द ग्लोबल ओपन
युनिवर्सिटी (नागालैण्ड) तथा इंदिरा गांधी टेक्नोलॉजिकल एंड मेडिकल
साइंसेज यूनिवर्सिटी अरुणाचल प्रदेश के संस्थापक कुलाधिपति डॉ प्रियरंजन त्रिवेदी एक अनूठे चिंतक हैं। एक शैक्षणिक चिंतक होने के साथ साथ पर्यावरण और
कृषि विशेषज्ञ डा. त्रिवेदी ज्यादातर देशी समस्याओं पर गहरी पकड़ और बेबाक नजरिया से
तल्ख टिप्पणी करते है। इनकी टिप्पणियों में तलख्यित के साथ साथ सरकार और नौकरशाही
की बेऱूखी और उदासीनता को लेकर काफी रोष है.। जल जंगल जमीन जानवर जनजीवन पर्यावरण
प्रदूषण बाढ़ सूखा अकाल और प्राकृतिक –
मानवीय आपदा पर भी काफी चिंतित हैं। बढ़ती आबादी से लेकर बेकारी आंतकवाद हिंसा
तस्करी से लेकर जीवजंतुओ और पक्षियों की
लगातार कम होती तादाद से भी आहत है। शिक्षा और सेहत के अंधाधुंध व्यावसायिक करण से
स्वास्थ्य और शैक्षणिक वातावरण में पैसे की चमक दमक से वे विचलित है। तमाम ज्वलंत
मुद्दों पर डा. त्रिवेदी से लास्ट संड़े के लिए अनामी शरण बबल ने लंबी बातचीत की।
प्रस्तुत है बातचात के मुख्य अंश: ---
सवाल--- अपना देश
भारत महान, एक सौ मे 99 बेईमान, फिर भी जय जयकार है और आदमी लाचार है। इस तरह की
छवि टिप्पणी और आम धारणा के बीच आप देश और देश के संचालकों नीति नियंताओं पर क्या
राय रखते है ?
जवाब – देश एक गंभीर
संकट के दौर में है। स्वार्थी शासकों लालची नौकरशाहों और अदूरदर्शी संचालकों की समाज
निर्माण के प्रति उदासीन नीतियों से देश संचालित हो रहा है। देश को विकासशील देशों
की कतार में लाने की ठोस पहल की बजाय नेताओं की जुबानी पहलकदमी से देश आगे बढ़ रहा
है। देश की सुरक्षा को लेकर भी यहीं जुबानी जंग हो रही है.।. पूरी दुनियां हमारे देश
के नेताओं और नौकरशाहों की कागजी बहादुरी को जान गयी है। सरकार किसी समस्या को सुलझाने की बजाय उसे यथावत बनाए
रखना चाहती है। देश को बेहतर बनाने की बजाय कोई भी आफत ना हो बस इसी सावधानी से
सरकार चलाते है। डर डर कर सरकार चलाने वाली पार्टियां करप्शन घोटालो और देश को
बेचने वाली नीतियों को लागू करते समय तो नहीं डरती है पर देश हित के लिए कोई भी
कड़ा फैसला लेते समय वोट बैंक का ख्याल करके लाचार हो जाती है। इस तरह के शासकों
के रहते हुए देश को आत्मनिर्भर और स्वाभिमानी होने की हम कल्पना नहीं कर सकती है।
सवाल—इसका देश पर
क्या असर पड़ता है ?
जवाब – इसका असर तो
आप हर तरफ हर स्तर पर देख ही रहे है।. नेताओं के चरित्र को देखकर सत्ता की पूरी
कमान ही आज नौकरशाहों और बाबूओं के हाथों में चली गयी है। इनके भीतर शासकों का डर
खत्म हो जाता है। यहां पर शासकों में ही नौकरशाहों और बाबूओं को लेकर डर बना है।
सत्ता में रहने वाली हर पार्टी के नेता अपनी पसंद के ब्यूरोक्रेट को अपना सारथी
बनाते है। मंत्री अपने सारथी नौकरशाह पर निर्भर रहते है और वो ब्यूरोक्रेट अपनी
अंगूलियों पर नेता को नचाता है. उसको लाभ पहुंचाता है और मंत्री के नाम पर अपने
खजाने और ताकत को बढ़ाता रहता है। उसके लिए देश और जनसेवा से ज्यादा जरूरी अपने
मंत्री को खुश रखना और चापलूसी करके उस पर कायम अपने विश्वास को अटल बनाये ऱखना
होता है। हमारे नेता का नौकरशाहो पर निर्भर होने का नतीजा है, कि वे लोग एक दूसरे
के रक्षक बनकर खूब लूटमार में लग जाते है। विपक्षी दल भी चाहे सरकार किसी की रहे
मलाई खाने में किसी को कोई कोर कसर नहीं रहती।, लिहाजा एक तरह से एक दूसरे के
रक्षक की भूमिका भी निभाते है। सत्ता और नौकरशाहों बाबूओं की तिकड़ी के एक साथ हो
जाने का असर सरकारी सेवाओं साधनों और संस्थानों पर दिखने लगता है। खुलेआम करप्शन
और सुविधा शुल्क के बगैर कामकाज नहीं हो पाता। चाहे अस्पताल हो या स्कूल कॉलेज
जनसुविदा विभागों में भी अराजक हालात होता है । लोग लाचार से बेबस रहते है और
ज्यादातर कर्मचारियो में डर संकोच नहीं रह जाता। लोगों की लाचारी पर भी सरकार और
नौकरशाहों का ध्यान नहीं जाता।
सवाल –
लोकतंत्र की धारणा है कि यह जनता द्वारा जनता की जनता के लिए बनाई गई सरकार
होती है , और इसमें सबसे बड़ी भूमिका एक जनता की ही होती है ?
जवाब – आपका कहना एकदम
सही है। देखने में तो यह सत्ता की एक अनोखी परम्परा सी दिखती है, मगर लोकतंत्र
वास्तव में एक समय के बाद भीड़तंत्र या अराजक आपराधिक चेहरों की समूह बनकर रह जाती
है। तमाम दलों को अपने वोटरों के रूख और
समर्थन का पत्ता होता है। ज्यादातर पार्टियां पूरे देश को अपना मानने की बजाय एक
खास वर्ग और समूह को ही सत्ता की पूंजी मान लेती है। यहां पर सोच का दायरा सिकुड़
जाता है। और आज आप अपने देश को ही देख ले कि महज 65 – 66 साल में ही किस तरह पूरी
धारणा बदल गयी है। छोटे छोटे दलों का एक महाजनी चेहरा प्रकट होता है जो भले ही देश
की बात करता हो, मगर उसका ध्यान केवल अपने इलाके और अपने वोट बैंक और अपने लिए ज्यादा
से ज्याद ब्लैकमेल करके मांगे मनवाने की होती है।
सवाल – लगता है कि
हमारी बातचीत का पूरा लाईन ही चेंज होता दिख रहा है । कहां तो बातचीत शुरू कर रहे
थे शिक्षा को लेकर और हमलोग कहां आकर ठिठक गए ?
जवाब – नहीं हमें तो
लग रहा है कि बातचीत पटरी पर है, क्योंकि जब जीवन बचेगा समाज है और समाज की
मुख्यधारा में आशाओं और विश्वास की संजीवनी बची रहेगी, तब तक लोगों में और समाज
में संघर्ष का माद्दा भी बना रहेगा। शिक्षा तो समाज और लोगों के उत्थान की केंद्र बिंदू
है। मगर आज तो समाज और इसके मुख्य स्त्रोतो को बचाने की जरूरत है। हमारे यहां की
नदियां सूख चली है. देश के 90 फीसदी तालाब झील और गांवो के पोखर सूख गए है। जलस्तर
पाताल में चले जाने से हैंड़पंप और कुंए बेकार हो गए। शहरी कचरा नदी के किनारे के
शहरों और बस्तियों को लील रही है। जीवन दायिनी होने की बजाय नदियां मानव विनाशकारी
हो गयी है। पानी की कमी को पूरा करने के लिए गंदे पानी को रीट्रीट करके गंदे पानी
को ही शोधित कर फिर पेयजल के तौर पर दिया जा रहा है। खाने के नाम पर हमलोग जहर
खाने को लाचार है. खेतो में खाद और कीटनैशक दवाईयों के नाम पर पेस्टीसाईज का जम कर
छिड़काव हो रहे है, जिससे खेतों की उर्वरा क्षमता पर ही असर पड़ रहा है। दवाईयों
के नाम पर जिस तरह मानव सेहत और जेब के साथ खिलवाड़ हो रहा है वह भी सरकारी तंत्र
की लापरवाही का उदाहरण है। बिजली की कमी को पूरा करने के लिए बड़ी बड़ी नदियों के
प्रवाह को रोका जा रहा है, तो पहाड़ों को काटा जा रहा है । बिजली के नाम पर भूकंप
जलप्रलय और विभीषिका को हमारे प्लानर और इंजीनियर न्यौता दे रहे हैं। उत्तराखंड
विनाश के भयानक तांड़व से भी कुछ सीखने के
लिए हम तैयार नहीं है। पेड़ों की अंधाधुंध कटाई और लगातार कम हो रहे जल जंगल के
भयावह परिणाम को जानते हुए भी लापरवाह बने हुए है। विनाश और खतरे के कगार पर खड़े
होने के बाद भी सरकार जनता से सच छिपाने की पहल करती है।
सवाल – सरकार की
लापरवाही या उदासीनता को आप किस तरह देखते है ?
जवाब -- आज देश का हाल बेहाल ही उदासीनता और काम को
फौरन करने की बजाय टालने की नीति से है।
देश की सीमाओं पर कड़ाके की ठंड़ में भी
देश की रक्षा के हौसले को बनाए रखना भी कमाल की बात है, मगर देश के नौकरशाह और
सरकार का रवैया इन बहादुरों के प्रति भी नकारात्मक रहता है। पड़ोसी देशों से
रिश्ते जगजाहिर है।. बांग्लादेश जैसा देश जिसको अलग देश बनवाने में भारत की भूमिका
रही है वो भी हमारे सैनिकों को मारकर जानवरों की तरह फेंक देता है और हमारे नेता
केवल एयरकंडीशन कमरे में बैठकर रेड़ियों और न्यूज चैनलों पर धमकी देकर चुप हो जाते
है। पाकिस्तान के सामने हम पिछले सात दशक से दब्बू बने हुए है। मामला बाहरी सुरक्षा की हो या देश की आंतरिक
सुरक्षा की हो, हर मामले को निपटारे से पहले लाभ हानि को परखा जाता है। देश के
भीतर ही देखिये लगभग हर राज्य में कोई ना कोई बड़ी समस्या उबल रही है। उदासीनता या
वोट बैंक के समीकरण की वजह से मामले को दशकों तक लटकाया जाता रहा जिससे बाद में
वही समस्या भयानक आकार ले लिया। देश के भीतर एक दर्जन से ज्यादा संभावित राज्यों
का मामला हो या आतंकवाद हो अशिक्षा हो या कोई भी मामला हो इन सबके लिए सरकार अपनी
जिम्मेदारियों से बच नहीं सकती।
सवाल – इसे जरा और स्पष्ट करे ?
जवाब – देश को आजाद
हुए करीब करीब 70 साल होने वाले है। इस
दौरान 14 दफा लोकसभा चुनाव हुए. देश में करीब 50 साल से भी अधिक समय तक एक ही
पार्टी सत्ता में रही है, इसके बावजूद एक सभ्य मानव समाज और देश के विकास के लिए सबसे जरूरी
पानी बिजली परिवहन सड़क शिक्षा सफाई और
स्वास्थ्य की सुविधाओं का पूरा इंतजाम नहीं किया जा सका है। गांव शहर से
लेकर राजधानी दिल्ली हो या कोई भी महानगर हर जगह मानव जीवन की इन मूलभूत जरूरतों
की कमी बनी हुई है। इंतजाम पर करोड़ों खर्च होने के बाद भी लापरवाही से जनता में सरकार
अपना विश्वास खो चुकी है।. सरकारी स्कूल हो या कॉलेज । सरकारी अस्पताल की बजाय लोग
प्राईवेट अस्पताल में जाना ज्यादा पसंद करते है। बदहाल सरकारी विभागों के निजीकरण होते
ही सूरते हाल बदल जाते हैं और लस्त पस्त विभाग लाभ के साथ साथ सही रास्ते पर आ
जाता है। काम के प्रति लापरवाही का मुख्य कारण एक कर्मचारी के मन से नौकरी के खतरे
का भय का नहीं होना है. जिससे एक कर्मचारी बेखौफ होकर उदंड़ हो जाता है।
सवाल – भारत की
शिक्षा नीति पर आपकी क्या धारणा है ?
जवाब -- यह पूरी तरह दोषपूर्ण अवैज्ञानिक दृष्टिकोण
वाला है ।. शिक्षा को बाजार और समय के साथ जोड़ा नहीं गया है। शिक्षा को केवल
कागजी ज्ञान का माध्यम बना दिया गया है.। शिक्षा में सुधार के नाम पर इसको और बदतर
किया जा रहा है। तकनीकी शिक्षा के नाम पर तकनीक का प्रवचन पिलाया जाता है, बगैर यह
जानने की मनोवैज्ञानिक पहल की कि तकनीकी शिक्षा को एक छात्र द्वारा कितना और किस
स्तर तक ग्रहण किया गया। नौकरी का ढंग इस तरह का है कि एक इंजीनियर मौके पर रहते
हुए काम को अपने सामने निरीक्षण करे, मगर. होता यह है कि एक हेड मिस्त्री या
कारीगर की दक्षता से ही किसी बड़े प्रोजेक्ट की मजबूती का पैमाना तय होता है. एक
तकनीकी शिक्षा प्राप्त अधिकारी केवल कागजों पर पूरी योजना को साकार करता है मगर
उसको वास्तविक आकार नीचे के कारीगर देते है, जो रोजाना के अनुभव से दक्ष या माहिर
होते है। मौजूदा शिक्षा नीति की यह पीड़ाजनक हालत है कि शिक्षा समाप्त होने के बाद
एक छात्र अपना बायोडॉटा बनवाने के लिए भी वह कोई साईबक कैफे के उपर निर्भर होता
है.। शिक्षा में प्रैक्टीकल शिक्षा या अभ्यास की भारी कमी है। इस वजह से एक छात्र
सही मायने में चार पांच साल की पढ़ाई को अपने जीवन और कैरियर में उतार नहीं पाता.
कागजी शिक्षा से नौकरी तो मिल जाती है, मगर वहां पर भी किसी क्लर्क या सहायक
द्वारा काम के मूड को समझ पाता है।
सवाल – इसमें क्या
खराबी है ? कोई भी आदमी किसी काम को समझने पर ही तो बेहतर तरीके से काम
को अंजाम दे सकता है ?
जवाब – क्या आपको इसमें
कोई खराबी नजर नहीं आती। एक डॉक्टर, इंजीनियर या वैज्ञानिक को गहन विषयों के बारे
में सामान्य सी जानकारी कोई टेक्निशियन या कोई हेल्पर बताएगा ? यह हमारी शिक्षा प्रणाली का क्या दोष
नहीं है कि वह पांच छह साल में भी एक छात्र को पारंगत नहीं कर पाता ?
सवाल – देश की
शिक्षा में एकरूपता की भारी कमी है। हर राज्य का अपना अलग शिक्षा बोर्ड या परिषद
है। राष्ट्रीय स्तर पर भी सीबीएसई के अलावा और भी कई बोर्ड या परिषद है। अलग अलग
जातियों खास समुदायों के अपने पाट्यक्रम और शिक्षा संविधान तक है। इस विभिन्नता या
अनेकता को क्या एक दायरे में करने की
जरूरत नहीं लगती ?
जवाब-- देखिए , अगर
किसी देश में शिक्षा के कई बोर्ड या परिषद है तो इसमें को खराबी नहीं है, और ना
किसी को इस पर आपति ही होनी चाहिए। हमारा देश अधिक आबादी वाला एक विशाल और
विभिन्नताओं वाला देश है। हर प्रांत और उसमें रहने वाले लोगों में अपनी संस्कृति,
मान्यता .लोकाचार और भाषा का अलग संस्कार होता
है, जिसे जीवित रखना और संरक्षित करना भी आवश्यक है। इस तरह स्थानीय बोर्ड अकादमी या
शैक्षणिक माध्यमों के जरिये ही इन पर पूरा ध्यान दिया जा सकता है। मगर मेरी
मान्यता है कि देशज संस्कारों को सहेजने के साथ साथ प्रांतीय लोगों के दृष्टिकोण
को राष्ट्रीय और वक्त के साथ उनको भी अवगत
करा. जाने की जरूरत है. एक आधुनिक राष्ट्रीय नजरिये के बिना देश की शिक्षा के स्तर
को एकरूप नहीं किया जा सकता। छात्रों पर ज्यादा निगरानी रखने के लिए अलग अलग बोर्ड
या राज्य शैक्षणिक बोर्डो का होना आवश्यक होने के साथ साथ वे एक दूसरे के लिए
सहायक भी है। मगर पाठ्यक्रमों में एकरूपता और परीक्षा प्रणाली को लेकर भी एक समान
दृष्टि का होना जरूरी है, तभी तो कोई छात्र चाहे मुबंई से हो या किसी दूरदराज
इलाके से हो , इसके बाबजूद अध्ययन का पैमाना एक समान ही होगा। मगर अफसोस की इसको लेकर
देश में अभी तक कोई एक समान नजरिया साफ नहीं हो सका है। सरकारी और निजी स्कूलों के
पाठ्यक्रमों और सांस्कृतिक गतिविधियों में भी एक रूपता का घोर अभाव है। देश के सभी
संस्थानों को इसमें पहल करनी चाहिए।।
सवाल – पहले तो केवल
प्राईवेट स्कूल होते थे मगर आज तो देश में एक दो नहीं सैकड़ों प्राईवेट यूनीवर्सिटी भी खुल चुके है. जहां पर लाखों
छात्र पढ़ाई कर रहे है ?
जवाब -- प्राईवेट यूनीवर्सिटी से कोई आपति नहीं है , मगर सरकार को यूनीवर्सिटी या डीम्ड यूनीवर्सिटी या इसके
समतुल्य मान्यता देते समय पाठ्यक्रमों में एक समान संयोजन की नीति को पालन करने की
शर्तो को अनिवार्यता होनी चाहिए थी। मगर जितने यूनीवर्सिटी हैं उतने ही प्रकार के
प्रयोग और एक दूसरे से बेहतर पाठ्यक्रम को लागू करने की अंधी प्रतियोगिता हो रही
है। यह जाने बगैर कि इसका एक छात्र पर क्या असर पड़ रहा है. छात्रों की परवाह किए
बगैर केवल अपनी इमेज और साख को औरों से बेस्ट करने की नीयत के पीछे एक छात्र को एक
क्लासरूम की बजाय एक शैक्षणिक अनुसंधान के प्रयोगशाला में बैठा दिया जाता है, जहां
पर होने वाले रोजाना के प्रयोगों से एक छात्र किस तरह किस रूप में बाहर निकल रहा
है यह किसा से छिपा नहीं है। एक छात्र को उसकी मौलिकता उसके विचारों और उसके
नजरिये का सम्मान होना चाहिए। उसके आधार पर उसको विकसित करने का मौका नहीं दिया जा
रहा है।
सवाल – इसका कारण आप क्या मान रहे हैं ?
जवाब – दरअसल लगभग
सभी अभिभावकों को अपने बच्चों पर भरोसा नहीं है. उनको निजी स्कूल ट्यूशन या ट्यूटर
पर ज्यादा यकीन होता है। पढाई के अलावा किसी बच्चें की मौलिक प्रतिभा का परिवार
द्वारा अनादर किया जाता है। केवल कागजी ज्ञान या कट पेस्ट की पढ़ाई को ही परिवार
टैलेंट की तरह देखता है। बच्चे की मौलिकता के प्रति सामाजिक और पारिवारिक
दृष्टिकोण में बदलाव की जरूरत है। खेलों को ज्यादातर परिवारों में सबसे बेकार और
बुरा माना जाता है, मगर केवल खेल की वजह से ही दर्जनों खिलाड़ी घर घर के हीरो माने
जा रहे है। पारिवारिक समर्थन के बगैर क्या कोई सचिन या धोनी सामने उभर पाते। मेरी
धारणा है कि केवल खेल ही नहीं हर तरह की विभिन्नता और लीक से अलग चलन को सम्मान और
प्रोत्साहन देना होगा।
सवाल – इसी साल से
दिल्ली यूनीवर्सिटी ने बैचलर कोर्सेज विद ऑनर्स के तीन साल के पाठ्यक्रम को चार
साल का कर दिया है। इसे आप किस तरह देखते है ?
जवाब – यह एक गलत और
बेकार सा फैसला है, जिसे दो चार साल में वापस लेना होगा। इस तरह के बड़े
यूनीवर्सिटी के इस तरह के अवैज्ञानिक और अतार्किक फैसलों से ही शिक्षा में
अंतरविरोध बढ़ता और पनपता है। चार साल के पाठ्यक्रम से छात्रों को केवल एक साल की बर्बादी के अलावा
कुछ और नहीं हासिल होने वाला है. एक तरफ सरकार के पास नौकरियों की कमी है लिहाजा
मुझे तो लग रहा है कि ज्यादा से ज्यादा समय तक पढ़ाई में व्यस्त रखने की यह केवल
एक सरकारी चाल है ,जिसे दिल्ली यूनीवर्सिटी के जरिये लागू किया जा रहा है। एक तरफ
सरकार नौकरियों की उम्र सीमा तो बढ़ा नहीं रही है ? लिहाजा सरकार का यह फैसला लाखों छात्रों के कैरियर को
प्रभावित करने वाला है।
सवाल – डीयू के इस
फैसले के खिलाफ क्या होना चाहिए ?
जवाब – आप देखते रहे
हमलोगों को कुछ करने से ज्यादा काम दो एक साल के अंदर छात्र संगठन और पोलिटिकल
पार्टियां ही कर देंगी। यह समय का तकाजा और मांग है कि इस तरह के बेकार
पाठ्यक्रमों को समाप्त कराने में लोग खड़ा
हो।
सवाल – सरकार से
क्या अपेक्षा रखते है ?
जवाब – सरकार से
क्या उम्मीद करेंगे ? सारा फितूर ही सरकार का करा कराया है।
डीयू चूंकि राजधानी में है लिहाजा सारा हंगामा सरकार अपने सामने ही देखना चाहती
थी। एक तरफ चुनावी फायदे के लिए सरकार
नौकरी की उम्र बढ़ाकर 65 करने पर आमादा है तो दूसरी तरफ देश में करोड़ो बेकार और
बेरोजगार युवक उबल रहे है। सरकार का ध्यान इनकी तरफ नहीं है। सत्ता के मोह से बाहर
निकल कर देश हित के लिए काम करने का समय आ गया है।
सवाल -- चलिए मान
लेते है कि हर जगह गलत और गलत ही हो रहा है, कोई समाधान आपके पास है ?
जवाब – क्यों नहीं।
दोषपूर्ण शिक्षा नीति या प्रणाली से बेकारी अशांति हिंसा आतंकवाद और प्रदूषण की
समस्या सिर उठा चुकी है. इनके सामने सरकार और सरकारी आलाकमानों ने समर्पण सा कर
दिया है। इसको नियोजित तरीके से ही समाधान किया जा सकता है। बेकारी से समाज में
अशांति का माहौल बढ़ता है। . अशंति में हिंसा आंतकवाद और तस्करी बढ़ जाती है। युवावर्ग
को छोटे छोटे साधनों और स्वार्थो के लिए खरीदा जा रहा है। समाज में हर तरफ प्रदूषण
का साम्राज्य है. हर तरह का प्रदूषण का बोलबाला है। यहां पर सबसे अच्छा समाधान है
कि इन तमाम समस्याओं को आपस में मैत्री करा दी जाए। इससे तमाम समस्याओं में एक
समन्वय संतुलन पैदा होगा। समाज में फ्रेणडली इकोलॉजी पनपेगा। देश भर में नर्सरी
बनाए जाए। पौधों की नर्सरी ले समाज में पर्यावरणीय प्रबंधन को लेकर नयी दृष्टि का
विकास होगा। कचरा प्रबंधन को लेकर समाज में नये उधोग का विकास होगा। इस तरह बेकारी
अशांति हिंसा अपराध और लूटमार की बजाय कूड़ा सबके लिए रोजगार और कमाई का साधन बन
जाएगा।इससे जैविक खाद्य बनाया जाएगा और देश भर में एक नए समाज की रूपरेखा प्रकट
होगी। विदेशों में भी कटरा प्रबंधन को लेकर शोध होंगे। ( हंसते हुए ) पाकिस्तान
को यदि इस कचरा प्रबंधन और जैविक खाद्य के बारे में पत्ता चल जाए तो आतंकवाद और
सोने की तस्करी को छोड़कर इसके माध्यम से अपने देश की तकदीर बदलने में लग जाएगी.
सवाल – क्या यह इतना
सरल और आसान लग या दिख रहा है ?
जवाब – यह इतना कठिन
भी नही है। मगर इसके लिए पक्का इरादा दृढ़ निश्चय कड़ी मेहनत और हर स्तर पर इसको
सफल बनाने का जुनून होना चाहिए।
सवाल – क्या आप अपने विचारों और साधनों को लेकर सरकार से कभी वार्ता की है ?
जवाब – एक बार नहीं कई बार, मगर सरकारी प्लानरों और विशेषज्ञों को इन चीजों
में ना कोई दिलचस्पी है और ना ही वे इस तरह के समाधान को लेकर कोई उत्सहित है। देश
की बेकारी से लेकर तमाम ज्वलंत मुद्दों पर भी नौकरशाहों की उदासीनता सबसे बड़ी
कठिनाई बन जाती है।
सवाल – विदेशों में
आपके विचारों और उपायों को लेकर क्या धारणा है ?
जवाब - मैं एक भारतीय हूं, लिहाजा मेरी पहली
जिम्मेदारी और सपना अपने देश के लिए है। विदेशों में तो नवीन विचारों मौलिक उपायों
को गंभीरता से सुना और लिया जाता है। वहां की ब्यूरोक्रेसी और पोलटिशियन को लगता
है कि इससे देश का भला हो सकता है तो त्तत्काल एक कमेटी द्वारा उसका विशेलेषण किया
जाता है और खर्चे से ल्कर अंतिम निराकरण और लाभ घाटे का हिसाब लगाकर मान्यता दी जाती
है , या ज्यादा लाभप्रद ना मानकर उसको रद्द कर दिया जाता दै। इसके बावजूद दोनों ही
हालात में छोटे स्तर पर एक पायलेट प्रोजेक्ट शुरू होता है। पूरी टीम की मेहनत और
सलाह मशविरा के उपरांत चर्चा होती है। उसको ज्यादा लाभप्रद और बजट पर लेकर माथा
पच्ची की जाती है। तब कहीं जाकर उसको देश में लागू किया जाए या लंबित रखा जाए इसका
फैसला किया जाता है। यह सब हमारे देश में संभव नहीं है। हम नयेपन को तरजीह देने की
अपेक्षा पीछे पीछे चलने के रास्ते को ज्यादा आरामदेह मानते है। यही वजह है कि देश
की प्रतिभाएं देश से बाहर जाकर ही अपना सिक्का मनवा पाती है। देश में नाना प्रकार
की दिक्कतों और उदासीनता से जूझने के बाद जब देश का टैलेंट बाहर जाकर नया काम करते
हुए नाम कमाता है तब कहीं जाकर हमारा देश उसकी आरती उतारने और सम्मान देकर बारतीय
होने पर गौरव मान लेती है।देश की प्रतिभाओं ने विदेशों में दाकर हर जगह अपना ड़ंका
बजाया है, और बजा रहे है, मगर देश में उनको तमाम साधनों के ज्यादा समस्याओं से लड़ना
पड़ता है। हमें नकलची बनने की बजाय टैंलेंट को मान सम्मान देना होगा । केवल जुबानी
बयानबाजी या महज औपचारिकता के लिए बयान देने की बजाय सार्थक तरीके से काम करना
होगा।
सवाल – क्या आपको यह
मुमकिन लग रहा है ?
जवाब— नामुमकिन तो
इस संसार में कुछ भी नहीं है, मगर उसके लिए स्वार्थ और दलगत भावना से उपर उठकर देश
समाज और आम नागरिकों के लिए कुछ कर गुजरने की चाहत का होना जरूरी है। हमारे यहां
युवा आ तो रहे हैस मगर नया कुछ करने की बजाय करप्शन में नया नया रिकार्ड बना रहे
है। इस तरह के नैतिक मंद युवाओं से देश का तो कभी भला हो ही नहीं सकता। इसके लिए शिक्षा कार्यप्रणाली
में आमूल परिवर्तन की नए सोच की और देश को एक समय के भीतर टारगेट मानकर काम करने
की जरूरत है। फिर देश में इस समय युवाओं की तादाद काफी है, लिहाजा उनको साथ लेकर
कुछ करना होगा। पर्यावरण, खेती किसान और पैदावार को बचाना होगा। देश की नदियों को
लेकर सरकार को गंभीर होना पड़ेगा, तभी पर्यावरण और देश की कृषि को नया जीवन
मिलेगा। हर राज्य में किसानों की असेम्बली बनानी होगी तथा किसाल और उनकी समस्.ओं
को मुख्यधारा में रखना पड़ेगा। विकास तो मानवीय बनाना होगा, मगर देश में विकास की
नीति ही मानव विरोधी है. पेड़ों पहाड़ों नदियों प्राकृतिक संसाधनों को खत्म करके
हमारे देश में जो विकास का मॉडल है वो पूरी तरह सामाजिक नरसंहार जैसै है. पेयजल
सहित जल जंगल और पर्यावरण की चिंता किए बगैर यह कैसा विकास है जहां पर मानव ही
सुरक्षित ना हो। पर्यावरण शिक्षा से ही धरती माता को बचाया जा सकता है, जिसके लिए युवाओं को आगे आना होगा। विश्व पर्यावरण
महासम्मेलन के आयोजनों को पूरी दुनियां में लगातार करते रहना होगा, तबी इसके प्रति लोगों
में जागरूकत्ता आएगी.
सवाल – आपने दो दो
यूनीवर्सिटी की स्थापना की है । इसकी क्या जरूरत पड़ी और आपके ये यूनीवर्सिटी औरों
से अलग बेहतर और कास किस तरह है ?
जवाब – हमने देखा कि
शिक्षा के नाम पर जो होना चाहिए वो नहीं हो पा रहा है, तभी मैंने द
ग्लोबल ओपन युनिवर्सिटी (नागालैण्ड) तथा इंदिरा गांधी टेक्नोलॉजिकल एंड मेडिकल
साइंसेज यूनिवर्सिटी अरुणाचल प्रदेश की स्थापना की मैं इसका संस्थापक कुलाधिपति हूं। इसमें सैकड़ों वो पाठ्यक्रमों को लागू किया गया
है जो कहीं नहीं शिक्षा का आधार बना है। मैनें शिक्षा को रोजगार और बाजार से जोड़ा
है.। 2100 से ज्यादा पाठ्यक्रमों की मान्यता के लिए मेरी फाईले सरकारी टेबलों पर
रूकी पड़ी है। जिससे सरकार को अपनी शिक्षा में दोशी मान्यताओं से जोड़ने का मौका
मिलेगा।देश की प्राचीनतम 355 दवा रहित चिकित्सा प्रणालियों की मान्यता के लिए मैं सालों
से सरकार से लड़ रहा हूं। मगर मैंने पहले ही कहा था कि हम नवीनती पर विचार करने की
बजाय पीछलग्गू की तरह पुरानी लीक पर ही चलना चाहते है. 355 पैरामेड़िकल चिकित्सा
प्रणाली की मान्यता से सरकार को घाटा तो नहीं है पर करोड़ों लोगों को इसका फायदा
तो मिल सकता है। इसकी पढाई होगी और तमाम साधनों को एक पहचान मिलेगी। इससे लाखो लोग
रोजगार पाएंगे। ये चिकित्सा पद्धति हमारे देश में प्रचलित भी है पर सरकार को इसको
अपना मानकर दावा करना चाहिए। इस पर दुनियां भर में काम हो रहे है और लाखो लोग इसके
इलाजा से ठीक भी हो रहे है। मगर सरकार की उपेक्षा कब टूटेगी ? यही इच्छाशक्ति सरकार और
नौकरशाहों में नहीं है। हमारे देश में हजारों कॉलेजों की कमी है। तमाम तकनीकी संस्तानों को देश के
उधोगों से जोडा जाना चाहिए ताकि वे एक छात्र को तराश कर अपने यहां रोजगार दे और
उनको प्रशिक्षित करने का खर्चा वहन करे। शिक्षा के व्यय को कम किया जा सकता है,
मगर इसके लिए रास्तो निकालने और बनाने होंगे।
सवाल -- शिक्षा में
क्या होना चाहिए ?
जवाब – शिक्षा पर
लॉर्ड मैकाले द्वारा की सांसंस्कृतिक हमले को खत्म करना होगा. देश को बर्बाद और विनाश करने की मैकाले पद्धति को हटाना होगा।
मैकाले ने शिक्षा को औजार देश की संस्कृति पर हमला किया था। हमें बाबूओं वाली
शिक्षा से हटकर एक आधुनिक शिक्षा को पढाई में शामिल करना होगा। .शिक्षा को
सर्वसुलभ करना और बनाना होगा। आज की शिक्षा गरीबों को केवल अंगूठाटेक साक्षर करने
की है। पढ़ाई काफी महंगी हो गयी है, जिसे सबके
लिए बनाना होगा। नबीं तो जिसके पास पैसा है वहीं आज पढ़ और अफसर बन रहाहै। इससे
समाज में असंतुलन की खाई और चौड़ी होगी। सरकार को पहल करनी होगी। हमारे ग्लोबल
यूनीवर्सिटी में 3000 पाठ्यक्रम है.45 पाठ्यक्रम स्पेशल है। ग्रामीणों किसानों को कृषि
पर पढाई का पूरा संचार है। ओपन यूनीवर्सिटी में करीब 50 हजार छात्र है जिनको
पाठ्यक्रम और गाईड के माध्यम से जोडा जाता है।यह एक अनोखा और अनूठा प्रयास है,
जहां पर पैसे से ज्यादा गुण और कौशल को तराशने की चेष्टा की जाती है। पढाई बाजार
की जरूरत है। विदेशों में उसका उपयोग किया
जाता है, जबकि हमारे .हां शिक्षा बाजार और रोजगार से ना जुड़कर व्यक्तिगत
प्रतिष्ठा का आधार माना जाता है। यही वजह है कि पढ़ा लिखा आदमी सामाजिक ना होकर
समाज केलिए सबसे बेकार हो जाता है, क्योंकि उसकी कोई उपयोगिता ही नहीं रह जाती।
मूल्यपरक शिक्षा होने पर ही एक आदमी को अपनी सामाजिक उपयोगिता और दायित्व का भान
होगा।
सवाल – अपने विदेशी अनुभव
पर कोई टिप्पणी ?
जवाब – अब तक मैं एक
सौ से बी ज्यादा देशों में जा चुका हूं , पर वहां पर नवीन विचारों को लेकर समाज और
सरकार में उत्सुकता का भाव है। किसी चीज को त्तत्काल लागू करना और समाज में उसको
लेकर जिज्ञासा का भाव होता है. सरकार की रुचि के चलते लोगों में नवीनता को लेकर
उत्साह होता है, जिसका हमारे यहां कोई मतलब ही नहीं है।
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