अनामी शरण बबल
बिहार के यशस्वी पत्रकार लेखक और सांसद रह चुके शंकर दयाल सिंह के मुखारबिंद से मैंने पहली बार रांची एक्सप्रेस अखबार और इसके संपादक बलवीर दत्त का नाम सुना था। संभवत यह 1982 की बात है, उस समय मेरे भीतर भी कुछ कुछ होता है सा कुछ लिखने की भावनाएं फूटने लगी थी। और पहली बार इस अखबार को देखने का मौका कहे या सौभाग्य 1983 में मिला। जब एक मरीज की तरह मुझे रांची के जगत विख्यात डॉक्टर केके सिन्हा से इलाज के लिए रांची जाने का मौका मिला। उस तक मैं और पत्रकारिता का कोई नाता नहीं था। एक सामान्य पाठक की तरह ही इस पेपर को देखा। मगर हमारे लेखक चचा शंकर दयाल सिंह ( मैं इनको हमेशा चाचा ही कहता रहा) इसके पुराने लेखक थे। इनका एक कॉलम यदा-कदा भी काफी मशहूर था। मैं एक संपादक के रूप में बलवीर दत्त को नहीं जानता था और न शोहरत से ही परिचित था।पर अपने चचा की वाणी से नाम सुना ता तो यह नाम भी मुझे मेरे मनमें अंकित सा था।
बिहार के औरंगाबाद जिले के अपना गांव देव में हमारे लेखक चचा शंकर दयाल सिंह अक्सर आते रहते थे। देव के भवानीपुर में उनका अपना एक फॉर्महाउस था कामता सेवा केंद्र। जहां पर शंकर दयाल चचा के आने की भनक पाते ही मैं किसी भौंरे की तरह वहीं पहुंच जाता। इस तरह मैं उनके स्नेह का पात्र बना, और बात बे बात कभी पत्रिका पा जाता या उनके ठहाकेदार चर्चाओं का कभी मूक तो कभी वाचाल साक्षी बना रहता। एक नहीं कई बार न जाने किन किन मुद्दो या मौकों पर वे वे अक्सर बलवीर दत्त का नाम लेते रहते थे। इस तरह पहली बार चूंकि मैने शंकर दयाल चचा से यह नाम सुना था तो इस नाम की गूंज मेरे दिमाग में अंकित थी। जब कभी भी इस पेपर का नाम मेरे सामने आता तो दिमाग में केवल दो ही छवि उभरती थी अपने शंकर दयाल चचा के यदा -कदा की और इसके संपादक बलवीर दत्त की। उस समय तक या तब तक तो मैं बलवीर जी से पूरी तरह अनजान था इसके बावजूद मन में यह नाम अज्ञात छवि के साथ दर्ज था।
मेरे मन में बलवीर दत्त के रांची में ही चिपके रहने या रह जाने वाले पत्रकार का मलाल था। इंदौर या मध्यप्रदेश की सीमा को लांघकर ही चाहे राजेन्द्र माथुर हो या प्रभाष जोशी हो दिल्ली में आकर ही राष्ट्रीय शोहरत पा सके। मुझे बिन देखे हमेशा लगता था कि बलवीर दत्त शायद इस तिकड़ी के सबसे सही हकदार होते। मगर कोई जान पहचान नहीं था एक पोस्टकार्ड वाला भी नाता नहीं था लिहाजा अपनी बात को मैं बता भी नहीं सकता था। मगर मेरे मन में क्षेत्रीय पत्रकारिता की इमेज और लगातार बढ़ती इज्जत के बीच बलवीर दत्त की छवि एक वीर संपादक की तरह बनने लगी थी। यही कारण था कि जब 2016 में मेरे पास रांची एक्सप्रेस के संपादक बनने का ऑफर आया तो मैं बिना कुछ सोचे समझे ही दिल्ली में 25 साल के बने बनाये काम नाम की परवाह को छोड रांची जाने का मन बना लिया। उस समय इस पेपर को करीब से देखने और इसके संस्थापक संपादक से मिलने की इच्छा परवान पर थी।
राजनीति के जंगल में आजकल ज्यादातर पुरस्कार और सरकारी सम्मान पांव पैसा पहुंच पौव्वा और पोलिटिकल जुगाड़ के चलते ही हासिल किया जाता है। पुरस्कार देने का जमाना और मान सम्मान का सम्मान भी अब कहां ? मगर दिल्ली की चकाचौंध से 1500 किलोमीटर दूर रांची के अपर बाजार के एक साधारण से दफ्तर में बैठकर क्षेत्रीय पत्रकारिता के मान ज्ञान सम्मान के और जनहितों के लिए संघर्ष का जो सत्ता विरोधी चेहरा समाज के सामने रखा, वह वंदनीय है। इन्होने रांची से प्रकाशित इस अखबार की जो प्रतिष्ठा देश भर में प्रतिष्ठा दिलाई है इसके लिए इनको और इनकी साधनहीन पूरी टीम की जितनी भी तारीफ की जाए वह कम है। ये इस तरह की फौज के कमांडर थे जहां पर बहुत सारी सुविधाओं की कमी के बाद भी पत्रकारिता की मान और शान के लिए सब एक जुट हो जाते थे।
आमतौर पर किसी सम्मान या पुरस्कार को अर्जित करके लोग महान और सम्मानित से हो जाते हैं। मगर क्षेत्रीय पत्रकारिता के इस पुरोधा संपादक बलवीर दत से ज्यादा पद्मश्री का सम्मान सम्मानित होकर गौरव का सूचक बना है। अविभाजित बिहार झारखंड के लिए सम्मान की गरिम तब और बढ़ जाती है जब 1954 से निरंतर दिए जाने वाले पद्मश्री सम्मान से यह राज्य वंचित था। अविभाजित बिहार झारखंड के वे पहले पत्रकार हैं जिनको इस सम्मान से नवाजा गया है।
पिछले साल मुझे भी कुछ माह रांची एक्सप्रेस से संपादक का ऑफर आया। यह एक पत्रकार के रूप में मेरे मित्र सुधांशु सुमन ने दिया था। एक टेलीविजन पत्रकार के रूप में मैं इनको 20 साल से जानता रहा हूं। हालांकि उन्होने मुझे दिल्ली संस्करण में संपादक का ऑफर दिया था। रांची एक्सप्रेस और बलबीर दत के नाम का इतना तेज मेरे मन में था कि दिल्ली में रहते हुए 27 साल हो जाने के बाद भी मैने खुद रांची में पांच छह माह तक रहने की इच्छा जाहिर की। दो तीन किस्तों में दिल्ली रांची आते जाते करीब ढाई तीन माह तक मैं रांची में रहा।
नयी सत्ता नयी व्यवस्था और नए हालात में देखा जाए तो जिन सपनों और बदलाव की योजनाओं और इच्छाओं के साथ मैं रांची गया था, उसमें कुछ खास नहीं हो पाया। इस बीच पहाड़ी इलाके की कंपकंपी वाली ठंड को देखते हुए मैने दो तीन माह तक दिल्ली लौटने की इच्छा जाहिर की और तमाम कठिनाईयों दिक्कतों के बाद भी मेरे तमाम नखड़़ो को प्रबंधन ने सिर माथे लिया और मुझे दिल्ली जाने का टिकट थमा दिया। हमलोग में कोई शिकायत नहीं है क्योंकि यह अखबार तो सुमन जी के पास अभी सामने आया है, मगर हमारा इनसे नाता 20 साल से एक पत्रकार वाला था, जो सबसे प्रमुख रहा है।
रांची पहुंचते ही मैं अपने एक प्रिय सहकर्मी नवनीत नंदन के साथ जब बलवीर जी के घर पर पहुंचा तो अवाक रह गया। उनके स्टड़ी रूम में चारों तरफ हजारों किताबों का अंबार लगा था। स्टडी कमरे में चारो तरफ किताबें ठूंसी पड़ी थी। सैकड़ों फाईलों और हजारों कतरनों को देखकर तो मैं दंग रह गया। मैने उनके पांव छूए और उस अखबाक की कमान थामने से पहले आशीष मांगा । मैने कहा कि सर आपके अनुभव लेखन और संपादकीय दक्षता के सामने तो मैं कहीं पासंग भर भी नहीं हूं। मगर यह मेरा सौभाग्य भरा संयोग है कि मैं भी उसी रांची एक्सप्रेस का चालक बन रहा हूं जिसको आपने बुलेट ट्रेन बना रखा था। पहली मुलाकात में ही मैने रांची को राजधानी बनाने वाले लेख की भी चर्चा की और रांची में ही सिमटे रहने का राज पूछा। मैने दो टूक कहा कि आज तो अलेखक संपादकों का दौर है। यदि आप समय रहते दिल्ली आते तो शायद माथुर और प्रभाष जोशी की परम्परा में कुछ विकास होता। हालांकि मेरी बात को काटते हुए उन्होने कहा कि यदि दिल्ली चला जाता तो शायद यहां रहकर जितना काम करके संतोष पाया है वह अर्जित नहीं हो पाता। एक घंटे की जादूई मुलाकात में मैं उनके किताबों के ढेर को मोहित सा देखता रहा। मगर मन में यह असंतोष था कि रांची बलवीर जी की जगह नहीं थी। मगर, पद्मश्री की घोषणा होते ही मेरा मन अपार संतोष से भर गया। और तब मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ कि रांची में रहकर पत्रकारिता के बूते जो शोहरत काम और नाम बलवीर जी ने अर्जित किया है वो काम दिल्ली में रहकर नहीं कर पाते। और फोन पर बात होने पर मैने उनके रांची में ही रहने की जिद्द को सार्थक माना। यह सम्मान केवल बलवीर दत्त को नहीं मिला है इसके बहाने क्षेत्रीय पत्रकारिता की ताप को सम्मानित किया गया है। क्षेत्रीय पत्रकारिता को बल मिला है और इसकी सार्थकता को राष्ट्रीय स्तर पर सरकारी स्तर पर मान्यता मिली या मान्यता दी गयी है। इन तमाम सम्मानजनक कारणों से बलवीर जी को प्राप्त यह सम्मान और इसकी गरिमा बढ जाती है।
पूरे झारखंड में बलबीर दत को बच्चा बच्चा (जो अखबार पढने वाला हो) जानता है। यह अखबार पूरे शहर समेत झारखंड का अपन अखबार सा है। हालांकि जमाने की चमक दमक और बाजारी मारामारी वाले इस राज्य के बलवीर दत्त यहां के इकलौते संपादक हैं जिनको उपराज्यपाल से लेकर रांची शहर का एक रिक्शा वाला भी जानता और अपना मानता है। पत्रकारिता में ये यहां के इकलौते सोशल संपादक का सर्वमान्य चेहरा की तरह स्थापित है। संपादक का मुखौटा लगाकर तो मैं या मेरे जैसे ही दर्जनों लोग रांची में सक्रिय हैं, मगर किसी की भी धमक जनता में नहीं बनी है। और मैं तो अपर बाजार से फिरायालाल चौक वाले रास्ते में ही सही राह की खोज में भटकता रहा।
इस समय रांची से दर्जन भर अखबार निकल रहे हैं मगर रविवार वाले हरिवंश जी के प्रभात खबर से अलग होने के बाद किस पेपर का संपादक कौन है यह सब मुझ समेत ज्यादतर सपादक भी संभवत नहीं जानते होंगे। मैं भी ढाई तीन माह में यह नहीं जान पाया कि तमाम अखबारों के संपादक कौन है। या यों कहे कि पाठकों की नजर में मेरी तरह ही सब अनाम हैं । मगर बलवीर दत्त जी आज किसी भी पेपर के संपादक नहीं होने के बावजूद पूरे राज्य के पहले या इकलौते संपादक के रूप में विख्यात एकमात्र संपादक का सर्वज्ञात चेहरा है। हालांकि प्रभात खबर दैनिक जागरण हिन्दुस्तान और दैनिक भास्कर सबसे ज्यादा बिकने वाला पेपर हैं, मगर यह मेरा दावा है कि झारखंड के 10 फीसदी लोग भी शायद सभी संपादकों के नाम को नहीं जानते हैं।
मगर यह देखकर मुझे रांची प्रवास के दौरान अक्सर गौरवबोध होता कि रांची एक्सप्रेस की प्रसार संख्या भले ही अन्य पेपरों से कम हो मगर अपर बाजार के दफ्तर और संपादक के रूप में बलवीर दत को एक रिक्शा वाला भी जानता था।. कभी कभी तो मैं इसे सदमा कहे या अचरज विस्मय कि मेरे सामने ही मेरे पूछने पर बहुधा कम पढ़े लिखे या एकदम अंगूठाटेक लोगों ने भी माना कि आज भी रांची एक्सप्रेस के संपादक बलवीर दत्त ही है। क्षोभपूर्ण लहजे में मैने कईयों से कहा कि उनको तो पेपर से अलग हुए काफी समय हो गया है और आजकल इसका संपादक मैं हूं । मेरे यह कहने पर उसके नेत्रों में मैने अपने लिए हिकारत देखी । बड़े अजीवब तरह से घूरते हुए दो एक ने कहा कि आप हो कौन मैं तो जानता तक नहीं मगर आपमें बलवीर दत की कुर्सी संभालने का माद्दा कहां है। इस तरह की बातें सुनकर उलझते हुए अपने आपको और ज्यादा हास्यपूर्ण बनाने से तो ज्यादा अच्छा मौन होकर या रहकर वहां से खिसकने में ही लगा। ये बाते मुझे अजीब भी लगी तो वहीं बलवीर दत्त के प्रति मेरे मन में प्यार आस्थआ और सम्मान को और जागृत कर दिया कि सच में वे एक सामान्य जनता के संपादक है ।
एक और दिलचस्प अनुभव को आज मैं शेयर करने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूं कि फिरायालाल चौक के पास बीएसएनएल के मुख्यालय है। वहां पर बीएसएनएल के कनेक्शन के लिए मुफ्त में सिम का वितरण हो रहा था। मैने भी एक सिम लेने की इच्छा प्रकट की। साथ में दिल्ली वाले पता का अपना आधार कार्ड की फोटो कॉपी दी। जब बीएसएनएल कर्मियों ने रांची के स्थानीय पता के लिए प्रमाणपत्र मांगा तो मैने रांची एक्सप्रेस अखबार निकाल कर सामने कर दी कि इसमें काम करता हूं। पेपर को रखते हुए बीएसएनएल कर्मी ने कहाकि बस्स कल अपने संपादक से एक लेटर बनवा कर लाकर दे दीजिए तो हाथों हाथ सिम एक्टीवेट करके कनेक्शन दे दिया जाएगा। संपादक का नाम सुनते ही मैंने अपना आधारकार्ड और पेपर के प्रिंटलाईन में अंकित अपने नाम को सामने करते हुए बताया कि भाई इसका संपादक तो आजकल मैं हूं। मैं भला किससे लेटर लिखवाकर लाउंगा आप प्रिंटलाईन की फोटोकॉपी लगाकर कनेक्शन दे दीजिए।. मेरी बात सुनकर वो दंग रह गया। अपनी कुर्सी छोड़कर खडा होते हुए कहा कि आप कब से संपादक बन गए और बलवीर जी कब पेपर छोड गए भाई? पूरे झारखंड में तो केवल एक ही संपादक हैं बलवीर जी आप नया संपादक दिल्ली से कब पैदा हो गए ? अखबार में नाम छप जाने से कोई भला संपादक हो जाता है क्या ? पूरे झारखंड में केवल एक ही संपादक है बस्स। अब इस बीएसएनएल कर्मी से उलझने की बजाया. अपनी और जगत हंसाई करवाने से भला यही लगा कि सिम मिले ना मिले मगर यहं से खिसकना ही सर्वोत्तम उपाय है, और मैं उन कर्मचारियों से बिन सिम लिेए ही निकल गया।
रांची शहर का मैं ज्यादा भ्रमण तो नहीं कर पाया मगर ज्यादातर स्थानों पर एक संपादक की छवि का मतलब ही जनता में केवल एक नाम बलवीर दत्त को ही देखा। संपादक यानी बलवीर दत्त. यही इनकी खासियत देखी और जीवन भर की कमाई महसूस की।. जनता यानी अपने पाठतों के बीच इस कदर अंकित किसी पत्रकार संपादक को पहली बार देखकर मुझे लगा कि यही इनकी उर्जा और रांची की जनता का इनके उपर विश्वास ही इनकी पूंजी है, जो दिल्ली में अर्जित नहीं हो सकती थी। दिल्ली में इनका वेतन तो छह अंको में मिल जाता मगर ,दफ्तर के बाहर शायद छह लोग भी जीवन भर में अपना नहीं बना सकते थे। सक्रिय पत्रकारिता से फिलहाल वे विश्राम कर रहे हैं इसके बावजूद इस झारखंड राज्य के वे सर्वकालीनव श्रेष्ठ संपादक जरूर रहेंगे। इनकी छाया से झारखंड की पत्रकारिता आज भी छाय़ामुक्त नहीं हो सकी है और ना होगी । खासकर पदमश्री के सम्मान के बाद तो वे बिहार झारखंड के इकलौते पत्रकार हो गए हैं जिनको यह सम्मान हासिल हुआ है।
रांची एक्सप्रेस में बलवीर दत्त जी के साथ काम करने वाले आदरणीय उदय वर्मा जी ने भी इनकी वीरता धीरता और जनता के लिए अंगद की तरह अडिग हो जाने की दर्जनों घटनाओं से मुझे अवगत कराया। रांची एक्सप्रेस में मेरी एक संक्षिप्त पारी रही। इसके बावजूद मुझे इस बात का हमेशा गौरवबोध रहेगा कि मैने भी उनको देखा और स्नेह प्यार का पात्र रहा हूं. स्नेह का पात्र तो मैं रांची छोड देने के बाद भी हूं । रांची एक्सप्रेस से अलग होकर दिल्ली आए कई माह होने वाले हैं । इसके बावजूद मैं कभी कभी अपने सौभाग्. पर इतरा सा जाता हूं कि मुझे भी बलवीर दत्त जैसे कर्मठ संपादक के बाद उनकी कुर्सी पर बैठने का मौका मिला। यह एक इस तरह का गौरवबोध है कि मैं मन ही मन मे इस पेपर के ने मालिक पत्रकार रह चुके सुधांशु सुमन के प्रति भी मुग्ध सा हो जाता हूं कि उन्होने एक विराट संपादक की कमान थामने का मौका दिया
एक पाठक के रूप में इनकी सजगता देखकर मैं दंग रह गया। यह इस तरह के दूरदर्शी लेखक संपादक हैं जो अपने रिपोर्टरों को अपनी संपति और अनमोल निधि की तरह सहेजते और संवारते थे। पीछे खड़ा होकर बिना कुछ कहें अपने सहकर्मियों को निखारते थे। इन पर मैं यही कहूंगा कि ये एक अनमोल संपादक पत्रकार हैं जो अपने साथ साथ एक पूरी पीढी को भी संवारते हुए सुरक्षित रखते थे। किसी भी पत्रकार की कोई रपट लेख या कॉलम के छपने पर सुबह सुबह ये खुद फोन करके वाहवाही देते या उसे और बेहतर करने का सुझाव देते। मुझे भी यह सुख कई बार मिला। इतना उदार और बड़े दिल का संपादक भला आज कहां मिलेगा ? यही बलवीर दत्त की वीरता का वीर गाथा है कि महानगर की मुख्यधारा से दूर रहते हुए भी अपने अखबार को अपने सहकर्मियों को और अपने आपको सदैव मुख्यधारा से जोड़े रखा। ताकि क्षेत्रीय पत्रकारिता के काम और अंदाज को महानगरीय लोग शहरी चश्मा पहनकर भूल ना जाए। रांची एक्सप्रेस के सबसे वरिष्ठ पत्रकार उदय वर्मा के अनुसार देश में तीन क्षेत्रीय अखबारों की चमक थी। रांची एक्सप्रेस जहां संघर्ष का चेहरा था तो राजस्थान पत्रिका ग्रामीण भारत का जीवंत दर्शन था। और इंदौर से प्रकाशित नयी दुनिया देश भर में क्षेत्रीय स्तर पर बदलते भारत का आधुनिक भारत के जीवन को दृश्यमान करता था। तीनों पेपर को सामने रखने से ही एक संपूर्ण राष्ट्रीय चेतनामय पेपर की कल्पना साकार होती है। जो बाद में जनसत्ता के प्रकाशन पर पूरा हुआ, क्योंकि उसमें तीनो अलग अलग अखबारों की दृष्टि समाहित थी।
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अनामी शरण बबल
asb.deo@gmail.com
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