शनिवार, 29 मार्च 2014

श्रीलंका में महिलाओं के बिगड़ते हालात






श्रीलंका में गृहयुद्ध खत्म हुए तीन साल होने वाले हैं. आज भी देश के हालात बुरे हैं. महिलाओं के लिए जीवन चुनौती भरा है. यदि महिला पति खो चुकी हो, तो उसका जीना दूभर हो जाता है.
गृहयुद्ध के बाद भी युद्धरत महिलाएं
18 मई को श्रीलंका में करीब आठ सौ हिन्दू महिलाएं अपने पति की समृद्धि के लिए पूजा करेंगी. यह करवाचौथ का व्रत तो नहीं है, बल्कि उन पुरुषों की सलामती के लिए दुआ में उठे हाथ हैं जो श्रीलंका के गृहयुद्ध के दौरान मारे गए या फिर लापता हो गए. श्रीलंका के उत्तरी इलाकों में महिलाओं के लिए काम करने वाले समाज सेवक श्री अब्दुल सरूर बताते हैं, "ये महिलाएं आज भी उम्मीद लगाए बैठी हैं, जबकि इतने लोगों की युद्ध के आखिरी दिनों में जान चली गई. लेकिन अगर ये इस बात को मान भी लें कि इनके पति मर चुके हैं, तो भी ये विधवा की जिंदगी नहीं जीना चाहती, क्योंकि फिर उन्हें समाज की बुरी नजरों का सामना करना पड़ेगा."
महिलाओं का शोषण
गृहयुद्ध के कारण करीब 59 हजार महिलाएं विधवा हो गईं. इनमें से अधिकतर उत्तरी और पूर्वी तमिल आबादी वाले इलाकों में रहती हैं. इन महिलाओं को घर चलाने के लिए मजबूरन सेक्स वर्क के पेशे में जाना पड़ रहा है. अपना नाम जाहिर नहीं करने की शर्त पर एक समाज सेवक ने बताया, "हम कोशिश करते हैं कि उन्हें देह व्यापार से दूर ले जाएं, लेकिन वे कहती हैं कि उनके पास इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं है. इसलिए हम उन्हें गर्भ निरोध के बारे में जानकारी देते हैं और कंडोम उपलब्ध कराते हैं."
गैर सरकारी संस्थाओं पर सरकार को संशय है. जो गैर सरकारी संगठन पुनर्निमाण में मदद कर रहे हैं, उन्हें सरकार का समर्थन मिलता है. लेकिन मानवाधिकार और महिलाओं से जुड़े एनजीओ पर सरकार को शंका है. सरूर का इस बारे में कहना है, "जैसे ही आप कहते हैं कि आप एनजीओ से हैं, बखेड़ा खड़ा हो जाता है." सरूर का कहना है कि महिलाएं खुद को इस माहौल में असुरक्षित महसूस करती हैं.
सरकार स्थिति मानने को तैयार नहीं.
बच्चियों के साथ यौन शोषण के मामले भी सामने आए हैं, "एक बार तो एक नौ साल की बच्ची के शोषण का मामला सामने आया. महिलाओं का कहना है कि वे घर से निकलते हुए डरती हैं कि कहीं उनके पीछे उनके बच्चों के साथ बुरा व्यवहार ना हो."
सरकार का इनकार
समस्या यह भी है कि महिलाओं को यह नहीं पता कि वह अपने हक के लिए कैसे लड़े. महिलाओं के विकास के लिए काम कर रही शांती सचीथंदम का कहना है, "उनके पास आपबीती बताने का कोई विकल्प ही नहीं है. उन्हें सलाह की सख्त जरूरत है."
श्रीलंका इस बात से इनकार करता आया है कि गृहयुद्ध के अंतिम चरण में कई नागरिकों की जान गई. अब सरकार महिलाओं की स्थिति से भी इनकार कर रही है. कई समाज सेवकों को डर है कि यदि वे खुल कर इन मामलों पर चर्चा करेंगे तो उन्हें सरकार की कार्रवाई का सामना करना पड़ेगा.
अपना नाम ना बताने की शर्त पर एक समाज सेविका ने कहा कि जब उसने पत्रकारों को हालात बताने चाहे तो उसे और उसके परिवार को सरकार की ओर से धमकियां मिलने लगीं. वह पत्रकारों की इस बात से अवगत करना चाह रही थी कि किस तरह श्रीलंका की महिलाओं को देह व्यापार के पेशे में जाना पड़ रहा है, "वे महिलाएं बहुत बुरे हाल में हैं. हम उन्हें ले कर बहुत चिंतित हैं और उन्हें इस जाल से निकालने में मदद करना चाहते हैं. लेकिन सरकार के सहयोग के बिना हम कुछ खास नहीं कर सकते."
इस समाज सेविका का कहना है कि जागरुकता ना होने के कारण एड्स जैसी बीमारियां भी फैल रही हैं और देश में अवैध बच्चों की संख्या बढ़ रही है.
आईबी, एएम (आईपीएस)

शुक्रवार, 28 मार्च 2014

सूखा विदर्भ (महाराष्ट्र) और सुखी सरकार





ब्लॉग

राजनीति का सूखा और पानी का हाहाकार

महादेश के एक प्रमुख राज्य महाराष्ट्र में और देश की वाणिज्य राजधानी और दुनिया में फिल्मों की सबसे बड़ी उत्पादन नगरी मुंबई से कुछ दूर लगा है औरंगाबाद.
सड़क से कोई साढ़े पांच घंटे का सफर. करीब 350 किलोमीटर. औरंगाबाद उस मराठवाड़ा इलाके का एक बड़ा जिला है जहां पानी का हाहाकार है. बाकी जिलों में यही स्थिति है. उधर उत्तरी महाराष्ट्र में सोलापुर, सांगली और सतारा जैसे कई जिलों में भी यही हालात हैं और उस विदर्भ पर तो ये जल संकट दोहरी मार की तरह है जो किसानों की आत्महत्या से यूं भी टूटा सहमा हुआ है और किसी तरह जिंदगी की डोर थामे हुए है. महाराष्ट्र इस समय चालीस साल के सबसे बड़े सूखे से जूझ रहा है.
लेकिन सूखा और अकाल यकायक नहीं चले आए. इनकी पृष्ठभूमि बन रही थी, वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी थी और सरकार को अग्रिम तैयारियों के बारे में भी बताया गया था, लेकिन सरकारों के पास वक्त कहां. ये वही दौर था जब महाराष्ट्र सरकार में उथलपुथल थी. अजीत पवार इस्तीफा दे चुके थे, सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप थे. उधर बीजेपी के तत्कालीन अध्यक्ष और महाराष्ट्र के ही निवासी नितिन गडकरी स्थानीय संसाधनों के दुरुपयोग के आरोपों और दूसरे भी कई किस्म के आरोपों से घिर गए थे. दुनिया के 22वें नंबर के सबसे अमीर(फोर्ब्स की ताजा सूची) और भारत के सर्वोच्च रईस मुकेश अंबानी का विशालकाय घर एंटिला बनकर तैयार था, सचिन तेंदुलकर शतक नहीं बना पा रहे थे और उनके दीवाने देश भर में हैरान परेशान थे. दबंग के बाद दबंग दो भी हो चुका था, नए सितारे आ जा रहे थे और मुंबई के इन्हीं सपनीले वक्तों में उसके पड़ोसों में रात था कि दिन न जाने कौन सी घड़ी थी कौन सा पहर, जब आम जनता को नसीब होने वाला पानी धरती के नीचे और नीचे न जाने कहां समाता जा रहा था. आखिर उसे इन आम इंसानों की खातिर ऊपर चले आने में क्या परहेज था. आखिर अरब महासागर की उद्दाम लहरें पछाड़ें खाते हुईं किसका मातम मना रही थीं या ये विडंबना की चढ़ती गिरती लहरें थीं महाराष्ट्र के किसानों, आम शहरियों, मजदूरों और गरीबों पर.
अकाल पीड़ित इलाकों के दौरे हो गए हैं. आश्वासनों की घुट्टी पिला दी गई है. लोगों के लिए और उनके पशुओं के लिए पानी के शिविर चल रहे हैं. लोगों को अन्न और पशुओं को चारा मिल रहा है. हर साल सिंचाई, भूमि सुधार, वॉटरशेड, कृषि तालाब, वॉटर रिचार्जिंग, ट्यूबवेल जैसे कामों के लिए राज्य में करीब डेढ़ सौ करोड़ रुपए खर्च किए जाते हैं. इन योजनाओं से आखिर पानी क्यों नहीं ठहरता, पानी को रोकने की इन योजनाओं में सदिच्छा की ठोस दीवार नहीं है, बात यही है. फिर आर्थिक पैकेज का झुनझुना. क्या पैकेज की बारिश से सूखे गलों को राहत मिलेगी, सूखी जमीनों में हरकत हो पाएगी. बहुत साल पहले प्रोफेसर अमर्त्य सेन बता चुके हैं कि आखिर सूखा या अकाल जैसी विपदाएं क्योंकर संसाधनों के कुनियोजन और नीतियों के अकाल से आती हैं. किसान क्या फसल बो रहा है, उसे क्या मदद हासिल है इन सब बातों से कृषि पैदावार ही नहीं जल संसाधन भी जुड़ा है. पॉलिसी सपोर्ट क्यों नहीं है किसान के लिए. आखिर किस बिना पर मराठवाड़ा के कई गांवों में किसान बड़े पैमाने पर गन्ना ही बो रहे थे जिसे बहुत सारा पानी चाहिए. आखिर क्यों? क्या ये शुगर लॉबी का जोर है? अनाज का उत्पादन नहीं होगा तो किसान खाएंगे क्या, अपना परिवार कैसे पालेंगे? कैसे उस देश की विराटता के एक कोने में किसी तरह बने रह पाएंगे जिसे गांवों का देश कहा जाता है?
एक तरफ ये विचारहीनता है तो दूसरी ओर एक अलग ही किस्म का विद्रूप है. संत कहे जाने वाले आसाराम बापू के एक सालाना जलसे में पिछले दिनों नागपुर नगर निगम के मुताबिक चालीस हजार लीटर पानी मांगा गया. लेकिन इसका इस्तेमाल बताया जा रहा है कि होली खेलने के लिए किया गया. क्योंकि बापू की होली की भी एक भव्यता है. हालांकि बापू समर्थकों का कहना है कि पानी का दुरुपयोग नहीं किया गया, लेकिन जांच तो की ही जा रही है. महाराष्ट्र का बड़ा हिस्सा पानी के लिए तरस रहा है और बापू के जलसे में पानी की होली का बेफिक्र नजारा है. इसी राज्य में, पी साईनाथ जैसे देश के अकेले कृषि पत्रकार और जानकार के मुताबिक, आजाद भारत की पहली हिल सिटी कही जाने वाली लवासा परियोजना के लिए अपार पानी दिया जा रहा है. साईनाथ ने परियोजना की वेबसाइट के हवाले से बताया है कि कैसे कुछ समय पहले उसमें दर्ज था कि इसे करीब साढ़े चौबीस अरब लीटर पानी स्टोर करने की अनुमति है. और किस किस के लिए रोएंगे आप. पिछले करीब 15 साल में बड़े पैमाने पर पानी बड़ी औद्योगिक परियोजनाओं को दिया जा रहा है. साईनाथ के मुताबिक सूखाग्रस्त महाराष्ट्र में कई गोल्फ कोर्स बने हैं जिनमें काफी पानी खर्च होता है.
महाराष्ट्र के इस विलाप में आंकड़ों की बात करना अजीबोगरीब तमाशा लग सकता है, लेकिन तथ्य जान लेने चाहिए. करीब 12 हजार गांवों के लाखों लोग इन दिनों अकाल से पीड़ित हैं. सात हजार गांव पीने के पानी के लिए टैंकरों पर निर्भर है. 123 तालुकाओं में अकाल की गंभीर स्थिति है. 414 करोड़ रुपए इस साल जनवरी से लेकर अब तक पानी के टैंकरों पर ही खर्च किए जा चुके हैं. मरने वालों की, तड़पने वालों की, पानी के लिए तरसने वालों की और जीवन से नाउम्मीद हो चुके इंसानों की संख्या भी तो होगी ही. क्या ये आंकड़े हमें डराते नहीं. और सोचिए ये सिर्फ महाराष्ट्र के आंकड़े हैं. हमें ऐसे ही हालात की खबरें देश के दूसरे हिस्सों से मिलने ही वाली हैं. इन दिनों तड़प और वेदनाएं आखिर सुर्खियां बनते बनते वक्त तो लेती ही हैं.
पानी जैसे बुनियादी संसाधन पर समुदाय का हक था, वो हक छीना जा रहा है. कितना पानी उपलब्ध है, इस बात से ज्यादा अहमियत इस बात की है कि उस पानी का क्या इस्तेमाल हो रहा है. पानी को आखिर किसने लालच की और अन्याय की और मुनाफे की जंजीरों में जकड़ दिया है. सोचिए...पानी को. अकाल कुदरत से नहीं आते उन्हें कुछ मनुष्य अपने कपट और स्वार्थ से लाते हैं. और बहुत सारे मनुष्यों के ऊपर छोड़ देते हैं.
ब्लॉगः शिव प्रसाद जोशी
संपादनः महेश झा

गुरुवार, 27 मार्च 2014

गजट







http://hi.wikipedia.org/s/20mg

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
गजट 'संवादपत्र' (newspaper) का पर्याय तथा समानार्थक एवं बहुप्रयुक्त प्राचीन शब्द। गजट सामयिक घटनाओं का सारसंग्रह होता है।
यह 'आदि समाचारपत्र' का एक भेद है जिसका नामकरण और प्रकाशन, वेनिस की सरकार द्वारा सन् 1566 में गजट के रूप में हुआ। 1665 में इंग्लैंड में आक्सफर्ड गज़ट प्रकाशित हुआ जो अगले वर्ष 'लंदन गज़ट' हो गया। वह ब्रिटिश सरकार का राजकीय मुखपत्र है। स्थानीय तथा प्रादेशिक समाचारों के ऐसे प्रकाशन समाचारपत्रों की ही श्रेणी में आते हैं, जैसे पालमाल गज़ट, सेंट जेम्स गज़ट, वेस्टमिंस्टा गज़ट आदि जो आज भी अस्तित्व में हैं।
भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में प्रारंभिक अखबारों के बीच यही नाम प्रचलित हुआ, जैसे बंगाल गज़ट (1780), हिकी गज़ट (1780), इंडियन गज़ट (1780), मद्रास गज़ट (1795) आदि। इस प्रकार गज़ट प्रांतीय अखबारों का सूचक पद रहा है। भारतीय समाचारपत्र के लिए गज़ट शब्द का प्रयोग 20वीं शताब्दी के आरंभ तक बहुतायत से मिलता है किंतु अब यह नाम अप्रचलित है। सिविल मिलिटरी गज़ट, मसूरी गज़ट आदि इने गिने अंग्रेजी पत्र इसके अपवाद हैं। इसके विपरीत गज़ट ईस्ट इंडिया कंपनी के शासनकाल से ही विधिप्रारूपों, विभागीय सूचनाओं और विज्ञप्तियों के शासकीय प्रकाशनों के लिए प्रयुक्त होता आया है, जैसे उत्तरप्रद्रेश गज़ट, बिहार गज़ट आदि। इस दृष्टि से किसी प्रकार की स्वतंत्र अथवा वैयक्तिक सूचनाओं और राजपत्रों के लिए यह नाम रूढ़ है और अपनी इन विशेषताओं के कारण गज़ट आधुनिक समचारपत्र से भिन्न हो जाता है। इसे हम सरकारी और प्रशासकीय सूचनाओं तथा कार्यों का विवरणपत्र कह सकते हैं।

बुधवार, 26 मार्च 2014

तेजी से घट रही है भारत में लड़कियां




उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडीशा और छत्तीसगढ़ समेत नौ राज्यों में लड़कों के मुकाबले लड़कियों की तादाद तेजी से घट रही है. इसकी वजह भ्रूण हत्या तो है ही पारिवारिक उपेक्षा और लड़की के पालन-पोषण में लापरवाही भी कम जिम्मेदार नहीं. 
यह समस्या पिछड़े राज्यों में ज्यादा है. जनगणना विभाग की रिपोर्ट के मुताबिक इन नौ राज्यों के कई जिलों में चार साल तक की उम्र के बच्चों में लिंग में अनुपात का अंतर तेजी से बढ़ा है. अब चूंकि इनमें बड़ी आबादी वाले कई राज्य भी शामिल हैं, इसलिए इस अंतर का मतलब लड़कों के मुकाबले लड़कियों की तादाद में लाखों की कमी है.
नौ में से चार राज्यों में तो यह अंतर सबसे ज्यादा है. विडंबना यह है कि इनमें से लगभग सभी राज्यों में कुछ साल तक पहले लिंग का अनुपात राष्ट्रीय औसत के मुकाबले ज्यादा था. इससे साफ है कि हाल के वर्षों में लड़कियों के प्रति समाज का रवैया तेजी से बदला है. इन राज्यों में जन्म के समय लिंग के अनुपात में सुधार आया है. लेकिन उपेक्षा और पोषण में कमी की वजह से चार साल तक उम्र तक पहुंचते-पहुंचते यह फासला बढ़ जाता है. जनगणना विभाग उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश, ओडीशा, झारखंड, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड और असम में सालाना स्वास्थ्य सर्वेक्षण करता रहा है. इस तरह का पहला सर्वेक्षण 2007-09 में किया गया था. उसके बाद वर्ष 2010 और 2011 में भी इसी तरह के सर्वेक्षण किए गए हैं.
राजस्थान सबसे नीचे
इन नौ राज्यों में राजस्थान का स्थान सबसे नीचे है. झारखंड पहले बाकी राज्यों के मुकाबले बेहतर स्थिति में था, लेकिन असम और छत्तीसगढ़ के साथ वहां भी चार साल तक की उम्र के बच्चों के बीच लिंग के अनुपात में फासला तेजी से बढ़ा है. छत्तीसगढ़ में यह अनुपात पहले 1000 के मुकाबले 978 था जो अब घट कर 965 रह गया है. इसी तरह बिहार के सभी जिलों में यह घटा है. मध्यप्रदेश के ज्यादातर जिलों में इसमें गिरावट आई है और उत्तराखंड, जहां हालत पहले से ही बदतर थी, में स्थिति और खराब हुई है. असम में भी स्थिति खराब है. राज्य के ज्यादातर जिलों में बच्चों के मुकाबले बच्चियों की तादाद तेजी से घटी है.
आखिर इसकी वजह क्या है? जाने-माने बाल रोग विशेषज्ञ डा. रमेंद्र दासगुप्ता कहते हैं, "सिर्फ भ्रूण हत्या ही इसकी वजह नहीं है. इसके लिए समाज की मानसिकता भी काफी हद तक जिम्मेदार है." वह कहते हैं कि आम तौर पर ज्यादातर परिवारों में बेटियों की परवरिश पर बेटों की तरह ध्यान नहीं दिया जाता. इसकी वजह से वे कुपोषण की शिकार हो जाती हैं और चार साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते उनमें से ज्यादातर विभिन्न बीमारियों की चपेट में आकर मौत के मुंह में समा जाती हैं.
सामाजिक कार्यकर्ता कौशल्या दास भी उनकी बातों का समर्थन करती हैं. वह कहती हैं, "भ्रूण हत्या रोकने के लिए बने कानूनों से इस पर काफी हद तक अंकुश लगाया जा सका है. लेकिन अब तक ऐसा कोई कानून नहीं बना है जो माता-पिता को बच्चियों की बेहतर परवरिश के लिए मजबूर कर सके." कौशल्या कहती हैं कि खासकर उन परिवारों में तो नवजात बच्चियों के प्रति और उपेक्षा बरती जाती है जहां पहले से ही एक या दो लड़की हो.
समाधान
विशेषज्ञों का कहना है कि इस समस्या पर अंकुश लगाने के लिए सामाजिक जागरुकता जरूरी है. प्रसव से पहले ही संबंधित मां और उसके परिजनों को बच्चियों के बेहतर परवरिश की जरूरत के बारे में बताया जाना चाहिए. डा. दासगुप्ता कहते हैं कि समाज में यह भावना पैदा होनी चाहिए कि बेटे और बेटी में कोई फर्क नहीं है. आम तौर पर लोग बेटे की परवरिश पर तो खूब ध्यान देते हैं, लेकिन बेटियों के मामले में उपेक्षा और टालमटोल का रवैया अपनाते हैं.
इन लोगों की राय में अगर इस समस्या पर काबू पाने की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की गई तो आगे चल कर स्थिति काफी गंभीर हो जाएगी. कौशल्या कहती हैं कि अकेले सरकार यह काम नहीं कर सकती. इस जागरुकता अभियान में गैर-सरकारी संगठनों की सक्रिय भागीदारी जरूरी है.
रिपोर्ट: प्रभाकर,

मंगलवार, 25 मार्च 2014

रवीश के बहाने ग्रामीण भारत की व्याख्या






एक रिपोर्ट रवीश के गांव से

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रवीश कुमार के घर के बगल लगा ट्रांसफार्मर रवीश कुमार के घर के बगल लगा ट्रांसफार्मर
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कुछ समय पहले रवीश ने अपने ‘ब्लॉग’ में लिखा था कि उनके गांव में बिजली आ गयी है. इसको लेकर ग्रामीणों में किस तरह का उत्साह है? उनकी ज़िंदगी में बिजली आने के बाद किस तरह का बदलाव आया है? स्थानीय मीडिया इस खबर का कवरेज जरूर करें. लेकिन ऐसा नहीं होना था सो नहीं हुआ. कस्बाई पत्रकारिता में इसके कारण तो बहुत सारे हैं, पर उल्लेख करना मैं उचित नहीं समझता. इसलिए कि मैं भी इसी समाज का रहनिहार हूं और पानी में रहकर मगर से..! खैर, मेरे गांव से जितवारपुर की दूरी मात्र 20 किमी है. पिछले दिनों वहीँ पर एक रिश्तेदारी में जाने का प्रोग्राम बना. सोचा, रवीश तो पूरे देश की रिपोर्ट बनाते हैं. क्यों नहीं उनके गांव की ही एक छोटी सी रिपोर्ट बनाने की गुस्ताखी कर ली जाए. आखिर एक ही गांव-जवार के होने के नाते कुछ अपना भी कर्तव्य तो बनता ही है.
बिहार के पूर्वी चंपारण जिले के मुख्यालय मोतिहारी से 36 किमी दक्षिण-पश्चिम में बसी है एक छोटी सी पंचायत, पिपरा. गंडक (नारायणी) नदी के बांध से सटे कछार में बसा यह गांव, प्राकृतिक दृश्यों के लिहाज से बिहार के मैदानी इलाके में स्थित किसी भी गांव से ख़ूबसूरत और उसी के अनुरुप पिछड़ा भी है. पर खांटी भोजपुरी परिवेश यहां के रग रग में चलायमान है. विश्व प्रसिद्द सोमेश्वर नाथ मंदिर, बाबा भोले की नगरी अरेराज अनुमंडल मुख्यालय से महज आठ किलोमीटर किमी की दूरी पर स्थित यह पंचायत अंतिम छोर है क्योंकि यहां के बाद गंडक (नारायणी) नदी का दियारा शुरू हो जाता है. फिर नदी के उस पार गोपालगंज जिला. करीब 12 हजार की आबादी वाली इस पंचायत में तीन राजस्व गांव पड़ते हैं, पिपरा, गुरहा व जितवारपुर. इनमें बात अगर जितवारपुर की करें तो, यह जग़ह इस मायने में खास है कि यहां एनडीटीवी इंडिया के वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार का पुश्तैनी घर है.

यह सही है कि जब कोई आदमी अपने कर्मों से लोकप्रिय होकर ग्लोबल पर्सनालिटी बन जाता है. तो उसे किसी विशेष गांव, धर्म, जाति या काल में बांध कर नहीं देखा जा सकता. लेकिन खुद रवीश अपने ब्लॉग ‘कस्बा’ में अक्सर गांव के ‘बाबू जी’, ‘मां’, ‘बाग-बगीचे’, ‘खलिहान’, ‘बरहम बाबा’, ‘पोखर’, ‘छठी माई’, ‘नारायणी नदी’, ‘गौरैया’ आदि का जिक्र करते रहते हैं. क्योंकि यह शाश्वत सत्य है कि दुनिया के किसी भी कोने में चले जाइए. मातृभूमि में बचपन के बिताए कुछ सुनहरे पल भुलाए भी कहां भूलते हैं. बल्कि स्मृतियों में जीवित रहते है ‘नौस्टेलेजिया’ बनकर. और जब कभी मन में भावनाओं का सैलाब उमड़ता है. फ्लैशबैक में गोता लगाते हुए बीते दिनों की यादें ताजा हो जाती हैं.
अरेराज से दक्षिण दिशा की तरफ जा रहे स्टेट हाइवे 74 को पकड़ जैसे ही चार किमी आगे बढ़े. भेलानारी पुल के समीप से एक पक्की सड़क पश्चिम की ओर निकलती दिखी. एक राहगीर से पूछा, पता चला यहीं से जितवारपुर पहुंचा जा सकता है. किसी काली नागिन से इठलाती बल खाती 12 फीट की चिकनी सड़क. और सड़क के दोनों ओर खेतों में नजर आ रही गेहूं की बाली, हरी भरी मकई, कटती ईख, पक्की सरसों व दलहन की फसलें. बहुत कुछ कह रही थी. यह कि गंडक से हर वर्ष आनेवाली बाढ़ अपने साथ त्रासदी तो लाती है, लेकिन बाढ़ के साथ बहकर आई गाद वाली मिट्टी इतनी उर्वर होती है कि अगली फसल से क्षति की भरपाई हो जाती है. हालांकि किसी किसी जगह चंवर में जमा पानी इस बात का आभास भी करा रहा था कि फ्लड एरिया है. तो यह देख खुशी भी हुई. एक समय जिस कच्ची सड़क से गुजरने से पहले लोग सौ बार सोचते थे. खासकर बरसात के दिनों में तो बंद ही रहती होगी. आज उसपर चकाचक सड़क बनी हुई है.
मैंने पूछा, आप रवीश कुमार का घर बता सकते हैं? उसने पलटकर बड़े आश्चर्य से पूछा- कौन रवीश?, सवाल के बदले जवाब नहीं बल्कि उलटे  यह उनका सवाल था. मैंने थोड़ा और साफ करते हुए कहा, पत्रकार साहेब का। तो उन्होंने कहा, ई तो नहीं जानते हैं. लेकिन मेरे एक पड़ोसी दिल्ली में बड़का पत्रकार हैं. उन्हीं के प्रयास से इहां लाइन आया है. उनका नाम नहीं बता सकता. बचपने से कमाई के लिए कश्मीर रहता हूं. कभी कभी छुट्टी में आना होता है. इसीलिए बहुत कुछ इयाद नहीं रहता. मैं उसकी बातों को सुन अचकचाया और बुदबुदाया, अरे भाई पड़ोसी होकर भी आपने रवीश का नाम नहीं सुना. तो उन्होंने कहा, घरे चलिए ना, उहें बाबूजी से पूछ लीजिएगा आ बिजली वाला ट्रांसफार्मरों देख लीजिएगा.हालांकि कहीं कहीं थोड़ी दूरी के उबड़ खाबड़ रास्ते भी मिले. जो पुराने हालात की गवाही दे रहे थे. इस कारण ना चाहते हुए भी बाइक में ब्रेक लगाना पड़ता. ठीक टीवी पर चल रही किसी बढ़िया फिल्म के बीच बीच में आ रहे विज्ञापन की तरह. कुछ वैसा ही महसूस हो रहा था. थोड़ी दूर आगे ही एक जगह सड़क के दोनों किनारे खड़े घने बांसों की हरियाली दूर से ही मन मोह रही थी. यहीं नहीं दोनों ओर से बांस झुककर मंडप की आकृति में सड़क के उपर पसरे थे. मानो खुद प्रकृति ने बाहर से आनेवाले अतिथियों के स्वागत में इसे सजाया हो. ख्याल आया, कम से कम एक फोटो तो बनता ही है, सो खींच लिया. आगे बढ़ने पर एक घासवाहिन मिली सिर पर घास की गठरी लादे हुए. उससे गांव का रास्ता पूछा. तो बताई, दो दिशा से जा सकते हैं. एक गांव के पूरब से है जो कि सीधे बांध तक जाता है. दूसरा पश्चिम में सेंटर चौक से मेन गांव में. तय हुआ अभी पहले वाले रास्ते से चलते हैं. लौटते समय दूसरे रास्ते से आएंगे.
थोड़ी देर में ही हम गंडक के बांध पर पहुंच गए. पक्की सड़क वहीँ तक थी और उपर में ईट का खरंजा. बांध पर चौमुहान था जहां तीन पीपल के पेड़ खड़े थे अगुआनी के लिए. और किनारे ही पोखरा में कुछ लोग भैंसों को नहला रहा थे. सामने से गंजी पहने एक जनाब हाथ में डिबिया लिए आते दिखे. मुद्रा बता रहा था कि दिशा मैदान से आ रहे हैं. पूछने पर नाम हसमत अंसारी बताए. बोले, ई गांव का बरह्म बाबा चौक है. समझ लीजिए गांव का पूर्वी सिवान. बियाह का परिछावन, लईका सब का खेलकूद आ बूढ़-पुरनिया का घुमाई फिराई सब इहवे होता है. यहां से गांव के चारो दिशा में जा सकते हैं. बोले, जब मेन रोड नहीं बना था बरसात में बांध ही रास्ता था. मैंने पूछा, आपके गांव में बिजली आई है? उन्होंने कहा है, आई तो है लेकिन हमारे घर नहीं रहती. काहे कि मीटर नहीं लगा है न.
बांध के दक्षिण तरफ किनारे पर भी लोग बसे हैं. इधर की तरफ बांध से सटे बांस, बगीचे और खेतों की हरियाली थोड़ी बहुत है. लेकिन दूर दूर तक केवल खरही के झुरमुट और रेतीले मैदान दिखाई पड़ते हैं. क्योंकि इसके बाद रेतीली जमीन और नदी की धारा है. बांध पर टहलते हुए तपस्या भगत मिले. विधि व्यवस्था के बाबत पूछा तो बताने लगे, दस साल पहले लालटेन के जमाने में पूरी तरह जंगल राज था. दिनदहाड़े कब कौन कहां चाकू, गोली, बम या छिनतई का शिकार हो जाए. कहना मुश्किल था. दियर के एक खास जाति का लोग सब एतना जियान करना था कि एने के लोग अपना रेता वाला खेत में ककरी, लालमी आ खीरा रोपना छोड़ दिए थे. डकैतों के डर से कोई खरही काटने भी नहीं जाता था. शाम के सात बजे ही घरों में ताले लग जाते थे. रात भर जाग के बिहान होता था. ना मालूम कब कवना घरे डकैती हो जाए. फिर उन्होंने एक गहरी सांस लेते हुए कहा, पर अब शांति है.

बगल में ही वरीय सामाजिक कार्यकर्ता जगन्नाथ सिंह का घर है. इन्हें स्थानीय लोग प्यार से ‘नेता जी’ से संबोधन करते हैं. उन्होंने बताया, पिपरा पंचायत में 16 वार्ड और आठ हजार मतदाता हैं. मुख्य सड़क तो पक्की हो गई है पर गलियां अभी भी कच्ची हैं. एक उप स्वाथ्य केंद्र है जहां कभी कभी नर्स नजर आ जाती है. सरकारी प्रारंभिक व मध्य विद्दालय हैं. लेकिन अधिकांश लोग अपने बच्चों को शहर में रहकर कान्वेंट में पढ़ा रहे हैं. उन्होंने बताया, बांध के दक्षिण नदी वाले दिशा में ग्रामीणों की हजारों एकड़ जमीन बाढ़ के कारण परती (वीरान) रहती है. पर उतर साइड में थोड़ी बहुत उपजाउ खेत हैं. गांव की पच्चास प्रतिशत आबादी का पलायन है. यहां के निवासी काफी कर्मठ व जीवट प्रवृति के हैं. इसी कारण जहां भी जाएं अपनी कामयाबी का झंडा गाड़ लेते हैं.

वे बताते हैं, गांव के लोग मोतिहारी, बेतिया, पटना, मुंबई, दिल्ली, असम, गुजरात से लेकर अरब, दुबई और अमेरिका आदि जगहों तक पसरे हैं. बाहरी पैसा आने से हर घर में खुशहाली है. अधिकांश घरों में कोई ना कोई सरकारी नौकरी में है. यहां ब्राह्मण, भूमिहार, यादव, मुस्लिम, गिरी, दलित, महादलित, कुर्मी सभी जातियों के लोग हैं. लेकिन आपस में सदभावना है और एकता भी. आपको बता दें कि अरेराज अनुमंडल के तहत गंडक किनारे दो प्रखंड आते हैं, गोविंदगंज और संग्रामपुर. और मोतिहारी शहर में 60 प्रतिशत डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षाविद्, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, राजनेता, ठेकेदार या व्यवसायी इन्हीं जगहों से हैं. मतलब जिला मुख्यालय में भी इनका ही वर्चस्व है.
प्लान के मुताबिक लौटते वक्त हम पिपरा सेंटर चौक की ओर से निकले. यहां भी चौमुहान रास्ता दिखा. एक छोटा सा चौक, सड़क से सटे एक सैलून, एक झोपड़ीनुमा चाय की दुकान, पान की गुमटी व एक परचून की दुकान जैसा मिशलेनियस स्टोर भी दिखे. इस स्टोर में मोबाइल चार्ज, रिचार्ज. तम्बाकू, भुजिया, नमकीन, बिस्किट, मैगी, ब्रेड, कुरकुरे, ठंडें की बोतलें आदि चीजें बिकने के लिए रखी थीं. वहीँ पर हरिनाथ शुक्ल जी खड़े होकर एक छोटे रोते बच्चे को कोरा में थामे चुप करा रहे थे. बोले, पोता हैं ‘कुरकुरा’ खरीदने का जिद कर रहा था. इसलिए चौक पर लाया. खरीद दिया तो अब कह रहा है, स्प्राईट चाही. बताइए ई कोई बात हुआ, ठंडा गरमी का सीजन है. ठंढ़वा पियेगा त लोल नहीं बढ़ जाएगा.
(श्रीकांत सौरव मोतिहारी के एक गांव में रहकर मेघवाणी नाम से ब्लाग लेखन करते हैं।)

सोमवार, 24 मार्च 2014

एक लाख दो और एक बच्चा लो

 

 

 

 

एक लाख में बिकता एक बच्चा

नाइजीरिया में पुलिस ने एक घर पर छापा मार आठ गर्भवती लड़कियों को गिरफ्तार किया. इन लड़कियों की बच्चों को जन्म देने के बाद बेच देने की योजना थी.
प्रत्येक बच्चे को करीब 2,000 डॉलर यानि करीब एक लाख रुपये में बेचे जाने का विचार था. लागोस के पुलिस प्रवक्ता अबींबोला ओयेमी ने बताया, "खबर मिलने के बाद हमने ओगल प्रांत के अकूटे जिले में घर ढूंढकर छापा मारा और बेचने के लिए बच्चे पैदा करने वाली इन लड़कियों को गिरफ्तार कर लिया. उन्होंने बताया इन आठ में से ज्यादातर लड़कियां बीस साल से कम उम्र की हैं.
बेबी फैक्ट्री
घर में एक और महिला भी थी जिसके बारे में पुलिस का शक है कि वह संचालक है. हालांकि यह देश में अपनी तरह का पहला मामला नहीं है लेकिन दक्षिण पश्चिमी नाइजीरिया में पहली बार ऐसी घटना हुई है. बच्चों को बेचने के मकसद से पैदा करने के इस तरीके को बेबी फैक्ट्री के नाम से भी जाना जाता है.
ओयेमी ने बताया, "लड़कियों ने कबूल किया है कि वे प्रत्येक नवजात को दो हजार डॉलर में बेचने जा रही थीं." उन्होंने कहा कि मामले की जांच पूरी होने पर उन पर मुकदमा चलाया जाएगा.
साल 2011 से पुलिस ने बेबी फैक्ट्रियों पर छापे मार करीब 125 लड़कियों को छुड़ाया है. ज्यादातर को देश के दक्षिण पूर्वी प्रांतों से पकड़ा गया. दक्षिण पूर्वी नाइजीरिया में पिछले कुछ समय से मानव तस्करी के मामलों में वृद्धि हुई है. पिछले दो सालों में मैटरनिटी होम्स में जगह के लिए काला बाजारी जैसी घटनाएं आम हो गई हैं.
लड़कों के बेहतर दाम
अधिकतर मामलों में मैटरनिटी होम्स में जगह लेने वाली उन लड़कियों की संख्या ज्यादा है जो शादी के बगैर गर्भवती हुईं. उन्होंने बदनामी के डर से यहां पनाह ली. बच्चे को जन्म देकर वे उसे बेच पर मिलने वाले पैसों का कुछ हिस्सा अपने पास रखती हैं.
उनके ग्राहक ज्यादातर ऐसे दंपति हैं जिनकी खुद संतान नहीं होती. नवजात अगर लड़का हो तो लड़की के मुकाबले उन्हें दाम भी बेहतर मिलते हैं. पश्चिमी अफ्रीका में बाल तस्करी आम है. परिवारों से उठा कर लाए गए बच्चों से खेतों, खानों, फैक्ट्रियों और घरों में काम करवाया जाता है. वहीं लड़कियों को देहव्यापार के लिए दलालों को बेच दिया जाता है.

सोने की चिडिया वाले भारत का आर्थिक इतिहास





मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
भारत एक समय मे सोने की चिडिया कहलाता था। अंगस मैडिसन (Angus Maddison) नामक आर्थिक इतिहासकार ने अपनी पुस्तक 'द वर्ड इकनॉमी : अ इलेनिअल परस्पेक्टिव' में कहा है कि पहली शती से लेकर दसवीं सदी तक भारत की अर्थव्यवस्था विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था थी। पहली शदी में भारत का सकल घरेलू उत्पाद (GDP) विश्व के कुल जीडीपी का 32.9%% था ; सन् १००० में यह 28.9% था ; और सन् १७०० में 24.4% था।

सन् १७५० से १९१३ के बीच विश्व के प्रमुख देशों का उत्पादन प्रतिशत
भारत की अर्थव्यवस्था को मोटे तौर पर तीन भागों मे बांटा जा सकता है:
  • ब्रिटिश काल से पहले
  • ब्रिटिश काल मे
  • आज़ादी के बाद

ब्रिटिश काल के पूर्व भारत में उद्योग-धंधे

वस्त्र उद्योग

वस्त्र उद्योग में सूती, ऊनी और सिल्क प्रमुख थे। सूती वस्त्र उद्योग बड़ा व्यापक था। इस उद्योग में बहुत से लोग लगे हुए थे। कपास का धुनना और कातना आमतौर पर घरों में ही होता था, परन्तु किन्हीं क्षेत्रों में इस कार्य में विशिष्टता प्राप्त हो गई थी। बारीक से बारीक सूत काता जाता था। थेवेनॉट को अहमदाबाद के समीप कारीगरों का एक समूह मिला जिसका कोई निश्चित घर था और जो एक गाँव से दूसरे गाँव को काम की तलाश में जाता था। यह बिनौलों से कपड़ा निकालने, रूई को साफ करने और धुनने का कार्य करते थे। भारत के ग्रामों मे ही नहीं, बड़े बड़े नगरों में जुलाहे परिवार रहते थे जो वस्त्रनिर्माण का कार्य करते थे। तैयार कपड़े को धोने का कार्य धोबी करते थे जो वस्त्र-निर्माण का कार्य करते थे। तैयार कपड़े को धोने का कार्य धोबी करते थे। तैयार कपड़े को धोने के लिए पहले गर्म पानी में औटाया जाता था। इसके पश्चात उसे धोया और धूप में सुखाया जाता था। मोटे कपड़े को धोते समय धोबी उसे पत्थर पर पीटते थे। बारीक कपड़ों को पीटा नहीं जाता था। उसे धूप में सुखाने के लिये फैला दिया जाता था। कपड़ा धोने के लिये विशेष प्रकार के पानी की आवश्यकता पड़ती थी। नर्मदा नदी का पानी कपड़े की धुलाई के लिये इस नदी के पानी में लाया जाता था। नर्मदा नदी के तट पर बसा भड़ौंच नगर कपड़े की धुलाई के लिए प्रसिद्ध था। इस प्रकार ढाका के समीपवर्ती क्षेत्रों में बहुत से धोबी रहते थे, क्योंकि यहाँ का पानी कपड़े धोने के बड़ा उपर्युक्त था। कपड़े को नील से डाई किया जाता था। भारतीय कपडें की विदेशी में बड़ी माँग थी। विश्व के लगभग हर भाग में भारत से कपड़ा जाता था। ढाका की मलमल संसार-प्रसिद्ध थी। इसका धागा बहुत बारीक होता था जो चर्खे पर हाथ से काता जाता था। मलमल का थान एक अँगूठी के बीच से निकल सकता था। यूरोपीय यात्रियों ने इसकी भूरी-भूरी प्रशंसा की है। उच्च कोटि सी मलमल विभिन्न नामों के पुकारी जाती थी, जैसे मलमल खास (बादशाह की मलमल), सरकारें आली (नवाब की मलमल), आबे खाँ (बहता हुआ पानी) इत्यादि। भड़ौच में निर्मित `बफ्ता' वस्त्र की सारे देश और विदेशों में बड़ी मांग थी। यात्री टेवरनियर ने `बफ्ता' विभिन्न रंगों में रंगा जाता था। रँगने के लिये इसे आगरा और अहमदाबाद लाया जाता था। `बफ्ता' की लम्बाई १५ गज और चौड़ाई २५ इंच होती थी। अधिक चौड़ाई का `बफ्ता' ३६ इंच चौड़ा होता था। सफेद कपड़े का जिसे अँग्रेज व्यापारी `केलिको' कहते थे, बड़ी मात्रा में निर्माण होता था। इसके अतिरिक्त बढ़िया और कीमती कपड़े का भी निर्माण होता था। इसमें सोने और चाँदी के तार पड़े होते थे। सूरत, आगरा, बनारस और अहमदाबाद इस प्रकार के वस्त्र निर्माण के प्रमुख केन्द्र थे।
प्रिण्टेड कपड़े की भी बड़ी माँग थी। कपड़े पर प्रिन्ट या तो हाथ से ब्रुश की सहायता से किया जाता था, या लकड़ी पर बने छापे द्वारा, जिस पर ब्लाक बना होता था। कपड़ा जिस पर ब्रुश से प्रिन्ट किया जाता था, `कलमदार' या `कलमकार' कपड़ा कहलाता था। दूसरा तरीका, लकड़ी पर खोदकर छापा बना लिया जाता था, उसे रँग में भिगोकर कपड़े पर लगा दिया जाता था। इंगलिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के व्यापारी इस कपड़े को `प्रिन्ट' या `चिन्ट' के नाम से पुकारते थे लकड़ी के छापे की अपेक्षा हाथ से ब्रुश की सहायता से प्रिन्ट करना कठिन था।
बच्चे आमतौर पर बड़ों की `प्रिन्ट' के कार्य में सहायता करते थे। १६७० ई। में फायर कोरोमण्डल तट की वर्णन करते हुए लिखा है-- "पेंटिंग का काम बड़ो के साथ-साथ छोटे बच्चों द्वारा भी किया जाता है। वे कपड़े को जमीन पर फैलाते हैं और अनेक प्रकार से बड़ों की इस कार्य में सहायता करते हैं। "पेंटिंग का कार्य आमतौर पर लकड़ी की बनी मेज पर या तख्ते पर होता था। वर्कशाप अधिकतर खुली जगह में होती थीं और ऊपर शेड पड़ा होता था। प्रिन्टेड क्लाथ के लिए कारोमण्डल तट बड़ा प्रसिद्ध था। यहाँ कपड़ा अन्य स्थानों की अपेक्षा सस्ता, अच्छा और चमकदार होता था।
ऊनी वस्त्र उद्योग के केन्द्र कश्मीर, काबूल, आगरा, लाहौर और पटना थे। कश्मीर के शाल, कम्बल, पट्टू और पश्मीना प्रसिद्ध थे। फतेहपुर सीकरी में ऊनी दरियाँ बनती थी। ऊनी वस्त्रों का प्रयोग सामान्यत: धनी वर्ग करता था। कीमत अधिक होने के कारण ऊनी वस्त्र का प्रयोग जन-साधारण की सामार्थ्य से बाहर था। जन-साधारण के लिये सस्ते और खुरदरे कम्बलों का निर्माण किया जाता था। इंगलिश ईस्ट इंडिया कम्पनी ने इंगलैड में बनी ऊनी कपड़े के लिये भारत में बाजार बनाने का प्रयत्न किया, परन्तु उसे इसमें अधिक सफलता नहीं मिली।
सिल्क उद्योग के लिए बनारस, अहमदाबाद और मुर्शिदाबाद प्रमुख थे। बंगाल से न केवल बड़ी मात्रा में सिल्क का निर्यात होता था, बल्कि सिल्क का कपड़ा भी बनता था। बनारस सिल्क की साड़ी और सिल्क पर जरी के कार्य के लिये प्रसिद्ध था। सूरत में सिल्क की दरियां बनती थी। सिल्क के कपड़े पर जरी का काम भी सुरत में होता था।
देश-विदेश में भारतीय कपड़े की बड़ी माँग थी। भारतीय वस्त्र उद्योग संसार के विभिन्न भागों की कपड़े की माँग की पूर्ति करता था। यूरोपीय व्यापारियों के कारण भारतीय कपड़े के निर्यात को बड़ा बढ़ावा मिला। यूरोप भारतीय कपड़े की खपत का प्रमुख केन्द्र बन गया। कपड़े की माँग की पूर्ति स्थानीय बजाज करते थे। वे बड़े व्यापारियों से कपड़ा खरीदते थे। कपड़े को छोटे विक्रेता फेरी वाले थे जो न केवल नगर की गलियों में कपड़ा बेचते थे, बल्कि गाँव में भी कपड़े बेचते थे। गाँव में साप्ताहिक हाट या पेंठ लगती थी जहाँ बजाज कपड़ा बेचते थे। स्थिति को देखते हुए वे आम तौर पर नगद पैसा लेने की माँग नहीं करते थे। और खरीदार किसान फसल के समय उधार धन चुकाता था। कभी-कभी जुलाहे अपना कपड़ा लाकर बाजार में बेचते थे। कासिम बाजार के आस-पास रहने वाले जुलाहे अपना कपड़ा बेचने के लिए नगर के बाजार में लाते थे।

आभूषण उद्योग

देश में आभूषण पहनने का आम रिवाज था। आजकल की तरह आभूषण पहनना सामाजिक प्रतिष्ठा का चिन्ह था। बादशाह, शाही परिवार एवं सामंत वर्ग रत्नजटिल आभूषणों का प्रयोग करता था। भारतीय नारी की आभूषण-प्रियता संसारप्रसिद्ध है। आभूषणों के निर्माण में निपुण कारीगर लगे हुए थे। आभूषण उद्योग देशव्यापी था। नारी के शरीर के विभिन्न अंगों के लिये अलग-अलग आभूषण थे। मुगलकाल में विभिन्न अंगों में पहनने के लिये निम्नलिखित आभूषणों का प्रचलन था-
सीसफूल सिर का आभूषण था। माथे के आभूषण था। माथे के आभूषण टीका या माँगटीका, झूमर और बिन्दी थे। माथे पर बिन्दी लगाने का आम रिवाज था और बिन्दी में मोती जड़े होते थे। आभूषण थे। गले के आभूषण हार, चन्द्रहार, माला मोहनमाला, माणिक्य माला, चम्पाकली, हँसली, दुलारी, तिलारी, चौसर, पँचलरा और सतलरा थे। दुलारी दो लड़ों, तिलारी तीन लड़ों, चौसर चार लड़ों, पँचलरा पाँच लड़ों और सतलरा सात लड़ों का आभूषण था। कमर का आभूषण तगड़ी या करधनी था। इसमें घुँघरू लगे होते थे जो चलते समय बजते थे। अँगूठी या मूँदरी अँगूली का आभूषण था जिसका बड़ा प्रचलन था। आरसी अँगूठे का आभूषण था, इसमें एक दर्पण लगा होता था। जिसमें मुँह देखा जा सकता था। पौंची, कंगन, कड़ा, चूड़ी और दस्तबन्द कलाई के आभूषण थे। भुजा के आभूँषण बाजूबन्द या भुजबन्द थे। बाजुबन्द का संस्कृत नाम भुजबन्द था। पैरों के आभूषण पाजेब, कड़ा थे। पैरों की अँगुलियों में बिछुए पहने जाते थे। पैरों के आभूषण आमतौर पर चाँदी के बने होते थे, जबकि दूसरे आभूषण सोने के बनते थे। गरीब लोग चाँदी के आभूषण पहनते थे।
बहुमुल्य रत्नों का विदेशों से आयात भी होता था और दक्षिण भारत की खानों से भी हीरे निकाले जाते थे। टेवरनियर हीरों का एक प्रसिद्ध व्यापारी था। दक्षिण भारत में हीरों की एक खान का वर्णन करते हुए टेवरनियर लिखता है कि इसमें हजारों की संख्या में मजदूर काम करते थे। भूमि के एक बड़े प्लाट को खोदा जाता था। आदमी इसे खोदते थे, स्त्रियांॅ और बच्चे उस मिट्टी को एक स्थान पर ले जाते थे। जो चारों ओर दीवारों से घिरा होता था। मिट्टी के घड़ों में पानी लाकर उस मिट्टी को धोया जाता था। ऊपरी मिट्टी दीवार में छेदों के द्वारा बहा दी जाती थी और रेत बच रहता था। इस प्रकार जो तत्त्व बचता था, उसे लकड़ी डण्डों से पीटा जाता था और अंत से हाथ से हीरे चुन लिये जाते थे।
मजदूरों को बहुत कम मजदूरी मिलती थी। टेवरनियर के अनुसार मजदूरी ३ पेगोडा वार्षिक थी। हीरे चोरी न हो जायें, इसके लिए ५० मजदूरों पर निगरानी रखने के लिए १२ से १५ तक चौकीदार होते थे। टेवरनियर एक घटना का वर्णन करता है जबकि एक मजदूर ने एक हीरे को अपनी आँखों के पलक के नीचे छुपा लिया था। लकड़ी का काम
जहाज, नावें, रथ और बैलगाड़ियाँ इत्यादि बनाने में लकड़ी का प्रयोग होता था। सूरत में पारसी लोग नावें और जहाज बनाने के कार्य में लगे हुए थे। मैसूर में सन्दल की लकड़ी पर सुन्दर कारीगरी का कार्य होता था। भवन-निर्माण में भी लकड़ी का प्रयोग होता था। माल ढोने में बैलगाड़ियों का प्रयोग होता था, इस कारण बड़ी संख्या में इनका निर्माण होता था। पालकी बनाने में भी लकड़ी का प्रयोग होता था। धनवान व्यक्ति और स्त्रियां पालकी में सवारी करते थे। नदियों में नावों द्वारा माल ले जाया जाता था। इससे प्रतीत होता है कि नावों का बड़ी संख्या में निर्माण होता था। फिंच ने आगरा से बंगाल तक १८० नावों के बेड़े के साथ यात्रा की थी। ये नावें छोटी और बड़ी दोनों प्रकार की थी। गंगा पर ४०० से ५०० टन क्षमता वाले नावें चलती थीं। सूरत, गोवा, बेसीन, ढाका, चटगाँव, मसुलीपट्टम, आगरा, लाहौर और इलाहाबाद इत्यादि में नावें और जहाज बनाये जाते थे। काश्मीर लकड़ी की सुन्दर डिजायनदार चीजें बनाने के लिए प्रसिद्ध था।

इमारती सामान एवं भवन-निर्माण

भवन निर्माण में ईंट, पत्थर, चूना, लकड़ी और मिट्टी का प्रयोग होता था। `आइने-अकबरी' में भवन निर्माण में काम आने वाली विभिन्न वस्तुओं के मूल्य दिये हुए है। आईन के अनुसार ईटें तीन प्रकार की होती थी--पकी हुई, अधपकी और कच्ची। इनका मूल्य क्रमश: ३० दाम, २४ दाम और १० दाम प्रति हजार था। लाल पत्थर का मूल्य ३ दाम प्रति मन था। कुशल कारीगर पत्थर को तराशनने का कार्य करते थे। साधारण जनता के मकान मिट्टी के बने होते थे और उन पर छप्पर पड़ा होता था। मिट्टी की बनी इन छोटी कोठरियों में परिवार के सब सदस्य रहते थे। इतना ही नहीं, उनके पशु गाय, बछड़ा भी उसी में रहते थे। परन्तु धनवान व्यक्ति शानदार मकानों में रहते थे। आगरा, दिल्ली और प्रान्तीय राजधानियों में अनेक विशाल भवन बनाये गये जिनका निर्माण कुशल कारीगरों ने किया और जिसके फलस्वरूप अनेक राजों, मजदूरों, पत्थरतराशों, बढ़ई एवं अन्य कारीगरों को रोजगार मिला।
मुगल शासक महान् भवन-निर्माता थे। बाबर ने बहुत-सी इमारतें बनवायें, किन्तु उनमें से केवल दो, पानीपत का काबूल बाग और संभल की जामा मस्जिद आज भी मौजूद है। बाबर के शब्दों में - "मेरे आगरा, सीकरी, बयाना, धौलपुर, ग्वालियर तथा कोल के भवनों के निर्माण में १४९१ पत्थर काटने वाले रोजाना कार्य करते थे।"
हुमायूँ का जीवन संघर्षमय रहा, फिर भी उसने पंजाब के हिसार जिले में फतेहाबाद में एक सुन्दर मस्जिद बनवायी। शेरशाह के भवनों में उसका सहसराम का मकबरा और पुराने किले में बनी `किलाए कुहना मस्जिद' प्रसिद्ध हैं। इनमें जामा मस्जिद और बुलन्द दरवाजा बड़े प्रसिद्ध हैं। अन्य भवन `बीरबल का महल' सुनहला मकान या शाहजादी अम्बर का महल, तुर्की सुल्ताना का महल और दीवाने खास हैं। सिकन्दरा में अकबर का मकबरा भवन-निर्माण कला का अच्छा उदाहरण है। अकबर ने आगरा और लाहौर में किलों का निर्माण कराया। आगरा के किले में प्रमुख भवन दीवाने आम, दीवाने खास और जहाँगीरी महल है। जहाँगीर की रूची भवन-निर्माण की अपेक्षा चित्रकला की ओर अधिक थी, परन्तु उसकी कमी की पूर्ति उसकी प्रिय बेगम नूरजहाँ ने की। नूरजहाँ ने अपने पिता की स्मृति में `इत्तमाद्-उद्दौला' का मकबरा बनवाया। यह संगमरमर का बना है और देखने में बड़ा सुन्दर है। नूरजहाँ ने लाहौर के समीप शाहदरे में जहाँगीर का मकबरा बनवाया।
मुगल बादशाहों में शाहजहाँ सबसे महान् भवन-निर्माता था। उसके प्रसिद्ध भवन दिल्ली का लाल किला, जामा मस्जिद और ताजमहल हैं। लाल किले में दीवाने खास सबसे अधिक सुन्दर और अलंकृत है। यहाँ एक खुदे लेख में इसकी सुन्दरता का वर्णन इन शब्दों में किया गया है--
गर फिरदौस बर रूये जमीं अस्त।
हमीं अस्तों हमीं अस्तों, हमीं अस्त।।
यानी, यदि पृथ्वी पर कहीं स्वर्ग है तो वह यही है, यही है और यही है। शाहजहाँ ने ताजमहल अपनी प्रिय बेगम अर्जमन्द बानू की स्मृति में बनवाया। ताजमहल को बनाने और इसका नक्शा तैयार करने के लिये देश-विदेश के कारीगरों को बुलाया गया। ताजमहल के कई नक्शे प्रस्तुत किये गये और बादशाह ने अंत में एक नक्शे पर अपनी स्वीकृति प्रदान की। पहले ताजमहल का छोटा-सा मॉडल लकड़ी का बनाया गया। जिसे देखकर कारीगरों ने ताज का निर्माण किया। ताजमहल उस्ताद ईसा की देखरेख में तैयार किया गया जिसे १००० रु। मासिक वेतन मिलता था। इसके निर्माण पर ५० लाख रु। खर्च हुआ। औरंगजेब ने लाल किले में अपने प्रयोग के लिये मोती मस्जिद बनवायी और लाहौर में बादशाही मस्जिद का निर्माण कराया। औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल निर्माण कला का ह्रास हो गया।

चमड़ा उद्योग

चमड़ा जूते बनाने, घोड़ों की जीन, पानी भरने की मशक इत्यादि विभिन्न कार्यो में प्रयोग किया जाता था। दिल्ली चमड़ा उद्योग के लिये प्रसिद्ध था। चमड़ा पशुओं के खाल से प्राप्त किया जाता था। स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये यह उद्योग सारे देश में फैला हुआ था।

मिट्टी के बर्तन

प्राचीन काल से ही मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग होता आया है। कुम्हार मिट्टी के बर्तन, पानी पीने के लिये मटके और विभिन्न प्रकार के कलात्मक खिलौने बनाते थे। यह उद्योग सारे देश में फैला हुआ था। जयपुर, बनारस, लखनऊ, दिल्ली, ग्वालियर इस उद्योग के मुख्य केन्द्र थे।

हाथीदाँत का काम

हाथी के दाँत की सुन्दर कलात्मक वस्तुएं बनायी जाती थीं, जैसे चूड़ियाँ, कंगन, शतरंज और शतरंज के मोहरे। विभिन्न प्रकार के खिलौने हाथीदाँत से बनाये जाते थे। दिल्ली और मुल्तान हाथी दाँत के काम के लिये प्रसिद्ध थे।

तेल और इत्र

तेल कोल्हू से पेर निकाला जाता था। किसानों के घरेलू उद्योग से निकल कर यह भी एक व्यावसायिक उद्योग बन गया था। तेली इस कार्य को करते थे। कोल्हू को चलाने में बैल का प्रयोग किया जाता था। तेल को बाजार में अथवा तेल व्यापारियों को बेच दिया जाता था। तेल सरसों, तिल, गोला आदि का निकाला जाता था। इत्र का भी निर्माण किया जाता था। बनारस, लाहौर और कैम्बे इत्र-निर्माण के केन्द्र थे।

चीनी-उद्योग

चीनी, गुड़, राब, गन्ने को कोल्हू से पेर कर बनायी जाती थी। गन्ने के रस को लोहे या मिट्टी के मटकों में भरकर आग पर गर्म किया जाता था। गन्ने की खोई गर्म करने के काम आती थी। इस प्रकार गुड़ और बूरे का निर्माण किया जाता था। आरम्भ में यह किसान परिवार का घरेलू उद्योग था। बाद में इस उद्योग ने विशिष्टता प्राप्त कर ली। देश में गुड़ और चीनी की बड़ी खपत थी। गन्ने की पैदावार उत्तर भारत के विस्तृत भू-भाग में होती थी। इस प्रकार यह उद्योग देशव्यापी था, फिर भी इस उद्योग के प्रमुख केन्द्र दिल्ली, आगरा बयाना, पटना, बरार और लाहौर थे। अंग्रेज और डल व्यापारी भारत से चीनी का निर्यात करते थे।

धातु उद्योग

लोहा

लोहा विभिन्न कार्यो में प्रयुक्त होता था। लोहे का प्रयोग प्रमुख रूप से हथियार बनाने के लिये होता था। यह हथियार आक्रमण और सुरक्षात्मक दोनों प्रकार के होते थे। बन्दूक, तोप, तलवार, भाले, कवच लोहे के बनते थे। गाँव में लोहार होता था जो ग्रामवासियों की स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति करता था। खेती के औजार मुख्य रूप से लोहे से बने होते थे। किसानों के अतिरिक्त अन्य लोगों, जैसे लोहार, बढ़ई, राज, मजदूर, दर्जी, तेली, हलवाई, माली, कसाई, नाई को अपने कार्यों के लिये जिन औजारों की आवश्यकता होती थी, वे पूर्ण रूप से या आंशिक रूप से लोहे के बने होते थे। घरेलू बर्तन जैसे कढ़ाई, करछरी, चिमटा और तथा इत्यादि लोहे के बने होते थे। घरेलू उपयोग में काम आने वाला चाकू लोहे का बना होता था। गोलकुण्डा में उच्चकोटि का लोहा और स्टील का निर्माण होता था। कालिंजर, ग्वालियर, कुमायूँ, सुकेत मण्डी (लाहौर) में लोहे की खानें थीं।

ब्रिटिश काल में भारत की अर्थव्यवस्था

स्वतंत्रत भारत की अर्थव्यवस्था

आज़ादी के बाद भारत के तत्कलीन प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने निर्गुट आन्दोलन (नॉन-अलाइंड मूव्मेंट) को भारत की प्रमुख विदेश नीति बनाया । इस दौरान भारत ने सोवियत रूस से दोस्ती बढयी । सोवियत रूस मे समाजवाद था । यूँ तो भारत ने समाज वाद को पूरी तरह से नही अप्नाया पर भारत की आर्थिक नीति मे समाज वाद के लक्शण साफ देखेय जा सक्ते थे । भारत मे ज्यादा तर उद्योगो को सरकारी नियंत्रण के अंतर्गत रक्खे जाने के लिये कयी तरह के मियम बनये गये। इस तरनह की नीति को कयी अर्थ्शास्त्रियोँ ने लाइसेंस राज और इंस्पेक्ट अर रज का नाम दिया । बिजली , सडकेँ, पानी, टेलीफोन, रेल यातायात, हवई यातायात, होटल, एन सभी पे सरकारी नियंत्रण था । या तो निजी क्शेत्र को इन उद्योगो मे पूंजी निवेश की अनुमती नही थी या फिर बहुत ही नियंत्रित अनुमती थी । दूसअरे कयी उद्योगो मे (जैसे खिलौने बनाना, रीटेल, वगैरह ) बडी निजी कम्पनियो को पूंजी निवेश की अनुमती नही थी । बैंको को भे सरकारी नियंत्रण मे रखा जाता था ।
1951 से 1979 तक भारतीय आर्थिक विकास दर 3.1 प्रतिशत थी । पर कैपिटा विकास दर 1.0% थी । विश्व मे इसे 'हिन्दू ग्रोथ रेट' के नाम से जाना जाता था । भारतीय उद्योगो का विकास दर 5.4 प्रतिशत था । कृषि विकास दर 3.0 प्रतिशत था । कई कारणो से भारत की आर्थिक विकास बहुत कम था। मुख्य कारण थे-
  • कृषि उद्योग मे संस्थागत कमियाँ
  • देश मे कम तकनीकी विकास
  • भारत की अर्थव्यवस्था का विश्व के दूसरे विकासशील देशो से एकीकृत (इंटिग्रेटेड) न होना
  • 1965, 1966, 1971, और 1972 पडे हुए चार सूखे
  • विदेशी पूंजी निवेश पर सरकारी रोक
  • कम साक्षरता दर
  • कम पढी-लिखी भारी जंसंख्या
भारत मे सन 1985 से भुगतान संतुलन (बैलैंस औफ पेमेंट) की समस्या शुरू हुई । 1991 मे चन्द्रशेखर सरकार के शासन के दौरान भारत मे बैलैंस औफ पेमेंट की समस्या ने विकराल रूप धारण किया और भारत की पहले से चर्मरायी हुई अर्थ्व्यवस्था घुट्नो पे आ गयी । भारत मे विदेशी मुद्रा का भंडार केवल तीन हफ्ते के आयातो के बराबर रह गया। ये एक बहुत ही गम्भीर समस्या थी ।

1990 के बाद

नरसिंह राव के नेतृत्व वाली भारतीय सरकार ने भारत मे बडे पैमाने मे आर्थिक सुधार करने का फैसला किया । उदारीकरण कह्लाने वाले इन सुधारो के आर्किटेक्ट थे मनमोहन सिंह । मन्मोहन सिन्ह ने आने वाले समय मे भारत की अर्थ्नीति को पूरी तरह से बदल्ने की शुरुआत की । उंके किये हुए आर्थिक सुधार मेंली तीन क्श्रेणियो मे आते है
  • उदारीकरण (लिब्रलाइज़ेशन)
  • वैश्वीकरण (ग्लोबलाइज़ेशन)
  • निजीकरण (प्राइवेटाइज़ेशन)
1996 से 1998 तक पी चिदम्बरम भारत के वित्त मंत्री हुए और उन्होने मनमोहन सिंह की नीतियो को आगे बढाया ।
1998 से 2004 तक देश मे भार्तीय जंता पार्टी की सरकार ने और भी ज़्यादा उदारीकरण और निजीकरण किया।
इस्के बाद 2004 मे आधुनिक भारत की अर्थ्नीति के रचयिता मन्मोहन सिन्ह भारत के प्रधान्मंत्री बने और पी चिदम्बरम वित्त मंत्री ।
इन सभी सालो मे भारत ने कफी तेज़ तरक्की की । अर्थ्व्यवस्था मे आमूल-चूल परिवर्तन हुए और भारत ने विश्व अर्थ्व्यवस्था मे अपना स्थान बनाना शुरू किया।

भविष्य

आने वाले दशकों में विश्व की अर्थव्यवस्था में भारी परिवर्तन होने के संकेत हैं। विश्व अर्थव्यवस्था में भारत का हिस्सा वर्तमान 5% से बढ़कर सन् 2040 में 20.8% हो जाने का अनुमान है।
मैथ्यू जोसेफ (कनिष्ट सलाहकार, ICRIER) द्वारा 2014 से 2040 तक विश्वअर्थव्यवस्था का अनुमान

2011 2014 2020 2030 2040
जर्मनी 4.2 3.8 3.4 2.8 2.3
यूएसए 20.4 19.2 17.6 15.3 13.9
जापान 6.2 5.6 4.7 3.7 2.9
चीन 11.3 16.3 22.2 30.9 37.4
भारत 4.9 6.3 8.5 14.3 20.8

इन्हें भी देखें

वाह्य सूत्र