मंगलवार, 26 दिसंबर 2017

पत्रकारिता का इतिहास




प्रस्तुति- अमन कुमार अमन


इतिहास

लगता है कि विश्व में पत्रकारिता का आरंभ सन 131 ईस्वी पूर्व रोम में हुआ था। उस साल पहला दैनिक समाचार-पत्र निकलने लगा। उस का नाम था – “Acta Diurna” (दिन की घटनाएं)। वास्तव में यह पत्थर की या धातु की पट्टी होता था जिस पर समाचार अंकित होते थे। ये पट्टियां रोम के मुख्य स्थानों पर रखी जाती थीं और इन में वरिष्ठ अधिकारियों की नियुक्ति, नागरिकों की सभाओं के निर्णयों और ग्लेडिएटरों की लड़ाइयों के परिणामों के बारे में सूचनाएं मिलती थीं।
मध्यकाल में यूरोप के व्यापारिक केंद्रों में ‘सूचना-पत्र ‘ निकलने लगे। उन में कारोबार, क्रय-विक्रय और मुद्रा के मूल्य में उतार-चढ़ाव के समाचार लिखे जाते थे। लेकिन ये सारे ‘सूचना-पत्र ‘ हाथ से ही लिखे जाते थे।
15वीं शताब्दी के मध्य में योहन गूटनबर्ग ने छापने की मशीन का आविष्कार किया। असल में उन्होंने धातु के अक्षरों का आविष्कार किया। इस के फलस्वरूप किताबों का ही नहीं, अख़बारों का भी प्रकाशन संभव हो गया।
16वीं शताब्दी के अंत में, यूरोप के शहर स्त्रास्बुर्ग में, योहन कारोलूस नाम का कारोबारी धनवान ग्राहकों के लिये सूचना-पत्र लिखवा कर प्रकाशित करता था। लेकिन हाथ से बहुत सी प्रतियों की नकल करने का काम महंगा भी था और धीमा भी। तब वह छापे की मशीन ख़रीद कर 1605 में समाचार-पत्र छापने लगा। समाचार-पत्र का नाम था ‘रिलेशन’। यह विश्व का प्रथम मुद्रित समाचार-पत्र माना जाता है।

भारत में पत्रकारिता का आरंभ

छापे की पहली मशीन भारत में 1674 में पहुंचायी गयी थी। मगर भारत का पहला अख़बार इस के 100 साल बाद, 1776 में प्रकाशित हुआ। इस का प्रकाशक ईस्ट इंडिया कंपनी का भूतपूर्व अधिकारी जेम्स अगस्तस हिक्की था। यह अख़बार स्वभावतः अंग्रेज़ी भाषा में निकलता था तथा कंपनी व सरकार के समाचार फैलाता था।
सब से पहला अख़बार, जिस में विचार स्वतंत्र रूप से व्यक्त किये गये, वह 1780 में जेम्स ओगस्टस हीकी का अख़बार ‘बंगाल गज़ेट’ था। अख़बार में दो पन्ने थे और इस में ईस्ट इंडिया कंपनी के वरिष्ठ अधिकारियों की व्यक्तिगत जीवन पर लेख छपते थे। जब हीकी ने अपने अख़बार में गवर्नर की पत्नी का आक्षेप किया तो उसे 4 महीने के लिये जेल भेजा गया और 500 रुपये का जुरमाना लगा दिया गया। लेकिन हीकी शासकों की आलोचना करने से पर्हेज़ नहीं किया। और जब उस ने गवर्नर और सर्वोच्च न्यायाधीश की आलोचना की तो उस पर 5000 रुपये का जुरमाना लगाया गया और एक साल के लिये जेल में डाला गया। इस तरह उस का अख़बार भी बंद हो गया।
  • 1790 के बाद भारत में अंग्रेज़ी भाषा की और कुछ अख़बार स्थापित हुए जो अधिक्तर शासन के मुखपत्र थे। पर भारत में प्रकाशित होनेवाले समाचार-पत्र थोड़े-थोड़े दिनों तक ही जीवित रह सके।
  • 1819 में भारतीय भाषा में पहला समाचार-पत्र प्रकाशित हुआ था। वह बंगाली भाषा का पत्र – ‘संवाद कौमुदी’ (बुद्धि का चांद) था। उस के प्रकाशक राजा राममोहन राय थे।
  • 1822 में गुजराती भाषा का साप्ताहिक ‘मुंबईना समाचार’ प्रकाशित होने लगा, जो दस वर्ष बाद दैनिक हो गया और गुजराती के प्रमुख दैनिक के रूप में आज तक विद्यमान है। भारतीय भाषा का यह सब से पुराना समाचार-पत्र है।
  • 1826 में ‘उदंत मार्तंड’ नाम से हिंदी के प्रथम समाचार-पत्र का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। यह साप्ताहिक पत्र 1827 तक चला और पैसे की कमी के कारण बंद हो गया।
  • 1830 में राममोहन राय ने बड़ा हिंदी साप्ताहिक ‘बंगदूत’ का प्रकाशन शुरू किया। वैसे यह बहुभाषीय पत्र था, जो अंग्रेज़ी, बंगला, हिंदी और फारसी में निकलता था। यह कोलकाता से निकलता था जो अहिंदी क्षेत्र था। इस से पता चलता है कि राममोहन राय हिंदी को कितना महत्व देते थे।
  • 1833 में भारत में 20 समाचार-पत्र थे, 1850 में 28 हो गए और 1953 में 35 हो गये। इस तरह अख़बारों की संख्या तो बढ़ी, पर नाममात्र को ही बढ़ी। बहुत से पत्र जल्द ही बंद हो गये। उन की जगह नये निकले। प्रायः समाचार-पत्र कई महीनों से ले कर दो-तीन साल तक जीवित रहे।
उस समय भारतीय समाचार-पत्रों की समस्याएं समान थीं। वे नया ज्ञान अपने पाठकों को देना चाहते थे और उसके साथ समाज-सुधार की भावना भी थी। सामाजिक सुधारों को लेकर नये और पुराने विचारवालों में अंतर भी होते थे। इस के कारण नये-नये पत्र निकले। उन के सामने यह समस्या भी थी कि अपने पाठकों को किस भाषा में समाचार और विचार दें। समस्या थी – भाषा शुद्ध हो या सब के लिये सुलभ हो? 1846 में राजा शिव प्रसाद ने हिंदी पत्र ‘बनारस अख़बार’ का प्रकाशन शुरू किया। राजा शिव प्रसाद शुद्ध हिंदी का प्रचार करते थे और अपने पत्र के पृष्ठों पर उन लोगों की कड़ी आलोचना की जो बोल-चाल की हिंदुस्तानी के पक्ष में थे। लेकिन उसी समय के हिंदी लखक भारतेंदु हरिशचंद्र ने ऐसी रचनाएं रचीं जिन की भाषा समृद्ध भी थी और सरल भी। इस तरह उन्होंने आधुनिक हिंदी की नींव रखी है और हिंदी के भविष्य के बारे में हो रहे विवाद को समाप्त कर दिया। 1868 में भरतेंदु हरिशचंद्र ने साहित्यिक पत्रिका ‘कविवच सुधा’ निकालना प्रारंभ किया। 1854 में हिंदी का पहला दैनिक ‘समाचार सुधा वर्षण’ निकला।

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बाहरी कड़ियाँ

शनिवार, 28 अक्टूबर 2017

विशव का सबसे बड़ा शिवलिंग














भोजेश्वर मंदिर : यहाँ है एक ही पत्थर से निर्मित विशव का सबसे बड़ा शिवलिंग

भोजपुर (Bhojpur), मध्य प्रदेश कि राजधानी भोपाल से 32 किलो मीटर दूर स्तिथ है। भोजपुर से लगती हुई पहाड़ी पर एक विशाल, अधूरा शिव मंदिर हैं। यह भोजपुर शिव मंदिर (Bhojpur Shiv Temple) या भोजेश्वर मंदिर (Bhojeshwar Temple) के नाम से प्रसिद्ध हैं। भोजपुर तथा इस शिव मंदिर का निर्माण परमार वंश के प्रसिद्ध राजा भोज (1010 – 1055 ई ) द्वारा किया गया था। इस मंदिर  कि अपनी कई विशेषताएं हैं।
Shivlinga at Bhojpur Shiv Temple (World’s tallest shivlinga made by one rock)
इस मंदिर कि पहली विशेषता इसका विशाल शिवलिंग हैं जो कि विशव का एक ही पत्थर से निर्मित सबसे बड़ा शिवलिंग (World’s Tallest Shiv Linga) हैं।  सम्पूर्ण शिवलिंग कि लम्बाई 5.5 मीटर (18 फीट ), व्यास 2.3 मीटर (7.5 फीट ), तथा केवल लिंग कि लम्बाई 3.85 मीटर (12 फीट ) है। Earthen ramp behind the temple at Bhojpur
दूसरी विशेषता भोजेश्वर मंदिर (Bhojeshwar Temple) के पीछे के भाग में बना ढलान हैजिसका उपयोग निर्माणाधीन मंदिर के समय विशाल पत्थरों को ढोने  के लिए किया गया था। पूरे विश्व में कहीं भी अवयवों को संरचना के ऊपर तक पहुंचाने के लिए ऐसी प्राचीन भव्य निर्माण तकनीक उपलब्ध नहीं है। ये एक प्रमाण के तौर पर हैजिससे ये रहस्य खुल गया कि आखिर कैसे 70 टन भार वाले विशाल पत्थरों का मंदिर क शीर्ष तक पहुचाया गया।
Bhojpur Shiv Temple
भोजेश्वर मंदिर (Bhojeshwar Temple) कि तीसरी विशेषता इसका अधूरा निर्माण हैं।  इसका निर्माण अधूरा क्यों रखा गया इस बात का इतिहास में कोई पुख्ता प्रमाण तो नहीं है पर ऐसा कहा जाता है कि यह मंदिर एक ही रात में निर्मित होना था परन्तु छत का काम पूरा होने के पहले ही सुबह हो गई, इसलिए काम अधूरा रह गया।
Bhojpur Shiv Temple
चौथी विशेषता भोजेश्वर मंदिर (Bhojeshwar Temple) कि गुम्बदाकार छत हैं।चुकी इस मंदिर का निर्माण भारत में इस्लाम के आगमन के पहले हुआ था अतः इस  मंदिर के गर्भगृह के ऊपर बनी अधूरी गुम्बदाकार छत भारत में ही गुम्बद निर्माण के प्रचलन को प्रमाणित करती है। भले ही उनके निर्माण की तकनीक भिन्न हो। कुछ विद्धान इसे भारत में सबसे पहले गुम्बदीय छत वाली इमारत मानते हैं। इस मंदिर का दरवाजा भी किसी हिंदू इमारत के दरवाजों में सबसे बड़ा है।

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Pillars of Temple
इस मंदिर की पांचवी विशेषता इसके 40 फीट ऊचाई वाले इसके चार स्तम्भ हैं। गर्भगृह की अधूरी बनी छत इन्हीं चार स्तंभों पर टिकी है।
भोजेश्वर मंदिर (Bhojeshwar Temple) कि एक अन्य विशेषता यह है कि  इसके अतिरिक्त भूविन्याससतम्भशिखर , कलश और चट्टानों की सतह पर आशुलेख की तरह उत्कीर्ण नहीं किए हुए हैं।
भोजेश्वर मंदिर (Bhojeshwar Temple) के विस्तृत चबूतरे पर ही मंदिर के अन्य हिस्सों, मंडप, महामंडप तथा अंतराल बनाने की योजना थी। ऐसा मंदिर के निकट के पत्थरों पर बने मंदिर- योजना से संबद्ध नक्शों से पता चलता है।
इस प्रसिद्घ स्थल में वर्ष में दो बार वार्षिक मेले का आयोजन किया जाता है जो मकर संक्रांति व महाशिवरात्रि पर्व के समय होता है। इस धार्मिक उत्सव में भाग लेने के लिए दूर दूर से लोग यहां पहुंचते हैं। महाशिवरात्रि पर यहां तीन दिवसीय भोजपुर महोत्सव का भी आयोजन किया जाने लगा है।
Parvati cave at Bhojpur
भोजपुर शिव मंदिर(Bhojpur Shiv Temple) के बिलकुल सामने पश्चमी दिशा में एक गुफा हैं यह पारवती गुफा के नाम से जानी जाती हैं। इस गुफा में पुरातात्विक महत्तव कि अनेक मुर्तिया हैं।
Jain Temple of Bhojpur
भोजपुर (Bhojpur) में एक अधूरा जैन मंदिर भी है।  इस मंदिर में भगवन शांतिनाथ कि 6 मीटर ऊंची मूर्ति हैं। दो अन्य मुर्तिया भगवान पार्शवनाथ व सुपारासनाथ कि हैं। इस मंदिर  में लगे एक शिलालेख पर राजा भोज का नाम लिखा है। यह शिलालेख एक मात्र Epigraphic Evidence हैं जो कि राजा भोज से सम्बंधित हैं।
Mantunga Acharya Shrine at Bhojpur, Madhya Pradesh
इसी मंदिर परिसर में आचार्य माँटूंगा का समाधि स्थल  हैं जिन्होंने  Bhaktamara Stotra. लिखा था।
भारत के मंदिरों के बारे में यहाँ पढ़े –  भारत के अदभुत मंदिर
सम्पूर्ण पौराणिक कहानियाँ यहाँ पढ़े – पौराणिक कथाओं का विशाल संग्रह
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गुरुवार, 3 अगस्त 2017

राजस्थान के अद्भूत मंदिर





प्रस्तुति-  कृति शरण / सृष्टि शरण



★ सोरसन (बारां) का ब्रह्माणी माता का मंदिर- यहाँ देवी की पीठ का श्रृंगार होता है. पीठ की ही पूजा होती है !
★ चाकसू(जयपुर) का शीतला माता का मंदिर- खंडित मूर्ती की पूजा समान्यतया नहीं होती है, पर शीतला माता(चेचक की देवी) की पूजा खंडित रूप में होती है !
★ बीकानेर का हेराम्ब का मंदिर- आपने गणेश जी को चूहों की सवारी करते देखा होगा पर यहाँ वे सिंह की सवारी करते हैं !
★ रणथम्भोर( सवाई माधोपुर) का गणेश मंदिर- शिवजी के तीसरे नेत्र से तो हम परिचित हैं लेकिन यहाँ गणेश जी त्रिनेत्र हैं ! उनकी भी तीसरी आँख है.
★ चांदखेडी (झालावाड) का जैन मंदिर- मंदिर भी कभी नकली होता है ? यहाँ प्रथम तल पर महावीर भगवान् का नकली मंदिर है, जिसमें दुश्मनों के डर से प्राण प्रतिष्ठा नहीं की गई. असली मंदिर जमीन के भीतर है !
★ रणकपुर का जैन मंदिर- इस मंदिर के 1444 खम्भों की कारीगरी शानदार है..कमाल यह है कि किसी भी खम्भे पर किया गया काम अन्य खम्भे के काम से.नहीं मिलता ! और दूसरा कमाल यह कि इतने खम्भों के जंगल में भी आप कहीं से भी ऋषभ देव जी के दर्शन कर सकते हैं, कोई खम्भा बीच में नहीं आएगा.
★गोगामेडी( हनुमानगढ़) का गोगाजी का मंदिर- यहाँ के पुजारी मुस्लिम हैं ! कमाल है कि उनको अभी तक काफिर नहीं कहा गया और न ही फतवा जारी हुआ है !
★नाथद्वारा का श्रीनाथ जी का मंदिर - चौंक जायेंगे  श्रीनाथ जी का श्रृंगार जो विख्यात है, कौन करता है ? एक मुस्लिम परिवार करता है ! पीढ़ियों से कहते हैं कि इनके पूर्वज श्रीनाथजी की मूर्ति के साथ ही आये थे.
★ मेड़ता का चारभुजा मंदिर - सदियों से सुबह का पहला भोग यहाँ के एक मोची परिवार का लगता है ! ऊंच नीच क्या होती है ?
★ डूंगरपुर का देव सोमनाथ मंदिर- बाहरवीं शताब्दी के इस अद्भुत मंदिर में पत्थरों को जोड़ने के लिए सीमेंट या गारे का उपयोग नहीं किया गया है ! केवल पत्थर को पत्थर में फंसाया गया है.
★बिलाडा(जोधपुर) की आईजी की दरगाह - नहीं जनाब, यह दरगाह नहीं है ! यह आईजी का मंदिर है, जो बाबा रामदेव की शिष्या थीं और सीरवियों की कुलदेवी हैं.

गुरुवार, 27 जुलाई 2017

अब लालू प्रसाद को कौन बचाएगा?




 
 27 जुलाई 2017
  • प्रस्तुति-  अमन कुमार अमन

बिहार में लालू प्रसाद यादव के राजनीतिक-भविष्य के अंत की अटकलें और भविष्यवाणियां कई बार की जा चुकी हैं. इस बार भी की जा रही हैं.
और क्यों न हों, लालू इस वक़्त अपने राजनीतिक जीवन के सबसे बुरे दिनों में हैं, जब राज्य में एक शानदार जनादेश से बनी उनके महागठबंधन की सरकार रातों रात जा चुकी है और सरकार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अब उनकी धुर-विरोधी भाजपा के साथ नई सरकार बना चुके हैं.
महागठबंधन सरकार में उपमुख्यमंत्री रहे उनके पुत्र तेजस्वी सत्ता से बेदखल होकर सड़क पर आ गए हैं. संकट का दूसरा और बेहद संगीन पहलू है कि इस बार सिर्फ़ लालू ही नहीं, उनके परिवार के प्रायः सभी प्रमुख सदस्य इस वक़्त किसी न किसी तरह के भ्रष्टाचार के आरोपों में फंसे दिख रहे हैं.
तेजस्वी सहित कई परिजनों पर बेनामी या आय से अधिक संपत्ति बनाने के आरोपों में एफआईआर दर्ज हो चुकी है. सीबीआई और अन्य एजेंसियों की पड़ताल चल रही है.
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लालू यादव का भविष्य क्या है?

ऐसे संकट और चुनौतियों में घिरे लालू प्रसाद यादव के पास पहले जैसी राजनीतिक तेजस्विता भी नहीं बची है, जिसने उन्हें नब्बे के दशक में सामाजिक न्याय के एक कद्दावर नेता के रूप में स्थापित किया था.
उनके पास वह प्रभामंडल नहीं है. ऐसे में क्या वह उन राजनीतिज्ञों, टिप्पणीकारों और भविष्यवक्ताओं को अपने वजूद के प्रति आश्वस्त कर सकेंगे, जो उनकी राजनीतिक-मर्सिया लिखने की जल्दबाजी में दिख रहे हैं!
बिहार राजनीति के बहुत सारे विशेषज्ञों को लग रहा है कि लालू की राजनीति को ख़त्म करने की केंद्र की मौजूदा भाजपा-नीत सरकार की संगठित मुहिम को अब नीतीश कुमार का भी समर्थन मिल गया है, ऐसे में लालू का टिकना मुश्किल होगा.
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भ्रष्टाचार के आरोप निराधार नहीं

इसमें कोई दो राय नहीं कि लालू प्रसाद और उनके परिवार के कुछ सदस्यों के ऊपर लगे भ्रष्टाचार के सारे आरोप निराधार नहीं हैं.
अंतर सिर्फ़ इतना है कि ऐसे बहुत सारे आरोपों की जद में सत्ताधारी दल के नेता भी आ सकते थे, अगर उनकी भी घेराबंदी केंद्रीय या राज्य एजेंसियां उसी तरह करतीं जैसे वे इन दिनों विपक्षी नेताओं की कर रही हैं.
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से सम्बद्ध दो मुख्यमंत्रियों मानिक सरकार (त्रिपुरा) और पिनरई विजयन और कुछेक अन्य को छोड़कर इस वक़्त देश के सभी प्रमुख विपक्षी नेताओं के ख़िलाफ़ किसी न किसी न्यायालय या केंद्रीय एजेंसियों के समक्ष भ्रष्टाचार या कदाचार के गंभीर मामले लंबित हैं.
बीते तीन सालों के दौरान यह सिलसिला तेज हुआ है. ऐसे में बिहार के ताजा घटनाक्रमों की रोशनी में यह सवाल उठना लाजिमी है- क्या है लालू का सियासी भविष्य?

फ़ायदे में रहेगी भाजपा

नीतीश की अगुवाई में बनी नई सरकार के दौरान भाजपा सबसे फ़ायदे में रहने वाली है. सरकार में भाजपा की वापसी से संघ को बिहार में एक बार फिर अपना सांगठनिक विस्तार करने का मुंहमांगा मौक़ा मिल गया है.
शपथग्रहण के दौरान राजभवन में और उसके बाद बिहार के विभिन्न ज़िलों में लगने वाले हिन्दुत्व ब्रैंड के नारों से भी इस बात का संकेत मिलता है.
बीते चार सालों से भाजपा बिहार की सत्ता से बाहर थी. केंद्र की सत्ता के बावजूद उसे राज्य में सांगठनिक विस्तार में तमाम तरह की दिक़्क़तें आ रही थीं. लेकिन अब उसका रास्ता निरापद है.
सरकार के गठन के साथ ही जद(यू) में विभाजन का सिलसिला शुरू होता दिख रहा है. उसके लिए शुरुआती संकेत अच्छे नहीं हैं.
कोई आश्चर्य नहीं, कुछ समय बाद जद(यू) का बिहार में वही हाल हो जो एक समय गोवा में भाजपा के लिए सियासी जगह बनाने वाली उसके गठबंधन की बड़ी पार्टी महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी का हुआ.

लालू की जगह लेना आसान नहीं

वह सिमटती गई और भाजपा फैलती गई. बिहार के मौजूदा सत्ताधारी गठबंधन के ख़िलाफ़ इस वक़्त बड़ी ताक़त लालू की पार्टी ही है. राज्य में आज भी सामाजिक न्याय के आधार-क्षेत्र में किसी नए दल या नेता का उतना प्रभाव विस्तार नहीं हुआ है कि वह अचानक कमज़ोर होते लालू की जगह ले ले.
लेकिन लालू एक कद्दावर नेता के तौर पर बहुत लंबे समय तक बरकरार रहेंगे, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता. मोदी-शाह की टीम आज देशव्यापी स्तर पर जिस तरह संगठित और व्यवस्थित ढंग से राजनीतिक योजनाएं तैयार करती हैं और जिस बड़े पैमाने पर उसे कॉर्पोरेट और मुख्यधारा मीडिया का ज़बर्दस्त समर्थन प्राप्त है, वह भारत के आधुनिक इतिहास में अभूतपूर्व है.

बीजेपी से कैसे मुक़ाबला करेंगे लालू

दूसरी तरफ़ लालू एक ऐसी क्षेत्रीय पार्टी का नेतृत्व करते हैं, जिसके पास न तो कोई थिंकटैंक है, न किसी तरह का बड़ा कॉर्पोरेट और मुख्यधारा मीडिया का समर्थन. प्रशासनिक कामकाज के उनके रिकॉर्ड भी अच्छे नहीं हैं.
उनकी ऊलजलूल सियासी नौटंकियां एक समय लोगों को रोचक लगती थीं लेकिन अब वक़्त के साथ वह भी ज़्यादा कारगर नहीं रहीं.
उनके दोनों बेटे और एक बेटी राजनीति में हैं. लेकिन इनमें बड़े नेता का कौशल और विश्वास फ़िलहाल नहीं नजर आता. तेजस्वी में कुछ संभावनाएं नज़र आती थीं पर वह भी बहुत कम उम्र में ही विवादों में घेर लिए गए हैं.
इन वजहों से लालू का राजनीतिक भविष्य सवालों से घिरा नज़र आता है. लेकिन बिहार के समाज और राजनीति के तीन ठोस पहलू इस बात का संकेत देते हैं कि लालू अगर अतीत की अपनी ग़लतियों से सबक लें तो मुश्किलों के बावजूद वह फिलवक़्त टिके रह सकते हैं.

ग़लतियों से बाज आएं लालू

ये तीन पहलू हैं- बिहार में पिछड़ों के बड़े हिस्से और अल्पसंख्यकों के बीच किसी नए स्वीकार्य नेतृत्व का अभी तक न उभरना, सवर्ण-हिन्दुत्व आक्रामकता के मौजूदा दौर में सेक्युलर लोगों की गोलबंदी की संभावना और जद(यू) में संभावित विभाजन या फूट.
यह तीनों राजनीतिक पहलू राजद-कांग्रेस गठबंधन को नई ज़मीन दे सकते हैं. लेकिन तब लालू को अपने वंशवादी आग्रहों को ढीला करना होगा. अपनी पार्टी के अन्य तपे-तपाये नेताओं को आगे करना होगा.
रघुवंश प्रसाद सिंह, रामचंद्र पूर्वे, अब्दुल बारी सिद्दीकी, मनोज झा और अन्य नेताओं को आगे करके अगर लालू और तेजस्वी अपनी राजनीतिक सक्रियता तेज करते हैं तो अन्य राजनीतिक संगठनों से उनकी एकता का आधार बढ़ेगा. अगर लालू अपने पुराने तर्ज की राजनीति पर टिके रहने की ज़िद नहीं छोड़ते तो उनका राजनीतिक पतन अवश्यंभावी है और इसका सीधा फ़ायदा भाजपा को मिलेगा.
इस वक़्त हिन्दुत्व पार्टी के अजेंडे में पिछड़ों में जनाधार का विस्तार करना सबसे अहम बना हुआ है.

गुरुवार, 13 जुलाई 2017

Temples of India (भारत के मंदिर)