बिहार में शिल्प कला का इतिहास गौरवशाली रहा है. सम्राट अशोक के समय से ही भवन निर्माण में पत्थरों का प्रयोग प्रारंभ हो गया था. अशोक ने पत्थरों का लगभग 40 स्तंभों का भी निर्माण कराया था. उस समय शिल्प कला की तकनीक कितनी उन्नत थी. इसका पता इससे चलता है कि आज भी अशोक स्तम्भ की पॉलिश शीशे जैसे काफी चमकती है.
पटना और दीदारगंज से मिली यक्षी की मूर्तियां विशेष रूप से शिल्प कला के दृष्टिकोण से अद्वितीय हैं. मूर्तियों के निर्माण के लिए चिकने काले रंग की कसौटी वाले पत्थरों एवं धातुओं का चयन किया गया था.
कसौटी एक सघन घनत्व वाले काले पत्थर बिहार में गया क्षेत्र के पत्थरकट्टी पहाड़ वाले इलाके में ही मिलते हैं. पत्थरकट्टी एक पहाड़ की तलहटी में बसा एक गांव है, जो गांव कटारी में आता है. कटारी तीन छोटे-छोटे गांवों का घिरा है जिसमें पहला गांव कटारी, दूसरा पत्थरकट्टी और तीसरा झरहा, जिसे कटारी-पत्थरकट्टी के नाम से जाना जाता है. पत्थरकट्टी दो शब्दों का युग्म है, पत्थर और कट्टी यानी पत्थरों को काटना.
ऐसा माना जाता है कि सन 1857 के विद्रोह के दौरान पत्थरकट्टी के स्थानीय लोगों ने नियामतपुर गांव के मुसलमानों के साथ मिलकर अपने पराक्रम से अंग्रेजों को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया था. उस विद्रोह में वीर गति प्राप्त वीरों को स्थानीय समाज ने कट्टर कहकर सम्मानित किया था और तब से उस गांव का नाम कटारी-पत्थरकट्टी हो गया.
गया की तरफ से मानपुर-सर्बह्दा सड़क पर करीब तैंतीस किलोमीटर बढ़ने पर पत्थरकट्टी गांव आता है. इसी सड़क पर ठीक अगला गांव खुखरी है. पटना के रास्ते जहानाबाद और वहां से वाया इस्लामपुर और सर्बहद्दा भी पहुंचा जा सकता है. राजगीर और गया रेलवे स्टेशन भी पत्थरकट्टी के नजदीक है. जहां से एक-डेढ़ घंटे में वहां पहुंचा जा सकता है.
गया के साथ पत्थरकट्टी का एक महत्वपूर्ण व्यापारिक संबंध है. वर्तमान में यहाँ से तराशे गए मूर्तियां और घरेलू उपयोग के उत्पादों को राजगीर, गया और बोधगया के बाजार में बिका करते हैं.
पत्थरकट्टी गांव का इतिहास गया के विश्व विख्यात विष्णुपद मंदिर से भी जुड़ा हुआ है, इंदौर की महारानी देवी अहिल्या बाई होल्कर ने सन 1787 में इस अष्टकोणीय मंदिर का पुनः निर्माण करवाया था. यह मंदिर फल्गू नदी के किनारे पर स्थित है, जिसके दर्शनों के लिए पूरे देश से श्रद्धालु गण आते रहते हैं.
महारानी अहिल्या बाई होल्कर के विशेष निमंत्रण पर जयपुर से करीब 1300 शिल्पी गौड़ ब्राह्मण गया आये थे.
मंदिर के जीर्णोद्धार का काम पत्थरकट्टी के ही काले पत्थरों को तराशकर किया गया था. कहा जाता है कि शिल्पियों को इसके लिए काले पत्थरों की जरूरत थी और इसके लिए उन्होंने उस समय यहाँ से असम तक छानबीन की थी. अंतत: मंदिर के जीर्नोदार के लिए उन्होंने पत्थरकट्टी पहाड़ के काले पत्थरों को ही सबसे उपयुक्त पाया. विष्णुपद मंदिर का सम्पूर्ण स्वरुप का निर्माण पत्थरकट्टी गांव में हुआ था. तराशे गए समस्त पत्थरों को गया ले जाने की व्यवस्था टिकारी राजा द्वारा की गई थी.
विष्णु पद मंदिर के जिर्नोदार कार्य संपन्न होने के पश्चात् अनेक शिल्पी जयपुर वापस लौट गये और उसमें से कुछ शिल्पकार पत्थरकट्टी गांव में ही बस गये.
महारानी अहिल्याबाई होल्कर के बाद स्थानीय टिकारी राज के महाराजा और अन्य स्थानीय जमींदार का संरक्षण गौड़ ब्राह्मण शिल्पी कलाकारों मिला. जिसके कारण उनका कारोबार तीन-चार पीढ़ियों तक खूब फला-फूला.
आजादी के बाद राजतंत्र का अंत हो गया था और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विश्व में आर्थिक संकट गहरा गया था, तब उनके द्वारा निर्मित मूर्तियों का मांग काफी कम हो गई थी, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति काफी कमजोर हो गई थी. इन परिस्थितियों में लाचारी वस् इनलोगों का पलायन वापस अपने मातृभूमि जयपुर के तरफ शुरू हो गया.
शिल्पियों को काफी भूमि दान टिकारी राजा के द्वारा दिया गया था, जो भूमि पत्थरकट्टी से बथानी गांव तक थी.
पत्थरकट्टी में टिकारी राज की छत्री और कचहरी थी. टिकारी राज के पहले देवमूर्ति बनाने पर मुगलों द्वारा रोक लगा दी गई थी. पुनः टिकारी राजा के आदेश से देवस्थल और देवमूर्ति का निर्माण होना आरंभ हुआ.
उपेन्द्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2013 में गौड़ ब्राह्मण शिल्पियों के सिर्फ चार परिवार पत्थरकट्टी में थे, जिनके सदस्यों की कुल संख्या 90 के आसपास है.
जहां तक गांव की बसावट का प्रश्न है, इस गांव में शुरुआती तौर पर सिर्फ गौड़ ब्राह्मण परिवार थे.
पत्थरकट्टी गांव में गौड़ ब्राह्मण शिल्पियों के बसने के बाद अन्य जाति के लोगों ने भी धीरे-धीरे यहाँ बसना शुरू किया. जिसमें भूमिहार ब्राह्मण नवादा के बज्र इलाके से आये. केनार गांव से कोयरी आये थे. गौड़ ब्राह्मणों के साथ इन दो जातियों के लोग सबसे पहले बसे. कोयरी जाति के लोगों के पत्थरकट्टी में बसने के बाद केनार गांव से ही ब्राह्मण समाज के लोग भी वहां पहुंचे. जो स्थानीय मुस्लिम जमींदार से प्रताड़ित थे. राजपूत, कायस्थ, दुसाध, सोनार आदि जातियां गौड़ ब्राह्मण के बसने के बाद यहाँ बसी थी.
यहाँ के स्थानीय कारीगर काले कठोर पत्थर पर नक्काशी करते हैं, जो की अपने आप में हस्त कला का एक अनोखा नमूना है.
पत्थरकट्टी गांव पत्थरों से मूर्ति एवं वस्तुएं को तराशने के लिए काफी प्रसिद्ध है. यहाँ के कुशल कारीगर ग्रेनाइट, सफ़ेद बलुआ पत्थर, संगमरमर को विभिन्न स्वरुप देने में कुशल हैं. इन पत्थरों से घरेलु सामान भी बनाये जाते हैं. अगर आप पत्थर से बनी वस्तुएं रखने के शौक़ीन हैं, तो एक बार पत्थरकट्टी गांव जरूर जाएं.
वर्तमान में पत्थरकट्टी के गौड़ ब्राह्मण परिवार को काफी आर्थिक संकट का सामना करना पड़ रहा है. उनके द्वारा निर्मित मूर्तियों का मांग स्थानीय बाज़ार राजगीर, गया और बोध गया में कम हो गई है. मूर्ति निर्माण की लागत काफी बढ़ गई है. इस कारण बचे हुए गौड़ ब्राह्मण शिल्पी, अब वापस अपने मातृभूमि जयपुर की ओर पलायन करने का मन बना रहे है.
वर्तमान में पत्थर कट्टी में कुशल शिल्पकार सुरेश गौड़ और रवि गौड़ अपने पूर्वज़ के बनाये हुए मूर्ति कला व्यवसाय को जीवित रखे हुए हैं और किसी तरह पत्थर कट्टी में अपने जीवन का निर्वाह कर रहे हैं.
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रजनीश वाजपेयी
वाजपेयी भवन
टिकारी गया
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