खुशवंत के पिता की गवाही से फांसी हुई थी भगत सिंह की
खुशवंत सिंह ने शोभा सिंह और उसके साथियों की तुलना पंज प्यारे से की
मशहूर स्तंभकार खुशवंत सिंह ने अपने साप्ताहिक कॉलम (विद मैलिस
टूवार्ड्स वन एंड ऑल) के शीर्षक में मांग की है “ दिल्ली के निर्माताओं
को उनका कर्ज़ वापस लौटाओ ” (Give the builders of New Delhi their due)।
10 जुलाई को हिंदुस्तान टाइम्स में छपे इस लेख के मुताबिक दिल्ली को बनाने
में पांच सिख बिल्डरों का अहम योगदान था। खुशवंत सिंह ने तो उन पांचों की
तुलना `पंज प्यारों’ (गुरु गोविंद सिंह के पांच शिष्यों) तक से कर डाली है
जो कि एक अलग धार्मिक बहस का मुद्दा हो सकता है। अहम सवाल यह है कि आखिर और
कितना ‘ कर्ज़ ’ वापस चाहिए एक देश के गद्दार को?
खुशवंत सिंह ने अपने लेख में बाकी चार बिल्डरों का जिक्र तो किया है,
लेकिन यह नहीं बताया कि आखिर वो ऐसी क्या खास चीज थी जिसने उनके पिता को ‘
आधी दिल्ली का मालिक ’ बना डाला और दूसरे बिल्डरों का कोई अता-पता भी नहीं
रहा। ऐसा क्या रहा कि सिर्फ शोभा सिंह को आर्थिक और राजनीतिक दोनों तरह का
फायदा मिला। इतना ही नहीं, उसके पूरे परिवार का बेड़ा पार कर दिया गया।
शोभा सिंह को अंग्रेजों ने ‘ सर ’ की उपाधि दी थी। खुशवंत सिंह ने खुद
भी लिखा है कि ब्रिटिश सरकार ने उनके पिता को न सिर्फ महत्वपूर्ण ठेके दिए
बल्कि उनका नाम नॉर्थ ब्लॉक में लगे पत्थर पर भी खुदवाया था। इतना ही नहीं,
खुशवंत सिंह के ससुर यानि शोभा सिंह के समधी पहले ऐसे भारतीय थे जिन्हें
सेंट्रल पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट (सीपीडब्ल्यूडी) का प्रमुख बनने का ‘
अवसर ’ प्राप्त हुआ था। कहते हैं ‘ सर ’ शोभा सिंह और उसके परिवार को दो
रुपए प्रति वर्ग गज पर वह जमीन मिली थी जो कनॉट प्लेस के पास है और आज दस
लाख रुपए वर्ग गज पर भी उपलब्ध नहीं है।
सरदार उज्जल सिंह
शोभा सिंह के छोटे भाई उज्जल सिंह, जो पहले से ही राजनीति में सक्रिय
थे, को 1930-31 में लंदन में हुए प्रथम राउंड टेबल कांफ्रेंस और 1931 में
ही हुए द्वितीय राउंड टेबल कांफ्रेंस में बतौर सिख प्रतिनिधि लंदन भी
बुलाया गया। उज्जल सिंह को वाइसरॉय की कंज्युलेटिव कमेटि ऑफ रिफॉर्म में रख
लिया गया था। हालांकि जब सिखों ने कम्युनल अवार्ड का विरोध किया तो
उन्होंने इस कमेटि से इस्तीफा दे दिया था, लेकिन फिर 1937 में उन्हें
संसदीय सचिव बना दिया गया। 1945 में उन्हें ब्रिटिश सरकार ने कनाडा में
यूएन के फूड एंड एग्रीकल्चर कांफ्रेंस में प्रतिनिधि बना कर भेजा और जब
1946 में संविधान बनाने के लिए कॉन्सटीच्युएंट असेंबली बनी तो उसमें भी
शोभा सिंह के इस भाई को शामिल कर लिया गया।
अंग्रेजों ने तो जो किया वह ‘ वफादारी ’ की कीमत थी, लेकिन आजादी के बाद
भी कांग्रेस ने शोभा सिंह के परिवार पर भरपूर मेहरबानी बरपाई। उज्जल सिंह
को न सिर्फ कांग्रेसी विधायक, मंत्री और सांसद बनाया गया बल्कि उन्हें
वित्त आयोग का सदस्य और बाद में पंजाब तथा तमिलनाडु का राज्यपाल भी बनाया
गया। अभी हाल ही में दिल्ली के कस्तूरबा गांधी मार्ग पर मौजूद उनकी 18,000
वर्गफुट की एक कोठी की डील तय हुई तो उसकी कीमत 160 करोड़ आंकी गई थी।
खुशवंत सिंह का जीवन भी कम अमीरी में नहीं बीता। उन्होंने अपने पिता के
बनाए मॉडर्न स्कूल और सेंट स्टीफेंस के बाद लंदन के किंग्स कॉलेज व इनर
टेंपल जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में पढ़ाई की थी, जिसके बाद उन्होंने
लाहौर में वकालत भी की, लेकिन आजादी के बाद दिल्ली आ गए और लेखन तथा
पत्रकारिता शुरु कर दी। उन्होंने सरकारी पत्रिका ‘योजना’ का संपादन किया और
फिर साप्ताहिक पत्रिका इलसट्रेटेड वीकली तथा नैश्नल हेराल्ड और हिंदुस्तान
टाइम्स जैसे अखबारों के ‘सफल’ कहलाने वाले संपादक रहे। कहा जाता है कि
खुशवंत सिंह ने अधिकतर उन्हीं अखबारों का संपादन किया जो कांग्रेस के करीबी
माने जाते थे।
इसके बाद उन्होंने दर्ज़नों किताबें लिखीं जिन्हें कईयों ने सर आंखों पर
बिठाया तो कईयों ने रद्दी की टोकरी के लायक समझा। हालांकि उन किताबों से
भारी रॉयल्टी आती है, लेकिन खर्च करने के मामले में खुशवंत सिंह कंजूस ही
माने जाते रहे हैं। उन्होंने खुद इस बात को स्वीकार किया है कि पांच सितारा
होटल ली मेरीडियन की मालकिन उनकी किताबों के लांच की पार्टी आयोजित करती
हैं जिनके लिए उन्हें कोई खर्च नहीं करना पड़ता। अभी भी उनकी लेखनी के
चाहने वालों की संख्या लाखों में है। लेकिन ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं
है जिनका मानना है कि खुशवंत सिंह का लेखन तिकड़म भरा और भौंडा होता है।
उनके परिवार से जुड़े कई लोग देश की सेवा में फौज़ में भी रहे और
सोसायटी के दूसरे क्षेत्रों में भी। संजय गांधी की करीबी मानी जाने वाली
सोशलाइट रुखसाना सुलताना (फिल्म अभिनेत्री अमृता सिंह की मां) भी खुशवंत
सिंह की रिश्तेदार थीं। कहा जाता है कि संजय गांधी की बदौलत ही खुशवंत सिंह
राज्य सभा के सदस्य चुने गए थे। कुल मिला कर कहा जा सकता है कि उनके
खानदान को उम्मीद से बढ़ कर दौलत और ‘ शोहरत ’ मिली जो किस्मत और अक्लमंदी
की मिली-जुली मिसाल है जो कम ही परिवारों को हासिल हुई। ऐसे में अगर खुशवंत
सिंह किसी और ‘ कर्ज़ ’ की बात करते हैं तो भला किसको आश्चर्य नहीं होगा।
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