रविवार, 23 मार्च 2014

करमापा का मिशन 'दलाई इम्पायर'!




भूपेश कुमार


Tuesday , February 01, 2011 at 18 : 26

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भौगौलिक नजरिए से देखें तो धर्मशाला और ल्हासा के बीच मीलों का फासला है लेकिन कहने वाले इसे मिनी ल्हासा कहते हैं। दिल्ली और ल्हासा के दिल कुछ 50 साल पहले तब मिले जब एक भिक्षुक ने कहा कि \'भारत संघम शरणम गच्छामि\'! बीजिंग और दिल्ली के बीच न तो दिलों के फासले कम हो पाए हैं और न ही भूगोल के और जब दिल में कहीं कसक हो तो हर घटना में साजिश का दिखना लाजमी है। तो फिर क्या था 11 लाख की बेहद मामूली मुद्रा ने भी बवाल खड़ा कर दिया क्योंकि ये युआन थे। युआन यानी चीन की मुद्रा। चीन का नाम जिस चीज के साथ जुड़ता है वो अपने आप में शक के घेरे में आ जाती है, यहां तो साथ में तिब्बत भी जुड़ गया। युआन और तिब्बत! जिस युआन को तिब्बत में रहने वाले लोग भी मजबूरी समझकर रखते हैं वही युआन अगर उन लोगों के पास से मिले जो तिब्बत से इसलिए भागे थे क्योंकि उन्हें चीन की आर्थिक, सामाजिक और आध्यात्मिक गुलामी मंजूर न थी तो सवाल के लिए जगह तो बनती है। किसी आम तिब्बती की बात होती तो तस्करी या फिर अवैध तरीके से विदेशी मुद्रा रखने का मामला समझकर कार्रवाई की जा सकती थी लेकिन बरामदगी जब एक ऐसे मठ से हो जिसका नियंत्रण तिब्बति बौद्ध धर्म के नंबर तीन के पास हो तो हलचल नॉर्थ और साउथ ब्लॉक में होती है और राडार हिमालय के उस पार झांकने की कोशिश करता है।
कुछ साल पहले सिक्किम के रुमटेक मठ में प्रवास के दौरान 16वें करमापा रंगजुंग रिग्पे दोर्जे ने भी हिमालय के पार पश्चिमी तिब्बत में फिर से जन्म लेने की बात कही थी। एक लंबी खोज के बाद 1992 में बोकार गांव में अपो गागा नाम के 8 साल के बच्चे को खोजा गया और कहा गया कि ये वही शख्स है जो 17वें करमापा के रूप में काग्यु संप्रदाय का नेतृत्व करेंगे और उन्हें उग्येन त्रिनले दोर्जे के नाम से जाना जाएगा। उधर चीन ने अपने पारंपारिक रुख को दरकिनार करते हुए इस नाम को स्वीकार किया और इधर दलाई लामा ने भी अपनी सहमति की मुहर लगा ली। चीन का ये बदला हुआ रुख भी संदेह के घेरे में रहा।
दरअसल तिब्बत में लाल कदम पड़ते ही तिब्बती बौद्ध धर्म को हान और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की परंपराओं के मुताबिक ढालने की कोशिशें शुरू हो गई थीं। इसी से तंग आकर तिब्बती धार्मिक नेताओं ने भारत का रुख किया था। सबसे पहले दलाई लामा आए जो उस वक्त तिब्बत के राष्ट्रप्रमुख थे और तिब्बति बौद्ध धर्म के नंबर एक। तीसरे नंबर के धार्मिक नेता 16वें करमापा रंगजुंग रिग्पे दोर्जे ने भी दलाई लामा की तरह भुटान की राह पकड़ी। लेकिन दूसरे नंबर के धार्मिक नेता 10वें पंचेन लामा चोइक्यी ग्याल्त्सेन ने वहीं पर रुकने का फैसला किया। कहा जाता है कि चीनी सरकार ने सत्ता के मोहपाश में उन्हें फांस लिया था। यही वजह थी कि उन्हें चीन की नेशनल पीपल्स कांग्रेस का वाइस चेयरमैन बनाया गया। चीनी नीतियां लंबे समय तक रास आतीं ऐसा मुमकिन नहीं था तो उन्होंने विरोध का झंडा बुलंद करने की कोशिश की लेकिन दमन का डंडा चला और उन्हें बीजिंग में करीब 10 साल तक जेल की हवा खानी पड़ी। दमन के सामने नतमस्तक 1982 में स्वदेश लौटे और 7 साल बाद 1989 में शरीर त्याग दिया। अब तिब्बत में कोई भी बड़ा धर्म गुरु नहीं बचा था। 16 वें करमापा लामा भी 1981 में दुनिया छोड़ चुके थे। इधर दलाई लामा के नेतृत्व में प्रवासी तिब्बतियों ने चीन के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था तो उधर अमेरिका पश्चिमी देशों के साथ मिलकर तिब्बत में मानवाधिकारों के हनन को मुद्दा बनाकर चीन के शासन की वैधता को चुनौती दे रहा था। तिब्बती राष्ट्रवाद धर्म पर टिका था। चीन को भी ये एहसास था कि अगर तिब्बतियों के बीच अपनी मान्यता को पुख्ता करना है तो भौगौलिक तिब्बत की बजाय धार्मिक तिब्बत पर कब्जा करना होगा। अब तिब्बती बौद्ध धर्म के शीर्ष तीन स्थानों में से दो स्थान खाली थे। ऐसे में काग्यु संप्रदाय ने जब त्रिनले उग्येन दोर्जे को 17वें करमापा के रूप में ल्हासा के सुरपु मठ में बिठाया तो चीन ने भी इस आसरे उन पर डोरे डालने शुरू किए कि एक दिन 8 साल का ये धर्मगुरु तिब्बतियों के बीच चीन के एजेंट के रूप में काम करेगा! उधऱ पंचेन लामा के मामले में दलाई लामा के चुने गोधुन चोयिकी न्यिमा को चीन ने अस्वीकार कर लिया और उसे किसी अज्ञात ठिकाने में नजरबंद कर ग्यैनकैन नोरबू को 11 वां पंचेन लामा घोषित कर लिया। चीनी पंचेन लामा की तिब्बती समाज में ज्यादा पहुंच नहीं बन पाई। ऐसे में जनवरी 2000 में करमापा भी लाल सेना को चकमा देकर धर्मशाला पहुंचे। चीन की तमाम धमकियों के बावजूद तात्कालिक वाजपेयी सरकार ने शुरुआती ना नुकुर के बाद उन्हें शरण दे दी। करमापा को कायदे से सिक्किम के रुमटेक मठ में बैठना चाहिए था लेकिन उग्येन त्रिनले को धर्मशाला की ग्युतो तांत्रिक युनिवर्सिटी में बैठाया गया। वजह 17वें करमापा पर उठा विवाद।
तिब्बति बौद्ध धर्म के 4 संप्रदायों में से एक काग्यु संप्रदाय के 4 गुरुओं में से दो ने उग्येन त्रिनले को 17वां करमापा माना था और 1 की मौत हो गई थी जबकि संप्रदाय के नंबर दो शरमापा कुंजिग शमार रिंपोछे ने थिनले थाये दोर्जे को 17वां करमापा घोषित कर दिया। थाये पश्चिम बंगाल के कलिंगपोंग मठ में रह रहे हैं। और तिब्बति समुदाय में उनकी भी अच्छी खासी पैठ है। इतना ही नहीं एक और शख्स दावा सांग्पो दोर्जे भी 17वां करमापा होने का दावा करता है। लेकिन दलाई लामा की स्वीकृति त्रिनले को सर्वमान्य बनाती है और शायद यहीं से नौजवान त्रिनले की महत्वकांक्षा का जन्म होता है।
त्रिनले और उनके सिपहसालारों को अच्छी तरह पता है कि तिब्बती बुद्धिज्म एक ब्रांड बन चुका है जिसके एंबेसेडर दलाई लामा हैं। ये न सिर्फ 29 लाख तिब्बत वासियों और करीब डेढ़ लाख निर्वासित तिब्बतियों का धर्म है बल्कि यूरोप, एशिया और अमेरिका के एक अच्छे खासे तबके के जीवन का हिस्सा बन चुका है। सामाजिक स्तर के पहले पायदान पर आने वाला वर्ग इससे ज्यादा प्रभावित है फिर वो चाहे फिल्मस्टार हों, उद्योगपति हों, ब्यूरोक्रेट्स हों या फिर नेता। दलाई लामा जहां भी जाते हैं उनको सुनने के लिए मजमा लग जाता है। 2003 में तो लंदन के सेंट्रल पार्क में करीब 65 हजार लोग उनको सुनने के लिए इकट्ठा हुए। किसी दूसरे धर्म के गुरु को सुनने के लिए इतनी संख्या में लोगों का आना अपने आप में एक आश्चर्य है। प्रतिष्ठित टाइम मैगजीन ने कहा कि वो दुनिया के 100 सबसे शक्तिशाली इंसानों में से एक हैं और ईसाई बाहुल्य जर्मनी में करीब 40 फीसदी लोग उन्हें पोप और नेल्सन मंडेला से भी ऊपर मानते हैं। अपने पिछले अमेरिकी दौरे में लोगों ने उनके तीन दिन के प्रवचनों के लिए 400 डॉलर के टिकेट खुशी-खुशी खरीदे। इसके अलावा तिब्बत के रिफ्युजियों के नाम पर अकेले अमेरिका का विदेश विभाग करीब 16 करोड़ रुपए की वार्षिक मदद देता है। दूसरे देशों से भी अलग-अलग मात्रा में आर्थिक मदद आती है। साफ है कि दलाई लामा ने धर्म के नाम पर एक सम्राज्य खड़ा कर दिया है लेकिन सम्राट अब 76 साल का हो चुका है। तमाम दुनिया की तरह दलाई लामा को भी पता है कि अब इस शरीर से विदा लेने का वक्त कभी भी आ सकता है। इसलिए उनके द्वारा खड़े किए गए इस \'दलाई इम्पायर\'- जो भौगौलिक सीमाओं से परे है- को संभालने के लिए एक काबिल उत्तराधिकारी की जरूरत है।
पिछले कुछ वक्त से उत्तराधिकार की ये कशमकश बीजिंग से लेकर धर्मशाला तक जारी है। चीन ल्हासा के पोटाला पैलेस में अपनी पसंद का दलाई लामा बिठाना चाहता है तो यही बात दलाई लामा के लिए चिंता का सबब बनी हुई है। तभी तो कयासों का बाजार गर्म है। कभी किसी औरत के अगला दलाई लामा बनाने का किस्सा उछलता है तो कभी मौजूदा करमापा उग्येन त्रिनले दोरजे को चुपचाप बैटेन थमाने का कयास जोर पकड़ता है। उतराधिकार की इस जंग का एहसास त्रिनले को अच्छी तरह है और वो ये भी बखूबी जानते हैं कि वो दलाई लामा की तरह सर्वमान्य नहीं हो सकते। इसलिए एक तरफ जहां वो अपने ही कुनबे की चुनौतियों से निबटने की तैयारी कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर चीन पर भी उनकी नजर है। अपने मिशन को अंजाम तक पहुंचाने के लिए उनको विदेशों में फैले अनुयायियों तक पहुंचना होगा। ऐसा करने के लिए आध्यात्म के साथ-साथ मुद्रा की जरूरत भी पड़ेगी और यही वो कर भी रहे हैं। कहने वाले कहते हैं कि वो चीन के जासूस हैं और दलाई लामा के चीन विरोधी अभियान को पटरी से उतारने के लिए चीन ने बड़ी चालाकी से उन्हें खुद भारत भेजा था। इतना ही नहीं धर्मशाला और मैकलोडगंज के 4-5 मठों में से ज्यादातर का निर्माण चीनी मदद से होने का आरोप लगता रहा है। जासूसी का तर्क थोड़ा समझ से परे है क्योंकि करमापा को इतना पता है कि दलाई लामा की पीठ में छुरा घोंपकर वो दलाई इम्पायर का भरोसा नहीं जीत सकते। इस अनूठे सम्राज्य में वो उनके जूते में पैर डालकर ही घुस सकते हैं और फिर करीब 7 करोड़ की विदेशी मुद्रा की बरामदगी के तार सिर्फ जासूसी से ही क्यों जोड़े जाए? ये भी तो हो सकता है कि वो दलाई लामा की बरसों पुरानी अहिंसा की नीति को छोड़कर दम तोड़ रहे तिब्बति राष्ट्रवाद में हिंसा का तड़का लगाकर अपने लिए एक अलग मुकाम बनाने की कोशिश कर रहे हों?

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