Written by NewsDesk Category: सियासत-ताकत-राजकाज-देश-प्रदेश-दुनिया-समाज-सरोकार Published on 05 September 2011
प्रश्नः अपनी गिरफ्तारी की पृष्ठभूमि के बारे में कुछ बताएं। पुलिस ने यह प्रचारित किया था कि माओवादियों का एक जोनल कमांडर प्रशांत राही हंसफर खत्ता के जंगलों में ट्रेनिंग लेते हुए पकड़ा गया। आपके पकड़े जाने का पूरा मामला क्या है?
उत्तरः मेरी गिरफ्तारी 17 दिसंबर 2007 को देहरादून में ही हुई थी। उस दिन दोपहर में तकरीबन 1 बजे सादे कपड़ों में कुछ पुलिस वालों ने सड़क पर पीछे से मुझ पर हमला किया और जबरन मुझे एक वैन में डाल दिया गया। वैन में रखने के बाद मेरी आंखों पर पट्टी बांध दी गयी और गाड़ी आगे बढ़ गयी। एक घंटे तक चलने के बाद वह वाहन दुर्घटनाग्रस्त हो गया और फिर दूसरा वाहन मंगवाकर मुझे नजीबाबाद से कुछ पहले एक कोठी में ले जाया गया जो जंगल में मौजूद था। यहां मुझे रात भर बुरी तरह पीटा गया। 18 दिसंबर की शाम पुनः एक घंटे तक मुझे एक गाड़ी में घुमाया गया और जब मेरे आंख पर से पट्टी उतारी गयी तो मैंने पाया कि इंटेलिजेंस के कुछ अफसरों के सामने मैं मौजूद था। पुलिस ने आरोपपत्र में तथाकथित ट्रेनिंग देने के जिस तीन महीने के दौर का वर्णन किया है लगभग उसी दौरान मैं देहरादून में स्थायी तौर पर रहने लगा था। पहले भी देहरादून में रहता था लेकिन पहाड़ी क्षेत्रों में, गांव के क्षेत्रों में संघर्ष कर रहे लोगों के साथ हिस्सेदारी करने जाया करता था। 2007 तक आंदोलन की ऐसी परिस्थितियां पैदा हो गयी थीं कि हम कुछ करने की स्थिति में नहीं थे। वैसे पहले भी कई बार गिरफ्तार करने की इनकी कोशिशें हो चुकी थीं। टिहरी आंदोलन के समय भी मुझे पकड़ने की कोशिश की गयी थी और उस समय से ही मैं सतर्क था। चार्जशीट में जिस अवधि का उल्लेख है कि मैं ट्रेनिंग कैंप चला रहा था उसी अवधि में 15 दिनों के लिए मैं मुंबई भी गया था और अपनी बेटी शिखा के साथ वहां रहा। जनतांत्रिक आंदोलनों में लगे हमारे अनेक साथियों पर मुकदमें चल रहे थे और उनकी मदद के लिए अन्य जनतांत्रिक शक्तियों के साथ मिलकर जो कुछ किया जा सकता था उसमें लगा रहता था। इसके अलावा कोई भी राजनीतिक गतिविधि मेरी उस समय नहीं थी। उसी समय मुझे अचानक गिरफ्तार कर लिया गया।
प्रश्नः कितने समय तक आपको जेल में रहना पड़ा?
उत्तरः तीन साल आठ महीने।
प्रश्नः लगातार एक ही जेल में रखा या अलग-अलग जेलों में?
उत्तरः चार जेलों में रखा गया। सबसे पहले हल्द्वानी में फिर देहरादून स्थानांतरित किया गया। इसके बाद पौड़ी जेल में और अंत में हरिद्वार जेल में रखा गया। अंतिम ट्रांसफर मेरी मांग पर हुआ था-बाकी प्रशासन ने अपनी सुविधानुसार किया था।
प्रश्नः जेल में जब आप थे तो बाहर की दुनिया से पूरी तरह कटे हुए थे या खबरों का कोई स्रोत था मसलन अखबार, रेडियो, टीवी वगैरह?
उत्तरः रेडियो सुनने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता क्योंकि इसकी अनुमति नहीं थी। टीवी भी नहीं के बराबर था क्योंकि ज्यादातर समय मुझे कैद तन्हाई में रखा गया था। बैरक्स में तो टीवी था पर तन्हाई में ऐसी कोई सुविधा नहीं थी। बैरक्स में भी केवल दूरदर्शन देखने को मिलता था और अधिक से अधिक ‘अमर उजाला’ अखबार मिल जाता था जिनसे कुछ खबरों की जानकारी होती थी।
प्रश्नः आपको क्या लगता है कि आपकी गिरफ्तारी के पीछे राज्य का इरादा या मकसद क्या था?
उत्तरः देखिए, 2007 में राजनीतिक और आर्थिक तौर पर एक खास तरह का माहौल था… मेरा मतलब उस राजनीतिक माहौल में जो आर्थिक हित जुड़े हुए थे यानी उस वातावरण के साथ जो आर्थिक स्वार्थ जुड़ा हुआ था उसी संदर्भ में इस पूरे प्रकरण को देखना होगा। यह कोई सामान्य आर्थिक हित की बात नहीं थी। राज्य सरकार केन्द्र से अनुदान प्राप्त करने के लिए क्या-क्या कर रही थी इस पृष्ठभूमि में चीजों को देखना होगा। वह दौर ही ऐसा था। उत्तराखंड नेपाल से जुड़ा हुआ है और नेपाल में उस समय तक माओवादी आंदोलन काफी तीव्र रूप ले चुका था। इसे ध्यान में रखते हुए भारत सरकार और भारत सरकार के साथ-साथ अमेरिकी साम्राज्यवाद के नियंत्रण में भारत के अंदर भी जो नीतियां बन रही थीं उनपर ध्यान देने की जरूरत है। उसी समय उत्तराखंड में बीजेपी की सरकार का बनना और खंडूरी जैसे व्यक्ति का मुख्यमंत्री बनना जो राजनीतिज्ञ न होकर सेना का अवकाश प्राप्त अफसर हो, यह भी बहुत महत्वपूर्ण बात है। वह कोई राजनीतिक व्यक्ति नहीं थे और जैसे फौजियों का दिमाग काम करता है उसी मानसिकता के साथ उन्होंने मुख्यमंत्री का पद संभाला। बीजेपी में भी वह ऊपर से आरोपित व्यक्ति थे। वह चुनाव लड़कर नहीं आए थे-बाद में उन्होंने चुनाव लड़ा। नेपाल के माओवादी आंदोलन से घबरायी हुई दक्षिणपंथी ताकतें-यहां तक कि भाजपा के अंदर भी बजरंग दल जैसी धुर दक्षिणपंथी ताकतें हिन्दू राष्ट्र के रूप में नेपाल का अस्तित्व समाप्त होने से बौखलाई हुई थी। पूरे बॉर्डर वाले इलाके में अजीब सा माहौल था। अखबारों में खबर छपती थी कि माओवाद के खिलाफ खटीमा के व्यापारी सड़कों पर उतर रहे हैं। ऐसे माहौल में खंडूरी का आगे बढ़कर माओवादियों से निपटने के लिए केन्द्र से 208 करोड़ रुपए की मांग करना उस समय की एक खास बात थी। ऐसे में मुख्यमंत्री के लिए जरूरी था कि वह चीजों को बढ़ा-चढ़ाकर केन्द्र के सामने पेश करें और उन्होंने कई कहानियां गढ़ी। मैं उत्तराखंड में चल रहे जनसंघर्षों के साथ शुरू से ही जुड़ा रहा और सामंतवाद, पूंजीवाद तथा साम्राज्यवाद विरोधी मेरा रुझान किसे से छुपा नहीं था। इन बातों को ध्यान में रखते हुए खंडूरी की सरकार ने मुझे बलि का बकरा बनाया। इसके अलावा मूल रूप से मेरा उत्तराखंड का न होना भी एक कारक हो सकता है-इसका भी उन्हें लाभ मिला। उन दिनों जनआंदोलन काफी पीछे चले गए थे इसलिए बाहर का आदमी शिनाख्त करते हुए मुझ पर हमला करना सरकार के लिए आसान हो गया।
प्रश्नः उत्तराखंड के किन-किन जनसंघर्षों के साथ आपकी हिस्सेदारी रही?
उत्तरः अपनी पत्रकारिता के जरिए तथा पत्रकारिता छोड़ने के बाद भी मैं यहां के जनआंदोलनों के साथ जुड़ता चला गया। उत्तराखंड राज्य के आंदोलन में मैं अपने साथियों के साथ लगा रहा। शुरुआती दिनों में एक विभ्रम की स्थिति बनी हुई थी कि राज्य की मांग जैसे आंदोलन का समर्थन करना चाहिए या नहीं लेकिन जल्दी ही यह विभ्रम दूर हो गया और हम इसमें जनता का पक्ष रखने लगे। राजनीतिक तौर पर जो लोग मेरे काफी करीब थे वे इसके समर्थन में नहीं थे लेकिन व्यक्तिगत तौर पर मैं इसमें समय देने लगा। देहरादून में एक संस्कृतिक मोर्चा बना था उसमें भी मैं रहा। फिर उससे अलग हटकर एक और सांस्कृतिक ग्रुप का गठन किया। छात्रों का भी एक ग्रुप बना जिसमें से कुछ लोग आगे चलकर सामाजिक कार्यों में सक्रिय हो गए। वे लोग मजदूरों के बीच ही काम करने लगे। मैं पत्रकारिता से ऊब गया था और उनके साथ मिलकर गांव में काम करने लगा… स्टेट्समैन से इस्तीफा देने के बाद मैं टिहरी आंदोलन में सक्रिय हो गया। उस समय मुझे किसान संगठन आकर्षित करता था। यह संगठन बिन्सर अभ्यारण्य की लड़ाई लड़ चुका था। यहां एनजीओ का काफी माहौल बना हुआ था। आप जहां जाएं पता चलता था कि अमूक एनजीओ सक्रिय है। उत्तराखंड किसान संगठन ही ऐसा था जो ग्रास रूट में काम करते हुए जनता के साथ जुड़कर पर्यावरण आदि के मुद्दे को उठाता था। मैंने देखा कि कामरेड मोहन चंद पांडेय के नेतृत्व में बिन्सर में एक महत्वपूर्ण संघर्ष हुआ था। मैं कभी उनसे मिला नहीं था लेकिन उनके काम के बारे में जो मैंने सुना था और वहां जाकर जो कुछ देखा उससे मैं काफी प्रभावित हुआ और सोचने लगा कि क्या ऐसा कोई काम गढ़वाल में भी किया जा सकता है। वामपंथी राजनीति के मामले में गढ़वाल काफी कटा हुआ सा था। कुमाऊं में तो वामपंथी हलचल, संघर्ष आदि की एक समृद्ध और जीवंत परंपरा रही है लेकिन गढ़वाल में टिहरी क्षेत्र में सीपीआई द्वारा चलाए गए सामंतवाद विरोधी संघर्ष के बाद एक लंबे समय तक कोई जबर्दस्त जनसंघर्ष नहीं था। इसलिए मैंने सोचा कि क्यों न यहां गढ़वाल में एक प्रयोग किया जाए। फिर मैंने यहीं जनता के बीच काम शुरू किया।
प्रश्नः तो क्या इस बीच आपका लिखना जारी रहा?
उत्तरः कमाई के लिए तो लेखन नहीं के बराबर रहा लेकिन किसी भी आंदोलन को जानने समझने के लिए लिखना पढ़ना जरूरी होता है। हम लोगों ने इस इलाके के इतिहास का अध्ययन करने के बाद टिहरी जनआंदोलन के इतिहास को समेटते हुए एक पुस्तिका का प्रकाशन किया। तो इस तरह का लेखन जारी रहा जिसमें अब तक की सोच को थोड़ा और विकसित करने का प्रयास था। टिहरी बांध से संबंधित एनजीओ लोगों के दस्तावेजों में काफी महत्वपूर्ण आंकड़े मिल जाते थे जिनके आधार पर प्रस्तुत विश्लेषण को हम जनता तक पहुंचाते थे। बांध के बनने के साथ साथ जो भौगोलिक अथवा भूगर्भीय समस्याएं हैं उनको हम राजनीति के साथ कैसे जोड़कर देखें- इस पर हम विचार करते रहे। इस क्षेत्र में काफी कुछ करने का मौका मिला।
प्रश्नः पत्रकारिता में कैसे आना हुआ?
उत्तरः आजीविका के लिए मैंने कुछ अनुवाद का काम शुरू किया और पत्रकारिता की ओर मुखातिब हुआ। उन्हीं दिनों 1989, डाक्टर लाल बहादुर वर्मा ने ‘इतिहास बोध’ का प्रकाशन शुरू किया था। इस पत्रिका में लिखना, इसके मंच से जुड़ना, हिस्ट्री कांग्रेस आदि में हस्तक्षेप करना-इस तरह के क्रिया-कलापों में मैं लगा रहा। 1991 में मैं देहरादून आया। मेरी बेटी का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था और स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर ही देहरादून आया। आमदनी का कोई ठोस जरिया नहीं था। नौकरी की तलाश करता रहा, अखबार भी बेचे और अंततः यहां ‘हिमाचल टाइम्स’ नामक अखबार में नौकरी करने लगा। 1994 से मैं ‘स्टेट्समैन’ अखबार से जुड़ा। उत्तराखंड राज्य के लिए आंदोलन शुरू हो गया था और मैं इस आंदोलन को समझने, इसमें भाग लेने और इसके बारे में लिखने में लग गया। इस तरह मैं पत्रकार बन गया और 2001 तक ‘स्टेट्समैन’ से जुड़ा रहा।
प्रश्नः आप एक पत्रकार के साथ साथ ऐक्टिविस्ट भी रहे हैं। कुछ लोग यह मानते हैं कि पत्रकार को ऐक्टिविस्ट नहीं होना चाहिए। आपकी इस पर क्या राय है?
उत्तरः आपके इस सवाल का जवाब देने के लिए मैं बहुत उपयुक्त व्यक्ति नहीं हूं क्योंकि मैंने तो संयोगवश पत्रकारिता का पेशा चुना। फिर भी मैं यह कहना चाहूंगा कि यह सवाल पत्रकारिता पर ही नहीं बल्कि किसी भी पेशे पर लागू होता है। इस सवाल का संबंध सामाजिक सरोकार से है। आप चाहे डाक्टर हों, इंजीनियर हों या किसी भी पेशे से जुड़े हुए हों, अगर आपके अंदर सामाजिक सरोकार है तो आपको ऐक्टिविस्ट बनना ही पड़ेगा। अगर कोई मलेरिया का इलाज कर रहा हो तो क्या उसे यह जानने की जरूरत नहीं है कि मलेरिया क्यों फैलता है और इसकी जड़ को कैसे दूर किया जाय? इसलिए मुझे नहीं लगता कि यह कोई बहस का मुद्दा है। अगर आपके अंदर सामाजिक सरोकार है तो चाहे आप किसी भी पेशे में हों आपको खुलकर समाज के अंदर जाकर काम करना चाहिए। मैं देखता हूं कि पेशेवर पत्रकार के तौर पर असंवेदनशीलता की एक चादर ओढ़कर काम करना पड़ता है। वह एक विशेष स्थिति जरूर है। आमतौर पर पत्रकारिता में असंवेदनशील होना पड़ता है। आप अपने काम के दौरान जनता का दर्द भूलने लगते हैं। लेकिन जब आप सोचते हैं कि आप क्या कर रहे हैं तो आपको असंवेदनशीलता की चादर फेंकने की जरूरत पड़ती है। आखिर पत्रकार भी तो एक वर्ग से ही आता है। पेशे से बाहर निकलकर ऐक्टिविस्ट बनना किसी के लिए भी आंतरिक संघर्ष का एक विषय है।
प्रश्नः आज जो कारपोरेट पत्रकारिता है और उसके बरक्स जो जनपक्षीय पत्रकारिता है उसके फर्क को आप किस तरह रेखांकित करते हैं?
उत्तरः मीडिया में आज काफी हद तक शासक वर्ग के पक्ष में हवा बनी हुई है। यह मीडिया पर हावी है। यह जिस सीमा तक हावी होगी उसी तुलना में इसकी प्रतिक्रिया भी आयेगी। पत्रकार भी तो आखिरकार मनुष्य ही है। वह अपने दिल-दिमाग को गिरवी रखकर काम नहीं कर सकता। हमने देखा है कि बहुत सारे पत्रकार जो खुद को जनपक्षीय होने का दावा नहीं करते उनके अंदर भी समाज की विसंगतियों को लेकर बेचैनी दिखायी देती है। भले ही वे इसे अभिव्यक्त न कर पायें लेकिन उनके अंदर वह मौजूद है। इसलिए देश के किसी भी कोने में कोई आंदोलन या कोई मुद्दा दिखता हो तो कारपोरेट मीडिया के लिए काम करने वाले पत्रकार भी उस ओर न झुकें, ऐसा संभव ही नहीं है। यह मैंने देखा है। कोई ध्रुव; पोल, कारपोरेट मीडिया की सेवा में लगे पत्रकारों में भी दिखायी देता है। यह उम्मीद की किरण है कि एक पोल बनता हुआ दिखायी दे रहा है। यह एक शुभ संकेत है। आप उसे क्या कहेंगे मसलन वैकल्पिक मीडिया या और कुछ यह आगे तय होगा। भविष्य में उसका क्या रूप बनता है यह उसकी डायनामिक्स पर निर्भर करेगा।
प्रश्नः प्रशांत राही एक पत्रकार भी हैं और ऐक्टिविस्ट भी। उनके ऊपर आरोप लगाया जाता है कि वे देशद्रोही हैं। उनके ऊपर मुकदमा चल रहा है। मेरा सवाल है कि देशद्रोह या देशप्रेम को आप कि नजरिये से देखते हैं?
उत्तरः किसी कवि ने कहा है कि देश कागज पर बना हुआ नक्शा नहीं है। देश तो लोगों से बनता है। यह एक कचोटने वाली बात है कि हमारे समुदाय में जो लोग सबसे ज्यादा देश के बारे में सोचते हैं या चिंतित रहते हैं उन पर देशद्रोह का आरोप लगाया जाता है। यह बात कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक जेलों में पड़े विभिन्न लोगों के संदर्भ में देखी जा सकती है। अभी तो देशप्रेम की लहर उमड़ पड़ी है जो टीवी पर रामलीला मैदान में दिखायी दे रही है। देश का नक्शा भविष्य में क्या हो इस सोच से जो लोग काम कर रहे हैं वह वास्तविक देशप्रेम है। केवल तिरंगा लहराना, दूसरा आजादी का आंदोलन बोल देना या नारे लगाना देश प्रेम नहीं है। देशप्रेम आज एक मार्केटेबुल चीज बन गयी है। उनको भी बाजार आकर्षित कर रहा है क्योंकि इस व्यवस्था के अंदर जो सुधार की बात कर रहा है उसके पीछे एक पूरा कारपोरेट सेक्टर खड़ा है। लेकिन इस सेक्टर को भी देशप्रेम की ही आड़ लेनी पड़ रही है… इस व्यवस्था में देश के प्रति सचमुच प्यार करना या उसके बारे में कुछ सार्थक सोचना एक खतरनाक चीज हो गयी है। सत्ताधारी वर्ग इस प्रयास में लगा रहता है कि जो लोग सचमुच देश के लिए मरने मिटने को तैयार हैं उनके साथ देशप्रेम शब्द न जुड़ जाय। अन्ना हजारे के साथ देशप्रेम की बात जुड़ जाय तो कोई बात नहीं लेकिन जो क्रांतिकारी हैं उनके साथ यह शब्द न जुड़ने पाये।
(शिखा राही ने हस्तक्षेप करते हुए कहा कि उत्तराखंड एक सोने की खान है। इसके पास बहुत सारे संसाधन हैं। यहां की सरकार ने माओवाद से निपटने के नाम पर करोड़ों रुपये का अनुदान लिया है। आज जो लोग माओवादी बताकर यहां की जेलों में बंद किये गये वे वही लोग हैं जिनके बारे में सरकार को लगता था कि इनके बाहर रहने से उसकी लूट में बाधा पड़ सकती है। टिहरी बांध हो या जल, जंगल और जमीन की लूट का मामला- इसमें बाधा बनकर खड़े होने वाले यही लोग हैं। नेपाल के माओवादी आंदोलन का बहाना लेकर सरकार ने इन तत्वों से छुटकारा पा लिया। इससे साफ पता चल जाता है कि देशद्रोही कौन है- देशद्रोह के आरोप में जेल में बंद लोग या राज्य की सरकार?)
रशांत राही- उत्तराखंड में सरकार की जो राजनीति है, आर्थिक नीति को लागू करने की जो राजनीति है उस पालिटिक्स में हम पहले भी बाधा बन चुके थे और आगे भी निश्चित रूप से बाधा बन सकते थे। सरकार को यह खतरा दिखायी दे रहा था इसलिए सीमा उस पार की घटनाओं का हौआ पैदा कर यहां बड़े पैमाने पर दमन चलाया गया। बेशक, हमारे उपर उन्होंने हाथ तब डाला जब हम बेहद कमजोर स्थिति में थे।
प्रश्नः आज समग्र रूप से पूरे देश की स्थिति आपको कैसी लगती है?
उत्तरः हम आज समझने की कोशिश कर रहे हैं कि पूरी समग्रता में आज देश में आंदोलनों की क्या स्थिति है? हम कहां खड़े हैं? मुझे बराबर लगता है कि देश के अंदर विभिन्न राज्यों में जो छोटे बड़े जनआंदोलन चल रहे हैं- चाहे वे किसी भी शेड के क्यों न हों- उन्हें अगर एक मंच पर लाया जाय या उनके बीच समन्वय बनाये रखने का कोई तंत्र विकसित किया जाय तो वे एक बड़ी ताकत बन सकते हैं। जैतापुर में हम एक आंदोलन देख रहे हैं। इसी प्रकार माओवादियों के गढ़ छत्तीसगढ़ में बहुत सारे ऐसे जनतांत्रिक बुद्धिजीवी हैं जो माओवादी विचारधारा के तो नहीं हैं लेकिन इस बात को अच्छी तरह समझ रहे हैं कि कारपोरेट घरानों द्वारा कितने बड़े पैमाने पर वहां की खनिज संपदा की लूट की साजिश चल रही है और उसे सहज बनाने के लिए सरकार सलवा जुडुम, आपरेशन ग्रीन हंट से लेकर एसपीओ तक के कार्यक्रम चला रही है। उन्हें यह पता है कि यहां के गांवों का सफाया क्यों किया जा रहा है। इस प्रकार हम देखते हैं कि एक बहुत बड़े वर्ग में राजनीतिक जागरूकता पैदा हुई है। मुझे लगता है कि दस साल पहले ऐसा माहौल नहीं था।
प्रश्नः लोगों की चेतना में जो विकास हो रहा है उसको कुंद करने के लिए क्या नये तरह के सुधारवादी आंदोलन भी खड़े करने की कोशिशें जारी हैं? मेरा आशय अन्ना हजारे के आंदोलन से है जिसे मीडिया ने काफी उछाला क्योंकि इस आंदोलन के निशाने पर मूल समस्या नहीं बल्कि मूल समस्या से पैदा बीमारी यानी भ्रष्टाचार है?
उत्तरः हर देश के आंदोलन की अपनी डायनामिक्स होती है और वह कुछ चुनौतियों को जन्म देता है। अन्ना हजारे का आंदोलन भी उन लोगों के सामने एक चुनौती है जो बुनियादी समस्याओं को लेकर आंदोलन करते रहे हैं। लेकिन मैं नहीं समझता कि इससे हमारे किसी काम में बाधा पड़नी चाहिए। आग पर रखे घड़े में ताप की वजह से सतह पर जो बुलबुले दिखायी देने लगते हैं वे थोड़ी देर के लिए हलचल पैदा कर सकते हैं लेकिन इससे उस ताप पर कोई असर नहीं पड़ता। वे कब तक टिके रहेंगे यह कहना मुश्किल है तो भी मैं नहीं समझता कि उनकी वजह से कोई बाधा पैदा होगी। मैं समझता हूं कि जनता के बुनियादी संघर्ष की यह ताकत है जो सत्ताधारी वर्ग को सुधारवादी आंदोलनों के लिए मजबूर कर रही है।
प्रश्नः उत्तराखंड में गैरसरकारी संगठनों की काफी संख्या है। जेल जाने से पहले भी आप काम करते रहे हैं और आगे भी जनता के बीच आपको काम करना है। ऐसी स्थिति में एनजीओ सेक्टर की मौजूदगी का आपको कैसा अनुभव रहा है? क्या इससे काम में कोई सहूलियत मिली?
उत्तरः सहूलियत तो नहीं मिली। अगर जमीनी तौर पर बात की जाय तो एनजीओ सेक्टर का एक नकारात्मक प्रभाव दिखायी देता है। इस सेक्टर की वजह से गांव में काम करने वाले किसी भी सामाजिक कार्यकर्ता के प्रति लोगों का जो नजरिया पैदा हो गया है वह बहुत नकारात्मक और घातक है। यहां कुर्बानी जैसी कोई चीज नहीं है। अब वह बात नहीं है कि अगर आप समाज के लिए काम कर रहे हैं तो कुछ खोकर भी वह करते रहना चाहेंगे। अब समाज सेवा रोजगार का एक साधन बन गया है। हम लोगों को भी फिर लोग उसी नजर से देखने लगते हैं। कुछ लोग सोचते हैं कि जब तक कोई आंदोलन नहीं है तब तक हमारे कार्यकर्ता एनजीओ सेक्टर में काम कर रहे हैं और आंदोलन शुरू होने पर वे फिर आ जायेंगे लेकिन ऐसा होता नहीं। एक बार जो उस सेक्टर में चला जाता है उसे क्रांति की बात तो दूर जनसंघर्ष के रास्ते पर भी वापस लाना बहुत मुश्किल होता है। टिहरी में हमने देखा कि हमारे बहुत सारे एनजीओ मित्र की तरह थे लेकिन कभी किसी ने हमें सपोर्ट नहीं किया। यहां तक कि उत्तराखंड के शहीदों की मूर्तियां जब हमने लगवाईं तब भी उन्होंने हमारी छीछालेदर की। इनकी वजह से ग्रामीण क्षेत्र में बड़े पैमाने पर लोगों का जो अराजनीतिकरण हुआ है वह बहुत घातक है।
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