सोमवार, 10 अप्रैल 2023

सदमा


सदमा

(आंसुओं के बीच धुँधलाती प्रेमकथा)

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          प्रेम कभी दो तरफ़ा नहीं हो सकता है । दो तरफ़ा तो समझौता या व्यापार ही संभव है ।

       और यह सत्य है .....प्रेम जिसे हो जाता है ..उसे हो जाता है  क्योंकि यह क्षणांश में घट जाने वाली है..... लौ लगने की तरह है ।फिर वहाँ यह प्रश्न ही समाप्त हो जाता है कि सामने वाले को भी तब बदले में प्रेम हुआ या नहीं। ठीक मीरां की तरह । मीरा को कृष्ण से प्रेम हो गया फिर कृष्ण को मीरां से हुआ या नहीं .. नहीं पता मगर वह प्रेम अद्भुत मिसाल बन गया ।

     पर सच यही है कि प्रेम  एक तरफ़ा ही होता है .. सामने वाला तो महज उसे सिर्फ़ स्वीकार या अस्वीकार करता है ….बस ।

         बालू महेन्द्र निर्देशित एक  फ़िल्म थी तामिळ में 'मुंद्रान पिरई '…यानि मानसिक पीड़ा । 1983 में यह फ़िल्म 'सदमा 'के नाम से हिंदी में बनी । जिसमें कमलहसन और श्रीदेवी मुख्यभूमिका में थे ।

          कहानी शुरू होती है ..रईस परिवारों के कुछ  युवक युवतियाँ पिकनिक मनाने से ..और लौटते समय उन मेंसे एक ख़ूबसूरत युवती (श्री देवी )की कार दुर्घटनाग्रस्त हो जाती है । उस युवती की याददाश्त चली जाती है ।

           उस दुर्घटना के कारण उसके मस्तिष्क पर आघात पहुँचता है  वह सब कुछ भूल जाती है और उसका व्यवहार 'रेट्रॉगेड एमेनेशिया ' के कारण छ वर्ष के बच्चे जैसा हो जाता है ।

        ट्रीटमेंट के दौरान उसे अपहरण कर रेड लाईट एरिया में बेच दिया जाता है जहाँ से नायक  सोमप्रकाश (कमलहसन )

,जो ऊटी के एक स्कूल में पढ़ाता है ,किसी तरह से बचा लाता है ।

         नायक उसे नया नाम देता है 'रेशमी '।नायक उससे प्रेम करने लगता है लेकिन एक छ बरस के बच्चे की तरह व्यवहार वाली युवती को वो प्रेम कैसे समझाए?       

      बस , वह दिन रात उसकी देखभाल करता है ...उसके मन के पीछे चलता है । रेशमी उस परिवार विहीन नायक सोमू के जीवन का आधार हो जाती है ...जिसके बिना जीने की कल्पना भी नायक के लिए संभव नहीं है ।

       एक दिन नायक को पता लगता है कोई वैद्य है जो खोई याददाश्त लौटने की औषधि करता है । नायक रेशमी को वहाँ ले जाता है ।वैद्य कहता है कि चिकित्सा में पूरा दिन लगेगा ।

       इस बीच पुलिस की सहायता से ढूँढते हुए युवती के माता पिता  उस वैद्य के यहाँ  पहुँच जाते है । शाम तक युवती की याददाश्त लौट आती है मगर मस्तिष्क पर आघात लगने से लेकर याददाश्त लौटने तक का सबकुछ भूल जाती है और वह अपने पैरेण्टस के साथ  घर जाने को स्टेशन को चली जाती है ।

        फ़िल्म का अंत बेहद दर्दनाक है ।भाग कर स्टेशन पहुँचा नायक सोमू हरसंभव कोशिश करता है कि रेशमी उसे पहचान जाए और ना जाए मगर रेशमी को याददाश्त के जाने से लेकर लौटने तक के बीच का कुछ याद नहीं ।नायिका उसकी ओर देखती ज़रूर है मगर उसे लगता है कि वो प्लेटफ़ॉर्म पर अजीबोगरीब हरकतें कर रहा कोई पागल है |

          ट्रेन एक लंबी सीटी देती है और चलने लगती है  व सोमू ऐसे अपने प्यार को हमेशा के लिये जाते  देख अपना मानसिक संतुलन खो बैठता है....

      तेज़ बारिश में भीग रहे पहाड़ी स्टेशन पर रेल के गुज़र जाने के बाद रोते बिलखते नायक का एक बैंच पर ढह जाना ....पार्श्व में उस लोरी का बजना ,जिसे गा कर वो रेशमी को सुलाता था .. वेदना को चरम पर ले जाता है ।            

         प्रेम के इस अंजाम पर दर्शक की आँखें भीग जाती है ।

         कैमरा धीरे धीरे वाइड एंगल पर शिफ़्ट होता है और  बैच पर निढाल नायक सोमू ..भीगा प्लेटफ़ार्म .... सूनी पटरियाँ .. कड़कती बिजलियाँ .. घने दरख़्तों को समेटते हुए सदैव के लिए ख़ालीपन छोड़ जाता है ।  141 मिनट की इस फिल्म के अन्तिम 41 मिनट में सिर्फ़ दर्द है . अनंत दर्द ।आँसुओं से स्क्रीन धुंधला जाती है । आप विवश से प्रेम का यह अंत देखते है ।नायक के लिये दुआओं में उठे आपके हाथ निष्प्राण से नीचे हो जाते है ।आप जार जार से रो पड़ते है .. कि प्रेम में इतना दर्द क्यों गूँथता है ईश्वर.. ?

           इलयराजा के संगीत में  गुलज़ार के लिखे गीत 'ऐ ज़िंदगी गले लगा ले ' और येशुदास की गाई लोरी 'सुरमई अँखियों में ' अद्भुत है ।कैमेरा उदगमण्डलम (ऊटी ) की ख़ूबसूरती को फ़िल्माने में कामयाब रहा ।

           फ़िल्म ने बेस्ट स्टोरी , बेस्ट एक्टर व बेस्ट एक्ट्रेस अवार्ड भी अपने नाम किए ।

     सदमा उन चंद सिनेमा में से एक है जहां इश्क़ इबादत सा लगता है ।लगता है फिर से किसी ने प्रेम को परिभाषित करने की आंसुओं से लबरेज़ कोशिश की है ।

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