गुरुवार, 1 सितंबर 2016

सोनागाछी की मिट्टी से क्यों बनती है मूर्तियां







डॉ. विशाखा बिस्सा

कोलकाता। । भारत उत्सवों का देश है। यहां के हर प्रांत के अपने पर्व और त्योहार है। दुर्गा पूजा एक ऐसा पर्व है, जो संपूर्ण बंगालवासियों के मन-मस्तिष्क में ऊर्जा और ताजगी भर देता है। अठारहवीं सदी में हमारा देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था, तब भी जबलपुर में दुर्गा पूजा का आयोजन होता था।

महालया के दिन से ही चंडीपाठ का मंत्र घर-घर में सुनाई देता है। घर में टीवी होने पर भी रेडियो पर चंडी पाठ सुनने की प्रथा को आज भी कोलकाता में तोड़ा नहीं गया है। चंडी पाठ में महिषासुर मर्दिनी की कथा एक मधुर और लयबद्ध सुर में संस्कृत और बंगाल में मंत्रोच्चार के साथ सुनाते हैं बीरेंद्र कृष्ण भद्र। आज वो तो जीवित नही हैं, मगर उनकी आवाज अमर है।

नवरात्र चाहे जितने भी पवित्र तरीके से क्यों न मनाए जाते हों, लेकिन इस अवसर पर देवी की मूर्तियां बनाने में जिस खास तरह की मिट्टी का इस्तेमाल होता है, वह मिट्टी सोनागाछी से आती है। सोनागाछी कोलकाता का रेडलाइट इलाका है।

Durga Idols prepared

दुर्गा मां ने अपनी भक्त वेश्या को वरदान दिया था कि तुम्हारे हाथ से दी हुई गंगा की चिकनी मिट्टी से ही प्रतिमा बनेगी। उन्होंने उस भक्त को सामाजिक तिरस्कार से बचाने के लिए ऐसा किया। तभी से सोनागाछी की मिट्टी से देवी की प्रतिमा बनाने की परम्परा शुरू हो गई।

महालया के दिन ही दुर्गा मां की अधूरी गढ़ी प्रतिमा पर आंखें बनाई जाती हैं, जिसे चक्षु-दान कहते हैं। इस दिन लोग अपने मृत संबंधियों को तर्पण अर्पित करते हैं और उसके बाद ही शुरू हो जाता है देवी पक्ष। दुर्गा अपने पति शिव को कैलाश में ही छोड़ गणेेश, कार्तिकेय, लक्ष्मी और सरस्वती के साथ दस दिनों के लिए अपने पीहर आती है।

यहां लोग ग्रह-नक्षत्र देखकर यह पता लगाते हैं कि दुर्गा मां किस पर सवार होकर आ रही हैं। अगर हाथी पर सवार होकर आती हैं तो खेती, मनुष्य के जीवन में, पृथ्वी पर चारों ओर खुशहाली होती है, घोड़े पर बैठकर आती है तो पृथ्वी पर सूखा पड़ता है और बारिश नहीं आती।

मां अगर झूले पर बैठकर आती हैं तो चारों ओर बीमारियां फैलती हैं और यदि देवी नौका पर बैठकर आती हैं तो माना जाता है कि बारिश अच्छी होगी, फसल अच्छी होगी, नए साल का आगमन भी अच्छा होगा, पृथ्वी पर चारों ओर खुशहाली छा जाएगी। इस बार के नवरात्र के बारे में बंगाल के लोगों का मानना है कि देवी घोड़े पर बैठकर आ रही हैं।

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छठे दिन (षष्ठी) दुर्गा की प्रतिमा को पांडाल तक लाया जाता है। बंगाल का कुमारटुली प्रसिद्ध है दुर्गा की सुंदर प्रतिमाएं गढ़ने के लिए, जहां मिट्टी से ये मूर्तियां बनाई जाती हैं। कोलकाता में होने वाली दुर्गा पूजाओं में लगभग 95 फीसदी प्रतिमाएं कुमारटुली से बनकर आती है।

इन प्रतिमाओं को बनाने के लिए पहले लकड़ी के ढांचे पर जूट आदि बांध कर ढांचा तैयार करते हैं और उसके बाद मिट्टी के साथ धान के छिलके मिलाकर मूर्ति तैयार की जाती है। फिर प्रतिमा की साज-सज्जा की जाती है, जिसमें नाना प्रकार के गहने और वस्त्र उपयोग में लाए जाते हैं।

केवल दुर्गा की प्रतिमा को ही नहीं, बल्कि पांडालों को भी बहुत सुंदर तरह से बनाया जाता हैं। कोलकाता में बांस और कपड़े से अमृतसर का स्वर्ण मंदिर, पेरिस के एफिल टावर जैसा दुर्गा पांडाल बनाया जाता है। पंडालों की रोशनी से सारा शहर दुल्हन जैसा लगता है।

षष्ठी की शाम को बोधन के साथ दुर्गा के मुख से आवरण हटाया जाता है। फिर महाषष्ठी के दिन सुबह-सुबह औरतें लाल बॉर्डर की साड़ी पहने पूजा करती हैं। महाअष्टमी के दिन का अपना महत्व है। अष्टमी के दिन संधिपूजा होती है।

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इसका अपना एक निश्चित मुहूर्त होता है और उस मुहूर्त में बलि चढ़ाई जाती है। पुराने जमाने में लोग बकरे की बलि चढ़ाते थे, मगर ये प्रथा अब न के बराबर रह गई है। ज्यादातर जगहों पर किसी फल या कद्दू आदि की बलि चढ़ाई जाती है। मंत्रोच्चार के साथ 108 जलते दीयों के बीच उस संधिक्षण की बलि के लिए लोग निर्जल उपवास रखते हैं और उन कुछ क्षणों के लिए सारा जग जैसे शांत हो जाता है। कहते हैं उस संधिक्षण में मां के प्राण आते हैं। 

बंगाल में धूनुचि नाच होता है। धूनुचि मिट्टी की बड़े सुराही नुमा प्रदीप होते हैं, जिसमें नारियल के छिलकों को जलाया जाता है और धूनो नामक सुगंधित पदार्थ डाल कर उन प्रदीपों को हाथ में लेकर सभी लोग अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते हैं। एक साथ 4-5 धूनुचि लेकर और उसमें से गिरती आग के बीच नाचते हैं।

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दशमी को सुबह विवाहिताएं मां दुर्गा की प्रतिमा को सिंदूर लगाने पांडाल आती हैं और वहां होली की तरह सुहागिनें सिंदूर से खेलती हैं। इसे सिंदूर खेला कहा जाता है। मंत्रोच्चार के साथ ही मां दुर्गा की प्रतिमा को विसर्जित कर दिया जाता है।

प्रतिमाओं के विसर्जन के समय शाम को माहौल कुछ ऐसा बन जाता है, जैसे कि लाडली बेटी दुर्गा मायके से ससुराल जा रही हो। दशहरे के दिन छोटे अपने से बड़ों के पैर छू कर आशीर्वाद लेते हैं और मुंह मीठा करते हैं। लोग एक-दूसरे से मिलने सबके घर जाते हैं और इस तरह संपूर्ण होता है दुर्गा पूजा उत्सव।

डॉ. विशाखा बिस्सा

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