: ए गमे दिल क्या करूँ
रवि अरोड़ा
असरार उल हक़ यानि मजाज़ लखनवी मेरे पसंदीदा शायरों में से एक हैं । बेबसी से उपजे आक्रोश को उनसे बेहतर शायद ही कोई शायर व्यक्त कर सका होगा । मशहूर फ़िल्मी गीतकार और पटकथा लेखक जावेद अख़्तर के मामा और जानिसार अख़्तर के साले मजाज़ साहब की एक मशहूर नज़्म है- ए गमे दिल क्या करूँ , ए वहशते दिल क्या करूँ । सन 1953 में फ़िल्म ठोकर के लिए इसे तलत महमूद ने गाकर अमर कर दिया । हताशा में आदमी क्या कुछ सोचता है और किस किस का दामन चाक कर देना चाहता है , इस ख़याल को अदबी दुनिया में शायद यह नज़्म ही पहली बार लाती है । यह नज़्म पिछले पाँच दिनो से मेरे भी दिलो दिमाग़ पर तारी है । बेशक मजाज़ साहब की तरह मैं नहीं कह सकता कि मुफ़्लिसी और ये मज़ाहिर हैं नज़र के सामने , सैकड़ों सुल्तान-ए-जाबिर हैं नज़र के सामने ,सैकड़ों चंगेज़ ओ नादिर हैं नज़र के सामने । मगर मन का भाव तो कुछ एसा ही है । अब देखिये न कोरोना के आतंक के चलते अपने अपने घर लौटने को सड़कों पर उतरे ये लाखों लोग क्या आसमान से आ गये ? ये लोग दिल्ली एनसीआर में आख़िर कहीं तो रहते होंगे ? इनका कोई तो मकान मालिक होगा, कोई तो होगा जिसकी नौकरी ये लोग बजाते थे , कोई तो पड़ोस में रहता होगा ? क्या एसा कोई नहीं था जो हाथ पकड़ कर इन्हें रोक लेता और कहता कि कहाँ जाते हो , संकट में हम तुम्हें यूँ अकेला कैसे छोड़ दें ?
सरकारों को गाली देते देते कभी कभी ख़ुद को गरियाने का भी मन करता है । हम किसी सरकार से कम निकम्मे हैं क्या ? सरकारें तो हमेशा भिखमँगा समाज ही चाहती हैं । एसे लोग ही सत्ता तक पहुँचते हैं जो तमाम शक्तियाँ अपनी मुट्ठी में रखने का ख़्वाब देखते हैं । समाज नपुंसक हो यही इनकी सबसे बड़ी ख़्वाहिश होती है । मगर क्या सारा दोष इन्हीं लोगों का है , हमारी क्या कोई भूमिका नहीं ? इन्हें इतनी ताक़त दी किसने ? याद तो कीजिये एक दौर में सरकारों को कोई पूछता तक नहीं था । सत्ता में कौन नेता आया और कौन गया, लोगों को पता भी नहीं होता था । हर गाँव की अपनी एक व्यवस्था थी जिसमें किसी सरकार की कोई भूमिका ही नहीं होती थी । मगर आज क्यों ये लोग हमारे माई बाप हो गये और हर बात पर हम इनका मुँह ताकते हैं ? क्या सब कुछ यही लोग करेंगे , हमारी कोई भूमिका नहीं ? ये जो लाखों लोग सड़कों पर भूखे प्यासे उतरे , ये कौन थे ? अवश्य ही इनमे कोई हमारा ड्राईवर होगा , हमरे घर में चौका-बर्तन करने वाली बाई होगी, हमारी दुकान का छोटू होगा अथवा हमारी फ़ैक्ट्री का कोई कर्मचारी होगा । यक़ीनन हमने उन्हें हाथ पकड़ कर नहीं रोका और उन्होंने हमसे विदा लेने का फ़ैसला लिया ।
इंसान का जीवन ख़ुशहाल बनाने को सारी दुनिया में माथापच्ची हुई । सत्ता किस तरह संचालित हो और किसके हाथ में हो इस पर सदियों तक तजुर्बे हुए और फिर लोगबाग़ इस नतीजे पर पहुँचे कि लोकतंत्र ही सबसे बेहतर तरीक़ा है । शुक्र है कि हमने भी लोकतंत्र का मार्ग चुना मगर क्या यही लोगतंत्र है ? जिसमें लोक की कोई भूमिका ही न हो और पाँच साल में एक बार वोट देने के अतिरिक्त उसका कोई दायित्व ही न हो ? कैसा समाज गढ़ लिया है हमने अपना जिसमें हमारी कोई ज़िम्मेदारी ही नहीं और अपने निजी दुःख सुख के लिए भी हम सरकार की ओर मुँह उठा कर देखते हैं ? बुरा मत मानिये हालात यही रहे तो समाज से कई मजाज़ फिर उठ खड़े होंगे और कहते फिरेंगे- बढ़ के उस इन्दर सभा का साज़ ओ सामाँ फूँक दूँ ,उसका गुलशन फूँक दूँ उस का शबिस्ताँ फूँक दूँ , तख़्त-ए-सुल्ताँ क्या मैं सारा क़स्र-ए-सुल्ताँ फूँक दूँ । ए गमे दिल क्या करूँ , ए वहशते दिल क्या करूँ ।।
*गाजियाबाद शहर की स्थिति:-*
*पुलिस खड़ी है डगर डगर।*
*तुम ना जाना विजय नगर।।*
*मिलेगा बस.. डंडों का फाइन*
*पहुँच ना जाना, पुलिस लाइन ।।*
*लट्ठ सज़ा रखे हैं : हर मोड़ पर।*
*निकलो तो सही..चौधरी मोड़ पर।।*
*मार मार के कर देंगे, तबियत हरी।*
*घूमना मत तुम, कालका गढ़ी ।।*
*तुम्हे उठा के पटक देंगे : धड़ाम।*
*जो ग़लती से पहुचे तुम - नन्दग्राम ।।*
*ना पैदल निकलो. ना मचाना गदर।*
*पड़ेंगे लट्ठ अगर दिखे, रामनगर।।*
*मारमार कर सुजा देंगे हाथ पांव।*
*जो बेवजह पहुंच जाओगे, कोटगाँव ।।*
*इतना पिटोगे कि ना उठ पाओगे कल।*
*बस ग़लती से जाकर देखो संतोष मेडिकल।।*
*लट्ठ भी पड़ते है और जाता है खचेडा *
*ग़लती से पहुँच मत जाना डुण्डाहेडा ।।*
*डर रहा है आदमी काँप रहा थर-थर ।*
*जो भूल के पहुंच गया है,घण्टाघर ।।*
🙏🏻🙏🏻
*इसलिये, मित्रों : घर पर बैठने मे ही शराफ़त है,*
राधास्वामी
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