शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

क्या है वास्तव में दिल्ली की समस्या ?


Friday, July 05, 2013

06:23:45 PM
delhi-
ब्रजेश कुमार झा
दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने एक समय कहा था कि, ‘उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों की वजह से यहां की समस्याएं बढ़ जाती हैं। और ये लोग वापस जाना भी नहीं चाहते हैं।’ यहां गौर करने पर मालूम पड़ता है कि दिल्ली की मुख्यमंत्री ने कोई नई बात नहीं कही।
भारतीय जनता पार्टी की हेमा मालिनी का विचार भी गौर करने लायक हैं कि मुंबई शहर में आने वाले बाहरी लोगों के कारण ही समस्याएं उत्पन्न होती हैं। शिवसेना की पूरी राजनीति का एक आधार यही है। महाराष्ट्र के कई जगहों पर ऐसी घटनाएं हुई जिससे शंका उत्पन्न होती है। कई ऐसे हुनरमंद लोग भी हैं जो सफाई से अपनी बात कह देते हैं जिससे ‘सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।’ ऐसी प्रवृत्ति का जन्म लेना निश्चय ही भयावह है।
असम में इसकी झलक लोग देख चुके हैं। पुणे की घटना भी एक उदाहरण है। मुंबई महानगर तो इसके लिए बदनाम है ही, जहां बाहर से आने वालों को पीटा जाता है। बेशक दिल्ली इससे बची हुई है। लेकिन, बाहरी लोगों के प्रति विराग यहां काफी दिखता है। ‘जिम्मेदार’ लोगों द्वारा कभी-कभार ऐसे विचार अभिव्यक्त करना विराग को और अधिक बढ़ा देता है।
कुछेक साल पहले सीएसडीएस ने इससे जुड़े मसले पर सर्वेक्षण करवाया था। इसके रिपोर्ट चौंकाने वाले हैं। सर्वेक्षण में दिल्ली के मूल निवासियों या यूं कहें कि देश के अन्य भागों से आकर बस चुके लोगों से एक सवाल किया गया था। सवाल था कि दिल्ली में बाहर से आने वाले लोगों को बसने दिया जाना चाहिए या नहीं? इसके जबाव में साठ प्रतिशत लोगों ने उनके बसने पर अपना एतराज जताया था। चौंतीस प्रतिशत लोगों ने इनके बसने का समर्थन किया। जबकि, छह प्रतिशत लोगों ने चुप्पी साध ली।
वैसे तो चुप्पी को मौन स्वीकृति मान लिया जाता है। फिर भी, हम इस समस्या का खुले दिमाग से विश्लेषण करेंगे। इस सर्वेक्षण में आर्थिक और सामाजिक रूप से बंटे दिल्ली के नये-पुराने बाशिंदों के विचारों को शामिल किया गया था। इससे मालूम हुआ कि बंटवारे के दौरान बाहर से आये लोग नये बसने वालों के प्रति ज्यादा असहनशील हैं। सरकारी और अन्य सुविधाओं को ये लोग अब और साझा करना नहीं चाहते हैं। जबकि, बंटवारे के वक्त जब इनका आना हुआ था तो सबों ने सहिष्णुता की भावना व्यक्त की थी। इन्हें बसाया गया, रोजगार के अवसर उपलब्ध कराये गए थे।
इन्होंने भी पूरी निष्ठा के साथ मेहनत की। आगे इन्हीं लोगों का दिल्ली में सबसे ज्यादा विकास हुआ। अब लोग रोजगार की तलाश में अपनी राजधानी आ रहे हैं तो उनका विरोध हो रहा है। मुख्यमंत्री जैसे जिम्मेदार लोग भी बोल पड़ते हैं। जबकि, यहां आ रहे मजदूरों की स्थिति बंटवारे के समय आये लोगों से अधिक भिन्न नहीं है। अंतर सिर्फ इतना है कि वो ऐतिहासिक त्रासदी के कारण अचानक मजदूर बना दिये गये थे। लेकिन, आज तो व्यवस्था की अकर्मण्यता ने लोगों को मजदूर और पलायनवादी बना दिया है। इसके बावजूद आनेवाले नए लोग पुराने लोगों की आंखों में चुभ रहे हैं। साथ ही उन्हें दिन-ब-दिन पैदा हो रही कठिनाईयों का कारण बताया जा रहा है।
राजधानी दिल्ली में बढ़ रही भीड़ के अनेक कारण हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन और रोजगार जैसी सभी मूलभूत सुविधाएं दिल्ली में अन्य जगहों की तुलना में बेहतर हैं। कई जगहों पर रोजगार के अवसर समाप्त हो चुके हैं। जबकि, दिल्ली में रोजगार सहजता से उपलब्ध है। ऐसे में स्वाभाविक है कि लोग दिल्ली की ओर रुख करेंगे। कौन अपने जीवन को बेहतर बनाना नहीं चाहता है! पहले भी तो लोग कमोबेश इसी चाहत में दिल्ली आते रहे होंगे।
आज अपनी राजधानी आने को लेकर लोगों के मन में उल्लास नहीं है, बल्कि अपने भविष्य को लेकर चिंता ज्यादा है। यदि दिल्ली की तरह अन्य जगहों पर भी समान विकास होता और रोजगार के अवसर उपलब्ध होते तो आज ये स्थितियां नहीं होतीं। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को यह सोचना चाहिए था। आखिर, उनकी पार्टी ने ही देश का पचास साल तक राज-काज चलाया है।
समृद्ध लोग, मध्यम वर्ग, ग्रुप हाउसिंग सोसायटियों और डीडीए फ्लैट में रहने वालों में औसतन 65 प्रतिशत लोग बाहरी लोगों के बसने पर पाबंदी चाहते हैं। बेशक, दिल्ली चारों तरफ फैल रही है। लेकिन, बढ़ती आबादी लोगों की परिधि को निश्चित करती जा रही है। सुविधा के दायरे सिकुड़ते जा रहे हैं। ऐसे में आत्मकेंद्रित, सुविधाभोगी लोगों द्वारा ऐसे विचार व्यक्त करना हमें आश्चर्यचकित नहीं करता है। यहां चिंता का विषय तो गांव वालों द्वारा किया जाने वाला विरोध है। इसके कुछ बुनियादी कारण हैं।
बाहर से आने वाले लोग समृद्ध होते गए। जबकि, दिल्ली तथा उसके आसपास का गरीब तबका वैसी तरक्की नहीं कर पाया। नतीजतन गांव अपने में सिमटता चला गया। अब समृद्ध हो रही कालोनियों का दबाव महसूस कर रहा है। दूसरी तरफ इसमें रहने वाले लोग अपने वास्ते रोजगार के अच्छे साधन नहीं जुटा पा रहे हैं। अब, मजदूरों के हुजूमों का आना इनकी रही-सही उम्मीदों पर भी पानी फेर देता है। 64 प्रतिशत ग्रामीणों द्वारा नवागंतुकों के विरोध की मूल वजह यही है। आखिर ये लोग कहां जाएं जबकि, सभी लोग दिल्ली आ रहे हैं।
इन ग्रामीणों के प्रति हमारे मन में पूरी सहानुभूति होनी चाहिए। क्योंकि, इन लोगों ने हमेशा आने वालों के साथ हुई हिस्सेदारी को स्वीकारा है। अब जबकि, इन्हें अपना भविष्य इन मजदूरों के कारण धूमिल होता दिख रहा है तो घबराहट स्वाभाविक है। लेकिन, एक सुखद आश्चर्य है कि भविष्य हाशिये पर होने के बावजूद इनमें आने वालों के प्रति संवेदना और सहनशीलता अन्य लोगों के मुकाबले अधिक है। इससे स्पष्ट होता है कि हमारे पुराने संस्कार गांवों में अब भी सुरक्षित हैं। जो कुछ खोखलापन, दिखावा और असहिष्णुता है वह नए बसे शहरी माहौल में ही है।
सर्वेक्षण के अनुसार आज नये बसने वालों के खिलाफ दिल्ली में औसतन 60 प्रतिशत लोग हैं। आगे समस्याएं बढेंग़ी, असंतोष फैलेगा, हंगामें होंगे और इसी हंगामें रूपी तंदूरी में कुछ राजनेता अपनी रोटी सेकेंगे। झारखंड, असम, मुंबई आदि जगहों पर इसी असंतोष को देखा जा सकता है जो किसी बहाने की आड़ में फूट पड़ता है। एसे में जरा सी चिंगारी ही काफी हैं जनता के गुस्से को भडकाने के लिए, जरा सी चूक या गलत बयानबाजी का नतीजा विस्फोटक हो सकता हैं। जनप्रतिनिधियों को इस बात का खयाल होना चाहिए। क्योंकि, स्थितियां विकट हो सकती हैं। उस समय माफी मांग कर स्थितियों को बिगड़ने से नहीं रोका जा सकता है। अत: जरूरी है कि राष्ट्रीय दृष्टि स्थापित हो न कि संकीर्ण क्षेत्रीय राजनीति।

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