"...ये बदन, ये निगाहें मेरी अमानत है...ये गेसुओं की घनी छांव है मेरी खातिर ..
ये होठ और ये बाहें मेरी अमानत है..."
शायद इस उम्दा और ख्यातनाम सिने नज़्म के इन अल्फाजों में ही प्रेम में आत्महत्या अथवा हत्या जैसे कृत्यों का राज छुपा है |
मूलत: पुरुष और स्त्री दो भिन्न व्यक्तित्व है...पुरुष जहां स्त्री पर अधिकार चाहता है ..बांध कर रखना चाहता है ..संपति की तरह........वही स्त्री सामान्यत: चंचला होती है ..एक जगह नही ठहरना ,उन्मुक्तता व जहां मन हो वहां बिना शर्त समर्पण मानो उसका धर्म है..
बस सारे फसाद की जड़ यह मूल चरित्र है| अभिनेता रणवीर कपूर ने अपने प्रेम के टूटने पर ठीक ही कहा था कि "मैं उसके फ्लर्ट करने की आदत से तंग था "...स्त्री बहना जानती है और पुरुष रोकना चाहता है | स्त्री सदैव प्रत्येक प्राप्त से असंतुष्ट रहती है और पुरुष उससे संतुष्टि का प्रमाण पत्र चाहता है |
जिस प्रकार दो दिशाएं नहीं मिल सकती वैसे ही शायद स्त्री -पुरुष चिरशत्रु से है | एक ही साथ दिखते हुए भी दो भिन्न भिन्न ध्रुवों के मालिक है ......मानो दो भिन्न ग्रहों के जीव लाखों बरस पूर्व पृथ्वी पर आए और साथ रहना 'कंडीशनिंग थिअ्री ' जैसी किसी मजबूरी का हिस्सा हो ||
हिंदी सिनेमा में बनी अनेक फ़िल्में इसकी गवाह है । जहां प्रेम को सुविधा पर क़ुर्बान करती स्त्री नज़र आएगी या पुरुष के स्त्री पर अधिकार की लालसा दिखेगी ।
त्रासदी यह है कि हिंदी सिनेमा में ख़ासकर निर्माता निर्देशक ज़्यादातर कम पढ़े लिखे है फिर ऊपर से सिनेमा उनके लिये व्यवसाय है प्रतिबद्धता नहीं सो वे चालू चाशनी वाली कहानियाँ परोस कर धन बटोरने में लगे रहते है । इधर देश की ७०% से अधिक अनपढ़ व अभावों से जूझती जनता के वास्तविक जीवन में इतने दुख है कि वो एक और दुख पर्दे पर झेलने को तैयार नहीं है ।सो वह आलिया अनुष्का में तीन घंटे अपनी फंतासी ढूँढता है।
अक्षय खन्ना और बॉबी की एक फ़िल्म थी जिसमें नायिका अक्षय के साथ मिलकर अमीर बॉबी को लूटने के लिये झूठ मूठ ब्याह रचाती हैं मगर अंत में पति के पक्ष में वोट डालते हुए प्रेमी को रास्ते से हटा देती है ।
ठीक इसके उलट रूस्तम में नायक सम्पूर्ण अधिकार अपनी स्त्री पर चाहता है सो उसके चालचलन पर शक होने पर नायिका को मार डालता है ।
सुंदरता की ओर आकर्षण एक सामान्य प्रकृति है मगर स्त्री सजीव है जिसकी सुंदरता की ओर सहज आकर्षण से पूर्व पुरुष को लगाम ज़रूरी है ।
प्रेम कहानियाँ यदि विवाह में परिवर्तित होती है महज शरीर रह जाती है और संतानोत्पत्ति करते हुए समाप्त हो जाती है और अगर असफल रहती है तो कविता या शायरी बन शराब में डूब जाती है । मगर प्रेम को दर्शन तक पहुँचाने की कला आध्यात्म है । यदि ओशो के जीवन में लक्ष्मी होती तो शायद वे सामान्य गृहस्थ होते ।
यह हिंदी सिनेमा का दुर्भाग्य है कि वो प्रेम को आध्यात्म की ऊँचाई दे पाने में असफल रहा है । वो शरीर या कविता तक ही दाँये बांये हुआ है । हाँ ..पाकीज़ा, एक दूजे के लिये , ओक्टोबर , इजाज़त जैसी चंद फ़िल्में इस कसौटी पर खरी उतरती है ।
काश हिंदी सिनेमा प्रेम पर सिनेमा बना पाता ।
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