मंगलवार, 10 नवंबर 2015

देह' पर जिंदा समाज

मंदसौर।(धर्मवीर रत्नावतजिस तरह देश में मंदसौर अफीम उत्पादन, तस्करी के लिए मशहूर है, उसी तरह नीमच, मंदसौर, रतलाम के कुछ खास इलाके भी बाछड़ा समाज की देह मंडी के रूप में कुख्यात है। जो वेश्यावृत्ति के दूसरे ठिकानों की तुलना में इस मायनें में अनूठे हैं, कि यहां सदियों से लोग अपनी ही बेटियों को इस काम में लगाए हुए हैं। इनके लिए ज्यादा बेटियों का मतलब है, ज्यादा ग्राहक! ऐसे में जब आप किसी टैक्सी वाले से नीमच चलने के लिए कहते हैं, तो उसके चेहरे में एक प्रश्नवाचक मुस्कुराहट स्वत: तैर आती है। इस यात्रा में अनायास ही ऐसे दृश्य सामने आने लगते हैं, जो आमतौर पर सरेराह दिनदहाड़े कम से कम म.प्र. में तो कहीं नहीं देखने को मिलते। हां, सिनेमा के रूपहले पर्दे पर जरूर कभी-कभार दिख रहते हैं। पलक झपकते ही मौसम की शर्मिला टैगोर, चांदनी बार की तब्बू, चमेली की करीना आंखों के सामने तैरने लगती हैं।
महू-नीमच राजमार्ग से गुजरते हुए जैसे ही मंदसौर शहर पीछे छूटता है। सड़क किनारे ही बने कच्चे-पक्के घरों के बाहर अजीब सी चेष्टाएं दिखने लगती हैं। वाहनों विशेषकर ट्रक, कारों को रूकने के इशारे करती अव्यस्क, कस्बाई इत्र से महकती लड़कियों की कमनीय भाव-भंगिमाएं इतनी प्रवीण हैं कि पहली बार यहां से गुजरने वाले यात्री हक्का-बक्का रह जाते हैं। इस देह की खुली मंडी से गुजरना आसान है। रूककर देह की अतृप्त ग्रंथियों की वासना मिटाना सहज है। लेकिन किसी सेक्स वर्कर, महिला दलाल से बात हो जाए यह बेहद मुश्किल है। उनको पुलिस का डर नहीं है, क्योंकि वह इनकी पक्की हिस्सेदार है। किसी के देख लेने का डर नहीं, क्योंकि सारा काम सड़क के किनारे खुले में होता है। डर है, तो इस बात का कहीं टीवी चैनलों के स्टिंग ऑपरेशन में उनकी तस्वीर न दिखाई जाए। ग्राहकों को यह न लगे कि उनकी ऐशगाह असुरक्षित है। समुदाय में धंधे में लगी लड़कियों की संख्या पहले ही कम नहीं थी, उस पर से गरीबी, भुखमरी के चलते अब पड़ोसी जिलों, रा'यों से भी यहां पर जमकर लड़कियां लाई जा रही हैं। इनके मां-बाप इन्हें एक मुश्त रकम देकर बेच जाते हैं। या फिर तय अवधि में आते हैं और दलाल से उसके कमीशन, बेटी के रहने, खाने का खर्च काटकर उसकी कमाई ले जाते हैं। अर्थात् बेटी अपनी जिंदगी महज दाल रोटी के लिए नरक कर रही है। लेकिन ऐसी लड़कियों को स्थानीय बाछड़ा लड़कियों की भीड़ में पहचानना बेहद मुश्किल है, क्योंकि उनके इर्द-गिर्द सुरक्षा घेरा भी है।
सड़क के किनारे बसे मल्लारग$ढ में बड़ी मुश्किल से अधेड़ उम्र की भंवरीबाई बातचीत को तैयार हुई। वैसे उन्होंने भी पहले उनके मकान की ओर मुझे आते देख एक तेरह बरस की लड़की को मेरी ओर लपकाया था। भंवरीबाई ने अपने समाज की व्यवस्थाओं, देह व्यापार से जुड़े सवालों पर लाजवाब साफगोई से बात की। साठ से अधिक की हो चलीं भंवरी को उनके परिवार ने तेरह की उमर में ही इस धंधे में उतार दिया था। वह कहती हैं कि हमारे समाज में सिसकियों, मिन्नतों का कोई मोल नहीं है। क्योंकि परिवार के मर्द चाहते हैं कि बेटियां धंधा करें ताकि वह रोजी की फिक्र से दूर शराब पीने में मशगूल रह सकें।
बाछड़ा समुदाय में बेटियों से वेश्यावृत्ति करवाना बेहद आम रिवाज है। रतलाम, मंदसौर और नीमच जिलों के सैकड़ों गांवों में यह कुप्रथा आज भी जारी है। इनमें कचनारा, रूंडी, परोलिया, सिमलिया, हिंगोरिया, मोया, चिकलाना आदि प्रमुख हैं। किसी को नहीं मालूम यह कब से चला आ रहा है, लेकिन जब बुजुर्ग महिलाएं बताती हैं कि उनकी मां-दादी/नानी भी धंधा करती थी, तो जाहिर है कि मामला दशकों का नहीं सदियों का है। दूसरी ओर ज्यादातर पुरूष निठल्ले, शराबखोर ही मिलेंगे। उनके लिए इस बात के कोई मायने नहीं हैं कि उनकी अपनी बेटी/बेटियों को स्लेट, कापियों की उम्र में ग्राहकों को रिझाने के गुर सिखाए जाते हैं। मंदसौर से नीमच के बीच सड़कों के किनारे जिस्मफरोशी की जितनी दुकाने हैं, उससे अधिक दुकाने, अड्डे गांवों के भीतर हैं। रास्ते से गुजरते वाहनों के सामने लिपस्टिक पोते, अपने उभारों को भरसक दिखाने की अधिक चेष्टा करती लड़किया आपकी झिझक दूर करने की पूरी कोशिश करती हैं। ऐसी ही एक बाला ने कहा, साहब पहली बार आए हो! कोई बात नहीं, यहां पहली बार आने पर लोग ऐसे ही शर्माते हैं। झिझक मिटने में अधिक देर नहीं लगती। भंवरी की बातों में खांटी स'चाई और अनुभव की ताप है। उस अनुभव से उपजी पीड़ा की, जिसे न चाहते हुए भी वासना की भट्टी में झोंक दिया गया था। कमसिन उम्र में उसके नाजुक बदन को दिन-रात यहां से गुजरने वाले ट्रक चालकों और इलाके के सवर्णों के सामने परोस दिया गया। यह सिलसिला तब जाकर थमा, जब भंवरी के साथ उसके ग्राहक रामसिंह ने ही दिल मिलने के बाद (यहां प्यार होने के लिए यही जुमला चलता है) शादी कर ली थी। एक औसत बाछड़ा लड़की की नियति यही है। जब तक वे ग्राहकों को रिझाने के काबिल होती हैं, उनके परिवार के मर्दों को यह कतई मंजूर नहीं होता कि लड़कियां घर दहलीज पार करें। क्योंकि ऐसा करने से उनको हर महीने मिलने वाली मोटी रकम से हाथ धोना पड़ सकता है। अनेक प्रगतिशील विचारों के धनी ऐसे भी हैं, जिन्होंने इस मोटे अर्थशास्त्र को समझा। यहीं बस गए। वेश्यावृत्ति करने वाली किसी लड़की से शादी कर ली फिर उसको तो इस धंधे से दूर रखा, लेकिन उसके नेटवर्क का भरपूर इस्तेमाल कर रहे हैं और उसकी दूसरी बहनों से धंधा भी करवा रहे है। चलिए इनको तो फिर भी बख्शा जा सकता है, लेकिन उन भाइयों, पिताओं को कैसे क्षमा किया जा सकता है, जो बहन, बेटी की रक्षा का दम भरते हैं। उससे रिश्तों की दुहाई देते हैं। फिर उसे विवश करते हैं कि वह अपने जिस्म से उनके लिए रोटियां सेंके। उसे मजबूर करते हैं कि वह तितलियों को पकडऩे, सपने बुनने की उम्र में ग्राहकों की बाहों में मसली जाएं। एक ग्राहक ग्राहक के जाने के बाद दूसरे के लिए फिर सजकर रोड़ किनारे बैठ जाए। बाछड़ा समाज अपनी बेटियों से ही धंधा करवाता है। इस काम में बहुओं को आमतौर पर नहीं उतारा जाता है। भंवरी जोर देकर कहती हैं कि बहुएं पराए मर्द की ओर देख लें तो हमारे बेटे उनके हाथ-पांव काटकर फेंकने से भी नहीं हिचकते हैं। वह आगे कहती हैं, कमबख्त मर्द अपनी जोरू को संभाल कर रखना चाहता हैं, और बेटी/बहन को पैदा होते ही ग्राहक का बिस्तर गरम करने को बिठा देते हैं।
कुल मिलाकर बाछड़ा समाज के लिए बेटी मोटी कमाई का सहज, सुलभ साधन है। परिवार के उदर पोषण के लिए रूपया लाने वाला विद्रोह की संभावना रहित, ईमानदार माध्यम।
ग्राहकों को बुलाने और सौदा तय करने के काम में कहीं भी आपको कोई पुरूष नजर नहीं आएगा। इसे समाज के मर्दों की शान के खिलाफ समझा जाता है। यानि मां और उसकी बेटी/बेटियां ही धंधे के समय घर के दरवाजे और ढाबों, होटलों के इर्द-गिर्द नजर आती हैं। इनकी जाति पंचायतों की बात और भी निराली है। जहां एक ओर दुनिया के सामने मंच से शरीर के सौदे की मुखालफत की जाती है, वहीं दूसरी ओर पंचायत, सरकारी अफसर इसे ब$ढावा देते रहते हैं, ताकि उनकी दुकानें बंद न हों। वैसे भी यह सारा धंधा मर्दों के आलस और उनके निकम्मेपन की ही देन है। मर्दों के पास चूंकि एक तय रकम होती है, इसलिए वह मेहनत-मजदूरी से परहेज करते हैं।
एक ओर तो वह इस पेशे के लिए औरतों को ही जिम्मेदार मानते हैं, लेकिन दूसरी ओर इसी औरत ही जिम्मेदार मानते हैं, लेकिन दूसरी ओर इसी औरत (उनकी बहनों) के नोच खसोट का पैसा वह बिना शर्म पी$िढशें से डकार रहे हैं। आमतौर पर कहा जाता है कि वेश्यावृत्ति के मूल में गरीबी, अशिक्षा है, लेकिन यहां आकर तो यह तर्क भी गले से नहीं उतरता है, क्योंकि अनेक प$ढे लिखे लोग इस काम को अपने घरों में अंजाम दे रहे हैं।

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