सोमवार, 7 मार्च 2022

महुआ

 

कुछ वर्ष पूर्व तक हमारे गाँव में भी महुआ के सेकड़ो बड़े-बड़े पेड़ हुआ करते थे,,,जिन्हें महुड़ी का बाग कहा जाता था ,,पर अधिक कृषिभूमि की लालसा ने सब उजाड़ कर रख दिया....

महुआ ग्रामीणों के लिए किसी कल्प वृक्ष से कम नही....महुआ का पेड़ बहुत ही विशाल होता हैं लगाने से करीब 20-25 वर्ष बाद महुआ फलता है जो लगभग 100 से अधिक वर्षो तक चलता हैं ....।

महुआ को महुया, मऊल,मौल,महुडो संस्कृत में मधुक,गुडपुष्प, मधुपुष्प,मधुस्त्रव,मधुष्ठिल आदि नामों से जाना जाता हैं..।

महुआ भारतवर्ष के सभी भागों में होता है ....इसके फूल, फल, बीज लकड़ी सभी चीजें काम में आती हैइसकी पत्तियां फूलने के पहले 

फागुन चैत में झड़ जाती हैं ......पत्तियों के झड़नेपर इसकी डालियों के सिरों पर कलियों के 

गुच्छे निकलने लगते हैं ....

महुआ बसंत ऋतु का 

अमृत फल है महुए का फूल बीस-पच्चीस दिन तक लगातार टपकता है ...महुए का 

फूल बहुत दिनों तक

रहता है और बिगड़ता नहीं ...महुए के फल को टोड़ी कहा जाता हैं जिसका तेल औषधीय गुणों से भरपूर होता हैं...

महुआ के फूलों का स्वाद पकने पर मीठा होता है,इसके फूल में शहद के समान गंध आती है,रसगुल्ले की तरह रस भरा होता है..... अधिक मात्रा में महुआ के फूलों का सेवन

स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता हैं, इससे सरदर्द भी हो सकता है, महुआ की तासीर ठंडी समझी जाती है पर यूनानी इससे सहमत नही हैं।कहते हैं कि महुआ जनित दोष धनिया के सेवन से दूर होते हैं.....महुआ, वात, पित्त और कफ कोशांत करता है, वीर्य धातु को बढ़ाता है और पुष्टकरता है...पेट के वायु जनित विकारों को दूर कर फोड़ों, घावों एवं थकावट को दूर करता है....।

✍🏻नंदकिशोर प्रजापति कानवन


तपस्‍य हुआ फागुन, वसंत की अवधि


फाल्‍गुन का दिन आप सबके नाम। हम साल के समापन और चैत्र की ओर अग्रसर हैं। फागुन या फाल्‍गुन, वह मास जो वीरवर अर्जुन का भी एक नाम था हमारे लिए एक मास ही है। फाल्‍गुनी नक्षत्र पर इस मास का नाम है।


 यह वसन्‍त की वेला का मास है, ऐसी वेला जिसकी पहचान कोई पंद्रह सौ साल पहले भी आज के रूप में ही की गई थी, खासकर उन शिल्पियों ने जो #दशपुर में रंग-बिरंगी रेशम की साडियां, दुकूल बनाते थे और देश ही नहीं, समंदर पार भी अपनी पहचान बनाए हुए थे। 

उन्‍होंने फागुन की ऋतु को बहुत अच्‍छा माना है, उनके कवि वत्‍सभट्टि ने लिखा है -


फागुन वही है जिसमें महादेव के विषम लोचनानल से भस्‍मीभूत, अतएव पवित्र शरीर वाला होकर कामदेव जैसा अनंग देव अशोक वृक्ष, केवडे, सिंदूवार और लहराती हुई अतिमुक्‍तक लता और मदयन्तिका या मेहंदी के सद्य स्‍फुटित पुंजीभूत फूलों से अपने बाणों को समृद्ध करता है। ये ही वनस्‍पतियां इन दिनों अपना विकास करती है। 

यह वही फागुन है जिसमें मकरंद पान से मस्‍त मधुपों की गूंज से नगनों की शाखा अपनी सानी नहीं रखती और नवीन फूलों के विकास रोध्र पेडों में उत्‍कर्ष और श्री की समृद्धि हो रही है। (कुमारगुप्‍त का 473 ई. का मंदसौर अभिलेख श्‍लोक 40-41)


इस अभिलेख में इस मास का नाम 'तपस्‍य' कहा गया है। यही नाम पुराना है, नारद संहिता (3, 81-83) में मासों के नाम में यह शामिल है। ज्‍योतिष रत्‍नमाला (1038 ई.) में भी ये पर्याय आए हैं। बारह मासों के बारह सूर्यों में इस मास के सूर्य का नाम सूर्य ही कहा गया है, देवी धात्री और देवता गोविन्‍द को बताया गया है। 


यही मास है जो नवीन वर्ष को निमंत्रित करता है, होलिका दहन के साथ इस मास का समापन होगा। बहरहाल गांव गांव होलिकाएं रोंपी जा चुकी हैं, ये एक महीने की अवधि वाली हैं। मगर, ज्ञात रहे होलिका के लिए सेमल के पेडों को काटा जाना ठीक नहीं हैं, सेमल बहुत उपयोगी है।

✍🏻डॉ0 श्रीकृष्ण जुगनु


मघा अघा है। 


सिंह राशि के अन्तर्गत आने वाले सवा दो नक्षत्रों में पहले मघा, फिर पूर्वा फाल्गुनी और फिर उत्तरा फाल्गुनी का प्रारम्भिक चतुर्थांश आते हैं।


तो सिंह का मुख है मघा! 

सिंह की नाक से उसके गर्दन की अयाल तक है मघा। 

अघा है मघा।


सिंह घास नहीं खाता। 

उसे चाहिये मांस!


और जबसे 

जीवहत्या पाप है 

का आदर्शवाक्य चल निकला है तबसे 


सिंह को अपनी उदरपूर्ति हेतु किया जाने वाला प्रत्येक प्रयत्न पाप घोषित है,


अतः सिंह का मुख, उसके दाँत, उसकी जिह्वा, उसका कण्ठ, उसकी मूँछ का बाल, उसके गर्दन की अयाल, 

सब पापी हैं,


और

इस कारण,

अघा है मघा!


अब सिंह

या तो भूखा मरे, या जगत की परिभाषा में जिसे पाप कहा जाता है वैसा पाप करे!


किन्तु वैदिक काल से ही सिंह का यह मुख, यह मघा बड़े ही महत्व का नक्षत्र रहा।

ऋग्वेद दशम मण्डल के पचासीवां सूक्त में तेरहवीं ऋचा है - 


सूर्याया वहतुः प्रागात्सविता यमवासृजत् ।

अघासु हन्यन्ते गावोऽर्जुन्योः पर्युह्यते ॥१३॥

-- सूर्य्य ने अपनी पुत्री सूर्य्य के विवाह में जो कन्याधन दिया, वह आगे चला। उसे ढोने वाली गाड़ियों के बैलों को मघा नक्षत्र में मारना पड़ता है। दोनों फाल्गुनी नक्षत्रों में रथ वेग से आगे बढ़ता है।


यहाँ मैं थोड़ा रुकूँगा।


ऋचा में शब्द आया है अर्जुन्योः!

गावोऽर्जुन्योः 

अर्थात् 

गावो अर्जुन्योः


अब अर्जुन का एक नाम फाल्गुनी भी है क्योंकि उसका जन्म फाल्गुनी नक्षत्र में हुआ था।


और फाल्गुनी नक्षत्र हेतु ऋग्वेद दशम मण्डल के एक सूक्त की एक ऋचा अर्जुन शब्द का प्रयोग करती है। पूर्वा एवं उत्तरा के लिये एक साथ - अर्जुन्योः - प्रथमा विभक्ति द्विवचन।


कुछ समझ में आया?


नहीं आया होगा! 


और मैं समझाने के प्रयास में 

कुत्ते सा जीभ निकालते हाँफ रहा होऊँगा, फिर भी समझ में नहीं आयेगा।


वैदिक काल में वर्ष प्रारम्भ वर्षा से होता था 


यह बड़े बड़े तीसमार खाँ, 

बल्कि साठमार खाँ,


स्थापित करने का प्रयास करते रहे हैं क्योंकि

शब्द वर्ष और वर्षा बर्मीज ट्विन्स से लगते हैं।


किन्तु किसी ने नहीं सोचा कि वैदिक काल में मासों के नाम जिस क्रम में प्रारम्भ होते थे उनमें प्रथम नाम तपः था और तब वह माघ मास का नाम हुआ करता था क्योंकि महीनों के वैदिक नामकरण में इसी क्रम में जब मधु और माधव का नाम आता है तब स्पष्ट हो जाता है कि फाल्गुन मधुमास नहीं। 


फाल्गुन तो तप के बाद तप को तीव्रता देने का मास #तपस्य है, माघ में तप की परिभाषा जानने के पश्चात वास्तविक तपस्या का मास है। 


फाल्गुन

लोकभाषा में फागुन 


बौराने का मास है,  

बौर आने का मास है,

किन्तु इस बौराते परिवेश में स्वयं को 

तपस्या के चरम पर ले जाने का मास है,

और इसी कारण वैदिक मनीषियों ने इस फाल्गुन मास को तपस्य नाम दिया था।


आपको यदि समझने में असुविधा हो रही हो तो प्राचीन वैदिक काल के मासों के नाम का अर्वाचीन मास नामों से सामंजस्य-सन्दर्भ प्रस्तुत करता हूँ।


तपः (माघ), 

तपस्य (फाल्गुन), 

मधु (चैत्र), 

माधव (वैशाख), 

शुक्र (ज्येष्ठ), 

शुचि (आषाढ), 

नभः (श्रावण), 

नभस्य (भाद्र), 

इष (आश्विन), 

उर्ज (कार्तिक), 

सहः (मार्गशीर्ष) 

और 

सहस्य (पाैष)


माघ!

जब पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा मघा नक्षत्र में हो तो उस मास को माघ कहते हैं। और पूर्णिमा को चन्द्रमा जिस नक्षत्र में हो वे नक्षत्र चन्द्रमा के मित्र नक्षत्र हैं।


क्या यह नैसर्गिक है?


नही!


सिद्धान्तों को बनाने, उन पर विमर्श करने अथवा उनके खण्डन या उनके मण्डन का कार्य हम करते हैं - हम मनुष्य! 


सारे सिद्धान्त हमने बनाये हैं। 


यह और बात है कि सिद्धान्त हमने प्रकृति के अन्वीक्षण के आधार पर बानाये हैं। जो होता है, वह हमने जान लिया, लिख दिया, तो वे सिद्धान्त हो गये, किन्तु क्या हम नहीं लिखते तो जो होता है वह नहीं होता? हम नहीं लिखते तो क्या वारिद बरसते नहीं? क्या पुष्प खिलते नहीं? क्या भू-कम्प नहीं होते? उल्कायें नहीं गिरतीं? धरा सूर्य की परिक्रमा बन्द कर देती? सूर्य्य का अहर्निश जलना रुक जाता?


हम नहीं भी लिखते, तब भी यह सब होता! और ऐसी और भी जिन सबका उल्लेख करना सम्भव नहीं, वे घटनायें भी होतीं! होती ही होतीं!!


पछुआ हवायें चलने लगी हैं। और आज की परिस्थितियों में वे बहुत भली भी लग रहीं हैं। 


किन्तु


तपस्य मास की ये पश्चिमी हवायें

मधु तथा माधव मास में उष्ण एवं ऊष्णतर होंगी 


और शुक्र मास में उष्णतम भी!


आज की ठंढी मनभावन भाती सी हवा कल लू बनेगी यह ध्यान में रहे!


फाल्गुन अपनी साइकिल की अगली डंडी पर मौका पा कर अपनी किसी ऐसी प्रिया जिसके साथ "पल दो पल का साथ हमारा, पल दो पल के याराने हैं" वाले कॉन्सेप्ट पर अमल करते हुए बिठा कर कुछ दूर सायकिल चला ले जाने का नाम नहीं, यह अपनी डंडी, अपने डंडे पर नियंत्रण का नाम है।


मघा बन्द हो चुकी! 

मेरे क्रुद्ध लालित्य को अब कोई शरण नहीं। 


किन्तु आज भी


हजारी लोग मुझसे एक उलझी पोस्ट को सुलझाने हेतु सलाह लेते हैं। 


लेकिन,

अपने पोस्ट में मेरे प्रति आभार का एक शब्द लिखना आवश्यक नहीं समझते!

मैं उनका नाम लिख कर उन्हें अपमानित नहीं करना चाहता,

लेकिन जब वे मेरी सदाशयता का लाभ उठा कर प्रच्छन्न रूप से मेरे प्रति विद्वेष-वपन करते हैं और मुझे जब इसका पता चलता है,


तो मुझे कष्ट होता है 


उनकी लाइक्स उनकी हैं,

लेकिन उनकी उन लाइक्स में मेरे टिप्स और ट्रिक्स भी कारक होते हैं

यह किसी को पता नहीं चलता।


ज्योतिष और खगोल का रुद्र तारा क्या है?

और देशज भयवद्दी एवं चाँड़ का मूल क्या है? 


मेरे बताने पर,

मेरी सलाह से 

आपकी पोस्ट्स का बूम 


मेरे किस काम का? 


वह भी तब,


जब आपकी में अटकती है तो आप मुझे निकालने को कहते हैं,


और मौका मिलते ही मेरे में ही एक मोटा सा अँड़साने से बाज नहीं आते?


मघा 

अघा है। 


शीतल और भली लगती पछुआ हवायें आने वाले दिनों में गर्म होंगी,


इतनी गर्म,


कि सहन न की जा सकें!


मेरे जैसे सीधे सादे आदमी को

प्यार-मोहब्बत की बातें करने वाले को,

गीत और गज़ल लिखने वाले को,


और लिख कर छिपा लेने वाले को,


इस फेसबुक ने 


एक नाहंजार बना दिया 

जिसके नाखूनों से, 

दाँतों से, 

होठों से, 

बातों से, 

लफ्जों से, 

सतरों से,

अब 

केवल रक्त टपकता है।


लाल, 

ताजा, 

और गाढ़ा रक्त!


मुझे अगर मुझको वापस पाना है,


तो


मुझे यह शहर छोड़ना ही होगा।

✍🏻त्रिलोचन नाथ तिवारी


अच्छा सुनिये!

    ये जो फागुन के महीने में हम जैसे बूढ़े युवक बौरा कर उल्टा पुल्टा मजाक करने लगते हैं, उसका कारण बस इतना ही है कि आप हमारे जीवन का हिस्सा हैं। वरना सोचिये, कि जो लोग अपरिचित होने पर दूर गाँव की अप्सरा को भी मुँह न लगाते हों, वे ही अपनी ताड़का की मौसीआउत बहन जैसी भौजाई में ऐश्वर्या राय कैसे देख लेते हैं? यह अद्भुत नहीं है क्या?

    जानती हैं फागुन क्यों आता है? फागुन आता है ताकि काम का मारा मानुस खेत में खिले सरसो की तरह महीने भर खिलखिला सके। ताकि मुस्कुरा सके मुंह में मञ्जरी ले कर मुस्कुरा रहे आम के पल्लवों की तरह... नहीं तो जीवन में जीने से अधिक तो मरता रहता है मनुष्य!

     ड्यूटी में बॉस मार रहा है, बाजार में हमारी पहाड़ की तरह खड़ी हो चुकी इच्छाएं मार रही हैं, पैसे कमाने के लोभ में जीवन पर थोपी गयी व्यस्तता हमारे प्रेम को मार रही है, जिस आयु में मन को हवा में उड़ना चाहिए उस आयु में लड़कों को अधिक अंक लाने की विवशता दबा कर मार रही है। इस शमशान हो चुके संसार में कोई व्यक्ति अपने हृदय में आनंद की कोंपल उपजाने के लिए यदि थोड़ी फूहड़ खाद ही डाल ले तो क्या उसे माफ नहीं किया जाना चाहिये? बिल्कुल किया जाना चाहिये, बल्कि बदले में उसके ऊपर थोड़ी खाद और डाल देनी चाहिये। ताकि लहलहा जाय मन... फागुन में देवर के मजाक के बदले भौजाई की गालियों और रङ्ग के बदले गोबर फेंकने की परम्परा का यही एकमात्र कारण है। है न मजेदार?

    कुछ लोगों को लगता है कि फागुन-चइत मनुष्य का बनाया हुआ है। ऐसा बिल्कुल नहीं है जी! फागुन को ईश्वर ने फुर्सत में बैठ कर रचा है। जभी इस महीने में आम किसान को कोई काम नहीं होता। फसल के लिए जो करना होता है वह कर चुके होते हैं लोग, अब बस पकने की प्रतीक्षा होती है। अब इस मुक्त समय में भी आनन्द न मनाया जाय तो कब मनाया जाएगा जी? फिर क्यों न बजे झांझ और क्यों न मचे फगुआ? जभी तो भगवान शिव ने भी अपने विवाह के लिए यही महीना चुना था। अब मनुष्य लोभ में अपना काम ही बदल ले तो क्या कहें...

     कुछ लोग हैं जो बारहों महीने विमर्श ठेलते रहते हैं। हम कहते हैं रुको मरदे! बहुत बोरिंग है यह सब, फागुन को तो बख्स दो। ग्यारह महीने बनते रहो स्त्रीवादी, पुरुषवादी, राष्ट्रवादी, समाजवादी! फागुन में बस मानुस बने रहो... सरकार मेरी सुनती तो कहते, फागुन में सबकुछ करो बस चुनाव न कराओ... इस महीने में दोस्त को प्रतिद्वंदी बनते देखना बहुत दुख देता है यार!

    हां तो महीने भर बौराये रहेंगे हम! कन्हैया का महीना है, सो बिंदास हो कर जीना है। इसमें कुछ बुरा लग जाय तो बुरा मानना नहीं है। समझे न!

✍🏻सर्वेश तिवारी श्रीमुख

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