बाल
अपराधी:कानूनी संरक्षण या कानूनी व सामाजिक अनदेखी का दुष्परिणाम
आजकल ये
चर्चा का विषय बना हुआ है कि बढ़ते बाल अपराधी कानूनी संरक्षण का
दुष्परिणाम
है लेकिन मेरा मानना है कि बढ़ते बाल अपराधी कानूनी व सामाजिक
अनदेखी
का दुष्परिणाम है।सर्वप्रथम बच्चा कानून के अनुसार अपराधी नहीं
होता,इसलिए बाल अपराधी शब्द का प्रयोग न्यायपूर्ण नहीं है।किशोर
न्याय
कानून,2000(Juvenile Justice Act,2000) के तहत अपराध करने वाला बच्चा
के
लिए
बाल अपराधी के जगह पर ‘कानून के खिलाफ किशोर’(JUVENILE IN CONFLICTWITH LAW) शब्द का प्रयोग किया गया है,इसलिए इस शब्द का ही प्रयोग होना
चाहिए।सवाल
ये है कि किशोरों को फांसी मिलना चाहिए या नहीं,किशोरों की
उम्र-सीमा
घटाया जाना चाहिए या नहीं।भारत संयुक्त राष्ट्र द्वारा बाल
अधिकार
पर जारी किया गया परिपाटी(CONVENTION
ON THE RIGHTS OF CHILD) का
हस्ताक्षरी
है जिसके तहत 18 वर्ष तक के किशोर को
फांसी नहीं दिया जा सकता
है।यदि
भारत कानून में संशोधन कर ऐसा करता है तो वो संयुक्त राष्ट्र के
नियम
के विरुध्द होगा।ईरान जैसा कट्टरपंथी देश जो अनेकों किशोर को फांसी
दे
चुका है,10 फरवरी 2012 को संसद में संशोधन प्रस्ताव पारित कर किशोरों
को
मिलने वाली फांसी पर रोक लगा दी।इरान अपने शरिया कानून, जो परंपरागत
सोच
पर आधारित है, में अमूलचूल परिवर्तन
कर ऐसा किया।
किशोर न्याय
कानून के कुछ प्रावधानों में संशोधन करने की निहायत जरुरत
है।लेकिन
हम,भारत के लोग,जिसका कानून आधुनिक है,फांसी के बारे में
सोचते
हैं,जो बर्बर सोच और अकर्मण्यता के सिवाय कुछ नहीं है।इरान अपने
कट्टरपंथी
सोच के कारण फांसी देता था,हम अपने बर्बरता और
अकर्मण्यता के
कारण
फांसी देना चाहते हैं।हम कानूनी और सामाजिक दोनो रुप से अकर्मण्य
हैं।हमारी
कानूनी अकर्मण्यता ये हैं कि हम पुलिस और न्यायाधीशोँ की
संख्या
को जनसंख्या के मुताबिक करना उचित नहीं समझते,हम विभिन्न मामलों
की
सुनवाई के लिए मामला-विशेष के आधार पर सुनवाई की समय-सीमा निर्धारित
नहीं
कर सकते,हम न्यायपालिका के लिए सिटीजन
चार्टर लागू नहीं कर सकते।हम
सामाजिक
रुप से अकर्मण्य हैं क्योंकि हम अपने स्वार्थ से परे सामाजिक
उत्थान
के लिए कोई कार्य नहीं कर सकते,हम अपने पूर्वाग्रह
को पकड़े रहना
चाहते
हैं और सामाजिक दवाब बनाए रखने का हमारे पास कोई स्वतंत्र और
रचनात्मक
उपाय नहीं है जिसके प्रभाव से लोग अपराध ना करे।सिर्फ कानून के
खिलाफ
जाने वाले किशोर ही नहीं,बल्कि कानून के खिलाफ
जाने वाले सारे लोग
के
लिए जिम्मेवार हमारी कानूनी और सामाजिक अकर्मण्यता है।किशोर के खिलाफ
कठोर
कानून बनाना भी ढाक के तीन पात के समान सिध्द होगा क्योंकि बदलाव
कठोर
कानून से नहीं,सामाजिक और कानूनी
सक्रियता से होती है।
हम किशोर के
खिलाफ कड़े कानून बनाने की बात करते हैं लेकिन हमारी ध्यान
कभी
इस ओर नहीं जाती कि सरकार ने किशोर के हित में मजबूत कानून नहीं
बनाकर
किशोर को गलत करने के लिए आमंत्रित किया है।अनुच्छेद 39(f) के तहत
बच्चों
और युवाओं को नैतिक पतन से बचाने और उन्हें विकास करने के लिए
स्वस्थ
माहौल प्रदान करने का प्रावधान किया गया है,जो राज्य के नीति
निदेशक
तत्त्व में आता है।मतलब सरकार ऐसा करने के लिए बाध्य नहीं है।यदि
अनुच्छेद
39(f) के प्रावधानों को मौलिक
अधिकार में शामिल किया जाता तो
सरकार
ऐसा करने के लिए बाध्य होती और इसका सीधा फायदा अपराध को रोकने के
रुप
में दिखता।इसलिए बच्चों और युवाओं को नैतिक पतन से बचाना और उन्हें
विकास
के लिए स्वस्थ माहौल प्रदान करना मौलिक अधिकार में शामिल होना
चाहिए
ना कि राज्य के नीति निदेशक तत्त्व में।
42 वीं
संवैधानिक संशोधन 1976 के बाद अनुच्छेद 39(f) को शामिल किया गया
लेकिन
इस प्रावधान को मौलिक अधिकार में रखा जाना चाहिए था,ऐसा निर्णय
हमारे
नीति-निर्माता नहीं ले सके।
भले ही आपको
लगता हो कि बाल मजदूरी शोषण के विरुध्द मौलिक अधिकार का हनन
है
लेकिन अनुच्छेद 24 के तहत सिर्फ ऐसे ही
बाल मजदूरी को शोषण के विरुध्द
मौलिक
अधिकार का हनन माना गया है जहाँ फैक्ट्री व खदान में खतरनाक काम
करवाया
जाता है।इन जगहों पर करवाया जाना वाला सामान्य काम,घर,होटल और
दुकान
में करवाया जाने वाला बाल मजदूरी अनुच्छेद 24 का हनन नहीं है।बाल
मजदूरी
निवारण अधिनियम,1986 के तहत भी सिर्फ
खतरनाक काम वाली बाल मजदूरी
पर
पाबंदी लगाया गया था।अक्टूबर 2006 में इस अधिनियम में
संशोधन कर
घर,दुकान और होटल में होने वाली बाल मजदूरी पर पाबंदी लगा दी गई
लेकिन
फैक्ट्री,खदान में बाल मजदूरों द्वारा किए जाने वाले सामान्य किस्म के
काम
पर रोक नहीं लगाया गया।बच्चों को अपराधी बनाने से रोकने के लिए सबसे
पहले
इस बात की जरुरत है कि बच्चों को बाल मजदूर बनने से रोका जाए और
इसके
लिए हरेक किस्म के बाल मजदूरी को अनुच्छेद 24 और बाल मजदूरी निवारण
अधिनियम,1986 में शामिल किया जाए।जब हमारे पास बच्चों को मजदूरी करने से
रोकने
का कोई उपाय नहीं है तो फिर हमें उन्हें अपराधी बनते देखने में भी
शर्म
नहीं होना चाहिए।
किशोर न्याय
कानून,2000 में हल्की संशोधन की
आवश्यकता है।किशोर की
उम्र-सीमा
र्निविवाद रुप से 18 वर्ष ही होना चाहिए
लेकिन किशोर द्वारा
किए
जाने वाले यौन अपराध में इस उम्र-सीमा को घटाकर 13 वर्ष कर देना
चाहिए
क्योंकि 13 वर्ष का होते ही
किशोर यौन अपराध करने के लिए शारीरिक
रुप
से परिपक्व हो जाते हैं और वे अपराध की प्रवृति को अपने शारीरिक
परिपक्वता
के कारण समझने में कामयाब रहते हैं और वे यौन अपराध करने के
लिए
इरादतन होते हैं।बाद बाकी अपराधों में किशोर की उम्र-सीमा 18 वर्ष ही
रहने
देना चाहिए क्योंकि बाद बाकी अपराधों में किशोरों का इरादा कम और
अपरिपक्वता
ज्यादा होती है।वास्तव में सेक्स के प्रति लालसा के सिवाय
अन्य
बुरे चीजों के लिए लालसा उनमें कम होती है क्योंकि सेक्स के लिए वे
शारीरिक
रुप से परिपक्व हो चुके होते हैं लेकिन मानसिक रुप से परिपक्व
नहीं
होते है और सेक्स के सिवाय दूसरे अपराध के लिए मानसिक परिपक्वता
चाहिए
जो उनमें नहीं होती।इसलिए सेक्स छोड़कर अन्य अपराध के लिए किशोर की
उम्र-सीमा
18 वर्ष ही होना चाहिए।
……………………………..
कानून
की विडंबना देखिए।धारा 388 के तहत यदि कोई किसी
को धारा 377 यानि
अप्राकृतिक
अपराध में झूठा फंसाने की धमकी देकर रंगदारी करता है या धारा
389 के
तहत रंगदारी करने के लिए धारा 377 यानि अप्राकृतिक
अपराध में
फंसाने
की धमकी देता है तो उसे उम्रकैद तक की सजा हो सकती है।लेकिन यदि
कोई
किसी को धारा 377 में झूठा फंसा देता
है तो इसके लिए कोई विशेष सजा
नहीं
है।महज फंसाने की धमकी के लिए उम्रकैद लेकिन सही में फंसाने के लिए
कोई
विशेष सजा नहीं।धारा 377 में फंसाने की धमकी
और रंगदारी के तथ्य को
एक
विस्तृत दृष्टिकोण से देखा जाए तो क्या सजा मिलना चाहिए।मान
लीजिए,रंगदारी भी किया और धारा 377 में फंसाने की धमकी देने के बजाय सीधे
377 में
फंसा ही दिया तो क्या सजा मिलना चाहिए।धारा 383 के अनुसार
रंगदारी
की परिभाषा को देखा जाए तो किसी को उसको नुकसान पहुँचाने की संशय
दिखाकर
कुछ जबरदस्ती लिखवा लेना भी रंगदारी है।प्रिंसिपल ने नुकसान का भय
दिखाकरTC के लिए जबरन आवेदन लिखवाकर और मेरे खिलाफ कुछ लोगों से जबरन
शिकायत
लिखवाकर रंगदारी भी किया और मुझे धारा 377
में
फंसा भी दिया।अतः
धारा
388 और 389 के आलोक में प्रिंसिपल को फाँसी मिलना चाहिए।
2
अपराध
मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
अपराध या दंडाभियोग (crime) की परिभाषा भिन्न-भिन्न रूपों में की गई है; यथा,
- दंडाभियोग
समाजविरोधी क्रिया है;
- समाज
द्वारा निर्धारित आचरण का उल्लंघन या उसकी अवहेलना दंडाभियोग है;
- यह
ऐसी क्रिया या क्रिया में त्रुटि है, जिसके लिये दोषी
व्यक्ति को कानून द्वारा निर्धारित दंड दिया जाता है।
इन परिभाषाओं के अनुसार किसी
नगरपालिका के बनाए नियमों का उल्लंघन कर यदि कोई रात में बिना बत्ती जलाए साइकिल
पर नगर की सड़क पर चले अथवा बिना पर्याप्त कारण के ट्रेन की जंजीर खींचकर गाड़ी
खड़ी कर दे, तो वह भी उसी प्रकार
दोषी माना जाएगा, जिस तरह कोई
किसी की हत्या करने पर। किंतु साधारण अर्थ में लोग दंडाभियोग को हत्या, डकैती आदि जधन्य अपराधों के पर्याय के रूप में
ही लेते हैं। लौकिक मत के अनुसार कोई चालक यदि तेजी एवं असावधानी से मोटर चलाते
हुए किसी को अपनी गाड़ी से कुचल दे तो वह अपराधी नहीं कहा जा सकता, यदि उसके मन में अपराध करने की भावना न रही
हो।
अनुक्रम
दण्डाभियोग के लिए आवश्यक शर्तें
परंपरागत मान्यताओं के अनुसार
दंडाभियोग की पूर्णता के लिये दो चीजें अवश्य हैं -
यदि कोई चोरी करने के अभिप्राय से
किसी के घर की खिड़की से घर के अंदर की चीजों को देखे तथा रात्रि में सेंध लगाकर चोरी करने
की योजना बनाकर ही लौट जाय तो उसपर चोरी के अपराध का अभियोग नहीं लगाया जा सकता, क्योंकि अपराधी मन की योजना का कार्यान्वयन नहीं हुआ,
भले ही दूसरे के घर में अनधिकार प्रवेश करने के
लिये वह दोषी क्यों न हो। चोरी के अपराध की पूर्णता के लिये दूसरे की चीजों को कम से कम स्पर्श
करना आवश्यक है। अत: वह व्यक्ति यदि अपनी योजना के अनुसार रात्रि में सेंध
लगाकर उस घर की चीजें उठा ले जाय तभी वह चोरी के लिये अपराधी होगा। किंतु
आधुनिक सभ्यता के विकास के साथ साथ समाज में जटिलता आने के कारण नित्य नए नए
कानून बन रहे हैं, जिनसे
दंडाभियोग का दोषपूर्ण मन (mens rea) का सिद्धांत लुप्त होता जा रहा है।
साधारणत: जो स्वयं अपराध करे या
दूसरों के द्वारा अपराध करावे, वही दंडित होगा। अत: स्वामी
अपने सेवक के अनधिकार अपराध के लिये दायी नहीं हो सकता। किंतु एक सीमित वर्ग के मामलों में,
जहाँ अपराध करने की मानसिक प्रवृत्ति (Mens
rea) आवश्यक नहीं है, यदि कोई सेवक अपने साधारण कार्य के दौरान में कोई अपराध
करे या कानून द्वारा निर्धारित किसी काम को न करने से अपराधी बने, तो उनका स्वामी अपराध के लिये उसके साथ साथ दोषी होगा;
भले ही स्वामी को सेवक के काम की या निर्धारित काम
में त्रुटि की खबर न रही हो, या सेवक ने स्वामी के आदेश
के विरुद्ध की काम क्यों न किया हो अथवा निर्धारित काम करने से विरत हुआ हो।
कारण
दंडाभियोग के भिन्न-भिन्न कारण हो
सकते हैं; यथा, क्षणिक आवेग, भावुकता, पूर्वविचार, भावी विनाश
से रक्षा, आदि। दृष्टांत के लिये
राजनीतिक हत्याओं को ले सकते हैं। किसी राजनीतिक लक्ष्य की पूर्ति के निमित्त कुछ लोग षड्यंत्र कर राज्य के
प्रमुख की हत्या कर डालते हैं। ऐसा पूर्व विचार से ही होता है, क्षणिक आवेग से नहीं। प्रत्यक्ष हत्यारा भावुकता से,
पैसे के लोभ से या अपने दल के लक्ष्य की पूर्ति के कारण
अपराध करता है। उसके गिरफ्तार होने पर इस आशंका से कि कहीं वह रहस्य का उद्घाटन कर
अपने साथियों
का विनाश न
करवा दे, षडयंत्रकारी उसका वध कर
देते हैं। इसी प्रकार डकैती करते हुए जब एक डाकू घायल होकर गिर पड़ता है तो उसके साथी उसे
ढोकर ले जाने में अक्षम होने के कारण उसका सिर काट ले जाते हैं, ताकि उसके मृत शरीर के द्वारा उसकी पहचान न हो सके या जीवित रहने पर
क्षमा पाने के आश्वासन से वह अपने दल का रहस्य न खोल दे।
अपराध और वातावरण
जन्म या आनुवंशिकता (heredity)
का दंडाभियोग से क्या संबंध है, निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता; किंतु हम वातावरण के प्रभाव अस्वीकार नहीं कर सकते। यह साधारण अनुभव
है कि कलुषित वातावरण अपराध करने की भावना को प्रोत्साहन देता है। चोरों की संगति में यदि
किसी शिशु को रख दिया जाय तो क्रमश: उसकी मनोवृत्ति चोरी की ओर अग्रसर अवश्य होगी।
इस प्रकार यदि कम अवस्था के शौकिया अपराधी को साधारण कैदियों के साथ जेल में रखा जाय तो इस स्थिति का प्रभाव उसे
संभवत: कारावास से मुक्त होने पर अपराध करने को प्रेरित करे। अत: प्रगतिशील समाज में शौकिया
अपराधियों को दंडाभियोग से विरत करने के अभिप्राय से अपराध को प्रोत्साहन
देनेवाले वातावरण से पृथक् रखने की योजना की गई है। इंग्लैंड में प्रथम विश्वयुद्ध
के पूर्व ही वोर्स्टल नामक संस्था खुली।
शौकिया तथा कम अवस्था के अपराधियों का सुधार करना इनका उद्देश्य था। क्रमश:
अन्यान्य प्रगतिशील देशों में यह संस्था खुली। प्रोबेशन
ऐक्ट भी लागू हुआ। शिशु एवं
युवक अपराधियों को अपराध के लिये दंडित होने पर उन्हें जेल में न रखकर उनके अभिभावकों द्वारा
नेकचलनी का आश्वान मिलने पर उन्हें परिवीक्षा (probation) पर छोड़ दिया जाता है। यदि हत्या आदि गुरुतम अपराधों के लिये वे
दंडित हुए हैं, तो उन्हें
बोरस्टल संस्था के हवाले किया जाता है। इस संस्था में स्वस्थ वातावरण रहता है,
जिससे अपराधियों के सुधार में सहायता मिलती है।
उन्हें उपयोगी व्यवसाय की भी शिक्षा दी जाती है, ताकि दंड की निर्धारित अवधि पूरी कर घर लौटने पर वे
सच्चाई से अपनी जीविका चला सकें।
अपराधियों की श्रेणी
कोई व्यक्ति या तो स्वयं अथवा
निमित्त रूप में अपराधी हो सकता है या घटना से पूर्व अथवा पश्चात् सहायक हो सकता है। कोई या
तो स्वयं अपराध करता है या अन्य किसी एजेंट से कराता है, जो कानूनन अपराध के लिये उत्तरदायी नहीं होता, यथा सात साल से कम अवस्था का शिशु, कोई पशु या कोई मशीन। ऐसा व्यक्ति प्रधान अपराधी
कहलाता है। द्वितीय श्रेणी का प्रधान वह है जो घटनास्थल पर उपस्थित रहकर प्रधान को अपराध
कर्म में सहायता देता है या उसे प्रोत्साहित करता है। घटना से पूर्व का सहायक वह है जो
प्रधान को अपराध करने को प्रोत्साहित करता है किंतु अपराध के समय उपस्थित नहीं रहता। घटना से पश्चात् का सहायक वह
है जो यह जानते हुए कि किसी ने गुरुतर अपराध किया है, उसे शरण देता है या उसे भागने में सहायता पहुँचाता है। इस प्रसंग में स्मरणीय है कि राजद्रोह
में जितने लोग संमिलित होते हैं, सबके
सब प्रधान अपराधी
होते हैं। दंड की गुरुत्ता एवं लघुता की दृष्टि से उक्त श्रेणीकरण उपयोगी है।
दंडाभियोग का वर्गीकरण
दंडाभियोग के अपराध साधारणत:
निम्नलिखित वर्गों में विभक्त होते हैं-
(1) राष्ट्र की आंतरिक एवं बाह्य
सुरक्षा के विरुद्ध,
(2) न्याय के आलय में लाए जाने एवं जनता
के अधिकारियों के विरुद्ध,
(3) साधारण जनता के विरुद्ध,
(4) सांपत्तिक अपहरण।
दंडाभियोग की प्रतिरक्षा
कानून का अज्ञान दंडाभियोग के बचाव
में स्वीकार नहीं किया जाता। वह विदेशी, जिसे अन्य देश के कानून की जानकारी नहीं है, इस बचाव को पेश नहीं कर सकता, यद्यपि दंडादेश की कठोरता में प्राय: इससे कमी की जा
सकती है।
जिन मामलों में दोषपूर्ण मन आवश्यक
है, वहाँ दुर्घटना बचाव में ली
जा सकती
है। अभियुक्त अपने प्रति लाए हुए अभियोग को स्वीकार करते हुए कह सकता है कि वह कानूनी ढंग से
काम कर रहा था, पर अन्यमनस्कता
के कारण, सबोध (culpable)
उपेक्षा के बिना, दुर्घटना हो गई।
यदि किसी व्यक्ति या उसकी संपत्ति का
अनधिकार स्पर्श हो तो मामला चलानेवाले की स्वीकृति पूर्ण बचाव है। किंतु यह
स्वीकृति कपट, धमकी या हिंसा से प्राप्त हुई
हो तो इसकी मान्यता नहीं होगी।
यदि दो व्यक्ति अपनी आत्महत्या की
योजना बनाएँ एवं उस योजना के अनुसार एक आत्मघात कर ले, कर दूसरा बच जाय तो दूसरा पहले की हत्या के लिये अभियुक्त होगा।
यह किसी की क्षमता के बाहर है कि वह
स्वीकृति दे कि वह दंडाभियोग नहीं लाएगा।
दंडाभियोग की अवधि
कानून द्वारा निर्दिष्ट कुछ अपवादों
को छोड़कर दंडाभियोग की कोई अवधि भारत या इंग्लैंड में नहीं है। अभियुक्त सदा अपने
अपराध के लिये उत्तरदायी है, अपराध
की तिथि से भले ही कितना भी समय क्यों न व्यतीत हो जाय। यूरोप के देशों में अपराध की
तिथि से 20 साल के बाद कोई
अभियोग नहीं लाया जा सकता।
अपराध विज्ञान
अपराध विज्ञान
का दंडदायित्व से इतना ही संबंध है कि
यह अपराधी को समझने की चेष्टा करता है। उसे पहचानना इसकी परिधि से बाहर है। इसका सिद्धांत
इस तथ्य पर आधारित है कि कोई परिस्थिति से पराभूत होकर ही अपराध की ओर अग्रसर होता है। यथा,
अर्थ या नैतिक संकट किसी को दूसरे की
संपत्ति का अपहरण करने को प्रोत्साहित कर सकता है। विक्षिप्तता या मानसिक असंतुलन भी अपराध
को प्रश्रय देते हैं। अत: वैज्ञानिक उपचारों के प्रयोग से तथा परिस्थिति को
अनुकूल कर अपराधी को अपराध से विरत करना चाहिए। अन्य शब्दों में यह विज्ञान "दंड" के
स्थान में "सुधार" का
समर्थन करता है। अमरीका
में इस सिद्धांत की मान्यता बढ़ रही है। भारत या इंग्लैंड में इसका बहुत कम प्रभाव जनता या न्यायालय पर पड़ा है।
इन्हें भी देखें
बाहरी कड़ियाँ