अपनी पत्रकार बिरादरी के साथ साथ देश के सत्ता के गलियारों में भी धाक जमा ली। शेखर गुप्ता  राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय क्षितिज पर उस समय और चमके जब 1991 में बगदाद  से उन्होंने खड़ी युद्ध कवर किया था। उस युद्ध को कवर करने वाले शेखर कुछ चुनिंदा भारतीय पत्रकारों में से थे।  ऐसी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय महत्वपूर्ण कवरेज के चलते शेखर गुप्ता की अहमियत के साथ लोकप्रियता भी बढ़ गयी।

शेखर गुप्ता अब एक धाकड़ पत्रकार बन चुके थे। उन्हें एक बार  फिर से इंडियन एक्सप्रेस के मालिकानों ने याद किया। इस का प्रमुख कारण शायद इंडियन एक्सप्रेस जिस तरह के तेवरों के लिए जाना जाता है उस तरह के धारदार संवादों से मरहरूम होते लगता था।  मालिकानों द्वारा अपनी तरफ से पहले अरुण शौरी औऱ बाद में सुमन दुबे को संपादक का दायित्व सौंपा गया। दोनों बेहतरीन पत्रकारों के अतिरिक्त रिश्तेदारी  भी थे लेकिन मालिकानों की अपेक्षाएं कुछ ज़्यादा ही थीं। कुछ समय तक प्रभु चावला ने भी इंडियन एक्सप्रेस की संपादकी की। जब ये सभी प्रयोग सार्थक सिद्ध नहीं हुए तो एक बार फिर नज़र टिकी शेखर गुप्ता पर।  अब वह देश के नामी पत्रकार बन चुके थे और इंडिया टुडे को एक से एक बढ़कर स्टोरियां दी  थीं। लिहाज़ा 1995 में शेखर गुप्ता की इंडियन एक्सप्रेस में बड़े पद पर वापसी हुई , एक बड़ी चुनौती के साथ। शेखर ने दिनरात मेहनत करके इंडियन एक्सप्रेस की पहले जैसी साख वापस दिला दी।इसे आप दिलचस्प संयोग कहेंगे या  समझौता कि  दोनों संस्थान  यानी इंडियन एक्सप्रेस और इंडिया टुडे बिना किसी तरह की रंजिश एक दूसरे के यहां पत्रकारों को आने जाने की खुली छूट देते रहे हैं। सुमन दुबे से मैं एक बार तत्कालीन गृहमंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद के यहां जब मिला तब वह इंडिया टुडे में थे , दूसरी बार हैदराबाद में  कृष्णा ओबेरॉय होटल में मिला तो वह राजीव गांधी के सलाहकार थे और 21 मई, 1991 में बैंगलोर में मेरी मुलाकात राजीव जी से उन्होंने ही तय करायी थी। प्रभु चावला भी इंडिया टुडे से आये थे और वहीं वापस लौट गये।

शेखर गुप्ता पाकिस्तान की राजनीतिक गतिविधियों पर भी नज़र रखते थे। वहां के बड़े और महत्वपूर्ण नेताओं से उनकी खासी करीबी थी। मेरा भी  1990 और उसके बाद पाकिस्तान में काफी आना जाना रहता था। 'संडे मेल' के मालिक संजय डालमिया चाहते थे कि दोनों देशों के बीच एक गैरराजनीतिक सम्मेलन हो जिसमें दोनों तरफ के संस्कृतिकर्मी, साहित्यकार,  पत्रकार, पूर्व न्यायाधीश, पूर्व राजनीतिक-राजनयिक आदि शामिल हों ताकि दोनों ओर मेलजोल की खिड़कियां खुलें। इस मुद्दे को ध्यान में रखते हुए मैंने लाहौर, रावलपिंडी, इस्लामाबाद, पेशावर और कराची का दौरा किया। मेरा मेज़बान मुझे एक दिन के लिए मुजफ्फराबाद भी ले गया। जितने लोगों से भी बातचीत हुई उन्हें यह आईडिया खूब भाया। दिल्ली में आकर हम तैयारियों में जुट गए, एक बार खड़ी युद्ध की वजह से सम्मेलन रद्द करना पड़ा।  दूसरी बार नवंबर,  1991 में हुआ जो बहुत कामयाब रहा।इस पर फिर कभी। पाकिस्तान की राष्ट्रीय असेंबली के चुनाव कवर करने के भी मुझे कई मौके मिले।   ऐसे ही एक मौके पर लाहौर में मैं अवारी होटल में
 सुबह का नाश्ता करने के लिए रेस्तरां में गया तो अचानक मेरी नज़र एक अलग  कमरे में बैठे शेखर गुप्ता पर पड़ी। वह आम लोगों से हट कर बैठते हैं ,यह उनकी स्टाइल है। मैंने जाकर हेलो की तो उठकर गले मिले। तुम कब आये। बताया कल ही आया हूं। शिष्टाचारी बातचीत के बाद अपने अपने प्रोग्राम पर चर्चा भी हुई। पाकिस्तान के सत्ताधारियों में शेखर की खासी पैठ रही है। भूतपूर्व प्रधानमंत्री मियां नवाज़ शरीफ के करीबियों में वह माने जाते रहे हैं। वह शायद पहले भारतीय पत्रकार हैं जिन्हें पाकिस्तान का स्थायी वीज़ा प्राप्त था।शेखर की उस दिन लाहौर में कई मुलाक़ातें तय थीं और मेरी अपनी अलग। साथ साथ नाश्ता करने के बाद इस वादे के साथ अलग हुए कि इंशाल्लाह कराची में भेंट होगी। कराची में भी मैं अवारी होटल में ही ठहरा था। उसके मालिक बैरम अवारी से जब मिला तो पता चला कि शेखर गुप्ता आये तो थे, कहां चले गए कह पाना मुश्किल है। नामुमकिन नहीं वह हैदराबाद चले गये हों।कराची तो हर कोई आता जाता रहता है उसके आगे जाने की हिम्मत सिर्फ शेखर ही कर सकता है। बैरम अवारी कभी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ के संसदीय सचिव हुआ करते थे और पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों में उनकी खासी पैठ है। एक बार तो उन्होंने भारत में भी होटल खोलने का मन बनाया था, लगता है बात बनी नहीं। बहुत ही ज़हीन इंसान हैं बैरम अवारी।एक बार उन्हें कहीं से पता चला कि मैं बीमार हूं और सर गंगाराम अस्पताल में भर्ती  हूं । उन्होंने एक बहुत ही खूबसूरत पुष्पगुच्छ भेजा इस इबारत के साथ कि जल्दी सेहतमंद हो जायें, एक बार फिर आपके साथ बैठने की मन में हसरत है। अपनी पाकिस्तान की उस यात्रा में शेखर गुप्ता से कराची  में भेंट नहीं हो पायी। दिल्ली में मुलाकात होने पर बोले,' यार अचानक किसे दा फोन आ गया सी, नसना पै गया '।

शेखर गुप्ता का सहयोग जब जब मैंने चाहा मुझे मिला।' संडे मेल' के लोकार्पण समारोह में उन्होंने शिरकत की। बाद में रामकृष्ण जयदयाल सद्भावना पुरस्कार समारोह का विशेष अतिथि बनने का अनुरोध मेरी सहयोगी श्रीमती नफीस खान ने किया उसे स्वीकार कर हमें कृतार्थ किया। नफीस जी के आग्रह पर मैंने अलबत्ता उन्हें एक बार स्मरण करा दिया था। समारोह से पहले के डिनर में वह अपनी बेटी के साथ डालमिया हाउस आये थे। उनकी मुलाकात सम्मानित किए जाने वाले जिन व्यक्तियों से कराई गई उनमें से कुछ से वह पहले से परिचित थे। सम्मान पाने वाले लोगों में प्रमुख थे अंग्रेज़ी के लिए डॉ. मुशीरुल हसन, हिंदी के जय शंकर गुप्ता, उर्दू के परवाना रूदौलवी, पंजाबी के हरभजन सिंह हलवारवी, बंगला के नाबनीत देव सेन, कारगिल कवरेज के लिए विशेष पुरस्कार विजेता बरखा दत्त औऱ गौरव सावंत आदि। शेखर गुप्ता ने हरेक से साथ साथ और अलग अलग बातचीत भी की। संजय डालमिया का आभार जताया और नफीस जी का शुक्रिया अदा करते हुए कहा कि कल मिलते हैं। डिनर पर हम दोनों पंजाबी में गपियाते रहे। कुछ लोगों को शेखर को ठेठ पंजाबी में बोलते हुए अचरज भी हुआ। अगले दिन निश्चित समय पर शेखर गुप्ता पहुंच गये। मुझे एक तरफ ले जाकर कहा कि 'मैंनू की बोलना है। ' मैंने हंसते हुए कहा कि 'आप जैसे बंदे को मुझे बताने की कब से ज़रूरत पड़ गयी। मैं जिस शेखर गुप्ता को जानता हूं वह और उसकी सोच लाजवाब है, बेमिसाल है। ' हंसते हुए शेखर बोले,'ओ रहन दे यार' कह कर वह मंच की तरफ बढ़ गये। दूसरी तरफ मैंने बरखा दत्त1को परेशान देखा तो इसका सबब पूछा। बताया मेरे पिताश्री ने यहां आने का वादा किया था, लगता है हमेशा की तरह भूल गये। बहरहाल, शेखर गुप्ता का भाषण बहुत ही प्रेरक रहा जिसे उपस्थित लोगों और सम्मान प्राप्त लोगों ने भी खूब सराहा। संजय डालमिया के सांस्कृतिक और सामाजिक सरोकारों का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि देश के दूसरे उद्योगपतियों को उनसे सीख लेनी चाहिए कि मानवता की सेवा कैसे की जाती है। अपने धन्यवाद भाषण में डॉ. मुशीरुल हसन ने संजय डालमिया के साथ साथ श्रीमती नफीस खान की कर्तव्यनिष्ठा का ज़िक्र करते हुए सम्मानित लोगों की तरफ से आभार व्यक्त किया।

कौटिल्य प्रकाशन ने केपीएस गिल पर एक बहुत ही खूबसूरत पुस्तक प्रकाशित की है। उसके प्रकाशक राजू अरोड़ा और कमल नयन पंकज ने मुझे ,जस्विन जस्सी और कमलेश कुमार कोहली को भी आमंत्रित किया। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में बहुत ही भव्य और गरिमापूर्ण समारोह आयोजित किया गया जिसका उद्घाटन शेखर गुप्ता ने किया। मेरी सहयोगी बनाम मित्र सुनीता सभरवाल से भी मुलाकात हो गयी।  जैसे मैंने पहले लिखा है पंजाब में आतंकवाद को जिस शिद्दत के साथ शेखर गुप्ता ने कवर किया था वैसा शायद ही किसी अन्य पत्रकार ने किया होगा। शेखर का नेटवर्क बहुत व्यापक है। उनके  केपीएस गिल से करीबी संबंधों और आतंकवाद को समाप्त करने में गिल साहब की महत्वपूर्ण भूमिका पर प्रकाश डाला। कई अवसरों पर गिल साहब से मुलाकात और उनसे पंजाबी में होने वाली बातों को जगह जगह उदधृत कर न केवल माहौल को बोझिल होने से बचाया बल्कि उनकी स्पष्टवादिता का ज़िक्र भी किया।उस दिन जितने भी वक्ता बोले सतीश जैकब सहित, उनके विचारों और उदगारों से गिल साहब की बेबाकी और उनकी प्रोफेशनल कामकाज की शैली का पता तो चलता  ही था, साथ ही इस बात का आभास भी होता था कि वह मीडिया को कितना महत्व दिया करते थे। शेखर और जैकब दोनों ने ही गिल साहब की याददाश्त का उल्लेख करते हुए बताया था कि किसी वजह से उनका फोन न उठा पाने के कारण जब उनसे बात नहीं हो पाती थी तो गिल साहब खुद वापस फोन करते थे और पूछते थे 'फलां वक़्त ते आ सकना, आ जा खूब गल्लां करांदे '। उन्हें यह पता होता था कि कौन कौन पत्रकार न सिर्फ पंजाबी समझता है पर बोलता भी है।

 शेखर गुप्ता ने  2015 में इंडियन एक्सप्रेस से त्यागपत्र दे दिया।  वह 19 वर्ष तक इंडियन एक्सप्रेस में एडिटर -इन- चीफ रहे और  13 साल तक सीईओ।  एनडीटीवी  'वॉक द टॉक' में 15 साल से अधिक समय तक उन्होंने 600 से ज़्यादा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर के अतिविशिष्ट व्यक्तियों सेअंतरंग बातचीत की। हिंदी में 'चलते चलते' में भी बहुत लोगों से चर्चा की। ये दोनों कार्यक्रम बहुत ही लोकप्रिय थे।  25 से अधिक महत्वपूर्ण व्यक्तियों के इंटरव्यू की एक पुस्तक भी प्रकाशित हुई है। अब 'वॉक द टॉक' प्रोग्राम तो नहीं होता लेकिन उसे नया स्वरूप देकर  'Off The Cuff '  एनडीटीवी पर ही प्रसारित किया जाता है लेकिन बदले रूप में आमंत्रित श्रोताओं के सामने अतिथि का इंटरव्यू किया जाता है और श्रोताओं को प्रश्न पूछने की छूट भी होती है।  इंडियन एक्सप्रेस से इस्तीफा देने के बाद शेखर गुप्ता कुछ समय तक 'इंडिया टुडे 'के एडिटर- इन -चीफ रहे बाद में उन्होंने अपनी डिजिटल मीडिया न्यूज़ कंपनी स्थापित की जिसके तहत ThePrint की शुरुआत की। आजकल  शेखर उसके एडिटर- इन -चीफ हैं। शेखर ने 'The Print'  को जिस मुकाम तक पहुंचाया है वह उन जैसा परिश्रमी, जुझारू और दूरदर्शी पत्रकार द्वारा ही मुमकिन है।

26 अगस्त, 1957 को स्वतंत्र भारत के पूर्वी पंजाब के पलवल में जन्मे शेखर गुप्ता की प्राथमिक शिक्षा तो पलवल में हुई जबकि  उच्च शिक्षा और कॉलेज की पढ़ाई पंजाब में। इंडियन एक्सप्रेस में पहली नौकरी भी 1977 में शावक (Cub) रिपोर्टर के तौर पर चंडीगढ़ संस्करण से शुरू की। लिहाज़ा पंजाबी और पंजाबियत शेखर गुप्ता में रसबस गयी है। नीलम जॉली से शादी करके अपनी पंजाबी को और निखारा है। अब तो वह पश्चिमी पंजाब के इतने चक्कर लगा आये हैं कि उन्हें अविभाजित पंजाब का माना जाता है। वह कहते हैं 'यार एह पूरा पंजाब तंआ बहुत सोहणा है'  इसपर मेरा जवाब था, 'ओए पूरा हनूर ही बहुत सोहणा है।' ' एह हनूर की हुँदा ए'। मैं बताता हूं कि  1947 से पहले पश्चिमी पंजाब की पीढ़ियों के  लोग हिंदुस्तान को 'हनूर 'कहा करते थे। शेखर बहुत ही जिज्ञासु और अध्ययनशील व्यक्ति हैं।जब  वह किसी विषय पर लिखते हैं तो सभी आंकड़ों और विषय से जुड़े पक्षों से पूरी तरह से लैस होकर। जिन लोगों ने भी उनके वॉक द टॉक प्रोग्राम देखे हैं उन्हें यह भलीभांति पता होगा कि उनका अतिथि चाहे अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र का हो या उसका संबंध आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक अथवा सामाजिक या साहित्यिक क्षेत्रों से हो शेखर किसी को अपने पर हावी नहीं होने देते थे। अपने अतिथि को वह अच्छी तरह से परिचित करा देते हैं कि वह उनसे उन्नीस नहीं। कुछ उनके विरोधी उनके प्रति 'जुनूनी', कुछ'सनकी' तो कुछ 'झक्की 'जैसी संज्ञाओं और विशेषणों का इस्तेमाल करते हैं, उसका उत्तर न देकर शेखर महज़ हाथ झटक देते हैं। इसका सीधा सा मतलब है कि अगर ऐसे लोगों की वह परवाह करते तो एक शावक रिपोर्टर से प्रधान संपादक नहीं बनते। ऐसे विरोधियों के लिए इतना जान लेना ही शायद काफी होगा कि 20 साल की उम्र में जो व्यक्ति एक अदना सा  रिपोर्टर था वह  37-38 साल की उम्र में उस 'इंडियन एक्सप्रेस 'का एडिटर -इन -चीफ कैसे बन गया जिसके संपादक कभी '
फ्रैंक मोरैस जैसे दिग्गज और legendary रह चुके हैं और वह भी 19 साल तक।और साथ ही संस्था के सीईओ सो अलग।  बड़ी बेफिक्री से वह कहते हैं,' कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना'। मैं किसी का बुरा नहीं मानता, अपना काम करता रहता हूं। इंडियन एक्सप्रेस से इस्तीफा भी मैंने अपनी मर्ज़ी से दिया, बाद में इंडिया टुडे से भी मैंने खुद रुख्सत ली, मुझ पर किसी का कोई दबाव नहीं था। शेखर गुप्ता को बहुत से राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों औऱ सम्मानों से भी नवाजा गया जैसे 1984 में टफ्ट्स यूनिवर्सिटी और द न्यू यॉर्क टाइम्स में अमेरिकन सोसाइटी ऑफ न्यूज़पेपर एडिटर्स फ़ेलोशिप, 1997 में पत्रकारिता के लिए जीके रेड्डी पुरस्कार, 2006 में  राष्ट्रीय एकीकरण के लिए द फखरुद्दीन अली अहमद मेमोरियल अवार्ड आदि शामिल हैं। पत्रकारिता में उनके योगदान के लिए  2009 में शेखर गुप्ता को पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। शेखर की किट्टी में इतने प्रोफेशनल अवार्ड्स भरे पड़े हैं जिनका उल्लेख कर पाना संभव नहीं।

जिस तरह शेखर गुप्ता मेहनतकश हैं वैसी ही टीम का वह चयन करते हैं। इस सिलसिले में मैं उनके फ़ोटो एडिटर प्रवीण जैन का उल्लेख करना चाहूंगा। इंडियन एक्सप्रेस में भी प्रवीण जैन उनके साथ थे और अब 'ThePrint' में भी। कोरोना  महामारी से पीड़ित देश के विभिन्न भागों को जिस तरह से अपनी एक रिपोर्टर के साथ दौरा कर रहे हैं वह बेशक़ अपने काम के प्रति समर्पण का प्रतीक माना जायेगा। एक बार तो वह, उनकी रिपोर्टर और शायद गाड़ी ड्राइवर भी कोरोना की चपेट में आ गए और उन्हें 15 दिनों तक अहमदाबाद एकांतवास में रहना पड़ा था।  बावजूद इसके प्रवीण आजकल फिर से अहमदाबाद में हैं। इस बार ज़्यादा एतिहाद बरत रहे हैं। कहते हैं कि यहां कोरोना के मामले ज़्यादा हैं। उनके  साथ एक रिपोर्टर भी है।  इसमें संदेह नहीं कि प्रवीण जैन बेखौफ और बहादुर फ़ोटो एडिटर हैं। मेरे साथ वह' संडे मेल' में  थे। दो बार हम दोनों पाकिस्तान के चुनाव कवर करने के लिये गये थे। हमारे साथ अंग्रेज़ी 'संडे मेल' के गुरहरकीरत सिंह यानी जी.के. सिंह भी थे। कराची में एमक्यूएम के नेता हमारी पकड़ में नहीं आ रहे थे। किसी स्थानीय पत्रकार ने सलाह दी कि बेहतर है कि उनके चुनावी जलसे में पहुंच कर उनके मंच पर चढ़ जायें। वहां से आपको कोई नीचे नहीं उतार पायेगा। हमने वही किया। प्रवीण सब से पहले मंच पर चढ़ गये, मैं और जी.के. सिंह झिझक रहे थे। प्रवीण ने हम दोनों को हाथों से पकड़ कर मंच पर खींच लिया।मुहाजिर क़ौमी मूवमेंट यानी एमक्यूएम का चुनावी चिन्ह है 'पतंग'।अब हम लोग मंच पर जम गये। वहां भारतीय फिल्म का गाना चल रहा था'चली चली रे पतंग मेरी चली रे'। कहीं कहीं नारे लग रहे थे 'मज़लूमों के मसीहा हैं अल्ताफ हुसैन। 'पहले पहल अज़ीम तारिक आये उनका जलवा प्रधानमंत्री जैसा था। हम लोगों को वहां देखकर सकपकाए ज़रूर लेकिन कुछ कह नहीं पाये। मुझ से बातचीत में उन्होंने यह स्वीकार किया कि हमारी पार्टी के लोग जानबूझ कर आप लोगों से मिलने से इसलिए कतराते हैं कि आपके चले जाने के बाद हुकूमत के लोग हम पर इंडिया का एजेंट कह कर तोहमत लगाते हैं।मंच पर और भी नेता आते गये। अल्ताफ हुसैन के आने पर लोग बेकाबू हुए जा रहे थे। यह जलसा सुबह चार बजे तक चला। प्रवीण ने खूब फ़ोटो लीं तथा मैंने और जीके सिंह ने कुछ लोगों के इंटरव्यू। यह मुश्किल नहीं, बल्कि नामुमकिन समझा जाने वाला काम प्रवीण के चलते सहज हो गया। अगले दिन भारतीय उच्चायोग के मणि त्रिपाठी ने कहा, 'तुम लोगों की किस्मत अच्छी थी सहीसलामत लौट आये। कभी कभी ये लोग खासे उग्र हो जाते हैं।' हमारी 'बहादुरी' की यह खबर उच्चायुक्त मणि दीक्षित तक भी पहुंच गई जो प्रवीण जैन की इस तरह की दिलेरी औऱ निडरता से वाकिफ थे। बेशक़ शेखर गुप्ता की संपादकीय टीम में भी प्रवीण जैसे दिलेर और समर्पित लोग होंगे। जिस तरह से शेखर गुप्ता ने एक बेहतरीन, साफसुथरी, तटस्थ, सयंत और संतुलित तथा   धारदार पत्रकारिता की है और अभी तक उसमें सफतला पायी है उसके लिये बेशक़ वह साधुवाद के हकदार हैं। हो सकता है कुछ लोग मुझ से इत्तिफ़ाक़ न रखते हों लेकिन हरेक का अपना अपना नज़रिया होता है। यह मेरा नज़रिया है शेखर। आमीन।

रविवार, 26 जुलाई 2020

समय समय का फेर / अरविंद कुमार श्रीवास्त्व


इस पोस्ट को हर वो महिला पढ़े जो हाउस वाइफ है हर वो लड़की पढ़े जो कॉलेज स्टूडेंट है.

..... बेटा घर में घुसते ही बोला," मम्मी कुछ खाने को दे दो यार बहुत भूख लगी है. यह सुनते ही मैंने कहा," बोला था ना ले जा कुछ कॉलेज, सब्जी तो बना ही रखी थी". बेटा बोला," यार मम्मी अपना ज्ञान ना अपने पास रखा करो. अभी जो कहा है वो कर दो बस और हाँ, रात में ढंग का खाना बनाना .  पहले ही मेरा दिन अच्छा नहीं गया है". कमरे में गई तो उसकी आंख लग गई थी. मैंने जाकर उसको जगा दिया कि कुछ खा कर सो जाए. चीख कर वो मेरे ऊपर आया कि जब आँख लग गई थी तो उठाया क्यों तुमने? मैंने कहा तूने ही तो कुछ बनाने को कहा था.  वो बोला,"मम्मी एक तो कॉलेज में टेंशन ऊपर से तुम यह अजीब से काम करती हो. दिमाग लगा लिया करो कभी तो".

तभी घंटी बजी तो बेटी भी आ गई थी. मैंने प्यार से पूछा ,"आ गई मेरी बेटी कैसा था दिन?" बैग पटक कर बोली ,"मम्मी आज पेपर अच्छा नहीं हुआ". मैंने कहा," कोई बात नहीं. अगली बार कर लेना".

मेरी बेटी चीख कर बोली," अगली बार क्या रिजल्ट तो अभी खराब हुआ ना. मम्मी यार तुम जाओ यहाँ से. तुमको कुछ नहीं पता".

मैं उसके कमरे से भी निकल आई.

शाम को पतिदेव आए तो उनका भी मुँँह लाल था . थोड़ी बात करने की कोशिश की , जानने की कोशिश कि तो वो भी झल्ला के बोले ,"यार मुझे अकेला छोड़ दो. पहले ही बॉस ने क्लास ले ली है और अब तुम शुरू हो गई".

आज कितने सालों से यही सुनती आ रही थी. सबकी पंचिंंग बैग मैं ही थी. हम औरतें भी ना अपनी इज्ज़त करवानी आती ही नहींं.

मैं सबको खाना खिला कर कमरे में चली गई. अगले दिन से मैंने किसी से भी पूछना कहना बंद कर दिया. जो जैसा कहता कर के दे देती. पति आते तो चाय दे देती और अपने कमरे में चली जाती. पूछना ही बंद कर दिया कि दिन कैसा था?

बेटा कॉलज और बेटी स्कूल से आती तो मैं कुछ ना बोलती ना पूछती. यह सिलसिला काफी दिन चला.

संडे वाले दिन तीनो मेरे पास आए और बोले तबियत ठीक है ना?क्या हुआ है इतने दिनों से चुप हो. बच्चे भी हैरान थे. थोड़ी देर चुप रहने के बाद में बोली. मैं तुम लोगो की पंचिंग बैग हूँ क्या?जो आता है अपना गुस्सा या अपना चिड़चिड़ापन मुझपे निकाल देता है. मैं भी इंतज़ार करती हूं तुम लोंगो का. पूरा दिन काम करके कि अब मेरे बच्चे आएंगे ,पति आएंगे दो बोल बोलेंगे प्यार के और तुम लोग आते ही मुझे पंच करना शुरु कर देते हो. अगर तुम लोगों का दिन अच्छा नहींं गया तो क्या वो मेरी गलती है? हर बार मुझे झिड़कना सही है?

कभी तुमने पूछा कि मुझे दिन भर में कोई तकलीफ तो नहीं हुई. तीनो चुप थे. सही तो कहा मैंने दरवाजे पे लटका पंचिंग बैग समझ लिया है मुझे. जो आता है मुक्का मार के चलता बनता है. तीनों शरमिंदा थे.

दोस्तोंं हर माँ, हर बीवी अपने बच्चों और पति के घर लौटने का इंतज़ार करती है . उनसे पूछती है कि दिन भर में सब ठीक था या नहीं.  लेकिन कभी - कभी हम उनको ग्रांटेड ले लेते हैं. हर चीज़ का गुस्सा उन पर निकालते हैं. कभी- कभी तो यह ठीक है लेकिन अगर ये आपके घरवालों की आदत बन जाए तो आप आज से ही सबका पंचिंंग बैग बनना बंद कर दें .                         
 सभी महिलाओं को समर्पित*

तुम!!! खुद को कम मत आँको,
खुद पर गर्व करो।

क्योंकि तुम हो तो
थाली में गर्म रोटी है।

ममता की ठंडक है,
प्यार की ऊष्मा है।

तुमसे, घर में संझा बाती है
घर घर है।

घर लौटने की इच्छा है...

क्या बना है रसोई में
आज झांककर देखने की चाहत है।

तुमसे, पूजा की थाली है,
रिश्तों के अनुबंध हैं
पड़ोसी से संबंध हैं।

घर की घड़ी तुम हो,
सोना जागना खाना सब तुमसे है।

त्योहार होंगे तुम बिन??
तुम्हीं हो दीवाली का दीपक,
होली के सारे रंग,
विजय की लक्ष्मी,
रक्षा का सूत्र! हो तुम।

इंतजार में घर का खुला दरवाजा हो,
रोशनी की खिडक़ी हो
ममता का आकाश तुम ही हो।

समंदर हो तुम प्यार का,
तुम क्या हो...
खुद को जानो!

उन्हें बताओ जो तुम्हें जानते नहीं,
कहते हैं..
तुम करती क्या हो??!!!

दूध की क़ीमत


बहुत पहले की बात hai.एक दिन, एक गरीब लड़का जो घर-घर जाकर अपना सामान बेचता था, ताकि वह अपने स्कूल की फीस दे सके. एक दिन ऐसे ही जब वो काम पर निकला, तो बहोत घूमते-घूमते उसे भूख  लगने लगी. लेकिन आज जब उसने अपनी पोटली देखी तो उसमे कुछ भी नहीं था, शायद उसकी माँ उसे खाने का डिब्बा देना भूल गयी थी और उसे भूख  भी काफ़ी लगी हुई थी.

वो घर-घर सामान बेचने जाता और सोचता की यहाँ कुछ खाने के लिए मांग लू, पर उससे ये नहीं होता. दूसरे घर में जाकर भी वो कोशिश करता लेकिन उससे ये नहीं हो पाता. अंततः लड़के ने फैसला किया की अगले घर में जाकर खाने की बजाये पहले पानी के लिए पुछेंगा. जैसे ही उसने अगले घर का दरवाज़ा खटखटाया, एक औरत बाहर आई. उस औरत ने लड़के को देखते ही उसकी हालत का अंदाज़ा लगा लिया था. उस औरत ने उसके लिए एक बड़ा ग्लास भरके दूध लाया जिसे वह लड़का धीरे-धीरे पिने लगा. और पिने के बाद लड़के ने पूछा की, “इसके मुझे कितने पैसे आपको देने होंगे?” लेकिन उस औरत ने मुस्कुराते हुए कहा की, “किसी पर भी दयालुता दिखाने पर पैसे लेने नहीं चाहिए, इसलिए पैसे देने की कोई जरुरत नहीं है.”

आज उस लड़के को इंसानियत से परिचय हुआ. उस लड़के ने दिल से उस महिला को धन्यवाद दिया, और वहा से निकल गया.
जैसे ही उस लड़के ने वो घर छोड़ा, वो खुद को शारीरिक और मानसिक रूप से और अधिक मजबूत महसूस कर रहा था. और भगवान् पर उसका विश्वास अब और भी ज्यादा बढ़ गया था.

बहुत साल बित गये, अब वो छोटा लड़का एक बड़ा डॉक्टर बन गया था और अपने पेशे को बड़ी ही सहजता से निभा रहा था. एक दिन उसके अस्पताल में एक औरत को लाया गया था, जिसकी हालत बहोत ही गंभीर थी.

जब डॉक्टर को पता चला की ये औरत उसके पुराने शहर की है, तो वो उसे देखने तुरंत गया. डॉक्टर ने जब उसे देखा तो वो उन्हें पहचान गया. ये वही औरत थी जिसने उसकी मदद की थी, और एक ग्लास दूध भी दिया था.
डॉक्टर ने पुरे जी जान से मेहनत की, और उस महिला के गंभीर स्वास्थ को भी ठीक कर दिया. उस महिला का बहोत ख्याल रखा गया और अंत में जब एक दिन वो पूरी तरह से ठीक हो गयी तो उन्हें छुट्टी दे दी गयी.
पर अब उस महिला को सबसे ज्यादा डर इस बात से लग रहा था की उसके इलाज का खर्चा बहोत ज्यादा हो गया होगा. वो इतने ज्यादा पैसे नहीं दे सकती थी.

बिल थामते ही उसने जब पढ़ा, तो उसपर लिखा था, “फीस का भुगतान बहोत पहले ही कर दिया गया था, एक ग्लास दूध से.”
ये पढ़ते ही उसकी आखो से आसू बाहर आने लगे और उसने अपनी नम आखो से भगवान् का दिल से शुक्रिया अदा किया. क्यों की आज उसे भी इंसानियत के दर्शन हो चुका था.

इसी तरह हमें भी अपने जीवन में लालच किये बिना दयावान बनकर, परोपकार करना चाहिये और एक दुसरे की मदद करनी चाहिये. तभी हम एक आदर्श राष्ट्र का निर्माण कर पाएंगे.

शनिवार, 25 जुलाई 2020

फैरबुक की दुनियां में संवाद /अखिल अनूप


फेसबुक पर क्या डाला जाए और क्या नहीं , हमारी समझ से इसकी कोई वैधानिक आचार संहिता अभी तक बनी नहीं है ....
                   यहाँ कोई बौद्धिक व सर्जनात्मक है , तो कोई बिल्कुल अ-बौद्धिक व अ-सर्जनात्मक ; कोई बेहद सामाजिक है , तो कोई नितान्त वैयक्तिक ; कोई मौलिक है , तो कोई इतना अ-मौलिक कि हमेशा दूसरे को ही शेयर करता रहता है ; कोई जिये-मरे का स्टेटस अपडेट करता है , तो कोई भूकंप और बारिश की सूचनाओं पर लाइक और कमेंट लूट कर ले जाता है .... कोई अपने बुजुर्गों को फेसबुक के रंगमंच पर उतारता है , तो कोई अपने बच्चों की विविध झाँकियाँ पोस्ट करके आह्लादित होता है .... दिवंगत और अजन्मे भी यदि कहीं दिखाई देते हैं , तो वह फेसबुक का ही फ्रेम है ....
                    बधाई , शुभकामनाएं और आशीषों से फेसबुक भरा पड़ा है .... ये माँगी भी जाती हैं और बिना माँगे भी इफ़रात में दी जाती हैं । कुछ उदारमना तो बधाई , शुभकामनाओं और आशीषों के अक्षय भंडार के साथ जाने - अनजानों सबकी झोलियाँ भरने को सतत तत्पर रहते हैं .... यहाँ मित्रधर्म का जमकर निर्वाह होता है , तो शत्रुताएँ भी खूब निभाई जाती हैं .... बेवजह किसी की फटी में टाँग अड़ाने वालों की बहुतायत यहीं देखने को मिलेगी ....
                  अब यह सब कितना सही है और कितना गलत .... और क्या अच्छा है और क्या बुरा - यह फैसला तो हम सबको ही करना है और समय समय पर हम सब करते भी हैं .... लेकिन यह भी हम सबका स्वभाव है कि हम जिसकी आलोचना करते हैं , चाहे-अनचाहे अक्सर उसी रास्ते पर चल भी पड़ते हैं ....
                हमें तो कभी कभी महाभारत  के वेदव्यास की तरह यही लगता है कि फेसबुक दुनिया का सबसे सच्चा रूपक है ..... जो कुछ इस दुनिया में है , वह सब  फेसबुक में है और जो फेसबुक में नहीं है , वह इस दुनिया में भी नहीं है ....

                                    #अनूप_शुक्ल

शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

महाभारत युद्ध


महाभारत में इस्तेमाल हुए सबसे खतरनाक हथियार

शायद ही कोई महाभारत की लड़ाई से अनजान होगा, ऐसा कोई नहीं जिसने इसके बारे में न सुना हो! इसे भारत की सबसे बड़ी लड़ाई माना जाता है.
इस जंग का विवरण बहुत ही बारीकी से किया गया है. उससे ही पता चलता है कि उस समय किन हथियारों से यह युद्ध लड़ा गया था.
तो चलिए आज आपको बताते हैं, महाभारत में कौन से खतरनाक हथियारों का इस्तेमाल किया गया था –
सुदर्शन चक्र
प्राचीन कथाओं के अनुसार सुदर्शन चक्र को ब्रहमांड के सबसे शक्तिशाली हथियारों में से एक कहा जाता है. यह भगवान विष्णु की तर्जनी अंगुली में रहता है.
कहा जाता है कि भगवान विष्णु ने इस सुदर्शन चक्र को पाने के लिए हजारों साल तक कठोर तपस्या की थी. उनकी इस तपस्या पर भगवान शिव की नजर पड़ी और उन्होंने भगवन विष्णु को कुछ भी मांगने के लिए कहा.
इसके बाद भगवान विष्णु ने भगवान शिव से एक ऐसा शक्तिशाली हथियार मांगा, जिससे सभी असुर मारे जा सकते हों. तब जाकर उन्हें भगवान शिव ने सुदर्शन चक्र प्रदान किया.
कहते हैं कि सुदर्शन चक्र को जो भी लक्ष्य दिया जाता था, वह बिना उसको खत्म करे वापस नहीं आता था. महाभारत में श्री कृष्ण के पास यह सुदर्शन चक्र था.
त्रिशूल
त्रिशूल को हिन्दू धर्म में एक आस्था पर प्रतीक माना जाता है. हिंदू धर्म के अनुसार ये भगवान शिव का अनन्य और बेहद खतरनाक हथियार है. भगवान शिव कहीं भी जातें है, अपने साथ त्रिशूल को जरूर रखते हैं.
माना जाता है कि इस हथियार का प्रयोग महाभारत और रामायण काल में दोनों में किया गया था. वहीं इसी हथियार से भगवान शिव ने अपने पुत्र गणेश का सर भूलवश धड़ से अलग कर दिया था. भाले की तरह दिखने वाले इस त्रिशूल में आगे की ओर तीन तेजधार चाकू लगे होते हैं.
पाशुपतास्त्र
त्रिशूल की तरह पाशुपतास्त्र भी भगवान शिव का ही अस्त्र है. यह हथियार अविश्वसनीय रूप से बहुत विनाशकारी माना जाता है. कहा जाता है कि यह इतना घातक है कि पूरी सृष्टि को नष्ट करने की सक्षम रखता है.
यह दिखने में एक तीर की तरह है, जिसको चलाने के लिए एक धनुष का प्रयोग किया जाता है.
भगवान शिव ने पाशुपतास्त्र को महाभारत के नायक अर्जुन को दिया था. वह बात और है कि अर्जुन ने इस हथियार का दुरुपयोग महाभारत के युद्ध में नहीं किया.
असल में अगर वह इस हथियार का प्रयोग कर देते, तो पूरी दुनिया नष्ट हो सकती थी.
ब्रह्मास्त्र
ब्रह्मास्त्र,

शरद ऋतु गुण बखान



शरद ऋतु वर्णन

चौपाई :
* बरषा बिगत सरद रितु आई। लछमन देखहु परम सुहाई॥
फूलें कास सकल महि छाई। जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढ़ाई॥1॥

भावार्थ : हे लक्ष्मण! देखो, वर्षा बीत गई और परम सुंदर शरद् ऋतु आ गई। फूले हुए कास से सारी पृथ्वी छा गई। मानो वर्षा ऋतु ने (कास रूपी सफेद बालों के रूप में) अपना बुढ़ापा प्रकट किया है॥1॥
* उदित अगस्ति पंथ जल सोषा। जिमि लोभहिं सोषइ संतोषा॥
सरिता सर निर्मल जल सोहा। संत हृदय जस गत मद मोहा॥2॥

भावार्थ : अगस्त्य के तारे ने उदय होकर मार्ग के जल को सोख लिया, जैसे संतोष लोभ को सोख लेता है। नदियों और तालाबों का निर्मल जल ऐसी शोभा पा रहा है जैसे मद और मोह से रहित संतों का हृदय!॥2॥
* देखि मनोहर सैल अनूपा। रहे तहँ अनुज सहित सुरभूपा॥
मधुकर खग मृग तनु धरि देवा। करहिं सिद्ध मुनि प्रभु कै सेवा॥2॥

भावार्थ : मनोहर और अनुपम पर्वत को देखकर देवताओं के सम्राट् श्री रामजी छोटे भाई सहित वहाँ रह गए। देवता, सिद्ध और मुनि भौंरों, पक्षियों और पशुओं के शरीर धारण करके प्रभु की सेवा करने लगे॥2॥
* रस रस सूख सरित सर पानी। ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी॥
जानि सरद रितु खंजन आए। पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए॥3॥


भावार्थ : नदी और तालाबों का जल धीरे-धीरे सूख रहा है। जैसे ज्ञानी (विवेकी) पुरुष ममता का त्याग करते हैं। शरद ऋतु जानकर खंजन पक्षी आ गए। जैसे समय पाकर सुंदर सुकृत आ सकते हैं। (पुण्य प्रकट हो जाते हैं)॥3॥
* पंक न रेनु सोह असि धरनी। नीति निपुन नृप कै जसि करनी॥
जल संकोच बिकल भइँ मीना। अबुध कुटुंबी जिमि धनहीना॥4

भावार्थ : न कीचड़ है न धूल? इससे धरती (निर्मल होकर) ऐसी शोभा दे रही है जैसे नीतिनिपुण राजा की करनी! जल के कम हो जाने से मछलियाँ व्याकुल हो रही हैं, जैसे मूर्ख (विवेक शून्य) कुटुम्बी (गृहस्थ) धन के बिना व्याकुल होता है॥4॥
* बिनु घन निर्मल सोह अकासा। हरिजन इव परिहरि सब आसा॥
कहुँ कहुँ बृष्टि सारदी थोरी। कोउ एक भाव भगति जिमि मोरी॥5॥

भावार्थ : बिना बादलों का निर्मल आकाश ऐसा शोभित हो रहा है जैसे भगवद्भक्त सब आशाओं को छोड़कर सुशोभित होते हैं। कहीं-कहीं (विरले ही स्थानों में) शरद् ऋतु की थोड़ी-थोड़ी वर्षा हो रही है। जैसे कोई विरले ही मेरी भक्ति पाते हैं॥5॥
दोहा :
* चले हरषि तजि नगर नृप तापस बनिक भिखारि।
जिमि हरिभगति पाइ श्रम तजहिं आश्रमी चारि॥16॥

भावार्थ : (शरद् ऋतु पाकर) राजा, तपस्वी, व्यापारी और भिखारी (क्रमशः विजय, तप, व्यापार और भिक्षा के लिए) हर्षित होकर नगर छोड़कर चले। जैसे श्री हरि की भक्ति पाकर चारों आश्रम वाले (नाना प्रकार के साधन रूपी) श्रमों को त्याग देते हैं॥16॥
चौपाई :
* सुखी मीन जे नीर अगाधा। जिमि हरि सरन न एकऊ बाधा॥
फूलें कमल सोह सर कैसा। निर्गुन ब्रह्म सगुन भएँ जैसा॥1॥

भावार्थ : जो मछलियाँ अथाह जल में हैं, वे सुखी हैं, जैसे श्री हरि के शरण में चले जाने पर एक भी बाधा नहीं रहती। कमलों के फूलने से तालाब कैसी शोभा दे रहा है, जैसे निर्गुण ब्रह्म सगुण होने पर शोभित होता है॥1॥

* गुंजत मधुकर मुखर अनूपा। सुंदर खग रव नाना रूपा॥
चक्रबाक मन दुख निसि पेखी। जिमि दुर्जन पर संपति देखी॥2॥

भावार्थ : भौंरे अनुपम शब्द करते हुए गूँज रहे हैं तथा पक्षियों के नाना प्रकार के सुंदर शब्द हो रहे हैं। रात्रि देखकर चकवे के मन में वैसे ही दुःख हो रहा है, जैसे दूसरे की संपत्ति देखकर दुष्ट को होता है॥2॥

* चातक रटत तृषा अति ओही। जिमि सुख लहइ न संकर द्रोही॥
सरदातप निसि ससि अपहरई। संत दरस जिमि पातक टरई॥3॥

भावार्थ : पपीहा रट लगाए है, उसको बड़ी प्यास है, जैसे श्री शंकरजी का द्रोही सुख नहीं पाता (सुख के लिए झीखता रहता है) शरद् ऋतु के ताप को रात के समय चंद्रमा हर लेता है, जैसे संतों के दर्शन से पाप दूर हो जाते हैं॥3॥
* देखि इंदु चकोर समुदाई। चितवहिं जिमि हरिजन हरि पाई॥
मसक दंस बीते हिम त्रासा। जिमि द्विज द्रोह किएँ कुल नासा॥4॥

भावार्थ : चकोरों के समुदाय चंद्रमा को देखकर इस प्रकार टकटकी लगाए हैं जैसे भगवद्भक्त भगवान्‌ को पाकर उनके (निर्निमेष नेत्रों से) दर्शन करते हैं। मच्छर और डाँस जाड़े के डर से इस प्रकार नष्ट हो गए जैसे ब्राह्मण के साथ वैर करने से कुल का नाश हो जाता है॥4॥
दोहा :
* भूमि जीव संकुल रहे गए सरद रितु पाइ।
सदगुर मिलें जाहिं जिमि संसय भ्रम समुदाइ॥17॥

भावार्थ : (वर्षा ऋतु के कारण) पृथ्वी पर जो जीव भर गए थे, वे शरद् ऋतु को पाकर वैसे ही नष्ट हो गए जैसे सद्गुरु के मिल जाने पर संदेह और भ्रम के समूह नष्ट हो जाते हैं॥17॥
आगे पढें...

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विश्व चाहे न चाहे / गोपाल दास नीरज




विश्व चाहे या न चाहे/

गोपालदास 'नीरज'
*_*_*_*_*_*_*_*_*_*_*_
विश्व चाहे या न चाहे,
लोग समझें या न समझें,
आ गए हैं हम यहाँ तो गीत गाकर ही उठेंगे।

हर नज़र ग़मगीन है, हर होठ ने धूनी रमाई,
हर गली वीरान जैसे हो कि बेवा की कलाई,
ख़ुदकुशी कर मर रही है रोशनी तब आँगनों में
कर रहा है आदमी जब चाँद-तारों पर चढ़ाई,
फिर दियों का दम न टूटे,
फिर किरन को तम न लूटे,
हम जले हैं तो धरा को जगमगा कर ही उठेंगे।
विश्व चाहे या न चाहे....

हम नहीं उनमें हवा के साथ जिनका साज़ बदले,
साज़ ही केवल नहीं अंदाज़ औ आवाज़ बदले,
उन फ़कीरों-सिरफिरों के हमसफ़र हम, हमउमर हम,
जो बदल जाएँ अगर तो तख़्त बदले ताज बदले,
तुम सभी कुछ काम कर लो,
हर तरह बदनाम कर लो,
हम कहानी प्यार की पूरी सुनाकर ही उठेंगे।
विश्व चाहे या न चाहे...

नाम जिसका आँक गोरी हो गई मैली सियाही,
दे रहा है चाँद जिसके रूप की रोकर गवाही,
थाम जिसका हाथ चलना सीखती आँधी धरा पर
है खड़ा इतिहास जिसके द्वार पर बनकर सिपाही,
आदमी वह फिर न टूटे,
वक़्त फिर उसको न लूटे,
जिन्दगी की हम नई सूरत बनाकर ही उठेंगे।
विश्व चाहे या न चाहे....

हम न अपने आप ही आए दुखों के इस नगर में,
था मिला तेरा निमंत्रण ही हमें आधे सफ़र में,
किन्तु फिर भी लौट जाते हम बिना गाए यहाँ से
जो सभी को तू बराबर तौलता अपनी नज़र में,
अब भले कुछ भी कहे तू,
खुश कि या नाखुश रहे तू,
गाँव भर को हम सही हालत बताकर ही उठेंगे।
विश्व चाहे या न चाहे....

इस सभा की साज़िशों से तंग आकर, चोट खाकर
गीत गाए ही बिना जो हैं गए वापिस मुसाफ़िर
और वे जो हाथ में मिज़राब पहने मुशकिलों की
दे रहे हैं जिन्दगी के साज़ को सबसे नया स्वर,
मौर तुम लाओ न लाओ,
नेग तुम पाओ न पाओ,
हम उन्हें इस दौर का दूल्हा बनाकर ही उठेंगे।
विश्व चाहे या न चाहे....

प्रस्तुति - संगीता सिन्हा




महुआ औऱ गाँव की लड़कियां / प्रवीण परिमल



      #महुए_बीनती_हुईं_लड़कियाँ

                      ▪प्रवीण परिमल

हर साल की तरह
इस साल भी टपक रहे हैं महुए !

एक अजीब-सी गंध फैली है चारो ओर ।

सुबह-सुबह,
अब दिखाई देंगी
महुए बीनती हुई लड़कियाँ ,
कच्ची उम्र की !

मैं सोचता हूँ
महुए बीनती हुई लड़कियाँ
लड़कियाँ होती हैं
या मजबूरी की कहानियाँ !

याद आते हैं मुझे
महुए बीनती हुई लड़कियों के समूह !

चुन-चुन कर महुए
पूरी लगन के साथ
करती हैं इकट्ठा लड़कियाँ
मानो महुओं की शक्ल में बिखरे पड़े हों उनके सपने !

सचमुच ,
महुए बीनती हुई लड़कियाँ
महज महुए नहीं बीनतीं...
बीनती हैं,
भविष्य के लिए सपने भी ।

टपक रहे हैं महुए,
बीनती जा रही हैं लड़कियाँ !

महुओं का ढेर क्रमशः बड़ा होता जा रहा है।

महुए बीनती हुई लड़कियाँ जानती हैं,
इसी ढेर से निकलेगा
कटोरी भर बासी भात
कुछ सूखी रोटियाँ
चुटकी भर नमक
और पेट भर पानी!
कि ढेर जितना ऊँचा और बड़ा हो
उतना ही अच्छा है इनके लिए ।

कहाँ- कहाँ पहुँचते हैं,
उनके बीने महुए
क्या-क्या होता है महुओं के साथ,
महुए बीनती हुई लड़कियों को
कुछ भी पता नहीं !

महुए बीनती हुई लड़कियाँ जानती हैं
तो सिर्फ इतना
कि महुए से बनती हैं रोटियाँ
जिससे भरते हैं पेट
दुधमुंहें भाई- बहनों के
लाचार माँओं के
वृद्ध पिताओं के !

दिहाड़ी में मिले हुए महुए
बेचती हैं लड़कियाँ ,
बनिए की दुकान पर
लाती हैं, बदले में गुड़ और नमक
थोड़ी चाय की पत्ती भी !

डंडी मारकर इतराता है बनिया
लेने में किलो का तीन पाव
और देने में तीन पाव का सेर !

महुए जाते हैं साहूकार के गोदामों में
करते हैं इंतजार सही वक्त का
और कमाते हैं एक का कितना ...
साहूकार के लिए ,
महुए बीनती हुई लड़कियाँ नहीं जानतीं !

मुनाफ़े की रकम
तिजोरी-बंद करते हुए
एक पल के लिए भी
नहीं याद करता है साहूकार
महुए बीनती हुईं
इन लड़कियों को !

महुए बीनती हुई लड़कियाँ
महुए की ही तरह
किस दिन टपक जाएँगी
बाबूसाहेब के दिमाग में,
लड़कियाँ नहीं जानती !

लड़कियाँ , फिर भी बीनती हैं महुए ।

महुए से चुआयी जाती है दारू
जिसे पीते हुए
नहीं पहचान पाते बाबूसाहेब
या उनका हितैषी दारोगा
या उनका रिश्तेदार मंत्री
कि उसमें महुए का रस कितना है
और लड़कियों के जीवन का रस कितना !?

लड़कियाँ जानती हैं,
जानवर आजकल दोपाये हो गए हैं ।

दारोगा आज फिर शिकार पर आया है !

बाबूसाहेब की हवेली पर ठहरा है दारोगा
दारोगा, अक्सर हवेली पर ही ठहरता है !

पैग- दर- पैग रंगीन होती है रात
भेड़ियों के मुंह से टपकता है लार
मुर्ग-मुसल्लम और 'अंग्रेजी' तो बहुत हुई
अब 'देसी डिश' की बारी है ।

जंगल में छूटते हैं
बाबूसाहेब के पालतू शेर !

कच्ची उम्र की हिरणियाँ
दहशत से दुबकी हैं !

दारोगा हवेली में बैठे- बैठे ही
शिकार करता है
उसके शिकार करने का यही ढंग है ।

दरअसल , दरोगा सियार होता है
और सियार कभी खुद शिकार नहीं करता !

महुए बीनती हुई लड़कियों पर शामत आई है !

बाबूसाहेब का बैठकखाना
जंगल में बदल चुका है ।

दीवारों पर टंगी
लकड़ी की कृत्रिम गर्दन में ठुँकी
बारहसिंघों के सीगों में तनाव व्याप्त है !

दीवारों पर टंगी हुई खाल से निकलकर
बिस्तर पर आ गए हैं चीते
आंखों में विचित्र- सी चमक लिए हुए !

अजगर की देह
कुछ लपेटकर
उसे मरोड़ने को आतुर है ।

जंगली सुअर
दाँत पजा रहे हैं !

महुए बीनने वाली लड़कियाँ भयभीत हैं--
कि किसी भी वक्त
वे बनाई जा सकती हैं
नीचे की जमीन
जिस पर
पेड़ बनकर खड़े हो जाएँगे बाबूसाहेब
या उनका कोई मेहमान
और टपकते रहेंगे महुए--
टप्- टप्  ...
रात भर !

बाबूसाहेब के बैठकखाने से
मुस्कुराते हुए जाते हैं भेड़िए
गुर्राते हुए निकलते हैं सुअर
दहाड़ते हुए भागते हैं चीते
और कराहती हुई जाती हैं हिरणियाँ !

और ऐसे ही एक दिन
महुए बीननेवाली लड़कियाँ
बनती हैं अखबारों की सुर्खियाँ ,
खुश होते हैं पत्रकार और फोटोग्राफर
लहराता रहता है तिरंगा संसद भवन पर
गर्म होती हैं चर्चाएँ !

भुने हुए काजू की तरह
दिनभर कुतरते हैं विपक्ष के लोग
लड़कियों के सवाल को
और महुओं के मौसम की ही तरह
बीत जाता है एक पूरा सत्र !

मुआवज़े की रकम का
एलान करते हैं मुख्यमंत्री
खुश होते हैं बिचौलिये !

महुए बीनती हुई लड़कियाँ परेशान हैं ।

जब महुओं का वक्त बीत जाएगा--
लहलहायेंगे पलाश
खूब-खूब उगलेंगे अंगारे
और पूरा का पूरा जंगल शोलों में नहा जाएगा!

हाँ, देखो---
अब पलाश फूलने लगे हैं !

महुए बीनती हुई लड़कियाँ--
महुओं में छिपाकर
अब पत्थर भी बीनने लगी हैं !
         
                     ******
(पलामू- प्रवास के दौरान लिखी गई कविता/1992)