लुप्त होती चमक दमक
अनामी शरण बबल
साहित्यिक पत्रिका हंस की भी एक अजब गजब कहानी है।
जिस हंस को हिन्दी के मूर्धन्य कथाकार प्रेमचंद ने आरंभ किया था। वह हंस कब की काल
कवलित हो गयी थी। मगर कथाकार राजेन्द्र यादव ने जिस हंस को 1987 में प्रेमचंद के
हंस के नाम शुरू किया। यह पाठकों के साथ छलावा था। दिल्ली यूनीवर्सिटी के हंसराज
कालेज की पत्रिका हंस को प्रेमचंद का हंस बनाकर प्रस्तुत किया गया। मगर हंस और
प्रेमचंद को इसके संपादक राजेन्द्र यादव ने कुछ इस तरह परोसा कि हंस की पहचान यादव
की हो गयी। अपने जीवनकाल में यादव ने इसकी लगन के साथ सेवा की और हंस को समय समाज
साहित्य लोक सरोकार का चेहरा बना दिया। मगर यादव के देहांत के साथ ही हंस के
संपादन की बागडोर एक कुबेरी साहित्यकार संजय सहाय ने संभाली। सहाय के हंस में
सत्तासीन होते ही आर्थिक संकट से जूझते हंस की हालत में तो सुधार हुआ, मगर वैचारिक
और रचनाओं के चयन प्रस्तुति के स्तर पर हंस की चमक दमक फीकी होती चली जा रही
है। करीब पांच साल से संपादन कर रहे संजय
सहाय की अगुवाई में हंस के चेहरे पर निखार
की लौ मंद है।
हिन्दी साहित्यिक पत्रिकाओं के आंदोलन को जन जन तक
मुखर करने की कोशिश करके यादव ने पत्रिकाओं की एक नयी फसल पैदा की और देखते ही
देखते करीब तीन दशक के दौरान देशभर से सैकड़ों पत्रिकाओं के प्रेरक बिंदु बने।
हालांकि जिस समय मैं हंस की जब समीक्षा लिख रहा हूं ठीक उसी समय खबर है कि हिन्दी
के वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह अचेत हाल में एम्स में दाखिल है। वही हंस के मार्च
अंक में अनामिका ने केदार बाबू से लंबी बातचीत की है। एकदम अलग तरह से की गयी यह
बातचीत बहुत ही प्रेरक और पठनीय है जिसमें उन्होने कहा है कि अच्छे लेखन का प्रभाव
धीरे धीरे होता है। नौ पेजी यह इंटरव्यू इस अंक की एक बड़ी उपलब्धि है। मगर उससे
भी बड़ी उपलब्धि यह होगी कि केदार बाबू पिर से स्वस्थ्य होकर हमसबों के बीच रहे।
इस अंक में पांच कहानियों के अलावा लेख समीक्षाएं कविताएं भी हैं जो अमूमन तमाम
पत्रिकाओं में होती हैं मगर गुणवत्ता की कसौटी पर पाठकों को पहले जैसी उष्मा रचनात्मक
संतुष्टि और उर्जा की भूख बाकी रह जाती है। और तो और इस बार संपादकीय तक संजय सहाय
की ना होकर हंस के मई 1999 की इतिहास के मोड़ पर भूत और भविष्य का वर्तमान को दी
गयी है। करीब 19 साल पुराने संपादकीय को क्यों दी जा रही है कमसे कम संपादक सहाय
इसका औचित्य तो बताते। यादव के बाद संपादकीय उष्मा की कमी निरंतर महसूस हो रही है।
संपादक होने के बाद भी हंस को देखकर लगता है मानों यह संपादक के बगैर निकलने वाली
हंस है। यादव की कमी की खाई और चौड़ी हो गयी है और यही चिंता हंस के लिए नुकसानदेह
है।
हंस (मार्च2018) संपादक- संजय सहाय 2/36 असारी रोड दरियागंज
नयी दिल्ली- 110002 पृष्ठ 100 मूल्य- 40 रूपये।
महिला लेखन को सलाम
हंस के साथ साथ पिछले 22 सालों से लगातार प्रकाशित
कहानियों की पत्रिका कथादेश का मार्च अंक महिला लेखन पर एकाग्र है। ताजा अंक में
इस बार 15 लेखिकाओं की कहानियां दी गयी है। इस अंक में कोई भी पुरूष लेखक नहीं है,
लिहाजा इस अंक को इस नजरिये से देखना पढना ज्यादा रोचक और प्रेरक लगेगा। ज्यादातर
कहानियों में एक नयापन और ताजगी है। जिससे महिला कथाकारों को लेकर कोई भी पाठक
उत्साहित होगा। कथादेश के साथ जबसे अर्चना वर्मा जुड़ी हैं तो कथादेश की
रचनाधर्मिता और चयन में अनायास सुधार हुआ है।
अर्चना जी के कारण कथादेश और सुगंधित हो गयी है। वहीं ज्यादातर संपादक अपनी
पत्रिका से ज्यादा खुद को ही बड़ा बनाकर पेश करते हैं। वहीं हरिनारायण इस मामले
में बिरले हैं। .संपादक होने के बाद भी खुद को हमेशा हाशिये पर रखने वाले हरिनारायण हर जगह
मौजूद होकर भी पाठकों को कहीं नहीं दिखते। संपादन स्वतंत्रता के मामले में वे लगभग
संत समान हैं। यहां पर काम करने का एक लोकतांत्रिक माहौल है। और इसी माहौल में
अर्चना वर्मा की उपस्थिति से कथादेश पाठकों की कसौटी पर निरंतर पास हो रहा है। यही
इसकी खासियत है कि हंस के वैभवकाल में भी इसकी गूंज कायम रही।
कथादेश (मार्च 2018) संपादक - हरिनारायण एल -57बी,
दिलशाद गार्डन दिल्ली-110095 पृष्ठ 100 मूल्य- 30 रूपये।
सरकारी
पत्रिका में खांटी साहित्य की महक
हिन्दी अकादमी दिल्ली की मासिक पत्रिका
इंद्रप्रस्थ भारती के प्रकाशन के तीन दशक के
दौरान कई संपादकों ने इसे संवारा और बेहतर बनाया है। चर्चित महिला कथाकार मैत्रेयी
पुष्पा के संपादन में इंद्रप्रस्थ भारती को देखना एक सुखद अनुभव है। वहीं हंस के
लगातार रंगहीन होने की तस्वीर भी साफ हो गयी है। राजेन्द्र यादव काल में चाहे
मैत्रेयी पुष्पा हों या अर्चना वर्मा सब हंस के संग इसकी उर्जा और वैचारिक गरमी के
सूत्रधार थे। मगर यादव के दिवगंत होते ही हंस के साथ अपरोक्ष तौर पर सक्रिय टीम
अलग हो गयी। मैत्रेयी का भी हिंदी अकादमी
की मासिक पत्रिका के साथ जुड़ गयी। हंस के संपादक सहाय राजेन्द्र यादव की टीम को
हंस के संग साथ नहीं रख सके जिससे हंस की चाल ढाल और रंग रूप बदल गयी। मैत्रेयी ने
इसे समय समाज शोध लेखन की नयी धारा को नयी धार दी है। इस अकादमिक पत्रिका को
मुख्यधारा में लाकर इसको साहित्य और सोच
की मुख्यधारा में स्थापित किया है। जनवरी 2018 के अंक में रचना चयन के प्रति सजगता
तो है। विरासत कॉलम में विख्यात गीतकार बलवीर सिंह रंग की काव्यात्मर उर्जा को
देखना सुखद है। खासकर मेरे पास ना आओ मैं
सिंहासन हूं गीत में राजनीति के विवेकहीन चरित्र का मार्मिक बखान किया है।
मेरे पास ना आओ मैं सिंहासन हूं / सुख समृद्दि के नाम पर
युद्द का ज्ञापन हूं। सकल सृष्टि के आकार का मंत्र हूं / सम्मोहन हूं, वशीकरण
हूं, उच्चाटन हूं।
दिवंगत रंग की इस गीत से सहसा डा. धर्मवीर भारती
की एक कविता याद आती है जब आपातकाल में आह्वान किया था कि खाली करो सिंघासन की
जनता आने वाली है । मगर एक ही काल के दो बड़े कवि ने इसको अलग अलग ढंग से परिभाषित
किया है। गीतकार रंग की कविताएं आज के हालात से जूझती हुई पाठको को बल देती है।
सिनेमा और
सोशल मीडिया को जगह देना भी इसी सोच की उपज है, मगर मैत्रेयी जी को सब एक ही कवर
में देने की बजाय एक अलग मौलिक रास्ता अख्तियार करना होगा ताकि इसमें संपादक की
क्षमता की गूंज फैल सके। सज्जा और चमक दमक से स्पष्ट है कि सरकारी मैग्जीन को कोई
धनसंकट नहीं है।
इंद्रप्रस्थ भारती ( जनवरी 2018) संपादक - मैत्रेयी
पुष्पा, हिन्दी अकादमी समुदाय भवन, पदम नगर किशनगंज दिल्ली- 110007 पृष्ठ 86
मूल्य- 30 रूपये।
आजकल के साहित्य में आजकल
सरकारी साहित्यिक पत्रिकाओं की चल रही चर्चा में पिछले 73 साल से लगातार छप रही प्रकाशन विभाग की
साहित्यिक पत्रिका आजकल की चर्चा ना करना सरासर गलत होगा। जिस पत्रिका को
देवेन्द्र सत्यार्थी के संपादन में शुरू की गयी थी वह आज भी एक विशुद्द साहित्यिक
धारा में ही प्रवाहित है। पिछले सात दशक के दौरान देश की राजनीति में बेशुमार
बदलाव आए। समय ने करवट बदली.। सोच और विचार के स्त्तर पर कई तरह की धाराएं रंग
बदलती रही, मगर आजकल की साहित्यिक धारा एक समान रही। इसके प्रवाह में राजनीति कभी
बाधक नहीं बनी। यही इस पत्रिका के महत्व को कालजयी बनाती है। आजकल का मार्च अंक
महिला लेखन पर केंद्रित है। कहानियों के नाम पर केवल छह कहानी है, मगर कहानी लेखन
की दशा दिशा की जांच परख करती कई लेखों से बेहद संतोष होता है। भूमंडलोतर कहानियों
के साथ साथ इधर के कहानीकार और बदलते जीवन
का कहानियों पर होने वाले असर को रोचकता के साथ प्रस्तुत किया गया है। इन लेखों
में दर्जनों कहानियों और कथाकारों का उल्लेख है, जिससे इधर की कहानियों की तस्वीर
ज्यादा स्पष्ट ठोस आकार लेती है। भविष्य में कहानियों से बड़े फलक की अनुभूति होती
है। कहानी पर एकाग्र परिचर्चा में नासिरा
शर्मा और सुनीता की तार्किक अभिव्यक्ति भी काफी महत्वपूर्ण है। स्वाति स्नेहा ,
सिनीवाली और पल्लवी प्रसाद की कहानियां पाठकों को रोचक लगेगी। वहीं सिनेमा में मां
की भूमिका पर यशस्विनी पांडेय का लेख स्त्री विमर्श को नया आयाम देती है। फिल्म
स्पर्श चश्मेबद्दूर दिशा, साज और कथा आदि फिल्म को बनाने वाली महिला डायरेक्टर सई परांजये के योगदान पर
प्रकाश डालती है।
आजकल का साहित्यिक चेहरा कल भी संतोष देता था और
आज भी आजकल का साहित्य लेखकों पाठकों की उम्मीदों पर अव्वल है। इसके प्रकाशन के 75
साल होने वाले हैं तब यह देखना दिलचस्प होगा कि उस समय आजकल के खजाने में और क्या
नया अध्याय जुड़ेगा।
आजकल (मार्च 2018) संपादक - राकेश रेणु , प्रकाशन
विभाग कमरा नंबर 601 डी, सूचना भवन, सीजीओ कॉम्पलेक्स नयी दिल्ली- 110003 पृष्ठ 64
मूल्य- 22 रूपये।
अनियमितता के रोग से बचाव जरूरी
किसी भी पत्रिका का बड़े धूमधाम से आरंभ किया तो
जाता है, मगर दो एक अंक आते आते ज्यादातर पत्रिकाओं के संचालकों की उर्जा चूकने
लगती है। मासिक पत्रिका हिम आकाश का प्रकाशन स्थल दिल्ली भले ही हो मगर हर पेज पर
उत्तराखंड दिखता और झलकता है। हिम आकाश केवल और केवल उत्तराखंडी नागरिकों की ताकत
और रिपोर्ट के बल पर सामने है। इसके हर पन्ने पर उत्तराखंड धड़कता है। यही इसकी
ताकत है और सीमा भी। हालांकि पत्रिका में
इस प्रांत की खोजपरक खबरों को जगह दी गयी है। खासकर 20-13 में केदारनाथ त्रासदी के
बाद की हालातों पर करीब साढ़े चार साल के बाद की खोजपरक आवरण खता बहुत ही बेहतर
है। सरकारी उपेक्षा और नौकरशाही प्रपंच के सामने बेबस जनता की त्रासदी को समझने
में यह काफी सहायक होगी। पहाडी इलाके की
पहाड़ जैसी समस्याओं को हिम आकाश के जरिये समझा जा सकता है। मगर इसका निरंतर
प्रकाशन जरूरी है. अनियमितता के रोग से बचना होगा तभी हिम को एक नया आकाश सुलभ
होगा
हिम आकाश (नवम्बर 2017) संपादक - रणजीत सिंह, 185
एफ, पॉकेट एक मयूर विहार फेज -1 दिल्ली- 110091 पृष्ठ 52 मूल्य- 30 रूपये।
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