रविवार, 18 जनवरी 2015

गांवों में धीमे विकास से मोदी के वादे को धक्का



 

 

प्रस्तुति-- निम्मी नर्गिस, राहुल मानव



सत्ता में आने से पहले नरेंद्र मोदी ने लाखों लोगों को गरीबी से बाहर निकालने का वादा किया था. लेकिन आर्थिक प्राथमिकताओं में परिवर्तन से देहातों में विकास गति धीमी हो रही है और उसका असर मोदी के वादे को खतरे में डाल रहा है.
गन्ना उत्पादक नीलेश कदम ने ट्रैक्टर खरीदने का विचार छोड़ दिया है. खराब मौसम और गिरती कीमतों से परेशान दूसरे किसानों की तरह उनके पास भी अभी ट्रैक्टर खरीदने के लिए धन नहीं है. गांवों में बढ़ती कठिनाई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए बुरी खबर है जो बेहतर दिनों और लाखों लोगों को गरीबी से बाहर निकालने के लिए नई नौकरियों और विकास के नारे के साथ पिछली मई में सत्ता में आए थे.
महाराष्ट्र के 29 वर्षीय किसान कदम का कहना है, "मैं इस साल गन्ने की कीमतें बढ़ने की उम्मीद कर रहा था, लेकिन शुगर मिल पिछले साल के मुकाबले 20 फीसदी कम भाव दे रहे हैं. ट्रैक्टर तो छोड़िए मेरे पास मोटरसाइकिल खरीदने के लिए भी पैसा नहीं है." मुंबई से 280 किलोमीटर दूर स्थिति कदम के गांव की कठिनाईयों के लिए सिर्फ मौसम या बाजार जिम्मेदार नहीं है. मोदी सरकार द्वारा सरकारी खर्च में कटौती के आदेश का भी देहाती उपभोक्ताओं और उनसे जुड़े उद्योगों पर असर हो रहा है.
रेटिंग एजेंसी मूडी के भारतीय सहयोगी आईसीआरए की अर्थशास्त्री अदिति नायर का कहना है, "देहाती उपभोग विकास का एक पाया था." उनका कहना है कि भारत के देहाती इलाकों में मांग में कमी अक्टूबर से दिसंबर की तिमाही में विकासदर में आई कमी के लिए जिम्मेदार है. इसके पहले की तिमाही में विकास दर 5.3 फीसदी थी. ट्रैक्टर कंपनी महिंद्रा एंड महिंद्रा साल के अंतिम महीनों में बिक्री में करीब एक तिहाई की गिरावट के बाद अब महीने में कुछ दिन फैक्ट्री को बंद कर दे रही है.उपभोक्ता उत्पाद बनाने वाली कंपनियों और कार निर्माताओं ने भी बिक्री में कमी की रिपोर्ट दी है.
भारत की 125 करोड़ की आबादी में करीब 80 करोड़ लोग गांवों में रहते हैं. वे राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में लगभग 35 प्रतिशत के लिए जिम्मेदार हैं. 2015 के अंत में नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी को बिहार में चुनावों का सामना करना है जहां देश के ज्यादातर गरीब रहते हैं. अगले साल तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में भी चुनाव होंगे. देहाती मतदाताओं को लुभाने के लिए पिछली सरकार ने अनाजों की खरीद दर बढ़ा दी थी, किसानों का कर्ज माफ कर दिया था और साल में कम से कम 100 दिनों के काम की गारंटी दी थी.
इन कदमों से देहात में लोगों की क्रयशक्ति बढ़ी और 2008 के वित्तीय संकट के बाद शहरों में मांग की कमी को पूरा करने में उद्योग को मदद मिली. लेकिन उसकी वजह से मुद्रास्फीति भी बढ़ी और रिजर्व बैंक को ब्याज दर बढ़ानी पड़ी. मुद्रास्फीति और सरकारी कर्ज को रोकने के लिए मोदी ने कृषि समर्थन मूल्य को बढ़ाने पर रोक लगा दी है और रोजगार कार्यक्रमों पर खर्च को कम कर दिया है. इस विपरीत वे ढांचागत संरचना के विकास और कौशल को बढ़ावा देने पर खर्च करना चाहते हैं, जो देश के दूरगामी विकास के लिए जरूरी है.
नरेंद्र मोदी की सरकार उत्पादों की मांग बढ़ाने वाली नीतियों के बदले निवेश और उत्पादकता को प्रोत्साहन देने वाली नीतियों पर जोर दे रही है. यह ऐसे समय में हुआ है जब खाद्य पदार्थों की वैश्विक कीमतों में भी भारी कमी आई है. इसने आयात सस्ता हुआ है और भारत से निर्यात महंगा. कोटक कमोडिटी सर्विसेस के फैयाज हुदानी कहते हैं, "बहुत से उत्पादों का निर्यात फायदेमंद नहीं रह गया है." रोड, रेल और सिंचाई परियोजनाओं पर खर्च बढ़ाकर गांव के लोगों को फायदा पहुंचाने की सरकार की क्षमता बजट बाधाओं के कारण लड़खड़ाई है.
एमजे/आरआर (रॉयटर्स)

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