कई साल पहले अजमेर शरीफ यानी मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर जाना हुआ था । पूरा बाजार हिंदुओं की दुकानों और होटलों से पटा हुआ मिला था । दरगाह पर लगी भारी भीड़ भी दो तिहाई हिन्दुओं की ही थी । उधर, शहर की अर्थव्यवस्था भी पूरी तरह दरगाह के भरोसे दिखी । खास बात पता चली कि शहर की अस्सी फीसदी आबादी भी हिन्दुओं की ही है। उसी दिन अजमेर के निकट ब्रह्म जी के इकलौते मंदिर पुष्कर भी गया था । मगर देख कर हैरानी हुई कि वहां लोगों की गिनती उंगलियों पर गिनने योग्य भर ही थी। अजमेर जाकर ही कायदे से समझ आया कि हमारे मुल्क में सूफियों, संतों और पीर फकीरों का सम्मान किसी देवी देवता से कम नहीं है। बेशक गरीब नवाज के नाम से पुकारे जाने वाले चिश्ती को दुनिया से गए अब 813 साल हो चुके हैं मगर उनके प्रति लोगों की श्रृद्धा रत्ती भर भी इस मुल्क में कम नहीं हुई है । भारत ही क्यों दुनिया के सत्तर से अधिक मुल्कों में भी उनके चाहने वाले हैं और यही कारण है कि देश दुनिया की बड़ी बड़ी शख्सियतें उनकी दरगाह की जियारत करने अजमेर आती रहती हैं। यह सिलसिला आज से नहीं मुगलों के दौर से चल रहा है। राजस्थान के हिंदू राजा भी इसमें किसी से पीछे नहीं रहे थे । शायद यही कारण था कि अंग्रेज लेखक कर्नल टॉड ने अपनी किताब में लिखा था कि भारत में मैने एक कब्र को राज करते देखा है। पता नहीं यह अकीदत है अथवा मुस्लिमों के निकट पहुंचने का जरिया, कि आजादी के बाद नेहरू से लेकर नरेन्द्र मोदी तक देश के लगभग सभी प्रधानमंत्री चढ़ाने के लिए हर साल दरगाह पर चादर भिजवाते रहते हैं। वैसे गल्फ डिप्लोमेसी की भी यही मांग है कि देश के कर्णधार सच्ची अथवा झूठी जैसी भी हो मगर अपनी श्रृद्धा दरगाह के प्रति जताते रहें मगर अब यह क्या तमाशा हो गया है ? इस दरगाह के नीचे भी मंदिर खोजा जा रहा है ? अयोध्या , ज्ञान वापी, मथुरा और हाल ही सम्भल के उत्पात से भी क्या जी नहीं भरा ? क्या इस देश को कभी शांत रहने भी दिया जाएगा अथवा नहीं ?
राम मंदिर फैसले के समय सुप्रीम कोर्ट ने ऐलान किया था कि इस फैसले को अपवाद के तौर पर लिया जाए और अब भविष्य में प्लेसिस ऑफ वरशिप एक्ट 1991 का कठोरता से पालन किया जाएगा । इस एक्ट से स्पष्ट है कि देश के सभी पूजा स्थलों का धार्मिक चरित्र वही रहेगा जो 15 अगस्त 1947 को आजादी के समय था । मगर फिर भी अजेमर की अदालत ने हिन्दू मंदिर संबंधी याचिका को स्वीकार कर लिया ? स्वयं आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत दावा कर चुके हैं कि राम मंदिर के बाद अब किसी भी अन्य मंदिर का मुद्दा नहीं उठाया जाएगा मगर फिर भी हिंदू सेना ने अदालत में मंदिर का दावा कर दिया ? कमाल की बात तो यह है कि अदालत ने सम्बन्धित पक्षों को नोटिस भी भेज दिया और वह भी बस एक पूर्व जज जस्टिस हरबिलास शारदा की किताब के आधार पर जो कि इतिहासकार भी नहीं थे ? यदि अप्रमाणित तथ्यों से भरी किताबों के आधार पर ही अदालतें कार्यवाही करेंगी तो क्षमा करें यह देश एक दिन भी कायदे से चल नहीं पाएगा । ऐसी अनेक किताबें बाजार में उपलब्ध हैं जो दावा करती हैं कि हिन्दुओं के तमाम बड़े मंदिर बौद्धों के पूजा स्थल तोड़ कर बनाए गए हैं। कई मन्दिरों के नीचे बुद्ध की मूर्तियों के दावे भी समय समय पर किए जाते रहे हैं। पुष्यमित्र शुंग जैसे ब्राह्मण राजाओं द्वारा बौद्धों को मार मार कर देश से भगाने और सरयू नदी को उनके सिरों से पाटने की बातें भी किताबों में खूब मिल जाएंगी। किताबें ही आधार हैं तो जांच यह भी करनी पड़ेगी कि नालंदा विश्वविद्यालय बख्तियार खिलजी ने जलाया अथवा उस दौर के वैदिक मान्यता वाले लोगों ने। यह मुद्दा भी उठेगा कि आदि शंकराचार्य का अद्वैत वाद उनका अपना था अथवा बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन के सिद्धांत को कॉपी पेस्ट किया गया था । यह तथ्य भी स्वीकार करना पड़ेगा कि मंदिर और मूर्ति जैसी चीजें भी हिंदू धर्म में बौद्धों और जैनियों से आई हैं। यह सब मैं नहीं कह रहा । किताबें कह रही हैं और छोटे मोटे लोगों की नहीं वरन बड़े बड़े विद्वानों की किताबों में यह लिखा है। बेशक हिंदू धर्म विरोधी ये सभी किताबी बातें हवा हवाई हो सकती हैं। इसी तरह संभावना यह भी है कि आठ सौ साल पहले बनी चिश्ती की दरगाह के नीचे मंदिर संबंधी दावे भी कुछ ऐसे ही हो सकते हैं। सवाल यह कतई नहीं है कि कौन सा दावा सही है और कौन सा गलत । सवाल तो यह है कि हम इतिहास ही खोदते रहेंगे तो भविष्य कब गढ़ेंगे ? यदि सब कुछ खोद खोद कर देखने की जिद हम पकड़ लेंगे तो मुआफ़ करना पाप सबके सामने आएंगे । बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी।