शनिवार, 29 दिसंबर, 2012 को 09:09 IST तक के समाचार
दिल्ली में एक युवती के साथ
सामूहिक बलात्कार की घटना के बाद ऐसी घटनाओं के गुनहगारों के लिए फांसी की
सज़ा देने की मांग तेज़ हो गई है.
कोई गुनहगारों के लिए फांसी की सज़ा की मांग कर रहा है तो कोई 'फास्ट ट्रैक' अदालतों का सुझाव दे रहा है.इसीलिए राजस्थान सरकार ने कन्या भ्रूण हत्या के मामलों में सुनवाई के लिए छह महीने पहले 'फ़ास्ट ट्रैक' अदालतों के गठन का प्रस्ताव दिया तो हाईकोर्ट ने इसे तुरंत मंजूरी दे दी.
फास्टट्रैक कोर्ट का रिकॉर्ड
लेकिन ख़ास बात ये है कि महिला अत्याचार के मामलों में तेज़ी से इंसाफ उन्हीं मामलों में मिला है जहां पीड़िता विदेशी नागरिक थीं.फास्ट ट्रैक अदालत के इस प्रयोग ने ऐसे लोगों में उम्मीद की राह दिखाई है.
अलवर में एक जर्मन युवती के साथ बलात्कार के मामले में फास्ट ट्रैक कोर्ट ने करीब एक महीने से भी कम समय में सुनवाई पूरी की और दोषी को सज़ा के बाद जेल भी हो गई.बलात्कार की ये घटना साल 2006 में 21 मार्च को हुई थी.
पीड़ित जर्मन छात्रा ने अपने भारतीय साथी बीटी मोहंती के खिलाफ़ बलात्कार की शिकायत की थी.
"ये वो मामले हैं जिनमें अत्याचार की शिकार विदेशी महिलाएं हुईं थी. पीड़ित को जल्द से जल्द अपने देश भी लौटना होता है इसलिए पूरी कार्रवाई में जल्द पूरी कर ली जाती है. ऐसी फौरी कार्रवाई और सुविधा स्थानीय पीड़ित महिलाओं को नहीं मिल पाती"
कविता श्रीवास्तव, महासचिव, पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़
इससे पहले साल 2005 में जोधपुर में फास्ट ट्रैक कोर्ट ने एक जर्मन महिला सैलानी के साथ दो लोगों द्वारा बलात्कार के मामले में ऐसा ही फैसला सुनाया था और दो हफ्ते में कार्यवाही पूरी करा ली गई थी.
इस मामले में अदालत ने दो लोगों को उम्रकैद की सज़ा सुनाई थी.
इसी तरह साल 2006 में एक जापानी महिला ने पुष्कर में एक गेस्टहाउस के मालिक बबलू पर बलात्कार का आरोप लगाया था.जिसकी अदालत ने सिर्फ तीन माह में सुनवाई पूरी करते हुए सात साल की सज़ा दी थी.
इसी तरह दिसंबर 2008 में उदयपुर में एक ब्रिटिश सैलानी के साथ होटल मालिक द्वारा बलात्कार करने के मामले की भी सुनवाई चार महीने में पूरी कर ली गई थी और उम्र कैद की सज़ा दी गई थी.
सभी को मिले 'न्याय'
पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ की महासचिव कविता श्रीवास्तव कहती हैं, ''ये वो मामले हैं जिनमें अत्याचार की शिकार विदेशी महिलाएं हुईं थी. इसमें वीज़ा की समय-सीमा का भी मामला होता है क्योंकि पीड़ित को जल्द से जल्द अपने देश भी लौटना होता है इसलिए पूरी कार्रवाई में जल्द पूरी कर ली जाती है. ऐसी फौरी कार्रवाई और सुविधा स्थानीय पीड़ित महिलाओं को नहीं मिल पाती.''
कविता श्रीवास्तव के अनुसार फास्ट ट्रैक अदालतों के ज़रिए इस गंभीर समस्या का समाधान मुमकिन नहीं है. असल में ऐसे मामलों की सुनवाई कर रहे जजों की संख्या बढ़ाए जाने की बड़ी ज़रुरत है.
वे कहती हैं कि यहां एक जज रोज़ाना लगभग दो सौ से ज़्यादा मामले सुनता है, ये संख्या बहुत ज्य़ादा है और इसका असर फैसले में देरी से होता है. यहां ऐसे भी मामले हुए हैं जहां फास्ट ट्रैक अदालतों को सामूहिक बलात्कार के मामले में न्याय देने में 15 सालों तक का वक़्त लग गया है.
जयपुर के एक फास्ट ट्रैक कोर्ट ने दो महीने पहले ही सामूहिक बलात्कार के 15 साल पुराने मामले में आठ लोगों को सज़ा सुनाई है. हालांकि अभी इस मामले में दो लोग फरार हैं.
पाँच सितम्बर 1997 को राजस्थान विश्वविद्यालय के एक छात्रावास में हुई इस घटना में करीब 12 लोगों ने कथित रूप से एक युवती के साथ बलत्कार किया था लेकिन इसमें दोषियों को सज़ा देने में 15 साल लग गए.
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