बुधवार, 29 अक्तूबर 2014

काले धन के बारे में कुछ ख़ास बातें







काले धन के बारे में कुछ ख़ास बातें

  • 7 घंटे पहले
केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को काला धन मामले में 627 खाताधारकों की सूची तो सौंप दी है, लेकिन जानकारों के मुताबिक़ काला धन वापस लाने की दिशा में यह नाकाफ़ी है.
नाम भर पता लगने से काला धन वापस आ जाएगा ऐसा नहीं हैं. हाँ, इतना ज़रूर है कि इससे जांच का रास्ता ज़रूर खुलता है.
काले धन की वापसी पर अब तक क्या रहा है ख़ास और कितना है काला धन.

बता रहे हैं प्रोफ़ेसर आर वैद्यनाथन

1- कालाधन सबसे अधिक सेक्यूलर हैं. इसमें सिर्फ़ राजनीतिक दल ही नहीं बल्कि सारे वर्ग, संप्रदाय और तबक़े के लोग शामिल हैं. खेल की दुनिया से लेकर बॉलीवुड तक के लोग सब इसमें शामिल हैं, यहां तक कि मीडिया के भी.
2- विदेशों में जमा ये काला धन सिर्फ़ कर चोरी से संबंधित नहीं इसके साथ ड्रग, हवाला, अवैध हथियार और चरमपंथ जैसी चीज़ें जुड़ी हुई हैं.
3- ये काला धन शेयर, बाँन्ड्स के अलावा सोना, क़ीमती पत्थर, हीरा, ज़ेवरात जैसे कई रूपों में कई लॉकरों में मौजूद हैं.
4- मेरे अनुमान के मुताबिक़ ये काला धन 500 अरब डॉलर के बराबर होगा.
भारत सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को विदेशी बैंकों में 627 खाताधारकों की लिस्ट सौंपी है
5- सोशल मीडिया की भी काला धन लाने में महत्वपूर्ण भूमिका होगी. देश के लोगों की इसे वापस लाने में अब दिलचस्पी है.6- 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा था कि नामों का ख़ुलासा करने से विदेशों के साथ किसी भी संधि का उल्लंघन नहीं होता है. सरकार का तर्क था कि दोहरा कराधान बचाव संधि (डीटीएए) की वजह से विदेशी बैंकों में जमा काला धन खाताधारकों के नाम उजागर नहीं किए जा सकते हैं.
7- किसी भी चुराए हुए डेटा को लेने में किसी भी तरह की संधि का उल्लंघन नहीं होता है. यह सबके लिए उपलब्ध होता है.
8- अभी तो सिर्फ़ नाम दिए जा रहे हैं, कालाधन वापस लाने में पांच से दस साल लग सकते हैं. हमारे सामने फ़िलीपिंस, पेरू और नाइजीरिया जैसे देशों का उदाहरण है जिन्हें काला धन वापस लाने में काफ़ी वक़्त लग गया था.

मंगलवार, 28 अक्तूबर 2014

बदहाल धरोहरों का देश भारत






प्रस्तुति-- स्वामीशरण / राहुल मानव


भारत की सांस्कृतिक विरासत और ऐतिहासिक धरोहर, दुनिया में किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं लेकिन यहां की सरकार और जनता की उपेक्षा के चलते ये विश्व संस्थाओं की शरण में जाने को मजबूर हो गयी हैं.
भारत की जो धरोहरें अनादि काल से देश की पहचान हैं आज वे यूनेस्को से अपनी पहचान का दर्जा हासिल करने की जद्दोजेहद में लगी है. यहां भी सरकारी बाबुओं की लाल फीताशाही, धरोहरों की राह में साधक नहीं बल्कि बाधक बन रही है.
बात अब अजंता एलोरा, खजुराहो, ताज महल और नालंदा से आगे जा चुकी है. ये तो महज ऐतिहासिक स्थल हैं जिन्हें विश्व संस्थाओं ने इनके ऐतिहासिक महत्व को देखते हुए विरासत का दर्जा दे दिया है. मगर अब संघर्ष बनारस और दिल्ली जैसे शहरों के लिए चल रहा है जो तारीख और तहजीब की समृद्ध विरासत को अपनी आंगन में समेटे हुए हैं.
खासियतें खींचती हैं दुनिया को
भारत में खान पान हो, रहन सहन या फिर तीज त्यौहार और रस्म अदावतें, सब धरोहर की तरह पीढ़ी दर पीढ़ी सदियों से समाज की ओर से आगे बढ़ रही है. लखनऊ की नफासत, बनारस की अदावत या दिल्ली की शान ओ शौकत से लबरेज तहजीब, सब का अंदाज ए बयां कुछ और ही है. ये इतिहास का अकाट्य सत्य है कि अपनी सभ्यता संस्कृति से बेइंतहा मोहब्बत करने वाले भारतीय लोगों में अतीत की विरासत से रूबरू कराती धरोहरों के लिए खास लगाव नहीं है. यही वजह है कि जनता के संस्कारों में तहजीब रची बसी होने के बाद भी विरासत से जुड़ी धरोहरें खंडहर में तब्दील होती जा रही है.
कवायद का मकसद
भारत में ऐतिहासिक धरोहरों के संरक्षण की जिम्मेदारी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण संस्थान (एएसआई )निभा रहा है. देश भर में फैले ऐतिहासिक धरोहरों के खजाने को एएसआई किसी तरह संभाल रहा है लेकिन संसाधनों की कमी को यूनेस्को जैसी विश्व संस्थाओं की मदद से पूरा करने में काफी मदद भी मिलती है. एएसआई के अतिरिक्त महानिदेशक बी आर मणि कहते हैं कि खजुराहो के मंदिर, ताज महल या लाल किला जैसे विश्व विख्यात स्थल सैलानियों की पहुंच में हमेशा रहते है लेकिन इनसे कम मशहूर स्थलों को यूनेस्को की विरासत सूची में जगह मिलने पर दुनिया की नजरों में आना आसान हो जाता है. इससे न सिर्फ सैलानियों की तादाद बढती है बल्कि विभाग की आमदनी भी बढ़ जाती है जो इन धरोहरों को संवारने में मददगार साबित भी होती है. मणि का कहना है कि भारत में विरासत स्थलों की बड़ी संख्या में मौजूदगी को देखते हुए कई शहर तो सांस्कृतिक लिहाज से विश्व विरासत शहर का दर्जा पाने के हकदार हैं और इसके लिए साल 2007 में इस कवायद को शुरू किया गया था. इसके लिए बनारस, मुंबई, बेंगलोर और दिल्ली अपना दावा पेश करने की कोशिश में जुटे है. (धरोहर बचाने की कवायद)
दावों की हकीकत
एएसआई के पूर्व क्षेत्रीय निदेशक के के मोहम्मद ने बताया की यूनेस्को ने 1972 में विश्व विरासत स्थल का तमगा देना शुरू किया और अब तक दुनिया भर में 812 धरोहरों को यह दर्जा मिल चुका है. इनमें से 27 स्थल भारत में हैं. इसी तरह इटली के रोम और वैटिकन जैसे दुनिया के कुछ शहरों को विश्व विरासत शहर दर्जा मिलने के बाद भारत के पुरातन शहरों ने भी इसमें अपनी भागीदारी की. मगर इसमें सम्बद्ध राज्य सरकार की भूमिका के चलते ये कवायद पूरी होती नहीं दिख रही है. वह कहते हैं कि यूनेस्को के कठिन मानदंडों की कसौटी पर खरा उतरने के लिए न सिर्फ दस्तावेजी सबूतों के आधार मजबूत दावा तैयार करना होगा बल्कि परीक्षण के दौरान दावे में कही गयी बातों पर खरा भी उतरना होगा. पहले से ही संसाधनों की कमी से जूझ रही राज्य सरकारें पुख्ता दावा भी तैयार नहीं कर पा रही है.
राह के रोड़े
यूरोप और दुनिया के अन्य विकसित देशों को सरकार और जनता की सहज भागीदारी से अपनी मुट्ठी भर एतिहासिक धरोहरों को सहेज कर आसानी से यूनेस्को की विरासत सूची में जगह मिल रही है. भारत में यह काम भी सरकार से लिए सफेद हाथी साबित हो रहा है. नतीजा ऐतिहासिक स्थलों को तो यूनेस्को की विश्व विरासत स्थल की सूची में जगह मिली है लेकिन पिछले कई सालों के तमाम प्रयासों के बावजूद अब तक किसी भी शहर को विश्व विरासत शहर का तमगा हासिल नहीं हो पाया है. यह बात दीगर है कि इस कवायद में पानी की तरह पैसा बहाने के बाद मूल नतीजा तो सिफर है लेकिन सरकारी तंत्र को दीमक की तरह खोखला कर रहे अफसरान खुद को खूब समृद्ध बना चुके है. जन भागीदारी का अभाव और सरकारी तंत्र का गैरजिम्मेदाराना रवैया इस राह के सबसे बड़े रोड़े बन गए है.
दिल्ली का दावा
वैसे तो ऐतिहासिक धरोहरों के खजाने से भरी दिल्ली को देश की सांस्कृतिक राजधानी भी कहा जाता है लेकिन इन धरोहरों के बुरे हाल के चलते यूनेस्को में दिल्ली का दावा अब तक पहुच भी नहीं पा रहा है. दिल्ली सरकार ने अपने के लिए दस्तावेज बनाने की जिम्मेदारी गैर सरकारी संस्था इंटेक को दी है. इंटेक ने तीन साल में तीन दावे बनाये लेकिन दावा पेश करने के लिए जिम्मेदार एएसआई को ये दावे पुख्ता नहीं लगे. इंटेक की दिल्ली इकाई के प्रमुख ए जी के मेनन ने बताया की अब नया दावा दिल्ली को मुगल, ब्रिटिश और आधुनिक भारत की राजनीतिक राजधानी के रूप में पेश करने का है. पहले इसमें प्राचीन दिल्ली के अवशेषों को भी शामिल किया गया था लेकिन पुराने किले और महरौली में कुतुब पुरातत्व पार्क में दिल्ली सरकार के संरक्षण वाले विरासत स्थलों की दुर्दशा के चलते इसे दावे से हटा दिया गया है. अब मुगलों की बसाई दिल्ली (शाहजहानाबाद) और ब्रिटिश काल की नयी दिल्ली (लुटियन जोन) को ही दावे का आधार बनाया गया है. मेनन का कहना है की इस साल दावा तैयार है और उम्मीद है की अगले साल फरवरी में नियत समय पर एएसआई इसे पेश कर देगी.
उम्मीद है कि कम से कम दिल्ली का दावा इस बार पेश हो जाये.
ब्लॉग: निर्मल यादव, दिल्ली
संपादन: निखिल रंजन

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शनिवार, 25 अक्तूबर 2014

स्वतंत्रता का संग्राम




 

स्वतंत्रता का संग्राम

कांगे्रस स्थापना की पृष्ठभूमि

आर्थिक और राजनीतिक असंतोष

सैनिक क्रांति को कुचलकर भारत में ब्रिटिश साम्राज्य को बचा लिया गया। ईस्ट इंडिया कंपनी की खुल्लम- खुल्ला लूट का दौर समाप्त हो गया। महारानी विक्टोरिया को भारत की साम्राज्ञी घोषित किया गया और नई नीतियों का युग शुरू हआ। मोटे तौर पर कहा जाए तो सैनिक क्रांति वास्तव में नए पश्चिमी विचारकों, धार्मिक हस्तक्षेप और क्षीण होते हुए भारतीय सामंती सरदारों के खिलाफ विद्रोह था। इन नीतियों को समाप्त किया जाना था। लेकिन नई नीतियां वास्तव में अधिक प्रतिक्रियावादी और आगे चलकर पुरानी नीतियों के मुकाबले अधिक नुकसानदेह साबित हुईं। रियासती शासक ब्रिटिश सरकार के हाथों की कठपुतली बन गए, उन्हें विरोधी और प्रगतिशील ताकतों के खिलाफ ढाल के रूप इस्तेमाल किया गया। सरकार सामाजिक सुधारकों को बढ़ाया नहीं देती थी। अब मुख्य रूप से क्षीण होते हुए अत्याचारों, अंधविश्वासों और परम्परा विरोधी धार्मिक सिद्धांतों और संप्रदायों को सावधानीपूर्वक संरक्षण दिया जा रहा था। इन्हीं सब नीतियों से बाद में ब्रिटिश साम्राज्यवाद का स्वरूप विकसित हुआ और इसकी जड़ें धार्मिक मतभेदों, जातिप्रथा और अस्पृश्यता तथा सामंती राज्यों और आभिजात्य वर्ग के बीच गहरी पैठ गयी थीं।
लेकिन आर्थिक शोषण की नीति ने और विकराल लेकिन सूक्ष्म स्वरूप ग्रहण कर लिया। बढ़ती हुई गरीबी और किसानों की बेबसी के परिणामस्वरूप व्यापक जनसंतोष उभरना लाजि+मी था।

आम जनता हिन्दुओं और मुसलमानों ने जहां कहीं संभव हुआ हर संभव तीरकों से इस भीषण दमन के इस भीषण दमन के खिलाफ संघर्ष किया। एक नई अंगे्रजी शिक्षा व्यवस्था में शिक्षित वर्ग सरकारी कामकाज चला रहा था। हर पश्चिमी चीज के समर्थक सरकार को पूर्ण सहयोग दे रहे थे। लेकिन उनकी इस दासता ने जल्दी ही उन्हें अपनी असली स्थिति का अहसास करा दिया। उन्हें सैनिक पदों और सरकार में ऊंचे पदों से अलग-थलग कर दिया गया। लेकिन एक तरफ अकाल की स्थिति और दूसरी तरफ सरकार के अंधाधुंध खर्च और भारत के उद्योगों और खुशहाली के सुनियोजित विनाश का भान होने में बहुत अधिक समय नहीं लगा। भारत के मूल निवासियों के प्रति अंग्रेजी के कटु व्यवहार से यह निराशा और फैली और इस अपमान को बड़े पैमाने पर अनुभव किया जा रहा था।

सरकार के विभिन्न कार्यों से, उदारवादी सोच और संस्थाओं की अंग्रेजी परंपरा में शिक्षित वर्गों की आस्था को ठेस पहुंची। मैटकाफ ने प्रेस की आजादी की जो प्रथा शुरू की थी उसे समाप्त कर दिया गया। 1878 में स्वदेशी प्रेस पर प्रतिबंध लगा दिया गया और बंगला की अमृत बाजार पत्रिका को रातों रात अंगे्रजी बाना पहनना पड़ा। 1879 में शस्त्र अधिनियम पास किया गया। यह निराशा तब और भी बढ़ गयी जब जातीय भेद के आधार पर न्यायिक भेदभाव समाप्त करने के इलबर्ट विधेयक को यूरोपीय समुदाय और सिविल सेवाओं के कडे+ विरोध के कारण बीच में ही छोड़ दिया गया। यूरोप के लोग वायसराय लार्ड रिपन को यह धमकी देने से भी नहीं हिचके कि अगर यह विधेयक पास किया गया तो बडे+ पैमाने पर हिंसा होगी। इससे भारतीयों ने एक ऐसा सब सीखा जिसे भुलाया नहीं जा सकता। 1853 में पहली सूती कपड़ा मिल की स्थापना बम्बई में की गयी। 1880 तक इन मिलों की संख्या 156 हो गयी। इस दिशा में बड़ी तेजी से प्रगति हुई और लंकाशायर के दबाव में आकर 1882 में भारत में कपास का आयात पर लगे सभी शुल्क पूरी तरह हटा लिए गए।

सामाजिक पुनर्जागरण :
कांगे्रस का जन्म सिर्फ आर्थिक शोषण और राजनीतिक दासता के कारण ही नहीं हुआ। इसमें संदेह नहीं की कि कांगे्रस के राजनीतिक लक्ष्य भी थे लेकिन वह राष्ट्रीय पुनर्जागरण आंदोलन का अंग और अभिव्यक्ति मंच भी बन गयी थी। कांगे्रस के जन्म से पचास साल से भी पहले से राष्ट्रीय पुनर्जागरण की शक्तियां काम कर रही थीं। वास्तव में राजा राम मोहन राय के समय से ही राजनीतिक जीवन में सुगबुगाहट शुरू हो गयी थी। एक तरह से राममोहन राय को भारतीय राष्ट्रवाद का मसीहा और आधुनिक भारत का जनक माना जाता है। उनका दृष्टिकोण बहुत व्यापक था और वे सच्चे अर्थों में युगद्रष्टा थे। यह सही है कि अपनी सुधारवादी गतिविधियों में उन्होंने सबसे अधिक ध्यान अपने समय की सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों पर दिया। लेकिन उन्हें अपने समय में देश पर हो रही भयंकर राजनीतिक ज्यादतियों का पूरा एहसास था और उन्होंने इन ज्यादतियों से जल्दी से जल्दी मुक्ति पाने के लिए अथक संषर्घ किया। 1776 में जन्मे राममोहन राय का निधन 1833 में ब्रिस्टल में हुआ। उनका नाम भारत के दो प्रमुख सामाजिक सुधारों से जुड़ा हुआ है। यह है सतीप्रथा का अन्त, और देश में पश्चिमी शिक्षा की शुरूआत। अपने जीवन के अंतिम दिनों में वे इंग्लैंड गये। आजादी के लिए उनकी तड़प इतनी अधिक थी कि उत्तमाशा अन्तरीप पहुंचाने पर उन्होंने आग्रह किया कि उन्हें फ्रांस के उस जहाज पर ले जाया जाए जिस पर उन्होंने आजादी का ध्वज फहराता देखा था ताकि वे उस ध्वज के प्रति सम्मान व्यक्त कर सकें। ध्वज को देखते ही वे चिल्ला पड़े, ''ध्वज ही जय हो'', ''जय हो'' यद्यपि वे इंग्लैंड मूल रूप से मुगल सम्राट के दूत के रूप में लंदन में उसके हितों की वकालत करने गये थे लेकिन हाउस आफ कामन्स की समिति के समक्ष भारतीयों की कुछ ज्वलंत समस्याओं का उल्लेख करने से नहीं चुके। उन्होंने भारत की राजस्व व्यवस्था, भारत की न्यायिक व्यवस्था और भारतीय माल की स्थिति के बारे में तीन पत्र समिति में पेश किए। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने उनके सम्मान में सार्वजनिक रूप से रात्रिभोज का आयोजन किया। 1832 में जब ब्रिटिश संसद में चार्टर कानून पर विचार हो रहा था तो उन्होंने कसम खाई कि यदि यह विधेयक पास न हुआ तो वे ब्रिटिश उपनिवेश छोड़कर अमरीका में रहने लगेंगे।

1858 में भारत में विश्वविद्यालयों की स्थापना की गयी तथा 1861 और 1863 के बीच उच्च न्यायालय और विधान परिषदें कायम की गयीं। सैनिक क्रांति से कुछ ही दिन पहले �विधवा पुनर्विवाह कानून� और ईसाई धर्म स्वीकार करने से सम्बद्ध कानून पास किए गए। 1860 के दशक में पश्चिमी शिक्षा और साहित्य में निकट सम्पर्क कायम हुआ। पश्चिमी कानूनी और संसदीय प्रक्रियाएं अपनाये जाने से कानून और विधान के क्षेत्र में नए युग का सूत्रापात हुआ। पूर्व पर पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव ने भारतीय जनता के विश्वासों और भावनाओं पर गहरा असर डाला।

केवल बंगाल, बम्बई और मद्रास प्रांतों में ही आधुनिक पद्धति पर थोड़ी बहुत शिक्षा उपलब्ध हुई। इस प्रांतों में भी शिक्षित लोगों की संख्या बहुत कम थी। सैनिक क्रांति के बाद की परिस्थितियों में इन शिक्षित लोगों को अपनी महत्वकाक्षाएं पूरी करने का काफी अवसर मिला। इन लोगों ने अपने अंगे्रज आकाओं की तरह सोचना शुरू कर दिया और पश्चिमी से आने वाली हर चीज का समर्थन और अनुसरण किया। अंगे्रजों के अंधानुकरण का यह दौर बंगाल में विशेष रूप से मुखर था।
लेकिन जल्दी ही इस प्रक्रिया का विरोध होने लगा और यह विरोध कई रूपों में सामने आया। कभी पश्चिमी और पूर्व के समन्वय के रूप में और कभी अतीत को वापस लौटते पुनर्जागरण के रूप में।
राममोहन राय के जीवन काल में बोए गए धार्मिक सुधारकों के बीज फलित होने लगे। राममोहन राय के उत्तराधिकारी केशव चन्द्र सेन ने ब्रह्‌म समाज का दूर- दूर तक प्रचार किया और उसके सिद्धांतों को नई समाजोपयोगी दिशा दी। उन्होंने आत्म संयम आंदोलन पर ध्यान केंद्रित किया और इंग्लैंड के सुधारकों का समर्थन किया। 1872 में कानूनी विवाह अधिनियम-3 पास कराने में उनका काफी बड़ा हाथ था।
बंगाल में ब्रह्‌म समाज के प्रसार का पूरे देश पर असर पड़ा। पूना में इस आंदोलन में एम.जी. रानाडे के नेतृत्व में प्रार्थना समाज बना। एम.जी. रानाडे को समाज सुधार आंदोलन के प्रणेता के रूप में याद किया जाता रहेगा। यह आंदोलन लम्बे समय तक कांगे्रस से जुड़ा रहा। इस सुधारवादी आंदोलन की एक प्रमुख विशेषता यह थी कि यह अतीत की परंपराओं और देश में सदियों से चले आ रहे विश्वासों और मान्यताओं का विरोधी था। विरोध की यह भावना पश्चिमी संस्थाओं की अनावश्यक चकाचौंध से जन्मी थी और इससे जुड़ी हुई राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने इसे और प्रखर बना दिया। राष्ट्र की पारम्परिक मान्यताओं की विरोध की इस प्रवृत्ति का सुधारवादी आंदोलनों द्वारा विरोध होना स्वाभाविक ही था।
उत्तर पश्चिम में स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा स्थापित आर्य समाज और दक्षिण में थियोसोफिकल आंदोलन ने पश्चिमी शिक्षा और आचार के साथ आयी पाखंड और धर्मान्धता की भावना को पनपने से रोकने के लिए दीवार का काम किया। यह दोनों ही आंदोलन घोर राष्ट्रवादी थे। केवल दयानन्द सरस्वती की प्रेरणा से जन्में आर्य समाज का राष्ट्रवाद कुछ अधिक प्रखर था। आर्य समाज ने वेदों और वैदिक संस्कृति की श्रेष्ठता और आमोघता का प्रचार तो किया लेकिन साथ ही वह व्यापक सामाजिक सुधारकों का हिमायती नहीं था। इस प्रकार उसने राष्ट्र में एक प्रबल पौरुष की भावना पैदा की जो उसकी विरासत और वातावरण के सर्वोत्तम समन्वय का प्रतीक थी। उसने हिन्दू धर्म के धार्मिक अंधविश्वासों और उस समय की सामाजिक बुराइयों के खिलाफ उसी तरह से संघर्ष किया जैसे ब्रह्‌म समाज ने बहुदेववाद, मूर्तिपूजा और बहुपत्नी प्रथा के खिलाफ संघर्ष किया था।
थियोसोफिकल आंदोलन ने अपने अध्ययन और सहानुभूति का क्षेत्र तो विश्व व्यापी रखा लेकिन पूर्व की संस्कृति की शानदार और महान परम्पराओं की पुनर्स्थापना पर विशेष जोर दिया। इसी भावना से प्रेरित होकर श्रीमती एनीबेसेंट ने भारत के तीर्थ स्थल बनारस में एक कालेज की स्थापना की। थियोसोफिकल आंदोलन की गतिविधियों ने अंतर्राष्ट्रीय भाईचारे की भावना को बलवती करने के साथ- साथ पश्चिम की तार्किक श्रेष्ठता पर अंकुश लगाने में भी मदद की और भारत में एक नया सांस्कृतिक केंद्र विकसित किया जिसने पश्चिम के विद्वानों और पंडितों को एक बार फिर इस प्राचीन देश की ओर आकृष्ट किया।
भारत में कांगे्रस के जन्म से पहले राष्ट्रीय पुनर्जागरण का ताजा चरण महान्‌ संत रामकृष्ण परमहंस के नेतृत्व में बंगाल में शुरू हुआ। स्वामी रामकृष्ण ने बाद में स्वामी विवेकानन्द के माध्यम से पूर्व और पश्चिम तक अपना संदेश पहुंचाया। रामकृष्ण मिशन केवल एक ओर तंत्र मंत्र और दूसरी ओर यथार्थवाद से जुड़ा संगठन नहीं है, बल्कि यह गहन अतर्ज्ञानवाद से जुड़ा था जो लोक संघर्ष या समाजसेवा के सर्वोच्च कर्तव्य से कभी विमुख नहीं हुआ।
अमरीका में �तूफानी हिन्दू' के नाम से मशहूर स्वामी विवेकानन्द ने अमरीका, यूरोप, मिस्र, चीन और जापान में केवल भारत का संदेश ही नहीं पहुंचाया बल्कि वे स्वयं भी पश्चिम की संस्कृति से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने भारत में हिमालय से कन्याकुमारी तक पुनरुद्धार का नया संदेश दिया। उन्होंने मुक्ति और समानता के साथ-साथ जन-जागरण का विशेष जोर दिया। वे पश्चिमी की प्रगति और भारत के आध्यात्म का समन्वय चाहते थे। उनके भाषणों और लेखों का एक ही मूल मंत्र था ��निडर और मजबूत बनो क्योंकि कमजोरी पाप है। मृत्यु का द्वार है।'�
विवेकानन्द के समकालीन लेकिन उनसे बहुत बाद की पीढ़ी के प्रतिनिधि थे रवीन्द्र नाथ टैगोर। टैगोर परिवार ने 19वीं सदी में बंगाल में अनेक सुधारवादी आंदोलनों में प्रमुख भूमिका निभाई। इस परिवार ने देश को अनेक आध्यात्मिक नेता और कलाकार दिए। भारत के मानस पर टैगोर का प्रभाव और उसके साहित्य, कविता, नाटक, संगीत, सामाजिक और शैक्षिक पुनर्निर्माण तथा राजनीतिक विचारधारा पर टैगोर की छाप का सौंदर्य और गहनता अभूतपूर्व है। यह छाप मानव के व्यक्तित्व और मस्तिष्क का ऐसा अद्भुत उदाहरण है जो भावी पीढ़ियों को प्रभावित करता रहेगा और नए रंग देगा। वास्तव में टैगोर का योगदान पूर्व और पश्चिम, आधुनिक और प्राचीन तथा देश में उभरते राष्ट्रवाद तथा अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के बीच का अद्भुत समन्वय है।
ये धाराएं और आंदोलन वास्तव में नई राष्ट्रीय चेतना और उमंग के प्राण थे और यही धीरे-धीरे कदम-दर-कदम आगे चलकर भारतीय राष्ट्रीय कांगे्रस के रूप में साकार हुए।
अखिल भारतीय संगठन का विचार :
कांगे्रस के जन्म का श्रेय अक्सर एलेन आक्टोवियन ह्यूम को दिया जाता है जिन्होंने वायसराय लार्ड डफरिन के आशीर्वाद से इसकी शुरूआत की थी। इस प्रकार अंगे्रजों को भारतीय राष्ट्रवाद दत्तक जनक माना जाता है। यह सच है कि ह्यूम 1885 में हुए कांगे्रस अधिवेशन के संयोजक थे। लेकिन आगे चलकर यह स्पष्ट हो गया कि वास्तव में कांगे्रस देश में पनप रही विभिन्न राजनीतिक, आर्थिक और सामािजक ताकतों का अपरिहार्य परिणति थी।
ब्रिटिश प्रशासकों का अधिक जागरूक वर्ग देश में बढ़ते हुए अंसतोष से अनभिज्ञ नहीं था। उस समय एक लापरवाह अफसरशाही सरकार एक ओर मिथ्यावादी बजट के जीर्ण-शीर्ण खंडों और दूसरी ओर विशाल जनसंख्या के दहकते हुए ज्वालामुख पर थरथराती बैठी थी। श्री ह्‌यूम ने इस बात के ढेरों प्रमाण इकट्ठे किए कि देश की भूखी और हताश जनसंख्या द्वारा क्रांति अवश्यम्भावी है। उन्होंने इस लाकप्रिय आवेग को अहानिकारक धारा की दिशा में मोड़ने के तरीकों और उपायों को खोजने की कोशिश की।
उन्होंने 1 मार्च 1883 को कलकत्ता विश्वविद्यालय के स्नातकों को एक पत्र लिखा और अखिल भारतीय स्तर पर संविधान संगत आंदोलन चलाने के लिए 1884 में इंडियन नेशनल यूनियन का गठन किया जिसकी बैठक बाद में पूना में होनी थी। शुरू-शुरू में सरकार ने इस संगठन को संरक्षण दिया लेकिन बाद में उसे महसूस हुआ कि संगठन उसके हाथों से निकलता जा रहा है और यह संरक्षण वापस ले लिया गया। बाद में इस संगठन को �राष्ट्रद्रोह का कारखाना' कहा गया और लार्ड डफरिन ने तो इसे भारतीय जनसंख्या की बहुत छोटी सी अल्पसंख्या का प्रतिनिधि बताया।
बाद में बंगाल में इंडियन एसोसिएशन और पूना में रानाडे के नेतृत्व में सार्वजनिक सभा तथा मद्रास में महाजनसभा जैसी लोकप्रिय संस्थाएं बनीं। 1877 और उसके बाद के वर्षों में सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने भारतीय होम रूल और उस समय के राजनीतिक प्रश्नों के मामलेपर जनमत तैयार करने के लिए संपूर्ण भारत की यात्रा की। 1877 में उन्होंने दिल्ली दरबार में भाग लिया और वहीं पहली बार अखिल भारतीय स्तर पर राजनीतिक संगठन के निर्माण का विचार फूटा। दिसम्बर 1884 में मद्रास में थियासोफिकल सोसायटी का वार्षिक सम्मेलन हुआ जिसमें कुछ प्रमुख राजनेताओं ने अखिल भारतीय स्तर पर राष्ट्रीय आंदोलन शुरू करने का फैसला किया।
इस प्रकार सरकार द्वारा राष्ट्रीय कांग्रेस के गठन की पहल करने और श्रेय लेने तथा उसे अपने नियंत्रण में रखने का रास्ता तैयार हुआ।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अविर्भाव

एच0 ओ0 मित्तल

भारत के इतिहास में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का स्थान बेजोड़ है। इस संस्था में ब्रिटिश शासन से मुक्ति पाने के लिए 60 साल से भी अधिक समय तक अविराम संघर्ष किया है। डा0 पट्टाभिसीतारामैया ने ठीक ही कहा था, ��कांग्रेस का इतिहास वास्तव में भारत की स्वतंत्रता का इतिहास है।�� सन 1885 में इसकी स्थापना इसलिए की गयी थी कि जनता को ब्रिटिश राज के विरुद्ध असंतोष से राहत दिलाई जाये। इसकी स्थापना एक अंग्रेज सेवा निवृत्त अधिकारी श्री ए0 ओ0 ह्यूम की सहायता से की गई थी। वे उदार नेता थे। निम्न वर्ग में, विशेष रूप से किसानों में बढ़ती हुई अराजकता और असंतोष से वे विचलित हो गये थे। उन्हें यह आशंका थी कि यह असंतोष शिक्षित वर्ग को भी ग्रस लेगा। इस प्रकार श्री ए0 ओ0 ह्यूम ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के विषय में सोचा ताकि यह संस्था अखिल भारतीय स्तर की बने जिसमें शिक्षित वर्ग के उत्साह तथा विवेक को संवैधानिक रूप से काम करने की दिशा मिले।

इसमें संदेह नहीं कि श्री ह्यूम ने कांग्रेस की स्थापना में यथेष्ट प्रयत्न किया परंतु उन्हीं दिनों श्री सुरेन्द्र नाथ बनर्जी, सर जमशेद जी, श्री विश्वनाथ मांडलिक और दादा भाई नौरोजी ने भी इसी तरह से संगठन की स्थापना के बारे में सोचा। 1877 में दिल्ली दरबार हुआ था तब इन महानुभावों ने आपस में कहा, ��अगर देश के राजा और उच्च वर्ग के लोगों को स्वेच्छाचारी वायसराय की शान-शौकत बढ़ाने के उद्देश्य से इकट्ठा होने पर मजबूर किया जा सकता है तो आप लोगों को संवैधानिक तरीकों से स्वेच्छाचारी शसन के तौर-तरीकों को रोकने के लिए क्यों नहीं इकट्ठा होने दिया जा सकता।

लेकिन यह विचार सन 1885 तक अमल में नहीं लाया जा सका।

पूर्ववर्ती संगठन

1. भूमि संबंधी संगठन
क. सन्‌ 1837 में बंगाल में जमींदारी एसोसियेशन की स्थापना से भारत की संवैधानिक राजनीति का सूत्रपात हुआ। श्री प्रसन्न कुमार टैगोर इसके प्रमुख सदस्य थे। पहले तो यह संस्था केवल जमींदारों के हितों के लिए काम करती थी लेकिन बाद में इसकी गतिविधियों में आम लोगों के हितों को भी शामिल कर लिया गया।

ख. सन 1843 में बंगाल ब्रिटिश इंडिया सोसाइटी की स्थापना हुई। इसे कलकत्ता के प्रमुख व्यापारी रामगोपाल घोष ने जमींदारों के लिए ही स्थापित किया था। इस संस्था का उद्देश्य ब्रिटिश भारत के लोगों की वास्तविक हालत, देश के कानूनों, संस्थानों और साधनों से संबंधित सूचनाओं को एकत्र और प्रसारित करना था और ऐसे शान्तिपूर्ण और वैध तरीके अपनाने थे जिनसे देशवासियों के सभी वर्गों के हितों का कल्याण हो सके, उन्हें उचित अधिकार मिल सके और उनके हितों को बढ़ावा दिया जा सके।

ग. सन 1851 में ब्रिटिश इंडिया एसोसियेशन की स्थापना हुई थी यह केवल जमींदारों का ही भारतीय संगठन था। इस संगठन में उपर्युक्त दोनों संगठनों का विलय कर दिया गया था यह शिक्षित जमींदारों का संगठन था और इसके प्रथम अध्यक्ष थे राजा राधाकांत बहादुर। यह पहला राजनीतिक संगठन था जिसका एक निश्चित ध्येय था और इसकी प्राप्ति के लिए उसने तरीके अपनाये। इस संस्था की पहली सालाना रिपोर्ट में कहा गया है कि इसका उद्देश्य देश के स्थानीय प्रशासन में और पार्लियामेंट द्वारा निहित सरकारी प्रणाली में सुधार लाना था। इसका महत्व इस बात में है कि राजनीतिक दलों की स्थापना के पहले इस संगठन ने ब्रिटिश सरकार और भारतीय समाज के बीच संपर्क सूत्र का काम किया।

2. मध्यवर्गीय नागरिक संगठन

2 अप्रैल, 1670 को सतारा के औंध, पंत प्रतिनिधि के तत्वाधान में सार्वजनिक सभा की स्थापना हुई। इस सभा का उद्देश्य दक्षिण के और देश के अन्य भागों के लोगों की राजनीतिक भलाई और हितों को बढ़ावा देना था। श्री एम. जी. रानाडे ने सार्वजनिक सभा की स्थापना में भी दल का नेतृत्व किया, उन्होंने प्रार्थना समाज की स्थापना तथा विधवा, पुर्नविवाह संस्था कायम करने में भाग लिया था। यह ध्यान देने योग्य बात है कि यह संस्था प्रस्ताव पारित करने वाली राजनीतिक संस्था मान्य नहीं थी। इस संस्था ने और भी जन-कल्याण के काम किये जैसे कि 1870-75 की पांच वर्ष की अवधि में महाराष्ट्र में सूखा पड़ा उन दिनों इस संस्था ने किसानों की समस्याओं को सुलझाने की कोशिश की। यह संस्था हर साल कलकत्ता को प्रतिनिधि भेजपा करती थी और राहत दिलाती थी।

इंडियन एसोसियेशन (भारतीय संस्था) भी एक प्रकार की मध्यवर्गीय लोगों का संगठन था। इसकी स्थापना 23 जुलाई, 1873 में हुई थी। यह राजनीतिक संगठन था। इसके मुख्य संयोजक श्री सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने इस संबंध में कहा था कि ��इस पर मध्यवर्गीय लोगों का ध्यान केंद्रित हुआ और यह बंगाल के शिक्षित समुदाय के प्रमुख प्रतिनिधियों का केंद्र बन गया।�� इसने घोषणा की कि इस संगठन का उद्देश्य सरकार के सामने लोगों का प्रतिनिधित्व करना था और ऐसे जनमत को तैयार करने में सहायता देना था ताकि उससे साझे राजनीतिक हितों के लिए विभिन्न भारतीय जातियों में एकता लाई जा सके। इसकी गतिविधियां केवल बंगाल तक ही सीमित थीं। फिर भी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इससे ही बाद में अखिल भारतीय संगठन के निर्माण की पृष्ठभूमि तैयार हुई।

भारतीय संगठन जैसे कुछ और राजनीतिक संगठन भी बने। दो अन्य प्रान्तों में इस प्रकार के संगठन बने। ये थे मद्रास में महाजन सभा और बंबई प्रेसीडेन्सी एसोसिएशन। मद्रास की महाजन सभा को �हिन्दू� पत्र तथा अन्य अनेक नेताओं जैसे श्री आनंद चार्लू, श्री रंगीच नायडू तथा श्री सुब्रमनिया एअर का समर्थन प्राप्त था। श्री फिरोज शाह मेहता, श्री के0 टी0 तैलंग और तैयब जी जैसे लोग प्रेसीडेन्सी ऐसोसियशन को समर्थन दे रहे थे।

ये सभी मध्यवर्गीय संगठन न केवल स्वतंत्रता चाहते थे बल्कि समानता या यों कहिए ��एक प्रकार की साझेदारी�� चाहते थे। उन्होंने ऐसे सभी अधिनियमों को समाप्त करने की मांग की जिनमें यूरोपवासियों और भारतवासियों के बीच भेद-भाव की बू आती थी। ऐसा ही एक अधिनियम था ��आर्म्स ऐक्ट��। इस प्रकार की सभी मांगों का समान उद्देश्य यही था कि अंग्रेज और हिन्दुस्तानी का भेद-भाव समाप्त हो, राज्यों में समानता द्वारा देश के प्रशासन में जातीय आधार को समाप्त कर दिया जाये।

ऊपर बतायी गई सभी संस्थाओं में ये भारी कमी थी। इनका आधार प्रान्तीय था और ये सदस्यता तथा दृष्टिकोण में भी प्रान्तीय थीं। जरूरत तो उस समय एक अखिल भारतीय संगठन की थी जो बड़े पैमाने पर लोगों को संगठित कर सके। यहां पर बताना प्रासंगिक होगा कि इल्बर्ट बिल पर जो विवाद खड़ा हुआ उससे एक और बड़े ऐसे संगठन की आवश्यकता महसूस हुई जो एंग्लो-इंडियन की चुनौतियों का भी सामना कर सके। इस संबंध में श्री सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने पहल की, जिसके परिणाम स्वरूप सन 1883 में कलकत्ता के अलबर्ट हाल में एक राजनीतिक सम्मेलन आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में देश के विभिन्न भागों से आने वाले प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इसकी अध्यक्षता श्री आनंदमोहन घोष ने की। उन्होंने इसे ��राष्ट्रीय संसद की ओर से �पहल कदम�� की संज्ञा दी। श्री एस0 एन0 बनर्जी ने अपने उद्घाटन भाषण में दिल्ली सम्मेलन का विशेष रूप से हवाला दिया और बताया कि सब के हितों के लिए काम करने वाली राजनीतिक संस्था का यह एक प्रकार का नमूना है। श्री अम्बिकाचरण मजूमदार ने कहा था, ��यह अनुपम दृष्य था। लेखक के मन पर उस अत्यधिक उत्साह और निष्ठा की स्पष्ट छाप है जो कि इस सम्मेलन के त्रिदिवसीय सम्मेलन में देखने को मिली। सम्मेलन के अंत में हर आदमी जो वहां मौजूद था एक नयी ज्योति तथा उत्साह से अनुप्राणित हुआ।�� इस सममेलन ने कोई प्रस्ताव पारित नहीं किया।

बाद वाले वर्षों में प्रदत्त जारी रहे और श्री ए0 ओ0 ह्यूम ने इस दिशा में पहल की। मार्च 1885 में पहली सूचना जिस में आगामी दिसम्बर में पूना में पहली भारतीय राष्ट्रीय संघ की बैठक के बारे में बताया गया था। इस प्रकार इंडियन राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई। उल्लेखनीय है कि तत्कालीन वायसराय लार्ड उफरिन ने भी श्री ह्यूम की योजना में उनकी दिलचस्पी एक राजनीतिक संगठन के रूप में थी जो संगठन औपनिवेशिक प्रणाली की एक कमी को पूरा कर पाता। उन की इच्छा थी कि औपनिवेशिक प्रणाली में एक वफादार विपक्ष हो और ऐसी भूमिका कांग्रेस ने अपनी स्थापना के बाद कुछ समय तक निभाई।

केवल राजनीतिक शक्तियों और भावना से ही कांग्रेस का जन्म हुआ। इसमें संदेह नहीं, कांग्रेस के कुछ राजनीतिक उद्देश्य थे और यह भी सच है कि इसकी स्थापना के पीछे राष्ट्रीय पुनर्जागरण का आन्दोलन था। इस संबंध में डा0 पट्टाभिसीतारमैया ने कहा है, ��कांग्रेस की स्थापना से पहले पचास साल से भी अधिक समय तक राष्ट्रीय पुनर्जागरण का अभियान क्रियाशील रहा।��

उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में जब राष्ट्रीयता का उदय हुआ, तभी औपनिवेशिक राज्य से स्वतंत्र राष्ट्र के विचार की प्रक्रिया शुरू हुई। इस अवधि में सामाजिक सुधार तथा सांस्कृतिक राष्ट्रीयता की प्रक्रिया भी शुरू हुई और इस का परिणाम हुआ लोगों में चेतना का आविर्भाव। यह ध्यान देने की बात है कि उन दिनों अनेक धार्मिक तथा सामाजिक सुधारकों ने कई सामाजिक धार्मिक आन्दोलन चलाये थे और इसी का परिणाम हमें इस राष्ट्रीय चेतना में देखने को मिला। ��ईस्ट इंडिया कंपनी ने जो जड़ता की स्थिति पैदा की थी उस स्थिति से राजाराममोहन राय के सुधार आन्दोलन ने बंगाल को उबारा। उनके द्वारा स्थापित ब्रह्‌म समाज ने सुधार के रूप में इतनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की कि उसे ��नये युग का उद्घोषक�� कहा जाता है।

स्वामी दयानंद का आर्य समाज भी इतना ही महत्वपूर्ण था। इस की स्थापना सन 1875 में की गई थी। इस समाज ने धार्मिक बुराइयों और सामाजिक कट्टरता पर प्रहार किये। उन्होंने आर्य समाज को स्वराज्य का मंत्र दिया जिससे आर्य समाज राष्ट्रीय संस्था के रूप में उभरा।

उन्नीसवीं सदी का दूसरा अद्भुत धार्मिक संगठन था - रामकृष्ण मिशन। इस मिशन ने राजनीति को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित किया। इस संगठन ने राष्ट्रीय जागरुकता का संचार किया और लोगों को बताया कि पश्चिम का अनुकरण करने की कोई आवश्यकता नहीं है।

एक और आन्दोलन ��सोशल रिफार्म मूवमेंट�� (सामाजिक सुधार आन्दोलन) ने भी राष्ट्रीय पुनर्जागरण में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। और आंदोलन की भांति, इस आंदोलन का अगुवा भी बंगाल ही था। इस आंदोलन के स्तंभ थे श्री शशिपाद बनर्जी। अंधविश्वासों तथा अन्य धार्मिक-सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध लड़ाई में इन सभी सामाजिक और धार्मिक संस्थाओं ने बहुत महत्वपूर्ण तथा प्रगतिशील भूमिका अदा की। इन संस्थाओं ने देशभक्ति की भावना का संचार किया और राष्ट्रीय चेतना पर इसका निश्चित प्रभाव पड़ा।

ऐसी परिस्थितियों में राष्ट्रीय कांग्रेस का विचार पैदा हुआ अंत में, यह कहा जा सकता है कि सामाजिक- राजनीतिक धार्मिक घटनाओं को परस्पर तालमेल के फलस्वरूप भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म हुआ। वस्तुतः इसकी स्थापना का श्रेय भारतीय नरम वर्ग को भी उतना ही है जितना कि सरकार को। दोनों के हितों में समानता थी। भारतीयों और शासकों दोनों के लिए ही यह समय की पुकार थी।

कांग्रेस का जन्म पूर्व परिस्थिति की पृष्ठभूमि

डा0 पट्टामि सीतारामैया

कांग्रेस का इतिहास सच पूछो तो उस लड़ाई का इतिहास है जो हिन्दुस्तान ने अपनी आजादी के लिए लड़ी है। कई सदियों से भारतीय राष्ट्र विदेशियों का गुलाम बना रहा। गुलामी का आरंभ भारतवर्ष में एक व्यापारी-कंपनी के पदार्पण करने के साथ हुआ है।

पूर्व परिस्थिति

ईस्ट इण्डिया कंपनी का व्यापारिक और राजनीतिक दौर-दौरा भारत में कोई सौ वर्षों तक रहा। इसी बीच उसने भारत में बड़े-बड़े हिस्सों पर अपना कब्जा कर लिया और व्यापारी की जगह अब एक राजशक्ति बन गई। 1772 के बाद ब्रिटिश-पार्लमेण्ट समय-समय पर उसके कामों की जांच-पड़ताल करने लगी और जब-जब उसको नया चार्टर (सनद) दिया जाता, तब-तब पहले ब्रिटिश-सरकार की तरफ से उसके कामों की जांच कर ली जाती थी। चूंकि उसका व्यापारिक कार्य पीछे पड़ता जा रहा था, यह जांच-पड़ताल और भी बारीकी के साथ होने लगी। परंतु इससे यह ख्याल करना तो ठीक न होगा कि उसके काम पर कोई गहरी देख-रेख की जाती रही हो। हां, ऐसे ब्रिटिश लोग जरूर थे जो भारतीय प्रश्नों का गहराई के साथ अध्ययन करते थे। वे कंपनी के कार्य और कार्यक्रम को गौर से और आंखे खोलकर देखा करते थे और उसे पार्लमेण्ट की निगाह से गुजारने में किसी तरह शिथिल नहीं रहते थे। 18वीं सदी के चौथे चरण में एडमण्ड और बर्क, शेरिडन और फॉक्स नामक सज्जनों ने इस विषय में बड़ी दिलचस्पी ली। उससे कंपनी के ऐजेण्टो के कारनामों की ओर लोगों का ध्यान खिंच गया। हालांकि वारन्‌ हेस्ंिटग्स पर चलाए गए मुकदमे का उद्देश्य पूरा न हुआ, फिर भी उसने कंपनी के अन्याय-अत्याचार को लोगों की निगाह में ला दिया। नया चार्टर देने के पहले जब-जब जांच-पड़ताल की गई, तब- तब उसके फलस्वरूप दूरगामी परिणाम लाने वाले कुछ-न-कुछ सिद्धान्तों का निरूपण तो जरूर किया गया, परंतु वे सिर्फ कागज में ही लिखे रह जाते थे। कई बार यह नीति निश्चित की गई कि कंपनी के एजेण्ट अपने-अपने इलाकों की सीमा बढ़ाने की कोशिश न करें, परंतु हर बार कोई-न-कोई ऐसा मौका आ जाता था या पैदा कर लिया जाता था कि जिससे इस आदेश का पालन न होता था और उनके इलाके की सीमा बढ़ती ही चली गई। यहां उस इतिहास में प्रवेश करने की जरूरत नहीं है, जो ईस्ट इण्डिया कंपनी की तरफ से भारत को हथियाते समय की गई दगाबाजियों और काली करतूतों से भरा हुआ है, जिसमें क्षुद्र और लोभी मानव प्रकृति ने अपना रंग खूब दिखाया है और जिसमें सन्धियां और शर्तनामे कदम-कदम पर तोड़े गए हैं; और न यहां इसी बात की जरूरत है कि कुछ लोगों ने जो आपस में दगाबाजियां और नमकहरामियां की हैं, उनका वर्णन किया जाए; न कंपनी के एजेण्टों के द्वारा काम में लाए गए उन साधनों और तदबीरों पर विचार करने की जरूरत है, जिनके बल पर उन्होंने न सिर्फ कंपनी और उसके डाइरेक्टरों को मालामाल कर दिया, बल्कि खुद अपनी जेबें भी भर लीं। सिर्फ इतना ही कह देना काफी होगा कि उन्होंने अटूट धन-संपत्ति प्राप्त कर ली, जिसने आगे चलकर उनके लिए एक बड़ी पूंजी का काम दिया और जिसके बल पर इंग्लैंड, स्टीम एंजिन चलाने में तथा 19वीं सदी में दुनिया में अपने औद्योगिक प्रभुत्व को स्थापित करने में सफल हो सका।

1774 में रेग्युलेटिंग एक्ट पास हुआ और कंपनी के कोर्ट ऑफ डाइरेक्टर्स (संचालक-सभा) के ऊपर बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल (नियामक मण्डल) और कौन्सिल- सहित एक गवर्नर-जनरल की नियुक्ति हुई। तब गोया ब्रिटिश- पार्लमेण्ट ने पहले- पहल हिन्दुस्तानी इलाकों के शासन की कुछ जिम्मेवारी अपने ऊपर ली। धीरे- धीरे यह नियंत्रण बढ़ता गया और 1785 में एक दूसरा कानून पास हुआ। 1793, 1813, 1833 और 1853 में तहकीकात करने के बाद नए चार्टर दिए गए। 1833 में एक कानून बनाया गया कि ��पूर्वोक्त प्रदेशों के कोई भी निवासी या बादशाह के कोई प्रजाजन, जो वहां रहते हों, महज अपने धर्म, जन्मस्थान, वंश या वर्ण के कारण कंपनी में किसी स्थान, पद या नौकरी से वंचित न रखे जाएंगे�� और कोर्ट ऑफ डाइरेक्टर्स ने इसके महत्व को इस प्रकार समझायाः-

��इस धारा का आशय कोर्ट यह मानती है कि ब्रिटिश भारत में कोई शासन करने वाली जाति न रहेगी। उनकी योग्यता की दूसरी कुछ भी कसौटियां रखी जाएं, जाति या धर्म का कोई भेद-भाव नहीं रखा जाएगा। बादशाह के प्रजाजन में से किसी को, फिर वे चाहे भारतीय, ब्रिटिश या मिश्र जाति के हों, उन्हें इन सनदी नौकरियों से वंचित नहीं रखा जाएगा और न ही वे सनदी नौकरियों से ही वंचित रखे जाएंगे, यदि दूसरी बातों में वे उनके योग्य हों।��

उसी कानून के द्वारा कंपनी का भारत में व्यापार करने का अधिकार उड़ा दिया गया और इसके बाद से वह एक पूरी शासक-सत्ता के रूप में सामने आ गई।

इसी समय भारत में अंग्रेजी शिक्षा का प्रवेश करने या न करने के विषय में एक चर्चा उठ खड़ी हुई। हिन्दुस्तानियों में राजा राममोहन राय और अंग्रेजों में मेकाले अंग्रेजी शिक्षा देने के जबरदस्त समर्थक थे। अंत में भारतीय भाषाओं और साहित्य के स्थान पर अंग्रेजी भाषा के पक्ष में निर्णय हुआ।

उन दिनों अंग्रेजों के द्वारा चलाए अखबारों के सिवा कोई देशी अखबार न थे। इनमें भी बाज-बाज अखबार वालों को देश निकाला तक भुगतना पड़ा था। गवर्नर-जनरल लॉर्ड विलियम बेन्टिक का शासन-काल पूर्वोक्त सुधारों के कारण ही प्रसिद्ध हुआ था। उनकी नीति अखबारों के लिए भी नरम थी। उनके उत्तराधिकारी सर चार्ल्स मेट्कॉफ ने अखबारों पर से पाबन्दियां उठा लीं। फिर, लॉर्ड लिटन के वाइसराय होने तक अखबार इसी तरह आजादी में रहे - सिर्फ 1857 के गदर के जमाने को छोड़ कर।

लॉर्ड डलहौजी की नीति व सैनिक विद्रोह

1833 और 53 के दर्म्यान पंजाब और सिंध जीत लिए गए और लॉर्ड डलहौजी की नीति ने कंपनी का इलाका बहुत बढ़ा दिया। लॉर्ड डलहौजी ने कई लावारिस राजाओं की रियासतें जब्त कर लीं तथा अवध की रियासत भी शासन ठीक न होने का सबब बताकर ब्रिटिश भारत में मिला ली। इसके सिवा आर्थिक शोषण भी जारी था, जिससे लोग दिन-दिन कंगाल होते गए। इधर रियासतें छिन गईं और उनकी जगह विदेशी हुकूमत कायम हो गई। यह बात लोगों को चुभ रही थी और वे मन-ही-मन कुढ़ रहे थे। नतीजा यह हुआ कि 1857 में उन्होंने विदेशी हुकूमत के जुए को फेंक देने का आखिरी सशस्त्र प्रयत्न किया। हां, इस बगावत में कुछ धार्मिक भाव भी जरूर था, परन्तु चूंकि एक ओर दिल्ली के नामधारी सम्राट, जो कि अकबर और औरंगजेब के वंशज थे, और दूसरी ओर पूना के पेशवाओं के वंशज, इन दोनों के झण्डे के नीचे जमा होकर लोग भारतीय राज्य स्थापित करना चाहते थे, इससे यह प्रतीत होता है कि यह गदर 1857 के पलासी-युद्ध के बाद सौ वर्षों तक भारत में जो कुछ घटनाएं घटती रहीं, उनके परिणाम का द्योतक था। यही नहीं, बल्कि वह प्रत्येक देश और जाति के मानव- हृदय की इस प्राकृतिक अभिलाषा को भी सूचित करता था कि हम अपने ही लोगों के द्वारा शासित हों, दूसरों के द्वारा हर्गिज नहीं। हालांकि गदर बेकार गया, परंतु उसके साथ ही ईस्ट इंडिया कंपनी भी तिरोहित हो गई और भारत सरकार का शासन- सूत्र सीधा ब्रिटिश ताज अर्थात्‌ ब्रिटिश-पार्लमेण्ट के हाथों में आ गया। इस अवसर पर महारानी विक्टोरिया ने एक घोषणा प्रकाशित की, जिससे शान्ति और विश्वास का वातावरण पैदा हुआ। जो कुछ अशान्ति बच रही, अब उसका कोई सहारा बाकी नहीं रह गया था। राजा और खास करके नवाब बिल्कुल तहस- नहस हो चुके थे। कोई नामधारी व्यक्ति भी ऐसा नहीं रह गया था कि जिसके आसपास लोग जमा हो जाते और आगे 1857 की तरह कोई उत्पात खड़ा कर देते। अब लोग यह समझने लग गए कि भारत में अंग्रेजी राज्य ईश्वर की एक देन है और लोग उसी उदासीन और अलिप्त भाव से अपने कामकाज में लग गए।

ब्रिटिश-पार्लमेण्ट के हाथ में शासन- सूत्र चले जाने के बाद भी भारत-सरकार की गतिविधि पहले की ही तरह जारी रही; हां, एक बात जरूर हुई कि उसका शासन 20 साल तक बिना किसी अशान्ति के जारी रहा। इस बीच कोई युद्ध वगैरा नहीं हुआ। परन्तु इसके यह मानी नहीं कि कोई रगड़ा-झगड़ा और कोई अशान्ति थी ही नहीं। ब्रिटिश-शासन में बड़ी बड़ी खराबियां थीं जिन्हें कि मि0 ह्यूम जैसे हमदर्द अंग्रेज अफसर दिखाया भी करते थे और कोशिश भी किया करते थे कि वे दूर हों।

जैसा कि ऊपर कहा गया है, 1833 के कानून के अनुसार, भारतवासी उन तमाम जगहों पर लेने के काबिल करार दिए गए, जिनके लिए वे अधिकारी समझे जाते थे। 1853 में, जबकि चार्टर विचाराधीन था, पार्लमेण्ट में यह बात खुले आम कही जाती थी कि 1833 के कानून ने हालांकि भारतवासियों को नौकरियां देने का रास्ता खुला कर दिया है, फिर भी उनको अभी तक वे कोई जगह नहीं दी गई हैं जो कि इस कानून के पहले उन्हें नहीं दी जा सकती थीं। जबकि 1853 में सिविल सर्विस के लिए प्रतिस्पर्द्धी परीक्षाएं जारी की गईं तब इस बात की ओर ध्यान दिलाया गया था कि इससे हिन्दुस्तानियों के रास्ते में बड़ी रुकावटें पेश आएंगी; क्योंकि उनके लिए इंग्लैंड में आकर अंग्रेज लड़कों के साथ अंग्रेजी भाषा और साहित्य की परीक्षाओं में बाजी मार ले जाना असम्भव होगा। और यह भी उन नौकरियों के लिए जो आम तौर पर बहुत दुर्लभ थीं। परंतु इस बाधा के रहते हुए भी आखिर कुछ हिन्दुस्तानी समुद्र पार गए ही और उन्होंने सफलता भी प्राप्त की। इतने में ही तकदीर से लॉर्ड सेल्सबरी ने परीक्षा में बैठने की उम्र कम कर दी! इससे हिन्दुस्तानियों को लेने के देने पड़ गए। क्योंकि उधर वे अंग्रेजों की सहायता से हिन्दुस्तान और इंग्लैंड में साथ- साथ परीक्षा ली जाने की पुकार मचा रहे थे, इधर लॉर्ड लिटन ने देशी-भाषा के अखबारों का मुंह बंद कर दिया, जो कि मेटकॉफ के समय से लेकर अबतक अंग्रेजी अखबारों के साथ-साथ आजादी का सुख अनुभव कर रहे थे। उन्होंने एक शस्त्र कानून भी पास किया, जिसके अनुसार न केवल भारतवासियों के हथियार रखने के अधिकार को छीन लिया बल्कि हिन्दुस्तानियों और अंग्रेजों के बीच एक और जहरीला भेद-भाव पैदा कर दिया।

फिर अकालों का भी दौर- दौरा होता रहा। अनाज की कमी उतनी नहीं थी जितने कि उसे खरीदने के साधर कम थे। इन अकालों से देश में हजारों लाखों आदमी काल के गाल हो गए। इसके अलावा अफगान-युद्ध हुआ, जिसमें बड़ा खर्च उठाना पड़ा। इधर तो एक ओर अकाल और मौत का दौर-दौरा हो रहा था, उधर दिल्ली में एक दरबार करने की तजबीज मुनासिब समझी गई, जिसमें महारानी विक्टोरिया ने भारत-सम्राज्ञी की उपाधि धारण की।

ह्यूम साहब की दूरदृष्टि

किसान भी पीड़ित थे। उनके कुछ कष्टों का वर्णन मि. ह्यूम ने सर ऑकलैंड कोलविन को लिखे अपने प्रसिद्ध पत्र में किया है। उनकी बड़ी शिकायतें ये थीं - (अ) दीवानी अदालतें असुविधाजनक और खर्चीली हैं। (आ) पुलिस घूसखोर है और बड़ी ज्यादतियां करती है। (इ) तरीका लगान सख्त है। (ई) शस्त्र और जंगल कानून का अमल चुभने वाला है। इसलिये लोगों ने प्रार्थनाएं कीं कि (क) न्याय सस्ता, निश्चित और जल्दी मिला करे, (ख) पुलिस ऐसी हो कि जिसे वे अपना दोस्त और रक्षक समझ सकें, (ग) तरीका लगान ज् +यादा लचीला हो और किसानों के साथ सहानुभूति रखकर बनाया गया हो, (घ) शस्त्र और जंगल के कानूनों का अमल कम सख्ती से किया जाये। परंतु ये मंजूर नहीं हुईं। सन 1880 की शुरुआत के लगभग दरअसल ऐसी हालत थी। यहां तक कि सर विलियम वेडरबर्न कहते हैं कि नौकरशाही ने न केवल नई सुविधाओं के रोकने में ही अपनी तरफ से कोर-कसर नहीं रखी, बल्कि जब-जब मौका मिला पिछले विशेषाधिकार भी छीन लिए गए; जैसे कि प्रेस की स्वाधीनता, सभायें करने का अधिकार, म्यूनिसिपल- स्वराज्य और विश्व- विद्यालयों की स्वतंत्रता। सर विलियम लिखते हैं - ��एक तो ये अशुभ और प्रतिगामी कानून, दूसरे रूस के जैसे पुलिस का दमन। इससे लॉर्ड लिटन के समय में भारत में कोई क्रान्तिकारी विस्फोट होने ही वाला था कि मि. ह्यूम को ठीक मौके पर सूझी और उन्होंने इस काम में हाथ डाला।�� इतना ही नहीं, बल्कि राजनीतिक अशान्ति अंदर-ही-अंदर बढ़ रही है, इसका अकाट्य प्रमाण मि. ह्यूम के पास था। उनके हाथ ऐसी रिपोर्टों की 7 जिन्दें लगीं, जिनमें भिन्न-भिन्न जिलों के अंदर बगावत के भाव फैलने का वर्णन था। भिन्न- भिन्न गुरुओं के कुछ शिष्यों का धर्माचार्यों और महन्तों से जो पत्र- व्यवहार हुआ, उसके आधार पर वे तैयार की गई थीं। यह हाल है लॉर्ड लिटन के शासन के अंत समय का, अर्थात्‌ पिछली सदी के 70 से लेकर 80 साल के बीच का। ये रिपोर्टें जिला, तहसील, सब-डिवीजन के अनुसार तैयार की गई थीं और शहर, कस्बे और गांव भी उनमें शामिल थे। इसका यह अर्थ नहीं कि कोई सुसंगठित विद्रोह जल्दी होने वाला था, बल्कि यह कि लोगों में निराशा छाई हुई थी, वे कुछ-न-कुछ कर गुजरना चाहते थे, जिससे सिर्फ इतना ही अभिप्राय है कि संभव है ��लोग जगह जगह हथियार लेकर टूट पड़ें और जिनसे वे नफरत करते थे उनकी खून-खराबी करने लगें, सेठ- साहूकारों के यहां चोरी और डाके डालने लगें और बाजारों में लूट मार करने लगे।�� यों तो ये कार्य सिर्फ कानून की खिलाफवर्जी करने वाले हैं। परंतु यदि आवश्यक बल और संगठन का सहारा मिल जाए तो किसी भी दिन एक राष्ट्रीय बगावत के रूप में परिणत हो सकते हैं। बम्बई इलाके के दक्षिण प्रान्त में किसानों के ऐसे दंगे हो भी चुके थे। यह देखकर ह्यूम साहब ने इस अशान्ति को प्रकट करने का एक सरल उपाय ढूंढ निकाला, जो कि हमारी यह वर्तमान कांग्रेस है। इसी समय उनके दिमाग में यह खयाल आया कि हिन्दुस्तानियों की एक राष्ट्रीय सभा कायम की जाए और उन्होंने 1 मार्च, 1883 ईस्वी को कलकत्ता विश्वविद्यालय के ग्रेजुएटों के नाम एक पत्र लिखा, जो कि दिल को हिला देने वाला था। उसमें उन्होंने 50 ऐसे आदमियों की मांग की थी जो, भले, सच्चे, निःस्वार्थ, आत्मसंयमी, नैतिक साहस रखने वाले और दूसरों का हित करने की तीव्र भावना रखने वाले हों। ��यदि सिर्फ 50 भले और सच्चे आदमी संस्थापक के रूप में मिल जाएं तो सभा स्थापित हो सकती है और आगे का काम आसान हो सकता है।�� और इन लोगों के सामने आदर्श क्या पेश किया गया? यह कि-��सभा का विधान प्रजासत्तात्मक हो, सभा के लोग व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से परे हों, और उनका यह सिद्धान्त-वचन हो, कि जो तुममें सबसे बड़ा है उसी को तुम्हारा सेवक होने दो।�� पत्र में उन्होंने गोलमोल बातें नहीं कीं; बल्कि साफ शब्दों में कह दिया, कि ��यदि आप अपना सुख चैन नहीं छोड़ सकते तो कम से कम फिलहाल हमारी प्रगति की सारी आशा व्यर्थ है, और यह कहना होगा कि हिन्दुस्तान सचमुच मौजुदा सरकार से बेहतर शासन न तो चाहता है और न उसके योग्य ही है।

इस स्मरणीय पत्र का अंतिम भाग इस प्रकार है :-
��और यदि देश के विचारशील नेता भी या तो सब-के-सब ऐसे निर्बल जीव हैं, या अपनी स्वार्थ-साधना में ही इतने निमग्न हैं कि अपने देश के लिए कोई साहसपूर्ण कार्य नहीं कर सकते, तब कहना होगा कि वे सही और वाजिब तौर पर ही दबाकर रखे और पद-दलित किए गए हैं; क्योंकि इससे ज्यादा अच्छे व्यवहार के योग्य ही नहीं थे। प्रत्येक राष्ट्र ठीक-ठीक वैसी ही सरकार प्राप्त कर लेता है जिसके कि योग्य वह होता है। यदि आप, जो देश के चुनीदा लोग हैं, जो बहुत ही शिक्षा प्राप्त हैं, अपने सुख-चैन और स्वार्थ पूर्ण उद्देश्यों को नहीं छोड़ सकते और अधिकाधिक स्वाधीनता प्राप्त करने के लिए लड़ने का निश्चय नहीं कर सकते, जिससे कि आपके देशवासियों को अधिक निष्पक्ष शासन का लाभ हो, वे अपने घ का प्रबंध करने में अधिकाधिक हिस्सा लें, तब मानना होगा कि हम, जोकि आपके मित्र हैं, गलती पर हैं, और जो हमारे विरोधी हैं उनका कहना ही सही है; तब मानना होगा कि लॉर्ड रिपन की आपके हित के संबंध में जो उच्च आकांक्षाएं हैं, वे निष्फल होंगी और वे हवाई ठहरेंगी; तब कहना होगा कि प्रगति की तमाम आशाएं अब नष्ट समझनी चाहिएं और हिन्दुस्तान सचमुच उसकी मौजूदा सरकार से बेहतर शासन प्राप्त करना न तो चाहता है और न ही उसके योग्य है। और यदि यही बात सच है तो फिर न तो आपको इस बात पर मुंह ही बनाना चाहिए, न शिकायत ही करनी चाहिए, कि हम जंजीरों में जकड़ दिए गए हैं और हमारे साथ बच्चे-का सा व्यवहार किया जाता हे; और न आपको इसके विरोध में कोई दल खड़ा करना चाहिए; क्योंकि आप अपने को इसी लायक साबित करेंगे। जो मनुष्य होते हैं वे जानते हैं कि काम कैसे करना चाहिए, इसलिए अब से आप इस बात की शिकायत न कीजिएगा कि बड़े-बड़े ओहदों पर आपकी बनिस्बत अंग्रेजों को क्यों तरजीह दी जाती है; क्योंकि आपमें वह सार्वजनिक सेवा का भाव नहीं है, वह उच्च प्रकार की परोपकार- भावना नहीं है, जो सार्वजनिक हित के सामने व्यक्तिगत ऐशो-आराम को छोटा बना देती है; वह देशभक्ति का भाव नहीं है जिसने कि अंग्रेजों को वैसा बना दिया है जैसे कि वे आज हैं। और मैं कहूंगा कि वे ठीक ही आपकी जगह तरजीह पाते हैं और उनका लाजिमी तौर पर आपका शासन बन जाना भी ठीक है; बल्कि वे आगे भी आपके अफसर बने रहेंगे, और आपके कंधों पर रखा यह जुआ तब तक दुखदायी न होगा, जब तक कि आप इस चिर-सत्य को अनुभव नहीं कर लेते और इसके अनुसार चलने की तैयारी नहीं कर लेते कि आत्म-बलिदान और निःस्वार्थता ही सुख और स्वातंत्रय के अचूक पथ-प्रदर्शक हैं।��

पहले के महान व्यक्ति और संस्थाएं

कांग्रेस के जन्म से संबंध वाली तफसीली बातों का बयान करने के पहले, यदि हम कांग्रेस-काल के पहले के उन बड़े-बूढ़े लोगों का नाम-स्मरण कर लें तो अनुचित नहीं होगा, जिनके क्रिया-कलाप ने एक तरह से इस देश में सार्वजनिक जीवन की बुनियाद डाली है।

सबसे पहले बंगाल के ब्रिटिश इण्डियन एसोसिएशन का नाम आता है। 1851 में उसकी स्थापना की गई थी और यह वह संस्था है जिसके नाम की छाया में डॉ0 राजेनद्रलाल मित्र और रामगोपाल घोष जैसे व्यक्ति बीसों साल तक काम करते रहे। यह एसोसिएशन खुद भी कोई पचास साल तक देश में एक सजीव शक्ति बना रहा। बम्बई में सार्वजनिक कार्य की संस्था थी बाम्बे एसोसियेशन। बंगाल के एसोसिएशन के मुकाबले में वह थोड़े समय रहा, परन्तु कार्य उसने भी उसी तरह जोर- शेर से किया। उसके नेता थे - सर मंगलदास नाथूभाई और श्री नौरोजी फरूंदजी। स्वर्गीय दादाभाई नौरोजी और जगन्नाथ शंकर सेठ ने उसकी स्थापना की थी; परंतु बाद में पिछली शताब्दी के अंतिम चरण में ईस्ट- इण्डिया एसोसिएशन ने उनका स्थान ग्रहण कर लिया था। मद्रास में सार्वजनिक सेवा की वास्तविक शुरुआत �हिन्दू� के द्वारा हुई, जिसके कि संस्थापकों में एम. वीर राघवाचार्य, माननीय रंगैया नायडू, जी. सुब्रह्यण्य ऐयर और एन. सुब्बाराव पन्तुलु जैसे गण्य- मान्य पुरुष थे। महाराष्ट्र में पूना की सार्वजनिक सभा का जन्म प्रायः उसी समय हुआ जब कि �हिन्दु� का हुआ था और उसके द्वारा रावबहादुर नुलकर और श्री चिपलूणकर जैसे प्रसिद्ध सार्वजनिक कार्य करते रहे।

बंगाल में, 1873 में, इण्डियन एसोसियशन की स्थापना हुई, जिसके जीवनप्राण सुरेन्द्रनाथ बनर्जी थे ओर जिसके पहले मंत्री थे आनंदमोहन वसु। यह ध्यान में रखना होगा कि इस कांग्रेस- पूर्व-काल में भी यद्यपि सार्वजनिक जीवन सुसंगठित नहीं हो पाया था तथापि उसका असर अधिकारियों पर होने लगा था। हां, अखबार उस जीवन का एक हिस्सा था। 1857 में कोई 475 अखबार थे, जिनमें से अधिकांश प्रान्तीय भाषाओं में निकलते थे। इन्हीं दिनों देश के सुदैव से सुरेन्द्रनाथ बनर्जी सिविल सर्विस से मुक्त हो चुके थे। उन्होंने उत्तरी भारत के पंजाब और युक्त- प्रान्त में राजनीतिक यात्रा की। वह 1877 के प्रसिद्ध दिल्ली दरबार में देश के राजा-महाराजाओं और गण-मान्य लोगों को एक जगह एकत्र देखकर ही पहले-पहल सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के मन में यह प्रेरणा उठी कि एक देश-व्यापी राजनीतिक संगठन बनाया जाए। 1878 में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने बम्बई और मद्रास प्रान्त की यात्रा की, जिसका उद्देश्य यह था कि लॉर्ड सेल्सबरी ने सिविल सर्विस की परीक्षा की उम्र घटाकर जो 19 साल की कर दी थी, उसके खिलाु लोकमत जाग्रत किया जाए और इस विषय पर कामन-सभा में पेश करने के लिए सारे देश की तरफ से एक मेमोरियल तैयार किया जाए।

लॉर्ड रिपन की सहानुभूति

इसी समय लॉर्ड लिटन के प्रतिगामी शासन की शुरुआत होती है। उनके जमाने में (1878) वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट बना, अफगान- युद्ध हुआ, बड़ा खर्चीला दरबार किया गया और 1877 में ही कपास-आयात कर उठा दिया गया। लॉर्ड लिटन के बाद लॉर्ड रिपन का दौर हुआ, जिन्होंने अफगानिस्तान के अमीर के साथ सुलह करके, वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट को रद्द करके, स्थानीक स्वराज्य का आरंभ करके और इलबर्ट बिल को उपस्थित करके एक नए युग का श्रीगणेश किया। यह आखिरी बिल भारत सरकार के ततकालीन लॉ मेम्बर मि0 इलबर्ट ने 1883 में उपस्थित किया था, जिसका उद्देश्य यह था कि हिन्दुस्तानी मजिस्ट्रेटों पर से ये रुकावट उठा ली जाए जिसके द्वारा वे यूरोपियन और अमेरिकन अपराधियों के मुकदमे फैसला नहीं कर सकते थे। इस पर गोरे लोग इतने बिगड़े कि कुछ लोगों ने तो गवर्नमेन्ट हाउस के मंत्रियों को मिलाकर वाइसराय को जहाज पर बिठाकर इंग्लैंड भेजने की एक साजिश ही कर डाली। इस साजिश में कलकत्ते के कई लोगों का हाथ था, जिन्होंने यह संकल्प कर लिया था कि यदि सरकार ने इस बिल को आगे बढ़ाया, तो वे इस साजिश को कामयाब बना कर छोड़ेंगे। नतीजा यह हुआ कि असली बिल उसी साल करीब- करीब हटा लिया गया और उसकी जगह यह सिद्धान्त-भर मान लिया गया कि सिर्फ जिला-मजिस्ट्रेट और दौरा-जज को ही ऐसा अधिकार रहेगा। जब लार्ड रिपन भारत से बिदा हुए तो देश के एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक के लोगों ने उन्हें हार्दिक बिदाई दी। अंग्रेजों के लिए वह एक ईर्ष्या का विषय हो गई थी, किन्तु उससे बहुतेरे लोगों की आंखें भी खुल गई थीं।

राजनीतिक संस्थाएं

इस बिल के संबंध में गोरे लोगों को जो सफलता मिल गई, उससे हिन्दुस्तानी जाग उठे और उन्होंने बहुत जल्दी इस बिल के विरोध का आन्तरिक हेतु पहचान लिया। गोरे यह मनवाना चाहते थे कि हिन्दुस्तान पर गोरी जातियों का प्रभुत्व है और वह सदा रहेगा। इसने भारत के तत्कालीन देश सेवकों को संगठन के महत्व का पाठ पढ़ाया और उन्होंने तुरंत ही 1883 में कलकत्ता के अलबर्ट-हॉल में एक राजनीतिक परिषद् की आयोजना की, जिसमें सुरेन्द्रनाथ बनर्जी और आनंदमोहन वसु दोनों उपस्थित थे। इस सभा में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने अपने आरम्भिक भाषण में खास तौर पर इस बात का जिक्र किया कि किस तरह दिल्ली दरबार ने उनके सामने एक राजनीतिक संस्था, जो कि भारत के हित- साधन में तत्पर रहे, बनाने का नमूना पेश किया था। इस विषय में बाबू अम्बिकाचरण मुजुमदार ने अपनी �दी इण्डियन नेशनल इवाल्युशन� नामक पुस्तक में इस तरह लिखा है - ��परिषद् का दृश्य अद्वितीय था। मेरी आंखों के सामने उस समय के तीनों दिन के उत्साह और लगन का हूबहू चित्र आज भी खड़ा है। जब परिषद् खत्म होने लगी तो मानों हरेक आदमी को, जो उसमें मौजूद था, एक नई रोशनी और एक अद्भुत स्फूर्ति प्राप्त हो रही थी।�� इसके दूसरे ही वर्ष कलकत्ते में अन्तर्राष्ट्रीय परिषद् हुई और मद्रास में प्रान्तीय परिषद् का अधिवेशन हुआ। पश्चिम भारत में 31 जनवरी, 1885 को महता, तैलंग और तैयबजी की मशहूर मंडली ने मिलकर बाम्बे प्रेसीडेन्सी एसोसिएशन कायम किया।

पूर्वोक्त वर्णन से यह स्पष्ट मालूम होता है कि भारतवर्ष मन-ही-मन किसी अखिल भारतीय संगठन की आवश्यकता का अनुभव करता था। यह तो अभी तक एक रहस्य ही है कि अखिल भारतीय कांग्रेस की कल्पना वास्तव में किसके मस्तिष्क से निकली। 1877 के दरबार या कलकत्ते की अन्तर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी के अलावा थियोसोफिकल कन्वेन्शन का भी नाम इस विषय में लिया जाता है, जो कि दिसम्बर 1884 में मद्रास में हुआ था। वहां 17 आदमियों की एक निजी सभा हुई, जिसमें यह कल्पना सोची गई। मि0 एलेन ऑक्टेवियन ह्यूम ने सिविल सर्विस से अवसर प्राप्त करने के बाद जो इण्डियन यूनियन कायम की थी वह भी कांग्रेस के जन्त का एक निमित्त बतलाई जाती है। खैर, कोई भी इस कल्पना का मूल उत्पादक हो और कहीं से यह पैदा हुई हो, हम इन नतीजों पर जरूर पहुंचते हैं कि यह कल्पना वातावरण में घूम अवश्य रही थी और ऐसे संगठन की आवश्यकता महसूस की जा रही थी। मि0 ए.ओ. ह्यूम ने इसमें सबसे पहले कदम बढ़ाया और 23 मार्च 1885 में इसके संबंध में पहला नोटिस जारी किया गया, जिसमें बताया गया था कि अगले दिसम्बर में, पूना में इण्डियन नेशनल यूनियन का पहला अधिवेशन किया जाएगा। इस तरह अब तक जो एक अस्पष्ट कल्पना वातावरण में पंख फटफटा रही थी और जो उत्तर- दक्षिण, पूर्व- पश्चिम, सभी जगह के विचारशील भारतवासियों के विचारों को गति दे रही थी उसने अब एक निश्चित स्वरूप ग्रहण कर लिया और एक व्यावहारिक कार्यक्रम के रूप में देश के सामने आ गई।

जो भरा नहीं है भावों से,
बहती जिसमें रसधार नहीं।
वह हृदय नहीं है, पत्थर है,
जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।
रामनरेश त्रिपाठी

कांग्रेस का पहला अधिवेशन

कांग्रेस की स्थापना का उद्देश्य आरंभ में शासक एवं शासित को परस्पर करीब लाने का था। मि. ह्यूम का खयाल शुरू-शुरू में यह था कि कलकत्ते के इण्डियन एसोसिएशन, बम्बई के प्रेसिडेन्सी एसोसियेशन और मद्रास के महाजन-सभा जैसी प्रान्तीय संस्थायें राजनीतिक प्रश्नों को हाथ में लें और आल इण्डिया नेशनल यूनियन बहुत-कुछ सामाजिक प्रश्नों में ही हाथ डाले। उन्होंने लॉर्ड डफरिन से इस विषय में सलाह ली, जो कि हाल ही में वाइसराय बन कर आए थे। उन्होंने जो सलाह दी वह उमेशचंद्र बनर्जी के शब्दों में इस प्रकार हैः-

��बहुतों को यह एक नई बात मालूम होगी कि कांग्रेस का जन्म किस तरह हुआ और जिस तरह वह तब से अब तक चलाई जा रही है, वह वास्तव में लॉर्ड डफरिन का काम था, जब कि वह भारत के वाइसराय कि यदि भारत के प्रधान- प्रधान राजनीतिज्ञ पुरुष साल में एक बार एकत्र होकर सामाजिक विषयों पर चर्चा कर लिया करें और एक दूसरे से मित्रता का संबंध स्थापित कर लें तो इससे बड़ा लाभ होगा। वह यह नहीं चाहते थे कि यदि देश के भिन्न-भिन्न भागों के राजनीतिज्ञ जमा होकर राजनीतिक विषयों पर चर्चा करने लगेंगे तो इससे उन प्रान्तीय संस्थाओं का महत्व कम हो जाएगा।

वह यह भी चाहते थे कि जिस प्रान्त में यह सभा हो वहां का गवर्नर उसका सभापति हो, जिससे कि सरकारी और गैरसरकारी राजनीतिज्ञों में अच्छे संबंध स्थापित हों। इन खयालों को लेकर वह 1885 में लॉर्ड डफरिन से शिमला में मिले। लॉर्ड डफरिन ने उनकी बातों को ध्यान से और दिलचस्पी से सुना और कुछ समय के बाद मि. ह्यूम से कहा कि मेरी समझ में यह तजवीज, कि गवर्नर सभापति बने, उपयोगी न होगीः क्योंकि इस देश में ऐसा कोई सार्वजनिक मण्डल नहीं है कि इंग्लैंड की तरह यहां सरकार के विरोध का काम करे - हालांकि यहां अखबार हैं और वे लोकमत को प्रदर्शित करते हैं, फिर भी उन पर आधार नहीं रखा जा सकता; और अंग्रेज जो हैं, वे जानते ही नहीं कि लोग उनके और उनकी नीति के बारे में क्या खयाल करते हैं। इसलिए ऐसी दशा में यह अच्छा होगा और इसमें शासक और शासित दोनों का हित है, कि यहां के राजनीतिज्ञ प्रति वर्ष अपना सम्मेलन किया करें और सरकार को बताया करें कि शासन में क्या- क्या त्रुटियां हैं और उसमें क्या-क्या सुधार किये जाएं। उन्होंने यह भी कहा कि ऐसे सम्मेलन का सभापति स्थानीय गवर्नर न होना चाहिए, क्योंकि उसके सामने संभव है, लोग अपने सही खयालात जाहिर न करें। मि. ह्यूम को लॉर्ड डफरिन की दलील जंची और जब उन्होंने कलकत्ता, बम्बई, मद्रास और दूसरी जगहों के राजनीतिज्ञों के सामने उसे रखा तब उन्होंने भी लॉर्ड डफरिन की सलाह को एक स्वर में पसन्द कर लिया तथा उसके मुताबिक कार्रवाई भी शुरू कर दी। लॉर्ड डफरिन ने मि. ह्यूम से यह शर्त करा ली थी कि जब तक मैं इस देश में हूं तब तक इस सलाह के बारे में मेरा नाम कहीं न लिया जाए। मि. ह्यूम ने इसका पूरी तरह पालन भी किया।��

मार्च, 1885 में यह तय हुआ कि बड़े दिनों की छुट्टियों में देश के सब भागों के प्रतिनिधियों की एक सभा की जाए। पूना इसके लिए सबसे उपयुक्त जगह समझी गई। इस बैठक के लिए एक गश्ती पत्र जारी किया गया, जिसका मुख्य अंश नीचे दिया जाता हैः-

��25 से 31 दिसंबर 1885 तक पूना में इण्डियन नेशनल यूनियन की एक परिषद् की जाएगी। इसमें बंगाल, बंबई और मद्रास प्रदेशों के प्रतिनिधि, अर्थात्‌ राजनीतिज्ञ, सम्मिलित होंगे।

��इस परिषद् के प्रत्यक्ष उद्देश्य यह होंगे - (1) राष्ट्र की प्रगति के कार्य में जी-जान से लगे हुए लोगों का एक-दूसरे से परिचय हो जाना। (2) इस वर्ष में कौन-कौन से राजनैतिक कार्य अंगीकार किए जाएं इसकी चर्चा करके निर्णय करना।

��अप्रत्यक्ष-रूप से यह परिषद् एक देशी पार्लिमेण्ट का बीच- रूप बनेगी और यदि इसका कार्य सुचारू-रूप से चलता रहा तो थोड़े ही दिनों में इस आक्षेप का मुंहतोड़ जवाब होगी कि हिन्दुस्तान प्रातिनिधिक शासन- संस्थाओं के बिलकुल अयोग्य है। पहली परिषद में यह तय होगा कि दूसरी परिषद पूना में ही की जाए या ब्रिटिश एसोसियेशन की तरह हर साल देश के प्रधान-प्रधान भागों में की जाए। यह अंदाज है कि पूना के मित्रों के अलावा बंबई, मद्रास और बंगाल से कोई बीस-बीस प्रतिनिधि आएंगे, और इनसे आधे युक्तप्रान्त और पंजाब से।��

इस तरह अपने को वाइसराय के आशीर्वाद से सुरक्षित करके ह्यूम साहब इंग्लैंड पहुंचे और वहां लार्ड रिपन, लॉर्ड डलहौजी, सर जेम्स केअर्ड, जॉन ब्राइट, मि0 रीड, मि0 स्लेग और दूसरे प्रसिद्ध पुरुषों से मशविरा किया। उनकी सलाह से उन्होंने वहां एक संगठन किया। जो आगे चलकर इंग्लैंड के इण्डियन पार्लिमेण्टरी कमेटी के रूप में परिणत हो गया और जिसका उद्देश्य था पार्लिमेण्ट के उम्मीदवरों से यह प्रतिज्ञा करवाना कि वे हिन्दुस्तान के मामलों में दिलचस्पी लेंगे। उन्होंने वहां एक इण्डियन टेलीग्राफ़ यूनियन बनाई, जिसका उद्देश्य था इंग्लैंड के प्रधान- प्रधान प्रान्तीय पत्रों को महत्वपूर्ण विषयों पर तार भेजने के लिए धन-संग्रह करना।

अधिवेशन पूना में हुआ

इस पहले अधिवेशन का बड़ा रोचक वर्णन अपनी �हाऊ इण्डिया रॉट फॉर फ्रीडम� नामक पुस्तक में श्रीमती बेसेण्ट ने किया है, जिससे नीचे लिखा अंश यहां उद्धृत किया जाता हैः-

��लेकिन पहला अधिवेशन पूना में नहीं हुआ; क्योंकि बड़े दिन के पहले ही वहां हैजा शुरू हो गया और यह ठीक समझा गया कि परिषद, जिसे अब कांग्रेस कहते हैं, बम्बई में की जाए। गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कालेज और छात्रालय के व्यवस्थापकों ने अपने विशाल भवन कांग्रेस के हवाले कर दिए और 27 दिसंबर की सुबह तक भारतीय राष्ट्र के प्रतिनिधियों के स्वागत करने की पूरी तैयारी हो गई। जो व्यक्ति उस समय वहां उपस्थित थे, उनकी नामावली पर एक निगाह डालते हैं तो उनमें से कितने ही आगे चल कर भारत की स्वाधीनता का प्रयत्न करते हुए बहुत प्रसिद्ध हो गए थे। जो सज्जन प्रतिनिधि नहीं बन सकते थे उनमें थे सुधारक दीवान-बहादुर आर. रघुनाथराव, डिप्टी कलेक्टर, मद्रास; माननीय महादेव गोविन्द रानाडे, कौंसिल के सदस्य और जज स्माल कॉज कोर्ट पूना, जो आगे चल कर बम्बई हाईकोर्ट के जज हो गये और जो एक माननीय और विश्वसनीय नेता थे; लाला बैजनाथ, आगरा, जो बाद को एक प्रख्यात विद्वान और लेखक प्रसिद्ध हुए; और अध्यापक के सुंदर रमण और रामकृष्ण गोपाल भांडाकर। प्रतिनिधियों में नामीनामी पत्रों के सम्पादक थे; जैसे-�ज्ञान-प्रकाश� जो कि पूना सार्वजनिक-सभा का त्रैमासिक पत्र था, �मराठा-केसरी�, �नव-विभाकर�, �इण्डियन- मिरर�, �नसीम�, �हिन्दुस्तानी�, �ट्रिब्यून�, �इण्डियन- यूनियन�, �स्पेक्टेटर�, �इंदु प्रकाश�, �क्रेसेंट�,। इनके अलावा नीचे लिखे माननीय और परिचित सज्जनों के नाम भी चमक रहे थे - ह्यूम साहब, शिमला; उमेशचंद्र बनर्जी और नरेन्द्रनाथ सेन, कलकत्ता; वामन सदाशिव आपटे और गोपाल गणेश आगकर, पूना; गंगाप्रसाद वर्मा, लखनऊ; दादाभाई नौरोजी, काशीनाथ, त्र्यम्बक तैलंग, फीरोजशाह मेहता, बम्बई कारपोरेशन के नेता, दीनशा एदलजी वाचा, बहराम जी मालावारी, नारायण गणेश चंदावरकर, बंबई; पी. रगैया नायडू, प्रेसिडेण्ट महाजनसभा, एस. सुब्रह्यण्य ऐयर, पी. आनंदा चार्लू, जी. सुब्रह्मण्य ऐयर, एम. वीर राधवाचार्य, मद्रास; पी. केशव पिल्ले, अनंतपुर। इनमें वे लोग भी थे जो भारत की आजादी के लिए खप चुके, और वे भी थे जो अब भी कायम हैं और उसके लिए यत्नशील हैं।

��28 दिसम्बर 1885 को दिन के 12 बजे गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कालेज के भवन में कांग्रेस का पहला अधिवेशन हुआ। पहली आवाज सुनाई पड़ी ह्यूम साहब की, माननीय एस0 सुब्रह्यमण्य ऐअर की और माननीय काशीनाथ त्र्यबंक तैलंग की। ह्यूम साहब ने श्री उमेश बनर्जी के सभापतित्व का प्रस्ताव उपस्थित क्षण था, जिसमें मातृभूमि के द्वारा सम्मानिक अनेकों व्यक्तियों में प्रथम पुरुष ने प्रथम राष्ट्रीय महासभा के अध्यक्ष का स्थान ग्रहण किया।

��कांग्रेस की गुरुता की ओर प्रतिनिधियों का ध्यान दिलाते हुए अध्यक्ष महोदय ने कांग्रेस का उद्देश्य इस तरह बतलाया :-

(क) साम्राज्य के भिन्न-भिन्न भागों में देश-हित के लिए लगन से काम करने वालों की आपस में घनिष्ठता और मित्रता बढ़ाना।
(ख) समस्त देश- प्रमियों के अंदर प्रत्यक्ष मैत्री- व्यवहार के द्वारा वंश, धर्म और प्रान्त संबंधी तमाम पूर्वदूषित संस्कारों को मिटाना और राष्ट्रीय ऐक्य की उन तमाम भावनाओं का, जो लॉर्ड रिपन के चिर-स्मरणीय शासनकाल में उद्भूत हुईं, पोषण और परिवर्तन करना।
(ग) महत्वपूर्ण और आवश्यक सामाजिक प्रश्नों पर भारत के शिक्षित लोगों में अच्छी तरह चर्चा होने के बाद जो परिपक्व सम्मतियां प्राप्त हों उनका प्रामाणिक संग्रह करना।
(घ) उन तरीकों और दिशाओं का निर्णय करना जिनके द्वारा भारत के राजनीतिज्ञ देश-हित के कार्य करें।��

इस प्रथम अधिवेशन में नौ प्रस्ताव स्वीकृत हुए; जिनके द्वारा भारत की मांगों के बनने की शुरुआत होती है। पहले प्रस्ताव के द्वारा भारत के शासन- कार्य की जांच के लिए एक रॉयल कमीशन बैठाने की मांग की गई। दूसरे के द्वारा इण्डिया कौंसिल को तोड़ देने की राय दी गई। तीसरे प्रस्ताव के द्वारा धारा-सभा की त्रुटियां दिखाई गईं, जिनमें अब तक नामजद सदस्य थे और उनके बजाय चुने हुए रखने की, प्रश्न पूछने का अधिकार देने की, युक्तप्रान्त और पंजाब में कौंसिल कायम की जाने की ओर कामन-सभा में स्थायी समिति कायम करने की मांग की गई-इस आशय से कि कौंसिलों में बहुमत से जो विरोध हो उन पर उसमें विचार किया जाये। चौथे के द्वारा यह प्रार्थना की गई कि आई.सी.एस. की परीक्षा इंग्लैण्ड और भारत में एक साथ हो और परीक्षार्थियों की उम्र बढ़ा दी जाय। पांचवा और छठा फ़ौजी खर्च से संबंध रखता था और सातवें में अपर बर्मा को मिला लेने तथा भारत में इसे सम्मिलित कर लेने की तजवीज का विरोध किया गया था। आठवें के द्वारा यह प्रार्थना की गयी कि ये प्रस्ताव राजनीतिक सभाओं को भेज दिये जाएं। तदनुसार सारे देश में तमाम राजनैतिक मण्डलों और सार्वजनिक सभाओं द्वारा उन पर चर्चा की गई और कुछ मामूली संशोधनों के बाद वे बड़े उत्साह से पास किये गये। अंतिम प्रस्ताव में अगले अधिवेशन का स्थान कलकत्ता और ता0 28 दिसंबर नियत हुई।

कांगे्रस का दावा

जिस प्रकार एक बड़ी नदी का मूल एक छोटे से सोते में होता है उसी प्रकार महान्‌ संस्थाओं का आरंभ भी बहुत मामूली होता है। जीवन की शुरूआत में वे बड़ी तेजी के साथ दौड़ती है, परन्तु ज्यों-ज्यों वे व्यापक होती जाती हैं त्यों-त्यों उनकी गति मन्द किन्तु स्थिर होती जाती है। ज्यों- ज्यों वे आगे बढ़ती हैं, त्यों-त्यों उनमें सहायक नदियां मिल जाती हैं और वे उसको अधिकाधिक सम्पन्न बनाती जाती हैं। यही उदाहरण हमारी कांगे्रस के विकास पर भी लागू होताहै। उसे अपना रास्ता बड़ी- बड़ी बाधाओं में से तय करना था, इसलिए आरंभ में उसने अपने सामने छोटे-छोटे आदर्श रखें, परन्तु ज्योंही उसे समस्त भारतवासियों के हार्दिक प्रेम का सहारा मिला, उसने अपना मार्ग विस्तृत कर दिया और अपने उदय में देश की अनेक सामाजिक नैतिक हलचलों का भी समावेश कर लिया। आरम्भिक अवस्थाओं में उसके कार्यों में एक किस्म की हिचकिचाहट और शंका-कुशंकायें दिखाई देती थी; परन्तु जैसे जैसे वह बालिग होती गई तैसे-तैसे उसे अपने बल और क्षमता का ज्ञान होता गया और उसकी दृष्टि व्यापक बनती गई। अनुनय विनय की नीति को छोड़कर उसने आत्मतेज और आत्मावलम्बन की नीति ग्रहण की। इधर लोक मत को शिक्षित करने के लिए जोर शोर से प्रचार कार्य होने लगे, जिससे देशव्यापी संगठन बन गया। यहां तक कि सीधे हमले तक का कार्यक्रम बनाना पड़ा। शिकायतों और अपने दुःख दर्दों को दूर कराने के उद्देश्य से शुरूआत करके कांगे्रस देश की एक ऐसी मान्य संस्था के रूप में परिणत हो गई जो बड़े स्वाभिमान के साथ अपनी मांगें भी पेश करने लगी। हालांकि शुरूआत के दस पांच वर्षों में शासन संबंधी मामलों में उसकी दृष्टि की एक सीमा बनी हुई थी, फिर भी शीघ्र ही वह भारतवासियों की तमाम राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की एक जबरदस्त और सत्तापूर्ण प्रतिपादक बन गई। उसका दरवाजा सब दर्जे और सब जातियों के लोगों के लिए खोल दिया गया। यद्यपि शुरूआत में वह उन प्रश्नों को हाथ में लेती हुई संकोच करती थी जो सामाजिक कहे जाते थे, परन्तु उचित समय आते ही उसने इस बात को मानने से इंकार कर दिया कि जीवन अलग-अलग टुकड़ों में बंटा हुआ है। और इस प्राचीन परम्परागत विचार के आगे जाकर, जो जीवन के प्रश्नों को सामाजिक और राजनीतिक सीमाओं में बांध देता है, उसने एक ऐसा सर्वव्यापी आदर्श अपने सामने प्रस्तुत किया, जिसमें कि सारा जीवन, यहां से वहां तक, एक और अविभाज्य है। इस तरह कांग्रेस एक ऐसा राजनीतिक संगठन है, जहां न ब्रिटिश भारत और देशी राज्यों का भेद है, न एक प्रान्त और दूसरे प्रान्त का। उसमें न उच्च वर्ग या जनता भेद है, न शहर और गांव का, और न गरीब अमीर का भेद है न किसान मजदूर का जात-पांत और मजहबों का भेदभाव भी उसमें नहीं हे। गांधी जी ने दूसरी गोलमेज परिषद् के समय फेडरल स्ट्रकचर कमेटी केसामने जो जबरदस्त वक्तृता दी थी और जिमसें उन्होंने कांगे्रस के बारे में ही दावा किया था, उसके आवश्यक अंश नीचे दे देना उचित होगा।

''यदि मैं गलती नहीं करता हूं, तो कांग्रेस भारतवर्ष की सबसे बड़ी संस्था है। इसकी अवस्था लगभग 50 वर्ष की है, और इस अर्से में वह बिना किसी रुकावट के बराबर अपने वार्षिक अधिवेशन करती रही है। सच्चे अर्थों में वह राष्ट्रीय है। वह किसी खास जाति, वर्ग या किसी विशेष हित की प्रतिनिधि नहीं है। वह सर्व भारतीय हितों और सब वर्गों की प्रतिनिधि होने का दावा करती है। मेरे लिए यह बताना सबसे बड़ी खुशी की बात है कि उसकी उपज आरम्भ में एक अंगे्रज मस्तिष्क में हुई। ऐलन ओक्टेवियन ह्यूम को कांगे्रस के पिता के रूप में हम जानते हैं। दो महान पारसियों - फिरोज शाह मेहता और दादाभाई नैरोजी ने जिन्हें सारा भारत �वृद्ध पितामह कहने में प्रसन्नता अनुभव करता है, इसका पोषण किया। आरम्भ से ही कांगे्रस में मुसलमान, ईसाई, गोरे आदि शामिल थे, बल्कि मुझे यों कहना चाहिए कि इसमें सब धर्म, सम्प्रदाय और हितों का थोड़ी बहुत पूर्णता के साथ प्रतिनिधित्व होता था। मुसलमान और पारसी भी कांगे्रस के सभापति रहे। मे। इस समय कम से कम एक भारतीय ईसाई श्री उमेशचन्द बनर्जी का नाम भी ले सकता हूं। विशुद्ध भारतीय श्री कालीचरण बनर्जी ने, जिनके परिचय का मुझे सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ, अपने को कांगे्रस के साथ एक कर दिया था। मै, और निस्सन्देह आप भी, अपने बीच श्री के.टी. पाल का अभाव अनुभव कर रहे होंगे। यद्यपि मैं ठीक नहीं जानता, लेकिन जहां तक मुझे मालूम है, वह अधिकारी रूप से कभी कांगे्रस में शामिल नहीं हुए, फिर भी वह पूरे राष्ट्रवादी थे।

जैसा कि आप जानते हैं, स्वर्गीय मौ. मुहम्मदअली जिनकी उपस्थिति का भी आज यहां अभाव है, कांगे्रस के सभापति थे, और इस समय कांगे्रस की कार्य समिति के 15 सदस्यों में 4 सदस्य मुसलमान हैं। स्त्रिायां भी हमारी कांग्रेस की अध्यक्ष रह चुकी हैं। पहली श्रीमती एनी बेसेण्ट थी और दूसरी श्रीमती सरोजिनी नायडू जो कार्य समिति की सदस्य भी हैं, और इस प्रकार जहां हमारे यहां जाति और मजहब का भेद भाव नहीं है, वहां किसी प्रकार का लिंग भेद ननहीं है।

�कांगे्रस ने अपने आरम्भ से ही अछूत कहलाने वालों के काम को अपने हाथ में ले रखा है। एक समय था जबकि कांगे्रस अपने प्रत्येक वार्षिक अधिवेशन के समय अपनी सहयोगी संस्था की तरह सामाजिक परिषद् का भी अधिवेशन किया करती थी, जिसे स्वर्गीय रानाडे ने अपने अनेकों कामों में एक काम बना लिया था और जिसे उन्होंने अपनी शक्तियां समर्पित की थीं। आप देखेंगे कि उनके नेतृत्व में सामाजिक परिषद के कार्यक्रम में अछूतों के सुधार के कार्य को एक खास स्थान दिया गया था। किन्तु सन्‌ 1920 में कांगे्रस ने एक बड़ा कदम आगे उठाया और अस्पृश्यता निवारण के प्रश्न को राजनीतिक मंच का एक आधार-स्तम्भ बनाकर राजनीतिक कार्यक्रम का एक महत्वपूर्ण अंग बना दिया। जिस प्रकार कांग्रेस हिन्दू मुस्लिम ऐक्ट, और इस प्रकार सब जातियों के परस्पर ऐक्ट, को स्वराज्य प्राप्ति के लिए अनिवार्य समझती थी उसी तरह स्वराज्य प्राप्ति के लिए छुआछूत के पाप को दूर करना भी अनिवार्य समझने लगी। सन्‌ 1920 में कांगे्रस ने जो स्थिति ग्रहण की थी, वह आज भी बनी हुई है; और इस प्रकार कांगे्रस ने अपने आरम्भ से ही अपने को सच्चे अर्थों में राष्ट्रीय सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। यदि महाराजागण मुझे आज्ञा देंगे तो मैं यह बतलाना चाहता हूं कि कांगे्रस ने उनकी और भी सेवा की है। मैं इस समिति को याद दिलाना चाहता हूं कि वह व्यक्ति भारत का वृद्ध पितामह ही था। जिसने काश्मीर और मैसूर के प्रश्न को हाथ में लेकर सफलता को पहुंचाया था ओर मैं अत्यन्त नम्रता पूर्वक कहना चाहता हूं कि ये दोनों बड़े घराने श्री दादाभाई नौरोजी के प्रयत्नों के लिए कम ऋणी नहीं है॥ अब तक भी उनके घरेलू और आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करके कांगे्रस उनकी सेवा का प्रयत्न करती रही है। मैं आशा करता हूं कि इस संक्षिप्त परिचय से, जिसका दिया जाना मैंने आवश्यक समझा, समिति और कांगे्रस के दावे में दिलचस्पी रखते हैं, वे यह जान सकेंगे कि उसने जो दावा किया है, वह उसके उपयुक्त हैं। मैं जानता हूं कभी कभी वह अपने इस दावे को कायम रखने में असफल भी हुई है, किंतु मैं यह कहने का साहस करता हूं कि यदि आप कांगे्रस का इतिहास देखेंगे तो आपको मालूम होगा कि असफल होने की अपेक्षा वह सफल ही अधिक हुई है और प्रगति के साथ सफल हुई है। सबसे अधिक कांग्रेस मूलरूप में, अपने देश के एक कोने से दूसरे कोने तक, 7,00,000 गांवों में बिखरे हुए करोड़ों मूक, अर्ध नग्न और भूखे प्राणियों की प्रतिनिधि है, यह बात गौण है कि ये लोग ब्रिटिश भारत के नाम से पुकारे जाने वाले प्रदेश के हैं अथवा भारतीय भारत अर्थात्‌ देशी राज्यों के। इसलिए कांगे्रस के मत से प्रत्येक हित, जो रक्षा के योग्य हैं, इन लाखों मूक प्राणियों के हित का साधन होना चाहिए। हां, आप समय- समय पर इन विभिन्न हितों में प्रत्यक्ष विरोध देखते हैं। परन्तु यदि वस्तुतः कोई वास्तविक विरोध हो तो मैं कांगे्रस की ओर से बिना किसी संकोच के यह बता दो चाहता हूं कि इन लाखों मूम प्राणियों के हित के लिए कांगे्रस प्रत्येक हित का बलिदान कर देगी। इसलिए यह आवश्यक रूप से किसानों की संस्था है और वह अधिकाधिक उनकी बनती जा रही है। आपको और कदाचित इस समिति के भारतीय सदस्यों को भी, यह जानकर आश्चर्य होगा कि कांगे्रस ने आज अखिल भारतीय चर्खा संघ नामक अपनी संस्था द्वारा करीब दो हजार गांवों की लगभग 50 हजार स्त्रियों को (अब यह संख्या 1,80,000 है) रोजगार में लगा रखा है, और इनमें सम्भवतः 50 प्रतिशत मुसलमान स्त्रियां हैं। उसमें हजारों अछूत कहाने वाली जातियों की भी है। इस तरह हम इस रचनात्मक कार्य के रूप में इन गांवों में प्रवेश कर चुके हैं और 7,00,000 गांवों में प्रत्येक गांव में, प्रवेश करने का यत्न किया जा रहा है। यह काम यद्यपि मनुष्य की शक्ति के बाहर का है; फिर भी यदि मनुष्य के प्रयत्न से हो सकता है, तो आप कांगे्रस को इन सब गांवों में फैली हुई और उन्हें चर्खे का सन्देश सुनाती हुई देखेंगे।

कांग्रेस कैसी महान्‌ राष्ट्रीय संस्था है, इसका बहुत अच्छा वर्णन संक्षेप में गांधी जी ने किया है। यदि कांगे्रेस ने और कुछ नहीं किया तो कम से कम इतना जरूर किया कि उसने अपना गन्तव्य स्थान खोज लिया है और राष्ट्र के विचारों और प्रवृत्तियों को एक ही बिन्दु पर लाकर ठहरा दिया है। उसने भारत के करोड़ों निरीह और बेकस लोगों के दिलों में एक जागृति पैदा कर दी है; उनके अन्दर एकता, आशा और आत्म विश्वास की संजीवनी डाल दी है। कांगे्रस ने भारतवासियों के विचारों और आकांक्षाओं को एक स्पष्ट राष्ट्रीय रूप दे दिया है, जिसके द्वारा उन्होंने अपनी राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीय साहित्य को, अपने सर्वसामान्य आकांक्षाओं ओर आदर्शों तक को खोज निकाला है। परन्तु यहां कहना होगा कि उसके जीवन के ये पिछले 50 वर्ष अबाध और असानी से नहीं बीते हैं। उसमें कई उतार-चढ़ाव आये हैं। उसमें लोगों की आशा निराशायें, उनके आन्दोलनों और प्रयासों में मिली सफलता असफलता सब का इतिहास छिपा हुआ है।

स्वाधीनता की ललक

पुष्प की अभिलाषा

माखनलाल चतुर्वेदी

चाह नहीं, मैं सुरबाला के गहनों में गूंथा जाऊं,
चाह नहीं, प्रेमीमाला में बिंध प्यारी को ललचादूं,
चाह नहीं, सम्राटों के शव पर हे हरि, डाला जाऊं,
चाह नहीं, देवों के सिर पर चढूं भाग्य पर इठलाऊं
मुझे तोड़ देना वनमाली,
उस पथ में देना फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पथ पर जाएं वीर अनेक

विलासपुर : 18 फरवरी, 1922, युगचरण


बलिदान

अंग्रेजी न्यायाधीश ने भारतीय क्रान्तिकारी को सज +ा सुनाते हुए कहा, ��तुम्हारे लिए
दो सज+ाएं हैं - एक फांसी और दूसरी बीस वर्ष का कारावास।��
बताओ कौन-सी सजा पसंद है?
��फांसी�� ...मुस्कराते हुए वीर युवक ने उत्तर दिया। ��क्या तुम्हें जीवन प्यारा नहीं युवक? ऐसा क्यों कहते हो?�� उत्तर मिला ��नहीं, मुझे जीवन से देश अधिक प्यारा है। कल मर कर दोबारा जन्म लूंगा और बीस वर्ष बाद जवान होकर आततायी से फिर लडूंगा। बीस वर्ष की सज+ा भोगकर तो मैं वृद्ध हो जाऊंगा और मेरी संघर्ष शक्ति समाप्त हो जायेगी। मेरी आंखों के सामने ही तुम मेरे देश को अन्याय के पाटों के बीच पीसते रहोगे। दूसरे दिन बलिदान मुस्करा रहा था।

कांग्रेस के प्रारम्भिक पचास वर्ष

डा0 राजेन्द्र प्रसाद

हमारी राष्ट्रीय महासभा (कांग्रेस) पचास वर्ष पूर्व, पहले-पहल, कुछ थोड़े-से प्रतिनिधियों की उपस्थिति में, बम्बई में हुई थी। जो लोग वहां उपस्थित थे, वे निर्वाचित प्रतिनिधि तो शायद ही कहे जा सकें, परन्तु थे सच्चे जन- सेवक। बस, तभी से यह भारतीय जनता के लिए स्वराज्य प्राप्ति का प्रयत्न कर रही है। यह ठीक है कि प्रारम्भ में इसका लक्ष्य अनिश्चित था, लेकिन हमेशा इसने शासन के ऐसे प्रजातंत्री रूप पर जोर दिया है, जो भारतीय जनता के प्रति जिम्मेवार हो और जिसमें इस विशाल देश में रहने वाली सब जातियों एवं श्रेणियों का प्रतिनिधित्व हो। इसका आरंभ इस आशा और विश्वास को लेकर हुआ था कि ब्रिटिश राजनीतिज्ञता और ब्रिटिश सरकार समयानुसार ऊंचे उठेंगे और ऐसी संस्थाओं की स्थापना करेंगे, जो सचमुच प्रतिनिधिक हों और जिनसे भारतीय जनता को भारत के हित की दृष्टि से भारत का शासन करने का अधिकार मिले। कांग्रेस का प्रारम्भिक इतिहास इस श्रद्धा-युक्त विश्वास के निदर्शक प्रस्तावों और भाषणों से ही भरा है। कांग्रेस की जो मांगे हैं, वे भी ऐसे प्रस्तावों के ही रूप में हैं, जिनमें यह सुझाया गया है कि क्या तो सुधार होने चाहिएं और कौन सी आपत्तिजनक कार्रवाइयां रद होनी चाहिएं; और उन सब का आधार यह आशा ही रही है, कि यदि ब्रिटिश-पार्लमेन्ट को भारत की इस स्थिति का तथा भारतीयों की इच्छा का भलीभांति पता लग जाए तो वे गलतियों को दुरुस्त करके अंत में हिन्दुस्तान को स्वशासन की बेशकीमत बखशीश दे देंगे, लेकिन हिन्दुस्तान और इंग्लैण्ड में ब्रिटिश सरकार ने जो कार्रवाइयां की, उनसे यह आशा और विश्वास धीरे-धीरे पर संपूर्ण रूप में नष्ट हो चुके हैं। ज्यों-ज्यों हमारी राष्ट्रीय जागृति बढ़ती गई, त्यों-त्यों ब्रिटिश सरकार का रुख भी कठोर से कठोर होता गया। ब्रिटिश शासन की सदिच्छाओं पर प्रारंभ में हमारा जो विश्वास था, उसमें लॉर्ड कर्जन के, जिन्होंने बंगाल को विभक्त कर दिया था, शासनकाल में धक्का लगा। इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति के विरुद्ध जो महान्‌ आन्दोलन हुआ वह सर्व-साधारण में उठती हुई राष्ट्रीय- जागृति की लहर का ही द्योतक था, जोकि बीसवीं सदी के आरंभ में रूस पर जापान की विजय जैसी विश्वव्यापी घटनाओं से कुछ कम प्रभावित नहीं थी। फिर भी अंग्रेजों पर से हमारा विश्वास बिलकुल उठ नहीं चुका था; इसलिए महायुद्ध के समय कुछ तो इस विश्वास के ही कारण, जो कि बंग-भंग रद हो जाने से फिर सजीव हो गया था और कुछ सारी परिस्थिति को अच्छी तरह न समझ सकने की वजह से, ब्रिटिश साम्राज्य के संकट के समय उसे सहायता देने की ब्रिटिश सरकार की पुकार पर देश ने उसका साथ दिया। भारत ने इस संकट-काल में जो बहुमूल्य सहायता की, उसकी सब ब्रिटिश- राजनीतिज्ञों ने सराहना की, और भारतीयों के मन में यह आशा पैदा कर दी गई कि जो युद्ध प्रत्यक्षतः राष्ट्रों के स्वभाग्य निर्णय के सिद्धान्त तथा प्रजातंत्री-शासन को सुरक्षित करने के उद्देश्य से लड़ा जा रहा है उसके फलस्वरूप भारत में भी उत्तरदायी शासन की स्थापना हो जाएगी। 1917 में ब्रिटिश-सरकार की ओर से भारत-मंत्री ने जो घोषण की, जिसमें थोड़ा- थोड़ा करके स्वशासन देने का आश्वासन दिया गया था, उस पर हिन्दुस्तानियों में मतभेद उत्पन्न हुआ; और जैसे-जैसे भारत-मंत्री व वाइसराय-द्वारा की गई इस संबंधी जांचों का परिणाम और उस बिल का स्वरूप, जोकि आखिर 1920 में भारतीय-शासन- विधान (गवर्नमेण्ट ऑफ इंडिया एक्ट) बन गया, प्रकट होते गए, वैसे-वैसे वह मतभेद भी उत्तरोत्तर तीव्र होता चला गया। बिल अभी बन ही रहा था कि महायुद्ध समाप्त हो गया, और उसमें ब्रिटिश-सरकार की जीत रही। तब हिन्दुस्तान को यह महसूस होने लगा कि युद्ध के कारण यूरोप में ब्रिटिश सरकार को जो कठिनाई उत्पन्न हो गई थी, युद्ध में उसके जीत जाने से, चूंकि अब वह दूर हो गई है, हिन्दुस्तान के प्रति उसका रुख बदल गया है और पहले से कहीं खराब हो गया है। खिलाफत के मामले में जो कुछ हुआ, जिसे कि मुसलमानों के प्रति विश्वासघात कहा गया, और (देशव्यापी सर्वसम्मत विरोध के होते हुए भी) उन बिलों के स्वीकृत कर लिए जाने से, जोकि रौलट-बिलों के नाम से मशहूर हैं और जिनके द्वारा जन- साधारण को स्वतंत्र नागरिकता के मौलिक अधिकारों से वंचित करनेवाली भारत-रक्षा-विधान की उन कठोर धाराओं को फिर से अमल में लाने की व्यवस्था की गई थी जिन्हें कि महायुद्ध के समय ढीला छोड़ दिया गया था, इस भावना को और भी पुष्टि और दृढ़ता मिली। इन बातों से स्वभावतः देशभर में जोरदार हलचल मच गई और दक्षिण-अफ्रीका में तथा छोटे पैमाने पर भारत के खेड़ा व चंपारन जिलों में जिस सत्याग्रह का प्रयोग किया जा चुका था, उसे पहली बार महात्मा गांधी ने इन तथा अन्य शिकायतों से देश के मुक्ति पाने के उपाय के तौर पर प्रस्तुत किया। दुर्भाग्य-वश इस सिलसिले में पंजाब और अहमदाबाद में जनता की ओर से कुछ उत्पाद हो गए, जिससे लोगों के जान-माल का नुकसान हुआ और जलियांवाला- बाग-हत्याकाण्ड व पंजाब में फौजी शासन के भीषण दृश्य सामने आए। स्वभावतः देशभर में इससे हलचल मच गई और रोष छा गया। इन दुर्घटनाओं की जांच के लिए हण्टर- कमिटी नियुक्त हुई, लेकिन उसकी रिपोर्ट भी उस हलचल और रोष को शांत न कर सकी; उलटे पार्लमेण्ट में उस रिपोर्ट पर जो बहस हुई, उससे वह और भी प्रबल हो गया। तब असहयोग- आन्दोलन शुरू हुआ। इसमें एक ओर तो सरकारी उपाधियों के त्याग और सरकारी कौंसिलों, सरकार-द्वारा स्वीकृत शिक्षणालयों, अदालतों तथा विदेशी कपड़े के बहिष्कार का कार्यक्रम रखा गया, और दूसरी ओर जगह-जगह कांग्रेस-कमिटियों की स्थापना, कांग्रेस-सदस्यों की भर्ती, तिलक- स्वराज्य-कोष के लिए रुपया इकट्ठा करना, राष्ट्रीय शिक्षणालयों की स्थापना, ग्रामवासियों के झगड़े निपटाने के लिए पंचायतों की स्थापना तथा हाथ की कताई- बुलाई को पुनर्जीवित करते हुए क्रमशः सविनय- अवज्ञा और लगान-बंदी तक पहुंच जाने का कार्यक्रम रखा गया। कांग्रेस-विधान में परिवर्तन करके कांग्रेस का लक्ष्य �शान्तिपूर्ण और उचित उपायों से स्वराज्य-प्राप्ति� रखा गया। इससे देशभर में जागृति की लहर छा गई और सरकार ने भी अपना दमन-चक्र जारी कर दिया। देखते-देखते 1921 के अंत तक हजारों स्त्री-पुरुष, जिनमें देश के कुछ अत्यंत प्रतिष्ठित नेता भी थे, जेलखानों में जा पहुंचे। सरकार के साथ समझौते की बातचीत भी चली, पर वह सफल न हुई। मगर इसी दर्मियान युक्त-प्रान्त के चौरीचौरा स्थान में भयंकर उत्पात हो जाने के कारण, बारडोली में करबंदी के आन्दोलन का जो कार्यक्रम तय हुआ था, उसे स्थगित कर देना पड़ा। इसके बाद एक-एक करके असहयोग- कार्यक्रम की दूसरी बातें भी उत्पात कर दी गईं और कांग्रेसवादी कौंसिलों में प्रविष्ट हुए।

1920 के शासन-विधान के अमल की जांच के लिए ब्रिटिश-पार्लमेण्ट ने जो कमीशन नियुक्त किया, जोकि साइमन- कमीशन के नाम से मशहूर है, उसमें हिन्दुस्तानियों के न रखे जाने से देश में फिर हलचल मची। तब, अन्य सार्वजनिक संस्थाओं के साथ मिलकर, कांग्रेस ने सरकार की स्वीकृति के लिए, भारत के लिए ऐसा शासन-विधान बनाया, जिसमें भारत का लक्ष्य ब्रिटिश- साम्राज्य के अन्य उपनिवेशों के समान स्थिति (डोमिनियन स्टेटस) की प्राप्ति रखा गया, लेकिन सरकार ने इसका कोई पर्याप्त जवाब नहीं दिया। तब दिसम्बर, 1929 में, लाहौर के अपने अधिवेशन में, कांग्रेस ने अपना लक्ष्य बदलकर शान्तिपूर्ण और उचित उपायों से पूर्ण स्वराज्य (पूर्ण स्वाधीनता) की प्राप्ति कर दिया और 1930 के आरां में अनैतिक कानूनों की सविनय- अवज्ञा तथा कर-बंदी का आन्दोलन संगठित किया। इंग्लैण्ड की सरकार ने एक ओर तो लंदन में एक परिषद् का आयोजन किया, जिसमें भारत के लिए शासन-विधान बनाने के संबंध में परामर्श देने के लिए कुछ हिन्दुस्तानियों को नामजद किया गया, और दूसरी ओर भारत में सविनय-अवज्ञा- आंदोलन को कुचलने के लिए अनेक अत्यंत भीषण आर्डिनेन्सों-सहित दमनकारी उपाय अख्तियार किए गए। मार्च, 1931 में सरकार की ओर से वाइसराय लॉर्ड अर्विन और कांग्रेस की ओर से महात्मा गांधी के बीच एक समझौता हुआ, जिसके फल- स्वरूप सविनय- अवज्ञा स्थगित कर दी गई और 1931 के आखिरी दिनों में महात्मा गांधी लंदन में होने वाली गोलमेज-परिषद में शामिल हुए। लेकिन, जैसा कि खयाल था, इस परिशद से कोई नतीजा हासिल न हुआ और 1932 की शुरुआत में ही कांग्रेस को फिर से आंदोलन शुरू कर देना पड़ा, जो 1934 तक चलता रहा। 1934 में वह फिर स्थगित कर दिया गया। 1930 और 1932 इन दोनों बार के आंदोलनों में हजारों स्त्री- पुरुष और बच्चे तक जेलों में गए, लाठी- प्रहार तथा अन्य प्रकार के कष्टों को उन्होंने सहा, और अपनी संपत्ति का नुकसान भी बर्दाश्त किया। बहुत से, सरकारी सेना- द्वारा भीड़ पर चलाई गई गोलियों के कारण मारे भी गए। सत्याग्रहियों ने इस अवसर पर अपने संगठन और कष्ट-सहन की अद्भुत शक्ति का परिचय दिया और भारी से भारी उत्तेजनाओं के बीच भी कुल मिलाकर, पूरी तरह अहिंसक ही रहे। कांग्रेस संगठन ने सरकार के भारी आक्रमण के बावजूद कायम रहकर सिद्ध कर दिया कि वह निर्जीव नहीं है और अपने को समयानुकूल बनाने की उसमें पर्याप्त क्षमता है। यह ठीक है कि देश का जो लक्ष्य है वह पूर्ण स्वराज्य अभी (1935 में) हमें प्रापत नहीं हुआ, परंतु इसमें संदेह नहीं कि देश इस अग्नि परीक्षा में प्रशंसनीय रूप से पार उतरा है।

कराची के अधिवेशन में कांग्रेस ने एक प्रस्ताव द्वारा सब भारतवासियों व उनके कुछ मौलिक का आश्वासन दिया है और देश के सामने एक आर्थिक एवं सामाजिक कार्यक्रम प्रस्तुत किया है। उसमें यह स्पष्ट कर दिया गया है कि जन- साधारण के शोषण का अंत करने के लिए यह आवश्यक है कि राजनीतिक स्वतंत्रता में भूखों मरने वाले करोड़ों लोगों की वास्तविक आर्थिक स्वतंत्रता का भी समावेश हो, और भाषण, सम्मिलन, जान-माल, धर्म तथा अंतरात्मा के आदेश आदि संबंधी स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों की घोषणा कर दी गई है। यह भी निर्दिष्ट कर दिया गया है कि कल- कारखानों में काम करने वालों के लिए काम की स्वास्थ्यप्रद परिस्थिति, काम के मर्यादित घण्टे, आपसी झगड़ों के फैसले के लिए उपयुक्त संगठन और बुढ़ापे, बीमारी व बेकारी के आर्थिक संकटों से संरक्षण तथा मजदूर संघ बनाने के उनके अधिकार को कायम रखने के रूप में उनके हितों का ख्याल रखा जाएगा। किसानों को इसने आश्वासन दिया है कि यह लगान-मालगुजारी में उपयुक्त कमी कराकर और अनुत्पादक जमीनों की लगान-मालगुजारी माफ कराकर तथा छोटी- छोटी जमीनों के मालिकों को उस कमी के कारण जो नुकसान होगा, उसके हिसाब से उचित और न्याय छूट की सहायता देकर यह उनके खेती-संबंधी भार को हल्का करेगी। खेती-बाड़ी से होने वाली आमदनी पर, उसके एक उचित न्यूनतम परिमाण से ऊपर, इसने क्रमागत कर लगाने की भी व्यवस्था की है। साथ ही एक निश्चित रकम से अधिक आमदनी वाली संपत्ति पर उत्तरोत्तर बढ़ता जानेवाला विरासत का कर लगाने, फौजी व मल्की शासन के खर्चे में भारी कमी करने और सरकारी कर्मचारियों की तनख्वाह 500 रुपये महीने से ज्यादा न रखने के लिए कहा है। इसके अलावा एक आर्थिक और सामाजिक कार्यक्रम भी प्रस्तुत किया गया है, जिसमें विदेशी कपड़े का बहिष्कार, देशी उद्योग-धंधों का संरक्षण, शराब तथा अन्य नशीली चीजों का निषेध; बड़े-बड़े उद्योगों पर सरकारी नियंत्रण, काश्तकारों का कर्जदारी से उद्धार, मुद्रा और विनिमय की नीति का देश के हित की दृष्टि से संचालन और राष्ट्र-रक्षा के लिए नागरिकों को सैनिक शिक्षण देने का निर्देश है।

कांग्रेस के अंतिम अधिवेशन में, जोकि अक्तूबर 1934 में बम्बई में हुआ था, कौंसिल-प्रवेश की नीति को स्वीकार कर लिया गया है और देश के सामने रचनात्मक कार्यक्रम रखा गया है जिसमें हाथ की कताई-बुनाई को प्रोत्साहन एवं पुनर्जीवन देने, उपयोगी ग्रामीण तथा अन्य छोटी दस्तकारियों (गृह- उद्योगों) की उन्नति करने, आर्थिक, शिक्षणात्मक सामाजिक एवं स्वास्थ्य-विज्ञान की दृष्टि से ग्रामीण-जीवन का पुनर्निमाण करने, अस्पृश्यता का नाश करने, अन्तर्जातीय एकता की वृद्धि करने, संपूर्ण मद्य-निषेध, राष्ट्रीय शिक्षा, वयस्क स्त्री- पुरुषों में उपयोगी ज्ञान का प्रसार करने, कल- कारखानों में काम करने वाले मजदूरों व खेती करने वाले किसानों का संगठन और कांग्रेस संगठन को मजबूत बनाने की बातें भी हैं। कांग्रेस विधान का संशोधन करके, नये विधान में, प्रतिनिधियों की संख्या घटाकर कांग्रेस-रजिस्टर में दर्ज जितने सदस्य हों उनके अनुपातानुसार कर दी गई है; साथ ही इस बात पर भी जोर दिया गया है कि कांग्रेस- कमेटियों के सब निर्वाचित-सदस्य शारीरिक श्रम करने और आदतन खादी पहनने वाले हों।

इस प्रकार कांग्रेस कदम-ब-कदम आगे बढ़ती गई है और राष्ट्रीय हलचल के हरेक क्षेत्र में उसने अपना प्रवेश कर लिया है। इस समय वह रचनातमक कार्य में लगी हुई है जिससे न केवल जन-साधारण की माली हालत ही ठी होगी, बल्कि उसको पूरा करने से उनमें वह आत्मविश्वास भी जागृत होगा जिससे वे पूर्ण-स्वराज्य प्राप्त कर सकेंगे। एक छोटी संस्था के रूप में आरंभ होकर अब यह इतनी प्रशस्त हो गई है कि सारे देश में इसकी शाखाएं हैं और देश के सर्व-साधारण का विश्वास इसको प्राप्त है। इसके आदेश पर देश के सब श्रेणियों के लोगों ने स्वराज्य- प्राप्ति के लिए बहुत बड़े पैमाने पर बलिदान किया है; और इसके कार्यों व इसकी सफलताओं का राष्ट्र की एक महान थाती हे, जिसकी रक्षा और वृद्धि करना हरेक हिन्दुस्तानी का कर्तव्य होना चाहिए। स्वतंत्रता की उस लड़ाई में, जो अभी भी हमें लड़ना बाकी है, निश्चय ही यह अधिक-से-अधिक भाग लेती रहेगी। यह समय सुस्ताने या विश्राम करने का नहीं है। अभी तो बहुत- सा काम करने को बाकी पड़ा है, जिसके लिए बहुत सब्र के साथ तैयारी करने, लगातार बलिदान करने और अटूट दृढ़-निश्चय की आवश्यकता है। पूर्ण- स्वराज्य से कुछ कम पर हम हर्गिज संतोष न करेंगे।

साथ ही, कृतज्ञता और सम्मान के साथ, हमें उन लोगों की सेवाओं का भी स्मरण करना चाहिए, जिन्होंने, कि इस शक्तिशाली संस्था का बीजारोपण किया और अपने निस्स्वार्थ परिश्रम एवं अपनी कुरबानियों से इसका पोषण किया। पचास साल पहले जो छोटा-सा बीज बोया गया था वह अब बढ़कर एक मजबूत वटवृक्ष बन गया है, जिसकी शाखा- प्रशाखाएं इस विशाल देश भर में फैल गई हैं और अब अगणित नर-नारियों की कुरबानियों के रूप में उसमें कलियां फूटी हैं। अब जो लोग बाकी बचे हैं, उनका फर्ज है कि वे अपनी सेवा और कुर्बानियों से इसका पोषण करें, ताकि प्रकृति ने जिस उद्देश्य से इसको बनाया है वह पूर्ण हो, इसमें फल लगें और उनसे भारतवर्ष स्वतंत्र एवं समृद्ध देश बन जाए।

12 दिसम्बर, 1935

युद्धकाल और पंजाब पर अत्याचार

जुलाई 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ गया इन दिनों कांग्रेस के पुराने नेता जनसमर्थन खोते जा रहे थे। 1915 में गोखले का निधन हो गया और इसी वर्ष सर फिरोजशाह मेहता का भी देहांत हो गया वाचा क्षीण पड़ चुके थे। सुरेन्द्र नाथ बैनर्जी का वर्चस्व भी घट गया था लाला लाजपत राय अमरीका में निर्वासित थे।

विश्व विख्यात श्रीमती बेसंट जो एक सामाजिक विद्रोही, गरीबों की मित्र तथा भारत के प्रति अपने अगाध स्नेह के कारण अपनी एक अलग छवि स्थापित कर चुकी थीं, अब भारतीय राजनीति के मंच पर एक नवशक्ति के रूप में उदय हो रही थीं, लोकमान्य तिलक लंबा कारावास भुगतने के पश्चात मांडले से लौट आए थे।

गांधीजी दक्षिण अफ्रीका से अभी लौटे ही थे। वे अभी इतने लोकप्रिय नहीं हुए थे। अपने ��राजनीतिक गुरु�� गोखले के मार्गनिर्देश में वे तत्कालीन परिस्थितियों का अध्ययन करने के लिए देश का भ्रमण कर रहे थे। 1915 में बंबई अधिवेशन में गांधीजी को विषय समिति (सबजैक्ट्स कमेटी) में चुना नहीं जा सका।

लोकमान्य - लोकप्रिय नेता के रूप में

लोकमान्य तिलक कांग्रेस के गरम पंथियों तथा नरमपंथियों के बीच एकता लाने के प्रयासों में जुटे हुए थे ताकि स्वराज का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए समूची कांग्रेस की शक्ति लगाई जा सके। इस दिशा में सफलता प्राप्त न होने पर 1915 में लोकमान्य ने पूना में होमरूल लीग की स्थापना की। वे सच्चे अर्थों में जनता के प्रिय नेता थे लेकिन अंग्रेज सरकार उन्हें अपना घोर शत्रु मानती थी और आए दिन उनके विरुद्ध अभियोग चलाती रहती। वे साठ वर्ष के हो चुके थे। लंबे कारावासों की कठोरताओं से उनका शरीर दुर्बल हो गया था। वे दूर-दूर तक यात्राएं तथा सभाएं करने के योग्य नहीं रहे थे। अगर वे ऐसा कर पाते तो वे महाराष्ट्र के ही नहीं बल्कि पूरे भारत के बेताज बादशाह बन गए होते। श्रीमती बेसंट के साथ ऐसी कोई समस्या नहीं थी। उन्होंने भी एक अन्य ��होम रूल फॉर इंडिया लीग�� की स्थापना की जिसका मुख्यालय मद्रास में था।

1916 में कांग्रेस लीग केंद्र लगातार सफलता प्राप्त कर रहे थे। 1916 में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक नरमपंथी नेता पंडित मोतीलाल नेहरू के निवास पर हुई। उन दिनों पंडित मोतीलाल प्रसिद्धि के शिखर पर नहीं पहुंचे थे।

1916 में लोकमान्य तिलक, सूरत के बाद पहली बार, लखनऊ अधिवेशन में शामिल हुए। उन के साथ भारी संख्या में उनके दल के कार्यकर्ता भी प्रतिनिधि बन कर आए। लखनऊ अधिवेशन की विशेषता यह रही कि इस अधिवेशन में लीग तथा कांग्रेस और नरमपंथियों तथा गरमपंथियों के बीच एकता हो गई। इसी अधिवेशन में स्वराज की योजना की रूपरेखा तैयार की गई। अधिवेशन में सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी तथा रासबिहारी घोष जैसे नरमपंथी तथा महमूदाबाद के राजा, मज+हर-उल-हक और युवा जिन्ना जैसे मुस्लिम नेता शामिल हुए। श्रीमती बेसंट अपनी दो निकट सहयोगियों अरुण्डेल तथा बाडिया के साथ आईं जिन्होंने होमरूल के झंडे उठा रखे थे। गांधीजी और पोलक भी इस अधिवेशन में उपस्थित थे।

चंपारन से कुछ लोग गांधीजी को वहां आमंत्रित करने के लिए आए। अधिवेशन में चंपारन के खेतीहरों के बारे में एक प्रस्ताव पास किया गया।

कांग्रेस लीग योजना स्वीकार कर ली गई तथा भारत में स्वशासन के लिए उसे एक स्वतंत्र उपनिवेश का दर्जा देने की घोषण करने तथा वचन देने के लिए कहा गया।

होमरूल आंदोलन और श्रीमती एनीबेसेन्ट

इस अधिवेशन की एक उल्लेखनीय बात यह भी थी कि भारतीय रक्षा अधिनियम तथा 1818 के बंगाल रेग्यूलेशन ऐक्ट 3 के विरुद्ध भी एक प्रस्ताव पारित किया गया। यह प्रस्ताव पारित किया गया। यह प्रस्ताव देश के बारह हो रही घटनाओं की प्रतिध्वनि था। 1917 में श्रीमती बेसंट ने पूरे देश में होमरूल आंदोलन पूरे जोर से शुरू किया। श्रीमती बेसेंट तथा उन के आंदोलन को और भी लोकप्रिय बना दिया। इस नजरबंदी ने श्रीमती बेसंट तथा उन के आंदोलन को और भी लोकप्रिय बना दिया। नजरबंद किए लोगों की रिहाई के लिए सत्याग्रह छेड़ने की योजना तैयार की गई। वास्तव में यह जन जागृति विश्वयुद्ध के कारण महान्‌ विश्व शक्तियों के उदय का परिणाम थी।

इस विश्व युद्ध में, भारी संख्या में भारतीय सैनिकों के तौर पर विदेशों में गए और उन्होंने फ्रांस, फ्रलैंडर्स तथा युद्ध के अन्य अनेक मोर्चों पर अपने शौर्य की पताकाएं फहराईं। पश्चिमी ताकतों तथा अंग्रेजों की श्रेष्ठता का भ्रम टूट गया था। भारत में मुट्ठी भर क्रांतिकारी विदेशी शासन के विरुद्ध अकेले लेकिन पूरे साहस के साथ संघर्ष कर रहे थे। आयरिश लोगों का आंदोलन उत्साह तथा प्रेरणा का एक अन्य स्रोत था।

सरकारी द्वारा सख्ती

युद्ध के हालात, मंहगाई, युद्ध के लिए नए सिपाहियों की भर्ती तथा अन्य सामग्री जुटाने के लिए जनता पर सरकार द्वारा बलप्रयोग (जैसे कि जनरल ओडायर ने पंजाब में किया) इत्यादि से लोगों के मन में सरकार के प्रति आक्रोश उठ रहा था। मुसलमानों में भी, जो अब तक अलग-थलग थे, असंतोष व्याप्त था। क्योंकि तुर्की मित्र राष्ट्रों की तरफ नहीं था।

यह वह दौर था जब इकबाल, शिबली और आजाद जैसी हस्तियों ने मुसलमानों की बेचैनी को अभिव्यक्ति दी। मौलाना आजाद का ��अल- हिलाल��, जफर अली का ��जमींदार��, मुहम्मद अली का ��कामरेड�� तथा ��हमदर्द�� मज+हब और सियासत पर एक नया नजरिया पेश कर रहे थे। इस प्रवृत्ति ने 1916 में मुस्लिम लीग को कांग्रेस की विचारधारा के साथ ला खड़ा किया।

सरकार इन नई खतरनाक ताकतों से बेखबर नहीं थी। विशेष अधिनियम पारित किए गए और उग्र नेताओं को या तो जेल भेज दिया गया था उन्हें नजरबंद कर दिया गया। अली बंधुओं तथा आजाद को नजरबंद किया गया तथा जिन व्यक्तियों पर क्रांतिकारियों से जुड़े होने का संदेह था उन पर मुकदमें चलाए गए। नरमपंथी नेताओं को अपनी ओर करने की कोशिश की गई। सरकार ने जल्दी में एक घोषणा जारी की जिस में गृहमंत्री मौंटेग्यू ने कहा कि भारत में ब्रिटिश शासन का उद्देश्य स्वायत्तशासी संस्थाओं का धीरे- धीरे विकास करना है ताकि धीरे-धीरे एक उत्तरदायी भारत सरकार का गठन किया जा सके जो ब्रिटिश साम्राज्य का ही एक अभिन्न अंग हो। ��मौंटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधारों�� के प्रति ��नरमपंथियों का समर्थन जुटाने�� के इरादे से मौंटेग्यू भारत यात्रा पर आए।

श्रीमती बेसेंट और उनके सहयोगियों को रिहा कर दिया गया। लीग तथा कांग्रेस की कार्यकारिणी की 6 अक्तूबर को इलाहाबाद में बैठक हुई और सत्याग्रह छेड़ दिया गया। सी.वाई.चिंतामणि सहित 12 सदस्यों की समिति गठित की गई। समिति से कहा गया कि वह गृहमंत्री तथा वायसराय से मिले और कांग्रेस लीग योजना पर उन का समर्थन प्राप्त करे।

1917 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में श्रीमती बेसेंट (हल्के से विरोध के बाद) अध्यक्ष चुनी गईं। कलकत्ता अधिवेशन में कांग्रेस लीग योजना का समर्थन किया गया और उत्तरदायी सरकार की मांग की गई। ��इस पूर्ण ध्येय को एक समय सीमा के भीतर प्राप्त किया जाएगा तथा यह समय-सीमा किसी निकटतम तिथि पर विधि- अनुसार निश्चित की जाएगी। इसी अधिवेशन में तिरंगा ध्वज अपनाया गया। अभी तक यह होम रूल लीग का ध्वज था। कलकत्ता अधिवेशन में एक अन्य प्रस्ताव पारित कर के रौलेट समिति नियुक्त किए जाने तथा भारतीय रक्षा अधिनियम और 1818 का रेग्यूलेशन 3 का अधिकाधिक प्रयोग करने की निंदा की गई। श्रीमती बेसेंट ऐसी पहली कांग्रेस अध्यक्ष थीं जिन्होंने इस नियम का पालन किया कि वार्षिक अधिवेशन का अध्यक्ष पूरे वर्ष तक कांग्रेस का अध्यक्ष रहेगा। उन्होंने भारत तथा इंग्लैंड में प्रचार कार्य तथा लोगों को शिक्षित करने की अपनी गतिविधियां जोरों से जारी रखीं। इसी दौरान भारतीय रक्षा अधिनियम का हर स्थान पर कड़ाई से प्रयोग किया गया।

1917 में गांधीजी चंपारन में व्यस्त थे। उन्होंने राजेन्द्र प्रसाद जैसे अपने अन्य सहयोगियों को बताया कि स्वराज के लिए वास्तविक संघर्ष तो चंपारन में किया जा रहा है। बाद में वे वायसराय की युद्ध परिषद में शामिल हो गए। लोकमान्य तिलक को भी नए सिपाहियों की भर्ती के काम पर लगाया गया हालांकि सरकार उन पर विश्वास नहीं करती थी। अगस्त 1918 में लोकमान्य तिलक ने गांधीजी को 50,000 रुपये का चैक भेजा और कहा कि अगर वे युद्ध के लिए 5000 मराठों को भर्ती न कर सके तो यह रकम जब्त कर ली जाए लेकिन शर्त यह होगी कि गांधीजी सरकार से यह वचन लें कि भारतीयों को भी सेना में कमीशन दिया जाएगा यानी उन्हें कमीशन्ड अफसर के रूप में भर्ती किया जाएगा।

मौंटेग्यू चेम्सफोर्ड रिपोर्ट जून 1918 में प्रकाशित की गई। रिपोर्ट के बारे में कांग्रेस जनों में तीव्र मतभेद हो गए। अगस्त 1918 में बंबई में एक विशेष अधिवेशन बुलाया गया। अधिवेशन में इन सुधारों को असंतोषजनक बताया गया और कांग्रेस लीग योजना लागू करने की मांग फिर दोहराई गई। लेकिन विभिन्न मतभेदों को सुलझा लिया गया, अतः अधिकतर कांग्रेसजनों में एकता बनी रही। फिर भी अधिकांश नरमपंथी नेताओं ने बंबई अधिवेशन में भाग नहीं लिया। बाद में उन्होंने ��द लिबरल�� पार्टी नाम से अपना एक नया दल बना लिया।

मुस्लिम लीग ने भी अपना अधिवेशन बंबई में किया और उसने भी इस अधिवेशन में कांग्रेस के निर्णयों के अनुरूप ही फैसले किए।

युद्ध का अंतिम वर्ष बहुत महत्वपूर्ण था। सरकार की दमनकारी नीतियां दिनों दिन अधिक उग्र होती जा रही थीं। समाचार पत्र अधिनियम कड़ाई से लागू किया गया। लोकमान्य तिलक तथा श्रीमती बेसेंट की गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिए गए। बंगाल में नजरबंद किए गए युवकों की संख्या तीन हजार तक पहुंच गई। लोगों पर भारी अत्याचार किए जा रहे थे और हर तरफ आक्रोश उमड़ रहा था, विशेष रूप से पंजाब में युद्ध के लिए सरकार द्वारा जबरन भर्ती और चंदा वसूले जाने के कारण चारों ओर बेचैनी व्याप्त थी। रौलेट समिति अपनी रिपोर्ट तथा सिफारिशें जारी कर चुकी थी। बंबई के बाद कांग्रेस अधिवेशन दिल्ली में हुआ। लोकमान्य तिलक को अध्यक्ष चुना गया लेकिन चूंकि वे सर वेलेंटाउन चिरॉल के साथ अपने मुकदमे के कारण लंदन में उलझे हुए थे। अतः उहोंने विवशता प्रकट कर दी। उन के स्थान पर पंडित मदनमोहन मालवीय को अध्यक्ष बनाया गया।

दिल्ली अधिवेशन शुरू होने तक युद्ध समाप्त हो चुका था। मित्र राष्ट्रों की विजय हुई। राष्ट्रपति विल्सन, लॉयड जार्ज तथा अन्य राजनीतिक नेताओं ने आत्मनिर्णय के सिद्धांत की घोषणा की। इन नई परिस्थितियों के अनुसार दिल्ली अधिवेशन में कांग्रेस ने मौंटेग्यू चेम्सफोर्ड योजना के संदर्भ में अपनी स्थिति पर पुनरवलोकन किया - ��स्वतंत्र उपनिवेश�� की मांग फिर उठाई गई तथा शांति सम्मेलन में प्रतिनिधित्व की मांग की। इसके लिए लोकमान्य तिलक, गांधी जी और हसन इमाम को प्रतिनिधि मनोनीत किया गया। कांग्रेस ने सभी दमनकारी कानूनों को वापस लेने का भी आग्रह किया।

लेकिन दिल्ली अधिवेशन की मांगों की न केवल अवहेलना ही की गई बल्कि अंग्रेज सरकार, युद्ध जीतने के बाद, भारत में आंदोलनों तथा विद्रोह को अपने तरीकों से दबाने के लिए अब स्वतंत्र हो गई थी और 1919 ने यह दिखा भी दिया। फरवरी 1919 में सर्वोच्च विधान परिषद में रौलेट विधेयक प्रस्तुत किया गया।

रौलेट एक्ट पर प्रतिक्रियाएं

उन्होंने घोषणा की कि अगर रौलेट सिफारिशें पारित की गईं तो वे सत्याग्रह आरंभ कर देंगे। तुरंत वे पूरे देश के भ्रमण पर निकल पड़े। हर स्थान पर उनका पूरे उत्साह से स्वागत किया गया। 18 मार्च को उन्होंने यह संकल्प प्रकाशित किया।

��हमारे विचार में 1919 का भारतीय फौजदारी कानून संशोधन विधेयक संख्या एक तथा 1919 का फौजदारी कानून आपात शक्तियां विधेयक संख्या दो, अन्यायपूर्ण हैं। ये विधेयक स्वतंत्रता तथा न्याय के सिद्धांतों के लिए घातक हैं तथा नागरिकों के उन प्राथमिक अधिकारों का हनन करते हैं जिन पर समूचे भारत तथा स्वयं राज्य की सुरक्षा टिकी हुई है। हम पूरी निष्ठा से प्रतिज्ञा करते हैं अगर इन विधेयकों को कानून का रूप दिया गया तो हम इन कानूनों की तब तक सविनय अवज्ञा करेंगे, जब तक इन्हें वापिस न ले लिया जाए। इसके बाद बनाई गई किसी समिति ने अगर ऐसे ही अन्य कानून बनाए जाने की सिफारिश की तो हम उनकी भी इसी प्रकार अवज्ञा करेंगे। हम यह भी प्रतिज्ञा करते हैं कि हम अपने संघर्ष में सत्य का निष्ठापूर्वक पालन करेंगे और हिंसा का प्रयोग बिल्कुल नहीं करेंगे जिससे कि किसी व्यक्ति अथवा किसी के जीवन तथा संपत्ति को हानि हो��। हड़ताल के लिए 30 मार्च 1919 का दिन निश्चित किया गया लेकिन बाद में इसे 6 अप्रैल कर दिया गया।

6 अप्रैल 1919 भारत के इतिहास में महत्वपूर्ण दिन था। लोगों ने महात्मा गांधी के इस आह्‌वान पर जिस तरह से उत्साह दिखाया उससे न केवल सरकार बल्कि नेताओं को भी अचंभा हुआ। युद्ध में विजय के उन्दाम ने अंग्रेज सरकार का दिमाग खराब कर दिया था। इसी उन्माद में वह लोगों पर टूट पड़ी। कई स्थानों पर गोली चली। दिल्ली में जब अंग्रेज सैनिकों ने स्वामी श्रद्धानंद को गोली मारने की धमकी दी तो स्वामी जी सीना खोल कर बंदूकों के सामने तन कर खड़े हो गए। हिंदू मुस्लिम भाईचारे के कई मार्मिक दृश्य देखने में आए। स्वामी श्रद्धानंद को जामा मस्जिद के मंच से उपदेश देने की अनुमति दी गई। पूरे देश में इस नव-विचार का अनुकरण किया गया। लोग जैसे इसी प्रकार के किसी उदाहरण की प्रतीक्षा में थे। राष्ट्रीय संघर्ष का एक नया अध्याय आरंभ हो चुका था। जल्दी ही पंजाब की घटनाओं ने राष्ट्रीय चेतना की एक नई, तीव्र धारा को जन्म दिया।

पंजाब में दमन-चक्र

पंजाब की कहानी हर व्यक्ति को मालूम है। उसकी स्मृतियां जगज+ाहिर हैं और उन के विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं।

1919 में पंजाब में कट्टर साम्राज्यवादी सर माइकल ओ�डायर का शासन था। उस की हमेशा यही कोशिश रहती थी कि देश के विभिन्न भागों के क्रांतिकारियों की गतिविधियों का कोई प्रभाव पंजाब पर न पड़ने पाए।

1919 में कांग्रेस का अधिवेशन अमृतसर में होना था। सर माइकल ओ�डायर ने कांग्रेस के दो स्थानीय नेताओं डा. सैफुद्दीन किचलू और डा. सत्यपाल को अपने यहां बुलाया लेकिन उन्हें हिरासत में लेकर किसी अज्ञात स्थल पर भेज दिया गया। 10 अप्रैल 1919 की घटना है। लोगों का एक सैलाब सड़कों पर उमड़ पड़ा। वे जिला मैजिस्ट्रेट से मिल कर यह जानना चाहते थे कि उनके प्रिय नेता कहां हैं। लेकिन वहां गोली चली, पत्थरबाजी हुई और कई लोग हताहत हो गए। लोग उत्तेजित हो गए और भीड़ ने पांच अंग्रेजों को मार डाला। एक बैंक तथा कुछ अन्य इमारतों को आग लगा दी।

गुजरांवाला तथा कसूर में भी ऐसी ही घटनाएं हुईं। कुछ अन्य स्थानों पर भी छुटपुट विरोध हुआ। उसी दिन पूरे पंजाब में मार्शल लॉ लगा दिया।

मार्शल लॉ के दिनों पंजाब में कैसी-कैसी वारदातें हुईं, लोगों को कैसी-कैसी यातनाएं दी गईं और जलियांवाला बाग में कैसे निर्दोष निरीह लोगों को गोलियों से भून दिया गया। इनका संक्षिप्त वर्णन दिया जा रहा है।

जलियांवाला बाग की चारदीवारी में निहत्थी भीड़ पर तब तक गोलियों की वर्षा की गई जब तक कि सारा गोली बारूद समाप्त नहीं हो गया। सरकार ने स्वयं यह स्वीकार किया कि 379 व्यक्ति मरे और 1200 घायल हुए जिन के लिए चिकित्सा उपचार की भी कोई व्यवस्था नहीं की गई।

अति उदारवादी न्यायविद सर पी.एस. शिवास्वामी अय्यर ने जलियांवाला बाग में किए गए अत्याचार का वर्णन इस प्रकार किया हैः

��जलियांवाला बाग में एकत्र निहत्थे लोगों को तितर-बितर होने का कोई अवसर दिए बिना उन का नृशंस नरसंहार, गोली कांड में घायल सैंकड़ों लोगों की पीड़ा व चोटों के प्रति जनरल डायर की लापरवाही, छंट रही भीड़ और भागते हुए लोगों पर मशीनगनों से गोलीवर्षा, लोगों को सार्वजनिक तौर पर कोड़ों की सजा, हजारों छात्रों को हाजिरी देने के लिए आदेश जिन के कारण उन्हें प्रतिदिन लगभग 16 मीन चलना पड़ता, 500 छात्रों और प्राध्यापकों की गिरफ्तारी और उन्हें हिरासत में रखना, झंडे झंडे को सलामी देने के लिए पांच से साम वर्ष तक के स्कूली बच्चों को परेड के लिए मजबूर किया जाना, जिन लोगों की दीवारों पर मार्शल लॉ के इश्तिहार चितकाए गए उन की सुरक्षा की जिम्मेदारी उन्हीं पर थोपना, बारात को कोड़े लगाना, चिट्ठियों पर सेंसर, बादशाही मस्जिद को छः सप्ताह के लिए बंद करना, लोगों को बिना किसी ठोस कारण के गिरफ्तार करना और हिरासत में लेना, खासतौर पर उन तक को भी जिन्होंने युद्ध के दिनों में आर्थिक तथा अन्य प्रकार से सरकार की सहायता की थी, इस्लामिया स्कूल के छः बड़े बच्चों को मात्र इसलिए कोड़ों की सजा देना क्योंकि वे स्कूली बच्चे थे और बड़े थे, गिरफ्तार लोगों को बंद करने के लिए खुला पिंजरा बनाया जाना, रेंगने या मेंढक की तरह कूदने जैसी नई नई सजाएं देना जिन का किसी सैनिक अािवा असैनिक कानून व्यवस्था में कहीं कोई वर्णन नहीं मिलता, लोगों को हथकड़ी डाल कर या रस्सी से बांध कर पंद्रह घंटों तक खुले ट्रकों में रखना, निहत्थे नागरिकों के विरुद्ध विमानों, लेविसगनों और वैज्ञानिक हथियारों का प्रयोग, लोगों को बंधक बनाना तथा गैर हाजिर लोगों की उपस्थिति के लिए उन के परिवार अथवा रिश्तेदारों की संपत्ति जब्त कर लेना या नष्ट कर देना, मुसलमान और हिंदु को जोड़े बना कर हथकड़ी डालना ताकि लोगों को दिखाया जाए कि हिंदु मुस्लिम एकता का अंजाम यह होगा, भारतीयों के घरों से पानी-बिजली काट देना, भारतीयों के घरों से पंखे उतार कर और भारतीयों के सारे वाहन घेर कर उन्हें यूरोपीय लोगों को इस्तेमान के लिए दे देना, लोगों के मुकदमों को इस नीयत से जल्दी-जल्दी निपटाना ताकि उन्हें मार्शल लॉ हटाए जाने से पहले ही मार्शल लॉ नियम के अंतर्गत सजा दी जा सके- ये सब मार्शल लॉ के दिनों के प्रशासन की कुल कारगुजारी की केवल कुछ झलकियां हैं। इसी दमन-चक्र ने पंजाब में आतंक का साम्राज्य स्थापित कर दिया था और लोगों को हिला कर रख दिया था।��

कांग्रेस ने एक समिति द्वारा जांच कराई इस समिति में गांधी जी, मोतीलाल नेहरू, सी.आर. दास, अब्बास तैय्यबजी और जयकर शामिल थे। तथ्यों के सामने आते ही एक व्यापक आंदोलन छिड़ गया। इस आंदोलन को देखते हुए सरकार ने लार्ड हंटर की अध्यक्षता में एक समिति गठित की। समिति को अपनी जांच के दौरान अनेक घिनौने तथ्यों का पता चला लेकिन उस ने आततायियों को पाक-साफ प्रस्तुत करने तथा हल्के-से खेद के साथ उन्हें उचित ठहराने की कोशिश की। हाऊस ऑफ कामन्स ने डायर को गरिमा प्रदान करने में कोई कसर न छोड़ी। इंग्लैंड में लोगों ने अपने इस नायक को सम्मानित करने के लिए सार्वजनिक तौर पर चंदा इकट्ठा किया। साम्राज्यवाद का असली चेहरा भारतवासियों के सामने आ गया और तब से यह चेहरा उन की स्मृति से लुप्त नहीं हुआ।

भारतीय राजनीतिक क्षितिज पर गांधीजी का उदय
गांधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस एक सक्रिय संगठन बन गयी

जवाहर लाल नेहरू


कांग्रेस संगठन में गांधीजी ने आते ही फौरन ही इसके संविधान में आमूल परिवर्तन कर दिया। उन्होंने इसे जनतांत्रिक तथा जनसंगठन का स्वरूप प्रदान किया। यह पहले भी जनतांत्रिक थी, मगर इसका जनतांत्रिक स्वरूप अब तक केवल मतदान के अधिकार तक ही सीमित था और इसका दायरा उच्च वर्गों तक ही सिमटा था। अब इसमें किसान भी शामिल होने लगे और अपने नये परिर्वन में यह मध्यम वर्गीय लोगों के थोड़े किन्तु सबल गुट के साथ एक व्यापक किसान संगठन का रूप ग्रहण करने लगी। आगे भी यह खेतिहर स्वरूप बढ़ता गया। उद्योगों में काम करने वाले मज+दूर भी इसमें शामिल हुए लेकिन व्यक्तिशः न कि पृथक संगठित रूप में।

शांतिपूर्ण तरीकों पर आधारित आंदोलन- यही इस संगठन का आधार और ध्येय था। अब तक इसके विकल्प रहे थेः सिर्फ तर्क-वितर्क और प्रस्ताव पास करना या फिर आतंकवादी गतिविधि। इन दोनों का ही विनाश कर दिया गया और आतंकवाद की तो खासतौर से यह कह कर निंदा की गयी कि यह कांग्रेस की बुनियादी नीति के ही विरुद्ध है। आंदोलन की एक नयी तकनीक ईजाद की गयी जो पूरी तरह शांतिपूर्ण थी किन्तु इसमें यह भी निहित था कि जिसे जलत समझा जाये, उसके सामने सर न झुकाया जाये और इसके फलस्वरूप दुख या पीड़ा फैलने की जरूरत पड़े तो इसके लिए संघर्ष को तैयार रहें। गांधीजी एक विभिन्न प्रकार के शान्तिवादी थे, स्फूर्त ऊर्जा से परिपूर्ण। भाग्य या किसी भी ऐसी चीज के सामने वह घुटने नहीं टेकते थे जिसे वह बुरा समझते थे; उनमें प्रतिरोध की पूर्ण क्षमता थी किन्तु शान्तिपूर्ण व शालीन।

आन्दोलन का नारा दुहरे आयाम वाला था। विदेशी शासन को चुनौती देने और उसका प्रतिरोध करना तो आंदोलन में शामिल ही था, हमें अपनी सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध जिहाद भी छेड़ना था। भारत की आजादी और शांतिपूर्ण आंदोलन- इस बुनियादी समस्या के अलावा कांग्रेस के मुख्य मुद्दे थेः राष्ट्रीय एकता जिसके लिए अल्पसंख्यकों की समस्याओं को सुलझाना और दलित वर्गों को ऊपर उठाना तथा अस्पृश्यता के अभिशाप को दूर करना जरूरी था।

यह महसूस करके कि अंग्रेजी राज को भय, प्रतिष्ठा तथा लोगों व ब्रिटिश राज से निहित स्वार्थों के कारण जुड़े कुछ वर्गों के इच्छा अनिच्छापूर्ण सहयोग का ही सहारा है। गांधीजी ने ब्रिटिश शासन के इन्हीं आधार स्तंभों पर हमला किया। इसके तहत ब्रिटिश शासन द्वारा दी गयी उपाधियों व पदवियों को लौटाना था। हालांकि कांग्रेस के इस आह्‌वान पर बहुत कम उपाधिकारियों ने अमल किया, इनके प्रति आम लोगों में सझान स्वतः गिर गया और ये उपाधियां अपमानजनक समझी जाने लगीं। नये मानदण्ड और मूल्य सामने लाये गये। वायसराय के दरबार की तड़क भड़क और रियासतों की प्रभावशाली शान- शौकत फीकी पड़ने लगी।

कांग्रेस के पुराने नेताओं को जो भिन्न और कहीं अधिक निष्क्रियतापूर्ण परंपराओं में पले-बढ़े थे, उन्हें ये नये तौर-तरीके रास नहीं आये और बढ़ते हुए जन-ज्वार से उन्हें परेशानी महसूस होती। लेकिन लोगों के जज+बातों में आया सैलाब कुछ इतना ज +बर्दस्त था कि उससे उनमें से कुछ प्रभावित हुए बिना नहीं रहे। जो प्रभावित नहीं हुए, उनमें एक थे श्री मुहम्मद अली जिन्ना। वह कांग्रेस इसलिए नहीं छोड़ गये कि हिन्दु-मुस्लिम सवाल पर उनका मतभेद था। वह कांग्रेस इसलि छोड़ गये क्योंकि वह खुद को इस नये और अधिक उन्नत सिद्धांत से जोड़ नहीं पाये। सच तो यह है कि वह कांग्रेस इस कारण भी छोड़ गये क्योंकि कांग्रेस में बड़ी संख्या में शामिल हो रहे हिन्दुस्तानी बोलने वाले फटेहालों की भीड़ उन्हें सहन नहीं हो सकी। राजनीति के बारे में उनका खयाल ही कुछ अलग था, वह कुछ ऊंची किस्म की राजनीति पसंद करते थे, जो विधान सभा कक्ष या समिति कक्ष में बैठ कर की जाती हो। कुछ साल तक तो वह राजनीतिक मंच से बिलकुल गायब ही हो गये और यहां तक कि भारत छोड़ने का भी फैसला कर बैठे। वह इंग्लैंड में जा बसे और वहां कई साल तक रहे।

ऐसा कहते हैं, और मेरे खयाल से यह सच भी है कि भारतीयों के सोचने- विचारने का ढंग अनिवार्यतः शान्तिवादी है। शायद पुरानी कौमें जीवन के प्रति यही रवैया अपना लेती हैं, पुरानी दार्शनिक परंपरा के कारण ही ऐसा होता है। किंतु गांधीजी ढेठ भारतीय होने के बावजूद इस चुप्पी साध लेने की प्रवृति के बिलकुल विपरीत है। वह ऊर्जा व प्रबल पुन हैं-ऐसे व्यक्ति हैं जो खुद तो प्रेरित होते ही हैं, दूसरों को भी प्रेरित करते हैं। भारतीयों की चुप्पी साध लेने की इस प्रवृति को बदलने और इसके लिए लड़ने के लिए जितना कुछ गांधीजी ने किया, जहां तक मुझे मालूम है, किसी और ने उतना नहीं किया।

दलित-पीड़ितों के बीच- कार्यकर्ता

उन्होंने हमें गांवों में भेजा और गांव इन नये प्रकार के अनगिनत संदेशवाहकों के कार्यकलाप से भर उठे। किसान जागने लगे और अपने निद्रालयों से बाहर आने लगे। इसका हम पर कुछ अलग ही असर पड़ा। लेकिन यह उतना ही दूरगारी भी था क्योंकि हमें पहली बार मिट्टी के झौपड़ों और भूख की परछाई से घिरा ग्रामीण समुदाय देखने को मिला। गांवों की इन यात्राओं से हमने भारतीय अर्थशास्त्र का जो ज्ञान प्राप्त किया, वह उससे कहीं बहुत ज्यादा था जितना हमने भाषणों तथा पुस्तकों से हासिल किया था। इन यात्राओं के कारण उनसे हम भावनात्म स्तर पर तो कुछ इतना गहरे जुड़ गये कि यह निश्चित हो गया कि हमारे विचारों में चाहे बाद में जितने भी परिवर्तन आयें, हम अपने पुराने जीवन या पुराने मानदण्डों की ओर कभी वापस नहीं लौटेंगे।

आर्थिक, सामाजिक तथा अन्य मामलों पर गांधीजी के अपने दृढ़ मत थे। उन्होंने इन सब को कांग्रेस पर थोपने की कोशिश नहीं की हालांकि वह अपने विचारों को हमेशा कसौटियों पर कसते रहे और लेखों के जरिये अपने मत देते रहे। उन्होंने एहतियात बरता तो सिर्फ इसलिए कि वह लोगों को अपने साथ ले चलना चाहते थे। कभी-कभी तो वह कांग्रेस से बहुत आगे पहुंचे होते और बाद में अपने कदम वापस लेते। ऐसे लोगों की संख्या बहुत नहीं थी जो उनसे पूर्णतया सहमत थे, कुछ को तो उनके मूल सिद्धांतों पर ही ऐतराज+ था। लेकिन जब उन्हें मौजूदा परिस्थितियों के अनुरूप सुधार कर कांग्रेस में प्रस्तुत किया जाता तो बड़ी संख्या में लोग उन्हें स्वीकार कर लेते। दो तरह से उनके चिंतन की पृष्ठभूमी अस्पष्ट किंतु प्रभावोत्पादक होती थी। बुनियादी तौर पर हम जो कुछ करते या सोचते थे। उसकी जांच की कसौटी यह होती कि उससे जनता को कितना लाभ पहुंचेगा। इसके अलावा, हम अपने साधनों को भी हमेशा महत्व देते थे और किसी भी स्थिति में उनकी अवहेलना संभव नहीं थी। चाहे हम अच्छे नतीजे पर पहुंचने के लिए ही कुछ करते हों, मगर साधन ही निर्णायक होते थे।

धर्मप्राण किन्तु क्रान्तिकारी

गांधीजी निस्संदेह धर्मप्राण व्यक्ति थे, पूरी तरह हिन्दु, लेकिन इसके बावजूद- धर्म की उनकी धारणा का अंधविश्वासों या रीति-रिवाज या अनुष्ठान से कोई वास्ता नहीं था। मूलरूप से उनकी यह धारण नैतिक-विचार में दृढ़ विश्वास से जुड़ी थी जिसे वह सत्य का नियम या प्रेम कहते थे। सत्य तथा अहिंसा भी उन्हें एक ही या एक ही चीज+ के अलग-अलग पहलू प्रतीत होते थे और दोनों शब्दों का इस्तेमाल, वह एक- दूसरे के स्थान पर किया करते। हिन्दुवाद की मूल भावना को समझाने का दावा करते हुए, वह हर उस लिखित या अलिखित परंपरा को मानने से इंकार करते, उन्हें छेपक मान लेते जो उनकी निजी व्याख्या के विपरीत लगतीं। ��मैं किसी भी ऐसी पूर्व मान्यता या परंपरा का गुलाम नहीं बन सकता जिसे मैं नैतिक आधार पर न तो समझ सकता हूं न हीं उचित ठहरा सकता हूं,�� - उनका कहना था। इसलिए वह अपनी मर्जी का रास्ता अख्तियार करने को, उसके मुताबिक खुद को बदलने और चलाने को, अपना जीवन दर्शन विकसित करने को आजाद थे। इस सिलसिले में वह सिर्फ नैतिक आचार-विचार को ही ध्यान में रखते हैं। उनका दर्श सही है या गलत, इस पर बहस की जा सकती है लेकिन वह हर चीज को अपने उन्हीं बुनियादी मानदण्डों पर, खासकर अपने को जांचते-परखते हैं। राजनीति में, जीवन के दूसरे पहलुओं की तरह ही इसके कारण कठिनाइयां, खासतौर से गलतफहमियां पैदा हो जाती हैं। लेकिन कोई भी कठिनाई उन्हें इस सीधे रास्ते पर नहीं चलने के लिए मजबूर नहीं कर पाती, हालांकि बदलती हुई परिस्थितियों के अनुरूप वह खुद को ढालने की लगातार कोशिश कर रहे हैं। वह जब भी सुधार का कोई सुझाव देते हैं, जब कभी दूसरों को कोई सलाह देते हैं, उसे अपने ऊपर भी सीधे-सीधे लागू करते हैं और उनकी कथनियों व करनियों में कभी कोई अंतर नहीं होता। यही कारण है कि चाहे जो भी हो, वह अपनी समग्रत्ता बनाये रखते हैं और उनके जीवन व कर्म में हमेशा सुसंगतता रहती है। तभी तो असफलताओं में भी उनकी छवि उज्जवल ही प्रतीत होती है।

भावी भारत की कल्पना

उस भारत के बारे में उनकी क्या कल्पना थी जिसे वह अपनी इच्छाओं व आदर्शों के अनुरूप ढालने की कोशिश कर रहे थे? ��मैं एक ऐसे भारत के निर्माण के लिए काम करूंगा जिसमें ऐसी स्थितियां होगी कि सबसे गरीब लोग भी इसे अपना ही देश मानेंगे, जिसके निर्माण में उनकी आवाज प्रभावकारी होगी और भारत एक ऐसा देश होगा जहां ऊंचे या नीचे वर्ग के लोग नहीं होंगे, जहां सभी संप्रदाय के लोग पूर्ण सामजस्य के साथ रह सकेंगे....ऐसे भारत में न तो अस्पृश्यता का अभिशाप होगा, न शराबखोरी या नशाखोरी का।...महिलाएं भी पुरुषों जितने अधिकार पायेंगी...मेरे सपनों का भारत ऐसा ही है।�� उन्हें अपने हिन्दू होने पर गर्व था और इसी कारण उन्होंने हिन्दूवाद को एक सार्वभौमिक स्वरूप देने की कोशिश की और सत्य के दायरे में सभी धर्मों को समाहित कर लिया। अपनी सांस्कृतिक विरासत को वह बहुत बड़ी मानते थे। उन्होंने लिखा है कि ��भारतीय संस्कृति, ठीक-ठीक कहा जाये तो न हिन्दूवाद है, न इस्लामवाद। इसके दायरे में सब-आते हैं।�� बाद में भी उन्होंने लिखा है कि ��मैं चाहता हूं कि मैं जहां रहता हूं, उसके इर्द-गिर्द सभी देशों की संस्कृति फले-फूले। फिर भी मैं इसके लिए कतई तैयार नहीं कि इनमें से किसी एक के कारण मेरे पांव उखड़ जायें। मैं दूसरों के घरों में�� दालभार में मूसरचंद ��या भिखरी या गुलाम बनकर रहने को तैयार नहीं।�� आधुनिक विचारधाराओं से प्रभावित होने के कारण उन्होंने न तो अपनी पुरानी परम्पराएं छोड़ीं, न ही उनका त्याग किया बल्कि उनकी गहराइयों में पैठ गये।

ग़रीबों के मसीहा

इसीलिए उन्होंने अपना लक्ष्य रखा, लोगों की भावात्मक एकता को फिर से बरकरार करने का और पश्चिमी एकता से प्रभावित ऊपर बैठे कुछेक लोगों व आम जनता के बीच गतिरोध को दूर करने का पुरानी परंपराओं में जीवाणु तलभाने व उन्हें आगे बढ़ाने का, लोगों को निद्रालसता से निकाल कर गतिशील बनाने का। अपनी ही एकाकी लीक पर चलने किंतु बहुआयामी व्यक्तित्व के कारण उनकी जो छाप किसी पर पड़ती वह थी जनता के साथ उनके तादात्य की, न सिर्फ भारत बल्कि दुनिया भर के अधिकार हीनों व निर्धनों के साथ एकजुटता की। इन दलित लोगों को ऊपर उठाने की उनकी लालसा इतनी प्रबल थी कि कोई भी दूसरी चीज+, चाहे धर्म ही क्यों न हो, इसके सामने उन्हें गौण महसूस होतां ��किसी अधभूखी कौम के लिए न कोई धर्म हो सकता, न कला, न ही उनका कोई संगठन हो सकता है।�� ��लाखों भूखों के लिए जो कुछ सुंदर हो सकता है, वही मेरे मस्तिष्क को भाता है। आइये, पहले हम उन्हें जीवन के लिए जरूरी चीजें दे, फिर जीवन को सजाने- संवारने की हर वस्तु अपने आप आ जायेगी...मुझे ऐसी कला चाहिए, ऐसा साहित्य चाहिए जो लाखों लोगों से मुखातिब हो सके। ��यही लाखों दुखी, दलित लोग उनके ध्यान के केंद्र बिन्दु इर्द- गिर्द घूमते रहते थे। ��लाखों लोगों के लिए करी शाश्वत पूजा, शाश्वत अर्चना है। ��जैसा कि उन्होंने खुद कहा है, उनका एक ही लक्ष्य है, ��सबकी आंखों के आंसू पोंछ डाले जायें।��

इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं कि आत्मविश्वास तथा असामान्य शक्ति से परिपूर्ण, हर किसी की समानता व स्वाधीनता के लिए संघर्षरत किंतु इन सब को कसौटी पर परख कर देखने वाले इस सम्मोहनकारी स्फूर्ति पुंज दानव से भारत का जन-जन मंत्रमुग्ध था और उन्हें अपनी ओर चुंबक की तरह खींचता था। वह उन्हें अतीत और भविष्य के बीच सेतु दिखाई देते, जीवन और आशा से परिपूर्ण भविष्य के मार्गदर्शक प्रतीत होते। और ऐसा सिर्फ आम लोगों के साथ ही नहीं, बुद्धिजीवियों के साथ भी होता हालांकि वे अक्सर परेशान व भ्रमित हो जाते क्योंकि लंबे समय से चली आ रही आदतें आसानी से नहीं बदलतीं। इस प्रकार, गांधीजी ने न सिर्फ उनके लिए एक व्यापक मनोवैज्ञानिक क्रान्ति ला दी जो उनके नेतृत्व में आस्था रखते थे बल्कि उनके लिए भी जी उनके विरोधी थे या ऐसे निरपेक्ष लोग थे जो तय नहीं कर पा रहे थे क्या सोचें, क्या करें।

कांग्रेस पर गांधीजी का अपरिमित प्रभाव था फिर भी यह प्रभाव कुछ अजीब-सा था क्योंकि कांग्रेस एक सक्रिय आन्दोलनकारी, बहुआयामी संगठन थी, इसमें मतों की प्रचुर विभिन्नता थी और इसे इधर-उधर बहका कर ले जाना आसान नहीं था। गांधीजी अक्सर दूसरों की इच्छाएं पूरी करने के लिए किसी बात पर बहुत ज्यादा ज+ोर नहीं डालते, कभी-कभी तो प्रतिमूल निर्णय को स्वीकार कर लेते। जिन बातों को वह अपनी दृष्टि में बहुत महत्वपूर्ण मानते थे, उन पर वह अटल रहते थे और ऐसे कई अवसर आते जब उनमें और कांग्रेस में अलगाव पैदा हो जाता। किंतु वह हमेशा भारत की स्वाधीनता तथा जागरूक राष्ट्रीयता के प्रतीक, भारत के गुलाम बनाये रखने की इच्छा से प्रेरित लोगों के सतत्‌ शत्रु बने रहते। और उनका यही स्वरूप लोगों को उनके इर्द-गिर्द बनाये रखता, उनका नेतृत्व स्वीकार कराता, चाहे दूसरे मामले में वे गांधीजी का विरोध ही क्यों नहीं करते हों। जब कोई सक्रिय आंदोलन नहीं चल रहा होता तो वे इस नेतृत्व को जरूरी नहीं कि स्वीकार ही कर लेते लेकिन जब आंदोलन चल रहा होता तो यह स्वरूप सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो जाता तथा अन्य सभी चीजें गौंण हो जातीं।

स्वाधीनता-अडिग संकल्प

इस प्रकार, 1920 में राष्ट्रीय कांग्रेस ने और कुल मिलाकर लगभग पूरे देश ने उनका नया व अनआजमाया रास्ता अपना लिया और ब्रिटिश शासन के साथ संघर्ष में जुट गया। यह संघर्ष इसके तरीकों और नयी उत्पन्न परिस्थिति, दोनों में समहित था। फिर भी इन जब के पीछे कोई राजनीतिक दांवपेंच और रणकौशल नहीं, बल्कि भारतीय जन-जन को सुदृढ़ बनाने की इच्छा ही मुख्य प्रेरक शक्ति थी क्योंकि केवल यही वह शक्ति थी जिसकी बदौलत स्वाधीनता पायी और बरकरार रखी जा सकती थी। एक के बाद एक सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू हो गये, कष्टों की कोई सीमा नहीं रह गयी लेकिन ये कष्ट चूंकि अपनी इच्छा से मोल लिये हुए थे, इसलिए इनसे शक्ति मिलती थी। ये कष्ट वैसे नहीं थे जिनके कारण आदमी हिम्मत हार जाता है, उसमें अनिच्छा तथा निराशा उत्पन्न होने लगती है। यूं तो जो इसमें सहभागी बनने को इच्छुक नहीं थे, उन्हें भी पीड़ा झेलनी पड़ी क्योंकि सरकारी दमन के विशाल घेरे ने उन्हें भी अपने में समेट लिया जबकि कभी- कभी ऐसे भी अवसर आये जब स्वेच्छा से हिस्सा लेने वाले भी दमन के प्रकोप से टूट गये, धराशायी हो गये। मगर कभी भी, उस समय भी जब इसकी किस्मत बुलंदियों पर नहीं थी, कांग्रेस ताकत या विदेशी शासन के सामने नहीं झुकी। यह भारत की स्वाधीनता की अचूक लालसा का प्रतीक बनी रही, विदेशी अधिनायकत्व के विरोध की उसकी इच्छा अनन्य रही। यही कारण था कि बड़ी संख्या में भारतीय जनगण के दिलों में उसके प्रति सहानुभूति जाग उठी और उन्होंने इसकी ओर नेतृत्व पाने की आशा से देखाना शुरू कर दिया। हालांकि उनमें से ऐसे लोगों की संख्या बहुत थी जो बहुत दुर्बल तथा लाचार थे या ऐसी परिस्थितियों में फंसे थे जिनमें रह कर वे कुछ भी कर पाने में असमर्थ थे। कई तरह से कांग्रेस एक पार्टी थी, यह विभिन्न पार्टियों के लिए एक संयुक्त मंच की था, मगर सच कहा जाये तो इन सब बातों से भी ज्यादा कुछ और ही थी क्योंकि यह बहुसंख्यक जनगण के मानस का प्रतिनिधित्व करती थी। यूं तो इसके सदस्यों की संख्या काफी थी, फिर भी इसे इसके विराट प्रतिनिधिमूलक चरित्र की एक झलक ही कहा जा सकता है क्योंकि सदस्यता लोगों की इस इच्छा पर निर्भर नहीं करती कि लोग इसमें शामिल होना चाहते हैं बल्कि इस पर निर्भर करती है कि हम किस हद तक दूर-दराज के गांवों तक पहुंच पाते हैं। हालांकि यह कानून की आंखों में तानिक भी नहीं सुहाता था और हमारी पुस्तकें व काग़ज+ात पुलिस अक्सर उठा कर ले जाती थी।

उस समय भी जब सविनय अवज्ञा आंदोलन नहीं चल रहे थे, भारत में ब्रिटिश राज के प्रति असहयोग की आम भावना थी मगर वह आक्रामक नहीं थी। लेकिन इसका मतलब किसी अंग्रेज के साथ असहयोग नहीं था। जब कई राज्यों में कांग्रेस की सरकारें बनीं, सरकारी अधिकारियों व कार्य के साथ अपरिहार्य रूप से सहयोग हुआ। इसके बावजूद, उस पृष्ठभूमि में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं आया। और भारतीय राष्ट्रीयता और किसी विदेशी साम्राज्यवाद के बीच कभी भी शांति कायम नहीं रह सकती हालांकि अस्थायी तौर पर कभी-कभी सहयोग अपरिहार्य हो जाता। सिर्फ स्वाधीन भारत ही समानता के आधार पर इंग्लैंड के साथ सहयोग कर सकता है।
(भारत की खोज-नेहरू)

कांग्रेस की ऐतिहासिक घोषणा

कांग्रेस का 44वां अधिवेशन 1929 में रावी नदी के किनारे लाहौर में पं0 जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में हुआ। देशभक्ति की उमंग में पूरा जनमानस हिलोरें ले रहा था। इस अवसर पर पंडित जी ने जोरदार शब्दों में कहा कि विदेशी शासन से अपने देश को स्वाधीन करने के लिए अब हमें खुला षड्यंत्र करना है और हमारे सभी नर-नारी इस में शामिल होने के लिए तैयार हैं। लेकिन समझ लीजिए कि हमें इसकी कीमत यातनाओं के रूप में, जेल जाकर या शायद मौत से चुकानी पड़ सकती है।

कांग्रेस का 1929 का मुख्य प्रस्ताव पूर्ण स्वाधीनता के संबंध में था :-

��औपनिवेशिक स्वराज्य के संबंध में 31 अक्तूबर को वाइसराय साहब ने जो घोषणा की थी और जिस पर कांग्रेस एवं अन्य दलों के नेताओं ने सम्मिलित वक्तव्य प्रकाशित किया था उस संबंध में की गई कार्य-समिति की कार्रवाई का यह कांग्रेस समर्थन करती है और स्वराज्य के राष्ट्रीय आंदोलन को निपटाने के लिए वाइसराय महोदय की कोशिशों की कद्र करती है। किंतु उसके बाद जो घटनायें हुई हैं और वाइसराय साहब के साथ महात्मा गांधी, पंडित मोतीलाल नेहरू और दूसरे नेताओं की मुलाकात का जो नतीजा निकला है उस पर विचार करने पर कांग्रेस की यह राय है कि संप्रति प्रस्तावित गोलमेज- परिषद में कांग्रेस के शामिल होने से कोई लाभ नहीं। इसलिए गत वर्ष कलकत्ते के अधिवेशन में किये हुए अपने निश्चय के अनुसार यह कांग्रेस घोषणा करती है कि कांग्रेस- विधान की पहली कलम में �स्वराज्य� शब्द का अर्थपूर्ण- स्वाधीनता होगा। कांग्रेस यह भी घोषणा करती है कि नेहरू-कमेटी की रिपोर्ट में वर्णित सारी योजना खतम समझी जाए। कांग्रेस आशा करती है कि अब समस्त कांग्रेसवादी अपना सारा ध्यान भारतवर्ष की पूर्ण- स्वाधीनता को प्राप्त करने पर ही लगायेंगे। चूंकि स्वाधीनता का आन्दोलन संगठित करना और कांग्रेस की नीति को उसके नये ध्येय के अधिक से अधिक अनुकूल बनाना आवश्यक है, इसलिए यह कांग्रेस निश्चय करती है कि कांग्रेसवादी और राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेनेवाले दूसरे लोग भावी निर्वाचनों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कोई भाग न लें और कौंसिलों और कमिटियों के मौजूदा कांग्रेसी मेम्बरों को इस्तीफे देने की आज्ञा देती है। यह कांग्रेस अपने रचनात्मक कार्यक्रम को उत्साहपूर्वक पूरा करने के लिए राष्ट्र से अनुरोध करती है और महा-समिति को अधिकार देती है कि वह जब और जहां चाहे, आवश्यक प्रतिबंधों के साथ सविनय-अवज्ञा और करबंदी तक का कार्यक्रम आरंभ कर दे।��

गांधीजी की 11 शर्तें

स्वाधीनता दिवस जिस ढंग से मनाया गया उससे प्रकट हुआ कि ऊपर-ऊपर दीखनेवाली शिथिलता और निराशा की तह में कितनी असीम भावना, उत्साह और स्वार्थ- त्याग की तैयारी दबी पड़ी थी। स्वाधीनता-दिवस का समारोह खतम ही हुआ था कि 25 जनवरी को असेम्बली में दिया गया वाइसराय का भाषण भी प्रकाशित हो गया।

��यह सही है कि साम्राज्य के अन्य लोगों के साथ व्यवहार करने में भारत को स्वराज्यभोगी उपनिवेशों के समान कई अधिकार मिल चुके हैं। परंतु यह भी सही है कि भारतीय लोकमत इन अधिकारों को संप्रति बहुत महत्व देने के लिए तैयार नहीं है। इसका कारण यह है कि इन अधिकारों का प्रयोग ब्रिटिश-सरकार के नियंत्रण तथा स्वीकृति में है। ब्रिटिश-सरकार जो परिषद बुलायेगी वह वस्तुतः वही चीज नहीं है जो भारतवासी चाहते हैं। उनकी मांग तो यह है कि उस के निर्णय बहुमत से हों और वह जो विधान बना दे उसे पार्लमेण्ट जयों-का- त्यों स्वीकार कर ले।...

इस भाषण के जवाब में गांधीजी ने ��यंग इण्डिया�� में यों लिखाः- ��वाइसराय ने वातावरण साफ कर दिया और हमें ठीक-ठाक बता दिया कि वह कहां और हम कहां है।

कांग्रेस का बस चले तो आज वह प्रत्येक भूखे किसान को पेट-भर खाना ही नहीं दे बल्कि करोड़पति की हालत तक में पहुंचा दे। वैसे भी जब उसे अपनी दुर्दशा का पूरा ज्ञान हो जाएगा और जब वह समझ जाएगा कि उसकी यह निस्सहाय अवस्था किस्मत के कारण नहीं हुई बल्कि वर्तमान शासन के द्वारा हुई है तो वह संगठित होकर उठ बैठेगा और अधीर होकर एक ही सपाटे में वैध- अवैध का ही नहीं, हिंसा-अहिंसा का भेद भी भूल जाएगा। कांग्रेस को आशा है कि ऐसी दशा में वह किसानों को सच्चा मार्ग बतायगी।��

आगे चलकर गांधीजी ने लॉर्ड अर्विन के सामने नीचे लिखी शर्तें रखीं :-
1. संपूर्ण मदिरा निषेध
2. विनिमय की दर घटाकर एक शिलिंग चार पेंस रख दी जाये।
3. जमीन का लगान आधा कर दिया जाए और उस पर कौंसिलों का नियंत्रण रहे।
4. नमक-कर उठा दिया जाये।
5. सैनिक व्यय में आरंभ में ही कम से कम 50 फीसदी कमी।
6. लगान की कमी को देखते हुए बड़ी-बड़ी नौकरियों के वेतन कम- से-कम आधे कर दिये जायें।
7. विदेशी कपड़े की आयात पर निषेध कर लगा दिया जाए।
8. भारतीय समुद्र-तट केवल भारतीय जहाजों के लिए सुरक्षित रखने का प्रस्तावित कानून पास कर दिया जाये।
9. हत्या या हत्या के प्रयत्न में साधारण टिब्युनलों द्वारा सजा पाये हुओं के सिवा, समस्त राजनैतिक कैदी छोड़ दिये जायें, सारे राजनैतिक मुकदमे वापस ले लिये जाएं, 124 अ धारा और 1818 का तीसरा रेग्यूलेशन उठा दिया जाये और सारे निर्वासित भारतीयों को देश में वापस आ जाने दे।
10. खुफिया पुलिस उठा दी जाये, अथवा उस पर जनता का नियंत्रण कर दिया जाये।
11. आत्म-रक्षार्थ हथियार रखने के परवाने दिये जायें, और उन पर जनता का नियंत्रण रहे।

गांधीजी ने आगे लिखा - ��हमारी बड़ी से बड़ी आवश्यकताओं की यह कोई संपूर्ण सूची नहीं है, पर देखें वाइसराय साहब इन सीधी-सादी किंतु आत्यावश्यक भारतीय आवश्यकता की पूर्ति तो करके दिखावें। ऐसा होने पर सविनय-अवज्ञा की बात भी उनके कान पर नहीं पड़ेगी और जहां अपनी बात कहने और काम करने की पूरी आजादी होगी, ऐसी किसी भी परिषद में कांग्रेस हृदय से भाग लेगी।�� इसका यह अर्थ हुआ कि यदि ये मामूली और जरूरी मांगें पूरी न की गईं तो सविनय अवज्ञा होगी।

महात्मा गांधी की डांडी यात्रा
और राष्ट्रीय उथल- पुथल

निरंजन एम. खिलनानी

यद्यपि लाठियों की बौछार होती रही, पर एक भी स्वयंसेवक ने प्रहार रोकने के लिए हाथ नहीं उठाया।...वे माचिस की तीलियों की तरह गिरते थे कुछ बेहोश हो गये थे, कुछ सिर या कंधे की हड्डियां टूटने से बिलबिला रहे थे। जो बाकी रहे, वे बिना कतार तोड़े चुपचाप और मजबूती से आगे बढ़ते रहे और बढ़ते चले गये जब तक कि उन्हें नीचे गिरा नहीं दिया गया।

लेनिन और नेहरू दोनों ने विभिन्न अवसरों पर यह कहा था कि क्रान्ति बंदूकों से नहीं लाई जाती है और सच्ची क्रान्तियां वे होती हैं जो मनुष्य के मस्तिष्क को बदल देती हैं और बड़े समूहों के दृष्टिकोण में क्रान्तिकारी परिवर्तन ला देती हैं। महात्मा गांधी के नमक कानून तोड़ने की ऐतिहासिक डांडी यात्रा ने जन- असहयोग का विशाल आंदोलन शुरू कर हमारे राष्ट्रीय स्वभाव को पूरी तरह से बदल दिया था। इसने भारत की वैचारिक पद्धतियों में क्रान्तिकारी परिवर्तन ला दिए थे। ऐसा प्रतीत होता था कि मानों संपूर्ण राष्ट्र ने एक-जुट होकर अपने शरीर, मस्तिष्क और आत्मा को मजबूत बनाने के लिए आग से खेलने का संकल्प कर लिया था। युगान्तकारी डांडी यात्रा के बाद भारत विश्व के मंच पर एक नए सक्रिय भारत के रूप में उभरा था।

पहला कदम एक विशेष दिन को चुनने का और इसे स्वतंत्रता दिवस का नाम देने का उठाया गया था। यह दिन ��26 जनवरी�� चुना गया था। जनवरी, 1930 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का लाहौर का अधिवेशन होने के फौरन बाद महात्मा गांधी ने यह घोषणा कर दी थी कि ��हम स्वतंत्र उपनिवेशवाद के दर्जे के विरुद्ध पूर्ण स्वतंत्रता से कम किसी चीज से सुंष्ट नहीं होंगे।�� इसलिए 26 जनवरी, 1930 को भारतवासियों ने ��पूर्ण स्वराज्य�� प्राप्त करने की अपनी दृढ़ इच्छा प्रकट की थी। यह दिन सृजनात्मक कार्यों के प्रति समर्पित किया गया था और इस दिन लाखों व्यक्तियों द्वारा स्वतंत्रता प्राप्त करने की शपथ दोहराई गई थी। राष्ट्र ने अपने लक्ष्य को पहचान लिया था, इसकी आत्मा जागृत हो चुकी थी और इसके पास एक बहादुर नेता भी था।

राष्ट्रीय प्रतिज्ञा के वास्तविक शब्दों पर अमेरिकी विचारकों और 1776 के स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं का प्रभाव परिलक्षित होता है। यह प्रतिज्ञा इन शब्दों के साथ शुरू होती थी, ��हम यह विश्वास रखते हैं कि किसी भी दूसरे लोगों की तरह भारतीयों को भी स्वतंत्रता प्राप्त करने का, अपने परिश्रम के फलों का लाभ उठाने का और जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है ताकि उन्हें आगे बढ़ने के पूरे अवसर मिल सकें। हम यह भी विश्वास रखते हैं कि यदि सरकार लोगों को उनके अधिकार प्रदान नहीं करती है और उन्हें दबाती है तो लोगों को ऐसी सरकार को बदलने और हटाने का अधिकार होता है। भारत की ब्रिटिश सरकार ने न केवल भारतवासियों की स्वतंत्रता का हनन किया है बल्कि इसने भारत को आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक रूप से बर्बाद कर दिया है।��

गांधीजी का वायसराय को करारा जवाब

गांधी जी एक महान राजनीतिज्ञ थे। उनके चरित्र में बुद्धिमत्ता और व्यावहारिकता दोनों ही अच्छी तरह से विद्यमान थे। वे जनसमूहों को नियंत्रित करने के मनोविज्ञान को समझते थे। उन्होंने रोजमर्रा के प्रयोग की वस्तु नमक से संबंधित कानून का उल्लंघन करने की योजना बनाई। सत्याग्रह के सिद्धांतों के अनुसार गांधीजी ने अपने इस होने वाले सत्याग्रह की सूचना वायसराय को दी थी। इस बारे में लार्ड इरविन को भेजा गया था जो स्वयं महात्मा गांधी का चेला था। यह पत्र ऐतिहासिक था और ब्रिटिश-राज के खिलाफ आरोप-पत्र होने के साथ ही जनसाधारण के लिए स्वराज प्राप्त करने के उनके विचार को प्रदर्शित करता था। लार्ड इरविन ने अपने उत्तर में गांधी जी को चेतावनी दी थी कि ��वे उस दिशा में कार्य कर रहे हैं जिससे कानून का उल्लंघन होगा और जनशांति को अवश्यम्भावी रूप से खतरा पहुंचेगा।�� इस पर गांधी जी की प्रतिक्रिया यह थी, ��मैंने घुटने अेक कर रोटी मांगी थी पर मुझे उसके स्थान पर पत्थर मारे गए।�� इस प्रकार भविष्य का स्वरूप निश्चित हो चुका था और 12 मार्च, 1930 को डांडी यात्रा के साथ नमक सत्याग्रह शुरू हो गया था। गांधी जी के लिए भारत स्वयं अपने आप में एक विशाल कारागृह था। ऐतिहासिक डांडी यात्रा के अवसर पर गांधी जी शेर की तरह दहाड़े थेः ��मैंने कानून तोड़ा है और मैं अनिवार्य शान्ति की उस शोकपूर्ण एकरसता को तोड़ने का अपना पवित्र कर्तव्य समझता हूं जो खुले निकास की खोज में देश के हृदय को दबाए हुए है।�� देश के लोगों का क्रोध सभी सीमाओं को लांघ गया और लोग अपनी मातृभूमि को स्वतंत्र कराने के लिए अनवरत रूप से जेल जाने लगे। 12 मार्च, 1930 को 6.30 बजे बजे प्रातः संपूर्ण देश में 59 वर्ष के एक बूढ़े और दुर्बल व्यक्ति के उस महान कार्य को देखा जो उसने हाथ में छड़ी लेकर अपने 78 समर्पित और साहसी शिष्यों के साथ 241 मील दूर डांडी के लिए अपने दृढ़ कदम उठाते हुए शुरू किया था। मोतीलाल ने इस यात्रा की तुलना रामचंद्र की लंका यात्रा से की थी। सी.एफ. एण्ड्रयूज ने इसकी तुलना मूसा द्वारा इस्रालियों के निर्गमन के नेतृत्व से किया। इटालियनों के लिए यह दृश्य सीजर द्वारा रूबिकोन को पार कर गायूल की विजय के लिए प्रस्थान करने के समान था। अमेरिकनों ने इस ऐतिहासिक यात्रा की तुलना लिंकन द्वारा संघ शासन को बनाए रखने और दक्षिणी राज्यों में सेना भेजने के निर्णय से की। इससे पहले भारत के इतने लंबे और घटनापूर्ण इतिहास में ऐसे साहसपूर्ण कार्य का कोई विवरण नहीं मिलता है। एक पतले-दुबले निहत्थे आदमी ने सीधे-सीधे पर बहादुर व्यक्तियों के समूह के साथ एक मजबूत साम्राज्य को ललकारा था। डांडी यात्रा ने कश्मीर से कन्याकुमारी और पेशावर से अराकान की पहाड़ियों तक समूचे उपमहाद्वीप को नवीन से भर दिया था। जवाहरलाल नेहरू ने 1936 में अपने आत्मचरित्र में इस घटना का उल्लेख करते हुए लिखा थाः ��भारत की स्वतंत्रता प्राप्त करने और 35 करोड़ लोगों के शोषण को समाप्त करने की यह एक लंबी यात्रा है।�� गांधी जी 5 अप्रैल को डांडी पहुंचे और दूसरे दिन सुबह ही उन्होंने एक नमक का ढेला उठाया और इस प्रकार वे पहले महान व्यक्ति हुए जिन्होंने कानून तोड़ा। राष्ट्र ने इसका अर्थ समझ लिया और गैरकानूनी तरीके से शहरों और गांवों में नमक जमा किया गया और बनाया गया। तीन महीनों में एक लाख व्यक्तियों से अधिक व्यक्ति जेल में गए। अप्रैल के अंत में जवाहरलाल नेहरू और वर्किंग कमेटी के अन्य सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया गया। नमक कानून को तोड़ने के साथ-साथ विदेशी कपड़ों और शराबों की दुकानों पर दिए गए लगातार धरनों से भारत को आयात होने वाला ब्रिटिश माल प्रभावित हुआ। दो महीनों के ही अंदर लंकाशायर इस प्रभाव को महसूस करने लगा। इसी तरह स्काटलैण्ड के उस्टिलर भी अप्रसन्न हुए। पहले सरकार ने कठोर दमन का सहारा लिया। प्रदर्शनों और बैठकों पर रोक लगा दी गई, प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी गई और सत्याग्रहियों पर निर्दयता-पूर्वक बेंत बरसाई गई। यहां तक कि अंग्रेज औरतें भी अक्सर अपने भारतीय नौकरों को अपनी ऊंची हील वाली जूतियों से ठोकर मारा करती थीं। घृणा असीमित ऊंचाइयों तक पहुंच गई। कलकत्ता, करांची, मद्रास, लखनऊ, कानपुर और वाराणसी में पुलिस अकसर गोली चलाने लगी। करांची में गोली चलने के दौरान जब जयरामदास दौलतराम की बांह में चोट आई तो गांधी जी ने उन्हें एक टेलिग्राम भेजा ��यदि गोली आपके हृदय को छेद देती तो पूरा सिंध क्रान्ति के लिए उठ खड़ा होता। शहीदों के रक्त से ही देश का निर्माण होता है।�� पेशावर में खान अब्दुल गफार खान के सक्रिय नेतृत्व में पठानों ने खुले विद्रोह का झण्डा ऊंचा किया। दर्जनों बख्तरबंद गाड़ियों को लोगों का सफाया करने के लिए प्रयोग में लाया गया जिससे सैंकड़ों आदमी और औरतें मारी गईं। रायल गढ़वाल राइफल्स की दो प्लाटूनों ने निहत्थे नागरिकों पर गोली चलाने से इंकार कर दिया और अपने हथियार छोड़ दिए। इन बहादुर व्यक्तियों को कठोर सजाएं दी गईं। अंग्रेजों ने पेशावर पर हमला करने के लिए वायुयानों तक का प्रयोग किया जिसे अंग्रेजी फौजों की सहायता से पुनः कब्जे में लिया गया था। बिना डरे गांधी जी ने आंदोलन तेज कर दिया और सत्याग्रहियों ने धरसाना साल्ट डिपो पर हमला किया। वायसराय को लिखते समय गांधी जी ने ब्रिटिश अत्याचारों को ��मार्शल लॉ के छुपे रूप�� की संज्ञा दी।

सत्याग्रह का आदर्श

21 मई को श्रीमती सरोजिनी नायडू और इमाम साहब के नेतृत्व में लगभग 2500 स्वयं सेवकों द्वारा धरसाना साल्ट डिपो पर कब्जा कर लिया गया। सरोजिनी नायडू ने स्वयं सेवकों से किसी भी परिस्थिति में हिंसा का प्रयोग न करने को कहा। ��तुम्हें पीटा जाएगा तब भी तुम्हें विरोध नहीं करना है, तुम्हें प्रहारों को झेलने के लिए अपने हाथ भी ऊपर नहीं करने है।� - और इस नेतृत्व में सच्चे अर्थों में स्वयं सेवकों की एक पंक्ति तारों की ओर बढ़ी और पुलिस अधिकारियों की अवहेलना करते हुए वे आगे बढ़ते रहे। यद्यपि लाठियों की बौछार होती रही लेकिन एक भी स्वयं सेवक ने अपने हाथों को प्रहारों को रोकने के लिए ऊपर नहीं उठाया। अमेरिकन जर्नलिस्ट मिलर ने उस दृश्य का बड़ा विशद वर्णन किया, वह लिखता हैः ��वे माचिस की तीलियों की तरह नीचे गिर पड़े थे- जो चोट लगने से गिर पड़े थे वे या तो बेहोश थे या सिर और कंधों की हड्डियों के टूटने से हुए कष्ट से बिलबिला रहे थे। जो बजे हुए व्यक्ति थे वे बिना पंक्ति तोड़े चुपचाप और दृढ़ता पूर्वक आगे बढ़ते रहे जब तक कि उन्हें भी नीचे नहीं गिरा दिया गया।�� अमेरिकन जर्नलिस्ट का मुंह आश्चर्य से खुला रह गया। कतार बाद कतार आगे बढ़ती गई। मिलर लिखता है ��यद्यपि उनमें से प्रत्येक इस बात को जानता था कि कुछ ही मिनटों में वह पीटा जाएगा, और हो सकता है कि मार भी दिया जाए, फिर भी मैं उनमें किसी भय का लड़खड़ाहट के लक्ष्णों को नहीं पा रहा था।�� धरसाना आक्रमण अहिंसा का जीता-जागता उदाहरण था जिसमें अत्यधिक बलशाली निर्दयी शासकों के आदेशों की अवहेलना की गई थी। इसी प्रकार 18 मई को वाडाला साल्ट डिपो पर आक्रमण किया गया जो 1 जून तक हर हफ्ते दोहराया जाता रहा, जिसमें 15,000 स्वयं सेवकों नक ीााग लिया। कर्नाटक में सारीकाला में 10,000 स्वयं सेवकों ने एक सामूहिक विशाल कार्य किया और लाठियों और गोलियों की बौछार के बावजूद हजारों मन नमक उठा ले गए। ब्रिटिश सैनिकों ने निर्दयता में नादिरशाह और जर्मनी के नाजियों को भी मात कर दिया था। उन्होंने गांवों की स्त्रियों को जमीन पर लेटने के लिए मजबूर किया और उनकी छातियों को अपने ऊंचे बूटों से कुचला।

दिन प्रतिदिन बढ़ते जा रहे दमन के साथ ही असहयोग की भावना बढ़ती गई। आखिरकार अत्याचारी की तलवार टूट गई और भावना ने विजय प्राप्त की। लंदन में पहली गोलमेज सभा की असफलता से लार्ड इरविन यह समझ गए कि बिना गांधी जी और कांग्रेस के साथ हुए भारतीय समस्या का कोई समाधान संभव नहीं है और न ही वांछनीय होगा। किंग जार्ज-वी अपनी भारतीय प्रजा के कष्टों से बहुत अधिक प्रभावित हुए। उन्होंने प्रधानमंत्री रेम्से मैकडोनाल्ड को यह कहा बताया जाता है कि ��भारतीय समस्या का समाधान भारतीय लोगों की राजनीतिक इच्छाओं और आशाओं को सहानुभूतिपूर्वक मानने में निहित है।�� स्टेट सेक्रेटरी वेज वुड बेन ने वायसराय को सप्रू और जयकर मध्यस्थों के माध्यम से गांधी जी को यह बतलाने को प्राधकृत किया था कि ब्रिटिश सरकार की इच्छा अर्थपूर्ण शांति समझौते की बातचीत चलाने की है। दोनों पक्षों ने अत्यधिक सावधानी से काम लिया और कोई भी पक्ष पूरी तरह से बातचीत के द्वार बंद करने के पक्ष में नहीं था। इरविन का इरादा स्वतंत्रता प्रदान करने का नहीं था और गांधी जी इससे कम और किसी चीज पर सहमत नहीं थे जिससे समस्या बनी रही। दिसम्बर, 1930 के आते-आते लार्ड इरविन ने इस बात को महसूस कर लिया कि अब और अधिक दमन करना निरर्थक है। दिसंबर, 1930 में उसने कलकत्ता एसोसिएशन को यह कहा, ��हालांकि हम बहुत बलपूर्वक इस आंदोलन की निंदा कर रहे हैं पर हमें यह जानना चाहिए कि हम एक बहुत बड़ी गलती कर रहे हैं क्योंकि यदि कोई आज भारतीय विचार में प्रचलित राष्ट्रवाद के असली और शक्तिशाली अर्थ को कम महत्व दे रहा है तो वह भूल कर रहा है क्योंकि इसके लिए कोई स्थायी उपचार नहीं है और न ही सरकार की कठोर कार्रवाई से इस समस्या का हल हो सकता है।�� दिसंबर, 1930 के अंत में ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने कॉन्फ्रेंस के कार्य को रोक दिया ताकि ��किए गए काम पर भारतीय विचार से अवगत हुआ जा सके और जो कठिनाइयां सामने आई हैं उन्हें दूर करने के उपाय ढूंढे जा सके।�� उन्होंने कांग्रेस से सहयोग की भी आशा की थी। 25 जनवरी, 1931 को गांधी जी जेल से छोड़ दिए गए और वर्किंग कमेटी के भी सभी सदस्य जेल से रिहा कर दिए गए। कांग्रेस वर्किंग कमेटी का अधिवेशन इलाहाबाद में बुलाना पड़ा क्योंकि मोतीलाल जीवन और मृत्यु के बीच में झूल रहे थे। उनका देहावसान 6 फरवरी, 1931 को हो गया। तब 14 फरवरी को वर्किंग कमेटी दिल्ली में वायसराय से बातचीत करने के लिए मिली। इस समय वायसराय गांधी जी से मिलने को बहुत उत्सुक थे और उन्होंने उन्हें उदार मार्ग अपनाने पर तैयार कर लिया।

उपसंहार

इंग्लैण्ड में अनुदारवादियों ने बड़े आश्चर्य से सत्य को देखा कि ��एक साधारण सा वकील अधनंगा होकर वाइसरीगल पैलेस की सीढ़ियों पर चढ़ रहा और जो अभी भी जनअसहयोग आंदोलन को चला रहा है, सम्राट के प्रतिनिधियों से समान शर्तों पर बातचीत करने आया है। ��इरविन के साथ आठ बैठकों के बाद एक समझौते पर पहुंचा गया जिस पर 5 मार्च, 1931 को हस्ताक्षर किए गए। गांधी-इरविन समझौते के नाम से जाने गए इस समझौते ने इतिहास में भारत-ब्रिटिश संबंधों को एक नया मोड़ प्रदान किया। समझौते के अनुसार, ��जनअसहयोग आंदोलन प्रभावपूर्ण तरीके से रोका जाएगा और सरकार द्वारा इसके प्रत्युत्तर में आवश्यक कार्यवाही की जाएगी।�� विदेशी माल के बहिष्कार के संबंध में जहां सरकार भारत की भौतिक दशा सुधारने के लिए आर्थिक और औद्योगिक कार्यक्रम के रूप में भारतीय उद्योग-धंधों को बढ़ावा देगी वहीं मुख्य रूप से राजनीतिक हथियार के रूप में ब्रिटिश माल का प्रयोग नहीं करेगी क्योंकि ऐसा करना गोलमेज सभा की प्रकृति के विरुद्ध होगा। विदेशी शराब और दवाइयों के प्रयोग तथा विदेशी कपड़े की खरीद के विरुद्ध धरना देने की अनुमति देश के सामान्य कानूनों की सीमा के अंदर दी जाएगी��। समझौते के अनुसार ऐसे सभी राजनीतिक बंदियों को छोड़ दिया जाएगा जो हिंसा और उसको भड़काने में शामिल नहीं थे और सभी मुकदमे वापस ले लिए जायेंगे तथा जुर्मानों को वापस किया जाएगा। इसके अतिरिक्त सभी अध्यादेश और अधिसूचनाएं, जो आंदोलन और एसोसिएशनों को गैरकानूनी घोषित करती थी, को वापस ले लिया जाएगा। व्यक्ति के अपने प्रयोग के लिए नमक बनाने की अनुमति भी दी गई थी।

सविनय-अवज्ञा आंदोलन

14, 15 और 16 फरवरी को कार्य- समिति की साबरमती में बैठक हुई। कौंसिलों के जिन मेम्बरों ने इस्तीफे नहीं दिये थे या देकर चुनाव में फिर खड़े हो गये थे उन्हें कहा गया कि या तो वे कांग्रेस की निर्वाचित समितियों की मेम्बरी छोड़ दें, अन्यथा उन पर जाब्ते की कार्रवाई की जायेगी। सरकार ने राजनैतिक कैदियों के साथ सद्व्यवहार करने का आश्वासन दिया था, परंतु सरकार ने इस वचन का पालन नहीं किया। इस पर साबरमती में कार्य-समिति ने खेद प्रकट किया। किंतु इस बैठक का मुख्य प्रस्ताव तो सविनय- अवज्ञा के संबंध में था। वह इस प्रकार था :-

��कार्य-समिति की राय में सविनय-अवज्ञा का आंदोलन उन्हीं लोगों के द्वारा आरंभ ओर संचालित होना चाहिए जिनका पूर्ण- स्वराज्य की प्राप्ति के लिए अहिंसा में धार्मिक विश्वास हो; और चूंकि कांग्रेस के संगठन में सब ऐसे ही स्त्री- पुरुष नहीं हैं बल्कि ऐसे भी लोग शामिल हैं जो अहिंसा को देश की वर्तमान स्थिति में सिर्फ नीति के तौर पर मनाते हैं, इसलिए कार्य-समिति महात्मा गांधी के प्रस्ताव का स्वागत करती है और उन्हें तथा अहिंसा में विश्वास रखने वाले उनके साथियों को अधिकार देती है कि वे जब, जिस तरह और जहां तक उचित समझें सविनय अवज्ञा जारी कर दें। कार्य-समिति को विश्वास है कि जब आंदोलन वस्तुतः चल रहा होगा उस समय सारे कांग्रेसवादी और दूसरे लोग सब तरह से सत्याग्रहियों को पूर्ण सहयोग देंगे और बड़ी से बड़ी उत्तेजना के समय भी संपूर्ण अहिंसा का पालन और रक्षण करेंगे। कार्य-समिति को यह भी आशा है कि आंदोलन के सर्व-साधारण में फैल जाने पर वकील आदि लोग जो सरकार के साथ स्वेच्छापूर्वक सहयोग कर रहे हैं, और विद्यार्थीगण जो सरकार से कथित लाभ उठा रहे हैं, वे सब यह सहयोग और यह लाभ छोड़ देंगे और स्वतंत्रता के अंतिम संग्राम में कूद पडेंगे।

��कार्य-समिति को विश्वास है कि नेताओं के गिरफ्तार और कैद हो जाने पर जो लोग पीछे रह जायेंगे और जिनमें त्याग और सेवा की भावना है वे अपनी योग्यता के अनुसार कांग्रेस के काम और आंदोलन को जारी रखेंगे।

जाब्ते के इस प्रस्ताव से भी पहले गांधीजी ने कुछ चुने हुए आमंत्रित मित्रों के साथ जो खनगी बातचीत की थी वह ज्यादा महत्वपूर्ण थी। उसमें एकमात्र विषय नमक था; अर्थात्‌ नमक का कानून कैसे तोड़ा जाये।

नमक कानून भंग

परंतु सविनय अवज्ञा शुरू करें तो कैसे? गांधीजी के इरादे पहले ही जाहिर हो गये थे। बम्बई में ये समाचार पहुंच चुके थे और कार्य-समिति की साबरमती की बैठक से पहले ही पहुंच चुके थे कि नमक के ढेरों पर धावा बोला जायेगा। 14 फरवरी से पहले ही बंबई में प्रचार-कार्य भी शुरू हो गया। नमक-कर का इतिहास खोद निकाला गया। मालूम हुआ कि 1836 में एम नमक-कमीशन बैठा था और उसने भारत में अंग्रेजी नमक की ब्रिकी की खातिर भारतीय नमक पर कर लगाने की सिफारिश की थी। लिवरपूल बंदर में माल के बिना जहाज खाली पड़े थे और अशांत समुद्र पर वे तब तक चल नहीं सकते थे जब तक कि आवश्यक भार को पूरा करने के लिए भी कोई माल उन पर लदा न हो। इसलिए कुछ माल, कुछ भार, कुद वजन तो उन्हें लाना ही पड़ता था। कुछ समय तक तो उनमें लंदन के समुद्र-तट की रेत भर कर आती रही, इसी से कलकत्ते की चौरंगी सड़क तैयार हुई। यहां पहले हुगली से कालीघाट-मंदिर तक नहर थी। असल बात यह है कि भारत में सदा से माल आता कम और यहां से जाता अधिक रहा है। 1925 में निर्यात और 316 करोड़ का और आयात 249 करोड़ रुपये का रहा। इतना ही नहीं, निर्यात-माल में अधिकतर खाद्य- पदार्थ और कच्चा माल होने के कारण वह जगह अधिक घेरता है। सब बातों को ध्यान में रखकर देखा जाये तो निर्यात-माल को ले जाने के लिए आयात-माल लाने की अपेक्षा कम-से-कम पांच गुने जहाजों की जरूरत तो अवश्य होती है। अर्थात्‌ भारत में आने वाले जहाजों को खाली आना पड़ता था। भारतीय व्यापार के लिए आवश्यक जहाजों में 75 फीसदी अंग्रेजी जहाज होते हैं। इसलिए भारत में आने वाले जहाजों को अपना भार पूरा करने के लिए भी कुछ-न- कुछ अंग्रेजी माल लाना जरूरी होता है। इसके लिए चेशायर के नमक से अच्छी चीज और क्या होती? हां, अखबारों की रद्दी और चीनी के टुकड़े आदि चीजें भी लाई जाती हैं। इटली के जहाज अपना भार पूरा करने को इटली का संगमरमर और आलू लाते हैं। यही कारण है कि ये वस्तुयें भारतीय पैदावार से सस्ती पड़ जाती हैं।

साबरमती की बैठक के बाद थोड़े दिनों में वातावरण में नमक-ही- नमक से व्याप्त हो गया। लोग पूछने लगे, क्या बनाया हुआ नमक पड़ता खायेगा? सरकारी- कर्मचारी और भी आगे बढ़े। डन्होंने समुद्र के पानी से नमक बनाने के ईंधन और मजदूरी का हिसाब लगाकर बताया कि नमक-कर से तिगुना खर्च नमक बनाने में लगता है। ये बेचारे यह न समझ सके कि यह संग्राम भौतिक नहीं नैतिक था।

प्रस्तुत नमक- सत्याग्रह का विकास होने वाला था। गांधीजी किसी नमक के क्षेत्र में जाकर नमक उठावेंगे। दूसरे नहीं उठावेंगे। अगर कोई पूछता, �क्या हाथ-पर- हाथ धरे बैठे रहें?� तो यही उत्तर मिलता - �अवश्य। परंतु, मैदान में उतरने के लिए तैयार रहो।� उन्हें तो आशा थी कि परिणाम तत्काल होगा। बल्लभभाई तक को कूच में साथ न ले गये। केवल साबरमती-आश्रम के निवासियों को ही उन्होंने साथ में लिया। वर्धा- आश्रमवालों को भी तैयारी करने और गांधीजी की गिरफ्तारी तक ठहरे रहने का आदेश मिला। फिर तो एक साथ भारत-भर में लड़ाई शुरू होने वाली ही थी। गांधीजी की गिरफ्तारी के बाद लोग जो चाहते वह करने को स्वतंत्र थे। उन्हें दीख गया था कि उनके बाद भारत में सर्वत्र यह आंदोलन फैल जायेगा और खूब जोर पकड़ लेगा। या तो जीत ही होगी या मर मिटेंगे। परंतु जिस राष्ट्र ने अंग्रेजों का कभी बुरा नहीं चाहा उसे वे नेस्तनाबूद नहीं कर सकते थे। ऐसा होने पर तो साम्राज्य तक की जड़े हिल जातीं। अहिंसा पर अटल रहने का और कोई परिणाम हो ही नहीं सकता। लोग यदि यह पूछते कि यदि निर्दोष-स्त्री पुरुष और बच्चों को जमींदोज कर दिया जाय तो उनहीं की खाक में से साम्राज्य भस्म करने वाली अग्नि-प्रज्वलित होगी।

गांधी-इर्विन समझौता

��सर्व-साधारण की जानकारी के लिए कौंसिल-सहित गवर्नर- जनरल का निम्न वक्तव्य प्रकाशित किया जाता हैः-

1. वाइसराय और गांधीजी के बीच जो बातचीत हुई उसके परिणामस्वरूप, यह व्यवस्था की गई है कि सविनय-अवज्ञा- आंदोलन बंद हो, और सम्राट सरकार की सहमति से भारत-सरकार तथा प्रान्तीय सरकारें भी अपनी तरफ से कुछ कार्रवाई करें।

2. विधान संबंधी प्रश्न पर, सम्राट- सरकार की अनुमति से, यह तय हुआ कि हिन्दुस्तान के वैध-शासन की उसी योजना पर विचार किया जाएगा जिस पर गोलमेज- परिषद में पहले विचार हो चुका है। वहां जो योजना बनी थी, संघ- शासन उसका एक अनिवार्य अंग है; इसी प्रकार भारतीय- उत्तरदायित्व और भारत के हित की दृष्टि से रक्षा (सेना), वैदेशिक मामले, अल्पसंख्यक जातियों की स्थिति, भारत की आर्थिक साख और जिम्मेदारियों की अदायगी जैसे विषयों के प्रतिबंध या संरक्षण भी उसके आवश्यक भाग हैं।

3. 19 जनवरी 1931 के अपने वक्तव्य में प्रधानमंत्री ने जो घोषणा की है उसके अनुसार, ऐसी कार्रवाई की जाएगी जिससे शासन सुधारों की योजना पर आगे जो विचार हो उसमें कांग्रेस के प्रतिनिधि भी भाग ले सकें।

4. यह समझौता उन्हीं बातों के संबंध में है, जिनका सविनय अवज्ञा-आंदोलन से सीधा संबंध है।

5. सविनय अवज्ञा अमली रूप से बंद कर दी जाएगी और (उसके बदले में) सरकार अपनी तरफ से कुछ कार्रवाई करेगी। सविनय अवज्ञा-आंदोलन को अमली तौर पर बंद करने का मतलब है उन सब हलचलों को बंद कर देना, जोकि किसी भी तरह उसको बल पहुंचाने वाली हों - खासकर नीचे लिखी हुई बातें -
1. किसी भी कानून की धाराओं का संगठित भंग।
2. लगान और अन्य करों की बंदी का आंदोलन।
3. सविनय अवज्ञा- आंदोलन का समर्थन करने वाली खबरों के परचे प्रकाशित करना।
4. मुल्की और फौजी (सरकारी) नौकरियों को या गांव के अधिकारियों को सरकार के खिलाफ अथवा नौकरी छोड़ने के लिए आमादा करना।

6. जहां तक विदेशी कपड़ों के बहिष्कार का संबंध है, दो प्रश्न उठते हैं - एक तो बहिष्कार का रूप और दूसरा बहिष्कार करने के तरीके। इस विषय में सरकार की नीति यह है - भारत की माली हालत को तरक्की देने के लिए आर्थिक और व्यावसायिक उन्नति के हितार्थ जारी किए गए आंदोलन के अंग-रूप भारतीय कला-कौशल को प्रोत्साहन देने में सरकार की सहमति है और इसके लिए किए जाने वाले प्रचार, शांति के समझाने-बुझाने व विज्ञापनबाजी के उन उपायों में रुकावट डालने का उसका कोई इरादा नहीं है जो किसी की वैयक्तिक- स्वतंत्रता में बाधा उपस्थित न करें और जो कानून व शांति की रक्षा के प्रतिकूल न हों। लेकिन विदेशी माल का बहिष्कार (सिवा कपड़े के, जिसमें सब विदेशी कपड़े शामिल हैं) सविनय अवज्ञा- आंदोलन के दिनों में - संपूर्णतः नहीं तो भी प्रधानतः- ब्रिटिश माल के विरुद्ध ही लागू किया गया है और वह भी निश्चित रूप से राजनैतिक उद्देश्य की सिद्धि के लिए दबाव डालने की गरज से।

यह मानी हुई बात है कि इस तरह का इस उद्देश्य से किया जाने वाला बहिष्कार ब्रिटिश-भारत, देशी राज्य, सम्राट की सरकार और इंग्लैण्ड के विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच होने वाली स्पष्ट और इस समझौते का प्रयोजन है, अनुकूल न होगा। इसलिए यह बात तय पाई है कि सविनय अवज्ञा-आंदोलन बंद करने में ब्रिटिश के बहिष्कार की राजनीतिक-शास्त्र के तौर पर काम में लाना निश्चित रूप से बंद कर देना भी शामिल है; और इसलिए आंदोलन के समय में जिन्होंने ब्रिटिश माल की खरीद- फरोख्त बंद कर दी थी, वे यदि अपना निश्चित बदलना चाहें तो अबाध रूप से उन्हें ऐसा करने दिया जाएगा।

7. विदेशी माल के स्थान पर भारतीय माल का व्यवहार करने और शराब आदि नशीली चीजों के व्यवहार को रोकने के लिए काम में लाये जाने वाले उपायों के संबंध में तय हुआ हे कि ऐसे उपाय काम में नहीं लाए जाएंगे कि जिनसे कानून की मर्याद भंग होती हो। पिकेटिंग उग्र न होगा और उसमें जबरदस्ती, धमकी, रुकावट डालने, विरोधी प्रदर्शन करने, सर्वसाधरण के कार्य में खलल डालने या ऐसे किसी उपाय को ग्रहण नहीं किया जाएगा जो साधारण-कानून के अनुसार जुर्म हो। यदि कहीं इन उपायों से काम लिया गया तो वहां की पिकेटिंग तुरंत मौकूफ कर दी जाएगी।

8. गांधीजी ने पुलिस के आचरण की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित किया है और इस संबंध में कुछ स्पष्ट अभियोग भी पेश किए हैं, जिनकी सार्वजनिक जांच कराई जाने की उन्होंने इच्छा प्रकट की है। लेकिन मौजूदा परिस्थिति में सरकार को ऐसा करने में बड़ी कठिनाई दिखाई पड़ती है और उसको ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसा किया गया तो उसका लाजिमी नतीजा यह होगा कि एक-दूसरे पर अभियोग-प्रति- अभियोग लगाए जाने लगेंगे, जिससे पुनः द्याांति स्थापित होने में बाधा पड़ेगी। इन बातों का खयाल करके, गांधीजी इस बात पर आग्रह न करने के लिए राजी हो गए हैं।

9. सविनय अवज्ञा- आंदोलन के बंद किए जाने पर सरकार जो-कुद करेगी वह इस प्रकार हे-

10. सविनय अवज्ञा- आंदोलन के सिलसिले में जो विषेच्च कानून (आर्डिनेंस) जारी किए गए हैं वे वापस ले लिए जाएंगे।

आर्डिनेंस नं0 1 (1931), जो कि आतंकवादी-आंदोलन के संबंध में है, इस धारा के कार्य-क्षेत्र में नहीं आता है।

11. 1908 के क्रिमिनल-लॉ- अमेण्डमेण्ट-एक्ट के मातहत संस्थाओं को गैर कानूनी करार देने के हुक्म वापस ले लिए जाएंगे, बषर्ते कि वे सविनय अवज्ञा-आंदोलन के सिलसिले में जारी किए गए हों।

बर्मा की सरकार ने हाल में क्रिमिनल-लॉ- अमेण्डमेण्ट-एक्ट के मातहत जो हुक्म जारी किया है वह इस धारा के कार्य-क्षेत्र में नहीं आता।

12. 1. जो मुकदमे चल रहे हैं उन्हें वापस ले लिया जाएगा, यदि वे सविनय अवज्ञा-आंदोलन के सिलसिले में चलाए गए होंगे और ऐसे अपराधों से संबंधित होंगे जिनमें हिंसा सिर्फ नाम के लिए होगी या ऐसी हिंसा को प्रोत्साहन देने की बात हो।

2. यही सिद्धांत जाब्ता-फौजदारी की जमानती धाराओं के मातहत चलने वाले मुकदमों पर लागू होगा।

3. किसी प्रान्तीय सरकार ने वकालत करने वालों के खिलाफ सविनय अवज्ञा- आंदोलन के सिलसिले में �लीगल प्रैक्टिषनर्स एक्ट� के अनुसार मुकदमा चलाया होगा या इसके लिए हाईकोर्ट में दरख्वास्त की होगी तो वह संबंधित देगी, बषर्ते कि संबंधित व्यक्ति का कथित आचरण हिंसात्मक या हिंसा को उत्तेजन देने वाला न हो।

4. सैनिकों या पुलिस वालों पर चलने वाले हुक्म-उद्ली के मुकदमें, अगर कोई हों, इस धारा के कार्य- क्षेत्र में नहीं आएंगे।

13. 1. वे कैदी छोड़े जाएंगे, जो सविनय अवज्ञा-आंदोलन के सिलसिले में ऐसे अपराधों के लिए कैद भोग रहे होंगे जिनसे नाम- मात्र की हिंसा को छोड़कर किसी प्रकार की हिंसा या हिंसा के लिए उत्तेजना का समावेष न हो।

2. पूर्वोक्त 1. क्षेत्र में आने वाले किसी कैदी को यदि साथ में जेल का कोई ऐसा अपराध करने के लिए भी सजा हुई होगी कि जिसमें नाम-मात्र की हिंसा को छोड़कर और किसी प्रकार हिंसा या अहिंसा के लिए उत्तेजना का समावेष न हो तो वह सजा भी रद्द कर दी जाएगी, या यदि इस अपराध-संबंधी कोई मुकदमा चल रहा होगा तो वह वापस ले लिया जाएगा।

3. सेना या पुलिस के जिन आदमियों को हुक्म- उदूली के अपराध में सजा हुई है-जैसा कि बहुत कम हुआ है - वे इस माफी के क्षेत्र में नहीं आएंगे।

14. जुर्माने जो वसूल नहीं हुए हैं, माफ कर दिए जाएंगे। इसी प्रकार जाब्ता- फौजदारी की जमानती धाराओं के मातहत निकाले हुए जमानत-जब्ती के हुक्म के बावजूद जो जमानत वसूल नहीं हुई होंगी उन्हें भी माफ कर दिया जाएगा।

15. सविनय अवज्ञा- आंदोलन के सिलसिले में किसी खास स्थान के बाषिन्दों के खर्चे पर जो अतिरिक्त-पुलिस तैनात की गई होगी उसे प्रान्तिक सरकारों के निष्चय पर उठा लिया जाएगा। इसके लिए वसूल की गई रकम, असली खर्चे से ज्+यादा हो तो भी लौटाई नहीं जाएगी, लेकिन जो कम रकम वसूल नहीं हुई है वह माफ कर दी जाएगी।

16. अ. वह चल-सम्पत्ति जो गैर-कानूनी नहीं है और जो सविनय अवज्ञा- आंदोलन के सिलसिले में आर्डिनेन्सों या फौजदारी-कानून की धाराओं के मातहत अधिकृत की गई है, यदि अभी तक सरकार के कब्जे में होगी तो लौटा दी जाएगी।

ब. लगान या अन्य करों की वसूली के सिलसिले में जो चल-संपत्ति जब्त की गई है वह लौटा दी जाएगी, जब तक कि जिले के कलेक्टर के पास यह विश्वास करने का कारण न हो कि बकैयादार अपने जिम्मे निकलती हुई रकम को उचित अवधि के भीतर-भीतर चुका देने से जानबूझ कर हीला- हवाला करेगा। यह निर्णय करने में कि उचित क्या है, उन मामलों का खास खयाल रखा जाएगा। जिनमें देनदार लोग रकम अदा करने के लिए राजी होंगे पर सचमुच उन्हें उसके लिए समय की आवश्यकता होगी, और जरूरत हो तो उनका लगान-व्यवस्था के सामान्य सिद्धांतों के अनुसार मुल्तवी कर दिया जाएगा।

स. नुकसान की भरपाई नहीं की जाएगी।

द. जो चल-संपत्ति बेच दी गई होगी या सरकार- द्वारा अंतिम रूप से जिसका भुगतान कर दिया होगा, उसके लिए हरजाना नहीं दिया जायेगा और न उसकी बिक्री से प्राप्त होने वाली रकम उस रकम से ज्यादा हो जिसकी वसूली के लिए संपत्ति बेची गई हो।

इ. संपत्ति की जब्ती या उस पर सरकारी कब्जा कानून के अनुसार नहीं हुआ है, इस बिना पर कानूनी कार्रवाई करने की हरेक व्यक्ति को छूट रहेगी।

17. अ. जिस अचल-संपत्ति पर 1930 के नवें आर्डिनेन्स के मातहत कब्जा किया गया है, उसे आर्डिनेन्स के अनुसार लौटा दिया जाएगा।

ब. जो जमीन तथा अन्य अचल-संपत्ति लगान या करों की वसूली के सिलसिले में जब्त या अधिकृत की गई है और सरकार के कब्जे में है वह लौटा दी जाएगी, बशर्ते की जिले के कलेक्टर के पास यह विश्वास करने का कारण न हो कि देनदार अपने जिम्मे निकलती रकम को उचित अवधि के भीतर- भीतर चुका देने से जान-बूझकर हीला- हवाला करेगा। यह निर्णय करने में कि उचित अवधि क्या है, उन मामलों का खयाल रखा जाएगा जिनमें देनदार लोग रकम अदा करने के लिए रजामंद होंगे पर सचमुच उन्हें उसके लिए समय की आवश्यकता होगी, और जरूरत हो तो उनका लगान भी लगान-व्यवस्था के सामान्य-सिद्धांतों के अनुसार मुल्तवी कर दिया जाएगा।

स. जहां अचल-संपत्ति बेच दी गई होगी, जहां तक सरकार से संबंध है, वह सौदा अंतिम समझा जाएगा।

नोट - गांधीजी ने सरकार को बताया है कि जैसी कि उन्हें खबर मिली है कि जैसा कि उनका विश्वास है, इस पर होने वाली बिक्री में कुछ आवश्य ऐसी हैं जो गैर-कानूनी तरीके से और अन्यायपूर्ण हुई हैं। लेकिन सरकार के पास इस संबंधी जो जानकारी है उसे देखते हुए वह इस धारणा को मंजूर नहीं कर सकती।

द. संपत्ति की जब्ती या उस पर सरकारी कब्जा कानून के अनुसार नहीं हुआ हे, इस बिना पर कानूनी कार्रवाई करने की हरेक व्यक्ति को छूट रहेगी।

18. सरकार का विश्वास है कि ऐसे मामले बहुत कम हुए हैं जिनमें वसूली कानून की धाराओं के अनुसार नहीं की गई है। ऐसे मामलों के लिए, अगर कोई हों, प्रान्तिक जिला-अफसरों के नाम हिदायतें जारी करेंगी कि स्पष्ट रूप से इस तरह की जो शिकायत सामने आए उसकी वे तुरंत जांच करें और अगर यह साबित हो जाए कि गैर-कानूनीपन हुआ है तो अविलम्ब उसको रफा- दफा करें।

19. जिन लोगों ने सरकारी नौकरियों से इस्तीफे दिए हैं, उनके रिक्त-स्थानों की जहां स्थायी-रूप से पूर्ति हो चुकी होगी वहां सरकार पुराने (इस्तीफा देने वाले) व्यक्ति को पुनः नियुक्त नहीं कर सकेगी। इस्तीफा देने वाले अन्य लोगों के मामलों पर उनके गुण-दृष्टि से प्रान्तीय सरकारें विचार करेंगी, जो फिर से नियुक्ति की दरख्वास्त करने वाले सरकारी कर्मचारियों व ग्रामीण अधिकारियों की पुनः नियुक्ति के बारे में उदार-नीति से काम लेंगी।

20. नमक-व्यवस्था- संबंधी मौजूदा कानून के भंग को गवारा करने के लिए सरकार तैयार नहीं है, न देश की वर्तमान आर्थिक परिस्थिति को देखते हुए नमक-कानून में ही कोई खास तबदीली की जा सकती है।

परंतु जो लोग ज्यादा गरीब हैं उनके सहायतार्थ, इस संबंध में लागू होने वाली धाराओं को वह (सरकार) इस तरह विस्तृत कर देने को तैयार है, जैसा कि अभी भी कई जगह हो रहा है, जिससे जिन स्थानों में नमक बनाया या इकट्ठा किया जा कसता है उनके आसपास के इलाकों के गांवों के बाशिंदे वहां से नमक ले सकेंगे; लेकिन यह सिर्फ उनके अपने उपयोग के लिए होगा, बेचने या बाहर के लोगों के साथ व्यापार करने के लिए नहीं।

21. यदि कांग्रेस इस समझौते की बातों पर पूरी तरह अमल न कर सकी तो, उस हालत में, सरकार वह सब कार्रवाई करेगी, जो उसके परिणामस्वरूप, सर्व-साधारण तथा व्यक्तियों के संरक्षण एवं कानून और व्यवस्था के उपयुक्त परिपालन के लिए आवश्यक होगी।��

गोलमेज परिषद

गांधीजी ने लंदन में वेस्ट-एण्ड की अपेक्षा ईस्ट-एण्ड को, ब्रिटिश सरकार के आतिथ्य की अपेक्षा मिस म्यूरियल लिस्टर के आतिथ्य को, और धनी लोगों की संगति की अपेक्षा दरिद्रों की संगति को, अधिक पसंद किया था। �चचा गांधी� - हिंदुस्तानी चप्पल के सिवा नंगे पैर, कमीज भी नदारद, सिर्फ चादर ओढ़े हुए - ईस्ट-एण्ड के बालकों में इतने प्रिय हो गये थे कि वे प्रति दिन प्रातः काल आकर उनको घेर लेते थे। गांधीजी और उनकी शाम प्रार्थनायें, लंकाशायर के मजदूरों के एक समान अतिथि के रूप में गांधीजी, गांधीजी और उनकी ब्रिटिश- सम्राट से अपनी मामूली पोशाक में भेंट - ये सब ऐसी बातें हैं जिनका कांग्रेस के इतिहास में कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं है, लेकिन जो भारतीयों के लिए बहुत दिलचस्पी की हैं, जो जीवन को अविभाज्य मानते हैं कि जीवन विभिन्न विभागों में - जैसा कि आजकल समझने की प्रथा चल पड़ी है - नहीं बांटा जा सकता है।

गोलमेज-परिषद में गांधीजी एक ऐसे व्यक्ति थे जिनकी ओर हमारा ध्यान गये बिना नहीं रह सकता। फेडरल स्ट्रक्चर कमेटी में दिये गये उनके भाषण को लंदन में दिये गये उनके अन्य भाषणों की उत्तम भूमिका कह सकते हैं। उन्होंने कांग्रेस, उसका इतिहास, उसकी रचना, उसके साधन, उसके उद्देश्य आदि सबका संक्षिप्त परिचय नपे-तुले शब्दों में दिया। कोई बात छूटने न पाई। उन्होंने कांग्रेस के जन्मकालीन सहायक और पालन-पोषणकर्ता मि0 ए0 ओ0 ह्यूम के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित की। उन्होंने कांग्रेस व सरकार तथा कांग्रेस तथा अन्य दलों के आधारभूत भेदों का निर्देश किया। उन्होंने करांची का प्रस्ताव पढ़कर उसकी व्याख्या की। उन्होंने यह भी बताया कि प्रधानमंत्री का वक्तव्य केंद्रीय उत्तरदायित्व, संघ तथा भारतीय हितों की दृष्टि से संरक्षण, इन तीन किरणों से चित्रित भारतीय ध्येय से बहुत कम है। उन्होंने वर्तमान समय की सबसे बड़ी आवश्यकता पर भी - जो केवल राजनैतिक विधान नहीं है, परंतु दो समान राष्ट्रों की भागीदारी की योजना है - विचार प्रकट किये। उन्होंने �ब्रिटिश प्रजाजन� की अपनी पहली स्थिति और �बागी� की आधुनिक स्थिति में, साम्राज्य के और राष्ट्रसमूह (कामनवेल्थ) के आदर्शों में कितना भेद है, यह बताया। उन्होंने आश्वासन दिया कि इंग्लैण्ड के घरेलू संकट में दस्तन्दाजी करने वाले नहीं हैं। लेकिन यह तभी संभव है जब कि इंग्लैण्ड भारत को शक्ति बल से नहीं, बल्कि प्रेमरूपी डोरी से बांधा हुआ रखे। ऐसा भारत इंग्लैण्ड के एक साल के बजट को ही नहीं, कई सालों के बजट को ठीक करने में सहायक सिद्ध होगा।

अल्पसंख्यक-समिति में भाषण देते हुए गांधीजी ने कई खरी बातें पेश कीं। उन्होंने असंदिरध भाषा में यह कहते हुए स्थिति को बिलकुल साफ कर दिया कि विभिन्न जातियों को अपने पूरे बल के साथ अपनी-अपनी मांग पर जो देने के लिए उत्साहित किया गया है। उन्होंने यह भी कहा कि प्रश्न आधार-रूप नहीं है, हमारे सामने मुख्य प्रश्न तो शासन-विधान का निर्माण है। उन्होंने पूछा कि क्या प्रतिनिधियों को अपने घरों से 6000 मील केवल सांप्रदायिक प्रश्न हल करने करने के लिए बुलाया गया है? हमें लंदन में इसलिए निमंत्रित किया गया है कि हमें जाने से पहले यह संतोष हो जाय कि भारत की स्वतंत्रता के लिए हम सम्मान-युक्त व असली ढांचा तैयार कर चुके हैं और अब उस पर केवल पार्लिमेण्ट की स्वीकृति लेनी रह गई है। उन्होंने सर ह्यूबर्ट कार की अल्संख्यक जातियों की योजना की चुटकी लेते हुए कहा कि सर ह्यूबर्ट कार तथा उनके साथियों को इससे जो संतोष हुआ है वह मैं उनसे न छीनूंगा, लेकिन मेरे विचार में उन्होंने जो कुछ किया है वह मुर्दे की चीर-फाड़ जैसा ही है। सरकार की यह योजना उत्तरदायित्व पूर्ण-शासन अर्थात स्वराज्य प्राप्ति के लिए नहीं किंतु नौकरशाही की सत्ता में भाग लेने के लिए ही बनाई गई है। ��मैं उनकी सफलता चाहता हूं��, उन्होंने कहा -��लेकिन कांग्रेस इससे बिलकुल अलग रहेगी। किसी ऐसे प्रस्ताव या योजना पर, जिससे कि खुली हवा में पैदा होने वाला आजादी और उत्तरदायी शासन का वृक्ष कभी पनप न सकेगा, अपनी सहमति प्रकट करने की अपेक्षा कांग्रेस चाहे कितने वर्ष जंगल में भटकना स्वीकार कर लेगी।�� अंत में उन्होंने उस कठिन प्रतिज्ञा के साथ अपना भाषण समाप्त किया, जिस पर कुछ समय बाद उन्होंने अपने जीवन की जान की बाजी लगा दी थी। उन्होंने कहा - ��अस्पृश्य कहे जाने वालों के प्रति एक शब्द और। अन्य अल्पसंख्यक जातियों के भावों को मैं समझ सकता हूं, लेकिन अछूतों की ओर से पेश किया गया दावा तो मेरे लिए सबसे अधिक निर्दय घाव है। इसका अर्थ यह हुआ कि अस्पृश्यता का कलंक निरंतर रहेगा।...हम नहीं चाहते कि अस्पृश्यों का एक पृथक जाति के रूप में वर्गीकरण किया जाये। सिक्ख सदैव के लिए सिक्ख, मुसलमान हमेशा के लिए मुसलमाल और ईसाई हमेशा के लिए ईसाई रह सकते हैं। लेकिन क्या अछूत भी सदा के लिए अछूत रहेंगे? अस्पृश्यता जीवित रहे, इसकी अपेक्षा मैं यह अधिक अच्छा समझूंगा कि हिन्दू- धर्म ही डूब जाये। जो लोग अछूतों के राजनैतिक अधिकारों की बात करते हैं वे भारत को नहीं जानते, और हिन्दू-समाज का निर्माण किस प्रकार हुआ है, यह भी नहीं जानते। इसलिए मैं अपनी पूरी शक्ति के साथ यह कहता हूं कि इस बात का विरोध करने वाला यदि सिर्फ मैं ही अकेला होऊं तो भी, अपने प्राणों की बाजी लगा कर भी, मैं इसका विरोध करूंगा।

गांधीजी प्रधानमंत्री को पंच बनाने के विरोध नहीं थे, बशर्ते कि उनका निर्णय केवल मुसलमानों और सिक्खों तक सीमित हो। अन्य जातियों के पृथक प्रतिनिधित्व से वह सहमत न थे। प्रधानमंत्री ने इस विषय पर एक सीधा- सादा सवाल किया -��क्या आप, आपमें से प्रत्येक - कमेटी का प्रत्येक सदस्य - साम्प्रदायिक समस्या का हल निकालने और उससे अपने को बाधित मानने के लिए मेरे पास प्रार्थना-पत्र भेजेंगे? मेरा खयाल है कि यह बहुत अच्छा प्रस्ताव है।��

गांधीजी का रुख

18 नवंबर, 1931 तक मंत्रिमण्डल गोलमेज-परिषद से ऊब चुका था। गांधीजी ने कहा कि जरूरत हुई तो मैं इंग्लैण्ड में अधिक समय तक ठहरने का भी विचार रखता हूं, क्योंकि मैं तो लंदन ही इसलिए हूं कि सम्मान-युक्त समझौते का प्रत्येक संभव उपाय खोजने का प्रयत्न करूं। उन्होंने जोर के साथ यह कहा कि कांग्रेस उत्तरदायी-शासन से आने वाली सब प्रकार की जिम्मेवारियों को - रक्षा का पूर्ण अधिकार और वैदेशिक मामले तक - आवश्यक हेर-फेर और व्यवस्था के साथ अपने कंधों पर उठाने के योग्य है। उन्होंने इसका भी निर्देश किया कि भारत की सेना वस्तुतः देश पर अधिकार जमाये रखने के लिए है। उसके सैनिक चाहे किसी जाति के हों, मेरे लिए सब विदेशी है; क्योंकि मैं उनसे बोल नहीं सकता, वे खुले तौर पर मेरे पास आ नहीं सकते, और उन्हें यह सिखाया जाता है कि वे कांग्रेसियों को अपना देश-भाई न समझें। ��इन सैनिकों और हमारे बीच एक पूरी दीवार खड़ी कर दी गई है।�� ��अंग्रेजी सेना वहां पर अंग्रेजों के स्वार्थों की रक्षा के लिए, विदेशियों के हमलों को रोकने के व आंतरिक विद्रोह के दमन के लिए रखी गई है। वस्तुतः केवल अंग्रेजी फौज के ही नहीं, संपूर्ण सेना (भारतीय सेना) रखने के भी यही हेतु हैं। लेकिन अंग्रेजी फौज के हिन्दुस्तान में रखने का उद्देश्य इन विभिन्न सैनिकों में संतुलन रखना है। संपूर्ण सेना पर पूरा-पूरा भारतीय अधिकार होना चाहिए। लेकिन मैं यह भी जानता हूं कि वह सेना मेरा आदेश नहीं मानेगी, न प्रधान- सेनापति और न सिक्ख या राजपूत ही मेरी आज्ञा मानेंगे, ��किंतु फिर भी मैं आशा करता हूं कि ब्रिटिश-जनता की सद्भावना से मैं अपने आदेश और आज्ञा का पालन उनसे करा सकने को पूर्ण न करा सकूंगा; लेकिन जब तक मेरा स्वप्न पूरा न होगा, फौज पर अधिकार न पा सका तो जिंदगी भर इसके पूर्ण होने की प्रतीक्षा करूंगा। भारत अपनी रक्षा करना जानता है। मुसलमान, गुरखे, सिक्ख और राजपूत हिन्दुस्तान की हिफाजत कर सकते हैं। राजपूत तो ग्रीमस की एक छोटी-सी थर्मापोली नहीं, हजारों थर्मापोलियों के जन्मदाता कहे जाते हैं।

गांधीजी ने कहा कि कांग्रेस ही एकमात्र ऐसी संस्था है जो सांप्रदायिकता से दूर है। इसका मंच सबके लिए - जाति, वर्ण और धर्म भेदभाव-खयाल किये बिना - एकसा खुला है। इसका ध्येय बहुत ऊंचा है, इसलिए यह संभव है कि कुछ लोग इसके पास न आते हों; लेकिन कांग्रेस उन्नतिशील संस्था है; दूर-दूर गांवों में इसका प्रचार हो रहा है। फिर भी इसे अनेक दलों में से एक दल माना गया है। लेकिन यह भी याद कर लेना चाहिए कि यही एकमात्र ऐसी संस्था है, जिससे किया फैसला कारआदम हो सकता है। क्योंकि यह सांप्रदायिक पक्षपात से ऊपर उठी हुई संस्था है। कुछ लोग अनुभव कर रहे थे कि कांग्रेस मुकाबले की सरकार चलाने की कोशिश कर रही है। अच्छा। यदि कांग्रेस हत्यारे के छुरे, जहरीले प्याले, गोलियों और भालों के मार्ग को छोड़कर अहिंसापूर्वक मुकाबले की सरकार चला सकती है, तो इसमें बुरा ही क्या है? यह ठीक है कि कलकत्ता-कारपोरेशन पर एक लांछन लगाया गया था, परंतु यह मानना पड़ेगा कि ज्योंकि उस बात के संबंध में मेयर का ध्यान आकर्षित किया गया, उन्होंने अपनी भूल स्वीकार कर ली और उस संबंध में यथोचित परिमार्जन भी किया था। कांग्रेस हिंसा नहीं, अहिंसा को मानती है; इसलिए सविनय अवज्ञा- आन्दोलन जारी किया गया। इसे भी तो सरकार ने बरदाश्त नहीं किया। परंतु उसका मुकाबला भी नहीं किया जा सकता था - स्वयं जनरल स्मट्स भी नहीं कर सके। 1908 में जो भारतीयों को देने से इंकार किया जाता था, 1914 में वही दे देना पड़ा। बोरसद व बारडोली में सत्याग्रह सफल हुआ। लॉर्ड चेम्सफोर्ड भी इसे स्वीकार कर चुके हैं। इंग्लैण्ड में प्रोफेसर गिलबर्ट मरे जैसे कुछ आदमी भी हैं, जो मुझे कहते हैं कि आप यह खयाल न करें कि भारतीयों को कष्ट- सहन करना पड़ता है अंग्रेज लोग दुःखी नहीं होते। लॉर्ड चेम्सफोर्ड भी इसेस्वीकार कर चुके हैं। इंग्लैण्ड में प्रोफेसर गिलबर्ट मरे जैसे कुछ आदमी भी हैं, जो मुझे कहते हैं कि आप यह खयाल न करें कि भारतीयों को कष्ट-सहन करना पड़ता है अंग्रेज लोग दुःखी नहीं होते। लॉर्ड अर्विन ने आर्डिनेन्सों के द्वारा देश को खूब तपाया है, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। ��समय रहते हुए, मैं चाहता हूं, आप समझें कि कांग्रेस का ध्येय क्या है। स्वतंत्रता इसका ध्येय है, चाहे फिर आप इसको कोई भी नाम दें।�� दिक्कत तो यही है कि यहां कोई एक मत नहीं और न परिषद ने शब्दों और भावों की निश्चित व्याख्या कर रखी है। जब शब्द विभिन्न लोगों के लिए विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त होने लगते हैं तब किसी एक बात पर आकर टिकना असंभव हो जाता है। एक मित्र ने वेस्टमिनिस्टर के विधान की ओर ध्यान खींचते हुए मुझसे पूछा कि क्या मैंने उपनिवेश शब्द की परिभाषा पर गौर किया है? हां, मैंने किया है। भारत के संबंध में तो वे 1926 की निम्नलिखित आशय की परिभाषा को भी स्वीकार नहीं करना चाहते -

��उपनिवेश वे स्वतंत्र देश हैं, जो ब्रिटिश-साम्राज्य के अंतर्गत हों, उनका दर्जा एक समान हो, घरेलू व बाहरी किसी भी पहलू से वे एक-दूसरे के अधीन न हों, यद्यपि सम्राट के प्रति एक- सम्मान राजभक्ति के सूत्र में परस्पर बंधे हों और और स्वतंत्रतापूर्वक ब्रिटिश-राष्ट्र- समूह (कामनवेल्थ) के सदस्यों में सम्मिलित हुए हों।��

मिश्र इनमें नहीं है। भारत भी उसकी परिधि में न था। अतः गांधीजी को चिंता न थी। वह तो पूर्ण- स्वतंत्रता चाहते थे। एक अंग्रेज राजनीतिज्ञ ने उनसे कहा था कि आपकी पूर्ण स्वतंत्रता का अर्थ क्या है- क्या इंलैण्ड से साझेदारी? हां, दोनों के पारस्परिक हितों के लिए साझेदारी। गांधीजी तो केवल मित्रता चाहते थे। 35 करोड़ जनता के राष्ट्र को हत्यारे के छुरों, जहरीले प्यालों, तलवारों, भालों या गोलियों की आवश्यकता नहीं है। उसे तो अपने संकल्प की जरूरत है; �नहीं� कहने की शक्ति की आवश्यकता है। और वह आज �नहीं� कहना सीख रहा है। संरक्षणों का जिक्र करते हुए गांधीजी ने कहा कि ��मुझे तीन विशेषज्ञों ने बताया है कि जहां देश की 80 फीसदी आय इस तरह गिरवी रख दी गई है, जिसके कि वापस आने की कोई संभावना नहीं, वहां किन्हीं उत्तरदायी मंत्रियों के लिए शासन-तंत्र चलाना असंभव है। मैं भारत के अनुचित कानूनी हितों की रक्षा नहीं चाहता। अकेले भारत के लिए लाभप्रद और ब्रिटिश हितों के लिए हानिकारक संरक्षण भी मैं नहीं चाहता। जैसे सर सेम्युअल होर और मैं संरक्षणों पर सहमत नहीं हो सकते, वैसे ही श्री जयकर और मैं भी इस पर सहमत नहीं हुए। भारत अनेक समस्याओं को - प्लेग, मलेरिया, सांप, बिच्छू और शेरों की समस्याओं को - पार कर गया है। वह घबरा नहीं जायेगा। परमात्मा के नाम पर मुझ 62 साल के दुबले- पतले आदमी को थोड़ा-सा तो मौका दो। मुझे और जिस संस्था का मैं प्रतिनिधि हूं, उसके लिए, अपने हृदय के कोने में थोड़ा स्थान तो बनाओ। यद्यपि आप मुझ पर विश्वास करते प्रतीत होते हैं, तथापि कांग्रेस पर अविश्वास करते हैं। परंतु एक क्षण के लिए भी आप मुझे उस महान संस्था से भिन्न न समझिए जिसमें कि मैं तो समुद्र की एक बूंद के समान हूं। मैं कांग्रेस से बहुत दोटा हूं। और यदि आप मुझ पर विश्वास कर मुझे कोई जगह दें, तो मैं आपको आमंत्रित करता हूं कि आप कांग्रेस पर भी विश्वास कीजिए, अन्यथा मुझ पर आपका जो विश्वास है वह किसी काम का नहीं; क्योंकि कांग्रेस से जो अधिकार मुझे मिला है उसके सिवा मेरे पास कोई अधिकार नहीं। यदि आप कांग्रेस की प्रतिष्ठा के अनुकूल काम करेंगे, तो आप आतंकवाद को नमस्कार कर लेंगे। तब आपको उसे दबाने के लिए अपने आतंकवाद की कोई जरूरत न रहेगी। आज तो आपको अपने व्यवसति और संगठित आतंकवाद के द्वारा वहां पर विद्यमान आतंकवाद से लड़ना है; क्योंकि आप वास्तविकता से अथवा ईश्वरी संकेत से अपरिचित हैं। क्या आप उस संकेत को नहीं देखते, जो ये क्रान्तिकारी अपने रक्त से लिख रहे हैं। क्या आप यह नहीं देखेंगे कि हम आज गेहूं की बनी हुई रोटी नहीं बल्कि आजादी की रोटी चाहते हैं, और जब तक रोटी नहीं मिल जाती, ऐसे हजारों लोग मौजूद हैं, जो इस बात के लिए प्रतिज्ञाबद्ध हैं कि उस वक्त तक न तो खुद शान्ति लेंगे और न देश को चैन से बैठने देंगे?��

समझौते का उल्लंघन

जब कांग्रेस ने अस्थायी संधि की, तब वह इस उम्मीद में थी कि भारत के विभिन्न संप्रदायों में भी एक समझौता हो जाएगा और सरकार भी इस दिशा में हमारी मददगार होगी। लेकिन ये सब उम्मीदें नाकामयाब हुईं। गांधीजी यह अच्छी तरह जानते थे कि यहां हिन्दु-मुस्लिम- समझौता हुए बिना लंदन जाने की बलिस्तबत भारत में रहना अधिक उपयुक्त है। फिर भी, कार्य- समिति 9, 10 और 11 जून 1931 को बैठी और, गांधीजी की इच्छा न होते हुए भी, मुसलमान मित्रों के आग्रह से उसने ऐसा प्रस्ताव स्वीकृत कर दिया :-

��समिति की यह सम्मति है कि दुर्भाग्य से यदि इन प्रयत्नों में सफलता न मिले तो भी कांग्रेस के रुख के संबंध में किसी तरह की गलतफहमी फैलाने की संभावना से बचने के लिए महात्मा गांधी गोलमेज-परिषद में कांग्रेस की ओर से प्रतिनिधित्व करें, यदि वहां कांग्रेस के प्रतिनिधित्व की आवश्यकता हो।��

कार्य-समिति को यह उम्मीद थी कि भारत में नहीं तो इंग्लैण्ड में अवश्य समझौता हो जाएगा।

अस्थायी संधि की शर्तों के पालन के विषय की ओर लौटने से पहले कार्य-समिति की जून मास की बैठक की कार्रवाई का आशय दे देना ठीक होगा। मौलिक-अधिकार-उप- समिति और सार्वजनिक ऋण-समिति की रिपोर्ट आने की मियाद बढ़ा दी गई। मिल के सूत के बने कपड़े के व्यापारियों तथा ऐसे करघों को प्रमाण- पत्र देने की प्रथा को, जो पिछले दिनों बहुत बढ़ गई थी, बंद कर दिया गया। कुछ कांग्रेस- संस्थाएं विदेशी कपड़े के वर्तमान स्टाक को बेचने की इजाजत दे रही थीं। इनको बुरा बताया गया। श्रीनरीमैन से कहा गया कि एक सूची उन कैदियों की तैयार करें जो कि अस्थायी संधि की शर्तों के अंदर नहीं आते हैं, और उसे गांधीजी को पेश करें। कपड़ों के सिवा अन्य वस्तुओं को प्रमाणपत्र देने के लिए एक स्वदेशी बोर्ड बनाया जाने को था। चुनाव के कुछ झगड़ों (बंगाल और दिल्ली) पर भी ध्यान दिया गया।

गांधीजी की चेतावनी

अब हम अस्थायी संधि और उनकी शर्तों के पालन की कहानी पर आते हैं। कांग्रेस की नीति बिलकुल रक्षणात्मक थी। गांधीजी ने सारे देश के कांग्रेसियों को झगड़ा न शुरू करने की पर साथ ही राष्ट्रीय आत्म-सम्मान पर चोट भी न सहने की सख्त चेतावनी दी थी। गांधीजी पस्त-हिम्मती के भारी शैतान को दूर रखना चाहते थे। वह भय और असहायता पर हावी होने का सदा आग्रह करते रहे। उनकी नसीहतों का आशय इस प्रकार है :-

��यदि वे समझौते का सम्मानपूर्वक पालन असंभव कर देते हैं, यदि वे चीजें जो स्वीकृत कर ली गई हैं देने से इंकार कर दिया जाता है, तो यह बात स्पष्टतम चेतावनी है कि हम भी रक्षणात्मक उपाय करने के अधिकारी हैं। जैसे वे मद्रास में कहते हैं - तुम 5 पिकेटरों से अधिक नहीं खड़ा कर सकते। मैं पहले कह चुका हूं - इस समय मान लो; लेकिन इसके बाद हम नहीं मानेंगे, हम प्रत्येक प्रवेश- द्वार पर पांच पिकेटर नियुक्त करेंगे, लेकिन- तुम्हें यह निश्चित रूप से समझ लेना चाहिए कि यह नौ दिन का तमाशा होगा, या तो वे लौट जाएंगे या फिर आगे बढ़ेंगे। हम कोई नई स्थिति अपने-आप पैदा नहीं करते, लेकिन हमें अपनी रक्षा करनी ही चाहिए।

उदाहरण के तौर पर झण्डाभिवादन रोक दिया जाता है तो हम इसे सहन नहीं कर सकते और हमें इस पर जरूर अड़े रहना चाहिए। यदि एक जुलूस रोक दिया जाता है, तो हमें उसके लिए लाइसेन्स की प्रार्थना करनी चाहिए; और यदि वह नहीं दिया जाता, तो हमें जुलूस न निकालने की आज्ञा का उल्लंघन करना चाहिए। लेकिन जहां मासिक झण्डाभिवादन और सार्वजनिक सभा का मामला हो, हमें प्रतीक्षा - इजाजत की प्रतीक्षा न करनी चाहिए और न इसके लिए दरख्वास्त ही देनी चाहिए। हमें असहायता और उससे उत्पन्न होने वाली पस्त-हिम्मती को दूर करना चाहिए।

��करबंदी-आंदोलन के बारे में, तुम इसकी इजाजत दे सकते हो, लेकिन इसे अपने कार्यक्रम में शामिल नहीं कर सकते। वे इसे खुद अपने हाथ में ले लेंगे और अपने मित्रों को भी इस आंदोलन में ले आवेंगे। जब ऐसा होगा, तब आर्थिक प्रश्न बन जाएगा, और जब यह आर्थिक प्रश्न बन जाए, जनता इस आंदोलन की ओर खिंच जाएगी।

जगह-जगह संधि-भंग

सरकार की ओर से बहुत सहानुभूति दिखाई गई और लॉर्ड विलिंगडन ने मीठे शब्दों की भी कमी न रखी। ऐसा कोई कारण न था कि उनके वचनों की सचाई पर संदेह किया जाता। लेकिन यह जानने में अधिक समय न लगा कि वाइसराय की हवाई बातों से जो ऊंची आशाएं की गई थीं, वे सब झूठी हैं। जुलाई के पहले सप्ताह में गांधीजी के दिल में यह संदेह उत्पन्न हो गया था कि क्या यह सब टूट और गिर तो नहीं रहे हैं?

सुलतानपुर, संयुक्तप्रांत में 90 आदमियों पर दफा 107 के ताजीरात हिन्द में मुकदमा चलाया गया था। भवन शाहपुर में ताल्लुकेदार ने किसानों को राष्ट्रीय झण्डा हटा लेने का हुक्म दिया और उनके इंकार करने पर उन्हें हवालात में बिठा दिया। एक जिला-कांग्रेस- कमेटी के सब प्रमुख सदस्यों पर 144 दफा की नोटिस दे दिए गए। मथुरा में एक थानेदार ने सार्वजनिक सभा को जबरदस्ती भंग कर दिया। लखनऊ की एक खबर थी कि उन दिनों 700 मुकदमे चल रहे थे। देश-भर में जिन अध्यापकों व अन्य सरकारी नौकरों से अलग कर दिया गया था, या जिन्होंने स्वयं इस्तीफे दे दिए थे, उन्होंने चाहा कि वे फिर नियुक्त हों, लेकिन कई मामलों में कोई सुनवाई न हुई। कालेजों में दाखिले की इजाजत मांगने वाले विद्यार्थियों से यह वचन लिया गया कि वे भविष्य में किसी आंदोलन में भाग न लेंगे। बिचरी में लारी-भरे पुलिस- सिपाहियों ने कांग्रेसी कार्यकर्त्ताओं के घरों पर छापे मारे, स्त्रियों का अपमान किया और राष्ट्रीय झण्डे जला दिए। बाराबंकी में जिला- मजिस्ट्रेट ने पुलिस इंस्पेक्टरों को 144 धारा वाले कोरे आर्डर अपने दस्तखत करके दे दिए। डिप्टी कमिश्नर ने गांधी-टोपियों को उतरवा दिया और लोगों को गांधी-टोपी न पहनने व कांग्रेस में न जाने की चेतावनी दी गई। संयुक्तप्रान्त के विविध जिलों में यही कहानी दोहराई गई। कुछ ताल्लुकेदारों ने अपने क्रूरतापूर्वक उपायों के द्वारा सरकार को सहयोग का आश्वासन दिया। सशस्त्र पुलिस गांववालों को भयभीत करने लगी। एक जागीर के प्रबंधकर्ता जिलेदार व उसके आदमी ने एक शख्स को पीट-पीट कर मार दिया। किसानों को �मुर्गा� बनाने (मुर्गा बनाकर खड़ा करने) की प्रथा आम बात हो गई। हिसार (पंजाब) के चौताला में और नौशेरा से ताजीरी पुलिस हटाई गई। एक पेंशनयाफ्ता फौजी सिपाही की पेशन जब्त कर ली गई। तरुतन में शांत जुलूस पर लाठी बरसाई गई। छावनियों में राजनीतिक सभाएं बंद कर दी गईं।

बम्बई - अहमदाबाद, अंकलेश्वर और रत्नागिरी जिलों में गैर-लाइसेन्स- शुदा शराब की दुकानों पर और गैर- लाइसेन्स-शुद घण्टों में शान्तिमय पिकेटिंग की आज्ञा नहीं दी गई। कैदी भी नहीं छोड़े गए। बलसाड़ में पांच आदमियों से इसलिए जुरमाने मांगे गए कि सत्याग्रह-संग्राम के दिनों में उन्होंने स्वयंसेवक-कैम्प के लिए अपनी जमीन दे दी थी। जब तक जुरमाना वसूल न हुआ, जमीनें नहीं दी गईं। अस्थायी सन्धि के बहुत दिनों बाद भूल से एक साल्ट- कलेक्टर ने एक नाव बेच दी थी, वह भी वापस नहीं की गई और न मालिकों को कोई मुआवजा दिया गया। नवजीवन-प्रेस नहीं दिया गया। कर्नाटक में पश्चिमी जमीनें तब तक वापस नहीं की गईं, जब तक यह वचन नहीं ले लिया कि आगे वे आंदोलन में भाग न लेंगे। कई पटेल और तलाटी फिर बहाल नहीं किए गए। दो डिप्टी-कमिश्नरों को, जिन्होंने इस्तीफे दे दिए थे पेन्शन नहीं दी गई, यद्यपि लॉर्ड अर्विन वचन दे चुके थे। दो डाक्टरों व एक सुपरवाइजर को बहाल नहीं किया गया। आठ लड़कियों तथा 11 बालकों को सदा के लिए सरकारी स्कूलों से निकाल दिया गया। इसी तरह अंकोला में चार विद्यार्थी निकाल दिए गये। सिरसी व दिसापुर ताल्लुकों में किसानों पर सख्तियां और ज्यादतियां शुरू की थीं - उनकी केवल कृषि- संबंधी कुछ शिकायतें दूर की गईं।

बंगाल में वकीलों व बैरिस्टरों से �आयन्दा ऐसा न करने का� वचन लेने से एक नई परिस्थिति उत्पन्न हो गई। नवें आर्डिनेन्स के मातहत एक जब्त आश्रम वापस नहीं लौटाया गया। गोहाटो में विद्यार्थियों में 50-50 की जमानतें मांगी गईं। जोरहट में सुपरिन्टेण्डेण्ट बार्टली की आज्ञा से 19 जून को प्रभात-फेरी करने वाले लड़के पीटे गए।

दिल्ली - विद्यार्थियों से आगे के लिए वायदे किए गए।

अजमेर-मारवाड़ - कई अध्यापकों को सहायता-प्राप्त स्कूलों में जगह न देने का हुक्म निकाला गया।

मद्रास - 13 जुलाई को एक सरकारी विज्ञप्ति प्रकाशित हुई और अफसरों को भेजी गई कि अस्थायी संधि के शान्तिमय पिकेटिंग में �स्लिकारी साल� पर पिकेटिंग शामिल नहीं है। तंजोर के वकीलों पर शराब की दुकानों की पिकेटिंग न करने के लिए 144 दफा की रू से नोटिस तामील किए गए। पिकेटिंग करते हुए स्वयंसेवकों को ताड़ी की दुकान से 100 गज के अंदर खड़ा रहने की आज्ञा न थी। उन पर बनावटी अभियोग लगाए गए। अनेक स्थानों पर उन्हें पीटा गया और झण्डा व छाता रखने से भी रोका गया।

गांधीजी का ऐतिहासिक उपवास

दूसरी-गोलमेज-परिषद में गांधीजी ने अपना यह निश्चय सुनाया था कि अस्पृश्यों को यदि हिन्दू-जाति से अलग करने की चेष्टा की गई तो मैं उस चेष्टा का अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी मुकाबला करूंगा। अब बांधीजी के उस भीषण व्रत की परीक्षा का अवसर आ पहुंचा था। मताधिकार और निर्वाचन की सीटों का निर्णय करने के लिए, लोथियन-कमेटी, 19 जनवरी को भारत में आ पहुंची थी। समय बीतता चला जा रहा था, रिपोर्ट तैयार हो जायगी। सरकार झटपट काम खत्म करने में दक्ष है ही, और हम लोग इसी तरह जबानी जमा-खर्च करते रहेंगे। इसलिए बहुत सोचने- समझने के बाद, गांधीजी ने भारत- मंत्री सर सेम्युअल होर को 11 मार्च को पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने यह निश्चय प्रकट किया कि यदि सरकार ने अस्पृश्यों या दलित- जातियों के लिए पृथक्‌ निर्वाचन रखा तो मैं आमरण उपवास करूंगा। सर सेम्युअल होर ने अपना उत्तर 13 अप्रैल 1932 को भेजा। यह उत्तर वही पुरानी पत्थर की लकीर का उदाहरण था; लोथियन-कमेटी की प्रतीक्षा की जा रही है; हां, उचित समय पर गांधीजी के विचारों पर भी ध्यान दिया जायेगा। 19 अगस्त को मि0 मैकडानल्ड का निश्चय, जिसे भूल से �निर्णय� के नाम से पुकारा जाता है, सुनाया गया। दलित-जातियों को पृथक निर्वाचन का अधिकार तो मिला ही, साथ ही आम निर्वाचन में भी उम्मीदवारी करने और दुहरे वोट हासिल करने का भी अधिकार दिया गया। दोनों हाथों से उदारतापूर्वक दान दिया गया था। 18 अगस्त को गांधीजी ने अपना निश्चय किया और उस निश्चय से प्रधानमंत्री को सूचित कर दिया। उन्होंने यह भी कहा कि व्रत यानी उपवास 20 सितम्बर (1932) को तीसरे पहर से शुरू होगा। मि0 मैकडानल्ड ने आराम के साथ 8 सितम्बर को उत्तर दिया और 12 सितंबर को सारा पत्र- व्यवहार प्रकाशित कर दिया। प्रधानमंत्री ने गांधीजी को दलित-जातियों के प्रति शत्रुता के भाव रखने वाला व्यक्ति बताना उचित समझा। व्रत 20 सितम्बर 1932 को आरंभ होने वाला था। पत्र- व्यवहार के प्रकाशन और व्रत आरंभ होने में एक सप्ताह का अंतर था। यह सप्ताह देश ही क्या, संसार-भर के लिए क्षोभ, चिंता और हलचल का सप्ताह था। गांधीजी से भेंट करने की अनुमति मांगी गई, पर न मिली। संसार के कोने-कोने से पूना को तार भेजे गये। गांधीजी का संकल्प छुड़ाने के लिए तरह- तरह की सलाहों और तर्कों से काम लिया गया। मित्र उनके प्राण बचाने के लिए चिंतित थे और शत्रु उपहास-पूर्ण कौतूहल के साथ सारा व्यापार देख रहे थे। गांधीजी ने स्वेच्छा से मृत्यु-शय्या का आलिंगन किया था और स्वेच्छा से ही व्रत आरंभ किया था। इसलिए देश का स्तब्ध हो जाना स्वाभाविक ही था। प्रधानमंत्री का निश्चय तो रद् होना ही चाहिए। वह स्वयं तो ऐसा करेंगे नहीं। इसलिए हिन्दुओं के आपसी समझौते के द्वारा उसका अंत होना चाहिए। इसके लिए एक परिषद करना आवश्यक है। परिषद 19 को हो या 20 को? यही प्रश्न था। गांधीजी के जीवन की रक्षा करनी ही चाहिए। यह बड़ी अच्छी बात हुई कि दलित- जातियों के ही एक नेता ने इस दिशा में पैर बढ़ाया। रावबहादुर एम.सी. राजा ने पृथक निर्वाचन को धिक्कारा। सर सप्रू ने गांधीजी की रिहाई की मांग पेश की। कांग्रेस-वादियों ने भी स्वभावतः देश-भर में संगठन करके समझौता कराने की चेष्टा की। पर मालवीयजी समय के अनुसार चला करते थे। उन्होंने तत्काल नेताओं की एक परिषद बुलाने की बात सोची। इंग्लैण्ड के दीनबंधु एण्ड्रूज, मि. पोलक और मि. लेन्सबरी ने स्थिति की गंभीरता की ओर अंग्रेज-जनता का ध्यान आकर्षित हुए, जिसके द्वारा इंग्लैण्ड-भर में खासतौर से प्रार्थना करने को कहा गया। भारत में 20 सितंबर को उपवास और प्रार्थनायें की गईं। इसमें शान्ति- निकेतन ने भी भाग लिया। वैसे इस आंदोलन का आरंभ प्रधानमंत्री के निश्चय में संशोधन कराने के लिए किया गया था, पर इस आंदोलन को अस्पृश्यता- निवारण के अधिक व्यापक आंदोलन का रूप धारण करते देर न लगी। कलकत्ता, दिल्ली और अन्य स्थानों में अस्पृश्यों के लिए मंदिर खोले जाने लगे। यह आशा की जाती थी कि गांधीजी उपवास के आरंभ होते ही छोड़ दिये जायेंगे। पर पता चला कि उनकी रिहाई तो क्या होगी उन्हें, किसी खास स्थान पर नजरबंद कर दिया जायेगा और उनकी गतिविधि पर भी रुकावट लगा दी जायेगी। गांधीजी ने सरकार को लिखा कि ��इस प्रकार स्थान- परिवर्तन करके व्यर्थ खर्च और कष्ट क्यों उठाया जाय? मुझसे किसी शर्त का पालन न हो सकेगा।�� सरकार भी राजी हो गई और उसने गांधीजी को ऐसी व्यवस्था स्वीकार करने को मजबूर न किया जो उन्हें अरुचिकर लगती हो।

पूना-पैक्ट

परिषद बम्बई में आरंभ हुई, पर शीघ्र ही पूना में ले जाई गई। डा0 अम्बेडकर शीघ्र ही बातचीत में शामिल हो गये और श्री अमृतलाल ठक्कर, श्री राजगोपालाचार्य, सर चुन्नीलाल मेहता, पण्डित मालवीय, बिड़लाजी, सरदार पटेल, श्रीमती सरोजिनी नायडू, श्री जयकर, डा. अम्बेडकर, रावबहादुर एम.सी. राजा, बाबू राजेन्द्र प्रसाद, पण्डित हृदयनाथ कुंजरू और अन्य सज्जनों की सहायता से एक योजना तैयार की गई, जिसे उपवास के पांचवे दिन सारे दलों ने स्वीकार कर लिया। दलित जातियों ने पृथक निर्वाचन का अधिकार त्याग दिया और आम हिन्दू- निर्वाचनों से ही संतोष कर लिया। (वैसे आम हिन्दू- निर्वाचनों में वे सरकारी निर्णय के अनुसार ही शामिल थे।) उच्च जातियों के हिन्दुओं ने महत्वपूर्ण संरक्षण प्रदान किये। उनमें से एक संरक्षण यह है कि सरकारी निर्णय के अनुसार आम निर्वाचनों में जितनी जगहें दी गई हैं उनमें से 148 दलित- जातियों को दी जायें। दूसरा यह है कि हरेक की सुरक्षित जगह के लिए दलित-जातियां चार उममीदवार चुने और आम निर्वाचन सबकी सलाह से उसमें परिवर्तन न किया जाये। दलित- जातियों का प्रारम्भिक निर्वाचन दस साल तक जारी रहे। ब्रिटिश- सरकार ने पूना-पैक्ट को उस अंश तक स्वीकार कर लिया जिस अंश तक उसका प्रधानमंत्री के निश्चय से संबंध था। जो-जो बातें साम्प्रदायिक निर्णय के बाहर जाती थीं, उन पर निश्चय रोके रखा गया। दलित- जातियों के नेताओं को कृतज्ञ होना ही चाहिए था, क्योंकि प्रधानमंत्री के निश्चय के अनुसार उन्हें अपनी जनसंख्या से अधिक प्रतिनिधित्व प्राप्त हो गया। दस वर्ष बाद जनमत स्थिर करने के प्रश्न पर अंतिम समय फिर विवाद उठ खड़ा हुआ, पर गांधीजी ने अवधि घटाकर 5 वर्ष कर दी, क्योंकि दस साल के लिए स्थगित करने से कहीं जनता यह न समझे कि डॉ0 अम्बेडकर सवर्ण- जातियों की नेक- नीयती की आजमाइश करना नहीं चाहते, बल्कि विरुद्ध जनमत देने के लिए दलित-जातियों को तैयार करने के लिए अवकाश चाहते हैं। गांधीजी ने अंत में उत्तर दिया - ��मेरा जीवन या पांच वर्ष।�� अंत में यह निश्चय किया गया कि इस प्रश्न को भविष्य में आपस के समझौते के द्वारा तय किया जाय। इसका नुस्खा श्री राजगोपालाचार्य ने सोच निकाला और गांधीजी ने कहा - ��क्या खूब! 26 तारीख को, ठीक जिस समय ब्रिटिश- मंत्रिमण्डल द्वारा समझौते के स्वीकृत होने की खबर मिली, श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने गांधीजी से भेंट की। 26 तारीख की सुबह को इंग्लैण्ड और भारत में एक साथ घोषणा की गई की पूना का समझौता स्वीकार कर लिया गया। मि0 हेल ने बड़ी कौंसिल में वक्तव्य दिया, जिसमें निम्नलिखित बातें कही गईं :-

1. प्रधानमंत्री के उस निश्चय के स्थान पर, जिसके द्वारा दलित- जातियों को प्रान्तीय कौंसिलों में पृथक निर्वाचन का अधिकार दिया गया था, पार्लिमेंट से सिफारिश करने के लिए उस व्यवस्था को स्वीकार किया जाता है जो यरवदा-समझौते के मातहत स्थिर हुई है।
2. यरवदा-समझौते के द्वारा प्रान्तीय- कौंसिलों में दलित- जातियों को जितनी जगहें देना निश्चित हुआ है, उन्हें स्वीकार किया जाता है।
3. यरवदा के समझौते में दलित-जातियों के हित की गारण्टी के संबंध में जो कुछ कहा गया है वह सवर्ण हिन्दुओं-द्वारा दलित-जातियों को दिये गये निश्चित वचन के रूप में स्वीकार किया जाता है।
4. बड़ी कौंसिल के लिए दलित-जातियों के प्रतिनिधियों को चुनने की प्रणाली और मताधिकार की सीमा के संबंध में यह कहना है कि अभी सरकार यरवदा- समझौते की शर्तों को निश्चित रूप में मान्य नहीं कर सकती, क्योंकि अभी बड़ी कौंसिल के प्रतिनिधित्व और मताधिकार का प्रश्न विचाराधीन है, पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि सरकार समझौते के विरुद्ध नहीं है।
5. बड़ी कौंसिल में आम निर्वाचन के लिए खुली जगहों में से 18 जगहें दलित-जातियों के लिए सुरक्षित रखी जायें, इस बात को सरकार दलित-जातियों और अन्य हिन्दुओं के पारस्परिक समझौते के रूप में स्वीकार करती है।

गांधीजी को यह व्यवस्था स्वीकार करने में कुछ पशोपेश हुआ। वह चाहते थे कि दलित-जातियों के नेता भी संतुष्ट हो जायें। उन्हें अपने भौतिक प्राण बचाने की चिंता न थी, बल्कि उन लाखों प्राणियों के नैतिक प्राण बचाने की चिंता थी, जिनके लिए वह उपवास कर रहे थे। परंतु अंत में पं0 हृदयनाथ कुंजरू और चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य ने गांधीजी को संतोष करा दिया। इस पर गांधीजी ने 26 तारीख को शाम के सवा पांच बजे उपवास तोड़ने का निश्चय किया। भजन और धार्मिक श्लोक-पाठ के बाद उन्होंने घोषणा की। यह ठीक था कि गांधीजी के प्राण बच गये परंतु जिस श्वास में वह अपना उपवास भंग करने को राजी हुए उसी में उन्होंने यह भी कह दिया कि यदि उचित समय के भीतर अस्पृश्यता-निवारण- संबंधी सुधार नेकनीयती के साथ पूरा न किया गया तो मुझे निश्चय ही नये सिरे से उपवास करना पड़ेगा। गांधीजी ने कहा - ��स्वतंत्रता का संदेश हरेक हरिजन के घर में पहुंचना चाहिए और यह तभी हो सकता है जब सुधार हरेक गांव में किया जाये।�� जनता ने उपवास की उपयोगिता या औचित्य के संबंध में संदेह प्रकट किया था। गांधीजी को इस संबंध में कुछ कहना था।

गांधीजी ने कहा कि मैंने यह प्रायश्चित अन्तर्नाद की आज्ञा के अनुसार आरंभ किया है। यदि लोग यह कहें कि उपवास तो दूसरों को धमकाना है, तो गांधीजी का उत्तर है कि ��प्रेम विवश करता है, धमकाता नहीं है,�� ठीक जिस प्रकार सत्य और न्याय विवश करते हैं। मैं अपने उपवास को न्याय के पलड़े में रखना चाहता हूं। ऊपर से देखने वालों को यह कार्य बच्चों का सा खेल प्रतीत हो सकता है, पर मुझे ऐसा प्रतीत नहीं होता। यदि मेरे पास कुछ और होता तो इस अभिशाप को मिटाने के लिए मैं उसे भी झोंक देता। पर मेरे पास प्राणों से अधिक और कुछ नहीं।��....��यह आगामी उपवास उनके विरुद्ध है जिनकी मुझमें आस्था है। चाहे वे भारतीय हों चाहे विदेशी। यह उपवास उनके विरुद्ध नहीं है- जिनकी मुझमें आस्था नहीं।�� इस प्रकार उन्होंने यह बाता दिया कि यह उपवास न अंग्रेज अफसरों के विरुद्ध है, न भारत के उनके विरोधियों - चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान - के विरुद्ध है, बल्कि उन असंख्य भारतीयों के विरुद्ध है जिनका विश्वास है कि यह न्यायपूर्ण बातों के लिए किया गया है। गांधीजी ने कहा - ��इस उपवास का प्रधान उद्देश्य तो हिन्दू अंतःकरण में ठीक ठीक धार्मिक कार्यशीलता उत्पन्न करना है।��

आंदोलन वापस लिया

गांधीजी की घोषणा के बाद ही कांग्रेस के कार्यवाहक-अध्यक्ष ने भी अपनी घोषणा प्रकाशित करके सत्याग्रह आंदोलन छः सप्ताह के लिए मौकूफ कर दिया। सरकार ने भी उत्तर प्रकाशित कराने में विलम्ब से काम नहीं लिया।

9 मई को एक सरकारी विज्ञप्ति में कहा गया कि केवल सत्याग्रह के मोकूफ रखने से वे शर्तें पूरी नहीं होती जो कैदियों की रिहाई के लिए रखी गई हैं। सरकार कांग्रेस के इस मामले में सौदा करने को तैयार नहीं है।

भारत-मंत्री के शब्दों में सरकार ने कहा था - ��हमारे पास यह विश्वास करने के प्रबल कारण होने चाहिएं कि उनकी रिहाई से सत्याग्रह दुबारा शुरू न हो जायेगा। सत्याग्रह आंदोलन को अस्थायी रूप से बंध करने से, जिससे कांग्रेस- नेताओं के साथ समझौते की बातचीत शुरू हो जाये, वे शर्तें पूरी नहीं होतीं जिनके द्वारा सरकार को संतोष हो जाये कि सत्याग्रह सचमुच हमेशा के लिए त्याग दिया गया है। सत्याग्रह की वापसी के लिए कांग्रेस के साथ बातचीत करने का, इन गैरकानूनी कार्रवाइयों के संबंध में या उसके साथ समझौता करने के उद्देश्य से कैदियों को छोड़ने का कोई इरादा नहीं है।��

इधर शिमला से यह नकारात्मक उत्तर आया, उधर वियेना से एक वक्तव्य आया जिस पर श्री विट्ठलभाई पटेल और श्री सुभाष बोसु के हस्ताक्षर थे। उसके कुछ अंश इस प्रकार हैं:-

��सत्याग्रह बंद करने की गांधीजी की ताजा कार्रवाई असफलता की स्वीकारोक्ति है।��

वक्तव्य में आगे कहा गया - ��यदि कांग्रेस में स्वयं ही इस प्रकार का आमूल परिवर्तन हो सके तो अच्छा ही है, नहीं तो कांग्रेस के भीतर ही उग्र मत वाले लोगों की एक नई पार्टी बनानी पड़ेगी।��

यह पहला अवसर न था जब गांधीजी को इन दोनों संभ्रान्त व्यक्तियों की, जिन्हें युद्ध के समय बीमारी के कारण विदेश में रहना पड़ा था, विरुद्ध आलोचना का शिकार बनना पड़ा। गांधीजी जिस प्रकार अपना कष्ट संतोष, आस्था और धैर्य के साथ सह रहे थे, उसी प्रकार उन्होंने संसार की आलोचना भी सह ली। उनकी प्रतिज्ञा पूरी हुई और 29 मई 1933 को उन्होंने अपने उपवास का अंत किया।

इस बीच में कांग्रेसवादियों में यह तय हुआ कि गांधीजी की रिहाई से जो अवसर मिला है उसका उपयोग करके देश की अवस्था पर आपस में चर्चा की जाये। सोचा गया कि इस प्रकार की बैठक तभी की जाये जब गांधीजी उसमें ीााग लेने योग्य हों। इसलिए सत्याग्रह- बन्दी की अवधि को कार्यवाहक- सभापति ने छः सप्ताह के लिए और बढ़ा दिया।

गुजरात में सत्याग्रह के प्रारम्भिक प्रयोग

भारत के राजनीतिक मंच पर गांधीजी के उदय से पहले तक भारतीय राष्ट्रभक्त स्वायत्त सरकार की ओर भारत की राजनीतिक प्रगति प्राप्त करने के लिए दो ही मार्ग देख पाते थे। एक तो था वह रास्ता जिस पर उदारवादी चल रहे थे और केमोबेश तथाकथित उग्रपंथी भी। इनका तरीका था - सरकार की आलोचना या निन्दा करते हुए प्रस्ताव पारित करना, याचिकाएं दाखिल करना और आंदोलन छेड़ना और जनमत को प्रकाश में लाना। दूसरे प्रकार का रास्ता अख्तियार करने वालों में युवा लोग थे जो खुद को �क्रान्तिकारी� कहते थे और बम तथा हिंसा के दूसरे साधनों को इस्तेमाल में लाते थे। पहले रास्ते पर चलने वाले बेअसर साबित हो रहे थे तो दूसरे रास्ते वालों का काम कुछ ही लोगों तक सीमित था, क्योंकि बड़े पैमाने पर इन उपायों का सहारा लेना असंभव था। सरकार के पास प्रतिकार व दमन के अधिक हिंसात्मक साधन थे जैसा कि जलियांवाला बाग की घटना और सरकार की नीति से स्पष्ट था। देश का युवा- मस्तिष्क असंतोष से भरा था और इसके साध निराशा तथा कुंठा की भावना घर करती जा रही थी।

गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में सीधे आन्दोलन के अपने तरीके का सफल परीक्षण किया था, जो पहले �असर योग्य आन्दोलन� और बाद में �सत्याग्रह� कहलाया। उन्होंने जिन सिद्धान्तों पर लड़ाई लड़ी थी, उनसे उत्पन्न सभी परिस्थितियों पर इसकी परीक्षा की थी। इनके बावजूद यह भय था कि छोटी आबादी के कारण दक्षिण अफ्रीका में जो संभव था, भारतीय समुदाय के भिन्न- भिन्न तत्वों को मिलकर एक संयुक्त मोर्चा बनाना भारत में संभव न था, क्योंकि भारत विशाल आबादी वाला देश है जिसमें अलग- अलग धर्मों, राज्यों, मतावलम्बियों, भाषाओं तथा हितों वाले विविध तत्व हैं। फिर भी, गांधीजी को भारतीय परिस्थितियों में अपनी तरीके की न्यायसंगतता तथा अनुकूलशीलता पर पूरा विश्वास था, इसलिए, उन्होंने बिहार के मजदूरों की हालत के बारे में जांच पड़ताल पर मोतीहारी जिलाधीश द्वारा जारी रोक के आदेश को मानने से इंकार करके अपना प्रयोग शुरू कर दिया।

गांधीजी ने नेतृत्व संभाला

उस समय अहमदाबाद में गुजरात सभा नामक एक पुराना संगठन था जो गुजरात के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक कल्याण के लिए काम तथा प्रतिनिधित्व करती थी। यह अपना काम उदारवादियों की पुरानी नीतियों पर चलाती थी जैसे याचिकाएं प्रस्तुत करना, सरकार से संबंधित प्रतिवेदन भेजना आदि। गांधीजी को सभा का अध्यक्ष पद संभालने का निमंत्रण दिया गया और इस तरह उन्होंने सभा में एक नयी जान फूंक दी।

1917 का मानसून बड़ा खराब रहा था और इसके फलस्वरूप खेड़ जिले में फसल नहीं हुई। परम्परानुसार सभा ने स्थिति का सर्वेक्षण करने के बाद सरकार के समक्ष प्रतिवेदन प्रस्तुत किया कि फसल मारी गई है और सरकार को छूट देनी चाहिए। सभा के प्रतिवेदन की जांच पड़ताल और समर्थन श्री विट्ठल भाई पटेल (अब स्व.), श्री गोकुल दास मदन दास पारिख (अब स्व.), श्री रमण भाई महापात्रम (अब स्व.), श्री दीवान बहादुर हरिलाल देसाई (अब स्व.) (1926 से 1930 तक बम्बई सरकार के मंत्री) जैसे प्रमुख व्यक्तियों ने किया। सभा के डिवीजनल आयुक्त के प्रतिवेदन किया और हमेशा की तरह आयुक्त ने जिलाधीश की कार्रवाई का समर्थन किया। सभा ने सरकार से अपील की। तभी गांधीजी ने सीधी कार्रवाई वाली अपनी नीति के आधार पर एक नये रास्ते पर सभा की अगुआई की। जब अभी सभा की अपील सुनवाई के लिए सरकार के पास पड़ी ही थी कि सरकार ने खेतिहरों बकाए की वसूली शुरू कर दी। गांधीजी ने सभा को खेतिहरों के नाम यह निर्देश जारी करने को प्रेरित किया कि जब तक सरकार द्वारा अपील का फैसला नहीं कर दिया जाता, किसान बकाया की रकम अदा नहीं करें। जनसेवा के अपने विलक्षण तरीके के अनुरूप ही उन्होंने सभा के सचिवों (लेखक भी सचिवों में से एक था) को खेतिहरों को भेजे गये। निर्देशों की एक प्रति डिवीजनल आयुक्त को भी भेजने का निर्देश दिया। यह पहला मौका था जब नौकरशाही को किसी सार्वजनिक संगठन के दृढ़ प्रतिरोध का सामना करना पड़ा था - ऐसे सार्वजनिक संगठन का जिसमें इतनी बुलन्दी थी कि वह लोगों को तब तक सरकारी आदेश का पालन करने से मना कर दे, जब तक अपील का फैसला सरकार नहीं कर देती। जारी निर्देशों में अवैधानिक या गैरकानूनी हरकत जैसी कोई चीज नहीं था, लेकिन कार्यकारी पदाधिकारियों को आज तक किसी ऐसी परिस्थिति का सामना नहीं करना पड़ा था। यह तो साधारण-सी न्यायिक प्रक्रिया की बात थी कि यदि असंतुष्ट पक्ष द्वारा निचली अदालतों के फैसले के खिलाफ कोई अपील नहीं की जाती है तो निचली अदालतों के फैसले पर तब तक अमल नहीं होता, जब तक अपील का फैसला नहीं सुना दिया जाता। लेकिन कार्यकारी पदाधिकारियों के लिए यह एकदम अनसुनी बात थी।

डिवीजनल आयुक्त ने सभा द्वारा खेतिहरों को दिये गए निर्देशों का अर्थ अपने आधीस्थ कर्मचारियों के आदेशों को न मानने की सीधी मांग लगा था और इन परिस्थितियों के अनुसार उक्त कार्रवाई करने की धमकी दी। इससे सभा की प्रबंध समिति में गंभीर स्थिति पैदा हो गयी क्योंकि समिति स्वाभाविक रूप से उदारवादी किस्म के पुराने तरीकों पर चलने की आदी थी। इसी समय गांधी जी ने सभा को सलाह दी कि इस मामले से संबंधित कार्रवाई के लिए एक अलग संगठन गठित कर दिया जाए। हालांकि किसी ऐसे संगठन में बड़ी संख्या में सभा के सदस्यों का आ जाना स्वाभाविक ही था। गांधीजी ने यह मामला अपनी देख-रेख में ले लिया और अपना मुख्यालय अहमदाबाद से नड़ियाद में ले गए जो खेड़ा जिलों में एक प्रमुख स्थान है। इसके सभी कार्यकर्ताओं ने भी मुख्यालय बदल लिया और गांधी जी ने कई गांवों में व्यक्तिगत रूप से जाकर तथा गांवों का दौरा करके फसल के बारे में जांच-पड़ताल करने के लिए विशेष रूप से तैनात कार्यकर्ताओं से जानकारी हासिल करके सरकार से पत्रव्यवहार किया। इस सिलसिले में कोई स्वतंत्र जांच गठित कर दी जाती, तो गांधी जी संतुष्ट हो जाते। हालांकि सरकार और खेतीहरों के बीच का यह झगड़ा मामूली-सा था, दो दृष्टियों से यह मामला महत्वपूर्ण बन गया था। पहली बात तो यह थी कि जनता द्वारा किए गए प्रत्येक प्रतिवेदन के मामले में सरकार हमेशा अधिकारियों को सही मान लेती थी और सरकार के मुताबिक प्रत्येक जन-प्रतिवेदन गलत धारणाओं पर प्रस्तुत किए जाते थे। यह एक असह्‌ाय स्थिति थी। दूसरी बात यही थी कि लोगों को अधिकारियों द्वारा उनके प्रतिवेदन रद्द करने देने के बाद अपनी शिकायतें पूरी करने के लिए किसी तरह की कोई राहत नहीं मिलती थी। अपनी अज्ञानता के कारण लोग सरकार के प्रतिकूल निर्णय को अपनी खोटी किस्मत मान कर संतोष कर लेने के आदी हो गये थे। इस तरह, लोगों में प्रतिरोध की भावना पूरी तरह समाप्त हो गयी थी चाहे उन्हें अपनी शिकायत के सच या सही होने का जितना भी विश्वास क्यों न हो और अपने इन्हीं विश्वासों के फलस्वरूप वे पीड़ा झेलते रहे थे।

जैसा कि पहले से ही अनुमान था, सरकार ने जांच समिति गठित करने से इंकार कर दिया, कयोंकि डिवीजनल आयुक्त ने त्यागपत्र देने की धमकी दे दी थी। नौकरशाही के लिए यह प्रतिष्ठा का प्रश्न था। उस समय तक लोग यह सोचने के आदी नहीं थे कि जनता की प्रतिष्ठता उनके नौकरों से बड़ी होती है। सच तो यह था कि नौकरों को मालिक स्वीकार कर लिया गया था और नौकरों को सचमुच मालिक होने का विश्वास हो गया था।

शिक्षाप्रद दिलचस्प संघर्ष

सरकार के इंकार करने पर गांधीजी ने खेतीहरों को सलाह दी कि फसल नहीं मारी जाने के आधार पर उनसे जो रकम मांगी गई है, वे सरकार को न दें। यह भारत में बड़े पैमाने पर की गयी सीधी कार्रवाई का पहला परीक्षण था। मोतीहारी में जिलाधीश के आदेश को मानने से इनकार करना व्यक्तिगत नागरिक अवज्ञा थी। एक छोटे जिले व बहुत ही छोटे मामले तक सीमित होने के बावजूद यह एक सामूहिक नागरिक अवज्ञा थी। संघर्ष कई महीनों तक चलता रहा और इस संघर्ष के विभिन्न पहलुओं को बहुत जल्दी महसूस करने का श्रेय अंग्रेजों को जाता है। ये ऐसे पहलू थे, जिन्हें इतनी जल्दी हमारे बहुत से देशवासी भी नहीं महसूस कर पाए थे। खेतीहरों को जमीन की जब्ती की नोटिसें दे कर हर तरह से दबाव डाला गया, लेकिन गांधीजी की उपस्थिति और जिलाभर में जगह-जगह के उनके लगातार दौरों के कारण लोग न सिर्फ अहिंसक बने रहे, बल्कि उनमें ऐसी दृढ़ता पैदा हो गयी कि आम उद्देश्य के लिए कोई भी बलिदान को वे तैयार हो गए। यह पूरा संघर्ष बड़ा ही दिलचस्प और शिक्षाप्रद है।

सरकार के साथ सम्मानजनक समझौता करके यह मामला निपट गया और सभा के प्रतिवेदन में जिस तथ्य पर बल दिया गया था, सरकार ने उसे स्वीकार कर लिया। जब्ती नोटिसें लौटा लीं गईं, जब्त जमीनें भी वापस कर दी गईं। इस प्रकार, बड़े पैमाने पर सफल प्रयोग किया गया और इसने नये दृष्टिकोण के साथ नया आत्मविश्वास पैदा किया। यह रास्ता सत्याग्रह का था जिस की दो पूर्वावश्यकताएं थीं : 1. उद्देश्य की न्यायसंगतता और 2. अवज्ञा के फलस्वरूप होने वाली पीड़ा को झेलने के लिए तैयार रह कर अहिंसक प्रतिरोध।

श्रम-पूंजी के क्षेत्र में

यही सिद्धांत एक बार फिर एक अन्य क्षेत्र में आजमाए गए; श्रम और पूंजी के क्षेत्र में। श्रीमती अनुसूया साराभाई के तत्वावधान में चलाए जा रहे श्रम संगठनों तथा श्रम आन्दोलनों को गांधीजी ने 1916-1917 से 1922-1923 तक उनके साथ स्वयं संलग्न रहकर मार्गदर्शन दिया, प्रेरणा दी। इस दौरान मजदूरों की दो उल्लेखनीय हड़तालें हुईं। हड़ताल की सलाह देने या हड़ताल शुरू करने से पहले खुद गांधीजी ने विवेकसंगत समझौते के लिए वार्ताएं कीं, छूट की पहल की। जब उन्हें विश्वास हो गया कि मुद्दा न्यायसंगत व उचित है, उन्होंने जोरदार तरीके से स्पष्ट कर दिया कि हड़तालियों को इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेना चाहिए - या तो जान दे देनी है या सफल होना है। दूसरे पक्ष को जलील करने का कभी कोई इरादा नहीं रहा जिससे कि आगे के किसी मनमुटाव या दुर्भावना का कोई पुट आए और उसके कारण आगे बढ़ने में रुकावट पैदा हो। यही कारण है कि आज भी अहमदाबाद के मजदूरों में खास ताकत और मजदूरों व पूंजीपतियों के बीच अच्छे संबंध देखे जा सकते हैं। अहमदाबाद का श्रमिक वर्ग राजनीतिक रूप से अधिक जागरूक है और अगस्त, 1942 के संघर्ष में उन्होंने लगभग साढ़े तीन महीने तक हड़ताल की।

गुजरात में महत्वपूर्ण सीधी कार्रवाइयों की कथा तब तक किसी तरह पूरी नहीं हो पाएगी जब तक 1921-22 में अहमदाबाद नगर पालिका के शैक्षिक असहयोग के रूप में किए गए ज्वलंत संघर्ष की चर्चा नहीं की जाएगी। इतना ही महत्वपूर्ण है 1928 का बाइरौली संघर्ष जो बहुत हद तक 1917-1918 के खेड़ा संधर्ष जैसी राजनीतियों व मुद्दों के आधार पर लड़ा गया।

यह गांधी जी ही थे, जिन्होंने अहमदाबाद नगर पालिका के युवा समुदाय को दूसरे स्थानीय निकायों के वास्तविक चरित्र व कार्यों के बारे में उचित दृष्टिकोण प्रदान किया था। स्थानीय निकायों के प्रशासन का मतलब सिर्फ सड़कों, रोशनियों, पानी, नाली आदि का बंदोबस्त करना ही नहीं, बल्कि इसमें स्व-सरकार की भावना भी निहित है। ��इसलिए जब तब आप,�� गांधीजी ने तर्क दिया, ��अपने स्थानीय निकायों को पूरी आबादी के लाभ के लिए स्वराज्य के संस्थानों के रूप में नहीं चलाते, आप अपने राजय, अपने देश के लिए स्वराज्य दिए जाने की मांग को किस मुंह से उचित ठहरा सकते हैं?�� इस विचार ने स्थानीय निकायों के बारे में मूलभूत दृष्टियों को ही पूरी तरह बदल दिया। इन स्थानीय निकायों को उस बड़े स्वराज्य के लिए अपने आप को प्रशिक्षित करने की दोटी प्रयोगशालाएं मान लिया गया, जिसके लिए हम संघर्षरत थे।

उपर्युक्त विचार से प्रेरित होकर अहमदाबाद नगर पालिका के युवा समुदाय ने सरदार वल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में उन्हीं दिशा निर्देशों के आधार पर काम शुरू कर दिया। 1918-19 से लेकर उसके बाद का इस नगर पालिका का पूरा इतिहास इतना ज्वलंत है कि स्वराज्य के आदर्श को अआगे बढ़ाने के लिए इसने जितना राष्ट्रीय व रचनात्मक कार्य किया है और कर रही है, उसके आधार पर इसके बारे में विशेष अध्याय लिखे जाने चाहिएं।

जब सितंबर, 1920 में कलकत्ता में कांग्रेस ने अपने विशेष अधिवेशन में असहयोग संबंधी विख्यात प्रस्ताव पारित किया, तब अहमदाबाद नगर पालिका ने भी उसका अनुसरण किया। इसने सरकार को सूचित किया कि यह शिक्षा संबंधी सरकारी अनुदान को अस्वीकृत कर देगी और सरकार को प्राथमिक शिक्षा के पालिका द्वारा प्रशासन में दखल नहीं देना चाहिये। पहले तो सरकार ने (जिसमें दुहरे शासन के दिनों में लोकप्रिय मंत्री श्री आर.पी. परांजपे थे) दबाव डालने व असहयोग करने की कोशिश की इसने बहस की कोशिश की और फिर इसने राजस्व निर्धारण अधिकारी नियुक्त करने से इनकार कर दिया, सड़कें चौड़ी करने तथा अन्य उद्देश्यों के लिए संपत्ति अधिग्रहण से इनकार कर दिया, शिक्षा प्रशासन के लिए अपने अधिकारियों को काम करने की इजाजत देने से इनकार कर दिया, आदि। पालिका अपनी बात पर डटी रही और पालिका के स्कूलों के किसी भी सरकारी अधिकारी द्वारा निरीक्षण की अनुमति देने से इनका कर दिया। सरकार ने पालिका के सदस्यों को कानून के नाम पर यह कह कर विवश करने की कोशिश की कि यदि निरीक्षण नहीं कराए गए तो प्राथमिक स्कूलों के रखरखाव पर खर्च होने वाले धन को पालिका के धन का दुरुपयोग मान लिया जाएगा और जो भी सदस्य एन.सी.ओ. कार्यक्रम के समर्थन में मत देंगे, उन्हें व्यक्तिगत रूप से इसके लिए जिम्मेवार माना जाएगा। सदस्यों को फिर भी टस से मस न होते देख कर सरकार ने 9 फरवरी, 1922 से दो साल के लिए पालिका को स्थगित कर दिया। इतना ही नहीं, पालिका के उन 19 सदस्यों के विरुद्ध एक लाख तिरसठ हजार रुपयों की बड़ी रकम वसूलने के लिए दीवानी मुकदमें दायर कर दिए, जिन्होंने निरीक्षण नहीं करने देने के पक्ष में मत दिये थे। नड़ियाद व सूरत की पालिकाओं ने भी अहमदाबाद पालिका का अनुसरण किया और उनके साथ भी सरकार ने ऐसी कार्रवाई की। अहमदाबाद में चूंकि पालिका का स्थगन हो गया था। एन.सी.ओ. के सदस्यों ने प्राथमिक स्कूल शुरू कर दिए। पालिका के प्राथमिक स्कूलों के लगभग सभी शिक्षकों ने पालिका की नौकरी से त्यागपत्र देकर इन नए स्कूलों में काम शुरू कर दिया। जनता ने भी स्वेच्छा से इन स्कूलों के खर्च दान स्वरूप देकर उनकी भव्य सहायता की। कुछ लोगों ने तो प्रतिमाह बारह-बारह हजार रुपये दान में दिए। ये स्कूल तब तक चलते रहे, जब तक पालिका दोबारा गठित नहीं हो गई। बाद में, सभी शिक्षकों को दुबारा पालिका के स्कूलों में बहाल कर लिया गया। सदस्यों के विरुद्ध दायर दीवानी मुकदमा सरकार निचली अदालत से हार गयी और उच्च न्यायालय ने भी यही फैसला बरकरार रखा।

बारदौली का 1928 का आंदोलन भी उतना ही सुविख्यात है। वहां प्रश्न कर-निर्धारण का था और कर देने से इनकार करके लोगों ने सरकार को समिति नियुक्त करने के लिए विवश कर दिया। इस आंदोलन का इतिहास श्री महादेव देसाई (अब स्व.) ने ��बारदौली की कहानी�� नामक अपनी पुस्तक में अलग से लिखा है।

गांधीजी का रचनात्मक कार्यक्रम

गांधीजी ने राजनीतिक क्षेत्र में निष्क्रिय रहने के लिए विवश होने पर उस अवधि को हरिजन-कार्य में लगाने का निश्चय किया था। इस निश्चय के अनुसार उन्होंने हरिजन-आंदोलन करने के लिए 1933 के नवम्बर से देश में दौरा करना शुरू किया। उन्होंने दस महीने के भीतर भारत के हरेक प्रांत का दौरा किया, और इन दस महीनों का प्रत्येक दिन अस्पृश्यता की समस्या के अध्ययन और उस समस्या को हल करने के उपाय सोचने में बिताया। इस दौरे से बहुत बड़ा प्रचार- कार्य हुआ। उपस्थित समुदाय का उत्साह और संख्या 1930 के जमाने से ही टक्कर ले सकता था। गांधीजी ने अपने दौरे में अस्पृश्यता-निवारण के लिए लगभग आठ लाख रुपये एकत्र किया। दो शोचनीय दुर्घटनाएं भी हुईं। 25 जून 1934 को गांधीजी बाल-बाल बच गए नहीं तो देश के लिए बड़ा भारी संकट उपस्थित हो गया होता। वह पूना म्यूनिसिपैलिटी का मानपत्र ग्रहण करने वाले थे, कि इस अवसर पर एक व्यक्ति ने, जिसका पता अभी तक नहीं लगा हे, उन पर बम फेंका। इस असफल अपराध ने अपराधी ने एक दूसरी मोटरकार को गांधीजी की मोटर-कार समझा। गांधीजी की मोटरकार अभी सभा- स्थान में न आई थी। अनुमान किया जाता है कि यह अपराधी गांधीजी के अस्पृश्यता-निवारण आंदोलन से चिढ़ गया था। फिर भी उसके बम ने सात निर्दोष व्यक्तियों को घायल किया। सौभाग्य से किसी को गहरी चोट न आई। दूसरी घटना 14 दिन बाद ही अजमेर में हुई। यहां किसी तेज मिजाज सुधारक ने आपे से बाहर होकर बनारस के पंडित लालनाथ का, जो हरिजन-आंदोलन के कट्टर विरोधी थे, सिर फोड़ दिया। इस दूसरी घटना को लेकर गांधीजी ने 7 दिन का उपवास किया।

गांधीजी ने हरिजनोत्थान कार्य के संबंध में सारे भारत का दौरा करने का निश्चय किया था, पर दिसम्बर का महीना उनके लिए एक कसौटी ही सिद्ध हुआ। श्री केलप्पन ने गुरुवयूर-मंदिर के ट्रस्टियों को तीन महीने का नोटिस दिया था और अब 1 जनवरी 1934 को अंतिम निश्चय करना जरूरी था। इस निश्चय का अर्थ केलप्पन और गांधीजी दोनों का आमरण उपवास भी हो सकता था। इसलिए यह तय किया गया कि गुरुवयूर-मंदिर के उपासकों की राय ली जाए। इस प्रयोग का जो परिणाम हुआ वह शिक्षाप्रद भी था और सफल भी। इस बीच में डॉ. सुब्बरायन ने मद्रास-प्रान्त के मंदिरों में अछूतों के प्रवेश के संबंध में बिल भी पेश कर दिया था और सरकार के निश्चय की प्रतीक्षा की जा रही थी। गुरुवयूर के मतों में 77 प्रतिशत उपासक अछूतों के मंदिर- प्रवेश के हक में थे। जिन लोगों ने राय देने से इंकार कर दिया था उन्हें निकाल कर, 20, 163 रायें आईं जिनमें से मंदिर-प्रवेश के पक्ष में 15,563 या 77 प्रतिशत थीं; मंदिर- प्रवेश के विरुद्ध 2,571 या 13 प्रतिशत थीं, और तटस्थ 2,016 या 10 प्रतिशत थीं। इन मतों में विलक्षणता यह थी कि 8,000 से भी अधिक स्त्रियों ने हरिजनों के मंदिर- प्रवेश के पक्ष में रायें दीं।

नए वर्ष का आरंभ शुभ हुआ, क्योंकि गांधीजी का आमरण उपवास टल गया। पर सत्याग्रह के संबंध में प्रगति इतनी संतोषजनक न थी। जो कैदी जेल से छूटे वे भग्नोत्साह हो गये थे। जिन प्रान्तीय नेताओं ने पूना में वचन दिया था कि यदि सामूहिक सत्याग्रह त्याग दिया गया और व्यक्तिगत सत्याग्रह आरंभ किया गया तो वे अपने- अपने प्रान्तों का नेतृत्व करेंगे, उनमें से कुछ को छोड़कर बाकी सबने अपने वचन भुला दिए। जो जेलों से छूटे वे दूसरी बार सजा काटने में या तो असमर्थ थे, या तैयार न थे। जो तैयार थे उन्हें सरकार पकड़ती न थी। सरकार ने यह तरकीब सोच निकाली थी कि वह लाठियों की वर्षा करती, और छोटी जेलों में रखकर कैदियों के साथ बुरा व्यवहार करती। वह कैदियों को रिहा करती, फिर गिरफ्तार करती और कुछ समय बाद फिर छोड़ देती। यह कार्रवाई थकाने वाली थी। इससे सजा के द्वारा सत्याग्रहियों को जो विश्राम मिलता उससे वे वंचित हो गए। ऐसा हो रहा था मानो बिल्ली चूहे को मुंह में पकड़ कर झंझोड़ दे, छोड़ दे और फिर पकड़ ले। इस प्रकार न तो वह उस चूहे को मारती हो, न छोड़ती हो।

साम्प्रदायिक एकता

राजनीतिक एकता उस सामाजिक क्रान्ति से स्वतः उपजेगी जो साम्प्रदायिक भावनाओं और भेदभाव को पूरी तरह मिटा देगी। इस क्रान्ति की शुरूआत के लिए यह जरूरी है कि प्रत्येक कांग्रेस कार्यकर्ता अपने आपको हिंदुस्तान के लाखों करोड़ों निवासियों के व्यक्तित्व का ही अंग समझे।

भारत में अलग-अलग निर्वाचक समूहों के कारण कृत्रिम असंगतियां उत्पन्न हो गई हैं और विधानमण्डल एक मंच पर इन अलग-अलग वर्गों के प्रतिनिधियों को इकट्ठा करने से दिलों की अटूट एकता कभी नहीं हो सकती। बहरहाल कांग्रेस को निर्वाचित संस्थाओं के चुनाव में उम्मीदवार तो खड़े करने ही चाहिएं ताकि प्रतिक्रियावादी तत्व उनमें ने घुस सकें।

अस्पृश्यता निवारण

यह राजनीतिक दृष्टि से ही नहीं बल्कि हिन्दुत्व के अस्तित्व की रक्षा के लिए भी परम आवश्यक है। हिन्दू कांग्रेसजनों को अहिंसा की भावना के साथ तथाकथित सनातनियों पर पहले से भी अधिक निष्ठा के साथ समझाना चाहिए। यह स्वराज निर्माण की दिशा में एक प्रमुख कार्य है।

मद्यनिषेध

चिकित्सा व्यवसाय से जुड़े लोगों को ऐसे तरीके खोजने होंगे जो व्यसनियों को नशे से मुक्ति दिला सकें। महिलाएं और विद्यार्थी अपने प्रेम भरे व्यवहार से इस सामाजिक बुराई को समाप्त करने में काफी योग दे सकते हैं। कांग्रेस समितियों को थके हुए श्रमिकों के लिए मनोरंजन केंद्र खोलने चाहिए। रचनात्मक कार्यकर्ता भले ही मद्यनिषेध के लक्ष्य तक न पहुंच सके पर उसके लिए रास्ता तैयार कर सकते हैं।

खादी

इसे समग्र रूप में अपनाना होगा। इसका अर्थ है पूर्णतः स्वदेशी मानसिकता। जीवन की सभी जरूरी चीजों को भारत में ही बनाने का दृढ़ संकल्प और वह भी ग्रामीण श्रम और बुद्धि के माध्यम से।

इसके लिए मानसिकता और पसंद में क्रांतिकारी परिवर्तन करना होगा।

खादी के विचार का अर्थ है जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन और वितरण का विकेन्द्रीकरण। यह सही है कि भारी उद्योगों का राष्ट्रीयकरण आवश्यक है लेकिन विशाल राष्ट्रीय उत्पादक गतिविधि में उनका हिस्सा सबसे कम होगा और ये सारी गतिविधियां मुख्य रूप से गांवों में केंद्रित होंगी। थोड़ी सी जमीन का मालिक प्रत्येक परिवार कम से कम अपनी जरूरत लायक कपास खुद उगा सकता है। कताई करने वाला हर व्यक्ति ओटाई के लिए पर्याप्त कपास खरीद सकता है (अगर उसके पास अपनी कपास नहीं है)। कताई के लिए गांधी जी धनुष तकली के इस्तेमाल पर जोर देते थे।

अन्य ग्रामीण उद्योग

ग्रामीण अर्थव्यवस्था आवश्यक ग्रामोद्योगों के बिना अधूरी है। जैसे- हाथ से पिसाई और कटाई, साबुन, कागज और माचिस बनाना, चर्मकारी, तेल निकालना आदि। कांग्रेसजन इन उद्योगों में दिलचस्पी ले सकते हैं।

गांव की सफाई

अगर अधिकांश कांग्रेस कार्यकर्ता गांव से आए हैं, जैसा होना भी चाहिए, तो वे हमारे गांवों को हर तरह से सफाई का आदर्श नमूना बना सकते हैं।

नई या बुनियादी शिक्षा

यह कार्य इतना विशाल है कि बड़ी संख्या में कांग्रेसजन इसमें भाग ले सकते हैं। इस शिक्षा का उद्देश्य गांव के बच्चों को आदर्श ग्रामवासी बनाना है। यह शरीर और दिमाग दोनों का विकास करती है और बच्चा अपनी जमीन से जुड़ा रहकर सुनहरे भविष्य की कल्पना कर सकता है। अपनी इस कल्पना को साकार करने के लिए वह स्कूल में प्रवेश पाते ही प्रयास शुरू कर सकता/सकती है। इस काम में भाग लेने के इच्छुक लोग सेवाग्राम में तालीमी संघ के सचिव से संपर्क करें।

प्रौढ़ शिक्षा

इसका अर्थ है हर व्यस्क को बातचीत के जरिए वास्तविक राजनीतिक शिक्षा प्रदान करना। साथ ही साथ बातचीत से ही उन्हें पढ़ना- लिखना भी सिखाया जा सकता है। कम से कम समय में पूरी शिक्षा देने के लिए अनेक तरीके अपनाए गए हैं।

स्वास्थ्य और सफाई की शिक्षा

अपने स्वास्थ्य को स्वयं देखभाल और सफाई की आदतों का ज्ञान अध्ययन का अलग विषय है। सुव्यवस्थित समाज के नागरिक स्वास्थ्य और सफाई के नियम जानते हैं और उनका पालन करते हैं। कांग्रेस के प्रत्येक कार्यकर्ता को रचनात्मक कार्यक्रम के इस अंग का पूरा ध्यान रखना चाहिए।

महिलाएं

यद्यपि सत्याग्रह ने स्वतः ही भारत की महिलाओं को उनकी अंधेरी दुनिया से बाहर निकाल लिया है, फिर भी कांग्रेस के पुरूष कार्यकर्ता स्वराज के संघर्ष में महिलाओं को बराबर का साझीदार बनाने का महत्व नहीं समझ पाए हैं। प्रत्येक कांग्रेसी कार्यकर्ता के लिए यह सौभाग्य की बात है कि वो भारत की महिलाओं को सहारा देकर उन्हें सबकी भलाई के काम में सम्मानित साझीदार बनने का पूरा अवसर दें।

प्रान्तीय भाषाएं

अहिंसा पर आधारित स्वराज का मूलमंत्र यही है कि हर व्यक्ति स्वतंत्रता आंदोलन में अपना योगदान करे। इसके लिए यह जरूरी है कि लोगों को हर कार्रवाई की जानकारी उन्हीं की भाषा में दी जाए।

राष्ट्रीय भाषा

हिन्दी निर्विवाद रूप से संपूर्ण भारत की संपर्क भाषा है क्योंकि सबसे अधिक संख्या में लोग यह भाषा जानते और समझते हैं और बाकी लोग भी इसे आसानी से सीख सकते हैं। अगर हमें अपने देश की आत्मा से सच्चा प्रेम है तो हमें कम से कम उतने महीने तो हिन्दुस्तानी सीखने में लगाने ही चाहिए जितने वर्ष हमने अंग्रेजी सीखने में बिताए हैं।

आर्थिक समानता

यह अहिंसक स्वतंत्रता की मुख्य कुंजी है। आर्थिक समानता के लिए कार्य करने का अर्थ है पूंजी और श्रम के बीच का टकराव समाप्त करना। यानि एक ओर उन गिने चुने रईसों का स्तर नीचा करना जिनके हाथों में देश की अधिकांश दौलत सिमटी हुई है और दूसरी ओर अध-भूखे नंगे लाखों लोगों का जीवन स्तर ऊंचा उठाना। यदि स्वेच्छा से विपुल संपदा और उससे प्राप्त अधिकारों का त्याग करके उनका इस्तेमाल सबकी भलाई के लिए न किया गया तो एक दिन हिंसक खूनी क्रान्ति होना आवश्यम्भावी है।

किसान

जिस दिन किसानों को अपनी अहिंसक ताकत का अहसास हो जाएगा उस दिन दुनिया की कोई ताकत उनका मुकाबला नहीं कर पाएगी। लेकिन इस ताकत का इस्तेमाल कभी भी सत्ता की राजनीति के लिए नहीं किया जाना चाहिए। किसानों का संगठित करने का गांधीजी का तरीका जानने के इच्छुक लोगों की चंपारण, खेड़ा, बारदोली और बरसाड के आंदोलनों का अध्ययन करना चाहिए। ये आंदोलन किसानों की विशेष समस्याओं के समाधान के लिए संगठित किए गए थे।

श्रमिक

अहमदाबाद श्रमिक यूनियन सारे देश के लिए अनुकरणीय उदाहरण है। इसका आधार है-अहिंसा, शुद्धता और सादगी। इसका अपना अस्पताल है, मिल मजदूरों के बच्चों के लिए स्कूल हैं, प्रौढ़ साक्षरता कक्षाएं हैं, अपनी छपाई की प्रैस है, खादी की दुकान है और मजदूरों के रहने के लिए मकान हैं। इसने पूरी तरह अहिंसक हड़तालें कराई हैं। मिल- मालिकों और श्रमिकों ने आपसी मतभेद आपसी विचार- विमर्श से सुलझाए हैं।

आदिवासी

आदिवासियों की सेवा को हालांकि रचनात्मक कार्यक्रम की सूची में 16वें स्थान पर रखा गया है लेकिन इसका महत्व किसी भी अन्य कार्यक्रम से कम नहीं है।

कुष्ठ रोगी

कुष्ठ रोगियों की सेवा के लिए किसी भारतीय द्वारा केवल एक ही संस्था चलाई जा रही है। वर्धा के समीप सार्जेण्ट मनोहर दीवान की यह संस्था सार्जेण्ट विनोबा भावे के निर्देशन और प्रेरणा से काम कर रही है।

विद्यार्थी

1. उन्हें दलगत राजनीति से दूर रहना चाहिए।
2. राजनीतिक हड़तालें नहीं करनी चाहिए।
3. त्याग की भावना से कताई करनी चाहिए।
4. खादी और ग्रामीण उत्पादनों का इस्तेमाल करना चाहिए।
5. किसी दूसरे पर वंदे मातरम्‌ या राष्ट्रीय ध्वज थोपना नहीं चाहिए।
6. समाज में एकता की भावना उत्पन्न करनी चाहिए।
7. पड़ोसियों को प्राथमिक चिकित्सा उपलब्ध करानी चाहिए।
8. राष्ट्रीय भाषा हिन्दुस्तानी को उसके मौजूदा दोहरे स्वरूप में सीखनी चाहिए।
9. वे जो कुछ भी नया सीखें उसे अपनी मातृभाषा में अनुवाद करके अपने साप्ताहिक दौरों में आसपास के गांवों के लोगों को सिखाएं।
10. उन्हें कोई गुप्त काम नहीं करना चाहिए और अपनी जान की परवाह न करते हुए दंगों को अहिंसक तरीके से रोकने को तैयार रहना चाहिए। संघर्ष के अंतिम दौर में शिक्षा संस्थाओं से बाहर आकर देश की स्वतंत्रता के लिए जरूरत पड़ने पर जान की बाजी लगाने को तैयार रहना चाहिए।

हिन्दुस्तानी तालीमी संघ

भारत की एक और बड़ी समस्या शिक्षा के अभाव की थी। साक्षरता दर बहुत नीची और ठहरी हुई थी। प्रमुख कारण या इस विशाल कार्य के लिए ब्रिटिश भारत के बजट में धन की कमी। इसके साथ ही शिक्षा पद्धति भारतीय लड़कों के लिए उपयुक्त नहीं थी। एक बार गांधी जी की मेधा से एक नई शिक्षा पद्धति-बुनियादी राष्ट्रीय शिक्षा- का जन्म हुआ।

कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन में राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति के संबंध में निम्नलिखित प्रस्ताव का अनुमोदन किया गयाः-

��कांग्रेस 1906 के बाद से बराबर राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति के महत्व पर जोर देती रही है। असहयोग आंदोलन के दौर में इसके तत्वावधान में अनेक राष्ट्रीय शिक्षा संस्थाएं शुरू की गईं। कांग्रेस व्यापक जन- शिक्षा के उचित संगठन को सर्वाधिक महत्व देती है और स्वीकार करती है कि सारी राष्ट्रीय प्रगति अन्ततः लोगों को उपलब्ध शिक्षा के उद्देश्य, सार और तरीकों पर निर्भर करती है। निस्संदेह भारत में शिक्षा की मौजूदा पद्धति बिल्कुल उपयुक्त नहीं है। इसका उद्देश्य अब अप्रासंगिक हो गया है। यह थोड़े से लोगों तक सीमित है और इसने बड़ी संख्या में हमारे लोगों को निरक्षर छोड़ दिया है। अतः राष्ट्रव्यापी स्तर पर एक नई बुनियाद पर राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति बनाई जाए। अब कांग्रेस को सेवा और सरकार शिक्षा को प्रभावित और नियंत्रित करने के नए अवसर मिले हैं। अतः ऐसे बुनियादी सिद्धान्त खोजना जरूरी है जो ऐसी शिक्षा पद्धति का मार्गदर्शन करे। साथ ही इन्हें कार्यरूप देने के लिए अन्य आवश्यक उपाय भी करने होंगे। कांग्रेस का विचार है कि प्राथमिक और माध्यमिक स्तर के लिए बुनियादी शिक्षा निम्नलिखित सिद्धान्तों के अनुरूप दी जानी चाहिएः-

1. पूरे देश में सात वर्ष तक शिक्षा निःशुल्क उपलब्ध होनी चाहिए और सबके लिए शिक्षा प्राप्त करना अनिवार्य होना चाहिए।
2. शिक्षा विद्यार्थी की मातृ-भाषा में दी जानी चाहिए।
3. इस पूरी अवधि में शिक्षा किसी न किसी तरह के शारीरिक श्रम पर केंद्रित होनी चाहिए और जहां तक संभव हो अन्य गतिविधियां और प्रशिक्षण कार्यक्रम बच्चे के आस-पास के वातावरण से चुने गए मुख्य हस्तशिल्प से अभिन्न रूप से जुड़े होने चाहिएं।

��अतः कांग्रेस ने फैसला किया है कि शिक्षा के इस बुनियादी पक्ष के विकास के लिए अखिल भारतीय शिक्षा बोर्ड बनाया जाए। डा0 जाकिर हुसैन और श्री ई0 आर्यनाइकम से अनुरोध किया जाता है और उन्हें अधिकार दिया जाता है कि वे गांधीजी की सलाह और मार्गदर्शन से इस बोर्ड के गठन के लिए तत्काल कार्रवाई करें। वे बुनियादी राष्ट्रीय शिक्षा का ठोस कार्यक्रम तैयार करें और उसे उन लोगों की स्वीकृति के लिए पेश करें जिनका सरकारी या निजी शिक्षा पर नियंत्रण है।��

इस प्रकार अप्रैल 1938 में हिन्दुस्तानी तालीमी संघ (आल- इंडिया एजूकेशन बोर्ड) कायम हुआ।

उसने काफी अच्छी प्रगति की। मध्य प्रान्त और संयुक्त प्रान्त ने उसे प्राथमिक शिक्षा की अपनी सरकारी नीति के अंग के रूप में स्वीकार कर लिया। सरकारों ने बिहार, उड़ीसा, बंबई, मद्रास, कश्मीर और अन्य स्थानों पर प्रशिक्षण केंद्र स्थापित किए। इसके अलावा दिल्ली में जामिया मिलिया इस्लामिया और मसूलीट्टम और गुजरात में निजी केंद्र और बच्चों के लिए स्कूल खोले गए। श्री आर्यनाइकम और श्रीमती आशा देवी ने वर्धा में रहकर इस संस्था का कार्य पूरे उत्साह और दक्षता के साथ चलाया। लेकिन युद्ध शुरू होने पर इन गतिविधियों के विस्तार में गंभीर बाधाएं आईं। बाद में प्रमुख शिक्षा शास्त्रियों की मदद से वर्धा में नई तालीम योजना का शुभारंभ हुआ। इसके अंतर्गत हर उम्र के लोगों को शिक्षित करने का कार्यक्रम था। प्रौढ़ शिक्षा इस कार्यक्रम का प्रमुख अंग थी और बाद में कार्यक्रम का बहुत अधिक विस्तार हुआ।
वर्धा में भारत की राष्ट्रीय भाषा के रूप में हिन्दुस्तानी भाषा को विकसित करने के लिए भी संगठित प्रयास किए गए।

अखिल भारतीय हरिजन सेवक संघ

कांग्रेस ने शुरू से ही अस्पृश्यता निवारण को अपने कार्यक्रमों का प्रमुख अंग माना। उपवास और पूना पैक्ट के बाद गांधी जी ने अपना अधिकांश समय इसी काम में लगाया। हरिजन उत्थान कार्य के लिए एक अलग संगठन और कोष बनाया गया। इसकी शाखाएं देश भर में थीं और कुछ जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ताओं पर कार्यक्रम संचालन की जिम्मेदारी थी।

हरिजन सेवक संघ का मुख्य कार्यालय दिल्ली में था और सभी प्रांतों में इसकी शाखाएं थी। श्री घनश्याम दास बिरला इसके अध्यक्ष थे और श्री ए0 वी0 ठक्कर महासचिव थे।

कस्तूरबा स्मारक कोष और कार्य

महिलाओं, खासकर ग्रामीण महिलाओं के उत्थान का काम बाद में एक अलग संगठन को सौंप दिया गया। बा (कस्तूरबा गांधी) की स्मृति में करीब डेढ़ करोड़ रुपये का कोष इकट्ठा करके इस संगठन की स्थापना की गयी। इसकी सचिव श्रीमती सुचेता कृपलानी के कुशल संचालन में देश भर में अनेक केंद्रों पर महिलाओं को प्रशिक्षित करने का काम शुरू हुआ।

हिन्दुस्तानी सेवा दल

1938 में कांग्रेस ने स्वयंसेवकों को संगठित करने और उन्हें प्रशिक्षण देने का काम हिन्दुस्तानी सेवा दल नामक संगठन को सौंप दिया। इसका मुख्यालय कर्नाटक प्रांत में बनाया गया। शारीरिक श्रम और प्रशिक्षण के लिए अकादमी स्थापित की गई और देश भर में प्रशिक्षण शिविर लगाए गए। डा0 हार्डिकर के नेतृत्व में सेवादल ने सविनय अवज्ञा आंदोलन, विशेषकर कांग्रेस सदस्यों की भर्ती, धरनों और कांग्रेस के लिए शांतिपूर्ण कार्यकर्ताओं की फौज तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कु0 सोफिया सोमजी (बाद में श्रीमती सोफिया खान) और श्रीमती कमलादेवी चट्टोपाध्याय की भूमिका भी सेवादल में काफी महत्वपूर्ण रही।

इन संस्थाओं के अलावा गांधीजी और कांग्रेस की प्रेरणा और मार्गदर्शन में और भी अनेक गतिविधियां चलाई गईं। बाद में गांधीजी ने यह नियम बना दिया कि कांग्रेस के प्रत्येक कार्यकर्ता को अपनी शक्ति किसी न किसी नचनात्मक कार्य में लगानी होगी। उन्होंने और भी अनेक कार्यक्रम शुरू किए जिनका वर्णन यहां उन्हीं के शब्दों में किया जा रहा है।

प्रांतीय मंत्रिमण्डल

प्रान्तों में कांग्रेस सरकारों ने अपने छोटे से शासनकाल के दौरान कांग्रेस की नितियों के अनुरूप आर्थिक-सामाजिक कार्यक्रम तैयार करने की कोशिश की। इन मंत्रिमण्डलों ने विधायी और प्रशासनिक उपायों के जरिए अनेक जनकल्याणकारी कार्य शुरू किए जैसे मद्यनिषेध, ग्रामीण पुनर्निमाण, ऋण मुक्ति, बुनियादी शिक्षा, हिन्दुस्तानी भाषा का प्रसार, साक्षरता अभियान तथा कृषि संबंधी चुंगी और कर तथा पट्टेदारी कानून में संशोधन। इसके अलावा पट्टेदारी प्रथा, शिक्षा और औद्योगिकरण की नीतियों में व्यापक परिवर्तन की योजना भी थी। लेकिन यह सब संभव न हुआ क्योंकि प्रांतीय सरकारों के पास साधन और अधिकार बहुत सीमित थे तथा पुरानी अफसरशाही और गवर्नर सीधे या छिपे तौर पर दखलदांजी करते रहते थे।

कांग्रेस मंत्रिमण्डलों ने अक्टूबर 1939 के पहले सप्ताह में इस्तीफे दे दिए। उन्होंने दो साल और कुछ महीने तक काम किया। युद्ध काल में इसके सिवा कोई चारा नहीं था कि या तो गवर्नर का हस्तक्षेप बर्दाशत करो या टक्कर लो, जिसका अर्थ था बर्खास्तगी। बंगाल, पंजाब और सिंध की सरकारों ने इस्तीफे नहीं दिए। ब्रिटिश सरकार ने नए चुनाव नहीं कराए बल्कि प्रान्तों का शासन पूरी तरह अपने मुट्ठी में जकड़ लिया और पांच साल तक यह निरंकुश शासन चला।

बाद में असम, उड़ीसा और पश्चिमोत्तर सीमांत, की प्रान्तीय सरकारों का पुर्नगठन किया गया। इसके लिए तरीका भी आसान अपनाया गया। कांग्रेस विधायकों को जेल में ठूंसकर बहुमत वाले दल को अल्पमत में कर दिया गया। बंगाल का गैर कांग्रेसी मंत्रिमण्डल पूरी तरह यूरोपीय विधायकों के समर्थन पर निर्भर था। पंजाब और सिंध में विशेष आदेश निकालकर कांग्रेस सदस्यों को विधानसभाओं की बैठक में भाग लेने से रोक दिया गया। असम और सीमान्त प्रांत में गठित मंत्रिमण्डल बहुत दिन नहीं चल सके और अविश्वास प्रस्ताव के जरिए उनका तख्ता उलट दिया गया।

राष्ट्रीय योजना समिति

लघु और विकेन्द्रित उद्योगों और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की गांधीवादी विचारधारा ने काफी हद तक हमारे विचारों और प्रयासों को प्रभावित किया। पश्चिम के देशों विशेषकर सोवियत संघ की नियोजित अर्थव्यवस्था ने भौतिकवादी प्रगति की ऐसी तस्वीर पेश की जो भारत के लोगों की भयंकर गरीबी से बिल्कुल अलग थी। कांग्रेस ने प्रान्तों में आंशिक सत्ता संभालने के बाद, विशेषकर पं0 जवाहरलाल नेहरू की प्रेरणा और मार्गदर्शन से व्यापक आर्थिक योजनाएं बनानीं शुरू कीं।

जुलाई 1938 में कांग्रेस कार्यसमिति द्वारा अनुमोदित प्रस्ताव के फलस्वरूप कांग्रेस अध्यक्ष ने राष्ट्रीय योजना समिति गठित की। इससे पहले दिल्ली में प्रान्तीय कांग्रेसी सरकारों के उद्योग मंत्रियों का सममेलन हुआ। इस सम्मेलन में हर मंत्री ने एक व्यापक राष्ट्रीय योजना नीति की आवश्यकता पर जोर दिया। इसके फलस्वरूप भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष श्री सुभाष चंद्र बोस ने पण्डित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में 11 सदस्यों की राष्ट्रीय योजना समिति गठित की। बाद में इसमें और सदस्यों को भी शामिल किया गया।

योजना समिति ने जनता के रहन-सहन का उपयुक्त स्तर सुनिश्चित कराने के लिए कुछ ऐसे लक्ष्य निर्धारित किए जिन्हें 10 वर्ष के भीतर पूरा कर लिया जाना था। अतः यह जरूरी हो गया कि राष्ट्रीय आय को बढ़ाकर दुगना या तिगुना किया जाये। इसके लिए उत्पादन बढ़ाने के साथ-साथ दौलत का समान और न्यायपूर्ण वितरण करना भी आवश्यक था। कांग्रेस ने इसीलिए कुटीर उद्योगों के विकास पर जो दिया ताकि धन और सुविधाओं का वितरण समान हो तथा अंधाधुंध और अनियंत्रित औद्योगिकरण की बुराईयों से बचा जा सके। लेकिन इससे कुटीर उद्योगों और बड़े उद्योगों के दावों को लेकर कुछ मतभेद हो गए। विवाद का मुद्दा यह था कि किस पर अधिक जोर दिया जाना चाहिए।

देश की सब से बड़ी समस्या चहुंमुखी समन्वित प्रगति की थी। बड़े उद्योगों और कुटीर उद्योगों को एक- दूसरे का पूरक बनना होगा। खेती, भू- संरक्षण, वनीकरण, बाढ़ नियंत्रण और नदी विनयन, परिवहन, मवेशी और उनके चारे की सप्लाई की स्थिति में सुधार आदि सभी कार्यों को एक सुनियोजित योजना का अंग बनाया जाना चाहिए। खेती पर से जनसंख्या का दबाव कम करने के लिए बड़े मध्यम और कुटीर उद्योग विकसित किए जाने चाहिएं। प्रगतिशील अर्थव्यवस्था की जरूरतों को पूरा करने के लिए सामान्य और रोजगार-मूलक शिक्षा तथा अनुसंधान कार्यों को भी योजना में स्थान दिया जाना चाहिए। देश के संतुलित विकास के लिए जरूरी है कि उद्योगों की स्थापना इस ढंग से की जाए कि हर प्रांत और राज्य अपने कच्चे माल का उपयोग कर सके अपने लोगों का रोजगार दे सके और अपनी पूंजी लगा सके।

नियोजित अर्थव्यवस्था की इस विशाल संरचना के लिए पूरी जानकारी और आंकड़ों के साथ-साथ तकनीकी विशेषज्ञों, उद्योगपतियों, प्रशासकों और आम नागरिक का स्वैच्छिक सहयोग आवश्यक था। इसी उद्देश्य से राष्ट्रीय योजना समिति ने 29 उपसमितियां बनाईं जिनमें देश के विशेषज्ञों को शामिल किया गया ताकि वे मुख्य समिति को सलाह और राय दे सकें। इनमें सात उपसमितियां कृषि, सिंचाई, फसल योजना, कृषि मजदूरों आदि से संबद्ध थीं, आठ उपसमितियां कुटीर और ग्रामीण उद्योगों, बिजली और ईंधन, रसायनों, इंजीनियरी और उत्पादक उद्योगों आदि के बारे में थीं। इसके अलावा श्रम, जनसंख्या, स्वास्थ्य, आवास और शिक्षा की उपसमितियां भी थीं। पांच उपसमितियां व्यापार, वित्त और मुद्रा नीतियों के अध्ययन के लिए थीं और एक उपसमिति को महिलाओं के सामाजिक, आर्थिक और कानूनी स्तर का अध्ययन करने का काम सौंपा गया ताकि महिलाएं भी भारत की भावी नियोजित अर्थव्यवस्था ने समान योगदान कर सकें।

कांग्रेस की प्रांतीय सरकारों के अलावा बंगाल, पंजाब और सिंध प्रांतों और हैदराबाद, मैसूर, बड़ौदा, ट्रावनकोर और भोपाल रियासतों के शासकों ने भी समिति को सहयोग दिया। लेकिन केंद्रीय सरकार में असहयोग का रवैया जारी रखा।

यह स्पष्ट हो गया कि व्यापक नियोजन की नीति केवल स्वतंत्र राष्ट्रीय सरकार के शासनकाल में ही सफलतापूर्वक अपनाई जा सकती है। लेकिन समिति ने उपयोगी आधार तैयार कर लिया था। देश की आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों के बीच तालमेल और उनके योजनाबद्ध विकास की कल्पना ने नेताओं और जनता दोनों का मार्गदर्शन किया।