शनिवार, 24 दिसंबर 2011

mcd के सबसे करप्ट विभाग का मुहाबरा (पकड़ो) फांसो (जमकर) लूटो डिपार्




एमसीडी के सबसे करप्ट डिपार्टमेंट fl deptt

दिल्ली नगर निगम के सबसे करप्ट डिपार्टमेंटों में शुमार फैक्टरी लाईसेंसिंग डिपार्टमेंट में अब काम के मुहाबरे के साथ ही साथ विभाग का चाल चलन और चरित्र ही बदल गया है। एफएल डिपार्टमेंट को आमतौर पर मनी मशीन की तरह देखा जाता रहा है। मगर एडीशनल कमीश्नर जनक दिग्गल द्वारा पूरे डिपार्टमेंट रो ही फेरबदल करके इसको सुधारने का साहस किया था।मगर करप्ट डिपार्टमेंट में आए इंस्पेंक्टरों की नयी फौज ने तो करप्शन और रिश्वत के खेल में पूरे विभाग को ही (पकड़ो) फांसो (जमकर) लूटो डिपार्टमेंट में तब्दील कर दिया है।
आला अधिकारियों को पटाकर और हर महीने मोटी रकम पहुंचाने की शर्तो पर ही यहां के इंस्पेक्टरों और बड़े अधिकारियों को मनमानी करने की खुली छूट मिलती है. इंस्पेक्टर राज को खत्म करने का दुसाहस करके  एडीशनल कमीश्नर जनक दिग्गल ने एकाएक निगमायुक्त की मर्जी के खिलाफ जाकर सारे इंस्पेक्टरों को  क ही झटके में बदल डाला। दिगगल के फैसले से तो एकबारगी तो ऐसा लगा मानो एमसीडी के इस सबसे करप्ट फैक्टरी लाईसेंसिंग डिपार्टमेंट का चाल चलन चरित्र के साथ साथ चेहरा ही बदलकर दम लेंगे। मगर, वैसा कुछ हुआ नहीं.। दिग्गल ने अलग अलग डिपार्टमेंट से लोगो को लाया और लगातार निगरानी करके हालात को बेहतर बनाने की कोशिश की। मगर विभाग में हमेशा की तरह करप्ट अधिकारियों को प्रमोट करने की परंपरा के तहत ही करप्ट इंस्पेक्टरों को संरक्षण देने के लिए बदनाम हो चुकी अलका शर्मा को निगमायुक्त ने डीसी बनाकर ईनाम देकर नवाजा। यह डिपार्टमेंट है ही इतना लुभावना और मालदार की जाने के नाम पर ही अधिकारियों के आंसू बाहर आने लगते है। रमेश बग्गा एव पूर्व एओ गुप्ता बदनाम होने के बावजूद फिर से यहां वापस, लौटने के  सारे हथकंड़ों को आजमाया।
 करप्शन का यह आलम है कि नौकरी के दौरान अपने पिता की मौत के बाद करूणामूलक आधार पर नौकरी पाने वाले अनिल कुमार का खेल तो तमाम नियम कानूनों को धत्ता कर दिया। आला अधिकारियों को पटाकर अनिल कुमार को यमुना पार में एक इंस्पेक्टर के रहते हुए भी इंस्पेक्टर बनाकर भेजा दिया गया। जनक दिग्गल के कोप से कोई भी इंस्पेक्टर नहीं बता, मगर अनिल कुमार इंस्पेक्टर से हटे जाने के बाद भी इसी विभाग में जमा मलाई चाटने में लगा है। हैरानी की बहात है कि अमूमन पांच साल के बाद सबों को स्थानांतरितकिया जाता है, मगर तबादलों की आंधी के बाद भी दिवगंत पिता की नौकरी से मलाई खाने में लगा है।  
हां तो बात हो रही थी इस विभाग क फैक्टरी लाईसेंसिंग डिपार्टमेंट के नए  मुहावरे यानी (पकड़ो) फांसो (जमकर) लूटो डिपार्टमेंट
 की ख्याति की। तबादले की आंधी से घबरे नए इंस्पेक्टरों को शुरूआत के पहले दो तीन माह तर तो घबराहट थी, मगर फैक्टरी लाईसेंसिंग डिपार्टमेंट के इलाके वार दलालों ने नए इंस्पेक्टरों की जमकर मदद की और देखते ही देखते नए करप्ट इंस्पेक्टरों की फौज ने तो पूराने सहकर्मियों की भी नाक कान काटकर शर्मसार कर दिया। बड़े अधिकारियों के संरक्षण में पल रहे ये इंस्पेक्टर ने ते जमकर लूयमार मचा रखी है। फैक्टरी मालिकों के सही काम होने में महीनों लग जा रहे है, तो वही करप्ट तरीके से करप्शन की चासनी के बूते अवैध काम फटाफट हो जा रहे है।
दलालों को साथ मिलाकर दलालों की दलाली करने में लगे है। यमुनापार के देवेन्द्र कुमार और वेस्ट दिल्ली के इजहार अहमद ने करप्शन का ठेका ले रखा है। इलाके के अनुसार अपने सहकर्मी इंस्पेक्टर से गलत काम कराने और दलालों के बूते धन सप्लाई करने औप कराने का प्लानर बन गए है. करप्शन के शतरंजी खेल में दोने इंसपेक्टर अपने इलाके से ज्यादा दलालों के नामपर काम लाने के लिए जोर देते है। इससे संबधित इंस्पेक्टर को कुर्सी पर बैठे बैठे ही काम और लक्ष्मी दोनों मिल जा रही है. दलालो से दलाली खाने के इस खेल में ये दोनों इंस्पेक्टरों की मोटी कमाई हो रही है। सभी इंस्पेक्टरों के नेता बनकर इजहार और देवेन्द्र चांदी काट रहे है।
दलालों की मदद से इन इंस्पेक्टरों के लूटो फांसो और काटो के इस गेम से इश डिपार्टमेंट का रूतबा आसमान पर है। अलका शर्मा की जगह पर आई सीनियर अधिकारी एस. भुल्लर के राज में भी इंस्पेक्टरों का खेल तेजी से जारी है तो फैक्टरी ला0ईसेंसिंग डिपार्टमेंट के प्रशासनिक अधिकारी का पूरा रूतबा ही रसातल मे चला गया है।
यहां के एओ रामफल द्वारा इन बेलगाम में इंस्पेक्टरों पर लगाम लगाने के सारे प्लान भी डूब से गए है। मालदार डिपार्टमेंट में होने के बाद भी इनका यहां मन नहीं लग रहा है। यानी दलालों के इशारो पर काम कर रहे इंस्पेक्टरों से विभाग की रही सही इमेज करप्ट फैक्टरी लाईसेंसिंग डिपार्टमेंट का बुरा हाल है। माया की महिमा से कोई भी काम यहां नामुमकिन नहीं है। निगमायुक्त से लेकर बीजेपी औप कांग्रेसी नेता भी खुल्लमखखुला (करपट मनी को सुरक्षित करने में लगे है।
लक्ष्मी की बरसात को देखकरप भी यहाम के अधिकारीमाया की महिमा में आकर अपनी आंखे मूंद रखी है, जिससे मोस्ट करप्ट डिपार्टमेंट के रूप में बिख्यात एमसीडी के अधिकारी भी शर्मसार होने की बजाय अपने हिस्से की चिंता में लगे है. यानी सांप के बिल  में कोई भी नेता नौकरशाह और यहां के ग्रमीम हाथ डाले और बिल खोले तो कौन होगा पहले बताना काफी कठिन

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शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011

नये साल में चमकेगा लालू और पासवान का सितारा




शुक्रवार, २३ दिसम्बर २०११







इंटरनेशनल दलित सभा 29 दिसंबर को दिल्ली में
लालू मुलायम और पासवान के साथ कांग्रेस ने हाथ मिलाएं

नयी दिल्ली। धन्य हो अन्ना हजारे का कि अन्ना के असर को कम करने के नाम पर कांग्रेस ने कुछ झिझक और कुछ मजबूरी के साथ अपनी गोद में बैठा ही लिया है। अन्ना इम्पैक्ट को कम करने के लिए इस तिकडी ने कांग्रेसी मोर्चा  संभाल लिया है। इंटरनेशनल दलित सम्मेलन का आयोजन करके लोक जनशक्ति पार्टी के सुप्रीमो रामविलास पासवान ने अपनी सक्रियता का खुल्लम खुल्ला एलान कर दिया है। इस सम्मेलन का महत्व तब और बढ़ जाता है जब इसका शुभारंभ प्रधानमंत्री ड़ा. मनमोहन सिंह ने करना स्वीकार लिया है। 29 दिसंबर को दिल्ली के विज्ञान भवन में तीसरा एक दिवसीय इंटरनेशनल दलित सम्मेलन होगा.। इससे पहले  यही इंटरनेशनल सम्मेलन दिल्ली और कनाडा में प्रायोजित हो चुका है, जहां पर पासवान ने खुद को पीएम की तरह पेश किया था। मगर इस बार इस सम्मेलन का उद्घाटन करने की सहमति देकर प्रधानमंत्री ने सबों को हैरान करने के साथ ही पासवान का पोलिटिकल तापमान को भी गरमा दिया है।
पासवान को खुश करने के कांग्रेसी प्रयास से भी बड़ा आश्चर्यजनक खेल तो लालू और मुलायम ने कर दिया कि संसद में लोकपाल बिल के पेश होते ही लालू मलायम पासवान की तिकड़ी अपने मुहिम में जुट गई। कांग्रेसी प्रवक्ता की तरह लालू और मुलायम ने टीम अन्ना के प्रेशर को पंचर करने के लिए मीडिया के सामने जमकर बोलना चालू कर दिया। अन्ना के खिलाफ जुबानी जंग करने वालों में तमाम कांग्रेसी नेता इस बार खामोश हैं, जबकि लालू और मुलायम ने अन्ना के खिलाफ हो गए है।
सूत्रो के मुताबिक संसद में लोकपाल बिल पेश होने से पहले इस तिकड़ी की सोनिया के सिपहसालारों की कई गुप्त बैठकें हुई। जिसमें टीम अन्ना के प्रेशर को कम करने का जिम्मा इनलोगों पर डाला गया है। वहीं अबतक खामोश रही कांग्रेस सुप्रीमों को एकाएक आक्रामक तरीके से टीम अन्ना के खिलाफ जोरदार हमला करने की रणनीति बनी। इसी के तहत ही लोकपाल बिल के पेश होते ही सारे लोग अपने काम को अंजाम दे रहे है।

प्रदेश लोजपा प्रधान ज्ञानचंद गौतम ने बताया कि इस सम्मेलन में विदेश से करीब 300 दलित नेता समेत एक हजार लोग भाग लेंगे। गौतम ने बताया कि दलितों के खास मुद्दों पर आम सहमति के लिए ही केवल एक दिन का ही आयोजन रखा गया है। प्रदेश लोजपा द्वारा सम्मेलन की तैयारी जोरों पर है। खासकर अमरीका श्रीलंका कनाडा दर्जन भर देशों से आने वाले दलित प्रतिनिधियों के भाग लेने की संभावना है। इनके ठहराने और दिल्ली दर्शन समेत भारत दर्शन की भी तैयारी की जा रही है। गौतम ने बताया कि भारत भ्रमण के दौरान ही देश भर के दलित नेताओं महान दलित विभूतियों के स्मारकों और संग्रहालयों को भी दिखाया जा सकताहै।
गौरतलब है कि पासवान के सहारे कांग्रेस यूपी में मायावती और दलित कार्ड का सामना करना चाह रही है। उधर यूपी में चुनावी समर आरंभ होते ही कांग्रेस अपने पुराने सिपहसालारों को तवज्जह देकर मनाने में लगी है। यूपी में कांग्रेस के साथ ही युवा बिग्रेड के मेजर राहुल गांधी की साख भी इस बार हवा में टंगी है. एक तरफ बसपा की मायावती अपनी सत्ता को फिर से हासिल करनें में लगी हैं तो बीजेपी सपा और कांग्रेस के बीच सत्ता की टक्कर ज्यादातर इलाकों में बहुकोणीय हो चला है।. इनेलो से हाथ मिलाकर कांग्रेस ने हरित प्रदेश यानी वेस्ट यूपी में वोट के दो फाड़ होने की आशंका को रोक दिया है। यानी कांग्रेस ने भाजपा और बसपा को छोड़कर तमाम दलों के साथ चुनावी तालमेल कर सा है।
सूत्रों की माने तो अगले या नए साल में  कभी भी पासवान और लालू के सिर पर मंत्री का ताज पहनाया जा सकता है. मंत्रालय को लेकर लालू की जिद खत्म हो गई है। मजे की बात तो यह है कि एक तरफ लालू को ताज पहनाने की तैयारी चल रही है तो दूसरी तरफ लालू और ममता दीदी की दरिया दिल्ली से कंगाल रेलवे की हालात पर जोरदार जंग जारी है।
चुनावी मजबूरी के नाम पर लड्डू खाने के लिए बेताब लालू और पासवान इस समय पंजे की जरूरत बन गए है।  जिसके लिए लालू र मुलायम की जोड़ी के बीच यूपी में दलित कार्ड के खिलाफ माया के मुकाबले में पासवान को खड़ा करके कांग्रेस माया की माया मंड़ली को प्रभावहीन करने में लगी है. यानी धन्य हो अन्ना की। लोकपाल के नाम पर देश का भला हो या ना हो मगर अन्ना इस तिकड़ी की पाताल में जा रही पोलटिक्स के खेवनहार बनते दिख रहे है।

बूंद बूंद पानी के लिए तरस रहे है घडौली के लोग



गौरवराज
एक्सप्रेश रिर्पोटर
23122011
नयी दिल्ली। मयूर विहार फेज तीन का वास्तविक नाम कोंडली घ़डौली फेज एक है। दिल्ली सीमांत पर आबाद दो गांवों के बीच डीडीए ने इस कालोनी को आबाद किया था. मयूर विहार फेज तीन के नाम से विख्यात इस कालोनी को सारे लोग जानते हैं, मगर गांव घडौली और कालोनी की पीड़ा से ज्यादातर  लोग अनजान है। सांसद विधायक से लेकर गांव घडौली में ही रहने वाले बहुजन समाज पार्टी के पार्षद संजय चौधरी और कोंड़ली के पार्षद हरीश कर्दम को भी अपने वोटरों के दुख की कोई चिंता नहीं है।
गौरतलब है कि 1975-77 के दौरान आपातकाल के समय राजधानी के पशुपालकों को संगठित तौर पर एक ही स्थान पर रहने की योजना के तहत 10 डेयरी कालोनी को बसाया गया था। इसी योजना के अनुसार गांक कोंडली, घडौली और गाजीपुर के बीच गाजीपुर डेयरी और घडौली डेयरी को बसाया गया था।  घडौली डेयरी में 2700 पशुपालकों को प्लाट दिए गए थे।शुरू के कुछ सालों तक तो यह डेयरी कालोनी सही ढंग से काम करती रही। डेयरी का धंधा परवान पर चढ़ा और खुशहाल तरीके से पशुओं के साथ डेयरी में लोग मस्त रहते थे। पानी की सप्लाई व्यवस्था नहीं होने के बाद भी मीठा और हरदम उपलब्ध भूजल से ही लोग आराम से रहते थे। सीमांत पर होने की वजह से सुबह से लेकर देर शाम तक काम करने के बाद लोग अपने घरों में सिमट जाते थे। इस डेयरी के आसपास डीडीए द्वारा 1985 के बाद एक आवासीय कालोनी बसाने की योजना बनी। दोनों गांवों से सैकड़ों किसानों की लगभग एक हजार एकड़ जमीन अधिग्रहित की गई। कोंडली घडौली फेज एक उर्फ मयूर विहार फेज तीन 1990 में पूरी कालोनी बनकर तैयार हो गई। जिसके बाद जैसे जैसे मयूर विहार फेज तीन का चेहरा संवरता गया, उसी तरह घडौली गांव और घडौली डेयरी की सूरत बिगड़ती चली गई। हालत यहां तक खराब हो गई कि पैसों की चमक दमक से यहां के लोगों ने अपने पारंपरिक पेशे को नमस्ते कहकर दूसरा पेशा अपना लिया।.. मयूर विहार फेज तीन की रौनक बढ़ने के साथ ही गांव और डेयरी कालोनी का चेहरा भी बदलने लगा, और देखते ही देखते नौबत यहां तक आ गई कि अदालत को डेयरी कालोनी को एक आवासीय कालोनी में तब्दील करने का फैसला सुनाना पड़ा। जिसके बाद हाउस टैक्स से लेकर सभी प्रकार के सरकारी टैक्स यहां के लोगों को अब देने पडते है। इसके बाद ज्यादातर पशुपालको ने अपने धंधे को बदल लिया और अवैध निर्माण और आबादी के प्रेशर के चलते लोगों ने अपने भूखंड़ों को बेचकर मोटी रकम प्राप्त की। और कल तक डेयरी कालोनी के रूप में पहचान रखने वाली यह घडौली डेयरी बस्ती अब एक आवासीय कालोनी बन गयी है।
नियोजित तरीके से आबाद होने के चलते मयूर विहार फेज तीन में सारी सुविधाएं है। जलापूर्ति के लिए दिल्ली जल बोर्ड ने सोनिया विहार जल संयत्र से, सीधे जोड़कर फेज तीन में गंगा जल की आपूर्ति कर दी, मगर अपने चारो तरफ वाटर पाईपों के जाल बिछे होने के बाद भी घडौली कालोनी में गंभीर जल संकट गहराया हुआ है। विधिवत पानी की सप्लाई व्यवस्था नहीं होने से ज्यादातर लोग हैंडपंप या समरर्सिबल पंप से भूजल पीने को मजबूर है। भूजल के लगातार दोहण से पानी पाताल में चला गया है, फिर भी लोग नमकीन खारा और बेस्वाद पानी पीने के लिए ही विवश है। पानी इतना दूषित और खराब हो चुका है कि यह इलाका पेट के रोग समेत हैजा कालरा बुखार और कई तरह की बीमारियों की चपेट में है। गांव कोंडली में प्रैक्टिस करने वाले होम्योपैथिक डाक्टर सुधीर तोमर का कहना है कि इन गांवों में लगभग हर आदमी पेट रोग से ग्रसित है।बच्चें पेट रोग से पीडित है, तो व्यस्क लोग पेट और पाचन की खराबी से होने वाली बीमारियों से त्रस्त है। डा. तोमर के अनुसार यहां की महिलओं के गर्भाधारण की भी दिक्कत होती है। मयूर विहार फेज तीन के डा. संजीव टंडन ने कहा कि ज्यादातर बच्चों को होने वाले तमाम बीमारियों का मूल कारण दूषित पेयजल है। मयूर विहार के ड़ा.मलिक के अनुसार दूषित जल के सेवन का असर तो शरीर पर फौरन दिखने लगता है , मगर साइलेंट किलर की तरह यहीं पानी पूरे शरीर को खोकला करती रहती है। शरीर कमजोर रोग ग्रस्त हो जाता है।
कांग्रेसी नेता ऋषिपाल चौधरी ने कहा कि बाहर से आए लोगों के प्रेशर और लोकल लोगों द्वारा ध्यान नहीं दिए जाने से ही हालात को काबू में नहीं रही। कांग्रेसी नेता ऋषिपाल चौधरी ने कहा कि हालात की गंभीरता का इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि घडौली कालोनी में आज करीब 30 हजार लोग रहते है और आबादी के प्रेशर के साथ हर तरह की दिक्कतें भी है, जिस तरफ लोगों और नगर निगम का ध्यान नहीं जाता। सीवर व्यवस्था नहीं होने से यहां के प्रदूषण को ठीक से निकासी भी नहीं हो पाती। ऋषिपाल चौधरी ने नगर निगम को तमाम कुव्यवस्था के ले जिम्मेदार ठहराया। भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश भाजपा जिला मयूर विहार मंत्री शिवनंदन भदौरिया ने स्थानीय बसपा पार्षद संजय चौधरी पर पूरे इलाके की उपेक्षा से हाल को बदहाल करने का आरोप लगाया। भदौरिया ने कहा कि पार्षद द्वारा इलाके के विकास और जनसमस्याओं को हल करने में कोई दिलचस्पी नहीं ली गई।प्रदेश भाजपा के कोंडली मंडल के वरिष्ठ उपाध्यक्ष चौधरी किरणपाल सिंह ने कांग्रेसी सरकार पर इलाके की उपेक्षा का आरोप लगाया है। चौधरी किरणपाल ने पिछले तीन विधानसभा चुनाव में लगातार जीत हासिल करने वाले कांग्रेसी विधायक अंबरीश गौतम पर इलाके को नजरअंदाज करने का आरोप लगाया। चौधरी किरणपाल ने कहा कि दिल्ली विधानसभा के उपाध्यक्ष हो जाने के बाद भी कोंडली विधानसभा की सूरत बिगड़ती ही जा रही है। सरकारी उपेक्षा का आलम यह है कि त्रिलोकपुरी विधानसभा से तीन दफा विधायक रह चुके कांग्रेसी नेता चौ. ब्रह्रमपाल का निवास भी घडौली गांव में ही है। जहां पर उनका मिट्टी का घर आज आलीशान कोठी बन गया है, मगर गलियों नालियों का हाल पहले की तरह ही बेकार बना हुआ है।
बहरहाल सिर पर सवार नगर निगम चुनाव होने के चलते सभी दलों के नेता एक दूसरे पर आरोपों की बौछार करने में जुट गए है। मगर हकीकत में कोई भी यहां की हालत की सुध नहीं ले रहा है। जल बोर्ड द्वारा नियमित टैंकर भी नहीं भेजे जा रहे है। कभी कभीर दो एक टैंकर भेजकर सरकार अपने दायित्वों से मुंह चुरा रही है, जिससे गंभीर पेयजल संकट से त्रस्त इस इलाके की       हालत पर किसी नेता नौकरशाहों का ध्यान नहीं जा रहा है। सरकारी उपेक्षा का सबसे शर्मनाक पहलू तो यह है कि दिल्ली जल बोर्ड की अध्यक्ष मुख्यमंत्री शीला दीझित को भी यहां के लोगों की पीड़ा की सारी जानकारी है, इसके बाद भी डेयरी से आवसीय कालोनी में रहवे वालों की तकलीफों में कोई कमी नहीं है।

गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

प्यासी दिल्ली-दिल्ली की प्यास


कैसे स्वयं बुझाए, दिल्ली अपनी प्यास

यमुना को प्राणवान करने से ही स्थानीय जलस्रोतों को नवजीवन मिलेगा


हमारे देश में असीम जल संसाधन मौजूद हैं। हिमालय के विशाल ग्लेशियरों में, वनान्चलों में, विस्तृत पठारों और मैदानी भागों में स्थित नदी-नालों और झीलों के साथ-साथ बड़े भाग में विभिन्न स्तरों पर मिलने वाले समृद्ध जलभृत्तों रूपी भूमिगत जलाशयों के रूप में देश की विभिन्न जल संचयन प्रणालियों को वार्षिक मानसून जल से आपूरित कर देती है।

भूमिगत जलभृत लाखों वर्षों से प्राकृतिक रूप से नदियों और बरसाती धाराओं से नवजीवन पाते रहे हैं। भारत में गंगा-यमुना का मैदान ऐसा क्षेत्र है, जिसमें सबसे उत्तम जल संसाधन मौजूद हैं। यहाँ अच्छी वर्षा होती है और हिमालय के ग्लेशियरों से निकलने वाली सदानीरा नदियाँ बहती हैं।

दिल्ली जैसे कुछ क्षेत्रों में भी कुछ ऐसा ही है। इसके दक्षिणी पठारी क्षेत्र का ढलाव समतल भाग की ओर है, जिसमें पहाड़ी श्रृंखलाओं ने प्राकृतिक झीलें बना दी हैं। पहाड़ियों पर का प्राकृतिक वनाच्छादन कई बारहमासी जलधाराओं का उद्गम स्थल हुआ करता था।

व्यापारिक केन्द्र के रूप में दिल्ली का आज जो उत्कर्ष है; उसका कारण यहाँ चौड़ी पाट की एक यातायात योग्य नदी यमुना का होना ही है; जिसमें माल ढुलाई भी की जा सकती थी। 500 ई. पूर्व में भी निश्चित ही यह एक ऐसी ऐश्वर्यशाली नगरी थी, जिसकी संपत्तियों की रक्षा के लिए नगर प्राचीर बनाने की आवश्यकता पड़ी थी। सलीमगढ़ और पुराना किला की खुदाइयों में प्राप्त तथ्यों और पुराना किला से इसके इतने प्राचीन नगर होने के प्रमाण मिलते हैं। एक हजार ईस्वी सन् के बाद से तो इसके इतिहास, इसके युध्दापदाओं और उनसे बदलने वाले राजवंशों का पर्याप्त विवरण मिलता है।

भौगोलिक दृष्टि से अरावली की श्रृंखलाओं से घिरे होने के कारण दिल्ली की शहरी बस्तियों को कुछ विशेष उपहार मिले हैं। अरावली श्रृंखला और उसके प्राकृतिक वनों से तीन बारहमासी नदियाँ दिल्ली के मध्य से बहती यमुना में मिलती थीं। दक्षिण एशियाई भूसंरचनात्मक परिवर्तन से अब यमुना अपने पुराने मार्ग से पूर्व की ओर बीस किलोमीटर हट गई है। 3000 ई. पूर्व में ये नदी दिल्ली में वर्तमान 'रिज' के पश्चिम में होकर बहती थी। उसी युग में अरावली की श्रृंखलाओं के दूसरी ओर सरस्वती नदी बहती थी, जो पहले तो पश्चिम की ओर सरकी और बाद में भौगोलिक संरचना में भूमिगत होकर पूर्णत: लुप्त हो गई।

एक अंग्रेज द्वारा 1807 में किए गए सर्वेक्षण के आधार पर बने उपर्युक्त नक्शे में वह जलधाराएं दिखाई गई हैं, जो दिल्ली की यमुना में मिलती थीं। एक तिलपत की पहाड़ियों में दक्षिण से उत्तर की ओर बहती थी, तो दूसरी हौजखास में अनेक सहायक धाराओं को समेटते हुए पूर्वाभिमुख बहती बारापुला के स्थान पर निजामुद्दीन के ऊपरी यमुना प्रवाह में जाकर मिलती थी। एक तीसरी और इनसे बड़ी धारा जिसे साहिबी नदी (पूर्व नाम रोहिणी) कहते थे। दक्षिण-पश्चिम से निकल कर रिज के उत्तर में यमुना में मिलती थी। ऐसा लगता है कि विवर्तनिक हलचल के कारण इसके बहाव का निचाई वाला भूभाग कुछ ऊंचा हो गया, जिससे इसका यमुना में गिरना रूक गया। पिछले मार्ग से इसका ज्यादा पानी नजफगढ़ झील में जाने लगा। कोई 70 वर्ष पहले तक इस झील का आकार 220 वर्ग किलोमीटर होता था। अंग्रेजों ने साहिबी नदी की गाद निकालकर तल सफ़ाई करके नाला नजफगढ़ का नाम दिया और इसे यमुना में मिला दिया। यही जलधाराएं और यमुना-दिल्ली में अरावली की श्रृंखलाओं के कटोरे में बसने वाली अनेक बस्तियों और राजधानियों को सदा पर्याप्त पानी उपलब्ध कराती आईं थीं।

हिमालय के हिमनदों से निकलने के कारण यमुना सदानीरा रही और आज भी है। परंतु अन्य उपरोक्त उपनदियां अब से 200 वर्ष पूर्व तक ही, जब तक कि अरावली की पर्वतमाला प्राकृतिक वन से ढकी रहीं तभी तक बारहमासी रह सकीं। खेद है कि दिल्ली में वनों का कटान खिलजियों के समय से ही शुरू हो गया था। इस्लाम स्वीकार न करने वाले स्थानीय विद्रोहियों और लूटपाट करने वाले मेवों का दमन करने के लिए ऐसा किया गया था। साथ ही बढ़ती शहरी आबादी के भार से भी वन प्रांत सिकुड़ा है। इसके चलते वनांचल में संरक्षित वर्षा जल का अवक्षय हुआ।

अंग्रेजी शासन के दौरान दिल्ली में सड़कों के निर्माण और बाढ़ अवरोधी बांध बनाने से पर्यावरण परिवर्तन के कारण ये जलधाराएं वर्ष में ग्रीष्म के समय सूख जाने लगीं। स्वतंत्रता के बाद के समय में बरसाती नालों, फुटपाथों और गलियों को सीमेंट से पक्का किया गया, इससे इन धाराओं को जल पहुंचाने वाले स्वाभाविक मार्ग अवरुद्ध हो गये। ऐसी दशा में, जहां इन्हें रास्ता नहीं मिला, वहाँ वे मानसून में बरसाती नालों की तरह उफनने लगीं। विशद रूप में सीमेंट कंक्रीट के निर्माणों के कारण उन्हें भूमिगत जलभृत्तों या नदी में मिलाने का उपाय नहीं रह गया है। आज इन नदियों में नगर का अधिकतर मैला ही गिरता है।

दिल्ली की जल संरचनादिल्ली की जल संरचना
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राजधानी दिल्ली के सौ बरसों का सफर..

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प्रकाशित Mon, दिसम्बर 12, 2011 पर 13:13  |  स्रोत : Hindi.in.com
12 दिसम्बर 2011
आईबीएन-7
पंकज श्रीवास्तव 

नई दिल्ली।
12 दिसम्बर को दिल्ली को राजधानी बने सौ साल पूरे हो रहे हैं। इस खास मौके पर ‘आईबीएन-7’ आपको इस ऐतिहासिक शहर के राजनीतिक इतिहास के बारे में बता रहा है।



जानिए, अंग्रेजी शासन के बाद आखिर किस-किस मोड़ से गुजरी दिल्ली।
दिल्ली की इमारतें ही नहीं, उसके मैदान भी इतिहास के गवाह हैं। झाड़-झंखाड़ से भरे इस मैदान को देखिए....यहां जिन अंग्रेजों की प्रतिमाएं हैं, वे कभी हिंदुस्तान की किस्मत का फैसला करते थे...इतिहास के निर्मम परिंदों ने बीट कर-करके इन्हें बदरंग बना दिया है। लेकिन सौ साल पहले, इसी जगह उन्होंने ऐसा जश्न रचा था, जिसकी गूंज हिंदुस्तान ही नहीं, दुनिया में सुनी गई थी। तारीख थी, 12 दिसंबर 1911......इस मैदान में ब्रिटिश साम्राज्य का पूरा तेज उतर आया था। हिंदुस्तानी रियासतदारों की लालच के घोड़े कुलाचे मार रहे थे, तो ख्वाहिशों के ऊंट अदा बिखेर रहे थे।


1857 में चमकी पुरखों की तलवार अब हमेशा के लिए म्यान में चली गई थी और राजे-नवाबों में सिर झुकाकर कोर्निश करने की होड़ लगी थी। ये इंग्लैंड के सम्राट किंग जॉर्ज पंचम और महारानी मैरी के राज्याभिषेक का उत्सव था यानी मशहूर दिल्ली दरबार! यूं तो 1877 और 1903 में भी दिल्ली में दरबार लग चुका था, लेकिन इस बार खुद सम्राट इसमें शामिल थे। किंग जॉर्ज पंचम ने इंग्लैंड के बाद यहां भी अपना राज्याभिषेक कराने का ऐलान किया था। सैकड़ों तोपों की सलामी के बीच सम्राट ने आठ मेहराबों और सैकड़ों हीरे-जवाहरात से जुड़ा मुकुट पहना, जिसका वजन लगभग एक किलो था। तालियों की गड़गड़ाहट आसमान तक जा पहुंची। सम्राट ने हिंदुस्तानी शासकों को राज्यभक्ति का इनाम दिया। उन्हें तमगे और उपाधियां बांटीं। और फिर सम्राट ने ऐसा ऐलान किया कि खासतौर पर दिल्ली वाले खुशी से झूम उठे।


राज्याभिषेक समारोह के पहले सम्राट का काफिला पूरी शान से दिल्ली की सड़कों पर घूमा। बाद में सम्राट ने लाल किले के झरोखे में पहुंचकर लाखों लोगों को दर्शन भी दिया। वाकई, 1857 के बाद बेनूर हो चुकी दिल्ली की किस्मत ने अचानक पलटा खाया था और जिसे रिसायत-ए-पंजाब का महज जिला बनाकर छोड़ दिया गया था, 54 साल बाद राजधानी होने का गौरव फिर उसके माथे पर सज गय। लेकिन यह फैसला यूं हीं नहीं हुआ था।
दरअसल, 1905 में अंग्रेजों ने बंगाल का विभाजन करके बंटवारे का जो जहर बोया था, वह उनके लिए ही खतरनाक साबित हो रहा था। स्वदेशी आंदोलन ने इस कदर जोर पकड़ा कि कलकत्ता में अंग्रेजों की चूलें हिल गई थीं। एक तरफ रवींद्रनाथ टैगौर जैसी शख्सियत सड़क पर थी, तो दूसरी तरफ क्रांतिकारी नौजवानों ने मोर्चा संभाल लिया था। अंग्रेज अधिकारियों के काफिलों पर बम फेंके जा रहे थे। अंग्रेज काफी घबरा गए थे। यही वजह है कि किंग जॉर्ज पंचम ने दिल्ली को राजधानी बनाने के ऐलान के साथ बंगाल का विभाजन रद्द करने का ऐलान भी किया। बहाना था वरदान, पर बचानी थी जान।


बहरहाल, जिस दिल्ली को अंग्रेज खुद उजाड़ गए थे, उसमें राजधानी की अंग्रेजी शान लाना मुश्किल था। लिहाजा राजधानी बतौर एक नया शहर बनाने का ऐलान हुआ। तस्वीरें बताती हैं कि जहां राज्याभिषेक समारोह हुआ, वहीं नए शहर के बुनियाद का पत्थर भी रखा गया था। लेकिन बाद में पता चला कि वह इलाका निचला और दलदली है। यमुना का पानी शहर के लिए मुसीबत बनता। लिहाजा रातो-रात बुनियाद का पत्थर रायसीना पहाड़ियों के पास एक विशाल बंजर मैदान में लाया गया। यहां नई दिल्ली बसाने की जिम्मादारी दी गई प्रसिद्ध वास्तुकार एडविन लुटियन को। उन्होंने एक बिलकुल नए अंदाज का शहर बनाया। चौड़ी और समकोण पर काटती सड़कें, बड़े-बड़े बंगले, वायसराय के रहने के लिए साम्राज्य की शान के मुताबिक रायसीना की पहाड़ी पर एक महल, साथ में बड़े-बड़े दफ्तर, नया एसेंबली भवन यानी संसद, पहले विश्वयुद्द में शहीद सैनिकों की याद में इंडिया गेट, सफेद खंभों से सजा दो पर्तों वाला घोड़े की नाल के आकार का बाजार यानी कनॉट प्लेस।


इस नए शहर के पूरी तरह बनने में लगभग 20 बरस लग गए। 1931 में इस शहर का उद्घाटन हुआ। पर यहां तमाम ऐसी सड़कें थीं, जहां हिंदुस्तानियों के चलने पर पाबंदी थी।


लेकिन ठहरिये और कुछ पीछे चलिए, दिल्ली के इस आठवें शहर के लिए चुने गए हर पत्थर के साथ आसमान का रंग तेजी से बदलने लगा था। दिल्ली दरबार के जश्न में शामिल काल, मद्धिम सुर में अंग्रेजों के लिए विदाईगीत भी गा रहा था, जिसे उस धूम-धड़ाके के बीच किसी ने नहीं सुना था।


दिल्ली दरबार में किंग जॉर्ज पंचम ने अपने सिर पर जो भारी मुकुट पहना, उससे उनके सिर में दर्द शुरू हो चुका था। धीरे-धीरे वह दर्द पूरे साम्राज्य के सिरदर्द में तब्दील हो गया, क्योंकि 1911 में दिल्ली ब्रिटिश भारत की ही राजधानी नहीं बनी, बल्कि उनके सपनों की राजधानी भी बन गई; जो भारत से ब्रिटिश राज उखाड़ फेंकना चाहते थे। बंगाल में स्वदेशी आंदोलन से जो चिंगारी भड़की थी, वह धीरे-धीरे शोला बन रही थी और इस आग के निशाने पर थी दिल्ली।


1915 में गांधीजी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौट आए। इसी के साथ स्वतंत्रता आंदोलन का नक्शा बदलने लगा था। अब कमान राजाओं के हाथ नहीं प्रजा के हाथ थी, जिसके दिल में एक फकीर ने प्रजातंत्र की आग भरनी शुरू कर दी थी। दुनिया इस समय पहले विश्वयुद्ध की तकलीफों से रू-ब-रू थी। युद्ध का फायदा उठाकर अंग्रेज सरकार ने 1919 में रोलेट एक्ट पारित कर दिया। इसके तहत किसी को भी संदेह के आधार पर गिरफ्तार किया जा सकता था। विश्वयुद्ध ने दिल्लीवालों की तकलीफों को काफी बढ़ा दिया था।


रोलेट एक्ट का विरोध करने के लिए गांधीजी ने देशव्यापी सत्याग्रह का आह्वान किया। 1919 की 6 अप्रैल से सत्याग्रह शुरू हुआ और 9 अप्रैल को गांधीजी दिल्ली के करीब पलवल से गिरफ्तार कर लिये गए। दिल्ली में यह खबर आग की तरह फैल गई। इस बीच 13 अप्रैल को अमृतसर में जलियांवाला कांड हो गया। बेरहम जनरल डायर ने बाग में रोलेट एक्ट के विरोध में सभा कर रहे लोगों पर दस मिनट तक अंधाधुंध गोलियां चलवाईं।
काग्रेस के मुताबिक हजार से ज्यादा लोग मारे गए। दिल्ली के नौजवानों का खून भी खौल उठा। 1922 मे जब गांधीजी ने असहयोग आंदोलन का ऐलान किया तो दिल्ली की हर गली में आजादी के तराने गूंज उठे।


इस बीच दिल्ली क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र भी बन रही थी। आईटीओ के पास शहीदी पार्क में खड़ी भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की प्रतिमाएं आज भी उस मिजाज की गवाही देती हैं। यह पार्क दरअसल, फिरोजशाह कोटला के खंडहरों का हिस्सा है। जगह यही थी, और तारीख थी 8 सितंबर 1928। इन खंडहरों में बिहार और पंजाब के दो-दो, राजस्थान के एक और उत्तर प्रदेश से आए तीन नौजवानों की बैठक हुई। ये हिंदुस्तान प्रजातांत्रिक सेना की मीटिंग थी, जिसमें भारत को आजाद करवाकर समाजवाद को अंतिम लक्ष्य घोषित किया गया। नया नाम दिया गया हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी यानी एचएसआरए। भगत सिंह इस सेना के विचारक और चंद्रशेखर आजाद कमांडर थे। जल्दी ही उन्होंने बहरे कानों को सुनाने के लिए धमाका किया। 8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने केंद्रीय असेंबली में बम फेंके। ये बम किसी की जान लेने के लिए नहीं थे। अंग्रेजों को भी इन बमों से ज्यादा वे पर्चे खतरनाक लगे जिनके जरिए भगत सिंह ने ‘इन्कलाब’ का मतलब समझाया था। पूरी दिल्ली इन बहादुरों के कारनामे से झूम उठी।


बहरहाल न्याय का नाटक करने के बाद 23 मार्च 1931 को भगत सिंह को फांसी पर लटका दिया गया। उनके साथ थे सुखदेव और राजगुरु। तीनों ने फांसी को इनाम की तरह स्वीकार किया। अंग्रेजों की खुफिया रिपोर्टों में दर्ज है कि उस समय भगत सिंह की शोहरत गांधीजी से भी ज्यादा हो गई थी। ये क्रांतिकारी आंदोलन का ही दबाव था कि कांग्रेस ने 1930 के लाहौर अधिवेशन में पहली बार ‘पूर्ण स्वराज्य’ का संकल्प पारित किया।
क्रांतिकारियों की शहादत ने मुकम्मल आजादी से कम कुछ भी मंजूर करने की गुंजाइश को हमेशा के लिए खत्म कर दिया। जंग-ए-आजादी का एक नया दौर शुरू हो गया था और दिल्ली इसके नशे में झूम रही थी।


मार्च 1930, गांधीजी ने दांडी यात्रा के साथ सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू किया। नमक इसका प्रतीक बना। नमक पर लगे टैक्स के खिलाफ गांधीजी ने दांडी यात्रा शुरू की। शहर-शहर नमक बनाया जाने लगा। दिल्ली भी इसमें पीछे नहीं थी। छात्रों, मजदूर-किसानों ने इस आंदोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया। महिलाओं ने पर्दे से बाहर निकलकर शराब की दुकानों पर पिकेटिंग की। विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई। गोलमेज सम्मेलनों के जरिये हल निकालने की कोशिश की गई..लेकिन आंदोलन का ज्वार बढ़ता जा रहा था।


1942 में जब गांधीजी ने ‘भारत छोड़ो’ का नारा दिया तो ‘करो या मरो’ का तूफान खड़ा हो गया। यह दुनिया का अनोखा आंदोलन था, जिसमें अहिंसा को हथियार बनाकर दुनिया की सबसे बड़ी ताकत को झुकने पर मजबूर किया गया। आजादी से जुड़े ख्वाब किसी पार्टी या उसकी कमेटी में शामिल लोगों तक सीमित नहीं रहे। वे जन-जन की ख्वाहिशों का हिस्सा बन गए थे।


आखिरकार वह दिन आ गया जिसका इंतजार था। 14 अगस्त की आधी रात बीतते ही भारत में अंग्रेजी शासन का अंत हुआ। नेहरू ने इसे नियति से साक्षात्कार बताया। 15 अगस्त की सुबह पूरा देश जश्न में डूब गया। दिल्ली में इंडिया गेट से लेकर वायसराय हाउस तक जश्न ही जश्न था। बोट कल्ब का मैदान तिरंगे से पट गया था। 16 अगस्त की सुबह पंडित नेहरू ने पहली बार लाल किले पर तिरंगा फहराया। एक नए भारत का ऐलान हो रहा था। लेकिन अंग्रेज जाते-जाते बंटवारे का दर्द दे गए थे। एक महान देश को धर्म के आधार पर दो टुकड़ों में बांटकर अंग्रेजों ने अपनी पुरानी कुटिल चाल दोहराई थी।


बंटवारे पर राजी नेताओं ने नहीं सोचा था कि लोगों को अपना घर-बार छोड़ना पड़ेगा। दिल्ली और लाहौर के बीच लाशों से पटी रेल चलेगी। मशहूर शायर गुलजार देहलवी की बूढ़ी आंखों में आज भी वह खौफनाक मंजर दर्ज है जब दिल्ली की फिजा में जहर भर गया था। जाहिर है, दिल्ली में हुई नई सुबह अंधेरे का पैगाम भी लाई थी। यही वजह थी कि स्वतंत्रता आंदोलन के नायक गांधीजी जश्न में शामिल नहीं हुए थे। वे दिल्ली से दूर नोआखाली में अनशन कर रहे थे, ताकि इंसान के अंदर जाग उठे शैतान को शांत कर सकें।


पंडित जवाहरलाल नेहरू ने बतौर पहले प्रधानमंत्री जब देश की कमान संभाली तो हर तरफ चुनौतियां ही चुनौतियां थीं। देश को नया आर्थिक ढांचा देना था, लेकिन सांप्रदायिकता की लपटें हर उम्मीद को खाक करने पर आमादा थीं। पाकिस्तान से आए लोग बदले की भावना से भरे हुए थे और दिल्ली में जगह-जगह रिफ्यूजी कैंप खुल गए थे। इन लोगों को शांति और अहिंसा पर अडिग रहने का गांधीजी का उपदेश भी बुरा लग रहा था।
आखिरकार 1948 की मनहूस 30 जनवरी आ पहुंची। शाम करीब पांच बजे, बिड़ला हाउस में प्रार्थनासभा करने जा रहे गांधी जी को एक उन्मादी ने गोली मार दी। नाम था-नाथूराम गोडसे। इस खबर से दिल्ली सन्न रह गई। पूरा देश, पूरी दुनिया भौंचक्की थी। लेकिन गांधीजी की शहादत ने जबरदस्त असर दिखाया। दंगे और मारकाट का मंजर अचानक थम गया। गुस्सा पश्चाताप में बदल गया।


लेकिन दिल्ली हैरान थी कि आखिर कोई हिंदुस्तानी, हिंदुस्तान की सबसे रोशन मशाल को कैसे बुझा सकता है। नाथूराम गोडसे के दिमाग में इतना जहर भरा कैसे। गृहमंत्री सरदार पटेल ने सीधे-सीधे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस और हिंदू महासभा को गांधीजी की हत्या के लिए जिम्मेदार ठहराया। आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। सरदार पटेल ने 27 फरवरी 1948 को हिंदू महासभा के प्रमुख नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी को पत्र लिखकर अपना गुस्सा जाहिर किया। उन्होंने लिखा कि हमें मिली रिपोर्टें इस बात की पुष्टि करती हैं कि आरएसएस की गतिविधियों के फलस्वरूप देश में ऐसा माहौल बना कि ऐसा बर्बर कांड संभव हो सका। मेरे दिमाग में कोई संदेह नहीं है कि हिंदू महासभा का अतिवादी भाग षड्यंत्र में शामिल था। आरएसएस की गतिविधियां, सरकार और राज्य-व्यवस्था के अस्तित्व के लिए स्पष्ट खतरा थीं। हमें मिली रिपोर्टं बताती हैं कि प्रतिबंध के बावजूद वे गतिविधियां समाप्त नहीं हुई हैं। दरअसल, समय बीतने के साथ आरएसएस की टोली अधिक उग्र हो रही है और विनाशकारी गतिविधियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही है। इस घटना ने दक्षिणपंथी राजनीति को लंबे समय तक के लिए हाशिये पर डाल दिया। नेहरू की धर्मनिरपेक्ष राजनीति ही देश की मुख्यधारा बन गई।


26 जनवरी 1950, संविधान लागू हुआ और भारत गणतंत्र बना। दिल्ली में ऐसी किताब छपी जिसने उनके लिए भी सत्ता के शीर्ष तक पहुंचने की संभावना खोल दी, जिन्हें कभी किताब पढ़ने तक की आजादी नहीं थी।
नेहरू इन संकल्पों को पूरा करने में जुट गए। अंग्रेज जब भारत आए थे तो दुनिया की कुल जीडीपी में भारत का हिस्सा 30 फीसदी था, जो दो सौ साल की अबाध लूट के बाद 1947 में सिर्फ 4 फीसदी रह गई थी।
बहरहाल तीन साल के अंदर दंगे-फसाद रोके गए। 1952 में पहला चुनाव हुआ और देश ने कांग्रेस का झंडा बुलंद किया। दिल्ली भी बदल गई। जहां से कभी जमींदारियां बंटती थीं, वहीं से जमींदारी उन्मूलन का फरमान निकला। आगे बढ़ने के लिए नेहरू ने साम्यवाद और पूंजीवाद के बीच का रास्ता चुना। वे मिश्रित अर्थव्यवस्था की राह पर ही नहीं चले, सोवियत यूनियन और अमेरिका के बीच बंटी दुनिया में गुटनिरपेक्षता का अलग रास्ता चुना। नेहरू भारत के ही नहीं, तीसरी दुनिया के नेता माने गए।


आजादी के बाद नई दिल्ली शहर का रंग-ढंग भी बदला। जिस राजपथ पर सिर्फ अंग्रेजों को चलने की इजाजत थी, वहां अब आम आदमी सिर उठाकर घूमता था। कनॉट प्लेस से अंग्रेजी जोड़े विदा हो गए थे और तांगे दुकानों के सामने खड़े हो जाते थे। शहर में ट्राम चलती थी। पुरानी फिल्मों और तस्वीरों से उस दौर का अंदाजा बखूबी लगता है। नई दिल्ली देश की शान बन गई थी।


1962 में दोस्ती की कसमों को भुलाकर चीन ने अचानक भारत पर हमला कर दिया। आजाद भारत का सबसे बड़ा झटका। आदर्शवादी नेहरू को इस हमले ने तोड़ दिया। उनकी सदाबहार मुस्कान गायब हो गई। वे बीमार पड़ गए। 27 मई 1964 को नेहरू जी की मृत्यु हो गई। दिल्ली ने भरी आंखों से उन्हें अंतिम विदाई दी। देश की बागडोर छोटे कद लेकिन बड़े किरदार के नेता लाल बहादुर शास्त्री ने संभाली। उनके ‘जय-जवान और जय किसान’ के नारे ने देश में नई ऊर्जा भर दी। हरित क्रांति का आधार तैयार हुआ।


सितंबर1965 में पाकिस्तान ने हमले की हिमाकत की। अब बारी थी जय जवान की। शास्त्री जी के नेतृत्व में देश ने करारा जवाब दिया। ताशकंद में समझौता हुआ। दस्तखत करने के बाद शास्त्री जी को दिल का जबरदस्त दौरा पड़ा और दूसरे दिन उनकी मौत हो गई। तारीख थी11 जनवरी 1966। इस खबर से हर भारतीय रो पड़ा। प्रधानमंत्री का पद एक बार फिर खाली था। दिल्ली ने देखा कि कैसे उसके राजनीतिक गलियारों में सत्ता का संघर्ष शुरू हो गया। आखिरकार कांग्रेस सिंडीकेट ने गूंगी गुड़िया समझकर नेहरू की बेटी इंदिरा को प्रधानमंत्री बना दिया। लेकिन जल्दी ही साबित हो गया कि न वे गुड़िया हैं और न गूंगी। इंदिरा ने कांग्रेस के दक्षिणपंथी धड़े को मात देने के लिए बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया और रियासतों का प्रीविपर्स खत्म किया। 1971 के युद्ध में पाकिस्तान की शर्मिंदगी भरी हार और बांग्लादेश बनने से तो वे विरोधियों की नजर में भी दुर्गा का अवतार हो गईं। इसी साल हुए चुनाव में उन्होंने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया और जबरदस्त जीत हासिल की।


1974 में पोखरण में परमाणु विस्फोट के बाद वे शोहरत के चरम पर पहुंच गईं। लेकिन इस बीच देश में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन भी तेज हो गया। दिल्ली भी इंदिरा विरोधी नारों से गूंजने लगी। तभी इलाहाबाद हाईकोर्ट ने रायबरेली से इंदिरा का चुनाव रद्द कर दिया। जवाब में जून 1975 में इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगा दिया। दिल्ली में हर तरफ खौफ तारी हो गया।


लेकिन दिल्ली को अब तक लोकतंत्र की आदत पड़ चुकी थी। नतीजा, 1942 के लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चले आंदोलन ने इंदिरा की सत्ता को उखाड़ फेंका। डॉ..लोहिया के गैरकांग्रेसवाद का सपना सच हुआ। 1977 में दिल्ली में पहली गैरकांग्रेसी सरकार बनी। जनता पार्टी की इस सरकार के प्रधानमंत्री थे मोरारजी देसाई। लेकिन जनता सरकार जल्दी ही आपसी गुटबाजी का शिकार हो गई। दिल्ली में राजनीतिक उठापटक का नया दौर शुरू हुआ। 1980 में मध्यावधि चुनाव हुए और दिल्ली की गद्दी एक बार फिर इंदिरा गांधी के हवाले हुई।


दिल्ली के लिए इस दौर की सबसे चमकदार याद है 1982 में हुआ एशियाड। यूं तो पहला एशियाड भी 1951 में दिल्ली में ही हुआ था, लेकिन इस बार के आयोजन ने दिल्ली की सूरत पर असर डाला। 60,000 दर्शकों की क्षमता वाले जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम समेत कई स्टेडियम बने। कई फ्लाईओवर बने और सड़कों को चौड़ा किया गया। इस आयोजन ने दिल्ली का रंग काफी कुछ बदल दिया।


यह वही दौर था, जब खालिस्तानी आतंकवाद तांडव कर रहा था। आखिरकार दिल्ली को वह दिन भी देखना पड़ा जब सफदरजंग रोड के अपने बंगले पर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी अपने ही सुरक्षाकर्मियों की गोलियों से शहीद हो गईं। तारीख थी 31 अक्टूबर 1984। लेकिन इसके साथ ही दिल्ली में सिखों के खिलाफ दंगा भड़क उठा। हजारों बेगुनाहों को जान से हाथ धोना पड़ा।


इंदिरा की चिता के साथ दिल्ली की तहजीब और अहिंसा के संकल्प भी धू-धू करके जल रहे थे। इंदिरा गांधी के शोक में डूबी जनता ने कांग्रेस को अभूतपूर्व समर्थन दिया। नतीजा, इंदिरा के बेटे राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री बन गए। लेकिन मिस्टर क्लीन की छवि के साथ राजनीति में आए राजीव जल्दी ही भ्रष्टाचार के आरोपों से घिर गए। बोफोर्स तोपों की खरीद का मुद्दा उठाकर उनके ही मंत्री रहे विश्वनाथ प्रताप सिंह ने तूफान खड़ा कर दिया। 1989 के चुनाव में कांग्रेस हारी और वी.पी.सिंह प्रधानमंत्री बने। लेकिन जनता दल की सरकार ज्यादा दिन नहीं चल सकी। कांग्रेस के सहयोग से चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने। यह सरकार भी चार महीने ही चल सकी। 1991 में मध्यावधि चुनाव हुआ। प्रचार के दौरान ही 21 मई को तमिलनाडु के श्रीपेरंबदूर में हुए लिट्टे के आतंकी हमले ने राजीव गांधी की जान ले ली। देश एक बार फिर शोक में डूब गया। बहरहाल, नरसिम्हा राव के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी और दिल्ली ने देखा कि कांग्रेस समाजवादी संकल्पों को छोड़ आर्थिक उदारीकरण की राह पर चल पड़ी। बतौर वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने उसी वक्त कमान संभाल ली थी। इसी के साथ केंद्र में गठबंधन राजनीति की शुरूआत हुई। यह सिलसिला अगले आम चुनाव में भी जारी रहा। 1996 की मई में चुनाव नतीजे आए तो किसी को बहुमत नहीं था।


भारतीय जनता पार्टी ने सरकार बनाने का दावा किया। अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बनाए गए। लेकिन वे बहुमत नहीं साबित कर सके और 13 दिन मे सरकार गिर गई। इसके बाद एच. डी. देवगौड़ा के नेतृत्व में संयुक्त मोर्चा की सरकार बनी। लेकिन 10 महीने बाद उन्हें हटना पड़ा। इंद्र कुमार गुजराल प्रधानमंत्री बने, लेकिन सिर्फ 11 महीने बाद यह अध्याय भी समाप्त हो गया। 1998 में फिर चुनाव हुए। इस बार भाजपा, एनडीए नाम से एक बहुमत का गठबंधन बनाने में कामयाब हुई। अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने। दिल्ली का कांटा अब पूरी तरह वामपंथ से दक्षिणपंथ की ओर झुक गया था।


दिल्ली की अब एक बिल्कुल नई शक्ल सामने है। बीते 15 बरसों में जितनी तेजी से यह शहर बदला है, वैसा शायद ही कोई बदला हो। खासतौर पर 2010 के राष्ट्रमंडल खेल की तैयारियों ने इसे बिल्कुल नई शान दे दी। शानदार सड़कों, फ्लाइओवरों के जाल, मेट्रो, शानदार चमचमाती इमारतों और नए ढंग की बसों ने इसे वाकई इक्कीसवीं सदी का शहर बना दिया है। पराठेवाली गली में भीड़ कम नहीं हुई है, लेकिन खाने-पीने से लेकर खरीददारी का बिल्कुल नया अंदाज सामने है। लेकिन नए नक्शे में वह रंग कमजोर पड़ गया जिससे देहली पहचानी जाती थी।


बहरहाल जवान देहलवियों के एक बिलकुल नई जमात सामने आ रही है। दूर-दराज से उखड़कर आए लोगों को इस शहर में नई जड़ें मिली हैं, जिसे वे पूरी मेहनत से खाद-पानी दे रहे हैं। देश का हर रंग, हर मिजाज दिल्ली में आकर घुल गया है।


सौ सालों में दिल्ली की बसावट पूरी तरह बदल चुकी है। पुरानी दिल्ली के रईस अपनी कोठियां छोड़ दक्षिणी दिल्ली में बस गए तो प्रवासियों ने पूर्वी दिल्ली के उजाड़ में रौनक भर दी। 1911 में जिस दिल्ली की आबादी 24 लाख थी वो अब एक करोड़ 67 लाख को पार कर गई है। सड़कों पर हर वक्त लगने वाले जाम इसकी पहचान बन गई है। तरक्की के इस रूप की सबसे ज्यादा कीमत अदा की है यमुना ने। जिस यमुना ने दिल्ली को जन्नत बनाया था, उसमें अब जहन्नुम का पानी बहता है। सदियों की संभाल को सालों में बरबाद कर दिया गया।


इधर, राष्ट्रमंडल और दूरसंचार घोटाले के खुलासों से सामने आए चेहरों ने यह भी बता दिया है कि कैसे सत्तातंत्र को लूटतंत्र में बदलने की कोशिश की जा रही है। पर दिल्ली का भरोसा टूटा नहीं है। उसने देख लिया है कि तंत्र को सुधारने के लिए जन, युद्ध में कूद पड़ा है। बादशाहों की मुहब्बत में बार-बार मारी गई दिल्ली अब इस जन के इश्क में गिरफ्तार है। उसे यकीन है कि यह नया भारत उससे कभी बेवफाई नहीं करेगा। यही है वह, जो दिल्ली को अब कभी उजड़ने नहीं देगा।

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

Delhi: 100 Years of Being the National Capital Save its Lifelines


Delhi's Greens
Delhi, as the National Capital of modern day India turns one hundred years old (or some would say young) today. On 12 December, 1911 the National Capital of the then colonized India was shifted by the British from Kolkata to Delhi. With this, the political focus also shifted and Delhi was re-established as the center for ruling the Indian sub-continent. This was not the first time that Delhi, which has reference dating back to 1450 BC, became a capital.
Between the 12th and the 19th century AD, Delhi was the capital for many rulers. Siri, Tughlakabad, Jahanapanah, Ferozabad, Dinpanah, Shergarh and Shahajahanabad are the historic ‘seven cities’ that took shape in Delhi. Shahajahanabad, built by Shah Jahan between 1639 and 1648 AD remained the capital of the Mughal Empire until 1857. The eighth city, or the present New Delhi, was built by the British Empire and is the one which is celebrating its 100 years today.
What needs to be understood here is the reason that made Delhi the ‘capital-of-choice’ for many a rulers in recorded history. The answer is not too hidden and lies in the city’s landscape and topography. Two characteristic geographic features – River Yamuna and the Delhi Ridge are indeed the reason why Delhi enjoyed the status that it still does. Now aptly called the lifelines of Delhi, the Yamuna and the Ridge are Delhi’s natural resources that have served the city since time immemorial. While River Yamuna ensures the much needed water which is essential for the survival and sustenance of any settlement, the Ridge, the extension of the Aravali range, provides a natural protection thus making Delhi a site of strategic importance. The river on one side and the Ridge on the other made Delhi the perfect capital for any man who had a dream to conquer, conquest and rule. It is a matter of separate discussion that any man who made Delhi his capital could not really last his rule.
Delhi today manifests the symptoms of uncontrolled urbanization with respect to population, transport, industrialization and trade, and commercialization. The city, made initially to cater to 70,000 people has grown outward to host over 16 million people in the present day. This has put understandable pressure on Delhi’s natural resources and led to depletion in quality of the ecosystem services provided by these. Yamuna is now a drain that flows in one part of the city and is known only because there is a trans-’Yamuna’. The once continuous Ridge is now split into parts. It lies quiet but is slowly facing ecological crisis of all kinds. Both the Yamuna and the Ridge have been opened up for construction allowing urbanization to destroy the very “lifelines” that first facilitated it. And now, there is an urgent need to highlight the issues of the river and the Ridge before more damage is done to these.
When the lifelines of a system are damaged, its sustainability becomes difficult and its ability to host life impossible. Delhi’s survival and sustainability is intricately linked to the health of the Delhi Ridge and River Yamuna. The Ridge acts as the green lungs, an air purifier, provides a green refuge and what not. The River brings all forms of water – surface, rain and ground water – for the citizens of Delhi and replenishes us.
But in the hustle and bustle of our daily lives, most of us forget this and remain detached from the essential reality that we too are part of the ecosystem and will be impacted by any unnatural adverse change. It is now time to realize this truth and be more aware and informed about our surroundings. On this 100 year ‘capital celebration’, give Delhi the gift it deserves. Give it some of your time and it will only be an investment in your own future. Here’s a toast to a ‘forever’ Delhi!

दिल्ली शहर की अनोखी कहानी,



Source: bhaskar news   |   Last Updated 11:41(11/12/11)
इतिहासकारों की मानें तो दिल्ली एक शहर के रूप में सात बार बसी और फिर उजड़ी। यह सिलसिला 1191 से शुरू हुआ जब तोमर वंश से कुतुबुद्दीन एबक ने किला राय पिथौरा पर अपना आधिपत्य स्थापित किया था। वर्तमान में यह स्थान दिल्ली के अधचीनी गांव के पास है जहां आज भी किले की दीवारों के कुछ अवशेष मौजूद हैं।

दूसरे प्रयास में 1303 में अलाउद्दीन खिलजी ने इस स्थान को चुना। एएसआई के पुरातत्वविद मोहम्मद केके के अनुसार, पश्चिम एशिया में मंगोल के लगातार हो रहे हमले के कारण पश्चिम और मध्य एशिया में सलजुकों का साम्राज्य छिन्न भिन्न हो रहा था, जिस वजह से वहां के कई वास्तुकारों ने दिल्ली में शरण ली और अपने साथ सलजुकी वास्तुकला की परंपरा भी ले आए। यही किले के वस्तु शिल्प में भी नजर आती है। यह किला भी आज खंडहर में तब्दील हो गया है।
तीसरी बार 1321 में गयासुद्दीन तुगलक ने यहां शासन किया। तुगलकाबाद दिल्ली के सात शहरों में से तीसरा शहर था। लाल बलुआई पत्थर से बने इस किले के अवशेष कुतुबमीनार से करीब 8 किलोमीटर पूर्व आज भी नजर आते हैं। इसकी दीवारें ही अवशेष के रूप में मौजूद हैं। इसके बाद सन् 1325 में मुहम्मद बिन तुगलक ने इस शहर को फिर से बसाने का प्रयास किया और यहां 1351 तक शासन किया। पांचवीं दिल्ली के रूप में फिरोजशाह तुगलक ने इसे 1351 में चुना।

कहा जाता है कि 1388 तक यहां एक बार भी महामारी और बाहरी आक्रमण नहीं हुए। इसके बावजूद यह फिर उजड़ी। इंद्रप्रस्थ काल के ढांचा वाले पुराना किले को 1538 में शेरशाह सुरी ने अपने हाथों में लिया और यहां दीनपनाह नाम से इस स्थान की नींव रखी। अंत में शाहजहानाबाद के रूप में 1638 में दिल्ली एक शहर के रूप में स्थापित होती दिखी।

इसी शहर में आज का चांदनी चौक और लालकिला आता है। एएसआई के अनुसार शाहजहानाबाद को घेरने वाली प्राचीर और शहर का प्रारूप 1650 में तैयार हुआ जो 1857 तक अपने मूल रूप में रहा। इसके बाद ब्रिटिश शासन काल में यह फिर से राजधानी के रूप में अपनाई गई। जो आज एक खूबसूरत बसी राजधानी के रूप में हमारे सामने मौजूद है।

दिल्ली ने कैसे पहना राजधानी का ताज,

 

 

और कितना हुआ खर्च, सबकुछ जानिए यहां...

Source: bhaskar news   |   Last Updated 06:58(11/12/11)

नई दिल्ली. दिल्ली को बनाने और संवारने की कोशिशें बीते आठ सौ वर्षो से चली आ रही हैं। हालांकि दिल्ली के मौजूदा स्वरूप में शाहजहां व जॉर्ज पंचम के राज की ही झलक दिखाई देती है। सौ साल पहले जॉर्ज पंचम ने दिल्ली को राजधानी बनाने की घोषणा की थी।


जॉर्ज पंचम की इस घोषणा से पहले भी कम से कम छह शासकों ने दिल्ली को बसाने का प्रयास किया, पर हर बार महज उजड़ने भर के लिए ही दिल्ली बसी। 1911 में किंग जॉर्ज पंचम द्वारा ब्रिटिश भारत की राजधानी कलकत्ता (वर्तमान में कोलकाता) से दिल्ली लाने की घोषणा के साथ ही दिल्ली को एक नया वजूद मिला था।

खूबसूरत शहर के निर्माण के लिए यहां वास्तुकार एडविन लुटियन और हरबर्ट बेकर को एक व्यवस्थित राजधानी बनाने की जिम्मेदारी दी गई, जिनके प्रयासों का ही नतीजा है कि आज देश की राजधानी इस रूप में हमारे सामने है। खूबसूरत वास्तुकला और व्यवस्थित नगर निर्माण के रूप में दिल्ली का संसद भवन, नॉर्थ व साउथ एवेन्यू, खूबसूरत व व्यवस्थित सड़कें, बड़े होटल, कनॉट प्लेस, करोलबाग, पहाड़गंज, रीगल थिएटर जैसी कई ऐतिहासिक इमारतें तभी की देन हैं, जो आज भी देश की प्रगति में अभूतपूर्व योगदान दे रहीं हैं।

सौ साल पहले 12 दिसंबर को यमुना किनारे बुराड़ी में सजे दरबार में ब्रिटेन के किंग जॉर्ज पंचम ने नई राजधानी की घोषणा की थी। अब इसी जगह पर कोरोनेशन पार्क का विकास किया जा रहा है। 57 एकड़ में फैले इस पार्क के विकास का फैसला लगभग तीन साल पहले दिल्ली विकास प्राधिकरण की उच्चस्तरीय बैठक में लिया गया था, लेकिन अभी तक इसे पूरी तरह से विकसित नहीं किया जा सका है।

अलबत्ता दिसंबर महीना बीतने के बावजूद इसका निर्माण कार्य जारी रहेगा। कोरोनेशन पार्क में एक बड़ा प्रवेश द्वारा निर्मित किया जाएगा और कोरोनेशन स्तंभ के चारों तरफ पत्थर लगाए जाएंगे। इसके अलावा यहां पर एक प्लेटफार्म का निर्माण भी किया जाएगा, जिस पर जार्ज पंचम, लार्ड हार्डिंग सहित पांच लोगों की मूर्तियां स्थापित की जाएंगी और इनके ऊपर एक छतरी का निर्माण किया जाएगा।

इसके अलावा यहां पर एक 31 मीटर ऊंचा लैग पोस्ट लगाया जाएगा, जिस पर तिरंगा फहराया जाएगा। साथ ही 1947 में आजादी के समय की गतिविधियों का सजीव चित्रण के लिए एक प्लाजा का निर्माण भी किया जाएगा, जिसमें सभी पुराने फोटो रखे जाएंगे। यहां पर एक एंपी थियेटर भी निर्मित किया जाएगा।

डीडीए की जनसंपर्क सलाहकार नीमोधर के मुताबिक यहां पर महज दो फीट की खुदाई पर पानी निकल आता है। बारिश व पानी की वजह से ही पार्क के विकास में देरी हुई है। उन्होंने कहा कि इसे मार्च 2012 तक पूरा कर लिया जाएगा। विशेषज्ञों के मुताबिक 12 दिसंबर 1911 को ब्रिटेन के किंग और महारानी ने कोरोनेशन पार्क में नई राजधानी की घोषणा की थी। 12 दिसंबर की रात को दरबार का समापन हुआ। साथ ही जार्ज पंचम का यहां पर राज्याभिषेक भी किया गया था।

एक सौ लाख पौंड किए खर्च

राजधानी के निर्माण में 29 हजार मजदूरों ने काम किया और इसके निर्माण पर एक सौ लाख पौंड खर्च किए गए। लुटियन ने सुझाव दिया था कि राजधानी में कोई भी इमारत 45 फीट से ऊंची न हो। पंडाल में लग गई थी आग पहले शाही दरबार का आयोजन पंडाल में करने की योजना बनाई गई थी, लेकिन पंडाल में अचानक आग लगने की वजह से दरबार को खुले मैदान में आयोजित किया गया। शाही जुलूस लाल किले से शुरू होकर जामा मस्जिद, परेड मैदान, चांदनी चौक, कश्मीरी गेट, सिविल लाइंस, माल रोड से होता हुआ शाही दरबार वाले मैदान तक पहुंचा था।

राजधानी से पहले तहसील

बताया जाता है कि राजधानी से पहले दिल्ली पंजाब प्रांत की तहसील थी। दिल्ली को राजधानी बनाने के लिए दिल्ली और बल्लभगढ़ जिले के 128 गांवों की जमीन अधिग्रहित की गई। इसके अलावा मेरठ जिले के 65 गांवों को भी शामिल किया गया। मेरठ जिले के गांवों को मिलाकर यमुनापार क्षेत्र बनाया गया।

यमुना किनारे का भी था सुझाव

नई राजधानी के लिए एक समिति का गठन किया गया था। समिति के मुताबिक बुराड़ी मलेरिया ग्रस्त और स्वास्थ्य के नजरिये से प्रतिकूल था। दूसरी ओर दक्षिण दिल्ली में यमुना किनारे का भी सुझाव दिया गया था, लेकिन यह जगह भी पसंद नहीं आई। बाद में रायसीना पहाड़ी को नई राजधानी के रूप में चुना गया।

दिल्ली से गुजरती थी नहर

लुटियंस ने नई दिल्ली की सीमाएं पहाड़गंज रेलवे स्टेशन, खूनी दरवाजा, दिल्ली गेट, पुराना किला, रेसकोर्स, अपर रिज रोड तक निर्धारित की थीं। ओखला से आने वाली एक नहर इस क्षेत्र के मध्य से गुजरती थी, जिससे सिंचाई का कार्य होता था।

200 से ज्यादा खतरनाक भवन

 
नीतू सिंह 
 
नई दिल्ली।। पुरानी दिल्ली की करीब 200 बिल्डिंगों पर खतरा मंडरा रहा है। इनमें से कई मकान सौ साल पुराने हैं। एमसीडी ने इन पर कोई कार्रवाई तो नहीं की , अलबत्ता कई ऐसी बिल्डिंगों के ऊपर भी दो - दो अतिरिक्त मंजिलें बन गईं जिनमें काफी पहले दरारें चुकी थीं।


नियम यह है कि एमसीडी को हर साल खतरनाक बिल्डिंगों का सर्वे कराकर इन्हें खाली कराने और मरम्मत के इंतजाम करने चाहिए , मगर स्टाफ की कमी के चलते 2008 के बाद कोई सर्वे नहीं किया गया। 2008 के सर्वे में पुरानी दिल्ली के 42 भवन खतरनाक पाए गए थे। एमसीडी के बिल्डिंग विभाग के अफसरों के मुताबिक पिछले तीन सालों के भीतर जर्जर भवनों के संबंध में आई 500 शिकायतों की जांच में 200 बिल्डिंगों को खतरनाक पाया गया था।


सर्वे के नाम पर इस साल एमसीडी ने मॉनसून की शुरुआत से पहले यमुना किनारे के 3000 घरों का सर्वे किया था , इनमें से करीब 35 खतरनाक पाई गई थीं , इनके खिलाफ नोटिस भी जारी किए गए थे , लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। खतरे से बेपरवाह लोग बिना अनुमति धड़ल्ले से मकानों की मंजिलें बढ़ाते जा रहे हैं और मोटे किराए पर दुकानें खुलवा रहे हैं।


1896 से 2004 तक कूचा महाजनी के मकान नंबर 1190 में रहने वाले गोपाल चौहान कहते हैं कि 2004 में हमारी बिल्डिंग में दरारें गई थीं , तभी हमने इसे खाली कर दिया था और एमसीडी में शिकायत भी की थी। सन् 2005 में हाई कोर्ट ने 1190 और इसके आसपास के दो और मकानों को गिराने का आदेश दिया था। 6 हफ्ते के भीतर मकान गिराने का आदेश था। इसका पालन तो हुआ नहीं , अब ढाई मंजिल की इस बिल्डिंग के ऊपर दो और फ्लोर बन गए हैं और उसमें कई दुकानें खुल चुकी हैं। यहां के बहुत सारे मकान इसी हालत में पहुंच चुके हैं।


एमसीडी वर्क्स कमिटी के अध्यक्ष जगदीश ममगईं कहते हैं कि पुरानी दिल्ली में व्यवसायीकरण बहुत तेजी से बढ़ रहा है। फिलहाल यहां 15-20 पर्सेंट एरिया ही रिहायश के लिए इस्तेमाल हो रहा है। जब तक कमर्शलाइजेशन नहीं रुकेगा , यहां कुछ नहीं हो सकता। सुधार के लिए यहां की होलसेल मार्केट को शिफ्ट किया जा सकता है

राजधानी दिल्ली सौ साल की.










दिल्ली आज पूरे 100 साल की हो गई है। अंग्रेजों ने भारत की राजधानी को कोलकाता से दिल्ली लाने का फैसला किया था और भारत के तत्कालीन शासक किंग जॉर्ज पंचम ने 12 दिसंबर 1911 को बुराड़ी में सजे दरबार में नई राजधानी की घोषणा की थी। 

किंग जॉर्ज पंचम के इस फैसले ने दिल्ली की तकदीर ही बदल दी। दिल्ली को न सिर्फ राष्ट्रीय स्तर पर बल्कि अंतरराष्ट्रीय मानचित्र पर नई पहचान मिली। साल 1911 में दिल्ली एक ढहता हुआ पुराना शहर था। चारदीवारी से घिरे शहर के बाहर केवल गांव और कुतुब-निजामुद्दीन की दरगाह के पास कुछ बस्तियां ही थीं। लेकिन 1911 से 1931 तक दिल्ली में नई राजधानी बन गई।

सौ साल पहले 12 दिसंबर को जॉर्ज पंचम का कोरोनेशन पार्क में भारत के नए सम्राट के रूप में राज्याभिषेक हुआ था। समारोह खत्म होने के तुरंत बाद ही जॉर्ज ने इस घोषणा से सबको चौंका दिया, हमने फैसला किया है कि भारत की राजधानी कोलकाता से दिल्ली लाई जाए। 1911 में दिल्ली एक ढहता हुआ पुराना शहर था। एडवर्ड लुटियन और हरबर्ट बेकर की देखरेख में 1911 से 1931 के मध्य नई राजधानी ने आकार लिया। लुटियंस और बेकर ने इंडिया गेट, राष्ट्रपति भवन सहित नई दिल्ली को एक आधुनिक रूप दिया। दिल्ली कुल आठ शहरों को मिलाकर बनी है।

दिल्ली के सौ साल पूरे होने पर राजधानी ने पूरे साल जश्न मनाया। पूरे साल यहां सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए गए। इसमें देश और विदेश के कई कलाकारों ने शिरकत की। दिल्ली का अपना इतिहास करीब 3,000 साल पुराना है। माना जाता है कि पांडवों ने इंद्रप्रस्थ का किला यमुना किनारे बनाया था, लगभग उसी जगह जहां आज मुगल जमाने में बना पुराना किला खड़ा है। हर शासक ने दिल्ली को अपनी राजधानी के तौर पर अलग पहचान दी। कई बार इस शहर पर हमले भी हुए।

शासन के बदलने के साथ-साथ, हर सुल्तान ने इलाके के एक हिस्से पर अपना किला बनाया। उसे एक नाम दिया। मेहरौली के पास लाल कोट में आठवीं शताब्दी में तोमर खानदान ने अपना राज्य स्थापित किया था। 10वीं शताब्दी में राजपूत राजा पृथ्वीराज चौहान ने किला राय पिथौरा के साथ पहली बार दिल्ली को एक पहचान दी। सदियों से कई राजाओं की राजनीतिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र रही नई दिल्ली भारत की राजधानी के तौर पर अपने उदय के कल सौ साल पूरे करने जा रही है और इस अवसर पर वह अपने गौरवमय इतिहास में कई और रोचक पन्ने जोड़ेगी।

 इस मौके पर कोई आधिकारिक आयोजन नहीं होगा किन्तु मुख्यमंत्री शाम को किताब का विमोचन करेंगी। बुधवार को वह और उप राज्यपाल तेजेन्दर खन्ना ‘दास्तान ए दिल्ली’ नामक प्रदर्शनी का उद्घाटन करेंगे। बरस भर चलने वाले कार्यक्रमों की शुरूआत जनवरी से होगी। शहर की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत पर संस्कृति मंत्रालय कई आयोजन करेगा। दिल्ली वाले अपने शहर के शताब्दी वर्ष के आयोजनों का आनंद ले रहे हैं और बाबा खड़ग सिंह मार्ग पर फूड फेस्टीवल में उनकी खासी भीड़ उमड़ रही है।

‘दिल्ली के पकवान महोत्सव’ में दिल्ली के खानपान की संस्कृति नजर आ रही है। यहां तरह तरह के कबाब, कुल्फी और अन्य स्वदिष्ट पकवान लोगों को अपने स्वाद से दीवाना बना रहे हैं। 15 दिसंबर 1911 को किंग्सवे कैंप के दिल्ली दरबार में किंग जॉर्ज पंचम और क्वीन मैरी ने नये शहर की इमारत की आधारशिला रखी थी और ब्रिटिश वास्तुशिल्पी एडविन लुटियन्स तथा हर्बर्ट बाकर ने वर्तमान नयी दिल्ली की इबारत लिखी। करीब 3000 साल से दिल्ली पर कई राजाओं और शासकों ने शासन किया और इनमें से प्रत्येक ने दिल्ली की विरासत पर अपनी अमिट छाप छोड़ी।