कविता
------------------------
कविते!तुम कहाँ रहती हो?
तुम कौन हो?
बताओ न!
क्यों मौन हो?
कविश्रेष्ठ!तो अब सुनो!
तुम जहाँ जहाँ जाओगे
वहीं वहीं मुझे पाओगे
मैं सर्वत्र व्याप्त हूँ,
होती नहीं समाप्त हूँ,
जिसकी बेटी हूँ
उसका नाम है अक्षर
फिर कैसे जाती मर?
मैं हीं वर्तमान हूँ,
भूत में थी व्यवस्थित,
भविष्य के गर्भ में भी
हूँ सुरक्षित।
कुछ उदाहरण बताती हूँ,
इन्हें सुनो और जो
अच्छा लगे,उसे चुनो।
जानते हो कविवर!
मैं ही प्रथम कवि की
चाह हूँ और
क्रौंच युगल की
कराह हूँ।
मैं हीं चूल्हे की आँच पर
सिकी हुई रोटी हूँ तो
किसी चूल्हे की बुझी हुई
राख भी ।
मैं हीं कर्ज में डूबे हुए
किसान की आह हूँ,
तो किसी बैंकर की
साख भी ।
मैं ही तो माँ की गुनगुनाती
लोरी हूँ तो कहीं
बोझ से दबे पिता की
मजबूरी।
मैं हीं तो किसी मासूम की
चीत्कार में हूँ तो
अस्मत लूटने वालों के
धिक्कार में।
किसी मजदूर के भूख में हूँ
तो कहीं महाजन के
संदूक में।
मैं ही देश के गद्दार में हूँ तो
कहीं सीमा पर तने
बंदूक में।
मैं हीं तो कहीं पुण्य में हूँ
तो कहीं पाप में।
छलिया इंद्र के जाल में हूँ
तो कहीं किसी गौतम के
शाप में ।
मैं हीं तो कृष्ण की
गीता में हूँ, तो कहीं
तुलसी की
सीता में।
मैं ही भीष्म की
शरशैया में हूँ तो
तो कहीं वंशी धारी
कृष्ण कन्हैया में।
कवि श्रेष्ठ!मैं कहीं प्रकाश में हूँ
तो कहीं अंधकार में।
किसी संस्कार में हूँ तो
किसी मन के विकार में।
तो हे कविवर!तुम
अपना शब्दभेदी बान
जहाँ जहाँ चलाओगे
वहीं वहीं घायलावस्था में
मुझे पाओगे और
करुण क्रंदन के साथ
मुझे ही गुनगुनाओगे।।
दिनेश श्रीवास्तव
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें