प्रस्तुति- निम्मी नर्गिस, राकेश गांधी
वर्धा
भारत में किसी आयोग का गठन सरकार का सबसे आसान काम माना जाता है. मगर एक आयोग के गठन की कवायद ने हंगामा खड़ा कर दिया है. न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन से पहले ही न्यायपालिका की स्वतंत्रता खतरे में पड़ने की बहस तेज हो गई है.
देश के संसदीय इतिहास में अनगिनत आयोग बने और खत्म हुए. इनके आने जाने से
व्यवस्था के किसी भी अंग की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा. मगर सुप्रीम कोर्ट
और हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिए सरकार द्वारा आयोग गठित करने के
फैसले के साथ ही न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के बीच टकराव की
स्थिति पैदा हो गई है. सरकार जजों की नियुक्ति को लेकर कॉलेजियम सिस्टम को
खत्म कर न्यायिक नियुक्ति आयोग गठित कर रही है.
हालांकि यह ना तो नवगठित मोदी सरकार की मंशा का प्रतिफल है और ना ही कुछ समय पहले कथित भ्रष्ट जजों की तैनाती से जुड़े खुलासों का परिणाम है. दरअसल पूर्ववर्ती मनमोहन सरकार के कार्यकाल में ही कॉलेजियम सिस्टम की विदाई का रास्ता बन गया था. जजों की नियुक्ति में न्यायपालिका के एकाधिकार को तोड़ने के लिए समूची विधायिका एकमत थी. सिर्फ सरकार और सियासी दलों को माकूल वक्त का इंतजार था.
अब क्यों बरपा हंगामा
आखिर अब ऐसा क्या हो गया कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता खतरे में पड़ने की बहस अचानक तेज हो गई. यह सही है कि इस मामले में मनमोहन सरकार और मोदी सरकार के नजरिए में काफी फर्क है. पिछली सरकार ने न्यायिक नियुक्तियों में न्यायपालिका की जवाबदेही तय करने के लिए संसद में न्यायिक जवाबदेही विधेयक पेश किया था. बेशक इसका मकसद भी न्यायिक नियुक्तियों में न्यायपालिका के एकाधिकार को तोड़ना था. लेकिन मौजूदा सरकार ने जस्टिस काटजू के खुलासे को आधार बनाते हुए दो कदम कदम आगे जाकर बाकायदा आयोग का गठन करने का कानून संसद से पारित करवा लिया.
न्यायपालिका को भरोसा था कि पिछली सरकार के लिए इस मसौदे को संसद से पारित कराना आसान नहीं है. खासकर राज्यसभा से जहां तत्कालीन सरकार बहुमत में नहीं थी. इसलिए न्यायिक आजादी की चिंता सिर्फ बहस के स्तर पर ही थी. लेकिन मोदी सरकार द्वारा अपने कार्यकाल के पहले ही सत्र में दोनों सदनों से आयोग के गठन की मंजूरी लेने के बाद न्यायपालिका के माथे पर चिंता की लकीरें दिखना लाजिमी है. सरकार ने 121वां संविधान संशोधन कर कॉलेजियम सिस्टम की ताबूत में आखिरी कील भी ठोंक दी.
मौजूदा स्थिति
कानून का मसौदा संसद से पारित होने के बाद अब इसे सिर्फ राष्ट्रपति से मंजूरी का इंतजार है. हालांकि नियत प्रक्रिया के मुताबिक विधेयक सभी राज्यों की विधानसभाओं में सामान्य बहुमत की मंजूरी के लिए भेजा गया है. कम से कम आधे राज्यों की मंजूरी के बाद इस पर राष्ट्रपति की मुहर लगने की औपचारिकता मात्र रह जाएगी.
देश के मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा ने न्यायिक आयोग के गठन में जल्दबाजी किए जाने का अंदेशा जताते हुए न्यायिक स्वतंत्रता को खतरा उत्पन्न होने की चिंता जताई है. उनकी दलील है कि अगर कॉलेजियम सिस्टम नाकाम होता और इससे सिर्फ भ्रष्ट जज तैनात होते तो वे खुद आज चीफ जस्टिस नहीं बन पाते. इसके विपरीत कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने जस्टिस लोढ़ा की चिंता के जवाब में कहा कि यह पहल महज कुछ दिनों का परिणाम नहीं है बल्कि इस पर पिछले 24 सालों से बहस चल रही थी.
न्यायपालिका के विकल्प
सरकारों को गाहे बगाहे कानून की हदें याद दिलाने वाली न्यायपालिका के पास अब खुद अपने लिए कानून की लक्ष्मणरेखा का पालन करने की बाध्यता के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है. हालांकि इससे न्यायपालिका की समस्या का समाधान हो जाएगा, यह मानना खुद को धोखा देना होगा. जिस भ्रष्टाचार को आधार बनाकर सियासी जमात मौजूदा समस्या का हल खोज रही है वह खुद भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी है. ऐसे में न्यायिक नियुक्ति में सरकारी दखल होने से भ्रष्ट जजों की नियुक्ति थमने के बजाय कहीं बढ़ न जाए, इस बात की आशंका से कैसे इंकार किया जा सकता है.
कॉलेजियम सिस्टम की खामियां और खूबियां सही मायने में तब सामने आएंगी जब न्यायिक नियुक्ति आयोग गठित होकर काम करने लगेगा. साथ ही इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर कुठाराघात होने की आशंका के सही या गलत साबित होने की बात भी नई व्यवस्था के वजूद में आने के बाद ही तय हो पाएगी. हालांकि सरकार और सियासतदानों को यह नहीं भूलना चाहिए कि स्वतंत्र न्यायपालिका संविधान के मौलिक ढांचे का अपरिहार्य अंग है.
सुप्रीम कोर्ट ने ज्यूडिशियल रिव्यू का अधिकार अपनी झोली में सुरक्षित रखा है. वह इस अधिकार का इस्तेमाल कर संविधान संशोधन को इस आधार पर जांच सकता है कि कहीं इससे संविधान का मौलिक ढांचा प्रभावित तो नहीं हो रहा है. न्यायपालिका अपने इसी अधिकार का समय आने पर ब्रह्मास्त्र के रुप में इस्तेमाल कर सकती है.
ब्लॉग: निर्मल यादव
संपादन: महेश झा
हालांकि यह ना तो नवगठित मोदी सरकार की मंशा का प्रतिफल है और ना ही कुछ समय पहले कथित भ्रष्ट जजों की तैनाती से जुड़े खुलासों का परिणाम है. दरअसल पूर्ववर्ती मनमोहन सरकार के कार्यकाल में ही कॉलेजियम सिस्टम की विदाई का रास्ता बन गया था. जजों की नियुक्ति में न्यायपालिका के एकाधिकार को तोड़ने के लिए समूची विधायिका एकमत थी. सिर्फ सरकार और सियासी दलों को माकूल वक्त का इंतजार था.
अब क्यों बरपा हंगामा
आखिर अब ऐसा क्या हो गया कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता खतरे में पड़ने की बहस अचानक तेज हो गई. यह सही है कि इस मामले में मनमोहन सरकार और मोदी सरकार के नजरिए में काफी फर्क है. पिछली सरकार ने न्यायिक नियुक्तियों में न्यायपालिका की जवाबदेही तय करने के लिए संसद में न्यायिक जवाबदेही विधेयक पेश किया था. बेशक इसका मकसद भी न्यायिक नियुक्तियों में न्यायपालिका के एकाधिकार को तोड़ना था. लेकिन मौजूदा सरकार ने जस्टिस काटजू के खुलासे को आधार बनाते हुए दो कदम कदम आगे जाकर बाकायदा आयोग का गठन करने का कानून संसद से पारित करवा लिया.
न्यायपालिका को भरोसा था कि पिछली सरकार के लिए इस मसौदे को संसद से पारित कराना आसान नहीं है. खासकर राज्यसभा से जहां तत्कालीन सरकार बहुमत में नहीं थी. इसलिए न्यायिक आजादी की चिंता सिर्फ बहस के स्तर पर ही थी. लेकिन मोदी सरकार द्वारा अपने कार्यकाल के पहले ही सत्र में दोनों सदनों से आयोग के गठन की मंजूरी लेने के बाद न्यायपालिका के माथे पर चिंता की लकीरें दिखना लाजिमी है. सरकार ने 121वां संविधान संशोधन कर कॉलेजियम सिस्टम की ताबूत में आखिरी कील भी ठोंक दी.
मौजूदा स्थिति
कानून का मसौदा संसद से पारित होने के बाद अब इसे सिर्फ राष्ट्रपति से मंजूरी का इंतजार है. हालांकि नियत प्रक्रिया के मुताबिक विधेयक सभी राज्यों की विधानसभाओं में सामान्य बहुमत की मंजूरी के लिए भेजा गया है. कम से कम आधे राज्यों की मंजूरी के बाद इस पर राष्ट्रपति की मुहर लगने की औपचारिकता मात्र रह जाएगी.
देश के मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा ने न्यायिक आयोग के गठन में जल्दबाजी किए जाने का अंदेशा जताते हुए न्यायिक स्वतंत्रता को खतरा उत्पन्न होने की चिंता जताई है. उनकी दलील है कि अगर कॉलेजियम सिस्टम नाकाम होता और इससे सिर्फ भ्रष्ट जज तैनात होते तो वे खुद आज चीफ जस्टिस नहीं बन पाते. इसके विपरीत कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने जस्टिस लोढ़ा की चिंता के जवाब में कहा कि यह पहल महज कुछ दिनों का परिणाम नहीं है बल्कि इस पर पिछले 24 सालों से बहस चल रही थी.
न्यायपालिका के विकल्प
सरकारों को गाहे बगाहे कानून की हदें याद दिलाने वाली न्यायपालिका के पास अब खुद अपने लिए कानून की लक्ष्मणरेखा का पालन करने की बाध्यता के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है. हालांकि इससे न्यायपालिका की समस्या का समाधान हो जाएगा, यह मानना खुद को धोखा देना होगा. जिस भ्रष्टाचार को आधार बनाकर सियासी जमात मौजूदा समस्या का हल खोज रही है वह खुद भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी है. ऐसे में न्यायिक नियुक्ति में सरकारी दखल होने से भ्रष्ट जजों की नियुक्ति थमने के बजाय कहीं बढ़ न जाए, इस बात की आशंका से कैसे इंकार किया जा सकता है.
कॉलेजियम सिस्टम की खामियां और खूबियां सही मायने में तब सामने आएंगी जब न्यायिक नियुक्ति आयोग गठित होकर काम करने लगेगा. साथ ही इससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर कुठाराघात होने की आशंका के सही या गलत साबित होने की बात भी नई व्यवस्था के वजूद में आने के बाद ही तय हो पाएगी. हालांकि सरकार और सियासतदानों को यह नहीं भूलना चाहिए कि स्वतंत्र न्यायपालिका संविधान के मौलिक ढांचे का अपरिहार्य अंग है.
सुप्रीम कोर्ट ने ज्यूडिशियल रिव्यू का अधिकार अपनी झोली में सुरक्षित रखा है. वह इस अधिकार का इस्तेमाल कर संविधान संशोधन को इस आधार पर जांच सकता है कि कहीं इससे संविधान का मौलिक ढांचा प्रभावित तो नहीं हो रहा है. न्यायपालिका अपने इसी अधिकार का समय आने पर ब्रह्मास्त्र के रुप में इस्तेमाल कर सकती है.
ब्लॉग: निर्मल यादव
संपादन: महेश झा
- तारीख 20.08.2014
- शेयर करें भेजें फेसबुक ट्विटर गूगल+ और जानकारी
- फीडबैक: हमें लिखें
- प्रिंट करें यह पेज प्रिंट करें
- पर्मालिंक http://dw.de/p/1CxQB
- तारीख 20.08.2014
- शेयर करें भेजें फेसबुक ट्विटर गूगल+ और जानकारी
- फीडबैक भेजें
- प्रिंट करें यह पेज प्रिंट करें
- पर्मालिंक http://dw.de/p/1CxQB
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें