प्रेमनगर में प्रेम की तलाश
अनामी
शरण बबल
दिल्ली में गिर्यसन बॉब रोड कहां पर है? इसका जवाब शायद ही कोई दिल्लीवासी दे पाए, मगर जीबीरोड कहां पर है? इसका जबाव एक बच्चे से लेकर लगभग हर दिल्लीवासी के पास है। नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास में ही है जीबीरोड। यह एक जिस्म की मंडी है। जहां पर सरकार और पुलिस के तमाम दावों के बावजूद पिछले कई सदियों से जिस्म का बाजार गरम होकर मजे से फल फूल रहा है। मगर क्या आपको पता है कि दिल्ली के एक गांव में भी जिस्म का धंधा होता है। वेश्याओं के इस गांव या बस्ती के बारे में क्या आपको कोई जानकरी है? बाहरी दिल्ली के गांव रेवला खानपुर के पास प्रेमनगर एक ऐसा ही गांव या कस्बा है, जहां पर रोजाना शाम( वैसे यह मेला हर समय गुलजार रहता है) ढलते ही यह बस्ती रंगीन हो जाती है। हालांकि पुलिस प्रशासन और कथित नेताओं द्वारा इसे उजाड़ने की यदा-कदा कोशिश भी होती रहती है, इसके बावजूद बदनाम प्रेमनगर की रंगीनी में कोई फर्क नहीं पड़ा है। अलबत्ता, महंगाई और आधुनिकता की मार से प्रेमनगर में क्षणिक प्यार का धंधा उदास जरूर होता जा रहा है।
आज
से करीब 20 साल पहले 1996 में अपने दोस्त और बाहरी दिल्ली के सबसे मजबूत संपर्क
सूत्रों में एक थान सिंह यादव के साथ इस प्रेमगनर बस्ती के भीतर जाने का मौका
मिला। ढांसा रोड की तरफ से एक चाय की दुकान के बगल से होकर हमलोग बस्ती के भीतर
दाखिल हुए। चाय की दुकान से ही एक बंदा हमारे साथ हो लिया। कुछ ही देर में हम उसके
घर पर थे। उसने स्वीकार किया कि धंधा के नाम पर बस्ती में दो फाड़ हो चुका है। एक
वर्ग इस पुश्तैनी धंधे को बरकरार रखना चाहता है, तो दूसरा वर्ग अब इस धंधे से बाहर निकलना चाहता है।
हमलोग किसके घर में बैठे थे, इसका
नाम तो अब मुझे याद नहीं है, मगर
(कहने और समझने के लिए उसका नाम राजू रख लेते हैं) राजू ने बताया प्रेमनगर में पिछले 300 साल से भी ज्यादा
समय से हमारे पूर्वज रह रहे है। अपनी बहूओं से धंधा कराने के साथ ही कुंवारी
बेटियों से भी धंधा कराने में इन्हें कोई संकोच नहीं होता। आमतौर पर दिन में
ज्यादातर मर्द खेती, मजदूरी
या कोई भी काम से घर से बाहर निकल जाते है।, तब यहां की औरते( लड़कियां भी) ग्राहक के आने पर निपट लेती
है। इस मामले में पूरा लोकतंत्र है, कि एक मर्द(ग्राहक) द्वारा पसंद की गई वेश्या के अलावा और
सारी धंधेवाली वहां से बिना कोई चूं-चपड़ किए फौरन चली जाती है। ग्राहक को लेकर घर
में घुसते ही घर के और लोग दूसरे कमरे में या बाहर निकल जाते है। यानी घर में उसके
परिजनों की मौजूदगी में ही धंधा होने के बावजूद ग्राहक को किसी प्रकार का कोई भय
नहीं रहता है।
देखने
में बेहद खूबसूरत करीब 30 साल की ( तीन बच्चों की मां) पानी लेकर आती है। एकदम
सामान्य शिष्टाचार और एक अतिथि की तरह सत्कार कर रही धन्नो( नाम तो याद नहीं,मगर अपनी आसानी के लिए उसे धन्नो नाम
मान लेते है) और उसके पति के अनुरोध पर हमलोग करीब एक घंटे तक वहां रहकर जानकारी
लेते रहे। इस दौरान हमें विवश होकर राजू और धन्नों के यहां चाय भी पीनी पड़ी। राजू
ने बताया कि रेवला खानपुर में कभी प्रेमबाबू नामक कोई ग्राम प्रधान हुआ करते थे, जिन्होंने इन कंजरों पर दया करके
रेवला खानपुर ग्रामसभा की जमीन पर इन्हें आबाद करा दिया। ग्रामसभा की तरफ से पट्टा
दिए जाने की वजह से यह बस्ती पुरी तरह वैधानिक और मान्य है। अपना पक्का मकान बना
लेने वाले राजू से इस धंधे के विरोध के बाबत पूछे जाने पर वह कोई जवाब नहीं दे
पाया। हालांकि उसने माना कि घर का खर्च चलाने में धन्नों की आय का भी एक बड़ा
हिस्सा होता है। घर से बाहर निकलते समय थान सिंह ने धन्नों के छोटे बच्चे को एक सौ
रूपए थमाया। रूपए को वापस करने के लिए धन्नो और राजू अड़ गए। खासकर धन्नो बोली, नहीं साब मुफ्त में तो हम एक पैसै
नहीं लेते। काफी देर तक ना नुकूर करने के बाद अंततः वे लोग किसी तरह नोट रखने को
राजी हुए।यह थी मेरी प्रेमनगर की पहली यात्रा, जहां पर जिस्म के धंधे में शामिल
होने के बाद भी कोई खुलकर कहने या विरोध जताने का साहस नहीं करता है।
खासकर प्रेमनगर शाम को पूरी तरह
रंगीन होकर आबाद हो जाता है। जब ढांसा रोड पर इस
बस्ती के आस पास दर्जनों ट्रकों का रेला लग जाता है। देर रात तक बस्ती
में देह का व्यापार चलता रहता है। करीब दो साल के बाद प्रेमनगर में फिर दोबारा आने
का मौका मिला। 1998 में दिल्ली विधानसभा चुनाव में मतदान के दिन बाहरी दिल्ली का चक्कर काटते हुए
हमारी गाड़ी रेवला खानपुर गांव के आसपास थी। हमारे साथ राष्ट्रीय सहारा के दो और
रिपोर्टर हरीश लखेड़ा (अभी अमर उजाला में) और कांचन आजाद ( अब दिल्ली सरकार मे
पीआरओ ) साथ में थे। एकाएक चुनाव के प्रति वेश्याओं की रूचि को जानने के लिए मैने
गाड़ी को प्रेमनगर की तरफ मुड़ने को कह। हमारे साथ आए दोनों पत्रकार मित्रों के
संकोच के बावजूद धड़धड़ाते हुए मै वहां पर जा पहुंचा, जहां पर
सात आठ वेश्याएं (महिलाएं) बैठी थी। मुझे देखते ही एक उम्रदराज महिला का चेहरा खिल
उठा। मुझे संबोदित करती हुई एक ने कहा बहुत दिनों के बाद इधर कैसे आना हुआ? मैं भी वहां पर
बैठकर सहज होने की कोशिश की। तभी महिला ने टोका ये सब बाबू (दूर कार से उतरकर हरीश
और कांचन मेरा इंतजार कर रहे थे) भी क्या तुम्हारे साथ ही है ? एक दूसरी महिला ने चुटकी ली। आज तो तुम बाबू फौज
के साथ आए हो। बात बदलते हुए मैंने कहा आज चुनाव है ना, इन बाबूओं
को मतदान कहां कहां पर कैसे होता है, यहीं दिखाने निकला
था। अपनी बात को जारी रखते हुए मैने सवाल किया क्या तुमलोग वोट डालकर आ गई ? मैने पास में बैठी
महिला को टोका जो बड़ी मस्ती में बैठी थी।, किसे वोट दी। मेरी
बात सुनकर सारी महिलाएं (और लड़कियां भी) खिलखिला पड़ी। खिलखिलाते हुए किसी और ने
टोका बड़ा चालू हो बाबू एक ही बार में सब जान लोगे या कुछ खर्चा-पानी भी करोगे।
गलती का का नाटक करते हुए फटाक से अपनी जेब से एक सौ रूपए का एक नोट निकालकर मैनें
आगे कर दिया। नोट थामने से पहले उसने कहा बस्सस। मैने फौरन कहा, ये तो
तुमलोग के चाय के लिए है, बाकी बाद में। मैंने उठने की चेष्टा की भी
नहीं कि देखा कि पास में ही बैठी एक बहुत सुंदर सी महिला ने अपने शिशु को किसी और
को थमाकर सामने के कमरे के दरवाजे पर जाकर खड़ी हो गयी। उधर जाने की बजाय मैं वहीं
पर खड़ा हो दोनों हाथ ऊपर करके अपने पूरे बदन को खोलने की कोशिश की। इस पर कई
महिलाएं एक साथ सित्कार सी उठी, हाय यहां पर जान क्यों मार रहे हो बाबू, बदन और खाट अंदर जाकर तोड़ो ना। फिर भी मैं वहीं
पर खड़ा रहा और चुनाव की चर्चा करते हुए यह पूछा कि किसे वोट दी ? मेरे सवाल
और मेरी मौजूदगी को बड़े अनमने तरीके से लेती हुई सबों ने जवाब देने की बजाय अपना
मुंह बिदकाने लगी। तभी मैने देखा कि 18-20
साल के दो लडके न जाने किधर से आए और इतनी सारी झुंड़ में बैठी महिलाओं की परवाह
किए बगैर ही दनदनाते हुए कमरे में घुस गए। दरवाजे पर मेरे इंतजार में खड़ी वेश्या भी कमरे के अंदर चली गई।
दरवाजा अभी बंद नहीं हुआ था, लिहाजा मैं फौरन कमरे की तरफ भागा तो एक साथ
कई महिलाओं ने आपति की और जरा सख्त लहजे में अंदर जाने से रोका। सबों की अनसुनी
करते हुए दूसरे ही पल मैं कमरे में था। जहां पर लड़कों से लेनदेन को लेकर मोलतोल
हो रहा था। एकाएक कमरे में मुझे देखकर उसका लहजा बदल गया। उसने बाहर जाकर किसी और
के लिए बात करने पर जोर देने लगी। फौरन 100 रूपए का एक नोट दिखाते हुए मैनें जिद
की, जब मेरी बात हो गई है, तब दूसरे से मैं
क्यों बात करूं ? इस पर सख्त
लहजे में उसने कहा मैं किसी की रखैल नहीं हूं जो तुम भाव और अधिकार दिखा रहे हो।
फिलहाल तेरी बारी खत्म हो गयी है अब कमरे से बाहर जाओ। कमरे से बाहर निकलते ही
देखा कि पास में ही बैठी तमाम वेश्याओं का चेहरा लाल था। बाबू धंधे का भी कोई
लिहाज होता है। किसी एक ने मेरे उपर कटाक्ष किया क्या तुम्हें वोट डालना है? या किसे वोट डाली
हो यह पूछते ही रहोगे ? इस पर
सारी खिलखिला पड़ी। मैं भी ठिठाई से कहा यहां पर नहीं किसी को तीन चार घंटे के लिए
भेजो गाड़ी में और पैसा बताओ ? इस पर सबों
ने अपनी अंगूली को दांतों से दबाते हुए बोल पड़ी। हाय रे दईया पैसे वाला है। किसी
ने पूरी सख्ती से कहा कोई और मेम को ले जाना। किसी के साथ गाड़ी में, प्रेमनगर
की हम औरतें बाहर नहीं जाती। इस बीच कहीं से चाय बनकर आ गई। गरम सी हो रही ये
वेश्यएं फौरन नरम सी हो गयी और चाय पीने का अनुरोध करने लगी। मैनें नाराजगी दिखाते हुए फिर कभी आने का घिस्सा
पीटा जवाब दोहरा दिया। इस बीच अब तक कमरा का खुला दरवाजा भीतर से बंद हो चुका था।
लौटने के लिए मैं मुड़ा तो दो एक ने चीखकर कटाक्ष की। वर्मा(तत्कलीन मुख्यमंत्री साहब
सिंह वर्मा) हो या सोलंकी( स्थानीय विधायक धर्मदेव सोलंकी) सब भीतर से खल्लास हैं ,बाबू सब
खल्लास।
प्रेमनगर के बारे में मेरी दो तीन
खबरों के छपने के बाद तब पॉयनीयर में (बाद में इंडियन एक्सप्रेस) में काम करने
वाली ऐश्वर्या (अभी कहां पर है, इसका पता नही) ने मुझसे प्रेमनगर पर एक
रिपोर्ट कराने का आग्रह किया। यह बात
लगभग 2000 की थी। हमलोग एक बार फिर प्रेमनगर की उन्ही गलियों की ओर निकल पड़े। साथ
में एक लड़की को लेकर इन गलियों में घूमते देख कर ज्यादातर वेश्याओं को बड़ी
हैरानी हो रही थी। कई तरह की भद्दी और अश्लील टिप्पणियों से वे लोग हमें नवाज भी
रही थी। मैने कुछ उम्रदराज वेश्याओं को बताया कि ये एक एनजीओ से जुड़ी हैं और यहां
पर वे आपलोग की सेहत और रहन सहन पर काम करने आई हैं। ये एक बड़ी अधिकारी है, और ये कई
तरह से आपलोग को फायदा पहुंचाना चाहती है। मेरी बातों का इन पर कोई असर नहीं पड़ा।
उल्टे टिप्पणी की कि ऐसी ऐसी बहुत सारी थूथनियों को मैं देख चूकी हूं। कईयों ने
उपहास किया अपनी हेमामालिनी को लेकर जल्दी यहां से फूटो अपना और मेरा समय बर्बाद
ना करो। मैने बल देकर कहा कि चिंता ना करो हमलोग पूरा पैसा देकर जाएंगे। इतना
सुनते ही कई वेश्याएं आग बबूला सी हो गई। एक ने कहा बाबू यहां पर रोजाना मेला लगता
है, जहां पर तुम जैसे
डेढ़ हजार बाबू आकर अपनी थैली दे जाते है। पैसे का रौब ना गांठों। यहां तो हमारे मूतने से भी पैसे की बारिश होती है, अभी तुम
बच्चे हो बच्चे। हमलोगों की आंखें नागीन सी होती है, एक बार देखने पर
चेहरा कभी नहीं भूलती। तुम तो कई बार यहां के शो रूम देखने यहां आ चुके हो। दम है
तो कमरे में चलकर बाते कर। मैनें फौरन क्षमा मांगते हुए किसी तरह इन वेश्याओं को
शांत करने की गुजारिश में लग गया। एक ने कहा कि हमलोगों को तुम जितना उल्लू समझते
हो, उतना हम होती नहीं है। बड़े बड़े फन्ने तीसमार खांन यहां
मेमना बनकर जाते है। हम ईमानदारी से केवल अपना पैसा लेती है। एक वेश्या ने जोड़ा, हम
रंड़ियों का अपना कानून होता है, मगर तुम एय्याश मर्दो का तो कोई ईमान ही
नहीं होता। एकाएक वेश्याओं के इस बौछार से मैं लगभग निरूतर सा हो गया। महिला
पत्रकार को लेकर फौरन खिसकना ही उचित लगा। एक उम्रदराज वेश्या से बिनती करते हुए
पूछा कि क्या इसे पूरे गांव में घूमा दूं? उसके
द्वारा सहमति मिलने पर हमलोग प्रेमनगर की गलियों को देखना शुरू किया।
अब हमलोगों ने फैसला किया कि किसी से उलझने या सवाल जवाब करने की बजाय केवल माहौल
को देखकर ही हालात का जायजा लेना ज्यादा ठीक रहेगा। हमलोग अभी एक गली में प्रवेश
ही किए थे कि गली के अंतिम छोर पर दो लड़कियां और दो लड़कों के बीच पैसे को लेकर
मोलतोल हो रही थी। 18-19 साल के लड़के 17-18 साल की ही मासूम सी लड़कियों को 20
रूपए देना चाह रहा था, जबकि लड़कियां 30 रूपए की मांग पर अड़ी थी। लगता है जब बात
नहीं बनी होगी तो एक लड़की बौखला सी गई और बोलती है. साले जेब में पैसे रखोगे नहीं
और अपना मुंह लेकर सीधे चले आओगे अपनी अम्मां के पास आम चूसने। चल भाग वरना एक
झापड़ दूंगी तो साले तेरा केला कटकर यहीं पर रह जाएगा। शर्म से पानी पाना से हो गए
दोनों लड़के हमलोगों के मौके पर आने से पहले ही फूट गए। मैं बीच में ही बोल पड़ा, क्या हुआ
इतना गरम क्यों हो। इस पर लगभग पूरी बदतमीजी से एक बोली मंगलाचरण की बेला है, तेरा हंटर
गरम है तो चल वरना तू भी फूट। मैने बड़े प्यार से कहा कि चिंता ना कर तू हमलोग से
बात तो कर तेरे को पैसे मिल जाएंगे। मैनें अपनी जेब से 50 रूपए का एक नोट निकाल कर
आगे कर दिया। नोट को देखकर हुड़की देती
हुई एक ने कहा सिर पर पटाखा बांधकर क्या हमें दिखाने आया है, जा मरा ना
उसी से। मैने झिड़की देते हुए टोका इतनी गरम क्यों हो रही है, हम बात ही
तो कर रहे है। इस पर गंदी सी गाली देती हुई एक ने कहा हम बात करने की नहीं नहाने
की चीज है। कुंए में तैरने की हिम्मत है तो चल बात भी करेंगे और बर्दाश्त भी
करेंगे। दूसरी ने अपने साथी को उलाहना दी, तू भी कहां फंस रही
है साले के पास डंड़ा रहेगा तभी तो गिल्ली से खेलेगा। दोनों जोरदार ठहाका लगाती
हुई जाने लगी। मैं भी बुरा सा मुंह बनाते हुए तल्ख टिप्पणी की, तुमलोग भी
कम बदतमीज नहीं हो। यह सुनते ही वे दोनों फिर हमलोगों के पास लौट आई। वेश्या के घर
में इज्जत की बात करने वाला तू पहला मर्द निकला रे। यहां पर आने वाला मर्द हमारी
नहीं हमलोगों के हाथों अपनी इज्जत उतरवा कर जाता है। मैने बात को मोड़ते हुए कहा
कि ये बहुत बड़ी अधिकारी है और तुमलोग की सेहत और हालात पर बातचीत करके सरकार से
मदद दिलाना चाहती है। इस पर वे लोग एकाएक नाराज हो गई। बिफरते हुए एक ने कहा हमारी
सेहत को क्या हुआ है। तू समझ रहा है कि हमें एड(एड़स) हो गया है। तुम्हें पता ही
नहीं है बाबू हमें कोई क्या चूसेगा , चूस तो हमलोग लेती
है मर्दो को। तपाक से मैनें जोड़ा अभी लगती तो एकदम बच्ची सी हो, मगर बड़ी
खेली खाई सी बाते कर रही है। इस पर रूखे लहजे में एक ने कहा जाओ बाबू जाओ
तेरे बस की ये सब नहीं है तू केवल झुनझुना
है। उनलोगों की बाते सुनकर जब मैं खिलखिला पड़ा, तो एक ने एक्शन के
साथ कहा कि मैं चौड़ा कर दूंगी न तो तू पूरा की पूरा भीतर समा जाएगा। गंदी गंदी
गालियों के साथ वे दोनों पलक झपकते गली पार करके हमलोगों की नजरों से ओझल हो गई।
पूरा मूड उखड़ने के बाद भी भरी दोपहरी में हमलोग दो चार गलियों में और चक्कर काटते
हुए प्रेमनगर से बाहर निकल गए।
प्रेमनगर पर मेरी कई रिपोर्ट की बड़ी
चर्चा हुई। बाहरी दिल्ली के उस इलाके में जाने का तो संयोग लगता रहा, मगर प्रेमनगर
को लेकर अब मेरी उत्कंठा नहीं थी। मगर काफी समय के बाद मेरे सबसे बड़े न्यूज
सूत्रधार के कहने पर मैं एक बार फिर थान
सिंह यादव के साथ मैं प्रेमनगर में था। इस बर की पूरी प्लनिंग थान सिंह ने की थी। करीब
नौ साल के बाद 2009 में यहां आने पर बहुत कुछ बदला बदला सा दिखा। ज्यादातर कच्चे
मकान पक्के हो चुके थे। गलियों की रंगत भी बदल सी गयी थी। कई बार यहा आने के बाद
भी यहां की जलेबी सी घुमावदार गलियां मेरे लिए पहेली सी ही थी। गांव के मुहाने पर
ही एक अधेड़ आदमी से मुलाकात हो गई। हमलोंगों ने यहां आने का मकसद बताते हुए किसी
ऐसी महिला या लोगों से बात कराने का आग्रह किया, जिससे प्रेमनगर की
पीड़ा को ठीक से सामने रखा जा सके। पत्रकार का परिचय देते हुए उसे भरोसे में लिया।
हमने यह भी बता दिया कि इससे पहले भी कई बार यहां आया हूं, मगर अपने
परिचय को जाहिर नहीं किया था। अलबता पहले भी कई बार खबर छापने के बावजूद मैंने
हमेशा प्रेमनगर की पीड़ा को सनसनीखेज बनाने की बजाय इस अभिशाप की नियति को एक कलंक
की तरह ही प्रस्तुत किया था।
यह हमारा संयोग ही था कि बुजुर्ग को
मेरी बातों पर यकीन आ गया, और वह हमें अपने साथ लेकर घर आ गया। घर में
दो अधेड़ औरतों के सिवा दो जवान विवाहिता थी। कई छोटे बच्चों वाले इस घर में उस
समय कोई मर्द नहीं था। घर में सामान्य तौर तरीके से पानी के साथ हमारी अगवानी की
गई। दूसरे कमरे में जाकर मर्द ने पता नहीं क्या कहा होगा। थोड़ी देर में चेहरे पर
मुस्कान लपेटे चारों महिलाएं हमारे सामने आकर बैठ गई। इस बीच थान सिंह ने अपना
कमाल दिखाना शुरू कर दिया था। अपने साथ लाए बिस्कुट, च़ाकलेट और टाफी को
आस पास में खड़ें बच्चों के बीच बॉट दिया।
बच्चों के हाथों में ढेरो चीज देखकर एक ने जाकर गैस खोलते हुए चाय बनाने की घोषणा
की। इस पर थान सिंह ने अपनी थैली से दो लिटर दूध की थैली निकालते हुए इसे ले जाने
क आग्रह किया। इस पर शरमाती हुई चारों औरतों ने एक साथ कहा कि घर में तो दूध है।
बाजी को अपने हाथ में आते देखकर फिर थान सिंह ने एक महिला को अपने पास बुलाया और
थैली से दो किलो चीनी के साथ चाय की 250 ग्राम का एक पैकेट और क्रीम बिस्कुट के
कुछ पैकेट निकाल कर उसे थमाय। पास में खड़ी महिला इन सामानों को लेने से परहेज
करती हुई शरमाती रही। सारी महिलाओं को यह सब एक अचंभा सा लग रहा था। एक ने शिकायती
लहजे में कहा अजी सबकुछ तो आपलोगों ने लाया है तो फिर हमारी चाय क्या हुई। मैने
कहा अरे घर तुम्हारा, किचेन से लेकर पानी, बर्तन, कप प्लेट
से लेकर चाय बनाने और देने वाली तक तुम लोग हो तो चाय तो तुमलोग की ही हुई। अधेड़
महिला ने कहा बाबू तुमने तो हमलोगों को घर सा मान देकर तो एक तरीके से खरीद ही
लिया। दूसरी अधेड़ महिला ने कहा बाबू उम्र पक गई. हमने सैकड़ों लोगों को देखा, मगर तुमलोग
जैसा मान देने वाला कोई दूसरा नहीं देखा। यहां तो जल्दी से आकर फौरन भागने वाले
मर्दो को ही देखते आ रहे है।
इस बीच हमने गौर किया कि बातचीत के
दौरान ही घर में लाने वाले बुजुर्ग पता नहीं कब बगैर बताए ही घर से बाहर निकल गए।
वजह पूछने पर एक अधेड़ ने बताया कि बातचीत में हमलोग को कोई दिक्कत ना हो इसी वजह
से वे बाहर चले गए। हमने बुरा मानने का अभिनय करते हुए कहा कि यह तो गलत है मैंने
तो उन्हें सबकुछ पहले ही बता दिया था। खैर इस बीच चाय भी आ गई।
चारों ने लगभग अपने हथियार डालते हुए
कहा अब जो पूछना है बाबू बात कर सकते हो। बातचीत का रूख बताते ही एक ने कहा बाबू
तुम तो चले जाओगे, मगर हमें परिणाम भुगतना पड़ेगा। एक बार फिर
इमोशनल ब्लैकमेलिंग करते हुए मैने साफ कहा कि यदि तुम्हें हमलोगों पर विश्वास नहीं
है तो मैं भी बात करना नहीं चाहूंगा। यह
कहकर मैंने अपना बोरिया बिस्तर समेटना चालू कर दिया। जवान सी वेश्या तपाक से मेरे
बगल में आकर बैठती हुई बोली अरे तुम तो नाराज ही हो गए। हमने तो केवल अपने मन का
डर जाहिर की थी। शिकायती लहजे में मैंने
भी तीर मारा कि जब मन में डर ही रह जाए तो फिर बात करने का क्या मतलब? इस पर दूसरी ने कहा
बाबू हमलोगों को कोई खरीद नहीं सकता, मगर तुमने तो अपनी
मीठी मीठी बातों से हमलोगों को खरीद ही लिया है। अब मन की सारी बाते बताऊंगी। फिर
करीब एक घंटे तक अपने मन और अपनी जाति की नियति और सामाजिक पीड़ा को जाहिर करती
रही।
बुजुर्ग सी महिला ने बताया कि हमारी
जाति के मर्दो की कोई अहमियत नहीं होती। पहले तो केवल बेटियों से ही शादी से पहले
तक धंधा कराने की परम्परा थी, मगर पिछले 50-60 साल से अब बहूओं से भी धंधा
कराया जाने लगा। हमारे यहां औरतों के जीवन में माहवारी के साथ ही वेश्यावृति का
धंधा चालू होता है, जो करीब 45 साल की उम्र तक यानी माहवारी
खत्म(रजोनिवृति) तक चलता रहता है। इनका कहना है कि माहवारी चालू होते ही कन्या का
धूमधाम से नथ उतारी जाती है। गुस्सा जाहिर करती हुई एक ने कहा कि नथ तो एक रस्म
होता है, मगर अब तो पुलिस वाले ही हमारे यहां की कौमा्र्य्य को भंग
करना अपनी शान मानते है। नाना प्रकार की दिक्कतों को रखते हुए सबों ने कहा कि शाम
ढलते ही जो लोग यहां आने के लिए बेताब रहते हैं, वही लोग दिन में
हमें उजाड़ने या घर से बाहर निकालने के लिए लोगों कों आंदोलित करते है। एक ने कहा
कि सब कुछ गंवाकर भी इस लायक हमलोग नहीं होती कि बुढ़ापा चैन से कट सके। हमारे
यहां के मर्द समाज में जलील होते रहते हैं। बच्चों को इस कदर अपमानित होना पड़ता
है कि वे दूसरे बच्चों के कटाक्ष से बचने के लिए स्कूल तक नहीं जाते। और इ तरह पढ़ाई में भी पीछे ही रह जाते है।
नौकरी के नाम पर निठ्ठला घूमते रहना ही हमारे यहां के मर्दो की दिनचर्या और शान
है। अपनी घरवाली की कमाई पर ही ये आश्रित होते है।
एक ने कहा कि जमाना बदल गया है। इस धंधे ने
रंगरूप बदल लिया है,मगर हमलोग अभी पुराने ढर्रे पर ही चल रहे
है। बस्ती में रहकर ही धंधा होने के चलते बहुत तरह की रूकावटों के साथ साथ समाज की
भी परवाह करनी पड़ती है। एक ने बताया कि हम वेश्या होकर भी घर में रहकर अपने घर
में रहते है। हम कोठा पर बैठने वाली से अलग है। बगैर बैलून (कंडोम) के हम किसी
मर्द को पास तक नहीं फटकने देती। यही कारण है कि बस्ती की तमाम वेश्याएं सभी तरह
से साफ और भली है।
यानी डेढ सौ से अधिक जवान वेश्याओ के
अलावा, करीब एक सौ वेश्याओं की उम्र 40 पार कर गई है। एक अधेड़
वेश्या ने कहा कि लोगों की पसंद 16 से 25 के बीच वाली वेश्याओं की होती है। यह
देखना हमारे लिए सबसे शर्मनाक लगता है कि एक 50 साल का मर्द जो 10-15 साल पहले कभी
हमारे साथ आता था , वही मर्द उम्रदराज होने के बाद भी आंखों के
सामने बेटी या बहू के साथ हमबिस्तर होता है और हमलोग उसे बेबसी के साथ देखती है।
एक ने कहा कि उम्र बढ़ने के साथ ही वेश्या अपने ही घर में धोबी के घर की कुतिया सी
हो जाती है। इस पर जवान वेश्याओं ने ठहाका लगाया, तो मंद मंद
मुस्कुराती हुई अधेड़ वेश्याओं ने कहा कि हंमलोग भी कभी रानी थी, जैसे की
तुमलोग अभी है। इस पर सबों ने फिर ठहाका लगाया। हमलोग भी ठहाका लगाकर उनका साथ
दिया। थोड़ी देर की चुप्पी के बाद फिर मैनें कहा कुछ और बोलो? किसी ने बेबसी
झलकाती हुई बोली और क्या बोलू साहब ? बोलने का इतना कभी मौका कोई कहां देता है ? यहां तो खोलने का
दौर चलता है। दूसरी जवान वेश्या ने कहा खोलने यानी बंद कमरे में कपड़ा खोलने का ? एक ने चुटकी लेते
हुए कहा कि चलना है तो बोलो बाबू। इस पर एक अधेड़ ने समर्थन करती हुई बोली कोई बात
नहीं साब मेहमान बनकर आए थे चाहों तो माल टेस्ट कर सकते हो। एक जवान ने तुरंत
जोड़ा साब इसके लिए कोई पैसा भी नहीं लूंगी? हम दोनों एकाएक खड़े हो गए। थान सिंह ने जेब से दो सौ
रूपए निकाल कर बच्चों को देते हुए कहा कि अब तुमलोग ही नही चाहती हो कि हमलोग बात
करें। इस पर शर्मिंदा होती हुई अधेड़ों ने कहा कि माफ करना बाबू हमारी मंशा
तुमलोगों को आहत करने की नहीं थी। हमलोग प्रेमनगर से बाहर हो गए, मगर इस बार
इन वेश्याओं की पीड़ा काफी समय तक मन को विह्वल करता रहा। इस बस्ती की खबरें
यदा-कदा पास तक आती रहती है। ग्लोवल मंदी मंदी से भले ही भारत समेत पूरा संसार उबर
गया हो, मगर अपना सबकुछ गंवाकर भी प्रेमनगर की वेश्याए अपने देह की मंदी
से कभी ना उबर पाई है और लगता है कि शायद ही कभी अर्थिक तंगी से उबर पाएगी ?
फिर से
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