गुरुवार, 5 जनवरी 2017

दिल्ली के धुरंधरों की कहानी / अनामी शरण बबल












गोस्वामी गोयल और महाबल की प्रतिष्ठा दॉंव पर

अनामी शरण बबल

दिल्ली विधानसभा चुनाव 2013 सामने है।, लिहाजा यहां पर एकाएक चमकने वाले तील नेताओं पर बातचीत जरूर होनी चाहिए, क्योंकि दिल्ली को आधार बनाने वाले तीनों नेताओं की साख इस समय दॉंव पर है। बात की शुरूआत दिल्ली सरकार के परिवहन मंत्री रमाकांत गोस्वामी से आरंभ करते है। हॉलांकि पत्रकारिता से राजनीति में आने वाले नेतानुमा पत्रकारों की कोई कमी नहीं है. यहां पर हिन्दुस्तान के चीफ रिपोर्टर के रूप में पत्रकार के तौर पर जाने गए गोस्वामी की लीला अनोखी है।  दिल्ली की राजनीति में पिछले 15 साल के दौरान एकाएक उदित होकर भाग्य से ज्यादा चमकने वाले राजनीतिज्ञों में कम से कम तीन नामों पर चर्चा जरूर होनी चाहिए। हम यहां पर बात तो करेंगे केवल दिल्ली की शीला सरकार में परिवहन मंत्री की जगह पाने वाले (भूत) पूर्व पत्रकार रमाकांत गोस्वामी की। मगर गोस्वामी के बहाने कमसे कम दो और नेताओं का कोई जिक्र ना करना भी एक बड़ा अपराध सा ही होगा।
एकाएक चमकने दमकने वाले इन तीनों से मेरा साबका पड़ा है। लिहाजा पार्षद से विधायक और ( जनता के वोट से ज्यादा) किस्मत के धनी महाबल मिश्रा और लाटरी (बाजी) टिकट की बिक्री के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले विजय गोयल की सफलता की कहानी को सामने रखना भी जरूरी है। महज 10 साल के भीतर लाटरी(बाजी) नेता से सांसद और फिर एनडीए के बाजपेयी सरकार में कैबिनेट मंत्री बनने वाले विजय गोयल की परियों जैसी सफलता की कहानी के पीछे दिवंगत नेता प्रमोद महाजन की हर प्रकार की भूमिका रही है। दिवंगत प्रमोद महाजन की वजह से ही आसमानी सफलता हासिल करने वाले गोयल कभी डीयू नेता भी रहे हैं। अखबार के दफ्तरों में अपने प्रेस नोट्स को लेकर अक्सर ठीक से छपने के लिए अनुनय विनय और प्रार्थना चिरौरी करने वाले गोयल सांसद तक तो पत्रकारों के संपर्क में रहे, मगर पीएम वाजपेयी कैबिनेट में मंत्री बनते ही गोयल भाजपा के वरिष्ठ मंत्री बनकर पत्रकारों से परहेज करने लगे। आजकल गोयल दिल्ली भाजपा के मुखिया है। इनके ही नेतृत्व में इस बार बीजेपी विधानसभा चुनाव में शीला दीक्षित को परास्त करना चाहती है। गोयल भी इन दिनों भावी सीएम बनने का सपना देख रहे है।
यही हाल लगभग, पार्षद से सांसद बनने वाले कभी पूरबिया नेता तो कभी बिहारी की तरह खुद को सामने रखने वाले महाबल मिश्रा की है। पत्रकारों को देखते ही हाथ जोड़ने (इस मामले में सपा नेता मुलायम को भी शर्मसार करने वाले) के लिए मशहूर महाबल में एक समय छपास रोग इतना था कि अपने प्रेस रिलीज को लेकर अखबार के दफ्तर तक जाने में कोई गुरेज नहीं करते थे.। अपनी मासूमियत और इनोसेंट फेस की वजह से महाबल पत्रकारों में काफी लोकप्रिय हो गए और उम्मीद से ज्यादा प्रेस में जगह भी पाने में हमेशा कामयाब रहे। हालांकि विधायक बनने के बाद महाबल में थोड़ा गरूर आया और सांसद बनने के बाद तो थोड़ा बौद्धिक होने का घंमड़ भी महाबल के सिर पर चढ़कर बोलने लगा। यही वजह है कि अब महाबल दिल्ली की राजनीति में महा होने के बाद भी बली बनने का सपना शायद पूरा नहीं कर पाएंगे।
अरे, हां तो अभी बात हो रही थी, रमाकांत गोस्वामी की। अपनी पत्रकारीय प्रतिभा से ज्यादा बिरला मंदिर में अपने पुजारी रिश्तेदारों की सिफारिश से दैनिक हिन्दुस्तान में रिपोर्टर की नौकरी पाने वाले रमाकांत गोस्वामी दैनिक हिन्दुस्तान में चीफ रिपोर्टर भी बनने में कामयाब रहे। बात 1996 लोकसभा चुनाव की है। मैं गोस्वामी को जानता तो था, मगर मिलने का मौका कभी नहीं मिला था। कई तरह से विवादित होने के बावजूद खासकर पत्रकारों में खासे लोकप्रिय भूत(पूर्व) सांसद सज्जन कुमार की जेब में रहने के लिए गोस्वामी ज्यादा बदनाम थे। तालकटोरा रोड़ वाले प्रदेश कांग्रेस दफ्तर में सज्जन की प्रेस कांफ्रेस थी। हिन्दुस्तान की तरफ से संतोष तिवारी हमलोग के साथ ही बैठे थे, मगर सज्जन के बगल में एक मोटा सा आदमी बैठा था। प्रेस कांफ्रेस के दौरान कई बार सज्जन उससे सलाह लेते तो कई बार अपना मुंह आगे बढ़ाकर वह आदमी भी सज्जन को सलाह देता। आधे घंटे की प्रेस कांफ्रेस के दौरान सज्जन को आठ-दस बार अनमोल सलाह देने वाले इस मोटे आदमी के प्रति मेरे मन में कोई खास उत्कंठा नहीं जगी।
प्रेस वार्ता खत्म होने के बाद मैं और ज्ञानेन्द्र सिंह (दैनिक जागरण) डीपीसीसी के बाहर खड़े होकर बातचीत में मशगूल थे। तभी मेरी नजर सज्जन कुमार के उसी चम्‍मचे की तरफ गई, जो अब तक दो बार डीपीसीसी के अंदर से निकल कर बाहर खड़ी अपनी कार तक जाकर और कोई सामान लेकर अंदर जा चुका था। चंद मिनटों में ही एक बार फिर वही चम्‍मचा एक बार फिर बाहर निकला और अपनी कार की तरफ जाता हुआ दिखा। मैने ज्ञानेन्द्र से कहा चलो देखे, तो जरा कि माजरा क्या है? अपनी कार से कुछ सामान निकाल कर फिर वापस डीपीसीसी की तरफ लौट रहे मोटे सज्जन को देखकर हाथ जोड़ते हुए मैंने कहा, सर आप कौन ? पहचाना नहीं? तब तपाक से वह बोला तुम कौन ? अपना आपा खोए बगैर धीरज के साथ मैंने जवाब दिया मैं राष्‍ट्रीय सहारा से अनामी और ये दैनिक जागरण से ज्ञानेन्द्र सिंह। तब थोड़ा सहज होकर सज्जन के चम्मचे ने कहा अरे, तुमने मुझे नहीं पहचाना? मैं एचटी से गोस्वामी। तब पूरी विनम्रता के साथ हाथ जोड़कर मैंने फिर कहा नहीं सर नहीं पहचाना। तब सज्जन के चमच्चे ने कहा कमाल है, अरे भाई मैं रमाकांत गोस्वामी हिन्दुस्तान से। अब चौंकने की बारी मेरी थी। मेरी आंखे विस्मय से लगातार फैल रही थी। मैंने कहा कमाल है, सर आप और सज्जन के साथ, तो फिर संतोष तिवारी ? लगभग सफाई देते हुए गोस्वामी ने कहा अरे सज्जन तो अपने भाई हैं, साथ देना पड़ता है। संतोष कवरेज के लिए आया था। इस सफाई के बाद भी मेरी हैरानी कम नहीं हो रही थी। बात को मोड़ने के लिए गोस्वामी ने शराब की कुछ बोतल और लिफाफे में रखे पकौड़े को दिखाते हुए पूछा खाओगे? जबाव देने की बजाय तपाक से मैंने पूछा क्या आप खाते है? इस पर जोर देते हुए गोस्वामी ने कहा, नहीं मैं तो पंड़ित हूं। तब मैंने पलटवार किया। नहीं सर, मैं तो महापंड़ित हूं, इसे छूता तक नहीं। मेरी बातों से वे लगभग झेंप से गए। इसके बावजूद अपने दफ्तर में कभी आने का न्यौता देकर हमलोंगो से अपनी पिंड़ छुड़ाई।
1996 का लोकसभा चुनाव खत्म होने के बाद मतगणना से ठीक एक दिन पहले तालकटोरा स्टेडियम में हो रही मतगणना की तैयारियों का जायजा लेने गया था। वहां पर एक बार फिर गोस्वामी से टक्कर हो गई। इस बार हम दोनों एक दूसरे को पहचान भी गए। मैंने गोस्वामी से पूछा- सर, परिणाम में क्या होने वाला है ?  तो एकदम बेफ्रिक होकर गोस्वामी ने कहा होने वाला क्या है ? बस देखते रहो सज्जन भाईसाहब किस तरह जीतते है। इस पर मैंने आपत्ति की और फौरन टोका कि हमें  तो मामला कुछ दूसरा ही होता दिख रहा है। तब ठठाकर हंसते हुए गोस्वामी ने कहा, 'तुम अनुभवहीन लोग पोलिटिकल एयर को नहीं जानते। खैर बात को तूल देने की बजाय मैं दफ्तर लौट आया और अगले ही दिन बीजेपी के बाहरी दिल्ली संसदीय क्षेत्र से पहली बार चुनाव लड़ रहे कृष्णलाल शर्मा ने सज्जन कुमार को एक लाख 98 हजार मतों से हरा कर सज्जन कुमार एंड़ कंपनी का बोलती ही बंद कर दी थी। हालांकि इसे शर्मा की जीत की बजाय इसे तत्कालीन सीएम साहिब सिंह वर्मा और पूरी बीजेपी टीम की जीत भी कहें तो इसमें  कोई हैरानी नहीं।
हिन्दुस्तान में नौकरी करने के बावजूद बिरला से ज्यादा दिग्गज कांग्रेसी सज्जन कुमार की चाकरी या वफादारी के लिए (कु) या विख्यात गोस्वामी को सज्जन सेवा का पूरा फल भी मिला और दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान सज्जन की पैरवी से रमाकांत 1998 में पत्रकारिता से अलग होकर अपने चेहरे पर पोलिटिकल मुखौटा लगाने में कामयाब रहे। निगम सदस्य विधायक होने के नाते गोस्वामी से मेरी एक और मुठभेड़ 2000 या 2001 में हुई। जब वे निगम की एक बैठक में बतौर विधायक एमसीडी सदन में आए। हम पत्रकारों को देखते ही गोस्वामी ने सबों को बेटा- बेटा कहकर प्यार दुलार दिखाना शुरू कर दिया। अपने पिता के रूप में थोड़ी देर तक तो बर्दाश्त करने के बाद अंततः मैने टोका गोस्वामीजी नेता का चेहरा तो ठीक है, मगर हम पत्रकारों के बाप बनने की चेष्टा ना करें। कई और पत्रकारों ने भी जब आपत्ति की तो फिर गोस्वामी खिसक लिए।
सज्जन की वफादारी निभाते हुए ही गोस्वामी ने शीला दीक्षित के भी वफादार साबित हुए। जिसके ईनाम के रूप में गोस्वामी को मंत्री होने का परम या चरम सुख भी हासिल हो गया है।मगर एक पत्रकार से नेता और मंत्री बनने वाले गोस्वामी का कार्यकाल यादगार वहीं रह पाया। मीं होने के बाद भी गोस्वामी एक पत्रकार की तरह मुस्तैद होकर अपने विभाग को दुरूस्त करने में कोई दिलचस्पी नहीं ली. घाटे से लस्त पस्त डीटीसी इस समय हर माह रहीब एक सौ करोड़ रूपये से भी ज्यादा का नुकसान झेल रही है। रंगीन सीएनजी बसों को रखने के लिए भले ही पर्याप्त डिपो ना हो , मगर बसों का रेला पेला आता ही जा रहा है।  लाभ में चलने की बजाय घाटे में दौड़ रही डीटीसी को उबारने की चिंता से अधिक गोस्वामी शीला एंड कंपनी इस सफेद हाथी को पालने पोसने में ही अपना सारा दम लगा रहे हैं। मंत्री के रूप में भी गोस्वामी एक पत्रकार की तरह ही परफॉर्म नहीं कर सके, इसके बावजूद गोस्वामी से कोई शिकवा शिकायत वाला रिश्ता भी ना कभी रह है और ना है।  इसके बावजूद मैं यह जरूर देखने में दिलचस्पी रखता हूं कि  मंत्री की पारी के बाद जनता की कसौटी पर गोस्वामी पहले की तरह इस बार भी खरा हो पाएंगे।

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