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मृणाल सेन एक ऐसे फिल्मकार थे जिन्होने हिंदी सिनेमा को एक नई ज़मीन दी।
बांग्ला सिनेमा जो हमेशा से संवेदना और सरोकारों के चित्रण को लेकर काफी गंभीर रहा है, उसके सबसे बड़े तीन कर्णधार जो फिल्मकार माने जाते हैं, उनमें सत्यजित राय, ऋत्विक घटक और मृणाल सेन हैं।
मृणाल सेन की पहली हिंदी फिल्म भुवन शोम (1969) को हिंदी सिनेमा के इतिहास में दो मायनों में मील का पत्थर माना जा सकता है। पहला तो ये कि इसने समांतर सिनेमा या नई धारा (न्यू वेव सिनेमा)की नींव रखी। 1969 की तीन फिल्मों भुवन शोम (मृणाल सेन), सारा आकाश (बासु चटर्जी) और उसकी रोटी (मणि कौल) वो तीन फिल्में हैं जिनसे हिंदी सिनेमा में नई धारा या समांतर सिनेमा की नींव पड़ी। इसी के बाद कम बजट में यथार्थपरक फिल्में बनाने की राह खुली और फिर 70 के दशक में श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, प्रकाश झा, केतन मेहता, सईद अख्तर मिर्ज़ा जैसे कई गंभीर फिल्मकारों ने इस धारा के सिनेमा को और मज़बूती दी।
दूसरी अहम वजह ये है कि 'भुवन शोम' में ही पहली बार अमिताभ बच्चन को फिल्मों में मौका मिला था। भुवन शोम फिल्म में कमेंट्री के लिए अमिताभ बच्चन की आवाज़ इस्तेमाल की गई। फिल्म की शुरुआत उनकी कमेंट्री से ही होती है। अमिताभ बच्चन ने कभी बताया था कि इस काम के लिए उन्हे 200 रुपए मिले थे। तो अमिताभ की फिल्मी यात्रा एक तरह से भुवन शोम से ही शुरु हुई थी...बाकी 70 के दशक के मुख्य धारा के सिनेमा को कैसे उन्होने पुनर्परिभाषित किया ये इतिहास है।
मृणाल सेन को एक ऐसे गंभीर निर्देशक के तौर पर जाना जाता है, जो सामाजिक चेतना को लेकर प्रतिबद्ध और समकालीन विषयों और चुनौतियों को लेकर भी जागरुक रहे हैं।
1956 में मृणाल सेन ने अपनी पहली फिल्म ‘रातभोर’ बांग्ला बनाई। उनकी अगली फिल्म ‘नील आकाशेर नीचे’ ने उनको स्थानीय पहचान दी और उनकी तीसरी फिल्म ‘बाइशे श्रावण’ ने उनको अंतरराष्ट्रीय प्रसिद्धि दिलाई।
पांच और फिल्में बनाने के बाद मृणाल सेन ने भारत सरकार के छोटे से आर्थिक सहयोग से 1969 में ‘भुवन शोम’ बनाई थी, जिसने उनको बड़े फिल्मकारों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया और उनको राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्रदान की।
भुवन शोम के अलावा मृगया (1965, मिथुन चक्रवर्ती की पहली फिल्म), आकाश कुसुम (1965, सौमित्र चटर्जी, अपर्णा सेन), खंडहर (1984, शबाना, नसीर), एक दिन प्रतिदिन (1979), कोलकाता त्रयी की तीनों फिल्में (इंटरव्यू, 1970; कैलकटा ’71, 1972; पदातिक,1973) वो फिल्में हैं, जिन्हे ज़रुर देखा जाना चाहिए और जिन्हे देश-विदेश में काफी सराहना व सम्मान हासिल हुए।
आज मृणाल सेन की चौथी बरसी पर सार्थक सिनेमा की परंपरा में उनके अमूल्य योगदान के प्रति कृतज्ञता के साथ उन्हे हार्दिक श्रद्धांजलि।
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