प्रकृति के परम – तत्व से
साहचर्य का महापर्व है - करमा.भाद्र पद एकादशी को जनजातीय समाज इसे काफी उत्साह
से मनाता है.इन दिनों धान की बालियों से भीनी-भीनी गंध पसरने लगती है और हरियाली
दूर-दूर तक छा जाती है.ऐसे मौसम में मनाये जाने वाला करमा ही एक ऐसा महापर्व है
जिसे जनजातीय समाज के अलावा अब अन्य समुदाय भी समान रूप से मनाते हैं.
गैर जनजातीय महिलाएं और
कन्याएं अपने भाई की सलामती के लिए व्रत रखकर इसे मनाती हैं जबकि जनजातीय समुदाय
भाग्यवर्द्धन और परस्पर बंधुत्व में वृद्धि के लिए.कर्मा की पृष्ठभूमि में जनजातीय
सांस्कृतिक चेतना,जीवन-दर्शन,लोक-विश्वास,धर्म और प्रकृति के प्रति आदिम संवेदनाएं
हैं.निराकार ईश्वरीय सत्ता के समक्ष मानव का श्रद्धा –नैवेद्ध अर्पण करना मानव सभ्यता के क्रमिक विकास का
प्रतीक है.
करमा का अर्थ है – ‘हाथमा’ अर्थात भाग्य में.इस पर्व में करम वृक्ष की डाली गाड़ कर उसकी पूजा की जाती है.आदिवासी समाज में उनके पुरोहित – पाहन करम डाली की पूजा संपन्न कराते हैं तो गैर आदिवासी समाज में पुरोहित यह पूजा कराते हैं.करमा पर्व के दिन भर स्त्री-पुरुष उपवास रखते हैं और रात्रि में पूजा करते हैं.यह पर्व सामूहिक रूप से मनाया जाता है.धूप-दीप,नैवेद्ध,फूल-अक्षत,सिन्दूर,खीरा,भुने हुए चने का प्रसाद इसमें चढ़ाया जाता है.
आदिवासी युवक वन से करम
वृक्ष की डाली लाने के लिए समूह बनाकर निकलते हैं.कुंआरी कन्याएं उन्हें विदाई
देती हैं.करम की डाली लाने के लिए युवा आदिवासी मांदर और नगाड़ा बजाते हुए जंगल की
ओर जाते हैं.युवतियां उनके साथ नाचती-गाती जाती हैं.करम के वृक्ष के पास पहुंचकर
वे उसे प्रसन्न करने के लिए कुछ समय तक उसकी परिक्रमा करते हुए नृत्य करते हैं.
जो
युवक-युवतियां पहली बार उपवास कर रहे होते हैं,वे करम वृक्ष के चारों ओर धागे
बांधते हैं.फिर उस पर हल्दी पानी छिड़कते हैं.इसके बाद कोई युवक वृक्ष पर चढ़ कर
उसकी तीन डालियां काटता है.इन कटी हुई डालियों को जमीन पर नहीं गिरने दिया
जाता.सम्मानपूर्वक इन डालियों को युवक साथ आयी युवतियों को सौंप देते हैं.वे करम
की डालियां कंधे पर ढो कर लाती हैं.
सभी युवक युवतियां
नृत्य-गीत के बीच थिरकते हुए गांव वापस आते हैं.पह्नाइन गांव के अखाड़े के पास उनका
स्वागत करती हैं.उनके साथ पाहन और महतो भी होते हैं.युवतियां डालियों को पह्नाइन
को थमा देती हैं.करम की डालियों को धोने के पश्चात अखाड़े के बीच उन्हें रोप देती
हैं.उस पर तेल सिंदूर का लेप किया जाता है.उसके निकट एक दीप जलाया जाता है.फिर
सारी रात और दूसरे दिन करमदेव की विदाई तक गीतों की अनवरत धारा बहती रहती
है.मांदर,बांसुरी,ठेचका,नगाड़ा वाद्य यंत्रों के ताल-लय पर झूमर नृत्य करते हुए
उपवास रखने वाले युवक-युवतियों के पाँव थकते नहीं.
करमा गीत प्रायः पांच तरह
के होते हैं – सुमिरनी,संक्षईया,अधरतिया,मिनसहर,ठड़िया.
सुमिरनी किसी शुभकार्य से पूर्व ईश्वर
वंदना के गीत होते हैं.इनमें राम,कृष्ण और परम सत्ता के प्रति श्रद्धा निवेदित की
जाती है.इसी तरह का एक गीत है.........
हाय रे ओकोतिया
रुतई औरोड,तानी
रे छैला
हाय रे ओकोतिया
निंदा सिंगी आ-
ए-
नलिन मेंदा जो रो
बान रे छैला
हाय रे ओकोतिया
चंदन कस्तूरी या
सोबेनगोसो जना
हाय रे ओकोतिया
(हाय ! बांसुरी बजाने वाला छोकरा कहां चला गया ? हाय-हाय,कहां चला गया ? रात-दिन उसके लिए आँखों से आंसू बरसते रहते हैं.हाय,वह छोकरा कहां चला गया ? चंदन-कस्तूरी एवं फूल मुरझा गये. हाय ! वह बांसुरी बजाने वाला छोकरा कहां चला गया ?)
संक्षईया में स्थानीय
जनजीवन और जनजातीय समाज की व्यथा का शाब्दिक चित्रण होता है.मध्य रात्रि के प्रथम
पहर में गाया जाता है – अधरतिया या रिझवारी,जो श्रृंगारसिक्त भावना पर आधारित होता
है.इसमें दिन-रात को संयोग-वियोग के रूपक के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है.
रात्रि का अंत होता
है.पूर्व में सूर्य उदय होने लगता है.मन में उमंगें जागने लगती हैं.तो स्वतः ही
कंठ में सुर जगने लगते हैं.इस समय गाया जाता है मिनसहर गीत,जिनमें संघर्षशील जीवन
में क्षण भर के लिए,घने घुमड़े बादलों के बीच छिपे सूर्य को निहारने का सुख मिलता
है.......
कनेत उंचे कारी
बदरिया रे
कने तरिसे जल
मेघे
सरगे त उंधे ये
कारी बदरिया
अघरे बरीसे जल
मेघे....
ठड़िया करम गीतों में
जनजातीय जीवन-दर्शन का भावात्मक स्पर्श
होता है.क्षणभंगुर जीव-जगत में ऐंद्रिय
सुख मात्र क्षणिक है और निरंतर क्षय होता हुआ मनुष्य कब तक इस सत्य से अनभिज्ञ
रहेगा ? इस लिए भोग-विलास में न पड़कर जीवन को सुधारें,धरती को संवारें.
झूमर नृत्य और करमा गीत के
बाद युवतियां करम डालियों के साथ जल रहे दीपक के पास आकर बैठ जाती हैं.उनकी
टोकरियों में फूल और कपड़ों में लिपटा एक खीरा रखा होता है,जो उनकी भावी संतान का
प्रतीक होता है.करम पूजा के पश्चात पाहन करमा-धरमा की कथा सुनाता है.करमा कथा
विभिन्न रूपकों में,भिन्न-भिन्न अंचलों में भिन्न-भिन्न कथानकों में कही जाती
है.मुंडारी,संथाली,गोंड आदि जनजातीय समाजों में करमा-कथा कई कारणों से भिन्न है
क्योंकि काल और परंपरा इनके समाजों में भिन्न है. लेकिन सभी करमा कथाओं का सार एक
सा ही है.
राजा द्वारा करम की उपेक्षा
और परिणामस्वरूप उस पर विपत्तियों का आगमन.मुंडारी करमा-कथा में सृष्टि का उद्भव
और आदिमानव के जन्म का भी वर्णन है.सामाजिक विकास और मानवीय-मूल्यों का क्रमिक
विकास भी इस कथा में प्रतीक रूप से वर्णित है.कथा श्रवण के बीच-बीच में करम की
कृपा के लिए करम डाली पर पुष्पों की वर्षा की जाती है.कथा समाप्ति पर लोग अपने-अपने
घर चले जाते हैं.
रात्रि में फिर पूजा-स्थल
पर एकत्र होते हैं.रातभर,भोर की लाली फूटने तक,करम के आदर में नृत्य-गीत चलता रहता
है.नृत्य अबाध होता है,इसलिए इसकी तेज और मंद लय में रहती है.मांदर पर एक विशेष
ताल ही बज सकता है.इस आयोजन में ढोल-वादन वर्जित है.दिन चढ़ते ही पह्नाइन करम की
डालियां उखड़वाकर युवतियों को सौंप देती
हैं.वे इसे अपने कंधों पर उठा लेती हैं.झूमते-थिरकते नदी या जलाशय में उसे विसर्जन
कर वे करम राजा या वनदेव से भाई और परिवार के लिए सौभाग्य की याचना करती हैं.
आज के बाजारवाद और उपभोक्तावाद के इस युग में जहां पर्व-त्यौहार ग्लैमर से युक्त होने लगे हैं वहीँ प्रकृति से साहचर्य का यह पर्व मनुष्य को अपने जड़ों की ओर संकेत करने और प्रकृति के साथ संबंधों को भी दर्शाता है.
Thursday, September 17, 2015
सूर्यपुत्र और ग्रीक कथाएं
ग्रीक कथाओं में फेथन |
कई भारतीय पौराणिक कथाओं
एवं ग्रीक कथाओं में काफी समानता है,लेकिन यह समानता कथाओं के प्रारंभ में ही
है,इनका अंत बिल्कुल भिन्न है.
सूर्यपुत्र कर्ण महाभारत के
प्रमुख पात्रों में से एक है.उसके बिना महाभारत की कथा पूरी नहीं होती.सूर्य जैसे
तेजस्वी पिता के पुत्र होते हुए भी उसे आजीवन नाजायज संतान होने का अभिशाप भोगना
पड़ा.कर्ण के समान ग्रीक कथाओं में सूर्य का पुत्र फेथन है.उसे मां का प्यार तो
मिलता है और पिता का सानिंध्य भी, लेकिन उसका अंत अत्यंत दुखद होता है. ग्रीक
पौराणिक कथाओं में सूर्य देवता का नाम हीलियस है.उसका जगमगाता हुआ भव्य महल सुदूर
पूर्व में कोचलिस के पास स्थित है.
भोर होते ही उसका प्रिय
पक्षी मुर्गा जोर से बांग देकर अपने स्वामी के आगमन की सूचना देने लगता है.उसकी
बहन उषा की देवी सुंदरी इऑस अपनी गुलाबी अँगुलियों से पूर्व के विशाल द्वार खोल
देती है और अपने चार घोड़ों के रथ पर आसीन हीलियस दिवस-यात्रा पर निकल पड़ता है.हीलियस
का व्यक्तित्व प्रभावपूर्ण है.कहीं-कहीं उसके शरीर में पंख भी दर्शाये गए हैं जो
उसकी तीव्र गति के प्रतीक हैं.उसकी पत्नी का नाम पर्सी है.
हीलियस की एक प्रेमिका है
क्लामिनी.वह उसके संसर्ग से एक पुत्र को जन्म देती है जिसका नाम है फेथन.क्लामिनी
अपने पुत्र फेथान को पालती-पोसती और बड़ा करती है.जब फेथन कुछ बड़ा होता है तो
क्लामिनी उसे प्रतिदिन उगते सूरज की ओर संकेत करके उसके दिव्य पिता के अद्भुत
सौंदर्य और तेज के बारे में बताया करती है.
फेथन सूर्य देवता के पुत्र
होने के बारे में जानकर गर्व से भर उठता है और अक्सर अपने दोस्तों को बताया करता
है.दोस्त उससे इस बात का प्रमाण देने को कहते हैं.वह तत्काल अपनी मां के पास
पहुँचता है और सूर्य देवता के पुत्र होने का प्रमाण मांगता है.क्लामिनी आकाश में
यात्रा कर रहे सूर्य की और हाथ उठाकर कहती है कि ‘स्वयं सूर्य देवता साक्षी हैं कि
मैंने तुसे असत्य नहीं कहा. आकाश में चमकता सूर्य और पृथ्वी पर फैला उसका प्रकाश
जितना सत्य है,उतना ही सत्य यह है कि तुम सूर्य देव के पुत्र हो.यदि तुम इस बात से
संतुष्ट नहीं तो स्वयं अपने पिता सूर्य देव से पूछ लो.’
सोच-विचार कर वह सूर्य के
महल की और चल पड़ा.अद्भुत था सूर्य का महल.स्वर्ण की दीवारें,हाथी दांत की तरह,उनमें
जड़ित हीरे-जवाहरात.ऐसा लगता मानो महल प्रकाश के टुकड़ों से बना हो.वहां हर समय दिन
का उजाला फैला रहता.रात और अंधेरे का कहीं नाम न था.स्वर्ण के सिंहासन पर सूर्य
देवता हीलियस विराजमान थे.
हीलियस ने फेथन को देखते ही
पहचान लिया कि वह उसका पुत्र है.सूर्य ने अपने सिर से किरणों का ताज उतारकर एक ओर
रखते हुए उसके आने का कारण पूछा.सूर्य के मुस्कुराते चेहरे को देखकर आश्वस्त हुए
फेथन से आने का कारण पूछा.उसके आने का प्रयोजन जानते हुए सूर्य देव ने कहा कि
क्लामिनी ने उसे सत्य बताया है.आज जो चाहो मांग लो.
फेथन ने न जाने कितनी बार
सूर्य के रथ को आकाश में यात्रा करते देखा था.वह एकदम से बोल उठा,बस एक दिन के लिए
मुझे अपना रथ दे दें.हीलियस का को पल भर में ही एहसास हो गया कि वचन देकर उन्होंने
कितनी गलती की है.अपने सुनहले बालों वाले सिर को इनकार में हिलाते हुए उन्होंने
कुछ और मांगने को कहा लेकिन फेथन अपने हठ पर कायम था.यौवन की उदंडता उसकी रगों में
दौड़ रही थी.एक-एक कर तारे बुझ चले थे.उषा ने भी द्वार खोल दिए थे और गुलाब के
फूलों से भरा मार्ग उसके आंचल सा महक उठा था.
हताश हो हीलियस फेथान को रथ
के पास ले गया.उसके सिंहासन पर हीरे जड़े थे जो सूर्य के प्रकाश में और भी चमक
उठते.एम्ब्रोशिया का भोजन लिए हुए स्वस्थ,सुदृढ़ घोड़े रथ में जुटे थे.हीलियस ने एक
द्रव फेथान के मुख पर मल दिया ताकि वह झुलसा देने वाली लपटों की गर्मी सह सके.गर्व
से भरा हुआ फेथन तुरंत रथ पर चढ़ गया.हीलियस ने लगाम उसके हाथ में थमा दी.
गर्वोन्मत्त फेथन का रथ
पूर्व के द्वार से निकला.घोड़े इतने तेज दौड़ने लगे कि हवाएं भी पीछे छूटने
लगीं.सामने आकाश का विस्तृत क्षेत्र था और नीचे पृथ्वी.पल भर में ही उसका सीना
गर्व से भर उठा.लेकिन शीघ्र ही स्थिति बदल गयी.रथ तेजी से इधर-उधर झटका खाने
लगा.फेथन घोड़ों पर से नियंत्रण खो बैठा.घोड़े समझ गए थे कि उसका लगाम कमजोर हाथों
में है.वे अपनी इच्छानुसार इधर-उधर दौड़ने लगे.
फेथन भय से मूर्छित हो गया
और लगाम उसके हाथ से छूट गयी.घोड़े सरपट दौड़े जा रहे थे,फेथन के प्राण गले में अटके
हुए थे.बादलों से धुंआ उठने लगा था.रथ अपना निश्चित मार्ग छोड़कर काफी नीचे आ
गया.सूर्य की गर्मी से पहाड़ों में आग लग गयी.सबसे पहले इसका शिकार हुआ सबसे ऊँचा
पर्वत इडा,जो अपने झरनों के लिए प्रसिद्ध था,म्यूजेज का निवास स्थान हेलिकन और
परनासस.
सूर्य रथ निरंतर एक पुच्छल
तारे की तरह पृथ्वी की ओर गिरता चला आ रहा था.बड़े-बड़े नगर,उंची विशाल इमरतें जलकर
खंडहरों में बदल गयीं.फसलें जलकर राख हो गयीं.जंगलों में आग लग गयी और उबकी लपटें
आकाश तक पहुँचने लगीं.हरे-भरे घास के मैदान राख और रेत के ढेर बन गये.लिबयान का
सुंदर प्रदेश रेगिस्तान बन गया.
कहते हैं इसी कारण विश्व के
एक भाग के लोग बिलकुल काले पड़ गए,जिन्हें नीग्रो कहा जाता है.धरती में दरारें पड़
गयीं.झरनों का पानी खौलने लगा.नदियां सूख गयीं.समुद्र के देवता पसायदान ने तीन बार
जल की सतह से अपना सर उठाकर देखने की कोशिश की,लेकिन सूर्य के तेज को सहने में
असमर्थ हो गया.यह अग्नि प्रलय था.दग्ध होकर पृथ्वी ने रक्षा के लिए ज्यूस को
पुकारा.
देव सम्राट ज्यूस ओलिम्पिस
स्थित अपने महल में सो रहा था.पृथ्वी की चीत्कार से उसकी नींद खुली तो नीचे देख कर
अचंभित रह गया.सभी देवता तत्काल एकत्रित हुए.पृथ्वी की रक्षा के लिए न तो पानी का
सोता बचा था और न कोई बादल का टुकड़ा.
पृथ्वी को बचाने का जब कोई
उपाय नहीं बचा तो ज्यूस ने अपना वज्र उठाया और फेथान को लक्ष्य कर फेक दिया.वज्र
प्रहार से पल भर में सूर्य का रथ और फेथन का शरीर क्षत-विक्षत हो एरिडोनस नदी में
जा गिरा. फेथन की बहनें करुण विलाप करने लगी.कई दिनों तक वे उसी नदी के किनारे बाल
बिखेरे रोती रहीं.
अंतत देवताओं को उन पर दया
आ गयी और उन्हें वृक्षों में परिवर्तित कर दिया.फेथन के मित्र सिगनस ने नदी में डुबकियां
लगाकर फेथन के शरीर के कुछ अंग निकाले और विधिपूर्वक उसका अंतिम संस्कार
किया.लेकिन उसके बाद भी वह शेष अंगों की खोज में पागलों की तरह नदी में तैरता और
डुबकियां लगता रहता था,अतः देवताओं ने उसे हंस बना दिया.हंस बना सिगनस आज तक
हीलियास के दुस्साहसी पुत्र फेथन के अंगों को ढूंढ़ रहा है.
Saturday, September 12, 2015
तेरियां ठंढियां छावां
एक पंजाबी लोकगीत की
कड़ी है जिसमें युवती का सैनिक पति दूर किसी छावनी में है और अपनी प्रियतमा को पत्र
नहीं लिखता.वह उसे संबोधित कर कहती है....
पिप्पला !
वे मेरे पेके पिंड दिआ
तेरियां
ठंढियां छावां
तेरी ढाव
दा मैला पानी
उतों दूर
हटावां
लच्छी
बनतो सौहरे गइयां
किह्नूं
आख सुणावां ?
‘ओ
मेरे नैहर के पीपल,कितनी ठंढी है तेरी छाया ? तेरी पुखरी का पानी मैला है,ऊपर से
काई हटाऊं.लच्छी और बनतो ससुराल गयीं,किसे अपना हाल सुनाऊं?
लोकगीतों और ग्राम्यगीतों में मानव समाज का वृक्षों के साथ संबंधों का अद्भुत संसार दिखता है.पेड़ –
पौधों का मानव जीवन से अटूट संबंध रहा है.सभ्यता के आरंभ से लेकर इसके विकास तक
पेड़-पौधे मानव जीवन के सहगामी रहे हैं.सभ्यता का कोई भी चरण ऐसा नहीं रहा जहां पेड़
– पौधों की आवश्यकता महसूस न की गयी हो.
सामाजिक दृष्टि से
भी पेड़ – पौधों का मनुष्य के जीवन में प्रमुख स्थान रहा है.भारत में वृक्ष लगाना
सदैव से पुण्य का कार्य माना गया है.पवित्र पीपल की छाया में गौतम बुद्ध को ज्ञान
की प्राप्ति हुई. बौद्धों की असंख्य पीढ़ियां इस पवित्र बोधि वृक्ष की करती आ रही
है.
तिब्बत की जनश्रुति
के अनुसार जिस समय किसी लामा का जन्म होता है,तब उस जन्मस्थान के आसपास सारे
मुरझाए हुए वृक्षों में नया जीवन आ जाता है.उनमें मुस्कुराती हुई कोमल पत्तियां
फूटने लगती हैं,जिससे मालूम होता है कि किसी महापुरुष का जन्म हुआ है.
बिहार के धरहरा गांव
में पर बेटियों के जन्म पर पांच फलदार वृक्ष लगाने की परंपरा है जो वर्षों से चली
आ रही है.भारतीय संस्कृति में शीतल छाया के लिए पीपल और बरगद के वृक्ष लगाना पुण्य
का कार्य माना गया है.बरगद अखिल विश्व का प्रतीक है और उसकी छाया में पलभर बैठने
का सुयोग ही सुखी जीवन का प्रतिरूप है.कदंब,करील,गूलर,बरगद आदि ब्रज की संस्कृति
और प्रकृति के अभिन्न अंग हैं.
धार्मिक कथाओं और
लोकगीतों में वृक्षों का उल्लेख होने से वे धर्म का अंग बन गए हैं.कई वृक्ष हिंदु
धर्म के आस्था के प्रतीक माने गए हैं.बरगद,पीपल,आंवला जैसे कई वृक्ष उनके
सामाजिक,धार्मिक जीवन के अभिन्न अंग हैं तो जनजातीय समुदाय ने भी कुछ वृक्षों को
टोटम (गोत्र,वंश प्रतीक) मान कर उनके काटने की मनाही की है.
स्कूल के दिनों में
सुभद्रा कुमारी चौहान की यह कविता सबको बहुत प्रिय थी .......
यह कदंब
का पेड़ अगर मां होता यमुना तीरे
मैं भी उस
पर बैठ कन्हैया बनता धीरे धीरे
भारत की लगभग सभी
भाषाओँ में वृक्षों के संबंध में अनेक साहित्यकारों, कथाकारों की कहानी के
केंद्रीय पात्र वृक्ष रहे हैं.डॉ. राही मासूम रजा द्वारा लिखित ‘नीम का पेड़’ काफी
चर्चित रहा था और पर दूरदर्शन द्वारा एक धारावाहिक का निर्माण भी हुआ था.
एक
कहानी में कथाकार कहता है कि उसके आंगन में एक पुराना वृक्ष था जिससे उसके वृद्ध
पिता की भावनाएं जुड़ी थी.सुबह-शाम उस वृक्ष की छाया में बैठने से उन्हें असीम आनंद
की प्राप्ति होती थी.मकान के विस्तार में वह पेड़ बाधक था.अंततोगत्वा उस पेड़ को
काटे जाने का निर्णय हुआ.इधर पेड़ का काटना शुरू हुआ,उधर उनके वृद्ध पिता की तबियत
गिरनी शुरू हुई.जिस समय पेड़ धराशायी हुआ उनके पिता निष्प्राण हो चुके थे.
अनेक लोकगीत ऐसे
मिलते हैं जिनमें वृक्ष मनुष्य की भावनाओं के आलंबन मात्र हैं.वे मनुष्य के सुख या
दुःख के प्रतीक बन जाते हैं.कभी – कभी वे
सजीव मान लिए जाते हैं. उत्तर प्रदेश के एक मधुर लोकगीत की कड़ी है.......
बाबा निबिया के पेड़ जिनि
काटेउ
निबिया चिरइया के बसेर, बलइया लेउ बीरन की
निबिया चिरइया के बसेर, बलइया लेउ बीरन की
बाबा सगरी चिरइया उड़ी
जैइहैं
रहि जयिहैं निबिया अकेल, बलइया लेउ बीरन की
रहि जयिहैं निबिया अकेल, बलइया लेउ बीरन की
बाबा बिटिया के दुख जिन
देहु
बिटिया चिरईया की नायि, बलइया लेहु बीरन की
बिटिया चिरईया की नायि, बलइया लेहु बीरन की
बाबा सबरी बिटीवा जैहें
सासुर
रह जाई माई अकेल, बलइया लेहु बीरन की
रह जाई माई अकेल, बलइया लेहु बीरन की
(हे बाबा ! यह नीम का
पेड़ मत काटना. इस पर चिड़िया बसेरा करती हैं. बीरन ! मैं बालाएं लेती हूं. हे बाबा
! बेटियों को कभी कोई कष्ट नहीं देना. बेटी और चिड़िया एक जैसी हैं. बीरन ! मैं
बलाएं लेती हूं.सब चिड़िया उड़ जाएंगी ! नीम अकेली रह जाएगी. बीरन ! मैं बलाएं लेती
हूं. सब बेटियां अपनी-अपनी ससुराल चली जाएंगी. मां अकेली रह जाएगी. बीरन ! मैं
बलाएं लेती हूं.)
बिहार के
भोजपुरी के लोकगीतों में भी वृक्षों का बहुत सुंदर वर्णन मिलता है.भोजपुरी विवाह
गीत के इस बोल में गंगा-यमुना के किनारे उगे हुए पीपल को कितना महत्त्व दिया गया
है.कोई कन्या अपने भावी पति की कल्पना करते हुए कहती है ......
तर बहे गंगा से यमुना ऊपर
मधु पीपरि हो ...
एक उड़िया लोकगीत में ससुराल से लौट कर आती हुई युवती
पीहर की अमराई का चित्र अंकित करते हुए कहती है.......
कुआंक मेलन आम्ब
तोटा रे बोउ लो
झियंक मेलन बोप
कोठा रे बोउ लो
(कागों का मिलन-स्थल है
अमराई,ओरी मां ! कन्याओं का मिलन स्थल है बाबुल का घर, ओ री मां !)
हिंदी फिल्मों के गीतों में भी गीतकारों ने हमारे
जीवन में पेड़-पौधों के महत्त्व को दर्शाते हुए कई गीत लिखे हैं.
बढ़ता शहरीकरण और औद्योगिक विस्तार के कारण
वृक्षों के अस्तित्व पर भले ही खतरा मंडरा रहा हो लेकिन हमारी पीढ़ियों ने मानव समाज
के साथ वृक्षों के अटूट संबंधों को लोकश्रुतियों, जनश्रुतियों,लोकगीतों के रूप में जिंदा रखा है.
पड़ोस में बज रहे रेडियो से धीमी-धीमी आती जसपिंदर नरूला
की खनकती आवाज आप भी सुन पा रहे हैं न.........
पीपल के पतवा पे लिख दी दिल
के बात
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