सोमवार, 31 अगस्त 2020

बलात्कार

 ● वैवाहिक बलात्कार..!!!

हमारे देश में शादी के रिश्ते को विश्वास, प्रेम, सम्मान, और एक पवित्र बन्धन के रूप में देखा जाता है। जहां एक तरफ ये समाज और कानून दो लोगों (लड़के और लड़की ) को एक दूसरे के साथ रहने के लिए वैध मान्यता प्रदान करता है, वही दूसरी तरफ इस रिश्ते के कुछ ऐसे भी पहलू हैं, जो इस शादी जैसे मजबूत रिश्ते को खोखला करते नज़र आते हैं! जैसे दहेज का लेन देन, घरेलू हिंसा, यौन उत्पीड़न और एक दूसरे से अलगाव हो जाना ! पर मैं आज उस संवेदनशील मुद्दे पर बात कर रहा हूं, जिसके बारे में बात करना अपने आपको ही एक गुनहगार की तरह कटघरे में खड़ा करता है, जिसको सिर्फ सहा जाता है, पर किसी से कहा नहीं जाता है..!!

जी हाँ ! वैवाहिक बलात्कार ! सबसे पहले में उन लोगों को स्पष्ट कर दूँ जो लोग इस शब्द से अछूते हैं!

"पति या पत्नी के बीच एक दूसरे की मर्ज़ी के बिना या जबरन बनाये सम्बन्ध को वैवाहिक बलात्कार की श्रेणी में रखा गया है" पर हमारा क़ानून या समाज इसको अपराध नहीं मानता है। इसकी जगह घेरलू हिंसा या यौन उत्पीड़न का केस दर्ज़ करके सामने वाले को दण्डित करने का हमारे कानून में प्रावधान है !

वैवाहिक बलात्कार या मैरिटल रेप कोई नई चीज नहीं है। हमारे देश में पत्नी शादी के बाद अपने पति को परमेश्वर मानने के लिए बाध्य है और पति अपनी पत्नी पर अपना एकाधिकार ज़माने के लिए तैयार है, फिर चाहे उसका पति उसकी सहमती-असहमति की या उसकी भावनाओं का ख्याल करे या ना करे फिर भी वो चुप चाप ऐसी यातनाओं को सहती रहती है, क्यूंकि हमारे पुरुष प्रधान समाज में पुरुषों की ही इच्छा को सर्वोपरि माना गया है। हर एक महिला अपना परिवार बचाना चाहती है, अपने बच्चों का अच्छा भविष्य चाहती है, और समाज में अपने परिवार और पति की प्रतिष्ठा चाहती है। जिसकी कीमत उसे ऐसी मानसिक और शारीरिक यातना सहकर चुकानी पड़ती है, इसलिए परिवार और समाज में अपनी मर्यादा और अपने आत्मसम्मान की खातिर मैरिटल रेप या वैवाहिक बलात्कार जैसे मुद्दों पर चुप ही रहती है !

लेकिन मैरिटल रेप या जबरन संबंधों का एक महिला के ना सिर्फ शारीरिक बल्कि मानसिक स्तर पर भी गहरा असर पड़ता है। महिलाओं के लिए अपने पति के साथ सम्बन्ध प्रेम की पराकाष्ठा का प्रतीक होता है, पर ये सम्बन्ध उसको शारीरिक यातना देकर या मर्ज़ी के बिना हो तो शरीर के साथ उसका दिल भी टूट जाता है, फिर उसके दिल में उसके पति के लिए ना प्यार बचता है, ना सम्मान, रह जाती है सिर्फ विवशता, खोखलापन, अविश्वास और खुद को सिर्फ भोग की वस्तु समझने की भावना जो कि बहुत दुःखदायी है ! चूंकि महिलायें इस बारे में चुप ही रहती हैं, इसलिए अंदर ही अंदर घुटती हैं, उनका आत्मविश्वास कमजोर हो जाता है, उनके अंदर चिढ़चिड़ेपन की भावना पैदा हो जाती है ! जिसे वो मानसिक और शारीरिक बिमारियों का शिकार हो जाती है, और कुछ मामलों में महिलाओं का वैवाहिक बलात्कार जैसी यातनायें सहने के बाद उनका शादी जैसे रिश्ते से विश्वास उठ जाता है, जिसका दोषी सिर्फ हमारा खोखला समाज है।

अंत में बस इतना कहना चाहता हूँ कि विवाह नामक संस्था को जितनी पवित्रता हमारे समाज ने बख्शी हुई है,    यदि हम उस पवित्रता का भी मान रखने का प्रयास करेंगे तो विवाहित लोगों के जीवन से वैवाहिक बलात्कार जैसे कटु विकार स्वतः ही समाप्त हो जाएँगे और विवाह नामक संस्था की गरिमा जो समय के साथ साथ फीकी पड़ रही है शायद बरकरार रह जाए..!!

(बड़क साहब)✍️

रविवार, 23 अगस्त 2020

महामानव बनेंगे हमारे बच्चें / कुमार नरेन्द्र सिंह

 आज दिनांक 23.8.2020 को राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित मेरा लेख। यह लेख नयी शिक्षा नीति के विरोधाभाषों पर केंद्रित है।


महामानव बनेंगे हमारे बच्चे

कुमार नरेन्द्र सिंह

भारत की नयी शिक्षा नीति 2020 सरकार द्वारा स्वीकृत हो चुकी है और अब वह उड़ान भरने को तैयार है। वैसे इसकी तैयारी बहुत पहले से ही हो रही थी और पिछले साल इसे केवल इसलिए रोका गया था कि दक्षिण भारतीय राज्यों ने हिन्दी थोपे जाने की आशंका से इसका जबर्दस्त विरोध किया था। अब चूंकि नये ड्राफ्ट में राज्यों को शिक्षण की भाषा चुनने का विकल्प दे दिया गया है, इसलिए उनके विरोध का आधार खत्म हो गया। हमें बताया गया है कि इस नयी शिक्षा नीति से भारत शिक्षा का वैश्विक गढ़ बन जाएगा और एक बार फिर विश्वगुरू बनेगा। 

यदि 17 अगस्त को आयोजित वेबिनार में शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक के भाषण पर गौर किया जाए, तो ऐसा लगता है, जैसे शिक्षा नीति का उद्देश्य लोगों को केवल शिक्षित करना नहीं है, बल्कि वैश्विक नागरिक और तत्पश्चात महामानव तैयार करना है। अपने भाषण में नयी शिक्षा नीति की वह भूरी-भूरी प्रशंसा करते हैं। वह हमें बताते हैं कि नयी शिक्षा नीति से देश का कायाकल्प हो जाएगा और जो भारत आज अपनी प्रगति के लिए दूसरे देशों पर निर्भर है, वह इस नयी शिक्षा नीति के बल पर न केवल अपनी किस्मत संवारने में सक्षम होगा, बल्कि पूरी दुनिया को एक नयी राह दिखाएगा। इस शिक्षा के जरिए वैश्विक मानव तैयार होंगे। वह यहीं पर नहीं रुकते हैं, बल्कि बड़ी शान से बताते हैं कि इस नयी शिक्षा नीति के माध्यम से हम महामानव तैयार करेंगे। वह कहते हैं, ‘हम महामानव बनाने के लिए ही पैदा हुए हैं’। वेबिनार में शामिल दर्जनों विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर्स ने उनकी बातों का जमकर स्वागत किया। वेबिनार की बातों से ऐसा महसूस हुआ, जैसे अब भारत जल्दी ही शिक्षा के मामले में विश्व का पथप्रदर्शन करने लगेगा। हमारे कॉलेज और विश्वविद्यालय जल्दी ही अपनी घिसटती चाल को सदा के लिए तिलांजलि दे देंगे और शैक्षणिक विकास के पथ पर इतनी तेजी से दौड़ेंगे कि दुनिया देखती रह जाएगी। इसके अलावा वे यह भी बताते हैं कि इस शिक्षा नीति से स्वच्छ भारत, स्वस्थ्य भारत, आत्मनिर्भर भारत और अंतत: श्रेष्ठ भारत का निर्माण होगा।

नेशनल बोर्ड ऑफ एक्रिडेशन के चैयरमैन के. के. अग्रवाल ने तो यह भी बताया कि हमारे देश के पास एक छठी इंद्रीय है, जिससे हम जान जाते हैं कि आगे क्या होनेवाला है। यह अलग बात है कि इस छठी इंद्रीय के जरिये आज तक हम यह नहीं जान सके कि देश की मौजूदा शिक्षा व्यवस्था इतनी कमजोर क्यों है। वह बताते हैं कि नयी शिक्षा नीति का उद्देश्य समाज में इक्वालिटी (समानता) लाना है। इक्वालिटी की व्याख्या करते हुए वह बताते हैं कि इसका मतलब ई+क्वालिटी है। इक्वालिटी की ऐसी व्याख्या क्या किसी ने सुनी है? शायद नहीं। इसी तरह यूजीसी के चेयरमैन सहस्त्रबुद्धे सभी छात्रों में 14 गुण विकसित करने की बात कहते हैं। इसके अलावा स्वायत्तता पर भी पूरा जोर दिया गया है। बहरहाल, पूरा वेबिनार कल्पना और संकल्पना की उड़ान लेते प्रतीत हो रहा था, जहां ठोस व्यवस्था के लिए कोई जगह नहीं दिखायी दे रही थी।

इसमें कोई शक नहीं कि स्वायत्तता और इंटर डिसिप्लीन की बात किसी भी उच्च शिक्षा संस्थान की गुणवत्ता और प्रसार में सहायक हो सकती है। लेकिन लगता है कि हमारी सरकार को जमीनी हकीकत का कोई भान नहीं है। दूसरी तरफ स्वयत्तता की बात भी भ्रामक लगती है, क्योंकि यह स्वायत्तता शिक्षण संस्थाओं को स्वाभाविक रूप से या स्वत: प्राप्त नहीं होगी, बल्कि आकलन के आधार पर स्वायत्तता प्रदान की जाएगी। जाहिर है कि इसमें केवल सरकार की चलेगी औऱ स्वायत्तता की बात बेमानी होकर रह जाएगी।

यहां इस बात का जिक्र करना जरूरी लगता है कि शिक्षा नीति को तैयार करने और उसे स्वीकृत किए जाने के क्रम में अनेक जरूरी मुद्दों को छोड़ दिया गया है। इसे तैयार करने में  न तो शिक्षा से जुड़े लोगों या संस्थाओं की राय ली गयी और न संसद में इस पर कोई बहस हुयी। कल्पना करना कठिन नहीं है कि बिना संसद की राय जाने और बिना बहस करने के पीछे सरकार का उद्देश्य क्या रहा होगा। जहां तक स्वयत्तता की बात है, तो यह स्पष्ट नहीं है कि इससे सरकार का क्या आशय है। कुल मिलाकर जो तस्वीर उभरती है, वह यही है कि संस्थाओं को वित्तीय स्वयत्तता प्रदान की जाएगी। इसका मतलब कोई यह न समझे कि शिक्षण संस्थाओं को अपने हिसाब और जरूरतों के हिसाब से सरकारी फंड खर्च करने की स्वायत्तता होगी। वास्तव में इसका अर्थ केवल यह है कि फंड जुटाने के लिए संस्थाएं स्वायत्त होंगी। ऐसे में जाहिर है कि हमारी शिक्षण संस्थाएं वंचित तबके का कोई खयाल नहीं रख पाएंगी, क्योंकि वे उन्हीं छात्रों का एडमिशन लेंगी, जो ज्यादा से ज्यादा पैसे दे सकें।

यह जानने के लिए किसी शोध की आवश्यकता नहीं कि आज देश में शिक्षण संस्थाओं की क्या हालत है। देश के महाविद्यालयों औऱ विश्वविद्यालयों में हजारों पद खाली हैं। स्थायी शिक्षकों का तो अकाल-सा हो गया है। आप कल्पना कीजिए कि पटना विश्वविद्यालय के समाज शास्त्र विभाग में केवल एक स्थायी शिक्षक है। यही हाल देश के अन्य कॉलेजों और विश्वविद्यालयों का है। दिल्ली विश्वविद्यालय में हजारों शिक्षक अनुबंध पर काम करते हैं, जिन्हें समय पर वेतन तक नहीं मिलता। क्या ऐसे ही अनुबंध शिक्षकों के बल पर हम विश्वगुरू बनेंगे। पिछले एक दशक में देश के 179 पेशेवर शिक्षण संस्थान बंद हो चुके हैं, जबकि सैकड़ों संस्थानों ने नए एडमिशन लेने से इनकार कर दिया है।

स्कूली शिक्षा का हाल तो और भी बेहाल है। एक तो देश में तरह-तरह के विद्यालय हैं। बिहार औऱ उत्तर प्रदेश में तो सरकारी प्राइमरी स्कूलों का पूरी तरह दलीतीकरण हो चुका है। अब इन स्कूलों में केवल दलित और अत्यंत निर्धन घरों के बच्चे ही पढ़ने जाते हैं, वह भी इसलिए कि वहां उन्हें दोपहर का भोजन मिल जाता है। माना कि बच्चों के पास भाषा का विकल्प दिया गया है, लेकिन जिन बच्चों को भरपेट खाना भी नसीब नहीं होता, उन्हें तो इन्ही गए-गुजरो स्कूलों में पढ़ना होगा और हिन्दी में ही पढ़ना होगा। ऐसे में उनका शैक्षणिक विकास कैसा होगा औऱ वे पढ़कर कौन-सा नौकरी पाएंगे, समझना मुश्किल नहीं है। कहा जाए, तो इस नयी शिक्षा नीति में गरीबों, वंचितों के लिए कोई जगह नहीं है। इस तरह हम देखते हैं कि भाषा का विकल्प केवल एक साजिश है, वंचितों को शिक्षा से वंचित रखने की।

हमारे शिक्षा मंत्री निशंक और उनकी हां में हां मिलानेवाले तथाकथित शिक्षाविद, वाइस चांसलर्स और अन्य समर्थक जो कहें, लेकिन सच तो यही है कि यह शिक्षा नीति समाज के एक बड़े हिस्से को अशिक्षित रखने और एक खास यानी धनी तबके को लाभ पहुंचाने के लिए ही बनायी गयी है। यदि सरकार शिक्षा को बेहतर और सबके लिए सुलभ बनाना चाहती है, तो सबसे पहले उसे समान शिक्षा व्यवस्था बनाने की दिशा में काम करना होगा, वरना यह शिक्षा नीति केवल खयाली पुलाव बनकर रह जाएगी।

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शनिवार, 22 अगस्त 2020

मुद्रा एक अभिव्यक्ति भाव अनेक

 *प्रसंग है*___


एक नवयुवती छज्जे पर बैठी है, 


केश खुले हुए हैं और चेहरे को देखकर लगता है की वह उदास है। उसकी मुख मुद्रा देखकर लग रहा है कि जैसे वह छत से कूदकर आत्महत्या करने वाली है। 


विभिन्न कवियों से अगर इस पर लिखने को कहा जाता तो वो कैसे लिखते.....


😀😀😀😀😀😀😀😀😀


*मैथिली शरण गुप्त*-


अट्टालिका पर एक रमणी अनमनी सी है अहो 

किस वेदना के भार से संतप्त हो देवी कहो ? 

धीरज धरो संसार में, किसके नहीं है दुर्दिन फिरे

हे राम! रक्षा कीजिए, अबला न भूतल पर गिरे।😀


*काका हाथरसी*-


गोरी बैठी छत पर, कूदन को तैयार 

नीचे पक्का फर्श है, भली करे करतार 

भली करे करतार, न दे दे कोई धक्का 

ऊपर मोटी नार, नीचे पतरे कक्का 

कह काका कविराय, अरी मत आगे बढ़ना 

उधर कूदना मेरे ऊपर मत गिर पड़ना।😊


*गुलजार*-


वो बरसों पुरानी ईमारत 

शायद 

आज कुछ गुफ्तगू करना चाहती थी 

कई सदियों से 

उसकी छत से कोई कूदा नहीं था।

और आज 

उस 

तंग हालात 

परेशां

स्याह आँखों वाली 

उस लड़की ने 

ईमारत के सफ़े 

जैसे खोल ही दिए

आज फिर कुछ बात होगी 

सुना है ईमारत खुश बहुत है...😀


*हरिवंश राय बच्चन*-


किस उलझन से क्षुब्ध आज 

निश्चय यह तुमने कर डाला

घर चौखट को छोड़ त्याग

चढ़ बैठी तुम चौथा माला

अभी समय है, जीवन सुरभित

पान करो इस का बाला

ऐसे कूद के मरने पर तो

नहीं मिलेगी मधुशाला 😊


*प्रसून जोशी*-


जिंदगी को तोड़ कर 

मरोड़ कर 

गुल्लकों को फोड़ कर 

क्या हुआ जो जा रही हो 

सोहबतों को छोड़ कर 😄


*रहीम*-


रहिमन कभउँ न फांदिये, छत ऊपर दीवार 

हल छूटे जो जन गिरि, फूटै और कपार 😀


*तुलसी*-


छत चढ़ नारी उदासी कोप व्रत धारी 

कूद ना जा री दुखीयारी 

सैन्य समेत अबहिन आवत होइहैं रघुरारी 😟


*कबीर*-


कबीरा देखि दुःख आपने, कूदिंह छत से नार 

तापे संकट ना कटे , खुले नरक का द्वार'' 😃


*श्याम नारायण पांडे*- 


ओ घमंड मंडिनी, अखंड खंड मंडिनी 

वीरता विमंडिनी, प्रचंड चंड चंडिनी 

सिंहनी की ठान से, आन बान शान से 

मान से, गुमान से, तुम गिरो मकान से 

तुम डगर डगर गिरो, तुम नगर नगर गिरो

तुम गिरो अगर गिरो, शत्रु पर मगर गिरो।😃


*गोपाल दास नीरज*-


हो न उदास रूपसी, तू मुस्काती जा

मौत में भी जिन्दगी के कुछ फूल खिलाती जा

जाना तो हर एक को है, एक दिन जहान से

जाते जाते मेरा, एक गीत गुनगुनाती जा 😀


*राम कुमार वर्मा*-


हे सुन्दरी तुम मृत्यु की यूँ बाट मत जोहो।

जानता हूँ इस जगत का

खो चुकि हो चाव अब तुम

और चढ़ के छत पे भरसक

खा चुकि हो ताव अब तुम

उसके उर के भार को समझो।

जीवन के उपहार को तुम ज़ाया ना खोहो,

हे सुन्दरी तुम मृत्यु की यूँ बाँट मत जोहो।😀


*हनी सिंह*-


कूद जा डार्लिंग क्या रखा है 

जिंजर चाय बनाने में 

यो यो की तो सीडी बज री 

डिस्को में हरयाणे में 

रोना धोना बंद कर

कर ले डांस हनी के गाने में 

रॉक एंड रोल करेंगे कुड़िये 

फार्म हाउस के तहखाने में..


😄😄😄😄😄😄😄😄😄


5 मिनट के बाद वो उठी और बोली --

चलो बाल तो सूख गए अब चल के नाश्ता कर लेती हूं..


😀 *हिन्दी प्रेमियों के लिए* 😀

शुक्रवार, 21 अगस्त 2020

इश्क़ का बुखार

 ट्रैन के ए.सी. कम्पार्टमेंट में मेरे सामने की सीट पर बैठी लड़की ने मुझसे पूछा " हैलो, क्या आपके पास इस मोबाइल की पिन है??" 


उसने अपने बैग से एक फोन निकाला था, और नया सिम कार्ड उसमें डालना चाहती थी। लेकिन सिम स्लॉट खोलने के लिए पिन की जरूरत पड़ती है जो उसके पास नहीं थी। मैंने हाँ में गर्दन हिलाई और सीट के नीचे से अपना बैग निकालकर उसके टूल बॉक्स से पिन ढूंढकर लड़की को दे दी। लड़की ने थैंक्स कहते हुए पिन ले ली और सिम डालकर पिन मुझे वापिस कर दी। 


थोड़ी देर बाद वो फिर से इधर उधर ताकने लगी, मुझसे रहा नहीं गया.. मैंने पूछ लिया "कोई परेशानी??"


वो बोली सिम स्टार्ट नहीं हो रही है, मैंने मोबाइल मांगा, उसने दिया। मैंने उसे कहा कि सिम अभी एक्टिवेट नहीं हुई है, थोड़ी देर में हो जाएगी। और एक्टिव होने के बाद आईडी वेरिफिकेशन होगा उसके बाद आप इसे इस्तेमाल कर सकेंगी। 


लड़की ने पूछा, आईडी वेरिफिकेशन क्यों?? 


मैंने कहा " आजकल सिम वेरिफिकेशन के बाद एक्टिव होती है, जिस नाम से ये सिम उठाई गई है उसका ब्यौरा पूछा जाएगा बता देना"


लड़की बुदबुदाई  "ओह्ह "


मैंने दिलासा देते हुए कहा "इसमे कोई परेशानी की कोई बात नहीं"


वो अपने एक हाथ से दूसरा हाथ दबाती रही, मानो किसी परेशानी में हो। मैंने फिर विन्रमता से कहा "आपको कहीं कॉल करना हो तो मेरा मोबाइल इस्तेमाल कर लीजिए"


लड़की ने कहा "जी फिलहाल नहीं, थैंक्स, लेकिन ये सिम किस नाम से खरीदी गई है मुझे नहीं पता"


मैंने कहा "एक बार एक्टिव होने दीजिए, जिसने आपको सिम दी है उसी के नाम की होगी" 


उसने कहा "ओके, कोशिश करते हैं" 


मैंने पूछा "आपका स्टेशन कहाँ है??"


लड़की ने कहा "दिल्ली"


और आप?? लड़की ने मुझसे पूछा 


मैंने कहा "दिल्ली ही जा रहा हूँ, एक दिन का काम है,


आप दिल्ली में रहती हैं या...?"


लड़की बोली "नहीं नहीं, दिल्ली में कोई काम नहीं , ना ही मेरा घर है वहाँ"


तो  ???? मैंने उत्सुकता वश पूछा


वो बोली "दरअसल ये दूसरी ट्रेन है, जिसमे आज मैं हूँ, और दिल्ली से तीसरी गाड़ी पकड़नी है, फिर हमेशा के लिए आज़ाद" 


आज़ाद?? 

लेकिन किस तरह की कैद से?? 

मुझे फिर जिज्ञासा हुई किस कैद में थी ये कमसिन अल्हड़ सी लड़की.. 


लड़की बोली, उसी कैद में थी जिसमें हर लड़की होती है। जहाँ घरवाले कहे शादी कर लो, जब जैसा कहे वैसा करो। मैं घर से भाग चुकी हुँ..


मुझे ताज्जुब हुआ मगर अपने ताज्जुब को छुपाते हुए मैंने हंसते हुए पूछा "अकेली भाग रही हैं आप? आपके साथ कोई नजर नहीं आ रहा? "


वो बोली "अकेली नहीं, साथ में है कोई"


कौन ? मेरे प्रश्न खत्म नहीं हो रहे थे


दिल्ली से एक और ट्रेन पकड़ूँगी, फिर अगले स्टेशन पर वो जनाब मिलेंगे, और उसके बाद हम किसी को नहीं मिलेंगे..


ओह्ह, तो ये प्यार का मामला है। 


उसने कहा "जी"


मैंने उसे बताया कि 'मैंने भी लव मैरिज की है।'


ये बात सुनकर वो खुश हुई, बोली "वाओ, कैसे कब?" लव मैरिज की बात सुनकर वो मुझसे बात करने में रुचि लेने लगी


मैंने कहा "कब कैसे कहाँ? वो मैं बाद में बताऊंगा पहले आप बताओ आपके घर में कौन कौन है?


उसने होशियारी बरतते हुए कहा " वो मैं आपको क्यों बताऊं? मेरे घर में कोई भी हो सकता है, मेरे पापा माँ भाई बहन, या हो सकता है भाई ना हो सिर्फ बहने हो, या ये भी हो सकता है कि बहने ना हो और 2-4 गुस्सा करने वाले बड़े भाई हो" 


मतलब मैं आपका नाम भी नहीं पूछ सकता "मैंने काउंटर मारा"


वो बोली, 'कुछ भी नाम हो सकता है मेरा, टीना, मीना, रीना, अंजली कुछ भी' 


बहुत बातूनी लड़की थी वो.. थोड़ी इधर उधर की बातें करने के बाद उसने मुझे टाफी दी जैसे छोटे बच्चे देते हैं क्लास में, 

बोली आज मेरा बर्थडे है। 


मैंने उसकी हथेली से टाफी उठाते बधाई दी और पूछा "कितने साल की हुई हो?"


वो बोली "18" 


"मतलब भागकर शादी करने की कानूनी उम्र हो गई आपकी" मैंने काउंटर किया


वो "हंसी"


कुछ ही देर में काफी फ्रैंक हो चुके थे हम दोनों। जैसे बहुत पहले से जानते हो एक दूसरे को.. 


मैंने उसे बताया कि "मेरी उम्र 28 साल है, यानि 10 साल बड़ा हुँ"


उसने चुटकी लेते हुए कहा "लग भी रहे हो"


मैं मुस्कुरा दिया


मैंने उसे पूछा "तुम घर से भागकर आई हो, तुम्हारे चेहरे पर चिंता के निशान जरा भी नहीं है, इतनी बेफिक्री मैंने पहली बार देखी" 


खुद की तारीफ सूनकर वो खुश हुई, बोली "मुझे उन जनाब ने (प्रेमी ने) पहले से ही समझा दिया था कि जब घर से निकलो तो बिल्कुल बिंदास रहना, घरवालों के बारे में बिल्कुल मत सोचना, बिल्कुल अपना मूड खराब मत करना, सिर्फ मेरे और हम दोनों के बारे में सोचना और मैं वही कर रही हूँ"


मैंने फिर चुटकी ली, कहा "उसने तुम्हे मुझ जैसे अनजान मुसाफिरों से दूर रहने की सलाह नहीं दी?"


उसने हंसकर जवाब दिया "नहीं, शायद वो भूल गया होगा ये बताना"


मैंने उसके प्रेमी की तारीफ करते हुए कहा " वैसे तुम्हारा बॉय फ्रेंड काफी टैलेंटेड है, उसने किस तरह से तुम्हे अकेले घर से रवाना किया, नई सिम और मोबाइल दिया, तीन ट्रेन बदलवाई.. ताकि कोई ट्रेक ना कर सके, वेरी टेलेंटेड पर्सन"


लड़की ने हामी भरी,बोली " बोली बहुत टेलेंटेड है वो, उसके जैसा कोई नहीं"


मैंने उसे बताया कि "मेरी शादी को 5 साल हुए हैं, एक बेटी है 2 साल की, ये देखो उसकी तस्वीर" 


मेरे फोन पर बच्ची की तस्वीर देखकर उसके मुंह से निकल गया "सो क्यूट"


मैंने उसे बताया कि "ये जब पैदा हुई, तब मैं कुवैत में था, एक पेट्रो कम्पनी में बहुत अच्छी जॉब थी मेरी, बहुत अच्छी सेलेरी थी.. फिर कुछ महीनों बाद मैंने वो जॉब छोड़ दी, और अपने ही कस्बे में काम करने लगा।" 


लड़की ने पूछा जॉब क्यों छोड़ी?? 


मैंने कहा "बच्ची को पहली बार गोद में उठाया तो ऐसा लगा जैसे स्वर्ग मेरे हाथों में है, 30 दिन की छुट्टी पर घर आया था, वापस जाना था लेकिन जा ना सका। इधर बच्ची का बचपन खर्च होता रहे उधर मैं पूरी दुनिया कमा लूं, तब भी घाटे का सौदा है। मेरी दो टके की नौकरी, बचपन उसका लाखों का.." 


उसने पूछा "क्या पत्नी, बच्चों को साथ नहीं ले जा सकते थे वहाँ?"


मैंने कहा "काफी टेक्निकल मामलों से गुजरकर एक लंबी अवधि के बाद रख सकते हैं, उस वक्त ये मुमकिन नहीं था.. मुझे दोनों में से एक को चुनना था, आलीशान रहन सहन के साथ नौकरी या परिवार.. मैंने परिवार चुना अपनी बेटी को बड़ा होते देखने के लिए। मैं कुवैत वापस गया था, लेकिन अपना इस्तीफा देकर लौट आया।"


लड़की ने कहा "वेरी इम्प्रेसिव"  


मैं मुस्कुराकर खिड़की की तरफ देखने लगा


लड़की ने पूछा "अच्छा आपने तो लव मैरिज की थी न,फिर आप भागकर कहाँ गए??

कैसे रहे और कैसे गुजरा वो वक्त??


उसके हर सवाल और हर बात में मुझे महसूस हो रहा था कि ये लड़की लड़कपन के शिखर पर है, बिल्कुल नासमझ और मासूम छोटी बहन सी। 


मैंने उसे बताया कि हमने भागकर शादी नहीं की, और ये भी है कि उसके पापा ने मुझे पहली नजर में सख्ती से रिजेक्ट कर दिया था।" 


उन्होंने आपको रिजेक्ट क्यों किया?? लड़की ने पूछा


मैंने कहा "रिजेक्ट करने का कुछ भी कारण हो सकता है, मेरी जाति, मेरा काम, मेरा कुल कबीला,घर परिवार, नस्ल या नक्षत्र..इन्ही में से कोई काट होती है जिसके इस्तेमाल से जुड़ते हुए रिश्तों की डोर को काटा जा सकता है" 


"बिल्कुल सही", लड़की ने सहमति दर्ज कराई और आगे पूछा "फिर आपने क्या किया?"


मैंने कहा "मैंने कुछ नहीं किया,उसके पिता ने रिजेक्ट कर दिया, वहीं से मैंने अपने बारे में अलग से सोचना शुरू कर दिया था। खुशबू ने मुझे कहा कि भाग चलते हैं, मेरी पत्नी का नाम खुशबू है..मैंने दो टूक मना कर दिया। वो दो दिन तक लगातार जोर देती रही, कि भाग चलते हैं। मैं मना करता रहा.. मैंने उसे समझाया कि "भागने वाले जोड़े में लड़के की इज़्ज़त पर कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता, जबकि लड़की का पूरा कुल धुल जाता है। फिल्मों में नायक ही होता है जो अपनी प्रेमिका को भगा ले जाए और वास्तविक जीवन में भी प्रेमिका को भगाकर शादी करने वाला नायक ही माना जाता है। लड़की भगाने वाले लड़के के दोस्तों में उस लड़के का दर्जा बुलन्द हो जाता है, भगाने वाला लड़का हीरो माना जाता है लेकिन इसके विपरीत जो लड़की प्रेमी संग भाग रही है वो कुल्टा कहलाती है, मुहल्ले के लड़के उसे चालू, ठीकरा कहते हैं। बुराइयों के तमाम शब्दकोष लड़की के लिए इस्तेमाल किये जाते हैं। भागने वाली लड़की आगे चलकर 60 साल की वृद्धा भी हो जाएगी तब भी जवानी में किये उस कांड का कलंक उसके माथे पर से नहीं मिटता। मैं मानता हूँ कि लड़का लड़की को तौलने का ये दोहरा मापदंड गलत है, लेकिन हमारे समाज में है तो यही , ये नजरिया गलत है मगर सामाजिक अस्तित्व में यही है, लोगों के अवचेतन में भागने वाली लड़की की भद्दी तस्वीर होती है। मैं तुम्हारी पीठ को छलनी करके सुखी नहीं रह सकता, तुम्हारे माँ बाप को दुखी करके अपनी ख्वाहिशें पूरी नहीं कर सकता।"


वो अपने नीचे का होंठ दांतो तले पीसने लगी, उसने पानी की बोतल का ढक्कन खोलकर एक घूंट अंदर सरकाया। 


मैंने कहा अगर मैं उस दिन उसे भगा ले जाता तो उसकी माँ तो शायद कई दिनों तक पानी भी ना पीती। इसलिए मेरी हिम्मत ना हुई कि ऐसा काम करूँ.. मैं जिससे प्रेम करूँ उसके माँ बाप मेरे माँ बाप के समान ही है। चाहे शादी ना हो, तो ना हो।


कुछ पल के लिए वो सोच में पड़ गई , लेकिन मेरे बारे में और अधिक जानना चाहती थी, उसने पूछा "फिर आपकी शादी कैसे हुई???


मैंने बताया कि " खुशबू की सगाई कहीं और कर दी गई थी। धीरे धीरे सब कुछ नॉर्मल होने लगा था। खुशबू और उसके मंगेतर की बातें भी होने लगी थी फोन पर, लेकिन जैसे जैसे शादी नजदीक आने लगी, उन लोगों की डिमांड बढ़ने लगी"


डिमांड मतलब 'लड़की ने पूछा'


डिमांड का एक ही मतलब होता है, दहेज की डिमांड। परिवार में सबको सोने से बने तोहफे दो, दूल्हे को लग्जरी कार चाहिए, सास और ननद को नेकलेस दो वगैरह वगैरह, बोले हमारे यहाँ रीत है। लड़का भी इस रीत की अदायगी का पक्षधर था। वो सगाई मैंने येन केन प्रकारेण तुड़वा डाली.. फिर किसी तरह घरवालों को समझा बुझा कर मैं फ्रंट पर आ गया और हमारी शादी हो गई। ये सब किस्मत की बात थी.. 


लड़की बोली "चलो अच्छा हुआ आप मिल गए, वरना वो गलत लोगों में फंस जाती" 


मैंने कहा "जरूरी नहीं कि माता पिता का फैसला हमेशा सही हो, और ये भी जरूरी नहीं कि प्रेमी जोड़े की पसन्द सही हो.. दोनों में से कोई भी गलत या सही हो सकता है..काम की बात यहाँ ये है कि कौन ज्यादा वफादार है।"


लड़की ने फिर से पानी का घूंट लिया और मैंने भी.. लड़की ने तर्क दिया कि "हमारा फैसला गलत हो जाए तो कोई बात नहीं, उन्हें ग्लानि नहीं होनी चाहिए"


मैंने कहा "फैसला ऐसा हो जो दोनों का हो,बच्चो और माता पिता दोनों की सहमति, वो सबसे सही है। बुरा मत मानना मैं कहना चाहूंगा कि तुम्हारा फैसला तुम दोनों का है, जिसमे तुम्हारे पेरेंट्स शामिल नहीं है, ना ही तुम्हे इश्क का असली मतलब पता है अभी"


उसने पूछा "क्या है इश्क़ का सही अर्थ?" 


मैंने कहा "तुम इश्क में हो, तुम अपना सब कुछ छोड़कर चली आई ये इश्क़ है, तुमने दिमाग पर जोर नहीं दिया ये इश्क है, फायदा नुकसान नहीं सोचा ये इश्क है...तुम्हारा दिमाग़ दुनियादारी के फितूर से बिल्कुल खाली था, उस खाली स्पेस में इश्क इनस्टॉल कर दिया गया। जिन जनाब ने इश्क को इनस्टॉल किया वो इश्क में नहीं है.. यानि तुम जिसके साथ जा रही हो वो इश्क में नहीं, बल्कि होशियारी, हीरोगिरी में है। जो इश्क में होता है वो इतनी प्लानिंग नहीं कर पाता है, तीन ट्रेनें नहीं बदलवा पाता है, उसका दिमाग इतना काम ही नहीं कर पाता.. कोई कहे मैं आशिक हुँ, और वो शातिर भी हो ये नामुमकिन है।


मजनू इश्क में पागल हो गया था, लोग पत्थर मारते थे उसे, इश्क में उसकी पहचान तक मिट गई। उसे दुनिया मजनू के नाम से जानती है जबकि उसका असली नाम कैस था जो नहीं इस्तेमाल किया जाता। वो शातिर होता तो कैस से मजनू ना बन पाता। फरहाद ने शीरीं के लिए पहाड़ों को खोदकर नहर निकाल डाली थी और उसी नहर में उसका लहू बहा था, वो इश्क़ था। इश्क़ में कोई फकीर हो गया, कोई जोगी हो गया, किसी मांझी ने पहाड़ तोड़कर रास्ता निकाल लिया..किसी ने अतिरिक्त दिमाग़ नहीं लगाया..


लालच ,हवस और हासिल करने का नाम इश्क़ नहीं है.. इश्क समर्पण करने को कहते हैं जिसमें इंसान सबसे पहले खुद का समर्पण करता है, जैसे तुमने किया, लेकिन तुम्हारा समर्पण हासिल करने के लिए था, यानि तुम्हारे इश्क में लालच की मिलावट हो गई ।


लड़की अचानक से खो सी गई.. उसकी खिलख़िलाहट और लड़कपन एकदम से खामोशी में बदल गया.. मुझे लगा मैं कुछ ज्यादा बोल गया, फिर भी मैंने जारी रखा, मैंने कहा " प्यार तुम्हारे पापा तुमसे करते हैं, कुछ दिनों बाद उनका वजन आधा हो जाएगा, तुम्हारी माँ कई दिनों तक खाना नहीं खाएगी, ना पानी पियेगी.. जबकि आपको अपने आशिक को आजमा कर देख लेना था, ना तो उसकी सेहत पर फर्क पड़ता, ना दिमाग़ पर, वो अक्लमंद है, अपने लिए अच्छा सोच लेता।

आजकल गली मोहल्ले के हर तीसरे लौंडे लपाडे को जो इश्क हो जाता है, वो इश्क नहीं है, वो सिनेमा जैसा कुछ है। एक तरह की स्टंटबाजी, डेरिंग, अलग कुछ करने का फितूर..और कुछ नहीं।


लड़की के चेहरे का रंग बदल गया, ऐसा लग रहा था वो अब यहाँ नहीं है, उसका दिमाग़ किसी अतीत में टहलने निकल गया है। मैं अपने फोन को स्क्रॉल करने लगा.. लेकिन मन की इंद्री उसकी तरफ थी। 


थोड़ी ही देर में उसका और मेरा स्टेशन आ गया.. बात कहाँ से निकली थी और कहाँ पहुँच गई.. उसके मोबाइल पर मैसेज टोन बजी, देखा, सिम एक्टिवेट हो चुकी थी.. उसने चुपचाप बैग में से आगे का टिकट निकाला और फाड़ दिया.. मुझे कहा एक कॉल करना है, मैंने मोबाइल दिया.. उसने नम्बर डायल करके कहा "सॉरी पापा, और सिसक सिसक कर रोने लगी, सामने से पिता भी फोन पर बेटी को संभालने की कोशिश करने लगे.. उसने कहा पिताजी आप बिल्कुल चिंता मत कीजिए मैं घर आ रही हूँ..दोनों तरफ से भावनाओ का सागर उमड़ पड़ा"


हम ट्रेन से उतरे, उसने फिर से पिन मांगी, मैंने पिन दी.. उसने मोबाइल से सिम निकालकर तोड़ दी और पिन मुझे वापस कर दिया।-


फालतू इश्क से बचाव तथा देश की सभी बेटियों को समर्पित- ये मेरा दावा है माता पिता से ज्यादा तुम्हे दुनिया मे कोई प्यार नहीं करता.....

मंगलवार, 18 अगस्त 2020

शिक्षा...

 शिक्षा....

इस छोटे से बच्चे का मन किताबों में नहीं लगता था। स्कूल की कक्षा में अपनी डेस्क पर बैठे-बैठे भी वो खिड़कियों से बाहर की दुनिया पर निगाह जमाए रखता था। पत्ते हिलते हुए क्या कह रहे हैं। क्या वे खुश हैं। या नाराज। उन पर मंडराती मधुमक्खियां क्या सोच रही हैं। वो हर समय इस सोच में खोया रहता था। 

यह एक संयोग ही है कि उसकी टीचर ने इस बात को समझ लिया। शिक्षिका ने उसे नए तरीके से शिक्षित किया। ज्ञान की ओर अग्रसर करने के लिए नया रास्ता ढूंढा। वे उसे कहतीं कि जाओ और स्कूल के सभी पेड़ों के नाम लिखकर ले आओ। जाओ और पूरे स्कूल में कौन-कौन सी चिड़िया आती हैं, उन पक्षियों के नाम क्या हैं, उनकी खासियतें क्या हैं, वे कैसे बोलती हैं, इसकी पूरी एक लिस्ट बनाकर ले आओ। कक्षा चार-पांच में पढ़ने वाले बच्चे के लिए यह एक अनोखी शिक्षा थी। 

बाद में कुछ ऐसी परिस्थितियां बनीं कि वो बच्चा अपने परिवार के साथ कुछ समय के लिए अफ्रीका के किसी देश में शिफ्ट हो गया। कुछ सालों बाद वहां से लौटा। दिल्ली से पढ़ाई की। पुणे से इंजीनियरिंग की पढ़ाई की। फिर मास्टर डिग्री करने के लिए अमेरिका चला गया। वहां पर इंजीनियर की जॉब भी करने लगा। लेकिन, साल-दो साल में ही उसे यह अहसास हुआ कि नहीं। ये उसकी जगह नहीं है। उसे तो पेड़ों-फूलों-पत्तियों से प्यार है। वो दिल्ली लौट आया। पर्यावरण के प्रति उसका प्यार संरक्षण में प्रगट हुआ। फिलहाल वो दिल्ली में पक्षियो, पेड़ों और तितलियों को बचाने जैसे मामूली काम में लगा हुआ है। उसने महान कामों को अलविदा कर दिया। 

ये कहानी पर्यावरण एक्टिविस्ट मेरे एक मित्र ने मुझे एक दिन सुनाई थी। अपनी उस शिक्षिका को याद करते हुए उन्होंने कहा कि उन्होंने बचपन से ही मेरे अंदर एक बर्ड वॉचर तैयार कर दिया था। बीज बोए जा चुके थे। मौका मिला तो वो बीज एक पेड़ बन गया। 

मैं हैरान रह गया। शिक्षा ऐसे भी दी जा सकती है। लेकिन, मेरे सामने कई दूसरे उदाहरण हैं। यह कोई पंद्रह-बीस साल पहले की बात होगी। एक दिन मैं अपने एक मित्र के घर दिल्ली आया। सुबह-सुबह हम उठे तो बाहर टहलने के लिए निकल दिए। उसकी बस्ती से कुछ ही दूरी पर एक स्कूल का था। नगर निगम का था या दिल्ली सरकार का। अब ये विभाजन तो उस समय याद नहीं है। तमाम बच्चे लाइन में लगे हुए थे। वे प्रार्थना कर रहे थे। लेकिन, देर से आने वाले बच्चों को बाहर रोक दिया गया। जब प्रार्थना खतम हो गई और सभी बच्चे कक्षाओं में चले गए तो देर से आने वाले बच्चों के हाथों में झाड़ू पकड़ा दी गई। उनसे पूरे स्कूल की सफाई करवाई गई। इनमें ज्यादातर लड़कियां थीं। 

उस स्कूल ने तुरंत ही उन्हें दो शिक्षाएं दीं। पहली की साफ-सफाई करना एक सजा है, जब आप गलती करते हैं तो आपको इसकी सजा दी जाती है। यह छोटा काम है। जिसे सामान्य तौर पर नहीं किया जाता। दूसरा कि मेहनत में खुशी नहीं है। बल्कि अपमान है। इसके अलावा भी तमाम सबक हैं। 

अफ्रीकी लेखक न्गूगी वा थ्यांगो अपनी किताब भाषा संस्कृति और अस्मिता में एक बहुत ही भयानक और रोचक किस्सा अपने स्कूली दिनों का बयान करते हैं। वे बताते हैं कि वहां पर औपनिवेशिक सरकार का पूरा जोर था कि बच्चे अपनी भाषा में बात नहीं करें। वहां के लोग गिकूयू या स्वाहिली भाषा में बात करते थे। अपनी मातृ भाषा में उन्हें बात करने से रोकने के लिए सुबह प्रार्थना के समय ही एक बच्चे को एक बटन दिया जाता था। उससे कहा जाता था कि वो इस बटन को उस बच्चे को दे दे जो उससे मातृभाषा में बात कर रहा है। शाम के समय जब स्कूल की छुट्टी होती थी तो यह देखा जाता था कि वह बटन किसके पास है। फिर उस बच्चे से यह पूछा जाता था कि यह बटन उसके पास कहां से आया। 

इस प्रकार वह पूरी चैन सामने आ जाती थी। उस दिन उस स्कूल में कितने बच्चों ने अपनी मातृभाषा में बात की, इसका खुलासा होता था, फिर उसे सजा मिलती थी। इस तरह से औपनिवेशिक सरकार उन्हें दो शिक्षाएं देती थी। पहली तो अपनी मातृभाषा में बात करना एक गुनाह है, जिसकी सजा मिलती है। दूसरी, वो अपने साथियों से गद्दारी सिखाती थी। उन्हीं साथियों से, जिनके साथ ही उसे मरना-जीना है। जिनके साथ ही उनकी नियति जुड़ी हुई है। वो ऐसे जुड़वा तैयार करती है जो अलग-अलग दिशा में जाने की जिद करने लगें। 

न्गूगी वा थ्यांगों की किताब पढ़े हुए मुझे पच्चीस से ज्यादा साल हो गए हैं। इसलिए हो सकता है कि इसकी डिटेल में कुछ कमियां रह गई हों। 

बाकी, हमारी शिक्षा क्या है और उसकी व्यवस्था क्या है, हम उसकी चिंता कितनी करती हैं, इन पर कुछ बातें आपके साथ साझा करने की इच्छा थी, सो यह लिखा।


#junglekatha #जंगलकथा  #जंगलमन

शनिवार, 8 अगस्त 2020

रवि अरोड़ा की नजर (से ) में

 हर कोई नहीं कर सकता


रवि अरोड़ा

मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के अयोध्या में भव्य मंदिर के शिलान्यास पर उनके सभी भक्तों को बहुत बहुत बधाई । आरएसएस व भारतीय जनता पार्टी के तमाम कुनबे को भी बधाई कि उसकी वर्षों की मेहनत सफल हुई । तमाम विपक्षी दलों को भी बहुत बहुत बधाई जो उन्होंने देश को लगातार पीछे खींचने वाले इस मामले मे इस बार कोई अड़चन नहीं डाली । तमाम मुस्लिमों को भी बधाई कि अब उनकी एसे मुद्दे से जान छूटी जो उनके ख़िलाफ़ ध्रुवीकरण का सबसे बड़ा कारण था । लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, कल्याण सिंह और उमा भारती जैसे नेताओं को भी बधाई कि उनके जीते जी मंदिर का काम शुरू हो गया । बधाई उन लाखों राजनीतिक कार्यकर्ताओं को भी जो राम मंदिर के नाम पर वर्षों एक पाँव पर खड़े रहे और देश को भी उन्होंने इस दौरान चैन नहीं लेने दिया । बधाई मुझे, बधाई आपको , बधाई इसे, बधाई उसे , बधाई सबको, बधाई बधाई बधाई । 


अब आप पूछ सकते हैं कि बाक़ी सबको तो बधाई ठीक है मगर घोर अपमान के बावजूद पुरानी पीढ़ी के भाजपाई नेता आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, कल्याण सिंह और उमा भारती आदि को मैंने बधाई किस तंज में दी ? जिन नेताओं ने राम मंदिर आंदोलन शुरू किया और इस मंदिर के निर्माण को सम्भव बनाया उन्हें ही इस कार्यक्रम से दूर रखा गया तो फिर बधाई कैसी ? तो जनाब इन नेताओं ने जो बोया, वही तो काटा है । अटल बिहारी वाजपेयी के साथ मिल कर आडवाणी ने जिस तरह से अपने नेता और जनसंघ के संस्थापक बलराज मधोक को हाशिये पर भेजा वही तो अब उनके चेले मोदी जी उनके साथ कर रहे हैं । उधर, खेमेबंदी के युग में जोशी जी, कल्याण सिंह, उमा भारती और विनय कटियार आदि भी आडवाणी की जिस नाव में बैठे, वह अब डूब रही है तो फिर उन्हें अफ़सोस कैसा ? राजनीति में तो यह होता ही है । आदमी जिस सीढ़ी से ऊपर चढ़ता है सबसे पहले उसे ही तो गिराता है । यही काम अब मोदी जी कर रहे हैं तो आश्चर्य क्यों ? सो मेरी सलाह मानिये और आप भी इन बुज़ुर्ग नेताओं को बधाई दीजिये और उन्हें कहिये कि बुढ़ापे में कोई और फ़ज़ीहत नहीं करवानी तो बधाई लेते देते रहें। 


पता नहीं किस रौ में साध्वी ऋतंभरा कह रही हैं कि बिना बुनियाद के शिखर चमका नहीं करते । आडवाणी और जोशी को कार्यक्रम से दूर रखने पर उनकी यह प्रतिक्रिया बहुत चर्चित हुई है । विनय कटियार भी यही कह रहे हैं कि बुज़ुर्ग नेताओं को मंदिर के कार्यक्रम में अवश्य बुलाया जाना चाहिये था । कुछ अन्य नेता भी दबी ज़ुबान से यही दोहरा रहे हैं मगर मैं इससे सहमत नहीं । अजी मोदी जी वही कर रहे हैं जो राजनीति का पहला पाठ उन्होंने सीखा है । वो अच्छी तरह यह भी जानते हैं कि भविष्य में उनके साथ भी एसा हो सकता है, इसलिए हर बढ़ती बेल को काटते छाँटते रहते हैं । 


बहुत पुरानी बात नहीं है कि जब गुजरात दंगों से ख़फ़ा तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी चाहते थे कि राज्य के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी इस्तीफ़ा दें मगर आडवाणी साहब नरेंद्र मोदी के पक्ष में अड़ गए और उनकी कुर्सी बचा ली ।उन्हें उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर जब उनका नम्बर आएगा तो मोदी मदद करेंगे मगर उनके नेतृत्व में उनकी पार्टी 2004 व 2009 के दो आम चुनाव पार्टी हार गई । इस पर संघ ने जब नये नेतृत्व के विचार को आगे बढ़ाया तो आडवाणी-जोशी की टीम अटक गई और उन्होंने मोदी की राह में काँटे बिछाने शुरू कर दिये । नतीजा मोदी जी के नेतृत्व में भारतीय राजनीति का एक निर्मम इतिहास लिख दिया गया । उन्ही कंधों को छील दिया गया जिन पर कभी सवारी की गई थी । सच कहूँ तो शिलान्यास कार्यक्रम में भाजपा के बुज़ुर्ग नेताओं की उपेक्षा से मैं बहुत प्रसन्न हूँ । मेरी प्रसन्नता का कारण इन नेताओं से किसी क़िस्म की खुन्नस नहीं वरन अपने लोगों का वह अनुभव है जो मुझे अक्सर बताता है कि राजनीति बहुत कुत्ती चीज़ है ।  इसे हर कोई नहीं कर सकता ।

मुखौटे के नीचे 


रवि अरोड़ा


लीजिये भारतीय लोकतंत्र के चेहरे से सेकुलरिज़्म का आख़िरी मुखौटा भी हट गया । अयोध्या में राम मंदिर के शिलान्यास पर कांग्रेस पार्टी जिस तरह ख़ुशी से झूमी है , उससे बची खुची उम्मीद भी जाती रही । हालाँकि धर्मनिरपेक्ष तो कांग्रेस कभी भी नहीं थी मगर इसका ढोंग तो वह ठीक ठाक तरीक़े से पिछले 73 सालों से कर ही रही थी । कांग्रेस ही क्यों भाजपा को छोड़ कर हमारी तमाम राजनीतिक पार्टियाँ यही ड्रामा करती रही हैं मगर अब सबके चेहरे से नक़ाब उतर गया है । ज़ाहिर है कि संविधान में लिख देने भर से कोई देश धर्मनिरपेक्ष नहीं हो जाता, इसे व्यवहार में भी लाना पड़ता है। अब यह भी पूरी तरह से साबित हो चुका है कि धार्मिक उन्माद में आकंठ डूबे देश में सेकुलरिज़्म जैसे प्रयोग छद्म रूप से बेशक सफल नज़र आयें मगर ज़मीनी स्तर पर तो हक़ीक़त कुछ और ही रहती है । 


बताते हैं कि संविधान लिखे जाने से पूर्व ही देश में धर्मनिरपेक्षता पर धड़ेबाज़ी शुरू हो गई थी ।  सरदार पटेल सोमनाथ के मंदिर का जीर्णोद्धार करवाना चाहते थे मगर पंडित नेहरु को भारत की सेकुलर छवि की चिंता थी । सरदार पटेल के निधन के बाद जब तत्कालीन राष्ट्रपति डाक्टर राजेंद्र प्रसाद इस मंदिर का उद्घाटन करने वाले थे तब भी नेहरु ने उन्हें धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देकर कार्यक्रम में जाने से मना किया था और बक़ायदा सभी मुख्यमंत्रियों को भी पत्र लिख कर इस कार्यक्रम में न जाने की सलाह दी थी । मगर उन्ही नेहरु जी की बेटी इंदिरा गांधी ने मुस्लिमों को ख़ुश करने को 1973 में हज यात्रा पर सब्सिडी की शुरुआत कर दी । इंदिरा गांधी ने ही मज़ारों पर चादर चढ़ाने और भिजवाने की परम्परा शुरू की । मंदिरों में जाकर पूजा अर्चना की परम्परा भी उन्ही की देन है । उन्ही इंदिरा गांधी के बेटे राजीव गांधी राजीव गांधी ने 1986 में मुस्लिम तुष्टिकरण को शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला उलट दिया और हिंदुओं को भी ख़ुश करने की ग़रज़ से राम मंदिर के ताले खुलवा दिए । साल 1992 में जब बाबरी मस्जिद गिराई गई तब भी केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी जिसकी इस मामले में मौन सहमति पूरी दुनिया ने महसूस की । राम मंदिर के निर्माण को 1992 में एक अध्यादेश भी तत्कालीन कांग्रेसी प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव लाये थे । कांग्रेस के वर्तमान नेतृत्व की बात करें तो राहुल गांधी के जनेयुधारी होने का दावा और पिछले चुनावों मंदिरों में भजन कीर्तन करना पूरे देश को याद है और अब वही राहुल उनकी बहन प्रियंका गांधी वाड्रा मंदिर निर्माण पर सबको बधाइयाँ दे रहे हैं । 


धर्मनिरपेक्षता की बात करें तो देश में इकलौती भाजपा ही ईमानदार नज़र आती है । वह खुल कर अपने को हिंदुओं की पार्टी कहती है । आप तौर पर वह मुस्लिमों को न तो टिकिट देती है और न ही उसके प्रत्याशी मुस्लिम इलाक़ों में वोट माँगने जाते हैं । वह साधु सन्यासियों को मंत्री-मुख्यमंत्री बनाती है और अघोषित रूप से एसी ही नीतियों को अमल में लाती है जिससे उसके हिंदू मतदाता ख़ुश हों । धर्मनिरपेक्ष कहे जाने वाले देश में एक मंदिर के नाम पर वह आंदोलन चलाती है और फिर उसे भुना कर कई बार अपनी सरकारें बनाती है । उसके मेनिफ़ेस्टो में जो कुछ भी होता है वह भी मूलतः हिंदुओं के लिए होता है । मुस्लिमों के लिए तीन तलाक़ जैसा वह कुछ करती भी है तो उसका उद्देश्य केवल हिंदू  मतदाताओं को ख़ुश करना ही होता है । सीएए और एनआरसी जैसे उसके तमाम मुद्दे इसी दिशा की ओर जाते हैं । उधर, क्षेत्रीय दलों की बात करें तो अधिकांश प्राइवेट लिमिटेड कम्पनियाँ ही हैं जो अपने मालिक की जाति प्लस मुस्लिम वोट के सहारे अपनी दुकान चलाती हैं । माया, मुलायम या लालू किसी का भी नाम लो , सबका एक ही फ़ार्मूला है । मगर इस बार इन नेताओं का भी मुँह बंद है । दरअसल बहुसंख्यक हिंदू मतदाताओं का ख़ौफ़ उन्हें भी है । ले देकर ओवैसी जैसे मुस्लिम नेता ही हैं जो मोर्चा सम्भाले हुए हैं मगर उनका काम भी भाजपा के प्रपंच में सहयोग करना भर ही है । चलिए यह सब तो हो गया मगर सवाल यह है कि भारतीय लोकतंत्र के चेहरे से जो धर्मनिरपेक्षता का यह मुखौटा हटा है तो उसके नीचे से क्या निकलेगा ?  कोई और मुखौटा या फिर कुछ और ?

 फ़ुलझड़ियों का ज़माना


रवि अरोड़ा

दिल्ली में सन चौरासी के सिख विरोधी दंगे की बात है । दंगा गख़त्म होने के अगले दिन दिल्ली पुलिस ने लूटा हुआ माल दंगाइयों से ज़ब्त करना शुरू किया था । उसी दिन दिल्ली के सबसे चर्चित अख़बार जनसत्ता में पहले पेज पर काक का एक कार्टून छपा । इस कार्टून में पुलिस का एक दरोग़ा लाठी लिए खड़ा है और उसकी बग़ल में बरामद किये गए टीवी, फ्रिज, रेडियो आदि का ढेर लगा हुआ है । दरोग़ा मूँछ पर ताव देकर कह रहा है- उन्होंने कहा लुटवा दो, लुटवा दिया। उन्होंने कहा पकड़वा दो, पकड़ना दिया । इन दंगों में पुलिस की भूमिका पर हुई तमाम जाँच, बयान और उस दौर के अख़बारों की तमाम ख़बरों को यदि एक तरफ़ रख भी दें तब भी यह इकलौता कार्टून दिल्ली के हालात बताने को काफ़ी था । छत्तीस साल बाद यह कार्टून स्मृतियों में अचानक तब लौट आया जब मैं आज के अख़बारों में कार्टून कोना तलाशने बैठा । हालाँकि रोज़ाना आधा दर्जन अख़बार चाटता हूँ मगर इस ओर ध्यान ही नहीं गया कि अख़बारों में आजकल कार्टून या ही नहीं छप रहे अथवा उनकी उपस्थिति कम हो गई है । आख़िर एसा हुआ क्या कि कार्टून ग़ायब हो गए ? एक पाठक के तौर पर देखूँ तो यक़ीनन आज भी पाठक सबसे पहले अख़बार में कार्टून देखता है । फिर किस दबाव में सिमट रहा है अख़बारों से कार्टूनों का संसार ? 


आज़ादी के बाद से ही पत्र पत्रिकाओं में व्यंगचित्र यानि कार्टून संप्रेषण के धारदार हथियार के रूप में महत्व पाते रहे हैं । के शंकर पिल्लई, आरके लक्ष्मण व मारियो मिरांडा जैसे कार्टूनिस्टों का जलवा अख़बार के सम्पादक से  भी अधिक होता था । कुट्टी मेनन, रंगा, इरफ़ान, शेखर गुलेरा, आबिद सूरती, सुधीर तैलंग व काक जैसे कार्टूनिस्ट का भी ख़ूब नाम रहा । उस दौर में यूँ भी अख़बारों में कार्टूनिस्ट को सम्पादक के ही समकक्ष माना जाता था । सभी अख़बारों में कम से कम एक कार्टूनिस्ट तो अवश्य होता था जो अख़बार के ब्राण्ड एम्बेसडर जैसा ही माना जाता था । अख़बार में कम से कम दो कार्टून प्रतिदिन अवश्य छपते थे । एक पहले पेज पर और दूसरा सम्पादकीय पृष्ठ पर । ये कार्टून अक्सर संपादकीयों पर भी भारी पड़ते थे मगर अब अचानक कार्टून का संसार सिमट गया । अख़बारों ने फ़ुल टाइम कार्टूनिस्ट रखने बंद कर दिए हैं और कभी कभी फ़्रीलाँसर से ही कार्टून बनवा लेते हैं । पहले कार्टूनिस्ट बनने के प्रोफ़्शनल कोर्सेस लोग करते थे मगर अब तो जमे जमाए कार्टूनिस्ट भी एनिमेशन में करियर तलाश रहे हैं । अकेले भारत में ही नहीं दुनिया के अनेक देशों में एसा हो रहा है। अख़बार लोकतंत्र में ही पनपते हैं और अब दुनिया भर में लोकतांत्रिक मूल्य ही संकट में हैं तो अख़बार और उसके कार्टून कोने पर भी संकट है । 


कार्टून का संसार सिमटने की वजह तलाशने बैठें तो साफ़ नज़र आता है कि सरकारों में अब सहिष्णुता की बेहद कमी होती जा रही है । अख़बारों पर मानहानि के सर्वाधिक मुक़दमे कार्टून को लेकर ही हुए। चूँकि आमतौर पर कार्टून तीखे व्यंग होते हैं और राजनीतिक व प्रभावी लोग उसे निजी हमले के रूप में लेते हैं । नतीजा कार्टूनिस्ट दबाव में हैं कि तीखी टिप्पणी न करें । जो दबाव में नहीं आ रहे उन्हें अपनी नौकरी बचानी मुश्किल हो रही है । उधर, दुनिया भर में कार्टूनिस्टों पर हमले भी हो रहे हैं और अनेक जगह उनकी हत्यायें भी हो चुकी हैं । अपने देश में भी जिस प्रकार से पत्रकारों के ख़िलाफ़ आए दिन मुक़दमे दर्ज हो रहे हैं , उससे भी भय का माहौल है । एक दौर था जब आरके लक्ष्मण पंडित नेहरू को अपने कार्टून में बेहद कमज़ोर और राजीव गांधी को मोटा और गंजा दिखाते थे मगर फिर भी लक्ष्मण से इन नेताओं के बहुत अच्छे सम्बंध थे । राजीव गांधी अक्सर लक्ष्मण से शिकायत करते थे कि अपने कार्टून में आप मुझे गंजा मत दिखाएँ मगर लक्षमन नहीं मानते थे । उनके कार्टून का कामन मैन बड़े बड़े नेताओं की नींद उड़ा देता था । बाल ठाकरे अपने कार्टून में इंदिरा गांधी के क़द से बड़ी उनकी नाक दिखाते थे मगर इंदिरा जी ने कभी शिकायत नहीं की । विचार कीजिये कि क्या आज के दौर में यह सम्भव है ? क्या कोई कार्टूनिस्ट नरेंद्र मोदी अथवा उनके किसी सहयोगी का बेढंगा चित्रण कर सकता है ?  जो भी छुटपुट कार्टून आजकल उनके छपते हैं वे कार्टून नहीं बल्कि स्कैच जैसे ही होते हैं । अब जब सत्ता में सत्य के लिये ही टोलरेंस नहीं है तो व्यंग की गुंजाइश कहाँ से हो ?  यूँ भी कार्टून एक बम होता है और आज का दौर बम नहीं फ़ुलझड़ियों का है । तो चलिये आप भी मेरी तरह फ़ुलझड़ियों से गुज़ारा कीजिये ।

 इतिहासकारों सावधान !


रवि अरोड़ा

लगभग सत्ताईस साल पहले छोटी बहन की शादी जगाधरी में हुई थी । ज़ाहिर है की वहाँ आना-जाना लगा ही रहता है । जगाधरी के पास में ही है एतिहासिक गुरुद्वारा पाँवटा साहब । यूँ तो यह जगह हिमाचल के सिरमौर में है मगर जगाधरी के बेहद पास है अतः जब भी वहाँ जाता हूँ , पाँवटा साहब जाना नहीं भूलता । दरअसल मेरा पूरा परिवार सिख पृष्ठभूमि से है और यही वजह है कि सिख धर्म से नज़दीकियाँ बचपन से ही महसूस करता हूँ । चूँकि बचपन से ही माता-पिता और अन्य बुज़ुर्गों के साथ गुरुद्वारे जाने का अभ्यास है अतः गुरुओं की कुछ बाणी कंठस्थ भी है । अब पाँवटा साहब तो वह जगह ही है जहाँ दसवें गुरु गोविंद सिंह ने अपनी अधिकांश रचनाएँ लिखीं तो पाँवटा के नज़दीक आकर भला कोई कैसे वहाँ नहीं जाएगा । यही वह स्थान है जहाँ गुरु गोविंद सिंह अपना कवि दरबार लगाते थे और लगभग साढ़े चार साल यहाँ रह कर ही उन्होंने अपने उस साहित्यकर्म को सम्पूर्ण किया जिससे करोड़ों लोग आज भी मार्गदर्शन पाते हैं । 


हाल ही में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने यह कहा कि गुरु गोविंद सिंह जी ने भी रामायण लिखी थी और उसका नाम था- गोविंद रामायण, तभी से मन बेचैन है । गुरु गोविंद सिंह की रचनाकर्म स्थली पाँवटा साहब इतनी बार होकर आने के बावजूद यह बात भला मुझे आज तक क्यों नहीं पता चली ? पाँवटा साहेब ही नहीं मैं तो देश के तमाम एतिहासिक गुरुद्वारों में कई कई बार हो आया हूँ और सिख विद्वानों की भी सोहबत में रहा हूँ , फिर मैं कैसे इतनी बड़ी जानकारी से महरूम रहा ? मुझे तो अब तक बस इतनी ही ख़बर थी कि दशम गुरु ने आदि ग्रंथ को पूर्ण करने के अतिरिक्त चण्डी चरित्र, अकाल उस्तत, खालसा महिमा, ज़फ़र नामा और अपनी जीवनी बिचित्र नाटक ही लिखी थी । संत सिपाही के इस लौकिक जीवन में आतातायीयों से लड़ते हुए इससे अधिक लिखने का समय ही उन्हें कहाँ मिला ? पाँवटा के प्रवास के अतिरिक्त तो शायद फिर कभी वे लिख भी न पाये होंगे, फिर ये गोविंद रामायण कहाँ से अवतरित हो गई ? 


जहाँ तक मेरी जानकारी है कि गुरु गोविंद सिंह ने अपने पूरे लेखन में अकाल पुरुष के अतिरिक्त किसी संसारिक व्यक्ति या अवतार का गुणगान नहीं किया । राम-कृष्ण और तमाम अन्य देवी देवता भी उनके रचनाकर्म में कहीं नहीं हैं , फिर उनके द्वारा रामायण लिखने वाली बात किसके दिमाग़ की उपज है ? क्या एसा तो नहीं यह भी हमारे मोदी जी की दिमाग़ी ख़लिश हो क्योंकि इतिहास सम्बंधी एसी ऊलजलूल जानकरियाँ तो वही खोज कर लाते हैं । कबीर दास की जयंती पर वे कहते हैं कि कबीर, गुरु नानक और गुरु गोरख नाथ एक साथ बैठ कर धर्म चर्चा करते थे । जबकि एतिहासिक तथ्य यह है कि तीनो महापुरुषों के जन्मों में सैंकड़ों साल का अंतर है । कभी मोदी जी तक्शिला को बिहार में बताते हैं तो कभी कहते हैं कि सिकंदर को बिहारियों ने मार कर भगाया था । चंद्रगुप्त मोर्या इन्हें गुप्त काल के राजा लगते हैं और श्यामा प्रसाद मुखर्जी गुजराती । स्वामी विवेकानंद और श्यामा प्रसाद मुखर्जी को वे समकालीन बताते हैं तो भगत सिंह के बारे में भी वे हवा हवाई दावे करते हैं । स्वतंत्रता आंदोलन और पंडित नेहरु के बारे में उनकी अनोखी जानकरियों से तो संसद भी रूबरू हो चुकी है । 


सवाल यह है कि क्या मोदी जी कि एतिहासिक जानकरियाँ वाक़ई बेहद कमज़ोर हैं या वे जानबूझकर कर एसा करते हैं । माना नेहरू और स्वतंत्रता आंदोलन सम्बंधी उनके दावे राजनीतिक उद्देश्य से व्यक्त किये जाते हों मगर चंद्रगुप्त मौर्य, सिकंदर, संत कबीर और अब गुरु गोविंद सिंह के बारे में तथ्यहीन बातें उन्होंने क्यों कहीं ? कहीं एसा तो नहीं कि इतिहास को नये सिरे से परिभाषित किया जा रहा हो और इस नए इतिहास में बस सब कुछ वही होगा जो वर्तमान राजनीति के माफ़िक़ हो । अब बिहारियों को यह बताने का क्या फ़ायदा कि सिकंदर पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले पंजाब से ही वापिस लौट गया था । वोट की ख़ातिर कबीर पंथियों को गुदगुदाना हो तो उन्हें बताना ही पड़ेगा कि बाबा नानक और गुरु गोरखनाथ भी तुम्हारे गुरु के पास आते थे । शायद अब इसी तरह राम भक्तों और मंदिर आंदोलन से सिखों को जोड़ने को गोविंद रामायण की बात उछाली गई । अब इतना बड़ा आदमी जो कहेगा वह प्रामाणिक तो मान ही लिया जाएगा । इतिहासकारों सावधान ! तुम्हारा काम भी अब तुमसे छिनने वाला है ।



... 

शुक्रवार, 7 अगस्त 2020

जासूस माताहारी की सीक्रेट जिंदगी की जासूसी

N जर्मनी की मशहूर जासूस माताहारी की सालगिरह, 

अपनी ब्यूटी-डांस के दम पर जाने दुश्मनों से सीक्रेट, फ्रांस ने बेरहमी से ली जान

 माता हारी का नाम महिला जासूसों में आज भी सबसे ऊपर आता है। 7 अगस्त 1876 को नीदरलैंड में पैदा हुईं और पेरिस में पली-बढ़ीं मार्गरेट जेले (माता हारी) पहले विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी की एक एजेंट थी, जिसने जासूसी को जिस्मानी रिश्तों से जोड़ एक नई पहचान दी। जासूसी का पेशा ही इनकी मौत की भी वजह बना। हालांकि, जेले वास्तव में बेडौल शरीर की मलिका थीं। इन्हें ख़ूबसूरत न होने की वजह से एक डांसिंग ग्रुप में जगह नहीं मिली थी और मजबूरी में पहले उसे एक सर्कस में काम करना पड़ा।

पति से हो गया था तलाक

जेले की शादी नीदरलैंड की शाही सेना के एक अधिकारी से हुई थी, जो इंडोनेशिया में तैनात था। दोनों तत्कालीन डच ईस्ट इंडीज के द्वीप जावा में रह रहे थे। इंडोनेशिया में ही वो एक डांस कंपनी में शामिल हो गई और अपना नाम बदलकर माता हारी कर लिया। मलय भाषा में माता हारी का मतलब होता है दिन की आंख यानी सूर्य। नीदरलैंड्स लौटने के बाद 1907 में माता हारी ने अपने पति को तलाक दे दिया और पेशेवर डांसर के रूप में पेरिस चली गईं।

रातोंरात मिली कामयाबी

पेरिस में उसने अपनी खूबसूरती और अपनी मोहक अदाओं से लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया और उसका नाम रातों-रात सबकी जुबान पर चढ़ गया। उसकी कामयाबी ने ‘एक्जॉटिक डांस’ शैली को भी एक खास मुकाम दिलाया। इस दौरान माता हारी के कई शीर्षस्थ सैन्य अधिकारियों, राजनेताओं और अन्य प्रभावशाली व्यक्तियों से संबंध रहे, जिनमें जर्मन प्रिंस भी शामिल थे। पहले विश्व युद्ध में नीदरलैंड्स तटस्थ था। माता हारी ने फ्रांस, नीदरलैंड्स और स्पेन के बीच कई यात्राएं कीं।

जासूसी के शक में गई जान

एक बार स्पेन जाते वक्त उसे इंग्लैंड के फालमाउथ बंदरगाह पर गिरफ्तार कर लिया गया। उस पर जासूसी करने का आरोप था। उसे लंदन लाया गया। फ्रांसीसी और ब्रिटिश खुफिया तंत्र को शक था कि माता हारी जर्मनी के लिए जासूसी करती है, लेकिन उनके पास कोई सबूत नहीं थे। हालांकि, इसके बावजूद उस पर डबल एजेंट होने का इल्जाम लगाया गया और फ्रांस में फायरिंग स्क्वैड द्वारा उसे गोलियों से भून दिया गया। उसका अंतिम संस्कार करने उसके परिवार का कोई भी व्यक्ति सामने नहीं आया। माता हारी के जीवनी लेखक रसेल वारेन हाउ ने 1985 में फ्रांसीसी सरकार को यह मानने को राजी कर लिया कि वह निर्दोष थी।’(दैनिक  भास्कर  से  अनुसरण

गुरुवार, 6 अगस्त 2020

राम के राम सुतार / विवेक शुक्ला

Navbharatimes 

राम के राम सुतार
विवेक शुक्ला 
राम सुतार रेल भवन के आगे से गुजरते हुए गोविन्द वल्लभ पंत की आदमकद प्रतिमा को अवश्य देखते हैं। दरअसल बात ही कुछ इस तरह की है। ये दिल्ली में उनकी पहली कृति थी। दो साल तक सरकारी नौकरी करने के बाद उन्होंने 1960 में स्वतंत्र रूप से काम करना शुरू किया था। पंत जी के 1961 में निधन के बाद राम सुतार को उनकी मूर्ति बनाने का मौका मिला। 

इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। इस  सफल यात्रा के दौरान सुतार जी ने सैकड़ों मूर्तियां को बनाया-तराशा। 94 साल में भी सक्रिय सुतार जी को अब बेहद चुनौतीपूर्ण जिम्मेदारी मिली  है। अब वे बना रहे हैं सरयू नदी के किनारे  स्थापित होने वाली भगवान राम की विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा। इसकी लंबाई 251 फीट होगी। इसके  निर्माण के काम का श्रीगणेश हो चुका है। 

 सुतार जी ने ही सरदार पटेल की चर्चित प्रतिमा ‘स्टेच्यू आफ यूनिटी’ तैयार की थी। महाराष्ट्र से संबंध रखने वाले सुतार जी की प्रतिमाओं में गति व भाव का शानदार समन्वय रहता है। हरेक भारतीय और मराठी मानुष की तरह सुतार जी भी मानते हैं कि शिवाजी महाराज एक धर्मनिरपेक्ष राजा थे। 

संसद भवन में स्थापित शिवाजी की 18 फीट ऊंची तांबे की मूर्ति को राम सुतार ने सुंदर तरीके से तैयार किया था। पर वे इससे पहले और बाद में संसद भवन में देश की कई शख्सियतों की स्थापित प्रतिमाओं को बना चुके थे। जैसे कि गांधी जी, महाराजा रंजीत सिंह, महात्मा ज्योतिराव फूले,छत्रपति साहू महाराज, पंडित नेहरू, इंदिरा गांधी, सरदार पटेल, जय प्रकाश नारायण वगैरह। ये सब मुंह से बोलती मूर्तियां हैं। ये असाधारण हैं। मतलब यह कि संसद भवन में उनकी चप्पे-चप्पे पर उपस्थिति हैं। उनके काम को बिना देखे कोई आगे नहीं बढ़ सकता। 

राम सुतार निस्संदेह आधुनिक भारतीय मूर्ति कला के सबसे महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों में से एक माने जाएंगे। 
सुतार जी चाहे आदमकद मूर्ति बनाएं या धड़प्रतिमा, वे उसमें जान डाल देते हैं। वे पूरे समपर्ण और शोध करने  के बाद ही किसी प्रतिमा पर काम करना आरंभ करते हैं। वे अपनी शर्तों पर काम लेते और करते हैं। वे समय सीमा के बंधन में बंधना पसंद नहीं करते। संत प्रवृति के राम सुतार अपना श्रेष्ठतम काम तब दिखाते हैं जब उन्हें 
पूरी छूट मिलती है। वे काम के बीच में किसी का हस्तेक्षप कतई स्वीकार नहीं करते। इससे उनकी एकाग्रता भंग होती है। 

सबसे पहले विक्रम विहार, फिर लक्ष्मी नगर और बीते कुछ सालों से नोएडा के अपने स्टुडियों में सक्रिय राम सुतार ने भगत सिंह को संसद भवन में लगी प्रतिमा में पगड़ी में दिखाया। इस पर विवाद भी हुआ था। कहने वाले कहने लगे थे कि भगत सिंह तो हैट पहनते थे। इस पर सुतार जी का जवाब था कि उन्होंने भगत सिंह की हुसैनीवाला में लगी प्रतिमा के आधार पर संसद भवन में लगी प्रतिमा का निर्माण किया था। शहीद पार्क में लगी प्रतिमा में भी भगत सिंह पगड़ी में है। 
इधर भगत सिंह के साथ राज गुरु और सुखदेव भी हैं। दिल्ली विधानसभा में वे भगत सिंह को हैट में दिखाते हैं। ये सब सुतार जी की ही कृतियां हैं। पर अब वह सिर्फ़ भगवान  राम की प्रतिमा बनाने मेें ही व्यस्त हैं । 
ये लेख 6 अगस्त 2020 को पब्लिश हुआ।

बुधवार, 5 अगस्त 2020

रवि अरोड़ा की नजर से.....

हर कोई नहीं कर सकता


रवि अरोड़ा

मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के अयोध्या में भव्य मंदिर के शिलान्यास पर उनके सभी भक्तों को बहुत बहुत बधाई । आरएसएस व भारतीय जनता पार्टी के तमाम कुनबे को भी बधाई कि उसकी वर्षों की मेहनत सफल हुई । तमाम विपक्षी दलों को भी बहुत बहुत बधाई जो उन्होंने देश को लगातार पीछे खींचने वाले इस मामले मे इस बार कोई अड़चन नहीं डाली । तमाम मुस्लिमों को भी बधाई कि अब उनकी एसे मुद्दे से जान छूटी जो उनके ख़िलाफ़ ध्रुवीकरण का सबसे बड़ा कारण था । लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, कल्याण सिंह और उमा भारती जैसे नेताओं को भी बधाई कि उनके जीते जी मंदिर का काम शुरू हो गया । बधाई उन लाखों राजनीतिक कार्यकर्ताओं को भी जो राम मंदिर के नाम पर वर्षों एक पाँव पर खड़े रहे और देश को भी उन्होंने इस दौरान चैन नहीं लेने दिया । बधाई मुझे, बधाई आपको , बधाई इसे, बधाई उसे , बधाई सबको, बधाई बधाई बधाई । 

अब आप पूछ सकते हैं कि बाक़ी सबको तो बधाई ठीक है मगर घोर अपमान के बावजूद पुरानी पीढ़ी के भाजपाई नेता आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, कल्याण सिंह और उमा भारती आदि को मैंने बधाई किस तंज में दी ? जिन नेताओं ने राम मंदिर आंदोलन शुरू किया और इस मंदिर के निर्माण को सम्भव बनाया उन्हें ही इस कार्यक्रम से दूर रखा गया तो फिर बधाई कैसी ? तो जनाब इन नेताओं ने जो बोया, वही तो काटा है । अटल बिहारी वाजपेयी के साथ मिल कर आडवाणी ने जिस तरह से अपने नेता और जनसंघ के संस्थापक बलराज मधोक को हाशिये पर भेजा वही तो अब उनके चेले मोदी जी उनके साथ कर रहे हैं । उधर, खेमेबंदी के युग में जोशी जी, कल्याण सिंह, उमा भारती और विनय कटियार आदि भी आडवाणी की जिस नाव में बैठे, वह अब डूब रही है तो फिर उन्हें अफ़सोस कैसा ? राजनीति में तो यह होता ही है । आदमी जिस सीढ़ी से ऊपर चढ़ता है सबसे पहले उसे ही तो गिराता है । यही काम अब मोदी जी कर रहे हैं तो आश्चर्य क्यों ? सो मेरी सलाह मानिये और आप भी इन बुज़ुर्ग नेताओं को बधाई दीजिये और उन्हें कहिये कि बुढ़ापे में कोई और फ़ज़ीहत नहीं करवानी तो बधाई लेते देते रहें। 

पता नहीं किस रौ में साध्वी ऋतंभरा कह रही हैं कि बिना बुनियाद के शिखर चमका नहीं करते । आडवाणी और जोशी को कार्यक्रम से दूर रखने पर उनकी यह प्रतिक्रिया बहुत चर्चित हुई है । विनय कटियार भी यही कह रहे हैं कि बुज़ुर्ग नेताओं को मंदिर के कार्यक्रम में अवश्य बुलाया जाना चाहिये था । कुछ अन्य नेता भी दबी ज़ुबान से यही दोहरा रहे हैं मगर मैं इससे सहमत नहीं । अजी मोदी जी वही कर रहे हैं जो राजनीति का पहला पाठ उन्होंने सीखा है । वो अच्छी तरह यह भी जानते हैं कि भविष्य में उनके साथ भी एसा हो सकता है, इसलिए हर बढ़ती बेल को काटते छाँटते रहते हैं । 

बहुत पुरानी बात नहीं है कि जब गुजरात दंगों से ख़फ़ा तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी चाहते थे कि राज्य के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी इस्तीफ़ा दें मगर आडवाणी साहब नरेंद्र मोदी के पक्ष में अड़ गए और उनकी कुर्सी बचा ली ।उन्हें उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर जब उनका नम्बर आएगा तो मोदी मदद करेंगे मगर उनके नेतृत्व में उनकी पार्टी 2004 व 2009 के दो आम चुनाव पार्टी हार गई । इस पर संघ ने जब नये नेतृत्व के विचार को आगे बढ़ाया तो आडवाणी-जोशी की टीम अटक गई और उन्होंने मोदी की राह में काँटे बिछाने शुरू कर दिये । नतीजा मोदी जी के नेतृत्व में भारतीय राजनीति का एक निर्मम इतिहास लिख दिया गया । उन्ही कंधों को छील दिया गया जिन पर कभी सवारी की गई थी । सच कहूँ तो शिलान्यास कार्यक्रम में भाजपा के बुज़ुर्ग नेताओं की उपेक्षा से मैं बहुत प्रसन्न हूँ । मेरी प्रसन्नता का कारण इन नेताओं से किसी क़िस्म की खुन्नस नहीं वरन अपने लोगों का वह अनुभव है जो मुझे अक्सर बताता है कि राजनीति बहुत कुत्ती चीज़ है ।  इसे हर कोई नहीं कर सकता ।

राग दरबारी के दरबार में कुछ टीका टिप्पणी

श्रीलाल शुक्ल का 'राग दरबारी'  1968 में प्रकाशित हुआ था। बेस्ट सेलर है। तब से इसके कई संस्करण छप चुके हैं। तब लेखक पत्रकार और पत्रकारिता के विषय में इस उपन्यास में की गई टिप्पणी पर गौर कीजिए...


...
*उस शहर में लगभग आधे दर्जन हिन्दी और उर्दू के चीथड़े निकलते थे, जिन्हें वहाँ साप्ताहिक पत्र कहा जाता था। चीथड़े उड़ाने वाले कुछ अर्द्धशिक्षित लोग थे जो अपने को पत्रकार कहते थे और जिनको पत्रकार लोग शोहदा कहते थे। इन चीथड़ों में प्रायः अदालतों की नोटिसों और सड़क की घटनाओं का वृतांत छपा करता था। साथ ही, निश्चित रूप से प्रत्येक चीथड़े में किसी अफसर के जीवन की ऐसी घटना का विवरण छपता था जिसमें एक पात्र तो वह स्वयं होता था और शराब की बोतल, छोकरी, नोट की गड्डी, जुआ या दलाल का जिक्र दूसरे पात्र की हैसियत से हुआ करता था। ये चीथड़े अदालतों और अफसरों की दुनिया में बड़े गौर से पढ़े जाते थे और उन क्षेत्रों में हिन्दी-उर्दू पत्रकारिता के खतरे की दलील पेश करते थे। कभी-कभी अचानक किसी अफसर के जीवन वृतांत का खंडन भी छप जाता था, जिससे पता चलता था कि संपादक ने अमुक तिथि के चीथड़े में छपी हुई घटना की स्वयं जांच की है और पाया कि उसमें कोई सत्य नहीं है और उन्हें उस समाचार के छपने का खेद है और अपने विशेष संवाददाता पर, जिसे अब नौकरी से निकाल कर मूंगफली बेचने के लिए मजबूर कर दिया गया है, रोष है। जिस अफसर के पक्ष में इस तरह का खंडन छपता था वह अपने साथियों से मुस्कुरा कर कहता था, ''देखा? '' और उसके साथी उसकी पीठ-पीछे कहते थे कि संपादक जी ने इसे भी दुहे बिना माने नहीं और इस तरह के साहित्य और शासन का संपर्क दिन-पर-दिन गाढ़ा होता जाता था। इन चीथड़ों की सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक दृष्टि से यही उपयोगिता थी।*

- श्रीलाल शुक्ल जी के राग दरबारी से
(अध्याय 30)

सोमवार, 3 अगस्त 2020

संस्कृत की ताकत

#संस्कृत_की_सामर्थ्य

प्रस्तुति - नलिन चौहान 


_देखिए अंग्रेजी में एक प्रसिद्ध वाक्य है "THE QUICK BROWN FOX JUMPS OVER A LAZY DOG" - कहा जाता है कि इसमें अंग्रेजी वर्णमाला के सभी अक्षर समाहित कर लिए गए । जबकि यदि हम ध्यान से देखे तो आप पायेंगे कि , अंग्रेजी वर्णमाला में कुल 26 अक्षर ही उपलब्ध हैं, जबकि उपरोक्त वाक्य में 33 अक्षर प्रयोग किये गए हैं, जिसमे चार बार O का प्रयोग A, E, U तथा R अक्षर के क्रमशः 2 बार प्रयोग दिख रहे हैं। अपितु अक्षरों का क्रम भी सही नहीं है। आप किसी भी भाषा को उठा के देखिए, आपको कभी भी संस्कृत जितनी खूबसूरत और समृद्ध भाषा देखने को नहीं मिलेगी । संस्कृत वर्णमाला के सभी अक्षर एक श्लोक में व्यवस्थित क्रम में देखने को मिल जाएगा - "क:खगीघाङ्चिच्छौजाझाञ्ज्ञोSटौठीडढण:। तथोदधीन पफर्बाभीर्मयोSरिल्वाशिषां सह।।" अनुवाद - पक्षियों का प्रेम, शुद्ध बुद्धि का, दूसरे का बल अपहरण करने में पारंगत, शत्रु-संहारकों में अग्रणी, मन से निश्चल तथा निडर और महासागर का सृजन कर्ता कौन? राजा मय कि जिसको शत्रुओं के भी आशीर्वाद मिले हैं। संस्कृत भाषा वृहद और समृद्ध भाषा है, इसे ऐसे ही देववाणी नहीं कहा जाता है । आइये कुछ संस्कृत के श्लोकों को देखते हैं - क्या किसी भाषा मे सिर्फ #एक अक्षर से ही पूरा वाक्य लिखा जा सकता है ? जवाब है ,संस्कृत को छोड़कर अन्य किसी भाषा मे ऐसा करना असंभव है । उदाहरण - "न नोननुन्नो नुन्नोनो नाना नानानना ननु। नुन्नोऽनुन्नो ननुन्नेनो नानेना नुन्ननुन्ननुत्॥" अनुवाद : हे नाना मुख वाले (नानानन)! वह निश्चित ही (ननु) मनुष्य नहीं है, जो अपने से कमजोर से भी पराजित हो जाऐ। और वह भी मनुष्य नहीं है (ना-अना) जो अपने से कमजोर को मारे (नुन्नोनो)। जिसका नेता पराजित न हुआ हो ,वह हार जाने के बाद भी अपराजित है (नुन्नोऽनुन्नो)। जो पूर्णतः पराजित को भी मार देता है (नुन्ननुन्ननुत्), वह पापरहित नहीं है (नानेना)। उपरोक्त एक प्रचलित उदाहरण है । चलिए अन्य को देखते हैं - "दाददो दुद्द्दुद्दादि दादादो दुददीददोः दुद्दादं दददे दुद्दे ददादददोऽददः" अनुवाद : दान देने वाले, खलों को उपताप देने वाले, शुद्धि देने वाले, दुष्ट्मर्दक भुजाओं वाले, दानी तथा अदानी दोनों को दान देने वाले, राक्षसों का खण्डन करने वाले ने, शत्रु के विरुद्ध शस्त्र को उठाया। एक अन्य देखिए - "कः कौ के केककेकाकः काककाकाककः ककः। काकः काकः ककः काकः कुकाकः काककः कुकः ॥ काककाक ककाकाक कुकाकाक ककाक क। कुककाकाक काकाक कौकाकाक कुकाकक ॥" अनुवाद - परब्रह्म (कः) [श्री राम] पृथ्वी (कौ) और साकेतलोक (के) में [दोनों स्थानों पर] सुशोभित हो रहे हैं। उनसे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में आनन्द निःसृत होता है। वह मयूर की केकी (केककेकाकः) एवं काक (काकभुशुण्डि) की काँव-काँव (काककाकाककः) में आनन्द और हर्ष की अनुभूति करते हैं। उनसे समस्त लोकों (ककः) के लिए सुख का प्रादुर्भाव होता है। उनके लिए [वनवास के] दुःख भी सुख (काकः) हैं। उनका काक (काकः) [काकभुशुण्डि] प्रशंसनीय है। उनसे ब्रह्मा (ककः) को भी परमानन्द की प्राप्ति होती है। वह [अपने भक्तों को] पुकारते (काकः) हैं। उनसे कूका अथवा सीता (कुकाकः) को भी आमोद प्राप्त होता है। वह अपने काक [काकभुशुण्डि] को पुकारते (काककः) हैं , और उनसे सांसारिक फलों एवं मुक्ति का आनन्द (कुकः) प्रकट होता है। हे मेरे एकमात्र प्रभु ! आप जिनसे [जयंत] काक के (काककाक) शीश पर दुःख [रूपी दण्ड प्रदान किया गया] था; आप जिनसे समस्त प्राणियों (कका) में आनन्द निर्झरित होता है; कृपया पधारें, कृपया पधारें (आक आक)। हे एकमात्र प्रभु! जिनसे सीता (कुकाक) प्रमुदित हैं; कृपया पधारें (आक)। हे मेरे एकमात्र स्वामी! जिनसे ब्रह्माण्ड (कक) के लिए सुख है; कृपया आ जाइए (आक)। हे भगवन (क)! हे एकमात्र प्रभु ! जो नश्वर संसार (कुकक) में आनन्द खोज रहे व्यक्तियों को स्वयं अपनी ओर आने का आमंत्रण देते हैं; कृपया आ जाएँ, कृपया पधारें (आक आक)। हे मेरे एकमात्र नाथ ! जिनसे ब्रह्मा एवं विष्णु (काक) दोनों को आनन्द है; कृपया आ जाइए (आक)। हे एक ! जिनसे ही भूलोक (कौक) पर सुख है; कृपया पधारें, कृपया पधारें (आक आक)। हे एकमात्र प्रभु ! जो (रक्षा हेतु) दुष्ट काक द्वारा पुकारे जाते हैं (कुकाकक) । "लोलालालीललालोल लीलालालाललालल। लेलेलेल ललालील लाल लोलील लालल ॥" अनुवाद - हे एकमात्र प्रभु! जो अपने घुँघराले केशों की लटों की एक पंक्ति के साथ (लोलालालीलल) क्रीड़ारत हैं; जो कदापि परिवर्तित नहीं होते (अलोल); जिनका मुख [बाल] लीलाओं में श्लेष्मा से परिपूर्ण है (लीलालालाललालल); जो [शिव धनुर्भंग] क्रीड़ा में पृथ्वी की सम्पत्ति [सीता] को स्वीकार करते हैं (लेलेलेल); जो मर्त्यजनों की विविध सांसारिक कामनाओं का नाश करते हैं (ललालील), हे बालक [रूप राम] (लाल)! जो प्राणियों के चंचल प्रकृति वाले स्वभाव को विनष्ट करते हैं (लोलील); [ऐसे आप सदैव मेरे मानस में] आनन्द करें (लालल)। क्या किसी भाषा मे सिर्फ #दो अक्षर से ही पूरा वाक्य लिखा जा सकता है ? जवाब है संस्कृत को छोड़कर अन्य किसी भाषा में ऐसा करना असंभव है । उदाहरण - "भूरिभिर्भारिभिर्भीराभूभारैरभिरेभिरे भेरीरे भिभिरभ्राभैरभीरुभिरिभैरिभा: ।" अनुवाद - निर्भय हाथी ;जो की भूमि पर भार स्वरूप लगता है ,अपने वजन के चलते, जिसकी आवाज नगाड़े की टेरेह है और जो काले बादलों सा है ,वह दूसरे दुश्मन हाथी पर आक्रमण कर रहा है। अन्य उदाहरण - "क्रोरारिकारी कोरेककारक कारिकाकर । कोरकाकारकरक: करीर कर्करोऽकर्रुक ॥" अनुवाद - क्रूर शत्रुओं को नष्ट करने वाला, भूमि का एक कर्ता, दुष्टों को यातना देने वाला, कमलमुकुलवत ,रमणीय हाथ वाला, हाथियों को फेंकने वाला , रण में कर्कश, सूर्य के समान तेजस्वी (था) । पुनः.....क्या किसी भाषा मे सिर्फ #तीन अक्षर से ही पूरा वाक्य लिखा जा सकता है ?? जवाब है संस्कृत को छोड़कर अन्य किसी भाषा मे ऐसा करना असंभव है - उदाहरण -देवानां नन्दनो देवो नोदनो वेदनिंदिनां दिवं दुदाव नादेन दाने दानवनंदिनः ।। वह परमात्मा ( विष्णु) जो दूसरे देवों को सुख प्रदान करता है और जो वेदों को नहीं मानते उनको कष्ट प्रदान करता है। वह स्वर्ग को उस ध्वनि नाद से भर देता है ,जिस तरह के नाद से उसने दानव (हिरण्यकशिपु ) को मारा था। #विशेष - निम्न छंद में पहला चरण ही चारों चरणों में चार बार आवृत्त हुआ है ,लेकिन अर्थ अलग-अलग हैं, जो यमक अलंकार का लक्षण है। इसीलिए ये महायमक संज्ञा का एक विशिष्ट उदाहरण है - विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणा विकाशमीयुर्जतीशमार्गणा:। विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणा विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणा:॥ अनुवाद - पृथ्वीपति अर्जुन के बाण विस्तार को प्राप्त होने लगे ,जब कि शिव जी के बाण भंग होने लगे। राक्षसों के हंता प्रथम गण विस्मित होने लगे तथा शिव का ध्यान करने वाले देवता एवं ऋषिगण (इसे देखने के लिए) पक्षियों के मार्गवाले आकाश-मंडल में एकत्र होने लगे। एक अन्य विशिष्ट शब्द संयोजन - जजौजोजाजिजिज्जाजी तं ततोऽतितताततुत् । भाभोऽभीभाभिभूभाभू- रारारिररिरीररः ॥ अनुवाद - महान योद्धा कई युद्धों के विजेता,शुक्र और बृहस्पति के समान तेजस्वी, शत्रुओं के नाशक बलराम, रणक्षेत्र की ओर ऐसे चले ,मानो चतुरंगिणी सेना से युक्त शत्रुओं की गति को अवरुद्ध करता हुआ शेर चला आ रहा हो। तो मेरे प्रिय बंधु तुलना करने के लिए समकक्ष होने की अनिवार्यता होती है ।। साभार : अजेष्ठ त्रिपाठी

रविवार, 2 अगस्त 2020

सुंदर मनमोहक प्रेरक मनभावन उक्तियाँ

जिसे गुण की पहचान नही*,

*उसकी " प्रशंसा " से डरिए*।
             *
और*
*जिसे गुण की पहचान है*,
*उसके " मौन "से  डरिए* !!
            
*🌹🌹*

*रिश्ते बनाना इतना आसान जैसे -*
*'मिट्टी' पर 'मिट्टी' से  "मिट्टी"  लिखना....!*

*लेकिन रिश्ते निभाना उतना ही मुश्किल जैसे-*
*'पानी' पर 'पानी' से  "पानी"  लिखना.....!!*
             
    *🙏🏻शुभ प्रभात 🙏🏻*
 🌈🌈


*हमारी खुशी हमारी सोच पर निर्भर है*

*हम शिकायत कर सकते हैं कि गुलाब की झाड़ियों में कांटें हैं*

 *या खुश हो सकते हैं कि काँटों की झाड़ियों में गुलाब हैं*..


*🌹🙏🌹सुप्रभात🌹🙏🌹*
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹


*किसी को गलत,*


     *समझने से पहले एक बार,*


     *उसके हालात समझने की,*


         *कोशिश जरूर करें...*


        *हम सही हो सकते हैं...*


           *लेकिन मात्र हमारे*


               *सही होने से ,*


           *सामने वाला गलत*


           *नहीं हो सकता...!!!*
🙏🙏🙏🙏

पन्नों की तरह*
*दिन पलटते जा रहें हैं.*
*खबर नहीं कि ये*
*आ रहें हैं या जा रहे हैं.*


🙏🌷सुप्रभात🙏🌷
*🙏🙏सुप्रभात🙏🙏*


            *🌴आज का सुविचार🌴*


*"लफ़्ज़" "आईने" हैं*
   *मत इन्हें "उछाल" के चलो*

  *"अदब" की "राह" मिली है तो*
       *"देखभाल" के चलो*

    *मिली है "ज़िन्दगी" तुम्हे*
      *इसी ही "मकसद" से,*

   *"सँभालो" "खुद" को भी और*
*"औरों" को भी "सँभाल" के चलो*

*‼👣जय श्री कृष्णा👣‼*


कुछ इकठ्ठा भी उन्हीं के पास होता है, 

जो बाँटना जानते हैं,*

*फिर चाहे भोजन हो,*
*प्यार हो,या सम्मान "*  
  
🙏 *सुप्रभात*🙏


    *संबंध और पानी*
         एक समान होते है। 
     न कोई *रंग*, न कोई *रूप*, 
      पर फिर भी जीवन के 
         *अस्तित्व* के लिए 
         सबसे *महत्वपूर्ण*…।            

सुप्रभात🍹🌹    

                                           
*यदि हर कोई आप से खुश है*
   *तो ये निश्चित है कि आपने जीवन*
      *में बहुत से समझौते किये हैं...*
                     *और*
          *यदि आप सबसे खुश हैं*
   *तो ये निश्चित है कि आपने लोगों*
          *की बहुत सी ग़लतियों*
        *को नज़रअंदाज़ किया है।*

       *सुप्रभात 🌹*


[7/8, 09:53] KS कुसुम सहगल दीदी: 

बहुत सुंदर 

*''रहता हूं किराये की काया में,*
*रोज़ सांसों को बेच कर किराया चूकाता हूँ।*

*मेरी औकात है बस मिट्टी जितनी,*
*बातें मैं महल मिनारों की कर जाता हूँ।*

*जल जायेगी ये मेरी काया एक दिन,*
*फिर भी इसकी खूबसूरती पर इतराता हूँ।*

*मुझे पता हैे मैं खुद के सहारे श्मशान तक भी ना जा सकूंगा*
*इसीलिए जमाने में दोस्त बनाता हूँ!''*


🙏🏻🙏🏻🙏🏻

            *🙏🏻 🙏🏻सुप्रभात*

          *💐💐 🌷 💐💐*

जिन्दगी" मे कभी किसी को "कम" मत समझो।*

*पूरी दुनिया को "डूबाने" की "ताकत" रखने वाला "समंदर"*
*"तेल" की एक बूंद को नही "डूबो" सकता...।।*


*🌹🌹सुप्रभात 🌹🌹*


: *जीवन में बुराई अवश्य हो सकती है,*
*मगर जीवन बुरा कदापि नहीं हो सकता ।*

*जीवन एक अवसर है,-*
*श्रेष्ठ बनने का।*
            *श्रेष्ठ करने का।*
                        *श्रेष्ठ पाने का ।*


🙏🏻सुप्रभात🙏🏻


क्षमा किसे कहते है ...??*

*कुचलने के बाद भी*
*फूलों की पंखुड़ियों द्वारा...*
*दी हुई सुगंध ही*
*वास्तव में "क्षमा" है...!!!!!!*

*🙏🌹सुप्रभात🌹🙏*,


दोबारा गर्म की हुई चाय 
और समझौता किया हुआ रिश्ता,

दोनों मे पहले जैसी मिठास कभी नही आती।।*

                       🙏🙏

"रोग" अपनी "देह" में पैदा होकर भी 
हानि पहुंचाता है।*
   और "औषधि" वन में पैदा होकर भी हमारा*
   *लाभ ही करती है।।*
      *"हित" चाहने वाला पराया भी अपना हैं*
*और अहित करने वाला अपना भी पराया है।।*।      
         
 *🙏🌹

*शानदार  रिश्ते चाहिए तो  
उन्हें गहराई से निभाइये..*

*"लाजवाब मोती
" कभी किनारों पे नही मिलते..*
🙏🙏


*” पक्के हुए फल की तीन पहचान होती है… एक तो वह नर्म हो जाता है दूसरे वह मीठा हो जाता है तीसरे उसका रंग बदल जाता है… ”*
     
*” इसी तरह से परिपक्व व्यक्ति की भी तीन पहचान होती है… पहली उसमें नम्रता होती है… दूसरे उसकी वाणी मे मिठास होता है और तीसरे उसके चेहरे पर आत्मविश्वास का रंग होता है….. ”*

*🌄🌄 सुप्रभातम 

ज्ञान से शब्द समझ में आते हैं,*
*और अनुभव से अर्थ*!!
    *इंसान बहुत कमाल का है*...
*पसन्द करे तो बुराई नही देखता,*...
*नफरत करे तो अच्छाई नही !*...

🌹सु प्रभात🌹


रिश्तों का क्षेत्रफल*
 *भी कितना अजीब है....*

    *लोग लंबाई,*
   *चौड़ाई देखते है*,
   
 *लेकिन...*गहराई  नहीं...!!* 

    🌹सुप्रभात।🌹


*सुंदरता हो न हो, सादगी होनी चाहिए,, खुशबू हो न हो, महक होनी चाहिए, रिश्ता हो न हो, बंदगी होनी चाहिए,, मुलाकातें हो न हो, बातें होनी चाहिए, यूं तो उलझे हैं सभी, अपनी-अपनी उलझनों में,, पर सुलझाने की कोशिश, हमेशा होनी चाहिए.!!*     
                        
जीवन  में आगे बढ़ना है*
 *तो*
*कभी कभी बहरे हो जाओ.!!*

*क्योंकि* 
*अधिकतर लोगों की बातें* 
*मनोबल गिराने वाली होती हैं.!!*                   
 *जिंदगी आसान बनाईए..*
कुछ *'अंदाज'* से, 
कुछ *’नजर अंदाज’ से


 करने वाले तो बहुत मिलते है,*

*लेकिन बिना सवाल किये ख्याल रखने वाले नसीब से मिलते है......*
 *उस इंसान से  तो कभी भी झुठ मत बोलिये जिसे आपके झुठ पर भी भरोसा हो.......जिंदगी को देखने का सबका अपना-अपना नजरिया होता है। कुछ  लोग  भावना  में  ही दिल की बात कह देते हैं और...कुछ  लोग  गीता  पर  हाथ रख कर भी सच नहीं बोलते।*
           

*दुःख में स्वयं की एक अंगुली*
      *आंसू पोंछती है ;*
*और सुख में दसो अंगुलियाँ*
          *ताली बजाती है ;*
*जब स्वयं का शरीर ही ऐसा*
           *करता है तो*
*दुनिया से क्या गिला-शिकवा*
           *करना...!!*


*🖋

*एक निवाला पेट तक पहुंचाने का*
*ईश्वर ने क्या खूब इंतजाम किया है,*
*अगर गर्म है तो हाथ बता देते हैं,*
*सख्त है तो दांत बता देते हैं,*
*कड़वा या तीखा है तो जुबान बता देती है,*
*बासी है तो नाक बता देती है,*
*बस मेहनत का है या बेईमानी का,*
*इसका फैसला आपको करना है ।*

 
अपनी बातों को सदैव*
       *ध्यानपूर्वक कहे*
  *क्योंकि हम तो कहकर* 
         *भूल जाते है,*
*लेकिन लोग उसे याद रखते है।*

           
*संगत से गुण ऊपजे, संगत से गुण जाए*
   *लोहा लगा जहाज में ,  पानी में उतराय!*

*कोई भी नही जानता कि हम इस जीवन के सफ़र में एक दूसरे से क्यों मिलते है,*
*सब के साथ रक्त संबंध नहीं हो सकते परन्तु ईश्वर हमें कुछ लोगों के साथ मिलाकर*
*अद्भुत रिश्तों में बांध देता हैं*,
*हमें उन रिश्तों को हमेशा संजोकर रखना चाहिए।*🙏
*** ***

शनिवार, 1 अगस्त 2020

जादूगर की बेटी /डॉ नन्दलाल

(लघुकथा)


ब्याह के पहले जब दिव्या खुद को दिखाने मां बाप के साथ कुन्दन और सावित्री के घर आयी थी,तब कुन्दन और सावित्री को लगा था कि दिव्या निहायत पारिवारिक और संस्कारी लड़की है, तुरन्त हामी भर लिया था।

ब्याह के बाद दिव्या ने जो भीभत्स डरावना रूप दिखाया वह किसी को मान्य न था, न घर न बाहर के लोगो को। दिव्या आते ही परिवार तोडने मे जुट गई। पति आदेश को वश मे करने के लिए सारे नुस्खें अजमा लिए तन्त्र मन्त्र जादू टोना भी।वह जल्दी ही कामयाब भी हो गई। आदेश जो मां बाप को धरती का भगवान समझता था वही बाप से नफरत मां को कुलक्षणा मानने लगा।

आदेश दिव्या के झलवे मे ऐसा दीवाना हुआ कि तोड़ दिया खून तक के सारे रिश्ते जादूगर की बेटी के लिए।
कुन्दन और सावित्री के लिए दुख का विरान था परन्तु आदेश के लौटने की  उम्मीद भी।

उधर ठगपुरिया दिव्या और उसके मां बाप के लिए गुलाम-कमासूत आदेश की लूट के सुख की निर्लज्ज गर्जना।

डॉ नन्दलाल भारती
25/01/2018

समझदार / संजीव

लघुकथा 


*
नगर में कोरोना पोसिटिव केस... खबर सुनते ही जिज्ञासा, चिंता और कौतूहल होना स्वाभाविक है। कुछ देर बाद समाचार मिला रोगी बेटा और उससे संक्रमित माँ चिकित्सकों से विवाद कर रहे हैं। फिर खबर आई की दोनों चिकित्सालय की व्यवस्थाओं से अंतुष्ट हैं। शुभचिंतकों ने सरकारी व्यवस्थाओं को कोसने में पल भर देर न की। माँ-बेटे अपने शिक्षित होने और उच्च संपर्कों की धौंस दिखाकर अस्पताल से निकल कई लोगों से मिले और अपनी शेखी बघारते रहे। 
इस बीच किसी ने चुपचाप बनाया हुई वीडियो पोस्ट कर दिया। हैरत कि अस्पताल पूरी तरह साफ़ था, पंखे-ट्यूबलाइट, पलंग, चादर, तकिये नर्स, डॉक्टर आदि सब एकदम दुरुस्त, दुर्व्यवहार करते माँ-बेटे को विनम्रता से समझाने के बाद अन्य मरीज को देखने में व्यस्त डॉक्टर की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर निकलते माँ-बेटे। 
अस्पताल प्रशासन ने पुलिस और कलेक्टर को सूचित किया। तुरंत गाड़ियां दौड़ीं, दोनों को पकड़ा गया और सख्त हिदायत देकर अस्पताल में भर्ती किया गया। तब भी दोनों सरकार को कोसते रहे किन्तु इस मध्य संक्रमित हो गए थे संपर्क में आये सैंकड़ों निर्दोष नागरिक जिन्हें खोजकर उनकी जाँच करना भूसे के ढेर में सुई खोजने की तरह है। पता चला माँ कॉलेज में प्रोफेसर और बेटा विदेश में सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं। दोनों बार-बार दुहाई दे रहे हैं कि कि वे समझदार हैं, उन्हें छोड़ दिया जाए पर उनकी नासमझी देखकर प्रश्न उठता है कि उन्हें कैसे कहा जाए समझदार?
***
संजीव 
२२.३.२०२० 
९४२५१८३२४४

बुजुर्ग की जरुरत

✍✍

*क्यूं जरूरी है घर में बड़े बुजुर्गों की उपस्थिति, एक मार्मिक कहानी जो किसी ने भेजी थी, मुझे लगा कि इसे प्रचारित किया जाना भारतीय संस्कृति को बचाये रखनें के लिए आवश्यक हैं ...*

*पढ़े और अपनी प्रतिक्रिया दें....*

*#गायत्री_निवास*

बच्चों को स्कूल बस में बैठाकर वापस आ शालू खिन्न मन से टैरेस पर जाकर बैठ गई.

सुहावना मौसम, हल्के बादल और पक्षियों का मधुर गान कुछ भी उसके मन को वह सुकून नहीं दे पा रहे थे, जो वो अपने पिछले शहर के घर में छोड़ आई थी.

शालू की इधर-उधर दौड़ती सरसरी नज़रें थोड़ी दूर एक पेड़ की ओट में खड़ी बुढ़िया पर ठहर गईं.

‘ओह! फिर वही बुढ़िया, क्यों इस तरह से उसके घर की ओर ताकती है ?’

शालू की उदासी बेचैनी में तब्दील हो गई, मन में शंकाएं पनपने लगीं. इससे पहले भी शालू उस बुढ़िया को तीन-चार बार नोटिस कर चुकी थी.

दो महीने हो गए थे शालू को पूना से गुड़गांव शिफ्ट हुए, मगर अभी तक एडजस्ट नहीं हो पाई थी.

पति सुधीर का बड़े ही शॉर्ट नोटिस पर तबादला हुआ था, वो तो आते ही अपने काम और ऑफ़िशियल टूर में व्यस्त हो गए. छोटी शैली का तो पहली क्लास में आराम से एडमिशन हो गया, मगर सोनू को बड़ी मुश्किल से पांचवीं क्लास के मिड सेशन में एडमिशन मिला. वो दोनों भी धीरे-धीरे रूटीन में आ रहे थे, लेकिन शालू, उसकी स्थिति तो जड़ से उखाड़कर दूसरी ज़मीन पर रोपे गए पेड़ जैसी हो गई थी, जो अभी भी नई ज़मीन नहीं पकड़ पा रहा था.

सब कुछ कितना सुव्यवस्थित चल रहा था पूना में. उसकी अच्छी जॉब थी. घर संभालने के लिए अच्छी मेड थी, जिसके भरोसे वह घर और रसोई छोड़कर सुकून से ऑफ़िस चली जाती थी. घर के पास ही बच्चों के लिए एक अच्छा-सा डे केयर भी था. स्कूल के बाद दोनों बच्चे शाम को उसके ऑफ़िस से लौटने तक वहीं रहते. लाइफ़ बिल्कुल सेट थी, मगर सुधीर के एक तबादले की वजह से सब गड़बड़ हो गया.

यहां न आस-पास कोई अच्छा डे केयर है और न ही कोई भरोसे लायक मेड ही मिल रही है. उसका केरियर तो चौपट ही समझो और इतनी टेंशन के बीच ये विचित्र बुढ़िया. कहीं छुपकर घर की टोह तो नहीं ले रही? वैसे भी इस इलाके में चोरी और फिरौती के लिए बच्चों का अपहरण कोई नई बात नहीं है. सोचते-सोचते शालू परेशान हो उठी.

दो दिन बाद सुधीर टूर से वापस आए, तो शालू ने उस बुढ़िया के बारे में बताया. सुधीर को भी कुछ चिंता हुई, “ठीक है, अगली बार कुछ ऐसा हो, तो वॉचमैन को बोलना वो उसका ध्यान रखेगा, वरना फिर देखते हैं, पुलिस कम्प्लेन कर सकते हैं.” कुछ दिन ऐसे ही गुज़र गए.

शालू का घर को दोबारा ढर्रे पर लाकर नौकरी करने का संघर्ष  जारी था, पर इससे बाहर आने की कोई सूरत नज़र नहीं आ रही थी.

एक दिन सुबह शालू ने टैरेस से देखा, वॉचमैन उस बुढ़िया के साथ उनके मेन गेट पर आया हुआ था. सुधीर उससे कुछ बात कर रहे थे. पास से देखने पर उस बुढ़िया की सूरत कुछ जानी पहचानी-सी लग रही थी. शालू को लगा उसने यह चेहरा कहीं और भी देखा है, मगर कुछ याद नहीं आ रहा था. बात करके सुधीर घर के अंदर आ गए और वह बुढ़िया मेन गेट पर ही खड़ी रही.

“अरे, ये तो वही बुढ़िया है, जिसके बारे में मैंने आपको बताया था. ये यहां क्यों आई है ?” शालू ने चिंतित स्वर में सुधीर से पूछा.

“बताऊंगा तो आश्चर्यचकित रह जाओगी. जैसा तुम उसके बारे में सोच रही थी, वैसा कुछ भी नहीं है. जानती हो वो कौन है ?”

शालू का विस्मित चेहरा आगे की बात सुनने को बेक़रार था.

“वो इस घर की पुरानी मालकिन हैं.”

“क्या ? मगर ये घर तो हमने मिस्टर शांतनु से ख़रीदा है.”

“ये लाचार बेबस बुढ़िया उसी शांतनु की अभागी मां है, जिसने पहले धोखे से सब कुछ अपने नाम करा लिया और फिर ये घर हमें बेचकर विदेश चला गया, अपनी बूढ़ी मां गायत्री देवी को एक वृद्धाश्रम में छोड़कर.

छी… कितना कमीना इंसान है, देखने में तो बड़ा शरीफ़ लग रहा था.”

सुधीर का चेहरा वितृष्णा से भर उठा. वहीं शालू याद्दाश्त पर कुछ ज़ोर डाल रही थी.

“हां, याद आया. स्टोर रूम की सफ़ाई करते हुए इस घर की पुरानी नेमप्लेट दिखी थी. उस पर ‘गायत्री निवास’ लिखा था, वहीं एक राजसी ठाठ-बाटवाली महिला की एक पुरानी फ़ोटो भी थी. उसका चेहरा ही इस बुढ़िया से मिलता था, तभी मुझे लगा था कि  इसे कहीं देखा है, मगर अब ये यहां क्यों आई हैं ?

क्या घर वापस लेने ? पर हमने तो इसे पूरी क़ीमत देकर ख़रीदा है.” शालू चिंतित हो उठी.

“नहीं, नहीं. आज इनके पति की पहली बरसी है. ये उस कमरे में दीया जलाकर प्रार्थना करना चाहती हैं, जहां उन्होंने अंतिम सांस ली थी.”

“इससे क्या होगा, मुझे तो इन बातों में कोई विश्वास नहीं.”

“तुम्हें न सही, उन्हें तो है और अगर हमारी हां से उन्हें थोड़ी-सी ख़ुशी मिल जाती है, तो हमारा क्या घट जाएगा ?”

“ठीक है, आप उन्हें बुला लीजिए.” अनमने मन से ही सही, मगर शालू ने हां कर दी.

गायत्री देवी अंदर आ गईं. क्षीण काया, तन पर पुरानी सूती धोती, बड़ी-बड़ी आंखों के कोरों में कुछ जमे, कुछ पिघले से आंसू. अंदर आकर उन्होंने सुधीर और शालू को ढेरों आशीर्वाद दिए.

नज़रें भर-भरकर उस पराये घर को देख रही थीं, जो कभी उनका अपना था. आंखों में कितनी स्मृतियां, कितने सुख और कितने ही दुख एक साथ तैर आए थे.

वो ऊपरवाले कमरे में गईं. कुछ देर आंखें बंद कर बैठी रहीं. बंद आंखें लगातार रिस रही थीं.

फिर उन्होंने दिया जलाया, प्रार्थना की और फिर वापस से दोनों को आशीर्वाद देते हुए कहने लगीं, “मैं इस घर में दुल्हन बनकर आई थी. सोचा था, अर्थी पर ही जाऊंगी, मगर…” स्वर भर्रा आया था.

“यही कमरा था मेरा. कितने साल हंसी-ख़ुशी बिताए हैं यहां अपनों के साथ, मगर शांतनु के पिता के जाते ही…” आंखें पुनः भर आईं.

शालू और सुधीर नि:शब्द बैठे रहे. थोड़ी देर घर से जुड़ी बातें कर गायत्री देवी भारी क़दमों से उठीं और चलने लगीं.

पैर जैसे इस घर की चौखट छोड़ने को तैयार ही न थे, पर जाना तो था ही. उनकी इस हालत को वो दोनों भी महसूस कर रहे थे.

“आप ज़रा बैठिए, मैं अभी आती हूं.” शालू गायत्री देवी को रोककर कमरे से बाहर चली गई और इशारे से सुधीर को भी बाहर बुलाकर कहने लगी, “सुनिए, मुझे एक बड़ा अच्छा आइडिया आया है, जिससे हमारी लाइफ़ भी सुधर जाएगी और इनके टूटे दिल को भी आराम मिल जाएगा.

क्यों न हम इन्हें यहीं रख लें ?
अकेली हैं, बेसहारा हैं और इस घर में इनकी जान बसी है. यहां से कहीं जाएंगी भी नहीं और हम यहां वृद्धाश्रम से अच्छा ही खाने-पहनने को देंगे उन्हें.”

“तुम्हारा मतलब है, नौकर की तरह ?”
“नहीं, नहीं. नौकर की तरह नहीं. हम इन्हें कोई तनख़्वाह नहीं देंगे. काम के लिए तो मेड भी है. बस, ये घर पर रहेंगी, तो घर के आदमी की तरह मेड पर, आने-जानेवालों पर नज़र रख सकेंगी. बच्चों को देख-संभाल सकेंगी.
 
ये घर पर रहेंगी, तो मैं भी आराम से नौकरी पर जा सकूंगी. मुझे भी पीछे से घर की, बच्चों के खाने-पीने की टेंशन नहीं रहेगी.”

“आइडिया तो अच्छा है, पर क्या ये मान जाएंगी ?”

“क्यों नहीं. हम इन्हें उस घर में रहने का मौक़ा दे रहे हैं, जिसमें उनके प्राण बसे हैं, जिसे ये छुप-छुपकर देखा करती हैं.”

“और अगर कहीं मालकिन बन घर पर अपना हक़ जमाने लगीं तो ?”

“तो क्या, निकाल बाहर करेंगे. घर तो हमारे नाम ही है. ये बुढ़िया क्या कर सकती है.”

“ठीक है, तुम बात करके देखो.” सुधीर ने सहमति जताई.

शालू ने संभलकर बोलना शुरू किया, “देखिए, अगर आप चाहें, तो यहां रह सकती हैं.”

बुढ़िया की आंखें इस अप्रत्याशित प्रस्ताव से चमक उठीं. क्या वाक़ई वो इस घर में रह सकती हैं, लेकिन फिर बुझ गईं.

आज के ज़माने में जहां सगे बेटे ने ही उन्हें घर से यह कहते हुए बेदख़ल कर दिया कि अकेले बड़े घर में रहने से अच्छा उनके लिए वृद्धाश्रम में रहना होगा. वहां ये पराये लोग उसे बिना किसी स्वार्थ के क्यों रखेंगे ?

“नहीं, नहीं. आपको नाहक ही परेशानी होगी.”

“परेशानी कैसी, इतना बड़ा घर है और आपके रहने से हमें भी आराम हो जाएगा.”

हालांकि दुनियादारी के कटु अनुभवों से गुज़र चुकी गायत्री देवी शालू की आंखों में छिपी मंशा समझ गईं, मगर उस घर में रहने के मोह में वो मना न कर सकीं.

गायत्री देवी उनके साथ रहने आ गईं और आते ही उनके सधे हुए अनुभवी हाथों ने घर की ज़िम्मेदारी बख़ूबी संभाल ली.

सभी उन्हें  अम्मा कहकर ही बुलाते. हर काम उनकी निगरानी में सुचारु रूप से चलने लगा.

घर की ज़िम्मेदारी से बेफ़िक्र होकर शालू ने भी नौकरी ज्वॉइन कर ली. सालभर कैसे बीत गया, पता ही नहीं चला.

अम्मा सुबह दोनों बच्चों को उठातीं, तैयार करतीं, मान-मनुहार कर खिलातीं और स्कूल बस तक छोड़तीं. फिर किसी कुशल प्रबंधक की तरह अपनी देखरेख में बाई से सारा काम करातीं. रसोई का वो स्वयं ख़ास ध्यान रखने लगीं, ख़ासकर बच्चों के स्कूल से आने के व़क़्त वो नित नए स्वादिष्ट और पौष्टिक व्यंजन तैयार कर देतीं.

शालू भी हैरान थी कि जो बच्चे चिप्स और पिज़्ज़ा के अलावा कुछ भी मन से न खाते थे, वे उनके बनाए व्यंजन ख़ुशी-ख़ुशी खाने लगे थे.

बच्चे अम्मा से बेहद घुल-मिल गए थे. उनकी कहानियों के लालच में कभी देर तक टीवी से चिपके रहनेवाले बच्चे उनकी हर बात मानने लगे. समय से खाना-पीना और होमवर्क निपटाकर बिस्तर में पहुंच जाते.

अम्मा अपनी कहानियों से बच्चों में एक ओर जहां अच्छे संस्कार डाल रही थीं, वहीं हर व़क़्त टीवी देखने की बुरी आदत से भी दूर ले जा रही थीं.

शालू और सुधीर बच्चों में आए सुखद परिवर्तन को देखकर अभिभूत थे, क्योंकि उन दोनों के पास तो कभी बच्चों के पास बैठ बातें करने का भी समय नहीं होता था.

पहली बार शालू ने महसूस किया कि घर में किसी बड़े-बुज़ुर्ग की उपस्थिति, नानी-दादी का प्यार, बच्चों पर कितना सकारात्मक प्रभाव डालता है. उसके बच्चे तो शुरू से ही इस सुख से वंचित रहे, क्योंकि उनके जन्म से पहले ही उनकी नानी और दादी दोनों गुज़र चुकी थीं.

आज शालू का जन्मदिन था. सुधीर और शालू ने ऑफ़िस से थोड़ा जल्दी निकलकर बाहर डिनर करने का प्लान बनाया था. सोचा था, बच्चों को अम्मा संभाल लेंगी, मगर घर में घुसते ही दोनों हैरान रह गए. बच्चों ने घर को गुब्बारों और झालरों से सजाया हुआ था.

वहीं अम्मा ने शालू की मनपसंद डिशेज़ और केक बनाए हुए थे. इस सरप्राइज़ बर्थडे पार्टी, बच्चों के उत्साह और अम्मा की मेहनत से शालू अभिभूत हो उठी और उसकी आंखें भर आईं.

इस तरह के वीआईपी ट्रीटमेंट की उसे आदत नहीं थी और इससे पहले बच्चों ने कभी उसके लिए ऐसा कुछ ख़ास किया भी नहीं था.

बच्चे दौड़कर शालू के पास आ गए और जन्मदिन की बधाई देते हुए पूछा, “आपको हमारा सरप्राइज़ कैसा लगा ?”

“बहुत अच्छा, इतना अच्छा, इतना अच्छा… कि क्या बताऊं…” कहते हुए उसने बच्चों को बांहों में भरकर चूम लिया.

“हमें पता था आपको अच्छा लगेगा. अम्मा ने बताया कि बच्चों द्वारा किया गया छोटा-सा प्रयास भी मम्मी-पापा को बहुत बड़ी ख़ुशी देता है, इसीलिए हमने आपको ख़ुशी देने के लिए ये सब किया.”

शालू की आंखों में अम्मा के लिए कृतज्ञता छा गई. बच्चों से ऐसा सुख तो उसे पहली बार ही मिला था और वो भी उन्हीं के संस्कारों के कारण.

केक कटने के बाद गायत्री देवी ने अपने पल्लू में बंधी लाल रुमाल में लिपटी एक चीज़ निकाली और शालू की ओर बढ़ा दी.

“ये क्या है अम्मा ?”

“तुम्हारे जन्मदिन का उपहार.”
शालू ने खोलकर देखा तो रुमाल में सोने की चेन थी.

वो चौंक पड़ी, “ये तो सोने की मालूम होती है.”

“हां बेटी, सोने की ही है. बहुत मन था कि तुम्हारे जन्मदिन पर तुम्हें कोई तोहफ़ा दूं. कुछ और तो नहीं है मेरे पास, बस यही एक चेन है, जिसे संभालकर रखा था. मैं अब इसका क्या करूंगी. तुम पहनना, तुम पर बहुत अच्छी लगेगी.”

शालू की अंतरात्मा उसे कचोटने लगी. जिसे उसने लाचार बुढ़िया समझकर स्वार्थ से तत्पर हो अपने यहां आश्रय दिया, उनका इतना बड़ा दिल कि अपने पास बचे इकलौते स्वर्णधन को भी वह उसे सहज ही दे रही हैं.

“नहीं, नहीं अम्मा, मैं इसे नहीं ले सकती.”

“ले ले बेटी, एक मां का आशीर्वाद समझकर रख ले. मेरी तो उम्र भी हो चली. क्या पता तेरे अगले जन्मदिन पर तुझे कुछ देने के लिए मैं रहूं भी या नहीं.”

“नहीं अम्मा, ऐसा मत कहिए. ईश्वर आपका साया हमारे सिर पर सदा बनाए रखे.” कहकर शालू उनसे ऐसे लिपट गई, जैसे बरसों बाद कोई बिछड़ी बेटी अपनी मां से मिल रही हो.

वो जन्मदिन शालू कभी नहीं भूली, क्योंकि उसे उस दिन एक बेशक़ीमती उपहार मिला था, जिसकी क़ीमत कुछ लोग बिल्कुल नहीं समझते और वो है नि:स्वार्थ मानवीय भावनाओं से भरा मां का प्यार. वो जन्मदिन गायत्री देवी भी नहीं भूलीं, क्योंकि उस दिन उनकी उस घर में पुनर्प्रतिष्ठा हुई थी.

घर की बड़ी, आदरणीय, एक मां के रूप में, जिसकी गवाही उस घर के बाहर लगाई गई वो पुरानी नेमप्लेट भी दे रही थी, जिस पर लिखा था.

#गायत्री_निवास

यदि आपकी आंखे इस कहानी को पढ़कर थोड़ी सी भी नम हो गई   हो तो अकेले में 2 मिनट चिंतन करे कि पाश्चात्य संस्कृति की होड़ में हम अपनी मूल संस्कृति को भुलाकर,  बच्चों की उच्च शिक्षा पर तो सभी का ध्यान केंद्रित हैं किन्तु उन्हें संस्कारवान बनाने में हम पिछड़ते जा रहे हैं ।

यदि यह कहानी 10 परिवारों को भी जोड़ने में काम आये तो इसे अपने साथियों, परिजनों एवं संस्कृति प्रेमियों को आगे बढ़ाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान प्रदान करें ...🙏🏻

लघुकथा क्या है?

लघुकथा के प्रति 
(1) लघुकथा क्या है 
 * लघुकथा ‘गागर में सागर’ भर देने वाली विधा है। लघुकथा एकसाथ लघु भी है और कथा भी। यह न लघुता को छोड़ सकती है और न कथा को ही। 
 - भारत-दर्शन 
* यह विधा सामाजिक यथार्थ,आडंबरों, विसंगतियों और मनोभावों को व्यक्त करने का एक सशक्त माध्यम है जो शैली की सूक्षमता, अभिव्यक्ति के पैनेपन और तीव्र संप्रेषणीयता के कारण देखते-देखते अत्यंत लोकप्रिय विधा हो गयी है। 
 - डॉ शमीम शर्मा 
 * लघुकथा ऐसी ग़ज़ल है जिसकी बह्र भी खुद लेखक को लिखनी पड़ती है, क्योंकि लघुकथा किसी बने-बनाये साँचे में फिट हो जाने वाली विधा नहीं है। 
 - योगराज प्रभाकर 
(2) लघुकथा के तत्व 
लघुकथा के तीन तत्व 1- क्षणिक घटना, 2- संक्षिप्त कथन तथा 3- तीक्ष्ण प्रभाव हैं। इन में से कोई एक भी न हो या कमजोर हो तो लघुकथा प्रभावहीन होगी जो न होने के समान है। 
 - संजीव वर्मा सलिल 
 (3) लघुकथा के लक्षण 
 * शीर्षक पढ़ने कि जिज्ञासा उत्पन्न करे * भूमिका न हो * शब्दों की मितव्ययिता हो * सूक्ष्मतम आकार हो * चिंतन हेतु उद्वेलित करे * क्षणिक घटना हो * सीमित पात्र हों * एक ही काल-खंड हो * इकहरापन हो * चरित्र-चित्रण न हो और यदि हो तो सांकेतिक हो * लेखकीय हस्तक्षेप न हो * लेखकीय प्रवेश न हो * प्रतीकों में बात की जाये * शब्द की अभिधा शक्ति के साथ लक्षणा और व्यंजना का प्रयोग हो * मारक पंक्ति या पंच लाइन प्राणवान हो * मध्यांतर न हो * अन्त का पूर्वाभास न हो * संदेश ध्वनित हो, शब्दायित नहीं … 
 (4) लघुकथा का शीर्षक 
 * रचना की सफलता में शीर्षक का बहुत बड़ा योगदान होता है। किसी भी रचना को शीर्षक ही प्रथम दृष्टि में पाठक को पढ़ने हेतु उत्प्रेरित करता है। शीर्षक ऐसा होना चाहिए जो अपनी सार्थकता सिद्ध करने के साथ-साथ आकर्षक,विचित्र और जिज्ञासा उत्पन्न करने वाला हो कि पाठक तुरंत उसे पढ़ना आरंभ कर दे। 
 - डॉ मिथिलेश कुमारी मिश्र 
 (5) लघुकथा का प्रसव 
 * लघुकथा विसंगतियों की कोख से उत्पन्न होती है। हर घटना या हर समाचार लघुकथा का रूप धारण नहीं कर सकता। किसी विशेष परिस्थिति या घटना को जब लेखक अपनी रचनाशीलता और कल्पना का पुट देकर कलमबंद करता है तब एक लघुकथा का खाका तैयार होता है। 
 - योगराज प्रभाकर 
 * लघुकथा हठात् जन्म नहीं लेती, अकस्मात् पैदा नहीं होती। दूसरे शब्दों में कहें तो लघुकथा तात्क्षणिक प्रतिक्रिया का परिणाम नहीं होती। जब कोई कथ्य–निर्देश देर तक मन में थिरता है और लोक–संवृत में अँखुआ उठता है, तब जाकर जन्म ले पाती है लघुकथा, जैसे सीपी में मोती जन्म लेता है।
 - गौतम सान्याल 
 * सृजन के लिए चिंतन की कोख चाहिए। बीज को फूटने के लिए गर्भ में उसे धारण करना होगा, चाहे वह जीव मात्र का शरीर हो या मिट्टी। बौद्धिक चिंतन सृजनात्मक अभिव्यक्ति को साहित्यिक पृष्ठभूमि पर पोषित कर फूटने का अवसर देता है। 
 - कान्ता रॉय 
 (6) लघुकथा का आकार 
 * (31 और 38 शब्दों की श्रेष्ठ लघुकथाओं के उदाहरण देने के बाद) इसलिए कम-से-कम शब्दों की सीमा की बात नहीं की जा सकती, संभव है इससे भी कम शब्दों की कोई श्रेष्ठ लघुकथा लिखी गयी हो या लिखी जाये। अब आइए अधिकतम शब्दों की सीमा की बात पर। अब तक लिखी गईं अधिकतर लघुकथाएँ 450-500 शब्दों तक जाती हैं, लेकिन कुछ लघुकथाएँ 700 शब्दों के पार जाती हैं और उम्दा रचनाएँ हैं। ... इस सीमा को हमें खुला ही छोड़ना होगा। 
 - डॉ. अशोक भाटिया 
* किसी भी लेखक की लघुकथा सम्बन्धी धारणा में लघुता के प्रति आग्रह स्पष्ट दिखाई देता है। इस लघुता की निम्नतम और अधिकतम शब्द-सीमा पर आम सहमति नहीं है। कहानी में अधिकतम शब्द-सीमा 1000 शब्द की है। अतः लघुकथा की अधिकतम सीमा इससे बढ़ कर तो नहीं हो सकती। वास्तव में हजार शब्दों की लघुकथा शायद ही पढ़ने को मिले। अधिकतर रचनाएँ 150 से 500 शब्दों तक ही सीमित हो जाती हैं। 
 - भगीरथ परिहार 
 (7) लघुकथा का कालखंड 
 * लघुकथा एक एकांगी-इकहरी लघु आकार की एक गद्य बानगी है जिसमें विस्तार की अधिक गुंजाइश नहीं होती है। लघुकथा किसी बड़े परिप्रेक्ष्य से किसी विशेष क्षण का सूक्ष्म निरीक्षण कर उसे मैग्नीफ़ाई करके उभारने का नाम है। यह क्षण कोई घटना हो सकती है, कोई संदेश हो सकता है, अथवा कोई विशेष भाव भी हो सकता है। यदि लघुकथा किसी विशेष घटना को उभारने वाली एकांगी विधा का नाम है तो जाहिर है कि लघुकथा एक ही कालखंड में सीमित होती है। अर्थात लघुकथा में एक से अधिक कालखंड होने से वह कालखंड-दोष से ग्रसित मानी जाएगी तथा लघुकथा न रह कर एक कहानी (शॉर्ट स्टोरी) हो जाएगी। 
 - योगराज प्रभाकर 
* कथा-प्रस्तुति की आवश्यकतानुरूप इसमें (लघुकथा में) लंबे कालखंड का आभास भले ही दिलाया गया हो लेकिन उसका विस्तृत व्यौरा देने से बचा गया हो। लघुकथा में जिसे हम क्षण कहते हैं वह द्वंद्व को उभारने वाला या पाठक-मस्तिष्क को उस ओर प्रेरित करने वाला होना चाहिए। 
 - डॉ बलराम अग्रवाल 
* लघुकथा के कथानक का आधार जीवन के क्षण विशेष के कालखंड की घटना पर आधारित होना चाहिए। 
* एक श्रेष्ठ लघुकथा में जिन आवश्यक तत्वों की दरकार आक कल की जाती है, मसलन वह आकार में बड़ी न हो, कम पात्र हों, समय के एक ही कालखंड को समाहित किए हो। 
 - सुभाष नीरव 
* एक क्षण की रचना कह कर हम ही लघुकथा को बौना बना रहे हैं। … रचना में उद्देश्य (कथ्य) की सूत्रबद्धता हो, और विषय की तारतम्यता हो, तो लघुकथा में बड़े से बड़ा समय सहज रूप में समा सकता है। बस लेखकीय कौशल की आवश्यकता है। 
 - डॉ अशोक भाटिया 
 (8) लघुकथा में लेखकीय प्रवेश 
* लघुकथा में जो कहना हो वह या तो पात्र कहें या फिर परिस्थितियाँ। किन्तु जब इन्हें पीछे धकेल कर लेखक स्वयं व्याख्यान देने लगे तो उसे रचना में लेखक का अनाधिकृत प्रवेश माना जाता है। 
 - योगराज प्रभाकर 
 * लघुकथा के अंत में चौंका देने वाली स्थिति आने के बाद लघुकथा का विस्तार करना लेखकीय प्रवेश है। यह लघुकथा के प्रभाव को कम कर देता है। 
 - मुकेश शर्मा 
 (9) लघुकथा में प्रतीक-विधान 
 * मानवेतर पात्र जब प्रतीक रूप में आकर लघुकथा को संचालित करते हैं तो रचना की रोचक बुनावट देखते ही  - डॉ अशोक भाटिया 
* संकेतों की कथानक में उल्लेखनीय भूमिका होती है। संकेत मील का पत्थर होते हैं। मील का पत्थर करते कुछ नहीं हैं पर दिशा और दूरी का पूरा संकेत कर देते हैं जिससे यात्रा सुगम हो जाती है। वैसे ही लघुकथा में संकेत चरित्रांकन और प्रतिपाद्य-उदघाटन में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करते हैं। 
 - डॉ शमीम शर्मा 
 (10) लघुकथा की इकहरी और एकांगी प्रकृति 
* कहानी या उपन्यास के विपरीत लघुकथा में उपकथा की कोई प्रावधान नहीं है। जी कारण इसे इकहरी अथवा एकांगी विधा कहा जाता है। 
- योगराज प्रभाकर 
* लघुकथा एक व्शय विशेष पर केन्द्रित होती है, जैसे ही उस विषय का प्रतिपादन पूर्ण हो जाता है, वह समाप्त हो जाती हयाह उस विषय से न तो भटकती है, न उस विषय के साथ किसी अन्य विषय को जोड़ती है। इसलिए हम इसे इकहरी या एकांगी विधा कहते हैं। 
- सतीश राठी 
 (11) लघुकथा का अंत 
 * लघुकथा का अंत करना एक हुनर है लघुकथा का अंत उसके स्तर और कद-बुत को स्थापित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अधिकतर सफल लघुकथाएँ अपने कलात्मक अंत के कारण ही पाठकों को प्रभावित करने में सफल रहती हैं। 
- योगराज प्रभाकर 
* चरमोत्कर्ष पर ही लघुकथा का अंत होना चाहिए। कथ्य-उदघाटन के साथ लघुकथा समाप्त होती है। लघुकथा में अंत का बहुत महत्व है। अंत अतिरिक्त परिश्रम और लेखकीय कौशल की मांग करता है। 
 - सुकेश साहनी 
 (12) लघुकथा में पंच-लाइन (मारक-पंक्ति) 
 ‘पंच’ शब्द इस समय बहुत चलन में है जिसका अर्थ प्रायः कथा में तड़ाक-फड़ाक अथवा विस्फोटक-पूर्ण समापन से लिया जा रहा है। वस्तुतः उसका अर्थ है कथा में वह बात जो पाठक के मन को उद्वेलित करे, विसंगति के प्रति मन में विद्रोह पैदा करे। यह भी अनिवार्य शर्त नहीं, न ही सायास लाये जाने हेतु लेखक बाध्य है बल्कि स्वाभाविक रूप से लेखक अपनी बात को इस अंदाज़ से कहे कि वह पाठक को भीतर तक प्रभावित करे। 
 - डॉ लता अग्रवाल 
 (13) लघुकथाकार 
 * स्तरीय लघुकथाकार वह है जो अपनी लेखनी की कमियों को जानता है और उन्हें दूर करने के लिए रचना-दर-रचना प्रयत्नशील रहता है। 
 - बलराम अग्रवाल 
 (14) लघुकथा की रचना प्रक्रिया 
* रचना-प्रक्रिया, अभिव्यंजना से अभिव्यक्ति तक का एक लंबा सफर है। … रचना-प्रक्रिया कोई जड़ यंत्र नहीं है, बल्कि वह रचनाकार की मानसिक संवेदना, सामाजिक परिवेश, तथा उसके कलात्मक अनुभवों से संबन्धित एक जागरूक प्रक्रिया है जिसमें रचनाकार न केवल अपने रचनात्मक अनुभवों को संप्रेषित करता है, बल्कि इस रचनात्मक लेखन को जीवन और यथार्थ के जटिल अनुभवों की तीव्रतम पीड़ा से अपने को मुक्त करने का साधन भी मानता है। 
कुमार विकल के मतानुसार रचना-प्रक्रिया की मुख्यतः दो अवस्थाएँ होती हैं- भावन की मानसी अवस्था और रूपाकार-बद्ध अवस्था। गजानन माधव मुक्तिबोध ने रचना प्रक्रिया के तीन पड़ावों का उल्लेख किया है- (1) जीवन का उत्कट तीव्र अनुभव क्षण (2) अपने कसकते-दुखते मूलों में इस अनुभव की प्रथकता और आँखों के सामने कल्पना (फैंटेसी) में रूपान्तरण (3) इस कल्पना के शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया का प्रारम्भ। 
 - योगराज प्रभाकर 
 (15) लघुकथा की समीक्षा 
* समीक्षकों की पैनी नज़र और निष्पक्ष टिप्पणियाँ ही लघुकथा के भविष्य को सुरक्षित कर सकती हैं। 
 - अज्ञात 
* हर विधा को स्वीकारने में समय लगता है। उसकी गहराइयों को नापने का साहस अपेक्षित होता है, उसकी ऊंचाइयों में विचरण की हमेशा माँग होती है। फिर यह तो सत्य है कि कोई बड़ा किसी छोटे के गुणों की तारीफ कब स्वीकारता है,उसे तो अपने अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लगता महसूस होता है। लघुकथा के समीक्षा पक्ष को स्पष्ट और पुष्ट करने के लिए स्वस्थ और खुले मन की जरूरत है। 
 - डॉ इन्दु बाली 
* क्या हम जाने-अनजाने लघुकथा के नैसर्गिक स्वरूप और विशिष्टता से विमुख तो नहीं होते जा रहे हैं?कहीं कृत्रिम कलात्मकता के प्रति आग्रहता अथवा अतार्किक नियमावली के बंधन लघुकथा के विकास को अवरुद्ध तो नहीं कर रहे हैं? आखिर इस भ्रम की स्थिति का कोई कारण तो अवश्य होगा। कहीं इस स्थिति के लिए नित नये बन रहे आचार्यविहीन मठ तो उत्तरदायी नहीं जो नवोदितों को दिग्भ्रमित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं? ऐसे मठों और मठाधीशों से बच कर रहने में ही भलाई है। 
 - योगराज प्रभाकर  
(16) लघुकथा में संवाद शैली 
संवाद शैली में ऐसी लघुकथाएँ लिखी जा सकती हैं, जिनमें किसी भी और वर्णन के बिना काम चल सकता है ऐसी लघुकथाओं का प्रभाव भी बहुत रहता है, क्योंकि पाठक सीधे-सीधे पात्रों से रू-ब-रू होता है। ... वैसे एक ही लघुकथा में विभिन्न शैलियों का एक साथ भी प्रयोग रहता है। 
 संदर्भ ग्रंथ 
(1) लघुकथा कलश, प्रथम-द्वितीय-तृतीय-चतुर्थ महाविशेषांक, संपादक- योगराज प्रभाकर, संपर्क- 9872568228 
(2) समय की दस्तक, संपादक- कान्ता रॉय, चलभाष- 9575465147  
(3) परिंदे पूछते हैं, लेखक- डॉ अशोक भाटिया, चलभाष- 9416152100

… … … (क्रमशः)