शुक्रवार, 29 जनवरी 2021

प्रतिदिन / आलोक तोमर

 आलोक तोमर / प्रधानमंत्री अदालत से कर्तव्य सीखेंगे?


अगर नैतिकता का जरा भी ध्यान होता तो सर्वोच्च न्यायालय

की बहुत तल्ख और साफ साफ टिप्पणी के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अब तक इस्तीफा दे

चुके होते। आखिर सर्वोच्च न्यायालय ने उन पर देश के सबसे बड़े बेईमानी के मामले में

निकम्मा और एक हद तक सहयोगी होने का इल्जाम लगाया है। मनमोहन सिंह को मिस्टर क्लीन

कहा जाता है और हो सकता है कि राजा की कमाई का उन्हें पता नहीं रहा हो मगर इससे वे

बेदाग साबित नहीं हो जाते। जो प्रधानमंत्री अपने एक मंत्री द्वारा सरेआम की जा रही

लूट और संचार मंत्रालय में चल रही दलाली की पूरी जानकारी होते हुए भी मंत्री को सिर्फ

सलाह देता हैं, आदेश नहीं देता, ऐसे प्रधानमंत्री की क्या वाकई हमारे

देश को जरूरत है?


मनमोहन सिंह ने राजा को जो करने दिया वह उनका अपना गुनाह

भी है। सीएजी की रिपोर्ट में भी इशारे किए गए हैं कि राजा जो कर रहे थे वह प्रधानमंत्री

को बता रहे थे। अदालत से भी वे यही कहने वाले है। मगर इससे हमारे और आपके एक लाख छिहत्तर

हजार करोड़ रुपए वापस नहीं आने वाले जो देश के कारपोरेट ठगों ने नीरा राडिया नाम की

दलाल के जरिए देश से ठग लिए हैं। मनमोहन सिंह को आखिरकार तो जवाब देना ही पड़ेगा। जवाब

दे कर भी वे बच नहीं जाएंगे। 


अशोक चव्हाण, कलमाडी और इसके पहले शशि थरूर को जिन आरोपों में निकाला गया

है, मनमोहन सिंह की मेहरबानी से ए राजा द्वारा किया गया गुनाह

उससे कई हजार गुना बड़ा है। अब मनमोहन सिंह संसद में कुछ भी कहे, अदालत में उनकी ओर से जो भी दस्तावेज पेश किए गए हों, पूर्ण सत्य यही है कि मनमोहन सिंह निकम्मे ही नहीं, नालायक

प्रधानमंत्री साबित हुए हैं और अगर वे यह कहते हैं कि राजा क्या कर रहे थे,

उन्हें पता नहीं था तो आप जानते हैं कि वे झूठ बोल रहे हैं और एक पल

को उनके इस बयान को ही सच मान लिया जाए तो भी ऐसा प्रधानमंत्री किस काम का जिसके राज

में मंत्री अलग से घर घर खेल रहे हों। 


रही बात राजा और मनमोहन सिंह के रिश्तों की तो सर्वोच्च

न्यायालय ने भी वहीं पूछा है जो आम लोग इतने दिनों से पूछते आ रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय

का सवाल है कि प्रधानमंत्री को सोलह महीने यानी एक साल चार महीने से राजा की कुटिल

करतूतों की जानकारी थी तो वे खामोश क्यों बने रहे? सर्वोच्च न्यायालय ने ही सुझाया है

कि प्रधानमंत्री एक लाइन में कह सकते थे कि जो जानकारियां फाइलों में हैं वे काफी नहीं

हैं और टू जी स्पेक्ट्रम का आवंटन अपने हाथ में ले सकते थे या उसे खारिज कर सकते थे

मगर वे तो एक चली फिरती सलाह दे कर खामोश हो गए। डॉक्टर सुब्रमण्यम स्वामी ने सोलह

महीने पहले प्रधानमंत्री को दस्तावेजों के साथ इस घोटाले की जानकारी दी थी और हवाला

के मामले का हवाला देते हुए कहा था कि राजा पर मुकदमा चलाने के लिए सिर्फ शिकायत के

तथ्य काफी हैं और तीन महीने के भीतर मुकदमा शुरू हो सकता था। स्वामी होमवर्क जम कर

करते हैं और उन्होंने देश की सबसे बड़ी अदालत से राजा पर आपराधिक मुकदमा चलाने की अनुमति

मांगी हैं जिसमें जाहिर है कि माननीय प्रधानमंत्री को भी पक्ष बनाया जाएगा। सर्वोंच्च

न्यायालय ने भारत के सॉलिसिटर जनरल गोपाल सुब्रमण्यम से अड़तालीस घंटे के भीतर जवाब

मांगा था जो कितना चिढ़ाने वाला और न्याय को विचलित करने वाला था, यह अब तक आपको भी पता लग गया है। और वैसे भी अब राजा मंत्री नहीं रहे इसलिए

उन पर मुकदमा चलाने के लिए किसी तहसीलदार की भी अनुमति नहीं चाहिए। 


यह मामला पहले भी सर्वोच्च न्यायालय में जा चुका है।

तब अदालत ने कहा था कि फैसले के तीन महीने के भीतर स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच शुरू

की जाए। इस फैसले को भी ग्यारह महीने हो चुके हैं। भारत सरकार और उसके मुखिया पर अदालत

की अवमानना का मामला भी बनता है। न्यायमूर्ति ए के गांगुली ने तो साफ कहा है कि अब

अनुमति दी जाए या न दी जाए इससे फर्क नहीं पड़ता मगर सोलह महीने बीत चुके हैं। यह सोलह

महीने अकर्मण्यता और आपराधिक खामोशी के थे। 19 मार्च 2010 को प्रधानमंत्री ने डॉक्टर

स्वामी को लिखा था कि राजा के खिलाफ जांच करवाने के पहले वे और जानकारी और सीबीआई जांच

का इंतजार कर रही है। प्रधानमंत्री की लाचारी ने सर्वोच्च न्यायालय को भी चिंतित किया

है। अदालत की राय में प्रधानमंत्री हां या ना में जवाब दे सकते हैं। 


प्रधानमंत्री ने एक नहीं कई मौको पर राजा का बचाव किया

है। सार्वजनिक रूप से पत्रकार वार्ता में 24 मई 2010 को मनमोहन सिंह ने कहा कि संचार

मंत्री एनडीए सरकार द्वारा बनाई गई नीतियाेंं का ही पालन कर रहे थे। अगर उन्हें नीतियों

का पालन करना था तो यूपीए सरकार आखिर बनी ही क्यों हैं? मनमोहन

सिंह ने राजा का खुलेआम समर्थन करते हुए कहा था कि मैंने मंत्री जी से इस बारे में

बात की हैं और उन्होंने बताया है कि 2003 से चली आ रही नीतियों

का ही पालन किया जा रहा है और यह नीति पहले आओ, पहले पाओ की है।

अरुण शौरी कहते हैं कि जब उन्होने संचार मंत्रालय छोड़ा था तो सात सौ तिरपन आवेदन पड़े

हुए थे। उन पर तो विचार भी नहीं किया गया। प्रधानमंत्री राजा के बचाव में यहां तक कह

गए कि दूर संचार नियामक संस्था यानी ट्राई की नीतियों का पूरा पालन किया गया है। असलियत

लेकिन यह है कि मंत्रालय की नीतियों का पालन ट्राई करती हैं। 


आप अगर गौर करें तो पाएंगे कि प्रधानमंत्री देश को दो

बाते बताने की कोशिश कर रहे हैं। पहली बार वे कह रहे हैं कि एनडीए की नीतियों का पालन

हुआ और दूसरी बार कह रहे हैं कि ट्राई ने जो कहा वही हुआ। उन्होंने तो यहां तक कह डाला

कि श्री राजा पर मीडिया ही मुकदमा चला रहा है और संस्थाएं जिन्हें न्याय के हित में

काम करना चाहिए, कुछ नहीं कर पा रही है। प्रधानमंत्री ने जो कहा, वह अगर

सही है तो क्या यह जनता की जिम्मेदारी है? 


बाद में प्रधानमंत्री को जब समझ में आ गया कि वे गलत

सलत बोल रहे हैं और इसका फायदा उनके खिलाफ भी उठाया जा सकता है तो उन्होंने सुर बदल

लिए। उन्होने कहा कि संसद चल रही है और मामला अदालत में हैं इसलिए मैं कुछ नहीं कहना

चाहूंगा। वैसे भी उन्होंने जो कहा और किया है, देश और उसकी छवि का कबाड़ा करने के लिए वह काफी है।

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