हिटलर की आत्मकथा का अनुवाद
हिटलर की आत्मकथा का अनुवाद जेम्स मर्फी ने किया था. आइए जानते हैं उनके पोते से कि मर्फी ने किन परिस्थितियों में इस पुस्तक का अनुवाद किया और वो क्या सोचते थे इसके बारे में.
जब भी
किसी को बताता हूं कि मेरे दादा जेम्स मर्फी ने एडोल्फ हिटलर की आत्मकथा
'मीन कॉम्फ' का अनुवाद किया है तो लोग पूछ बैठते हैं, "उन्होंने ऐसा क्यों
किया".
फिर अगले ही पल दूसरा सवाल दाग देते हैं, "क्या वे नाज़ी थे?"
मैं स्वाभाविक रूप से बाद के सवाल का जवाब देता हूं, "नहीं, वे नाज़ी नहीं
थे."जेम्स मर्फी एक अच्छे पत्रकार और अनुवादक थे और बर्लिन में रहते थे.
दूसरे कई गैर नाजियों की ही तरह उस वक्त दादा भी यही सोचते थे कि "यूरोप के महान तानाशाह" हिटलर के बारे में लोगों को जानना ज़रूरी है.
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यहां ये भी याद रखना होगा कि इतिहास में सबसे बुरे नायक की छवि बनने के पहले हिटलर ने अपनी आत्मकथा के रूप में ये किताब लिखी थी.
इसलिए जेम्स मर्फी ने इस बुरी किताब 'मीन कॉम्फ़' का अनुवाद करने का फैसला लिया.
बुरी किताब
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एक अनुमान के मुताबिक, अकेले जर्मनी में 'मीन कॉम्फ़' की एक करोड़ 20 लाख कॉपियां बिकीं.
जेम्स मर्फी की अंग्रेजी में अनुवाद की गई 'मीन कॉम्फ़' की पहली कॉपी लंदन में 1939 में प्रकाशित हुई.
ऐसे मिला अनुवाद का काम
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वहां उन्होंने एक छोटी किताब 'एडोल्फ हिटलरःः दि ड्रामा ऑफ़ हिज कैरियर' लिखी जिसमें बताया गया था कि क्यों बड़ी संख्या में जर्मनी के लोग नाज़ी मकसद की ओर आकर्षित हो रहे थे.
फिर वे 1934 में वापस बर्लिन लौटे. यहां उन्होंने नाज़ी नीतियों के असंगत अनुवाद की खिल्ली उड़ाई.
असल में 1933 में दो भागों वाली इस क़िताब के एक तिहाई हिस्से का अनुवाद प्रकाशित हो चुका था और इसे लेकर उनका आलोचना का पुट अधिक था.
वर्ष 1936 के अंत में नाज़ी सरकार ने जेम्स से इस क़िताब का नए सिरे से पूरा अनुवाद करने को कहा, ऐसा करने के लिए कहने का आशय स्पष्ट नहीं था.
हो सकता है कि बर्लिन का प्रचार मंत्रालय ऐसा चाहता था ताकि सही वक़्त पर इसे छापा जा सके.
इस तरह जेम्स ने 'मीन कॉम्फ' का अनुवाद शुरू किया.
नाज़ियों के गढ़ से निकाली पांडुलिपी
मर्फ़ी पांडुलिपि लेने के लिए जर्मनी जाने वाले थे तभी उन्हें लंदन के जर्मन दूतावास से न आने का संदेश प्राप्त हुआ.
मेरे पिता पैट्रिक मर्फ़ी ने बताया कि आख़िरकार जेम्स मर्फी की पत्नी, यानी मेरी दादी, जर्मनी जाने को तैयार हुईं.
जर्मन प्रचार मंत्रालय के जिस अधिकारी से उनकी मुलाकात तय हुई थी उसी दिन यहूदियों के घरों और दुकानों को नाज़ियों ने जलाना शुरू कर दिया.
हालांकि मुलाकात हुई और उस अधिकारी ने पांडुलिपि देने से इनकार कर दिया. इसके बाद उन्हें याद आया कि एक ब्रिटिश मूल की महिला को ही जेम्स मर्फ़ी ने अनुवाद की कॉर्बन प्रति दी थी.
अंततः दादी ने उस महिला को ढूंढ निकाला और संयोग से वह प्रति मिल गई, जिसे लेकर वो ब्रिटेन लौट आईं.
इसी समय मीन कॉम्फ़ का एक और अनुवाद अमरीका में छपने वाला था. इसके बाद इसे ज़ल्द से ज़ल्द प्रकाशित करने की आजमाईश शुरू हुई.
प्रकाशन
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मर्फी की अनुवाद की हुई आत्मकथा अब अनुपलब्ध है, लेकिन इसकी कॉपी दुनिया भर में और ऑनलाइन मौजूद है.
जेम्स मर्फी की मौत 65 साल की उम्र में साल 1946 में हो गई. एक शांत और विकसित यूरोप का सपना देखने वाला इतालवी फासीवाद और जर्मनी नाज़ीवाद का विशेषज्ञ.
मगर दुनिया मर्फी को हिटलर के 'मीन कॉम्फ़' के अनुवादक के रूप में पहचानती है.
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आज का 'मीन मीन कैम्फ़'
मीन कॉम्फ़ और इसके प्रकाशन पर अर्जेनटीना, चीन, नीदरलैंड और रूस सहित कई देशों में प्रतिबंध है.भारत और तुर्की जैसे देशों में हिटलर की आत्मकथा को आज भी लोग खूब पसंद करते हैं. अनुमान है कि अमरीका में हर साल इसकी करीब 15,000 कॉपियां बिकती हैं.
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