मंगलवार, 4 सितंबर 2012

कम उम्र में मां बन जाती है भारतीय लड़कियां

समाज को आईना दिखाती रिपोर्ट


हाल में यूनीसेफ द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार भारत में 22 फीसदी लड़कियां कम उम्र में ही मां बन जाती हैं और 43 फीसदी पांच साल से कम उम्र के बच्चे कुपोषण का शिकार हैं. रिपोर्ट के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों के अधिकतर बच्चे कमज़ोर और एनीमिया से ग्रसित हैं. इन क्षेत्रों के 48 प्रतिशत बच्चों का वज़न उनकी उम्र के अनुपात में बहुत कम है. यूनिसेफ द्वारा चिल्ड्रन इन अर्बन वर्ल्ड नाम से जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा शहरी ग़रीबों में यह आंकड़ा और भी चिंताजनक है, जहां गंभीर बीमारियों का स्तर गांव की तुलना में अधिक है. रिपोर्ट के अनुसार शहरों में रहने वालों की संख्या तक़रीबन 37 करोड़ है. इनमें अधिकतर संख्या गांव से पलायन करने वालों की है. इन शहरों में हर तीन में से एक व्यक्ति नाले अथवा रेलवे लाइन के किनारे रहता है.
देश के बड़े शहरों में कुल मिलाकर क़रीब पचास हज़ार ऐसी बस्तियां हैं, जहां बुनियादी सुविधाओं का घोर अभाव है. ऐसी बस्तियों में रहने वाले बच्चों में बीमारियां अधिक होती हैं, क्योंकि न तो उन्हें उचित वातावरण मिल पाता है और न ही सही ढंग से इनका लालन-पालन होता है. रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया भर में कम उम्र के बच्चों की मौतों में 20 प्रतिशत भारत में होती है और इनमें सबसे अधिक अल्पसंख्यक तथा दलित समुदाय प्रभावित हैं. रिपोर्ट में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि सरकार ने जिस तरह से ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चों के लिए योजनाएं चला रखी हैं, वैसी ही योजनाएं शहरों में रहने वाले ग़रीब बच्चों के लिए भी शुरू की जानी चाहिए. दुनिया भर में बच्चों के विकास के लिए कार्य करने वाली इस संस्था ने अपनी रिपोर्ट के माध्यम से भारतीय समाज को आईना दिखाने का प्रयास किया है, जो सराहनीय है.
हिंदुस्तान सदियों से एक ऐसा देश रहा है, जो अपनी सांस्कृतिक विरासत और उन्नत सामाजिक चेतना के लिए दुनिया भर में जाना जाता है, जहां महिलाओं और बच्चों को भगवान का दर्जा दिया जाता है. ऐसे में यदि यूनिसेफ हमें यह आईना दिखाता है तो यूं ही नहीं बल्कि इसके पीछे कुछ न कुछ वास्तविकता होगी. जिस देश में आज भी नारी की देवी के रूप में पूजा की जाती है, उसी देश की राजधानी में बलात्कार, अत्याचार और खुलेआम सेक्स के बाज़ार चलाए जाते हैं. शायद ही कोई ऐसा दिन होता है, जब समाचार पत्रों में किसी महिला के साथ गैंगरेप या शोषण की कोई खबर प्रकाशित नहीं होती है. जब देश की राजधानी का यह हाल है तो छोटे शहरों और क़स्बों की स्थिति क्या होती होगी, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है. क्योंकि इन सभी जगहों पर या तो मीडिया की पहुंच नहीं होती है अथवा समाज में बदनामी के डर से लोग मामले पर चुप्पी साध लेते हैं. यदि किसी ने हिम्मत दिखाकर शोषण और अत्याचार के खिला़फ आवाज़ बुलंद करने की कोशिश की और थाने में रिपोर्ट लिखानी चाही तो थानेदार साहब अपनी रिपोटेशन बचाने के लिए एफआईआर दर्ज करने से बचने की कोशिश करते हैं. कभी-कभी स्वयं अभिभावक सामाजिक प्रतिष्ठता के नाम पर अपनी बेटी को मार डालने से भी नहीं हिचकते हैं. इसकी ताज़ा मिसाल हाल में घटित हुई मेरठ की घटना है, जहां पिछले माह राजमिस्त्री का काम करने वाले एक पिता ने अपनी दो जवान बेटियों की गर्दन रेत कर स़िर्फ इसलिए हत्या कर दी, क्योंकि उसे इन दोनों के चाल-चलन पर शक था और इसके कारण उसे अपनी सामाजिक प्रतिष्ठता गिरती नज़र आ रही थी. अपनी इस करतूत पर उसे ज़रा भी अ़फसोस नहीं था. दिल्ली से सटे हरियाणा में आए दिन खाप पंचायत के फैसले नारी शोषण की कहानी बयां करते हैं, जहां ज़बरदस्ती पति-पत्नी को भाई-बहन साबित कर दिया जाता है.
यदि देश के नौनिहालों विशेषकर जन्म लेनी वाली बच्चियों की बात करें तो आज भी हमारा समाज लड़कियों के मुक़ाबले लड़कों को तरजीह देता है. दिल्ली की फलक और बंगलुरू की आ़फरीन इसकी मिसाल है, जिन्होंने ज़िंदगी की परिभाषा को समझने से पहले ही इस दुनिया को अलविदा कह दिया. दोनों का क़सूर सिर्फ इतना था कि वे लड़कियां थीं. फलक को उसकी मां पर पिता द्वारा किए गए ज़ुल्म और फिर महिला व्यापार का धंधा चलाने वालों ने मौत के मुंह तक धकेला, तो वहीं तीन माह की आ़फरीन को स्वयं उसके पिता ने पटक-पटक कर स़िर्फ इसलिए मार डाला, क्योंकि उसे लड़की नहीं लड़का चाहिए था. दूसरा उदाहरण बिहार के दरभंगा शहर का है, जहां एक नामी अस्पताल के बग़ल के कूड़ेदान में एक नवजात बच्ची को फेंक दिया गया और कुत्ते उसे नोंच-नोंच कर खा गए. इस दौरान किसी ने भी पुलिस को बुलाने का कष्ट नहीं किया और न ही यह खबर मीडिया में बहस का विषय बनी, क्योंकि मामला दिल्ली अथवा इसके आसपास घटित नहीं हुआ था. शायद समाज को भी इस प्रकार की आदत सी हो गई है, जो इस पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने की जगह इसे दिनचर्या मान चुका है.
ऐसे बहुत से उदाहरण हैं, जो यह साबित करते हैं कि यहां कथनी और करनी में एक बड़ा अंतर है. हम नारी को देवी के रूप में सम्मान देने की बात तो करते हैं, परंतु उसे समान दर्जा नहीं देना चाहते हैं. हम बच्चों को भगवान का रूप तो मानते हैं, परंतु उनका ख्याल नहीं रखना चाहते हैं. यूनिसेफ की रिपोर्ट हमें कहीं न कहीं इसका आईना ही दिखाती है. इतनी सारी योजनाएं चलाई जा रही हैं. इसके बावजूद कुपोषित बच्चों के प्रतिशत में संतोषजनक गिरावट क्यों नहीं आ रही है? जब हमारे देश में बाल विवाह क़ानून लागू है, फिर कैसे बच्चियों की कम उम्र में शादी कर दी जाती है? यह सवाल भी हमारे बीच से उठा है तो जवाब भी हमारे बीच मौजूद है. शायद इसका सीधा जवाब यही है कि जब तक समाज जागरूक नहीं होगा, तब तक इस तरह के आंकड़े हमें शर्मिंदा करते रहेंगे.

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