नलिन चौहान किसी भी भारतीय को यह बात जानकर हैरानी होगी कि आज की नई दिल्ली, किसी परंपरा के अनुसार अथवा स्वतंत्र भारत के राजनीतिक नेताओं की वजह से नहीं बल्कि एक सौ साल (सन् 1911) पहले आयोजित तीसरे दिल्ली दरबार में ब्रिटेन के राजा किंग जार्ज पंचम की घोषणा के कारण देश की राजधानी बनी । इस दिल्ली दरबार की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना ब्रिटिश भारत की राजधानी का कलकत्ता से दिल्ली स्थान्तरण की घोषणा थी । 12 दिसंबर 1911 में ब्रिटेन के राजा की घोषणा से पहले इस ऐतिहासिक तथ्य से अधिक लोग वाकिफ नहीं थे । किंग जार्ज पंचम के राज्यारोहण का उत्सव मनाने और उन्हें भारत का सम्राट स्वीकारने के लिए दिल्ली में आयोजित दरबार के शाही जमावड़े में भारी संख्या में ब्रिटिश भारत के शासक, भारतीय राजकुमार, सामंत, सैनिक और अभिजात्य वर्ग के व्यक्ति एकत्र हुए थे । तब दरबार के अंतिम चरण में अंग्रेज राजा ने उपस्थित व्यक्तियों के लिए अजरजभरी घोषणा की। तत्कालीन वायसराॅय लार्ड हार्डिंग ने राजा के राज्यारोहण उत्सव के अवसर पर प्रदत्त उपाधियों और भेंटों की घोषणा के बाद उन्हें एक दस्तावेज सौंपा । अंग्रेज राजा ने अपने प्रमुख दरबारियों के बीच में खड़े होकर ऊंची आवाज में सावधानी से तैयार किया हुआ एक वक्तव्य पढ़ते हुए राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने, पूर्व और पश्चिम बंगाल को दोबारा एक करने सहित अन्य प्रशासनिक परिवर्तनों की घोषणा की । उस समय भी दिल्ली वालों के लिए यह एक हैरतअंगेज फैसला था जबकि एक ही झटके में इस घोषणा से एक सूबे के शहर को एक साम्राज्य की राजधानी में बदल दिया जबकि सन् 1772 से ब्रिटिश भारत की राजधानी ने कलकत्ता थी । लार्ड हार्डिंग लिखते है कि इस घोषणा से दर्शकों में एक आश्चर्यजनक रूप से एक गहरा मौन पसर गया और चंद सेंकड बाद करतल ध्वनि गूंज उठी । ऐसा होना स्वाभाविक था । अपने समृद्व प्राचीन इतिहास के बावजूद जिस समय दिल्ली को अनचाहे राजधानी बनने का मौका दिया गया, उस समय दिल्ली किसी भी लिहाज से एक प्रांतीय शहर से ज्यादा नहीं थी । लाॅर्ड कर्जन के बंगाल विभाजन की घोषणा (1903) के बाद से ही इसका विरोध कर रहे और एकीकरण की मांग को लेकर आंदोलनरत असंतुष्ट बंगालियों की तरह दिल्लीवालों ने कोई मांग नहीं रखी और न ही कोई आंदोलन छेड़ा । सबसे बड़ी बात यह है कि किंग जार्ज पंचम की घोषणा से हर कोई हैरान था क्योंकि इस बात को पूरी तरह से गोपनीय रखा गया था । किंग जाॅर्ज पंचम की भारत यात्रा के छह महीने पहले ही ब्रिटिश भारत की राजधानी के स्थानांतरण का निर्णय हो चुका था । इंगलैंड और भारत में मात्र दर्जन भर व्यक्ति ही इस तथ्य से वाकिफ थे । यहां तक कि राजा की घोषणा के समानांतर बांटे गए उद्घोषणा के गजट और समाचार पत्रकों को भी पूरी गोपनीयता के साथ छापा गया । दिल्ली में एक प्रेस शिविर लगाया गया, जहां सचिवों, मुद्रकों और उनके नौकरों के लिए रहने की व्यवस्था की गई और वहीं पर छपाई के अलए प्रिटिंग मशीनें लगाई गईं । दरबार से पहले इन शिविरों में कर्मचारियों को लगा दिया गया था और दरबार की वास्तविक तिथि से पहले इस स्थान की सुरक्षा को चाक चैबंद रखने के लिए सैनिकों और पुलिस की टुकडि़यां तैनात कर दी गई थी । इससे लाॅर्ड हाॅर्डिंग का राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने की घोषणा की बात को इतिहास के गोपनीय राज बताना सही साबित होता है । सात दिसंबर, 1911 को ब्रिटेन के राजा और रानी (जार्ज पंचम और क्वीन मेरी) दिल्ली पहुंचे । शाही दम्पति को एक जुलूस की शक्ल में शहर की गलियों से होते हुए इस अवसर पर विशेष रूप से लगाए गए शिविरों के शहर (किंग्सवे कैंप) में पूरे गाजे बाजे के साथ पहुंचाया गया । उत्तर पश्चिम दिल्ली मंे विशेष रूप से निर्मित एक सोपान मंडप में आयोजित दरबार में चार हजार खास मेहमानों की बैठने की व्यवस्था की गई थी और एक बृहद अर्ध आकार के टीले से करीब 35,000 सैनिक और 70,000 दर्शक भी इस दरबार के चश्मदीद गवाह बनें । इस दरबार के दौरान लाॅर्ड हाॅर्डिंग सहित कौंसिल के सदस्यों, भारतीय राजाओं, राजकुमारों सहित कइयों ने अंग्रेज राजा की कदमबोसी की और हाथ को चूमा । 25 वर्ग मील और 30 मील के घेरे में फैले क्षेत्र में 223 तंबू लगाए गए थे, जहां पर 60 मील की नई सड़के और करीब 30 मील लंबी रेलवे लाइन के लिए 24 स्टेशन बनाए गए । अहमद अली का उपन्यास ट्विलाइट इन दिल्ली (1940) के अनुसार, वायसराॅय लाॅर्ड हार्डिंग ने व्यक्तिगत रूप से दरबार की तैयारियों का जायजा लिया । कुल 40 वर्ग किलोमीटर में फैले और 16 वर्ग किलोमीटर के घेरे में पूरे भारत से करीब 84,000 यूरोपीय और भारतीयों को 233 शिविरों में ठहराया गया । 1911 में बसंत के मौसम के बाद करीब 20,000 मजदूरों ने दिन रात एक करके इन शिविरों को तैयार किया । इस दौरान 64 किलोमीटर की सड़क, शिविरों में पानी की व्यवस्था के लिए 80 किलोमीटर की पानी की मुख्य लाइन और 48 किलोमीटर की पानी की पाइप लाइनें डाली गईं । इतना ही नहीं, दिल्ली में आने वाले मेहमानों के खानपान के लिए दुधारू पशुओं सहित सब्जी और मांस का इंतजाम किया गया । उल्लेखनीय है कि मूल योजना के अनुसार, दिल्ली दरबार का आयोजन एक जनवरी, 1912 को होना था पर उस दिन मुहर्रम होने की वजह इस इसे कुछ दिन पहले करने का फैसला किया गया । हालांकि एक जनवरी का अपना महत्व था क्योंकि इसी दिन भारत को अंग्रेजी साम्राज्य में मिलाने की घोषणा हुई थी और सन् 1877 तथा सन् 1903 में दरबारों का आयोजन हुआ था । सन् 1877 में लाॅर्ड लिटन ने महारानी विक्टोरिया की कैसरे हिंद के रूप में उद्घोषणा के अवसर पर पहले दिल्ली दरबार का आयोजन किया गया था । महारानी विक्टोरिया के उत्तराधिकारी के रूप में एडवर्ड सप्तम के राज्यारोहण के अवसर पर सन् 1903 में लाॅर्ड कर्जन के समय दूसरे दिल्ली दरबार का आयोजन किया गया था । यह दरबार 29 दिसंबर से अगले साल दस दिनों तक चला था । इस दरबार के एक भाग का आयोजन लालकिले के दीवान ए आम में भी किया गया था । सन् 1903 में लार्ड कर्जन के समय हुए दूसरे दिल्ली दरबार पर खर्च हुए 1,80,000 पाउंड की तुलना में तीसरे दिल्ली दरबार पर 6,60,000 पाउंड की राशि का खर्चा आया । किनेमाकलर ने तीसरे दिल्ली दरबार की फिल्म, विथ अवर किंग एंड क्वीन थ्रू इंडिया (1912 में सबसे पहली बार प्रदर्शित), बनाई जिनकी अवधि दो घंटे से अधिक समय की थी । यह फिल्म से अधिक एक मल्टीमीडिया शो थी, जिसके अनेक हिस्सों को जरूरत के मुताबिक बदला जा सकता था । किंग जाॅर्ज पंचम और क्वीन मेरी ने किंग्सवे कैंप में आयोजित दिल्ली दरबार में 15 दिसंबर 1911 को नई दिल्ली शहर की नींव के पत्थर रखें । बाद में, इन पत्थरों को नार्थ और साउथ ब्लाॅक के पास स्थानांतरित कर दिया गया और 31 जुलाई 1915 को एक अलग-अलग कक्षों में रख दिया गया । दिल्ली के नए शहर के स्थापना दिवस समारोह में लाॅर्ड हार्डिंग ने कहा कि दिल्ली के इर्दगिर्द अनेक राजधानियों का उद्घाटन हुआ है पर किसी से भी भविष्य में अधिक स्थायित्व अथवा अधिक खुशहाली की संभावना नहीं दिखती है । राॅबर्ट ग्रांट इर्विंगन्स की पुस्तक इंडियन समर में लाॅर्ड हार्डिंग कहते हैं, हमें मुगल सम्राटों के उत्तराधिकारी के रूप में सत्ता के प्राचीन केंद्र में अपने नए शहर को बसाना चाहिए । वाइसराय ने बतौर राजधानी दिल्ली के चयन का खुलासा करते हुए कहा था कि यह परिवर्तन भारत की जनता की सोच को प्रभावित करेगा । हम सब इसे भारत में अंग्रेजी राज को कायम रखने के अटूट संकल्प के रूप में स्वीकार करेंगे । तत्कालीन भारत सरकार के गृह सदस्य सर जाॅन जेनकिन्स ने कहा था कि यह एक साहसिक राजनयिक कदम होगा जिससे चहुंओर संतुष्टि के साथ भारत के इतिहास में एक नए अध्याय की शुरूआत होगी । अंग्रेजों के राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने के दो प्रमुख कारण थे । पहला, बंगाली अंग्रेजों के लिए काफी समस्याएं पैदा कर रहे थे और अंग्रेजों की नजर में कलकत्ता राजनीतिक आतंकवाद का केंद्र बन चुका था जहां लोग राइटर्स बिल्डिंग में बम फेंक रहे थे जबकि दिल्ली में ऐसे हालात नहीं थे । खासकर लाॅर्ड कर्जन के शासनकाल के बाद अंग्रेज बंगालियों को उपद्रवकारी, राजनीतिक रूप से सजग मानने लगे थे । दूसरा, यह एक तरह से यह मुसलमानों को खुश करने का भी फैसला था । अंग्रेजों की सोच यह थी कि वे एक ही समय में हिंदू और मुसलमानों को नाराज नहीं कर सकते । इसी सिलसिले में, सन् 1911 में आयोजित दिल्ली दरबार की ऐतिहासिक घटनाओं के ब्यौरे वाला अहमद अली का उपन्यास दिल्ली मेें आहत मुस्लिम सभ्यता की पड़ताल करता है । इस किताब के जरिए लेखक ने तत्कालीन भारत में अंग्रेजी साम्राज्यवाद की कहानी को बयान करते हुए उपनिवेशवादी ताकत से टक्कर पर मुस्लिम नजरिए को सामने रखते हुए साम्राज्यवादी साहित्य को चुनौती दी हैं । अली के शब्दों में, मुसलमानों ने स्पेन में कोरडोवा और ग्रेनाडा की तरह दिल्ली खो दी है और उनकी हार की तरह मुसलमानों को यह बात अपने खोए हुए सम्मान के रूप में सालती रहेगी । नीरद सी चैधरी ने आजादी मिलने के तुरंत बाद प्रकाशित अपनी आत्मकथा द आॅटोबायोग्राफी आॅफ अननोन इंडियन में उनकी (बंगालियों) प्रतिक्रिया का स्मरण करते हुए लिखा है कि सन् 1911 में मौत का साया, जिससे हम सब अपरिचित थे, पहले ही कलकत्ता पर पसर चुका था । मुझे अभी भी अपने पिता का उनके मित्रों के साथ राजधानी के दिल्ली स्थानांतरण के समाचार के पढ़ने की बात याद है । कलकत्ता का स्टेटसमैन गुस्से में था पर वह भविष्य की बजाय इतिहास के बारे में ज्यादा सोच रहा था और वह कासनड्रा की तरह भविष्यवाणियां करने का इच्छुक नहीं था । हम बंगाली कासनड्रा की तरह भविष्यवक्ता नहीं थे । हम बातूनी थे । मेरे पिता के एक दोस्त ने रूखेपन से कहा कि वे साम्राज्यों के कब्रिस्तान दिल्ली में दफन होने जा रहे हैं । इस बात पर वहां मौजूद हर कोई हंस पड़ा पर हम सभी की तीव्र इच्छा का लक्ष्य अंग्रेजी साम्राज्य का दफन होना ही था पर उस दिन हम में से किसी ने भी नहीं सोचा था कि ऐसा होने में केवल छत्तीस साल लगेंगे । अंग्रेज सत्रह सौ सत्तावन से कलकत्ते में राज करते रहे । उन्नीस सौ ग्यारह में दिल्ली राजधानी बनाने के छत्तीस साल बाद उनके विश्वव्यापी साम्राज्य का सूरज डूब गया । सन् 1912 में एडविन लैंडसिर लुटियन और उनके पुराने दोस्त हरबर्ट बेकर को बतौर वास्तुकार नए शहर को बसाने की जिम्मेदारी दी गई। लुटियन के चुनाव में उनके काम के अनुभव का कम और रिश्ते का जोर ज्यादा था । सरकारी इमारतें और शहर के वास्तु से उनका दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं था पर महत्वपूर्ण बात यह थी कि उन्होंने लाॅंर्ड लिटन, जिन्होंने सन् 1877 में महारानी विक्टोरिया के समय दिल्ली दरबार की अध्यक्षता की थी, की एकलौती बेटी एमली लिटन से शादी की थी । लुटियन का खास मित्र और सहयोगी गर्टरूड जेकल, जो कि अच्छा बाग वास्तुशास्त्री भी था, भी एक अच्छे संपर्कों वाला व्यक्ति था । लाॅर्ड हाॅर्डिंग भी मार्च 1912 के अंत में अपने पूरे लाव लश्कर के साथ दिल्ली पहंुच गया । सन् 1911 में दिल्ली राजधानी स्थानांतरित होने पर दिल्ली विश्वविद्यालय का पुराना वाइसरीगल लाॅज वायसराय का निवास बना । प्रथम विश्व युद्व से लेकर करीब एक दशक तक वायसराय इस स्थान पर रहा जब तक रायसीना पहाड़ी पर लुटियन निर्मित उनका नया आवास बना । मौजूदा नई दिल्ली शहर दिल्ली का आठवां शहर है । नई दिल्ली के लिए अनेक स्थानों के बारे में सोचा गया और उन्हें अस्वीकृत किया गया । दरबार क्षेत्र को अस्वास्थ्यकर और अनिच्छुक घोषित कर दिया गया, जहां बाढ़ का भी खतरा था । सब्जी मंडी का इलाका बेहतर था पर फैक्ट्री क्षेत्र में अधिग्रहण से मिल मालिक नाराज होते । इसी तरह, सिविल लाइंस में यूरोपीय आबादी को हटाने की जरूरत के चलते उनकी नाराजगी का खतरा था । अतः वास्तुकार लुटियन के नेतृत्व में मौजूदा पुराने शहर शाहजहांनाबाद के दक्षिण में नई दिल्ली के निर्माण का कार्य 1913 में शुरू हुआ जब नई दिल्ली योजना समिति का गठन किया गया । इसने पुराने शहर का तिरस्कार किया और उसके आसपास के इलाके तत्काल ही एक दूसरे दर्जे का शहर मात्र पुरानी दिल्ली बन गया । लुटियन के जिम्मे नई दिल्ली शहर और गर्वमेन्ट हाउस और हरबर्ट बेकर के सचिवालय के दो हिस्सों (नार्थ और साउथ ब्लाॅक) और कांउसिल हाउस (संसद भवन) को तैयार करने का भार आया । करीब 2,800 हेक्टेअर क्षेत्र में फैली लुटियन दिल्ली का मूल स्वरूप 1911 से 1931 के मध्य में बना जो कि साम्राज्यवादी भव्यता का एक खुला उदाहरण था । इसका मुख्य केंद्र ब्रिटिश साम्राज्य के प्रतिनिधि वाइसराॅय का महलनुमा परिसर (अब राष्ट्रपति भवन) था । अंग्रेज वास्तुकार नई दिल्ली को पुरानी दिल्ली की अराजकता के विपरीत एक कानून और व्यवस्था का प्रतीक बनाना चाहते थे । वास्तुकार हरबर्ट बेकर का मानना था कि नई राजधानी अच्छी सरकार और एकता का एक स्थापत्यकारी स्मारक होनी चाहिए क्योंकि भारत को इतिहास में पहली बार अंगे्रज शासन के तहत एकता मिली है । भारत में अंगे्रज शासन केवल सरकार और संस्कृति का प्रतीक नहीं है । यह एक विकसित होती नई सभ्यता है जिसमें पूर्व और पश्चिम के बेहतर तत्वों का समावेश है । दिल्ली का स्थापत्य इस महान तथ्य इस बात का प्रतीक होना चाहिए । गौर करने वाली बात यह है कि वायसराय पैलेस का मुख्य गुम्बद सांची के बौद्व स्तूप और लाल बलुआ पत्थर और जालियों को मुगल स्थापत्य कला की तर्ज पर बनाया गया पर अंग्रेजों ने अपने महत्व को बरकरार रखने के लिए वायसराय पैलेस की उंचाई शाहजहां की जामा मस्जिद से अधिक रखी । यहां तक कि नई दिल्ली में किसी भी देसी पेड़ पौधों की किस्मों को नहीं लगाया गया । यहां लगाए गए पेड़ों की किसी की किस्म को दिल्ली का देसी नहीं कहा जा सकता था । एक तरह से, नई दिल्ली का अर्थ भारतीय उपमहाद्वीप के लिए एक साम्राज्यवादी राजधानी और एक सदी के लिए अंग्र्रेज हुक्मरानों के सपनों का साकार होना था हालांकि इसके पूरा होने में 20 साल का वक्त लगा यह भी तब जबकि राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने के साथ ही नई दिल्ली बनाने का फैसला लिया गया था । इस तरह, नई राजधानी केवल 16 साल के लिए अपनी भूमिका निभा सकी । नई दिल्ली में निर्माण कार्य 1931 में पूरा हुआ जब पूरी सरकार इस नए शहर में स्थानांतरित हो गई । 13 फरवरी 1931 को तत्कालीन वायसराॅय लाॅर्ड इरविन ने नई दिल्ली का औपचारिक उद्घाटन किया । प्रसिद्व लेखक खुुशवंत सिंह के पिता सर शोभा सिंह ने लुटियन और बेकर के साम्राज्यवादी नक्शे के अनुरूप चूना पत्थर और संगमरमर को तराशने का काम किया । खुशवंत सिंह ने अपनी आत्मकथा सच, प्यार और थोड़ी सी शरारत नई दिल्ली पर खासी रोशनी डाली है। उनके ही शब्दों में, मेरे पिताजी को साउथ ब्लाॅक बनाने का ठेका मिला था और उनके सबसे जिगरी दोस्त बसाखा सिंह को नार्थ ब्लाॅक बनाने का । हमारे मकान के सामने, और दक्षिण दिल्ली से कोई बारह किलोमीटर दूर, बदरपुर गांव से दिल्ली के लिए जिसे आज कनाट सर्कस कहते हैं छोटी रेलवे लाइन गई थी । बदरपुर से निर्माण स्थल तक पत्थर, रोड़ी और बजरी लाने के लिए ही यह लाइन बिछाई जाती थी । जिस दिन छुट्टी होती, हम छोटी सी इम्पीरियल दिल्ली रेल के आने का इंतजार करते कि कब वह आकर पत्थर उतारे और हम उसमें सवार होकर मुफत में कनाट प्लेस की सैर करके आएं । वे आगे बताते हैं कि खालसा मिल्स के प्रवेश द्वार के उपर बने कमरों को छोड़ अब हम रायसीना पहुंच गए थे जो आगे चलकर नई दिल्ली बना । पहले एक दो साल तक हम लोग एक बड़े से झोपड़ीनुमा मकान में रहते थे । वह मकान जिस सड़क पर था वह आगे चलकर ओल्ड मिल रोड अब रफी मार्ग कहलाई क्योंकि वहां एक आटे की चक्की थी । यह जगह आज के संसद मार्ग के सामने पड़ती थी जहां दोनों सचिवालय नार्थ और साउथ ब्लाॅक बनाए जाने थे उसके यह काफी नजदीक थी । तीन बाॅक्स दिल्ली दरबार रेलवे समूचे देश से दिल्ली में लोगों के दरबार में शामिल होने को देखते हुए अंग्रेजों ने यातायात के सुचारू आवागमन के लिए अतिरिक्त रेल सुविधाएं बढ़ाने और नई रेल लाइनें बिछाने का फैसला किया । सरकार ने इसके लिए दिल्ली दरबार रेलवे नामक विशेष संगठन का गठन किया । मार्च से अप्रैल, 1911 के बीच सभी संभावित यातायात समस्याओं के निदान के लिए छह बैठकें हुईं । इन बैठकों में दिल्ली में विभिन्न दिशाओं से आने वाली रेलगाडि़यों के लिए 11 प्लेटफार्मों वाला एक मुख्य रेलवे स्टेशन, आजादपुर जंक्शन तक दिल्ली दरबार क्षेत्र में दो अतिरिक्त डबल रेल लाइनें, बंबई से दिल्ली बारास्ता आगरा एक नई लाइन बिछाने के महत्वपूर्ण फैसले किए गए । कलकत्ता से दिल्ली सैनिक और नागरिक रसद का साजो सामान पहुंचाने के लिए प्रतिदिन एक मालगाड़ी चलाई गई जो कि दोपहर साढ़े तीन बजे हावड़ा से चलकर अगले दिन दिल्ली के किंगस्वे स्टेशन पर सुबह दस बजे पहंुचती थी । इस तरह, मालगाड़ी करीब 42 घंटे में 900 मील की दूरी तय करती थी । नंवबर, 1911 में ‘मोटर स्पेशल‘ नामक पांच विशेष रेलगाडि़यां हावड़ा रेलवे स्टेशन और दिल्ली रेलवे स्टेशन के बीच में चलाई गई । इसी तरह, देश भर से 80,000 सैनिकों को दिल्ली लाने के लिए विशेष सैनिक रेलगाडि़यां चलाई गई । ये रेलगाडि़यां मुख्य रूप से उत्तर पश्चिमी रेल के टर्मिनल पर खाली हुई । इस अवसर पर पूर्वी भारत रेलवे ने अपने स्टेशनों पर आने वाली 15 सैनिक रेलगाडि़यां चलाई और 19 सैनिक रेलगाडि़यों में सैनिकों को दिल्ली दरबार की समाप्ति के बाद वापिस भेजा । इतिहास और अगर-मगर अगर प्रथम विश्व युद्व नहीं छिड़ा होता तो नई दिल्ली के निर्माण में अधिक धन खर्च किया जाता तथा यह शहर और अधिक भव्य बनता। इतना ही नहीं, यमुना नदी पुराने किले के साथ बहती होती और राजपथ से गुजरने वाले इसके गवाह बनते । अगर लाॅर्ड कर्जन और उनके अंग्रेज व्यापारी मित्रों की चलती तो नई दिल्ली को राजधानी बनाने का फैसला रद्द हो जाता । यह तो लाॅर्ड हार्डिंग के अंग्रेज राजा को भारतीय जनता को दिए वचन से न फिरने के बारे में समझाने के कारण ऐसा नहीं हो सका । अगर हरबर्ट बेकर ने प्रिटोरिया का निर्माण नहीं किया होता तो लुटियन को नई दिल्ली परियोजना में अवसर नहीं मिलता और न ही विजय चैक (इंडिया प्लेस) प्रिटोरिया की तर्ज पर तैयार होता । इतना ही नहीं, अगर लुटियन की मर्जी चली होती तो राष्ट्रपति भवन (गर्वमेंट हाॅउस) सरदार पटेल मार्ग पर मालचा पैलेस के नजदीक रिज में बना होता । लाॅर्ड हार्डिंग के इस प्रस्ताव को खारिज करने के बाद राॅयसीना पहाड़ी पर वायसराय हाउस बना । दिल्ली शहर का सफर शहर का क्रम शहर का नाम स्थापना का साल संस्थापक कुल क्षेत्रफल (वर्गकिलोमीटर में) पहली लाल कोट 1000 अनंगपाल 3.40 दूसरी सिरी 1303 अलाउद्दीन खिलजी 1.70 तीसरी तुगलकाबाद 1321 गयासुद्दीन तुगलक 2.20 चैथी जहांपनाह 1327 मुहम्मद बिन तुगलक 0.20 पांचवी फिरोजाबाद 1354 फिरोजशाह तुगलक 0.10 छठीं पुराना किला 1533 हुमायूं 0.20 सातवीं शाहजहांनाबाद 1639 शाहजहां 4.90 आठवीं नई दिल्ली 1911 एडवर्ड पंचम 12.20 बी-4, ट्रांसिट हाॅस्टल, 1-ए, बैटरी लेन, राजपुर रोड, सिविल लाइंस, दिल्ली-54
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दिल्ली भले ही देश का दिल हो, मगर इसके दिल का किसी ने हाल नहीं लिया। पुलिस मुख्यालय, सचिवालय, टाउनहाल और संसद देखने वाले पत्रकारों की भीड़ प्रेस क्लब, नेताओं और नौकरशाहों के आगे पीछे होते हैं। पत्रकारिता से अलग दिल्ली का हाल या असली सूरत देखकर कोई भी कह सकता है कि आज भी दिल्ली उपेक्षित और बदहाल है। बदसूरत और खस्ताहाल दिल्ली कीं पोल खुलती रहती है, फिर भी हमारे नेताओं और नौकरशाहों को शर्म नहीं आती कि देश का दिल दिल्ली है।
मंगलवार, 28 जून 2011
दिल्लीृ अपनी दिल्ली 100 साल की
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