गुरुवार, 31 मार्च 2022

रजरप्पा का शक्तिपीठ मां छिन्नमस्तिका मंदिर!!!!

 दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा शक्तिपीठ मां छिन्नमस्तिका रजरप्पा मंदिर !!


झारखंड की राजधानी रांची से लगभग 80 किलोमीटर की दूरी पर मां छिन्नमस्तिके का यह मंदिर है। रजरप्पा के भैरवी-भेड़ा और दामोदर नदी के संगम पर स्थित मां छिन्नमस्तिके मंदिर आस्था की धरोहर है। असम के कामाख्या मंदिर के बाद दुनिया के दूसरे सबसे बड़े शक्तिपीठ के रूप में विख्यात मां छिन्नमस्तिके मंदिर काफी लोकप्रिय है। 

 

रजरप्पा का यह सिद्धपीठ केवल एक मंदिर के लिए ही विख्यात नहीं है। छिन्नमस्तिके मंदिर के अलावा यहां महाकाली मंदिर, सूर्य मंदिर, दस महाविद्या मंदिर, बाबाधाम मंदिर, बजरंग बली मंदिर, शंकर मंदिर और विराट रूप मंदिर के नाम से कुल 7 मंदिर हैं। पश्चिम दिशा से दामोदर तथा दक्षिण दिशा से कल-कल करती भैरवी नदी का दामोदर में मिलना मंदिर की खूबसूरती में चार चांद लगा देता है।


दामोदर और भैरवी के संगम स्थल के समीप ही मां छिन्नमस्तिके का मंदिर स्थित है। मंदिर की उत्तरी दीवार के साथ रखे एक शिलाखंड पर दक्षिण की ओर मुख किए माता छिन्नमस्तिके का दिव्य रूप अंकित है। 

 

मंदिर के निर्माण काल के बारे में पुरातात्विक विशेषज्ञों में मतभेद है। किसी के अनुसार मंदिर का निर्माण 6,000 वर्ष पहले हुआ था तो कोई इसे महाभारत युग का मानता है। यह दुनिया के दूसरे सबसे बड़े शक्तिपीठ के रूप में जाना जाता है। 

 

असम स्थित मां कामाख्या मंदिर को सबसे बड़ा शक्तिपीठ माना जाता है। मंदिर में बड़े पैमाने पर विवाह भी संपन्न कराए जाते हैं।

 

मंदिर में प्रातःकाल 4 बजे माता का दरबार सजना शुरू होता है। भक्तों की भीड़ भी सुबह से पंक्तिबद्ध खड़ी रहती है, खासकर शादी-विवाह, मुंडन-उपनयन के लगन और दशहरे के मौके पर भक्तों की 3-4 किलोमीटर लंबी लाइन लग जाती है। इस भीड़ को संभालने और माता के दर्शन को सुलभ बनाने के लिए कुछ माह पूर्व पर्यटन विभाग द्वारा गाइडों की नियुक्ति की गई है। आवश्यकता पड़ने पर स्थानीय पुलिस भी मदद करती है।

 

मंदिर के आसपास ही फल-फूल, प्रसाद की कई छोटी-छोटी दुकानें हैं। आमतौर पर लोग यहां सुबह आते हैं और दिनभर पूजा-पाठ और मंदिरों के दर्शन करने के बाद शाम होने से पूर्व ही लौट जाते हैं। ठहरने की अच्छी सुविधा यहां अभी उपलब्ध नहीं हो पाई है।

 

मां छिन्नमस्तिके मंदिर के अंदर स्थित शिलाखंड में मां की 3 आंखें हैं। बायां पांव आगे की ओर बढ़ाए हुए वे कमल पुष्प पर खड़ी हैं। पांव के नीचे विपरीत रति मुद्रा में कामदेव और रति शयनावस्था में हैं। मां छिन्नमस्तिके का गला सर्पमाला तथा मुंडमाल से सुशोभित है। बिखरे और खुले केश, जिह्वा बाहर, आभूषणों से सुसज्जित मां नग्नावस्था में दिव्य रूप में हैं। दाएं हाथ में तलवार तथा बाएं हाथ में अपना ही कटा मस्तक है। इनके अगल-बगल डाकिनी और शाकिनी खड़ी हैं जिन्हें वे रक्तपान करा रही हैं और स्वयं भी रक्तपान कर रही हैं। इनके गले से रक्त की 3 धाराएं बह रही हैं।

 

मंदिर का मुख्य द्वार पूरबमुखी है। मंदिर के सामने बलि का स्थान है। बलि स्थान पर प्रतिदिन औसतन 100-200 बकरों की बलि चढ़ाई जाती है। मंदिर की ओर मुंडन कुंड है। इसके दक्षिण में एक सुंदर निकेतन है जिसके पूर्व में भैरवी नदी के तट पर खुले आसमान के नीचे एक बरामदा है। इसके पश्चिम भाग में भंडारगृह है। 

 

रुद्र भैरव मंदिर के नजदीक एक कुंड है। मंदिर की भित्ति 18 फुट नीचे से खड़ी की गई है। नदियों के संगम के मध्य में एक अद्भुत पापनाशिनी कुंड है, जो रोगग्रस्त भक्तों को रोगमुक्त कर उनमें नवजीवन का संचार करता है।

 

यहां मुंडन कुंड, चेताल के समीप ईशान कोण का यज्ञ कुंड, वायु कोण कुंड, अग्निकोण कुंड जैसे कई कुंड हैं। दामोदर के द्वार पर एक सीढ़ी है। इसका निर्माण 22 मई 1972 को संपन्न हुआ था। इसे तांत्रिक घाट कहा जाता है, जो 20 फुट चौड़ा तथा 208 फुट लंबा है। यहां से भक्त दामोदर में स्नान कर मंदिर में जा सकते हैं। 

 

दामोदर और भैरवी नदी का संगम स्थल भी अत्यंत मनोहारी है। भैरवी नदी स्त्री नदी मानी जाती है जबकि दामोदर पुरुष। संगम स्थल पर भैरवी नदी ऊपर से नीचे की ओर दामोदर नदी के ऊपर गिरती है। कहा जाता है कि जहां भैरवी नदी दामोदर में गिरकर मिलती है उस स्थल की गहराई अब तक किसी को पता नहीं है।

 

मां छिन्नमस्तिके की महिमा की कई पुरानी कथाएं प्रचलित हैं। प्राचीनकाल में छोटा नागपुर में रज नामक एक राजा राज करते थे। राजा की पत्नी का नाम रूपमा था। इन्हीं दोनों के नाम से इस स्थान का नाम रजरूपमा पड़ा, जो बाद में रजरप्पा हो गया। 

 

एक कथा के अनुसार एक बार पूर्णिमा की रात में शिकार की खोज में राजा दामोदर और भैरवी नदी के संगम स्थल पर पहुंचे। रात्रि विश्राम के दौरान राजा ने स्वप्न में लाल वस्त्र धारण किए तेज मुख मंडल वाली एक कन्या देखी।

 

उसने राजा से कहा- हे राजन, इस आयु में संतान न होने से तेरा जीवन सूना लग रहा है। मेरी आज्ञा मानोगे तो रानी की गोद भर जाएगी। 

 

राजा की आंखें खुलीं तो वे इधर-उधर भटकने लगे। इस बीच उनकी आंखें स्वप्न में दिखी कन्या से जा मिलीं। वह कन्या जल के भीतर से राजा के सामने प्रकट हुई। उसका रूप अलौकिक था। यह देख राजा भयभीत हो उठे।

 

राजा को देखकर देख वह कन्या कहने लगी- हे राजन, मैं छिन्नमस्तिके देवी हूं। कलियुग के मनुष्य मुझे नहीं जान सके हैं जबकि मैं इस वन में प्राचीनकाल से गुप्त रूप से निवास कर रही हूं। मैं तुम्हें वरदान देती हूं कि आज से ठीक नौवें महीने तुम्हें पुत्र की प्राप्ति होगी। 

 

देवी बोली- हे राजन, मिलन स्थल के समीप तुम्हें मेरा एक मंदिर दिखाई देगा। इस मंदिर के अंदर शिलाखंड पर मेरी प्रतिमा अंकित दिखेगी। तुम सुबह मेरी पूजा कर बलि चढ़ाओ। ऐसा कहकर छिन्नमस्तिके अंतर्ध्यान हो गईं। इसके बाद से ही यह पवित्र तीर्थ रजरप्पा के रूप में विख्यात हो गया।

 

एक अन्य कथा के अनुसार एक बार भगवती भवानी अपनी सहेलियों जया और विजया के साथ मंदाकिनी नदी में स्नान करने गईं। स्नान करने के बाद भूख से उनका शरीर काला पड़ गया। सहेलियों ने भी भोजन मांगा। देवी ने उनसे कुछ प्रतीक्षा करने को कहा। 

 

बाद में सहेलियों के विनम्र आग्रह पर उन्होंने दोनों की भूख मिटाने के लिए अपना सिर काट लिया। कटा सिर देवी के हाथों में आ गिरा व गले से 3 धाराएं निकलीं। वह 2 धाराओं को अपनी सहेलियों की ओर प्रवाहित करने लगीं। तभी से ये छिन्नमस्तिके कही जाने लगीं।

 

रजरप्पा के स्वरूप में अब बहुत परिवर्तन आ चुका है। तीर्थस्थल के अलावा यह पर्यटन स्थल के रूप में भी विकसित हो चुका है। आदिवासियों के लिए यह त्रिवेणी है। मकर संक्रांति के मौके पर लाखों श्रद्धालु आदिवासी और भक्तजन यहां स्नान व चौडाल प्रवाहित करने तथा चरण स्पर्श के लिए आते हैं। अब यह पर्यटन स्थल का मुख्य केंद्र है।

 

कैसे पहुंचें?

 

झारखंड की राजधानी रांची से लगभग 80 किलोमीटर की दूरी पर मां छिन्नमस्तिके मंदिर के निकट ठहरने के लिए उत्तम व्यवस्था है। मंदिर तक जाने के लिए पक्की सड़क है। यह पर्यटन स्थल का मुख्य केंद्र है। सुबह से शाम तक मंदिर पहुंचने के लिए बस, टैक्सियां एवं ट्रैकर उपलब्ध हैं।

मंगलवार, 22 मार्च 2022

कब्ज_का_इलाज_करने_के_घरेलू_उपाय

 


क़ब्ज़ होने का सबसे बड़ा कारण शरीर में पानी की कमी होना है। पानी की कमी होने पर आँतो में मल सूखने लगता है और मल त्याग करने में काफ़ी ज़ोर लगाना पड़ता है। 


 1. रोगी को पानी अधिक मात्रा में पीना चाहिए और खाना खाते समय पानी नही पीना चाहिए। 


 2. फलो में पपीता और अमरूद ज़रूर खाना चाहिए। 


 3. पेट में जमे हुए मल को बाहर निकालने के लिए 1 कप गुनगुने पानी में 1 नींबू निचोड़ कर पिए। 


 4. 1 ग्लास गरम दूध रात को सोने से पहले पिए।  


 5. अगर मल आँतो में चिपक रहा हो तो दूध में 1 से 2 चम्मच अरंडी का तेल मिला कर पिए। 


 6. इसबगोल की भूसी क़ब्ज़ के इलाज में रामबाण का काम करती है। 125 ग्राम दही मे 10 ग्राम इसबगोल की भूसी घोल कर सुबह शाम खाने से आराम मिलता है।

 

 7. एक चौथाई कप गरम पानी में 1 चम्मच मीठा सोडा मिला कर पिए 


 8. दही खाने से शरीर में अच्छे बॅक्टीरिया की मात्रा बढ़ेगी। 


 9. दिन में २ से ३ कप दही का सेवन ज़रूर करे। 


 10. एक ग्लास गरम दूध में आधा चम्मच हल्दी पाउडर और एक चम्मच घी मिला कर घोल ले और रात को सोने से पहले पिए।एक ग्लास दूध में थोड़ी अंजीर उबाल ले और सोने से पहले पीने से क़ब्ज़ दूर होती है।



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सोमवार, 7 मार्च 2022

महुआ

 

कुछ वर्ष पूर्व तक हमारे गाँव में भी महुआ के सेकड़ो बड़े-बड़े पेड़ हुआ करते थे,,,जिन्हें महुड़ी का बाग कहा जाता था ,,पर अधिक कृषिभूमि की लालसा ने सब उजाड़ कर रख दिया....

महुआ ग्रामीणों के लिए किसी कल्प वृक्ष से कम नही....महुआ का पेड़ बहुत ही विशाल होता हैं लगाने से करीब 20-25 वर्ष बाद महुआ फलता है जो लगभग 100 से अधिक वर्षो तक चलता हैं ....।

महुआ को महुया, मऊल,मौल,महुडो संस्कृत में मधुक,गुडपुष्प, मधुपुष्प,मधुस्त्रव,मधुष्ठिल आदि नामों से जाना जाता हैं..।

महुआ भारतवर्ष के सभी भागों में होता है ....इसके फूल, फल, बीज लकड़ी सभी चीजें काम में आती हैइसकी पत्तियां फूलने के पहले 

फागुन चैत में झड़ जाती हैं ......पत्तियों के झड़नेपर इसकी डालियों के सिरों पर कलियों के 

गुच्छे निकलने लगते हैं ....

महुआ बसंत ऋतु का 

अमृत फल है महुए का फूल बीस-पच्चीस दिन तक लगातार टपकता है ...महुए का 

फूल बहुत दिनों तक

रहता है और बिगड़ता नहीं ...महुए के फल को टोड़ी कहा जाता हैं जिसका तेल औषधीय गुणों से भरपूर होता हैं...

महुआ के फूलों का स्वाद पकने पर मीठा होता है,इसके फूल में शहद के समान गंध आती है,रसगुल्ले की तरह रस भरा होता है..... अधिक मात्रा में महुआ के फूलों का सेवन

स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता हैं, इससे सरदर्द भी हो सकता है, महुआ की तासीर ठंडी समझी जाती है पर यूनानी इससे सहमत नही हैं।कहते हैं कि महुआ जनित दोष धनिया के सेवन से दूर होते हैं.....महुआ, वात, पित्त और कफ कोशांत करता है, वीर्य धातु को बढ़ाता है और पुष्टकरता है...पेट के वायु जनित विकारों को दूर कर फोड़ों, घावों एवं थकावट को दूर करता है....।

✍🏻नंदकिशोर प्रजापति कानवन


तपस्‍य हुआ फागुन, वसंत की अवधि


फाल्‍गुन का दिन आप सबके नाम। हम साल के समापन और चैत्र की ओर अग्रसर हैं। फागुन या फाल्‍गुन, वह मास जो वीरवर अर्जुन का भी एक नाम था हमारे लिए एक मास ही है। फाल्‍गुनी नक्षत्र पर इस मास का नाम है।


 यह वसन्‍त की वेला का मास है, ऐसी वेला जिसकी पहचान कोई पंद्रह सौ साल पहले भी आज के रूप में ही की गई थी, खासकर उन शिल्पियों ने जो #दशपुर में रंग-बिरंगी रेशम की साडियां, दुकूल बनाते थे और देश ही नहीं, समंदर पार भी अपनी पहचान बनाए हुए थे। 

उन्‍होंने फागुन की ऋतु को बहुत अच्‍छा माना है, उनके कवि वत्‍सभट्टि ने लिखा है -


फागुन वही है जिसमें महादेव के विषम लोचनानल से भस्‍मीभूत, अतएव पवित्र शरीर वाला होकर कामदेव जैसा अनंग देव अशोक वृक्ष, केवडे, सिंदूवार और लहराती हुई अतिमुक्‍तक लता और मदयन्तिका या मेहंदी के सद्य स्‍फुटित पुंजीभूत फूलों से अपने बाणों को समृद्ध करता है। ये ही वनस्‍पतियां इन दिनों अपना विकास करती है। 

यह वही फागुन है जिसमें मकरंद पान से मस्‍त मधुपों की गूंज से नगनों की शाखा अपनी सानी नहीं रखती और नवीन फूलों के विकास रोध्र पेडों में उत्‍कर्ष और श्री की समृद्धि हो रही है। (कुमारगुप्‍त का 473 ई. का मंदसौर अभिलेख श्‍लोक 40-41)


इस अभिलेख में इस मास का नाम 'तपस्‍य' कहा गया है। यही नाम पुराना है, नारद संहिता (3, 81-83) में मासों के नाम में यह शामिल है। ज्‍योतिष रत्‍नमाला (1038 ई.) में भी ये पर्याय आए हैं। बारह मासों के बारह सूर्यों में इस मास के सूर्य का नाम सूर्य ही कहा गया है, देवी धात्री और देवता गोविन्‍द को बताया गया है। 


यही मास है जो नवीन वर्ष को निमंत्रित करता है, होलिका दहन के साथ इस मास का समापन होगा। बहरहाल गांव गांव होलिकाएं रोंपी जा चुकी हैं, ये एक महीने की अवधि वाली हैं। मगर, ज्ञात रहे होलिका के लिए सेमल के पेडों को काटा जाना ठीक नहीं हैं, सेमल बहुत उपयोगी है।

✍🏻डॉ0 श्रीकृष्ण जुगनु


मघा अघा है। 


सिंह राशि के अन्तर्गत आने वाले सवा दो नक्षत्रों में पहले मघा, फिर पूर्वा फाल्गुनी और फिर उत्तरा फाल्गुनी का प्रारम्भिक चतुर्थांश आते हैं।


तो सिंह का मुख है मघा! 

सिंह की नाक से उसके गर्दन की अयाल तक है मघा। 

अघा है मघा।


सिंह घास नहीं खाता। 

उसे चाहिये मांस!


और जबसे 

जीवहत्या पाप है 

का आदर्शवाक्य चल निकला है तबसे 


सिंह को अपनी उदरपूर्ति हेतु किया जाने वाला प्रत्येक प्रयत्न पाप घोषित है,


अतः सिंह का मुख, उसके दाँत, उसकी जिह्वा, उसका कण्ठ, उसकी मूँछ का बाल, उसके गर्दन की अयाल, 

सब पापी हैं,


और

इस कारण,

अघा है मघा!


अब सिंह

या तो भूखा मरे, या जगत की परिभाषा में जिसे पाप कहा जाता है वैसा पाप करे!


किन्तु वैदिक काल से ही सिंह का यह मुख, यह मघा बड़े ही महत्व का नक्षत्र रहा।

ऋग्वेद दशम मण्डल के पचासीवां सूक्त में तेरहवीं ऋचा है - 


सूर्याया वहतुः प्रागात्सविता यमवासृजत् ।

अघासु हन्यन्ते गावोऽर्जुन्योः पर्युह्यते ॥१३॥

-- सूर्य्य ने अपनी पुत्री सूर्य्य के विवाह में जो कन्याधन दिया, वह आगे चला। उसे ढोने वाली गाड़ियों के बैलों को मघा नक्षत्र में मारना पड़ता है। दोनों फाल्गुनी नक्षत्रों में रथ वेग से आगे बढ़ता है।


यहाँ मैं थोड़ा रुकूँगा।


ऋचा में शब्द आया है अर्जुन्योः!

गावोऽर्जुन्योः 

अर्थात् 

गावो अर्जुन्योः


अब अर्जुन का एक नाम फाल्गुनी भी है क्योंकि उसका जन्म फाल्गुनी नक्षत्र में हुआ था।


और फाल्गुनी नक्षत्र हेतु ऋग्वेद दशम मण्डल के एक सूक्त की एक ऋचा अर्जुन शब्द का प्रयोग करती है। पूर्वा एवं उत्तरा के लिये एक साथ - अर्जुन्योः - प्रथमा विभक्ति द्विवचन।


कुछ समझ में आया?


नहीं आया होगा! 


और मैं समझाने के प्रयास में 

कुत्ते सा जीभ निकालते हाँफ रहा होऊँगा, फिर भी समझ में नहीं आयेगा।


वैदिक काल में वर्ष प्रारम्भ वर्षा से होता था 


यह बड़े बड़े तीसमार खाँ, 

बल्कि साठमार खाँ,


स्थापित करने का प्रयास करते रहे हैं क्योंकि

शब्द वर्ष और वर्षा बर्मीज ट्विन्स से लगते हैं।


किन्तु किसी ने नहीं सोचा कि वैदिक काल में मासों के नाम जिस क्रम में प्रारम्भ होते थे उनमें प्रथम नाम तपः था और तब वह माघ मास का नाम हुआ करता था क्योंकि महीनों के वैदिक नामकरण में इसी क्रम में जब मधु और माधव का नाम आता है तब स्पष्ट हो जाता है कि फाल्गुन मधुमास नहीं। 


फाल्गुन तो तप के बाद तप को तीव्रता देने का मास #तपस्य है, माघ में तप की परिभाषा जानने के पश्चात वास्तविक तपस्या का मास है। 


फाल्गुन

लोकभाषा में फागुन 


बौराने का मास है,  

बौर आने का मास है,

किन्तु इस बौराते परिवेश में स्वयं को 

तपस्या के चरम पर ले जाने का मास है,

और इसी कारण वैदिक मनीषियों ने इस फाल्गुन मास को तपस्य नाम दिया था।


आपको यदि समझने में असुविधा हो रही हो तो प्राचीन वैदिक काल के मासों के नाम का अर्वाचीन मास नामों से सामंजस्य-सन्दर्भ प्रस्तुत करता हूँ।


तपः (माघ), 

तपस्य (फाल्गुन), 

मधु (चैत्र), 

माधव (वैशाख), 

शुक्र (ज्येष्ठ), 

शुचि (आषाढ), 

नभः (श्रावण), 

नभस्य (भाद्र), 

इष (आश्विन), 

उर्ज (कार्तिक), 

सहः (मार्गशीर्ष) 

और 

सहस्य (पाैष)


माघ!

जब पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा मघा नक्षत्र में हो तो उस मास को माघ कहते हैं। और पूर्णिमा को चन्द्रमा जिस नक्षत्र में हो वे नक्षत्र चन्द्रमा के मित्र नक्षत्र हैं।


क्या यह नैसर्गिक है?


नही!


सिद्धान्तों को बनाने, उन पर विमर्श करने अथवा उनके खण्डन या उनके मण्डन का कार्य हम करते हैं - हम मनुष्य! 


सारे सिद्धान्त हमने बनाये हैं। 


यह और बात है कि सिद्धान्त हमने प्रकृति के अन्वीक्षण के आधार पर बानाये हैं। जो होता है, वह हमने जान लिया, लिख दिया, तो वे सिद्धान्त हो गये, किन्तु क्या हम नहीं लिखते तो जो होता है वह नहीं होता? हम नहीं लिखते तो क्या वारिद बरसते नहीं? क्या पुष्प खिलते नहीं? क्या भू-कम्प नहीं होते? उल्कायें नहीं गिरतीं? धरा सूर्य की परिक्रमा बन्द कर देती? सूर्य्य का अहर्निश जलना रुक जाता?


हम नहीं भी लिखते, तब भी यह सब होता! और ऐसी और भी जिन सबका उल्लेख करना सम्भव नहीं, वे घटनायें भी होतीं! होती ही होतीं!!


पछुआ हवायें चलने लगी हैं। और आज की परिस्थितियों में वे बहुत भली भी लग रहीं हैं। 


किन्तु


तपस्य मास की ये पश्चिमी हवायें

मधु तथा माधव मास में उष्ण एवं ऊष्णतर होंगी 


और शुक्र मास में उष्णतम भी!


आज की ठंढी मनभावन भाती सी हवा कल लू बनेगी यह ध्यान में रहे!


फाल्गुन अपनी साइकिल की अगली डंडी पर मौका पा कर अपनी किसी ऐसी प्रिया जिसके साथ "पल दो पल का साथ हमारा, पल दो पल के याराने हैं" वाले कॉन्सेप्ट पर अमल करते हुए बिठा कर कुछ दूर सायकिल चला ले जाने का नाम नहीं, यह अपनी डंडी, अपने डंडे पर नियंत्रण का नाम है।


मघा बन्द हो चुकी! 

मेरे क्रुद्ध लालित्य को अब कोई शरण नहीं। 


किन्तु आज भी


हजारी लोग मुझसे एक उलझी पोस्ट को सुलझाने हेतु सलाह लेते हैं। 


लेकिन,

अपने पोस्ट में मेरे प्रति आभार का एक शब्द लिखना आवश्यक नहीं समझते!

मैं उनका नाम लिख कर उन्हें अपमानित नहीं करना चाहता,

लेकिन जब वे मेरी सदाशयता का लाभ उठा कर प्रच्छन्न रूप से मेरे प्रति विद्वेष-वपन करते हैं और मुझे जब इसका पता चलता है,


तो मुझे कष्ट होता है 


उनकी लाइक्स उनकी हैं,

लेकिन उनकी उन लाइक्स में मेरे टिप्स और ट्रिक्स भी कारक होते हैं

यह किसी को पता नहीं चलता।


ज्योतिष और खगोल का रुद्र तारा क्या है?

और देशज भयवद्दी एवं चाँड़ का मूल क्या है? 


मेरे बताने पर,

मेरी सलाह से 

आपकी पोस्ट्स का बूम 


मेरे किस काम का? 


वह भी तब,


जब आपकी में अटकती है तो आप मुझे निकालने को कहते हैं,


और मौका मिलते ही मेरे में ही एक मोटा सा अँड़साने से बाज नहीं आते?


मघा 

अघा है। 


शीतल और भली लगती पछुआ हवायें आने वाले दिनों में गर्म होंगी,


इतनी गर्म,


कि सहन न की जा सकें!


मेरे जैसे सीधे सादे आदमी को

प्यार-मोहब्बत की बातें करने वाले को,

गीत और गज़ल लिखने वाले को,


और लिख कर छिपा लेने वाले को,


इस फेसबुक ने 


एक नाहंजार बना दिया 

जिसके नाखूनों से, 

दाँतों से, 

होठों से, 

बातों से, 

लफ्जों से, 

सतरों से,

अब 

केवल रक्त टपकता है।


लाल, 

ताजा, 

और गाढ़ा रक्त!


मुझे अगर मुझको वापस पाना है,


तो


मुझे यह शहर छोड़ना ही होगा।

✍🏻त्रिलोचन नाथ तिवारी


अच्छा सुनिये!

    ये जो फागुन के महीने में हम जैसे बूढ़े युवक बौरा कर उल्टा पुल्टा मजाक करने लगते हैं, उसका कारण बस इतना ही है कि आप हमारे जीवन का हिस्सा हैं। वरना सोचिये, कि जो लोग अपरिचित होने पर दूर गाँव की अप्सरा को भी मुँह न लगाते हों, वे ही अपनी ताड़का की मौसीआउत बहन जैसी भौजाई में ऐश्वर्या राय कैसे देख लेते हैं? यह अद्भुत नहीं है क्या?

    जानती हैं फागुन क्यों आता है? फागुन आता है ताकि काम का मारा मानुस खेत में खिले सरसो की तरह महीने भर खिलखिला सके। ताकि मुस्कुरा सके मुंह में मञ्जरी ले कर मुस्कुरा रहे आम के पल्लवों की तरह... नहीं तो जीवन में जीने से अधिक तो मरता रहता है मनुष्य!

     ड्यूटी में बॉस मार रहा है, बाजार में हमारी पहाड़ की तरह खड़ी हो चुकी इच्छाएं मार रही हैं, पैसे कमाने के लोभ में जीवन पर थोपी गयी व्यस्तता हमारे प्रेम को मार रही है, जिस आयु में मन को हवा में उड़ना चाहिए उस आयु में लड़कों को अधिक अंक लाने की विवशता दबा कर मार रही है। इस शमशान हो चुके संसार में कोई व्यक्ति अपने हृदय में आनंद की कोंपल उपजाने के लिए यदि थोड़ी फूहड़ खाद ही डाल ले तो क्या उसे माफ नहीं किया जाना चाहिये? बिल्कुल किया जाना चाहिये, बल्कि बदले में उसके ऊपर थोड़ी खाद और डाल देनी चाहिये। ताकि लहलहा जाय मन... फागुन में देवर के मजाक के बदले भौजाई की गालियों और रङ्ग के बदले गोबर फेंकने की परम्परा का यही एकमात्र कारण है। है न मजेदार?

    कुछ लोगों को लगता है कि फागुन-चइत मनुष्य का बनाया हुआ है। ऐसा बिल्कुल नहीं है जी! फागुन को ईश्वर ने फुर्सत में बैठ कर रचा है। जभी इस महीने में आम किसान को कोई काम नहीं होता। फसल के लिए जो करना होता है वह कर चुके होते हैं लोग, अब बस पकने की प्रतीक्षा होती है। अब इस मुक्त समय में भी आनन्द न मनाया जाय तो कब मनाया जाएगा जी? फिर क्यों न बजे झांझ और क्यों न मचे फगुआ? जभी तो भगवान शिव ने भी अपने विवाह के लिए यही महीना चुना था। अब मनुष्य लोभ में अपना काम ही बदल ले तो क्या कहें...

     कुछ लोग हैं जो बारहों महीने विमर्श ठेलते रहते हैं। हम कहते हैं रुको मरदे! बहुत बोरिंग है यह सब, फागुन को तो बख्स दो। ग्यारह महीने बनते रहो स्त्रीवादी, पुरुषवादी, राष्ट्रवादी, समाजवादी! फागुन में बस मानुस बने रहो... सरकार मेरी सुनती तो कहते, फागुन में सबकुछ करो बस चुनाव न कराओ... इस महीने में दोस्त को प्रतिद्वंदी बनते देखना बहुत दुख देता है यार!

    हां तो महीने भर बौराये रहेंगे हम! कन्हैया का महीना है, सो बिंदास हो कर जीना है। इसमें कुछ बुरा लग जाय तो बुरा मानना नहीं है। समझे न!

✍🏻सर्वेश तिवारी श्रीमुख