औलाद पाने का कारोबार: 'निःसंतान हों, तो मिलें…'
सोमवार, 10 मार्च, 2014 को 07:21 IST तक के समाचार
अख़बार के किसी कोने में, रेलवे
लाइन के पास की किसी दीवार पर या किसी बड़े शहरी अस्पताल के बोर्ड पर आपने
अक़सर लिखा देखा होगा – ‘निःसंतान हों, तो मिलें…’
मैंने भी देखा है... और हर बार याद किया है उन
महिलाओं को जिन्होंने मुझे समझाया कि बच्चा पैदा करने में सक्षम होने के
बावजूद वे क्यों निःसंतान रहना चाहती हैं, अपनी ज़िन्दगी अलग तरीके से जीना
चाहती हैं.वो लौ जिसमें फल-फूल रहा है भारत का एआरटी (असिस्टेड रिप्रोडक्टिव टेक्नीक) उद्योग. छोटे-बड़े शहरों में नए और आधुनिक तरीकों से बच्चा पैदा करने के उपाय कर रहे क्लीनिक तेज़ी से बढ़ रहे हैं.
लाखों का ख़र्च और सफलता की दर केवल 30 प्रतिशत. ये कैसे इलाज हैं? इन्हें कौन कर रहा है? करने वालों पर नज़र कौन रख रहा है? करवाने वालों की इच्छा इतनी प्रबल क्यों है? और इस सब में ख़तरा कितना है?
इन सवालों के जवाबों में छिपी हैं दंपति, डॉक्टर, इलाज और क़ानून की कहानी – इन सभी से मिलवाऊंगी मैं आपको अगले चार दिनों में अपनी विशेष रिपोर्ट्स के ज़रिए.
बारह साल पहले, वर्ष 2002 में जब भारत सरकार ने देश में एआरटी (असिस्टेड रिप्रोडक्टिव टेकनीक) उद्योग पर पहला शोध किया तो इसे 250 क्लीनिक वाला 25,000 करोड़ रुपए का व्यवसाय पाया था.
यह शोध स्वास्थ्य मंत्रालय के शोध संस्थान, इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) ने किया था. एआरटी उद्योग से जुड़ा सारा काम अब इसी संस्थान के ज़िम्मे है.
आईसीएमआर में इस काम के प्रमुख साइंटिस्ट, आर एस शर्मा से मैंने लंबी बातचीत की. उन्होंने बताया कि जब वह इस मुद्दे से पहली बार जुड़े तो अंदाज़ा नहीं था कि यह अरबों रुपए का उद्योग बन जाएगा, “यह उद्योग बहुत तेज़ी से फैल रहा है, हमारा ख़्याल है कि देश में 2,000 से भी ज़्यादा छोटे-बड़े क्लीनिक इनफर्टिलिटी के इलाज कर रहे हैं, इस अनुपात से आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि उद्योग का व्यवसाय भी कितना बढ़ गया होगा.”
क्लीनिक
इस बढ़ती मांग के चलते दुनियाभर में छोटे-बड़े कई क्लीनिक्स में यह इलाज किया जाने लगा है. इनमें से कुछ पर इलाज के लिए सही तरीके इस्तेमाल ना करने के आरोप भी लगते रहे हैं.भारत में भी ऐसी शिकायतें सामने आने पर आईसीएमआर ने एआरटी क्लीनिक्स और बैंक्स की एक रजिस्ट्री तैयार करने का फ़ैसला किया.
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‘नेशनल रजिस्ट्री ऑफ एआरटी क्लीनिक्स एंड बैंक्स इन इंडिया’ की इस सूची में फ़िलहाल सिर्फ़ 192 क्लीनिक्स और सेंटर्स के नाम हैं. आईसीएमआर की वेबसाइट पर उपलब्ध इस सूची पर साफ़ लिखा है कि इसमें किसी सेंटर का नाम होने का मतलब ये नहीं कि उस सेंटर की सुविधाओं को आईसीएमआर ने जांचा है, बल्कि ये सिर्फ जानकारी का कोष है.
हरियाणा के हिसार में बीबीसी की टीम ने जिस आईवीएफ सेंटर का दौरा किया, उसका नाम इस सूची में नहीं है. सेंटर के मुताबिक़ वहां सालाना 1,000 महिलाओं का इलाज होता है.
वहीं आईसीएमआर की इस सूची में शामिल दो सेंटरों में इलाज करवाने वाली महिलाओं की मौत होने के बाद उनके परिजनों ने उन सेंटरों के ख़िलाफ़ इलाज में लापरवाही का आरोप लगाते हुए क़ानूनी कार्रवाई शुरू की है. ये सेंटर ख़ुद को निर्दोष बताते हैं.
डॉक्टर आर एस शर्मा के मुताबिक़ वह और उनके दो सहयोगियों के काम करने की भी एक सीमा है. उन्होंने कहा, “एक शोध संस्थान के पास इतने साधन नहीं हैं कि वो देश में काम कर रहे 2,000 से ज़्यादा क्लीनिक्स की जांच कर सके. हम यह ख़ाका बनाकर स्वास्थ्य मंत्रालय को देंगे और वो ही फिर जांच के लिए कोई इंतज़ाम करेगा.”
डॉक्टर शर्मा मानते हैं कि क़ानून के अभाव में ज़्यादातर क्लीनिक इस रजिस्ट्री में अपना नाम लिखवाने तक के लिए भी ख़ुद को बाध्य नहीं मानते. यानी अरबों रुपयों का उद्योग, पर निजी क्लीनिक पर कोई क़ानूनी रोक-टोक नहीं.
दिशा-निर्देश
एआरटी का उद्योग बढ़ा तो साथ ही सामने आने लगीं क्लीनिक्स की लापरवाही की शिकायतें और बहस छिड़ी दानकर्ता मां, पैदा होने वाले सरोगेट बच्चे और संतानहीन मां-बाप के हक़ों पर.आख़िरकार वर्ष 2005 में आईसीएमआर ने एआरटी के तहत होने वाले इलाज के लिए दिशा-निर्देश बनाए. हालांकि इनका पालन क़ानूनी तौर पर अनिवार्य नहीं है और इनका उल्लंघन करने पर किसी व्यक्ति, संस्था या क्लीनिक को सज़ा भी नहीं हो सकती.
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ब्रिटेन, फ़्रांस, जर्मनी, इटली, जापान, कोरिया, मेक्सिको, नॉर्वे, सऊदी अरब, दक्षिण अफ्रीका, मिस्र और तुर्की समेत 29 देशों में एआरटी के इलाज के कायदों पर क़ानून बनाया गया है.
अमरीका, पुर्तगाल, पोलैंड और फिनलैंड में क़ानून तो नहीं पर भारत की ही तरह दिशा-निर्देश बनाए गए हैं.
इन दिशा-निर्देशों में इलाज करने वाले क्लीनिक के साज़ो-सामान और इलाज करने के उपकरण, डॉक्टर और नर्स की योग्यता, इलाज की सही तकनीक, मरीज़ के चयन के लिए ज़रूरी टेस्ट और इलाज के ग़लत इस्तेमाल पर चेतावनी दी गई है.
क़ानून के अभाव में फ़िलहाल इस उद्योग में यही दिशा-निर्देश, नियम की तरह काम करते हैं. स्वास्थ्य क्षेत्र में काम कर रहे कार्यकर्ताओं के मुताबिक़ ये नाकाफ़ी हैं. पिछले आठ साल से एआरटी पर शोध और चर्चा कर रही संस्था ‘समा’ के दफ़्तर में मैं मिली सरोजिनी से.
सरोजिनी के मुताबिक़ दिशा-निर्देश दान करने वाली महिला या सरोगेट महिला की सेहत को केन्द्र में रखकर नहीं बनाए गए बल्कि इन सेवाओं को ख़रीदने वाले दंपति और इलाज करने वाले क्लीनिक्स के हितों के लिए बनाए गए हैं.
क़ानून
इन्हीं सरोकारों को ध्यान में रखते हुए वर्ष 2010 में आईसीएमआर ने एआरटी के तहत होने वाले इलाज के लिए विधेयक भी बनाया – द असिस्टेड रिप्रोडक्टिव टेक्नॉलॉजीज़ (रेग्यूलेशन) बिल 2010.क्लिक करें बिल पड़ने के लिए क्लिक करें
इस विधेयक में एआरटी के इलाज से जुड़े क़ायदों के उल्लंघन पर क्लीनिक के ख़िलाफ़ शिकायत करने के तरीके का उल्लेख और तीन से पांच साल की सज़ा का प्रावधान भी किया गया है.
साथ ही मरीज़, अंडा दान करने वाली महिला या शुक्राणु दान करने वाले पुरुष, सरोगेट मां और सरोगेसी से पैदा हुए बच्चों के अधिकारों की भी जानकारी दी गई है. पर चार साल पहले बनाया गया यह बिल अभी तक संसद में पेश नहीं हुआ है.
आईवीएफ की तकनीक से भारत में पहला बच्चा, हर्ष, अगस्त 1986 में मुंबई में पैदा हुआ था.
1988 में विश्व स्वास्थ्य संस्था (डब्ल्यूएचओ) के एक शोध के मुताबिक़ भारत में करीब सवा करोड़ से दो करोड़ दंपति बच्चे पैदा करने में असमर्थ थे.
ज़्यादातर दंपति इन्फेक्शन, टीबी या अन्य बीमारियों के इलाज के उपचार के बाद बच्चे पैदा करने में समर्थ होते हैं, लेकिन आईसीएमआर के मुताबिक़ क़रीब आठ प्रतिशत (10 लाख से 16 लाख के बीच) को एआरटी जैसे अति-आधुनिक इलाज की ज़रूरत होती है.
साल 1988 में अनुमानित लाखों संतानहीन दंपतियों का यह आंकड़ा अब करोड़ की रेखा लांघ गया हो, तो अचम्भा नहीं होगा.
सरोजिनी के मुताबिक ज़रूरत है इन संतानहीन दंपतियों के इलाज की, पर जब तक उस दिशा में नए रास्ते सामने नहीं आते और अपना बच्चा होने की चाह रखनेवाले ये लोग एआरटी पर निर्भर हैं, तब तक एक स्पष्ट क़ानून के बनने की ज़रूरत ज़ोर पकड़ती रहेगी.
एआरटी उद्योग पर हमारी विशेष रिपोर्ट्स की कड़ी में आगे आप पढ़ेंगे ऐसी महिला के बारे में जो ऐसे ही एक इलाज के बाद अपनी जान गंवा बैठी.
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