( मेरे जीवन में
इडियटों की कोई कमी नहीं है पर कुछ इस तरह के भी होते हैं जिनकी छाप मन में अंकित
हो जाती है। )
अपने पत्रकारीय जीवन में सैकड़ों लोगों से घुलने
मिलने कहकहा लगाने का मौका मिला। यूं तो बहुत सारे अधिकारियों नेताओं से हर तरह के
अनुभव रहे हैं पर दिल्ली रिपोर्टिंग के दौरान तीन इस तरह के लोग रहे हैं जिनसे
मुझे और बढ़ चढ़ कर काम करने की एक प्रेरणा मिली।.यहां पर अपने साथ तीन अधिकारियों
के अनुभव लिख रहा हूं जिससे भले ही तकरार हुए हो पर उनको गलत सबित करने का मुझे
हमेशा बल मिला। इस बार के मेरे अधिकारियों में हैं दिल्ली पंचायत निदेशक , दिल्ली मौसम विभाग के निदेशक और दिल्ली
पुलिस के सहायक आयुक्त (अलीपुपर/कल्याणपुरी)
मैं मीडिया की परवाह नहीं करता
।
दिल्ली में पांच
ब्लॉक होते थे। जिनके अंदर लगभग 200गंव आते हैं। (यूं तो दिल्ली में 364 गांवों का
इतिहास रहा है, मगर विकास की आंधी में कुछ गांव पूरी तरह खत्म हो गए तो कुछ केवल
डीटीसी बस स्टॉप के नामों में सिमट कर रह गए। हर साल इन गांवों के नाम पर एक हजार करोड़ रूपयों की बंदरबॉट होती है और
फाईलों में ही अनगिनत काम पूरा हो जाते हैं। खुद गांव से होने के नाते मेरे मन में
गांवो को लेकर अजीब तरह का लगाव और आर्कषण रहा है। यह बात 1995 की है। मोरी गेट
कोर्च में मैं अपने एक मित्र मेद सिंह के पास बैठा था। मेद डी मुझे आज तक बबल सेठ
ही कहते है। उनसे गांवों की बदहाली और ग्राम सभा
की सैकड़ों एकड़
जमीनों पर अवैध कब्जें की खबरें भी मुझे मिलती रहती थी। मेद सिंह इसी मामले के
वकील थे। उन्होने मुझे मोरी गेट के उपरी तल पर बने पंचायत निदेशक से जाकर मिलने की सलाह दी।
मैं भी उस समय खाली
था, तो पंचायत निदेशक डी.आर.टम्टा के दफ्तर के बाहर था। कार्ड अंदर भेजा तो अगले
ही पल मुझे बुला भी लिया। सामान्य शिष्टाचार और परिचय के बाद जब मैने बातचीत शुरू की। हां इस बीच निदेशक टम्टा ने
चाय का आदेश भी दे दिया था। मेरे कार्ड को लेकर एकदम दार्शनिक अंदाज में टम्टा ने
कहा मैं किसी मीडिया की परवाह नहीं करता । मेरे नाम को कार्ड पर देखकर फिर टम्टा
बोले आपका नाम तो बहुत सुदंर और अलग है, पर आपके मन में जो आए बिना पूछे लिख सकते
है। निदेशक की बेबाकी और नीडरता को देखकर मैं चकित सा था। एकदम आपको सबकुछ लिखने
की छूट मैं दे रहा हूं अनामी । जो मन में आए लिख देना । जरा मैं भी देखूं कि कौन
मीडिया वाला कितना लिख सकता है। निदेशक के तेवर को देखकर मैने भी अपनी कॉपी किताब
बंद कर ली। मैने टम्टा से कहा कि यह बहुत बड़ा चैलेंज दे रहे हो । इस पर लगभग
बौखलाते
हुए कहा कि मैं नहीं
डरता। मैने फिर कहा कि इतना साहस तो मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा भी मीडिया के
सामने नहीं कर सकते। इस पर एक गाली निकालते हुए टम्टा ने कहा मैं इन मादर....की
परवाह ही नहीं करता और मुझे कौन सा इलेक्शन लड़ना है। अपनी सरकारी नौकरी है जिसे
कोई खा नहीं सकता । और ये नेत तो पांच साल बाद फिर सड़क छाप ही रहेंगे। पंचायत
निदेशक की बात मेरे लिए एकदम खुला चैलेंज
सा था। मैने उनकी साफगोई और हिम्मत की दाद
दी मगर यह भी आगाह किया इस बार आपका पाला अनामी से हैं मैं भी आपको मीडिया की ताकत
दिखाकर गुमान न तोड़ा तो आप भी याद करोगे। इस बीच चाय भी आ गयी। इस प्रकरण को बंद
करने के नाम पर टम्टा बोले छोडो ये सब तो कल की बातें हैं कि क्या होगा, अभी तो आप
मेरे साथ लीजिए। अपने बैग को संभाल कर मैं खड़ा हो गय। मेरे खड़ा होने से वे दंग
रह गए और कहा प्लीज टी। मैने कहा टम्टा जी अब कैसी चाय?
मुझे तो मीडिया की लाज रखनी है। एकदम गांठ बांध ले कि मैं भी बहुतों के बीच आपकी
नाक नहीं काटी तो उसी दिन ई पत्रकारिता छोड़कर चाय बेचना चालू कर दूंगा। पर याद
रखना। बात मीठे गरम तेवरों के साथ खत्म हो गयी। निदेशक टम्टा ने बैठे बैठे ही अपना
हाथ आगे कर दिया। मैने तुरंत हंसते हुए कहा कि मै बैठे हुए लोगों से हाथ नहीं
मिलाता या तो खड़ा हो नहीं तो अपना चैलेंज है ही।
तब कहीं जाकर टम्टा ने अपनी कुर्सी छोड़ी और हाथ मिलाया। कमरे से बाहर निकल
मैं मोरीगेट कोर्ट की तरफ चल पड़ा
मैं एक बार फिर अपने
मित्र मेद सिंह के पास था। उसने चहक कर कहा हो गयी बात। मैने टम्टा से हुई बात का पूरा ब्यौरा सुना
दिया। मैने कहा मेद भाई अब तुम्हारे छोटे भी की इज्जत तेरे हाथ में हैं । खड़ा
होकर मेरे को गले से लगाते हुए मेद सिंह ने कहा बबल सेठ अरे चिंता किस बात की।
हमलोग मिलकर उसको सूर्पनखा बनाएंगे। तीन
चार स्टोरी के फौरन दस्तावेज और कॉपी निकाल कर दिय। जिसमें पंचो और ग्रामप्रधानो
द्वारा ग्राम सभा की सरकरी जमीन बेचने का मामल था। इसी मीटिंग में तय हुआ कि
सोमवार और शुक्रवार को इसी कोर्ट में हर सप्ताह मिलेंगे और टम्टा का चीरहरण
करेंगे। और फिर जो धुंआधार खबरों की ऐसी रेल चली कि किसी किसी दिन तो ग्राससभा की
गड़बड़ियों की तीन तीन खबर छपने लगी। पंचायतों की लापरवाही और ग्रामप्रधानों और
पंचों के कारनामों घोटाले की झड़ी लगा दी। सभी खबरो के अंत में मैं यह जरूर लिखता कि
पूछे जाने पर पंचायत निदेशक ( नाम जरूर देता था) ने अनभिज्ञता प्रकट की या कभी कोई
टिप्पणी करने से इंकार किया या फिर किसी किसी खबर में यह भी लिख देता था कि इस मामले की जांच हो
रही है। उधर पंचायत निदेशालय में आग लगी थी। विकास मंत्री और कई बार मुख्यमंत्री
साहिव सिंह वर्मा ने टम्टा से सफाई मांगी, जवाब तलब भी किया। मगर निसंदेह टम्टा ने
कभी भी फोन करके खबरों को रोकने की बात नहीं की।
इसी बीच 1996 में
लोकसभा चुनाव हुआ। भाजपा के छह उम्मीदवार छह संसदीय क्षेत्रों से चुनाव लड़ रहे थे
और बाहरी दिल्ली संसदीय क्षेत्र से वरिष्ठ नेता कृष्ण लाल शर्मा के लिए पूरी
पार्टी लगी थी। बाहरी दिल्ली से ही आने वाले मुख्यमंत्री की भी इससे लाज जुड़ी थी।
एक लाख 98 हजार वोट से कांग्रेस के दिग्गज सज्जन कुमार को पराजित किया । जीत की
खुशी में मुख्यमंत्री ने तमाम पत्रकारों को पार्टी दी थी। मैं मुख्यमंत्री के पास
ही बैठा था कि एकाएक पंचायत निदेशक टम्टा कहीं से प्रकट हुए और अपना सिर
मुख्यमंत्री की गोद में छिपाकर सुबकने लगे। एकाएक इतने सीनियर अधिकारी के रोने से
मुख्यमंत्री भी अवाक रह गए और टम्टा को सांत्वना देते हुए जिज्ञासा प्रकट की।
टम्टा ने मेरी तरफ संकेत किया और बोले मुझे इस भूत से बचाइए। ये न मुझसे बात करते
हैं और कोई बात सुनते हैं और मेरा नाम दे देकर कही का नहीं रहने दिया है। मैं भी
तुरंत खड़ा हुआ और जोश में कहा कि झूठा मुझे तो जूते निकल कर मारना चहिए पर मैं
सीएम का लिहाज कर रहा हूं। मै सीएम को कहा ये साला तो आपकी मां को गाली दिया था।
पुछिए क्या मैं झूठ बोल रहा हूं। इसने
मुझे खुला चैलेंज दिया था कि मैं मीडिया की परवाह नहीं करता जो मन मे आए लिखते
रहे। मेरा प्रवचन जारी रहा और इसके चैम्बर में ही मैने कहा था कि यदि मीडिया की
लाज नहीं रख सका तो पत्रकारिता छोड़कर चाय की दुकान लगा लूंग। टम्टा के सामने आकर मैने पूछा बात हुई थी न ।
सुबकते हुए टम्टा चेहरा लटकाए खामोश खड़ा रहा। तब सीएम वर्मा ने उससे कहा जरूर
तेरी गलती होगी मैं अनामी को सालों से जानता हूं वो बिना आग लगे इतना बौखला ही
नहीं सकता। पार्टी का खुशनुमा माहौल फिर सामान्य सा हो चला था। मायूष खड़े ट्म्टा
के पास मैं खुद गया और कहा कि चलो यार जब चैलेंज ही खत्म हो गयी तो फिर शिकवे गिले
भी छोड़ो। मेरे अनुरोध के बाद भी वे वहीं खड़े रहे तो मै भी टम्टा से अलग होकर
पार्टी और अपने दोस्तों में खो गया। बाद में जब मुझे अखबार में परिवहन मंत्रालय दी
गयी तो मैं संभवत अप्रैल 2003 में एक दिन दिल्ली परिवहन निगम के मुख्यालय में गया।
सामने डी. आर टम्टा का बोर्ड टंगा था । मैने मिलने की कोई पहल नहीं की,। उनका पहले
ही ट्रांसफर हो चुका था। अगली दफा जाने पर पर मालूम चला कि वे सचिवलय में चले गए
हैं
2
अंत में मिलने की
चाहत
दिल्ली के मौसम
विभाग के निदेशक का नाम सतीश चंद्र गुप्ता था। मेरे पास मौसम विभाग भी होत था।
दिल्ली में कई मौसम विज्ञानी दोस्त उपनिदेशक
बनकर देहरादून और मसूरी में मौसम विभाग के
निदेशक बन गए तो मुझे फोन करके बतया कि बातें किया करो अनामी जी मैं 48 घंटा पहले ही
दिली के मौसम का हाल बताया करूंगा। सबों
ने यही कहा कि फोन आपको करना होगा ताकि याद आ जाए। खैर इनलोगों से बड़ी मदद ली और
दिल्ली के मौसम को हमेशा दो एक दिन पहले रखा। पर मैं इस समय श्री सतीशचंद्र गुप्ता पर बात कर रहा हूं। लगभग
तीन साल तक संवाद का सिलसिला जारी रहा। श्री गुप्ता से बिना मुलाकात के बिना ही
रोजाना मौसम को लेकर बातें होती रहती थी, लिहाजा केवल चेहरा देखने के लिए अब कौन
मौसम विभाग जाए। हमारी बातचीत का क्रम इस तरह परवान पकड़ा कि रात बेरात कभी सुबह
या दोपहर में घर हो या दफ्तर एक एक दिन में कई कई बार बात होती थी। और कमाल कि फोन
उठाकर हलो या कौन है पूछने की बजाय सबसे पहले कहते हां अनामी बोलो। और इसके बाद वे
धाराप्रवाह बोलते बताते । मौसम के बारे में मैं भी काफी कुछ जान गय था लिहाजा
गुप्ता जी के संकेत देने या कोई मौसम की शब्दावली के किसी शब्द के इस्तेमाल का
अर्थ जानता था। बीच में नो रोक टोक। इस
तरह 5-7 मिनट में वे एक ही साथ कई खबर बता जाते थे। जिसे मैं अलग अलग मूड य मौसम
के अनुकूल प्रतिकूल करके कई खबर बना देता था। मेरी खबर वे रोजना अपने दफ्तर में
पढते थे और उन्होने यह टिप्पणी दर्जनों बार की होगी कि मेरी बातों का जितना सटीक
विश्लेषण करके खबर लिखते हो वो सबसे अलग होता है। उनकी सराहना पर मैं हमेशा यही
कहता था कि खबर लिखते समय आपकी कही हुई बात याद आ जाती है इसलिए ही सावधन होकर
लिखता हूं। बिना मिले हमारा प्रेम और लगाव
बरकरार था। फोन उठाते ही नाम लेने पर मैं अक्सर
पूछता था कि यह आप कैसे जान जाते
हैं कि मेरा फोन है। इस पर वे हंस पड़ते
फिर भी मेरी हैरानी बनी रहती। कभी कभी तो घर आकर केवल जांचने के लिए भी रात 11 के
बाद फोन कर देता था। तब भी वही जवाब कैसे हो अनामी अभी मौसम शांत है या जैसा होता
था बताकर हंसते हुए फोन रख देते।
एक दो बार मैने उनसे
पूछा भी मेरे इतने फोन करने या समय असमय लगातार तंग करने पर गुस्सा नहीं आता या
नहीं लगता कि परेशान कर रहा हूं। इस पर वे हंसते हुए कहते कि जब तुम्हारा फोन नहीं
आता है तब गुस्सा भी आता है और चिंता भी होने लगती है। सही कहो तो तुमसे बात करने
का चस्का सा लग गया है और बिन बात किए लगता है कि कहीं कुछ कमी सी है। उनकी बात
सुनकर मैं भी हंसते हुए कहा कि सही मायने में मुझे भी बिन बात किए मन नहीं भरता
है। और फिर हम दोनों फोन पर जोर से खिलखिला उठते। ।
एक दिन दोपहर में
उनका फोन आया। अमूमन फोन मैं ही करता था।
वे बोले अनामी तुम्हारी उम्र कितनी है। यह 2003 की बात है। उनके सवाल पर एक
बार मैं हंसने लगा क्या सवाल है सर । तो वे बोले अनामी मैं 12 दिन के बाद रिटायर होने वाला हूं। कल रात
को तेरे बारे मे सोच रहा था कि पूरी नौकरी में तुम इकलौते हो जिससे मिले बगैर ही
तीन साल तक बात करता रहा था। तुमने तो बात करने का चस्का लगा दिया। मैंने अगले ही
दिन आने का वादा किया तो उन्होने कहा तुम्हारा लंच कल मेरे साथ रहा। श्री गुप्ता
ने कहा मैं भी बहुत उतावला हूं अनामी तुम्हें देखने को कि तुम कैसे हो जिसका मैं
आदी हूं। उनकी बातें सुनकर मै हंस पड़ा सर तब तो आपको निराश होना पड़ेगा क्योंकि
आपकी लैला या शीरी तो एकदम सामान्य साधारण सा चेहरा मोहरा वाला है। मेरी बातें
सुनकर उन्होने कहा चाहें जितना भी साधारण हो मगर मेरी लैला निसंदेह सबसे अलग है कि
रिटायर होने वाले को भी अपना मजनू बना दिया है । मैंने हंसते हुए कहा हाय मेरे
मजनू । और खिलखिलाते हुए हम दोनों ने फोन रख दी।
अगले दिन मैं एकदम
12 बजे उनके कमरे के बाहर था। कार्ड भेजने पर वे खुद बाहर निकले और संबोधित किय अनामी। मैं सामने ही था और हंसते हुए कहा आप बाहर आए
लैला खुश हुई। और हंसते हुए मैं साथ में अंदर चला गया। बीच में खाना भी खाए और चाय
कॉफी के कई दौर के बीच लगभग चार घंटे तक हजार तरह की बातें हुई। उन्होने कई बार
इसका अफसोस जताया कि तुमसे मुलाकात ही तब हो रही है जब मैं जाने वाला हूं यार। तीन
साल पहले मिले होते तो अब तक पचास बार मिल गए होते। मैने चुस्की ली यह तो आपकी
नहीं भाभी की किस्मत थी नहीं तो लैला मजनू के चक्कर में वो परेशान रहती।.. और मुझे
बार बार घर जाकर बताना पड़ता कि उनकी लैला
कौन है ? फिर हमलोग खिलखिला पड़े। मैने कहा तो अब इजाजत
है ? खड़े होते हुए पूछा कैसे आए हो ?
मैने कहा कि आया तो बस से था मगर अभी ऑटो कर लूंगा। उन्होने तुरंत कहा नहीं मेरी लैला मेरी सरकारी गाडी से
जाएगी। और अंत में मैने उनके पैर छूए । वे
एकदम निहाल से हो गए। अंत में मैने भी उनकी मदद,प्रोत्साहनऔर प्यार के लिए आभार
जताया। उन्होने मुझे गले से लगा लिय। ऐसे मौके पर भला मैं कहां चूकने वाला उनकी
बांहों में ही पूछा कि बांहों में कौन हैं लैला या अनामी ?
यह सुनते ही बांहों की जकड़ सख्त करते हुए कहा दोनों । और अनमने मन से हमलोग अलग
हुए। कई माह तक तो बीच में बात होती रही, फिर एक अंतराल आ गया। सरकारी फ्लैट से
अलग होने पर फोन नंबर भी बदल गए हमेशा की तरह ही पुराना से पुराना रिश्ता भी एक
समय के बाद अर्थहीन हो जाता है। मैं यह तो नहीं जानता कि श्री गुप्ताजी अब कहां पर
हैं मगर मेरी यह प्रार्थना है कि वे हमेशा खुश और अच्छी सेहत के साथ रहे।
3
पुलिसिया दोस्ती
यह संस्मरण एक
पुलिसिया की है। दुख की तो यह बात है कि इतना जिंदादिल इंसान मोतीराम गोठवाल अब
जीवित नहीं है। 50 से भी कम उम्र में संसार छोड़ने वाले गोठवाल की पत्नी की भी
बहुत याद आती है । हालांकि मैं उनसे कभी मिला नहीं मगर मेरी आवाज सुनते ही सबसे
पहले भईया बोलनी और गोठवाल जी कहं पर है यह बताते हुए वहां का नंबर दे देती थी । बात
1994 की है। दैनिक अखबार राष्ट्रीय सहारा में नार्थ ईस्ट का क्राईम भी मैं ही
देखता था। दो चार बार गोठवाल से बात हुई तो उन्होने कहा कभी अलीपुर आओ यार गप्प भी
करेंगे और क्राईम की ऐसी खबरे दूंगा जो किसी के पास नहीं होगी। एक दो दिन में ही
उसने गाड़ी भेज दी तो मैं अपने पुलिसिया मित्र से अलीपुर निकल पड़ा। बहुत ही
गरमजोसी के साथ मेल मिलाप हुआ दिल्ली पुलिस में सहायक पुलिस आयुक्त( एसीपी) अलीपुर
के प्यार जोश और मिलने की लालसा के चलते हम गहरे दोस्त से बन गए। बिना काम के भी
केवल हाल चाल जानने के लिए हमलोग आपस में बात कर ही लेते थे।
मगर अलीपुर एसीपी और
किसी पेपर का क्राईम रिपोर्टर के बीच तो आंख मिचौली वाला नाता होता है। जरूरत बे जरूरत
बात करने और संपंर्क मे तो रहना ही होता है। लगभग एक दर्जन बार ऐसा हुआ कि जब मुझे गोठवाल से रात में बात करनी हो
तो वे घऱ पर नहीं होते। ( उस समय तक मोबइल की पैदाईश नहीं हुई ती। मैं भाभी से
पूछता कहां है अपना हीरो? भाभी ने केवल एक बार मुझसे कहा था कि भैय्या मैं
आपको हमेशा बता दिया करूंगी कि हीरो कहां पर हैं, मगर आपको कभी भी यह नहीं बताना
होगा कि नंबर किसने दिया है । श्रीमती
गोठवाल कहें य भाभी या बहन मैने पूछा कि क्या आपको मेरे उपर विश्वास है ? आपने
तो मुझे देखा तक नही है कि मैं कैसा हूं ? इस पर उन्होने कहा कि विश्वास होने पर आदमी को
देखने की जरूरत नहीं पड़ती आप एक नेक इंसान है यही मेरे अटल विश्वास का संबल है।
मैं एक इतने सीनियर पुलिस अधिकारी की बीबी की बातें सुनकर दंग रह गया।
करीब दो साल में ऐसे
सात आठ बार मौके आए जब रात में मैं बात करना चाह रहा था और वे घर या दफ्त कहीं
नहीं थे। तो अंतत एक ही शरण था। फोन करते ही वे कहां हैं और वहां का नंबर क्या है
सब मेरे पास होता। और जब मैने उनके घर पर फोन करके गोठवाल के बारे में पूछता तो बात
हो जाती थी और एक दो संयोग पर ध्यान नहीं दिया मगर बाद में फोन आने पर गोठवाल एकदम
चौक जाता और सबसे पहले यही पूछता कि नंबर कहां से पाए कि मैं यहां पर हूं। बाद मे
जब कभी गोठवाल कहीं अपने घर से बाहर किसी मित्र के यहां बैठे हो और मैने फोन कर
दिया तो वे सीधे लाईन पर आने की बजाय यह पूछने को कहते कि कहीं कोई अनामी शरण का
तो फोन नहीं है ? जब मैं इधर से कहता कि हां अनामी तो बेचैन होकर
गोठवाल मेरी बात सुने बगैर ही यही पूछते कि तुमको यह कैसे पता कि मैं यहां पर हूं।
मैं बार बार हंसकर टाल देता। मगर उस दिन गोठवाल तैश में थे नहीं अनामी फोन पर बता
न। मैंने हंसते हुए कहा कि तेरे भीतर मैने एक ट्रांसमीटर एडजस्ट करा दिया है जिसमें जहं कहीं
भी रहो वहां का फोन नंबर और शक्ल दिखने लगती है। मेरी बातों से खीझते हुए गोठवाल
फिर पूछते बोलो अनामी क्या काम है। एक बार
वो कहीं बेहद गोपनीय बैठक में था और बीच में ही मेरा फोन टपक गया। इस बार तैश में
आकर गोठवाल चीख पड़ा। अनामी यार तुम्हें खबरिया का नाम बताना होगा साला है कौन भाई
जो मेरी जासूसी करता है और तुम तक नंबर आ जाता है। इस बार वो गुस्से में था तो बात
नहीं हो सकी।
1995 में किसी एक
दिन मैं अशोक विहार में नार्थ इस्ट जिले के पुलिस कमीश्नर करनैल सिंह के कमरे में
घुसा ही था कि गोठवाल पहले से मौजूद थे। थोडी देर में काम निपटने के बाद मैं बाहर
निकलने लगा तो गोठवाल ने कहा कि मैं भी चल रहा हूं बस मेरा इंतजार करना। दो चार
मिनट में ही गोठवाल बाहर निकले और जबरन मुझे अपनी गाड़ी में चलने को कहा। मैने
हंसकर पूछा कहीं थर्ड डिग्री का तो इस्तेमाल नहीं करना। मेरी बातों को सुनकर वो
केवल हंसता रहा। जब अलीपुर मै उसके कमरे में बैठा तो वह एकदम पुलिसिय अंदाज
में बोला अनामी तुम्हें आज नाम बताना होगा
कि तुम्हें यह नंबर कौन देता है कि मैं कहं पर हूं। मैने भी आगाह किया कि पुलिसिया
धौंस, पर तो कुछ नहीं बताउंगा और पुलिस की तरह नहीं एकदम जो याराना है उसी लय में
बात करो। गोठवाल ने फिर पूछा तो मैने कहा कि एक बार बताया था न कि तेरे अंदर एक
ट्रांसमीटर फिट है। इस पर वो उखड़ गया। कमाल है यार एक तरफ दोस्त भी कहता है और
मेरी जासूसी भी करता है। मैंने हंसते हुए कहा चोर की दाढी में तिनका। साले किन
चोरों से मिलने जाते हो कि हवा खराब है। मेरी बात से वो परेशान होकर कुर्सी पर बैठ
गया। मैने बात मोड़ने के लिए पूछा कि चाय बगैरह पीलाओगे तो पीला नहीं तो वापस
दफ्तर भिजवाइए। मेरी बात सुनते ही उसने कहा कि चलो। गाड़ी में जब हमलोग बैठ गए तो
मैने पूछ किधर ? इस पर गोठवाल ने कहा चलो घर चलते हैं वहीं चाय
भी पीएंगैं और उधर से ही तुमको भिजवा भी देंगे। घर क नाम सुनते ही मैं अंदर से थोडा
कंपित हुआ कि कहीं गोठवाल को अपनी बीबी पर तो शक नहीं है कि वो नंबर देती हो। घर
का नाम सुनते ही मैं खुश हो गया। उसने मेरे चेहरे के भाव को देखर ही कहा क्या बात
है। मैने फौरन कहा कि गुस्से में लाल पीला टमाटर हो रहे गोठवाल को देखने तो भला है
कि भाभी को देखूंगा। मैने चुटकी ली गोठवाल भईया कल तुम इस आरोप में पकड़ ना लेना
कि साले मेरी बीबी से बात करता है। मेरी इस चुहल पर गोठवाल के चेहरे पर मुस्कान आ
गयी। मगर एक बार फिर उसने पूछा कि यार लेकिन तुमको यह पता कैसे चलता है कि कहां पर
हूं। मैने जोर से गोठवाल को कह कि गाड़ी रोको अगर मेरे उपर विश्वास है तो बात करो
नहीं तो बार बार बच्चों वाली लालीपॉप देने के नाम पर एक ही सवाल को बार बार दोहरा
रहे हो । अभी घर ले जा रहे हो बाद में पता नहीं क्या क्या इल्जाम लगा दो। मैं नहीं
जाता यार गाड़ी रूकवा दो। मेरे यह कहने पर वो एकदम ठंडा सा हो गया। तुरंत माफी
मंगने लगा। मैने कहा माफी की जरूरत नहीं है यर पर अब मैं कभी फोन ही नहीं करूंगा।
बिना बात किए क्य तेरी तरफ से टिप्पणी डालना मैं नहीं जानता। पर जब हमलोग में विश्वस
ही नहीं है तो चाय फाय क्या। मैं घर पर चलकर भी नहीं लूंगा ।
खैर घर के पास ही यह तकरर हो रही थी लिहाजा घर
तो जाना ही पडा। उसने अपनी पत्नी से मेरी मुलाकात कराई। मैं भी अनजान सा देखकर
खामोश रह। दफ्तर लौटते समय गोठवाल ने फिर माफी मांगी। तब मैने कहा कि अब मैं फोन
नहीं करूंगा जब आपका गुस्सा शांत हो जाए तो फोन करना नहीं तो यह हमलोग की अंतिम
भेट है। कई माह के बाद गोठवाल का फोन आया
और फिर से बात चालू करने का आग्रह किया। मैने कहा कि अब तो मेरे पास क्राईम रहा
नहीं मगर जरूरत पड़ी तो जरूर बात होगी। दो
तीन साल के बाद एक बार फिर गोटवाल का फोन आया कहां हो अनामी भाई। बोली में पुलिसिय
रौब और धमक आ गयी थी। एकदम पुलिसिया प्यार दिखाते हुए बोला साले कहां रहे सालो साल
। यही दोस्ती करता है। अब मैं कल्याणपुरी का एसीपी बनकर आया हूं। तेरे कार्ड में
नंबर देखा तो यार यह तो तेरा ही इलाका है। एकदम चहकते हुए खुशी जाहिर कर रहा था। मैने पूछा कहां है । तपाक
से गोठवाल ने कहा दफ्तर में । मैं उसके पास आधे घंटे मे पहुंच गया। कमरे में घुसते
ही गोठवाल ने मुझे अपनी बांहो में दबोच लिया। अभी तक नाराज हो अनामी भाई, मैने हंसते हुए कहा नहीं नाराज क्यों रहूंग।
गोठवाल मुझे बांहों मे लिए लिए ही बीच के समय मे शक तकरार के लिए माफी मांगी। मैने
गोठवाल से कहा कि देख लेना तेरी बांहों में यदि मेरा दम टूट गया न तो सच मान मेरी
बीबी तुमसे जरूर नाराज हो जएगी। फिर एक ठहाके के साथ मैं बंधन मुक्त हुआ।
कल्याणपुरी में रहते
हुए उनसे कई बार मुलाकात होती रही। जब भी घर चलने को कह तो उसने हमेशा कहा कि नहीं
पत्नी को साथ लेकर ही आउंगा। मगर काल की क्रूर नियति और संयोग के बीच इतना निश्छल और
प्यार सा मेरा एक पुलिसिया दोस्त भगवान को रास आ गया। उसके निधन की खबर भी मुझे
बहुत बाद में किसी पुलिस वाले से मिली। मैं तो उसके घर जाकर अपनी शोक संवेदना भी जाहिर नहीं
कर सका।
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