शनिवार, 17 सितंबर 2011

मुस्तफ़ाबाद, दिल्ली में लड़कियों की शिक्षा




शमरीन दिल्ली विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता की पढ़ाई कर रही हैं. मुस्लिम महिलाओं की शिक्षा में उनकी गहरी दिलचस्‍पी है. पिछली गर्मियों में उन्होंने सफ़र के साथ मिलकर एक छोटा सा अध्ययन किया था. अध्ययन के अपने अनुभवों पर शमरीन ने एक रिपोर्ट तैयार की थी. शमरीन चाहती हैं कि आपलोग उनके काम पर अपनी राय दें ताकि उनको इस काम को आगे बढ़ाने में मदद मिल सकें.
मुस्तफ़ाबाद, पूर्वी दिल्ली में स्थित एक मुस्लिम बहुल इलाक़ा है। यमुना विहार, सी ब्लॉक के सामने मेन रोड के बायीं ओर लगभग एक किलोमीटर चलने के बाद गंदे नाले के किनारे की बसावट, मुस्तफ़ाबाद पहुंचा जा सकता है। इस इलाक़े के ज़्यादातर लोग अनौपचारिक ढंग से छोटे-मोटे काम-धंधे करते हैं और दिल्ली की अर्थव्यवस्था में अपना योगदान देते हैं। सरकारी संस्थाओं, मसलन नगर-निगम, विधान सभा, लोकसभा के लिए यहां के लोग प्रतिनिधि भी चुनते हैं पर इन संस्थाओं का यहां पर न के बराबर ही ध्यान जाता है। शिक्षा हो या स्वास्थ्य या अन्य मूलभूत ज़रूरतें : इस इलाक़े को देखकर लगता है जैसे धीरे-धीरे ये यहां अर्थहीन हो रही हैं।
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‘आपने अपनी लड़की को क्यों नहीं पढ़ाया’? उनका जवाब था, ‘पढ़ाया तो है।’ मैंने पूछा, ‘कहाँ तक’? उन्होंने कहा, ‘हिन्दी नहीं पढ़ाई है उर्दू और कुरान शरीफ़ पढ़ाया है’ मैंने पूछा ‘हिन्दी क्यों नहीं पढ़ाई?’ जवाब दिया ‘हम गाँव में रहते थे और वहाँ कोई स्कूल नहीं था।’ मैंने पूछा, ‘लेकिन यहाँ आने के बाद ...’ कहने लगे, ‘यहाँ आने के बाद लड़की काफ़ी बड़ी हो चुकी थी और फिर वो पढ़ नहीं सकती थी।’
कक्षा प्रथम में पढ़ने वाले अपनों बच्चों की सामान्य किताब का एक भी पाठ नहीं पढ़ा सकतीं। यह जानकर आपको और भी आश्चर्य होगा कि आज भी भारत जैसे देश में जहाँ शिक्षा के ऊपर इतना ध्यान दिया जा रहा है, प्रतिवर्ष करोड़ों रुपया शिक्षा के ऊपर ख़र्च किया जा रहा है, वहीं लगभग देश के 70 लाख बच्चे आज भी स्कूल नहीं जा पाते। आख़िर क्या कारण है इस सबके पीछे? मैंने यह जानने के प्रयास किया और इसके लिए मुस्तफ़ाबाद में एक छोटा-सा अध्ययन किया। मैं ख़ुद मुस्तफ़ाबाद में रहती हूं, जहाँ के लिए देश के किसी अन्य हिस्से की तरह ही शिक्षा का नारा तो है पर कोई शिक्षित नहीं। ख़ासकर पढ़ाई-लिखाई के मामलों में लड़कियों की स्थिति तो बेहद सोचनीय।
मेरा यह अध्ययन बहुत शुरुआती है। इसके लिए मैंने 15 दिनों तक अपने इलाक़े के विभिन्न घरों में जाकर किशोरियों, युवतियों और उनके माता-पिता के साथ यथासंभव बातचीत की। कहीं रेस्पॉन्स अच्छा मिला तो कहीं मुझे फालतू समझा गया। पर 15 दिनों के अपने काम के दौरान जो भी मैंने जो महसूस किया वही मैं इस पर्चे में साझा करने की कोशिश कर रही हूं।
शुरुआत मैंने अपनी ही गली से की। अपने पड़ोस में रहने वाली लड़की के माँ बाप से मैंने पूछा कि आपको बेटीयाँ कहाँ तक पढ़ी हैं? उन्होंने जवाब दिया, ‘एक पाँचवी तक और एक आठवीं तक’। मैंने पूछा, ‘ऐसा क्यों, आपने आगे क्यों नहीं पढ़ाया?’ कहने लगे, ‘हमने तो पढ़ाना चहा पर ये ख़ुद आगे पढ़ना नहीं चाहती।‘ मैंने दोनों लड़कियों से पूछा कि तुम आगे क्यों नहीं पढ़ी? जवाब था, ‘हम फेल हो गए थे’। फिर मैंने सोचा कि फेल हो जाना तो कोई कारण नहीं हो सकता न पढ़ाने का। मैंने जानने की बहुत कोशिश की पर उनका यही जवाब था कि फेल हो जाने के बाद पढ़ाई में मन नहीं लगता। मैंने सोचा फेल होने से पहले कौन-सा मन लगता था मन पढ़ाई में? मन लगता तो फेल ही क्यों होती। अब मन को कौन समझाए जो शिक्षा के बीच इतनी बड़ी बाधा है। ‘चलो छोड़ो’ मैं अपने मन को क्यों टेंशन दूँ मेरा मन तो लगता है।
मैं आगे बढ़ी और एक दूसरे घर में पूछा कि ‘आपने अपनी लड़की को क्यों नहीं पढ़ाया’? उनका जवाब था, ‘पढ़ाया तो है।’ मैंने पूछा, ‘कहाँ तक’? उन्होंने कहा, ‘हिन्दी नहीं पढ़ाई है उर्दू और कुरान शरीफ़ पढ़ाया है’ मैंने पूछा ‘हिन्दी क्यों नहीं पढ़ाई?’ जवाब दिया ‘हम गाँव में रहते थे और वहाँ कोई स्कूल नहीं था।’ मैंने पूछा, ‘लेकिन यहाँ आने के बाद ...’ कहने लगे, ‘यहाँ आने के बाद लड़की काफ़ी बड़ी हो चुकी थी और फिर वो पढ़ नहीं सकती थी।’ मैंने कहा कि पढ़ने की कोई उम्र नहीं होती आजकल तो सरकार ने इतनी सुविधाए दी हुई हैं कि आप जब चाहें तब पढ़ सकते हैं। इस बात के जवाब में उन्होंने मुझसे ही सवाल किया, ‘हमारे इलाक़े में ऐसी चीज़ों के लिए कितनी सुविधाए हैं, जवाब दो।’ मैं क्या जवाब देती। सच्चाई यही है कि इस इलाक़े में ऐसा कोई सरकारी या ग़ैर-सरकारी संस्थान नहीं है जहाँ पढ़ाई-लिखाई की बात तो दूर महिलाओं को सिलाई, कढ़ाई, पेटिंग जैसे पारंपरिक काम ही सिखाए जाते हों। प्राइवेट संस्थान तो एक-दो हैं पर समस्या है उनकी आसमान छूती फ़ीस। फिर घरवाले ये सोचते हैं कि बेकार में इतनी फ़ीस देनी पड़ेगी, इससे तो अच्छा है कि लड़की घर में ही कुछ काम कर ले कम से कम चार पैसे तो आएंगे।
अब मैं किसी और गली में पहुंची. मैंने दो-चार वैसे घरों में जिनमें लड़कियाँ थी, पूछताछ की। उस गली में एक लड़की रहती है उसका नाम भी ‘शमरीन’ है। वो मेरे साथ ही पढ़ती थी। हमने साथ-साथ नर्सरी में दाख़िल लिया था। आज मैं कॉलेज में सेकेंड इयर में हूँ और वो दसवीं से आगे नहीं पढ़ पाई। मैंने उससे भी पूछा ‘तू आगे क्यों नहीं पढ़ी?’ उसका जवाब था, ‘दसवीं में मेरी कम्पार्टमेंट आ गई थी, मैंने पेपर नहीं दिया।‘ मैंने पूछा, ‘पेपर क्यों नहीं दिया?’ बोली, ‘पेपर देकर भी क्या करती मैं, आगे नहीं पढ़ सकती।‘ मैंने कहा कि तू आगे पढ़ेगी तो तू नौकरी भी कर सकती है। उसने कहा, ‘इसीलिए तो पढ़ना नहीं चाहती क्योंकि मेरे घरवाले नौकरी नहीं करने देना चहते और जब मुझे नौकरी नहीं करनी है तो आगे पढ़कर क्या करूँगी।‘ हिसाब-किताब लायक़ बहुत पढ़ लिया। मैंने उसके माँ-बाप से पूछा, ‘आप क्यों इसे पढ़ने के लिए नहीं कहते?’ उन्होंने कहा, ‘पढ़ तो लिया दसवीं तक, बहुत है। वैसे भी ज़्यादा पढ़-लिख कर क्या करना है अब भी घर का ही काम करना है और शादी के बाद भी।’ उनकी बातों को सुनकर मैं सन्न रह गयी। किस प्राचीन युग में रह रहे हैं ये लोग!
मैंने उसी गली के दो-चार और घरों में बात की। सबका कहना अलग-अलग था। किसी ने कहा कि स्कूल बहुत दूर है तो किसी ने कहा कि हम पढ़ाई का ख़र्चा नहीं उठा सकते क्योंकि इस महँगाई के ज़माने में गुज़ारा ही बड़ी मुश्किल से हो पाता है।
शाम हो चुकी थी। मैं अपने घर वापस आ गई। मैंने ये सारी बातें अपने मम्मी-पापा को बताई। पापा ने कहा, ‘बेटा इस क्षेत्र में पढ़ाई का महत्त्व लोग नहीं समझते हैं। वैसे भी इस इलाक़े में ज़्यादातर मज़दूर ही हैं। यहां प्राइवेट स्कूलों की फ़ीस बहुत ज़्यादा है। जब तक सामर्थ्य होता है लोग-बाग अपने बच्चों को पढ़ा लेते हैं। किसी तरह छठी-सातवीं तक का ख़र्चा तो वो झेल लेते हैं पर आगे की पढ़ाई का ख़र्चा नहीं झेल पाते। सरकारी स्कूलों की हालत
एक बार जब मैं एक स्कूल में पहुँची तो मुझे गेट के बाहर ही रोक लिया गया। काफ़ी मिन्नतों के बाद भी मुझे अन्दर नहीं जाने दिया गया। इस बीच गेट से मैं स्कूल का नज़ारा देखती रही। हालांकि तब लन्च टाइम नहीं था फिर भी बच्चे मैदान में घूम रहे थे और टीचर्स गप्पे हांकने में मस्त थे। मैं बग़ल में खड़ी होकर स्कूल की छुट्टी होने का इन्तज़ार करती रही। छुट्टी के पश्चात स्कूल की कुछ छात्राओं से बातचीत की। पूछा, ‘तुम्हारे स्कूल में पढ़ाई नियमित रूप से होती है या नहीं, टीचर्स ठीक से पढ़ाते हैं या नहीं। उनका जवाब था कि ‘बाज़ी कोई ढंग से पढ़ाई नहीं होती, गणित में एक सवाल कराने के बाद सब अपने आप करने को दे देते हैं। बाक़ी विषयों में भी कुछ ऐसी ही हालत है। पढ़ने-सीखने के लिए बच्चे टीचर्स पर नहीं बल्कि गाइड पर ही आश्रित हैं।
तो इतनी ख़राब है कि लोग अपने बच्चों को वहाँ भेजने से बजाय घर में बिठाना ज़्यादा पसन्द करते हैं।‘
दूसरे दिन मैं एक और गली में गई। पाँच-छह घरों में पूछताछ की। ज़्यादातर लोगों के यही कहा कि ‘कम्पार्टमेंट आ गई थी फिर हमने आगे नहीं पढ़ाए’। मैंने कहा, ‘कम्पार्टमेंट का पेपर भी तो दिया जा सकता था, क्यों नहीं दिया?’ एक मां ने कहा, ‘आगे कितना भी पढ़ लो, पहली बात तो नौकरी नहीं लगती और दूसरी, कोई ससुराल वाला अपनी बहू से नौकरी करवाना नहीं चाहता।’ मैंने उनकी बात का जवाब दिया कि जब नौकरी लायक़ पढ़ाओगे तभी तो नौकरी लगेगी। दसवीं और बारहवीं कराने के बाद आप चाहते हो आपके बच्चे को नौकरी लग जाए और वो भी सरकारी? प्राइवेट तो आप कराना नहीं चाहते तो सरकारी नौकरी के लिए जितना ज़रूरी है, कम से कम उतना तक पढ़ाओ तो सही।‘ ससुराल वाले नौकरी नहीं कराना चाहते के जवाब में ‘मैंने कहा कि वो भी इंसान हैं उनकी भी बेटियाँ हैं। अगर उन्हें समझाया जाएगा तो वे ज़रूर मान जाएंगे। इस तरह अपने मन में कोई भी धारणा बनाना ग़लत है।‘ मेरी बातों का उन पर कोई असर पड़ा या नहीं: मैं नहीं जानती।
मैं अगले घर में गई। वहाँ मैंने उस लड़की के माँ-बाप से पूछा कि आपकी बेटी तो दसवीं पास कर चुकी है, आपने उसे आगे क्यों नहीं पढ़ाया? उन महाशय को पता नहीं मेरी बातों से क्या लगा। उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया सिर्फ़ इतना कहा कि ‘हम आगे नहीं पढ़ाना चाहते, ज़माना बहुत ख़राब है, कहीं कुछ ऊँच-नीच हो गई तो हमारी तो जिन्दगी ही बर्बाद हो जाएगी।‘ वे मुझसे और बात करने के मूड में नहीं थे। मैंने भी उन्हें परेशान नहीं किया। मन ही मन मैं ये सोचती रही कि इनकी समस्या यह है कि यहाँ स्कूल पास में नहीं है और दूर भेजना इन्हें गवारा नहीं।
तीसरे दिन मैं एक और गली में गई। वहाँ पाँच-छह घरों में पूछताछ की। पता चला फिलहाल उनके बच्चे पढ़ रहे हैं। यहीं पास में प्राइवेट स्कूल में। मैंने कहा चलो अच्छी बात है। फिर मैंने पूछा ‘आगे और पढ़ाने का इरादा है?’ जवाब दिया, ‘ऊपर-वाला मालिक है।‘ तभी मुझे पता चल गया कि ये भी अपने बच्चों को आठवीं से ज़्यादा नहीं पढ़ाएंगे। क्योंकि स्कूल आठवीं तक ही है। और अगर ये आगे पढ़ाते तो ये नहीं कहते कि ऊपर-वाला मालिक है। फिर भी मैंने उनसे कहा कि वे अपने बच्चों को आगे और अधिक पढ़ाए। इसके बाद मैंने दो और घरों में बातचीत की। एक घर में एक लड़की थी जो साइंस साइड से पढ़ रही थी और भविष्य में एयरफ़ोर्स में जाना चाहती थी। जब मैंने उससे पूछा, ‘तू आजकल क्या कर रही है?’ उसने जवाब दिया ‘कुछ नहीं।’ मुझे समझ नहीं आया कि उसने ऐसा क्यों कहा। मैंने पूछा, ‘तू तो एयरफ़ोर्स में जाना चाहती थी, क्या हुआ?’ उसने कहा, ‘मैंने पड़ाई छोड़ दी।‘ मुझे बड़ी हैरानी हुई। मैंने पूछा, ‘लेकिन क्यूँ?’ उसने जवाब दिया, ‘बारहवीं में कम्पार्टमेंट आ गई थी, फिर मैंने पढ़ाई छोड़ दी।’ मैंने कहा पेपर भी तो दे सकती थी। ‘कम्पार्टमेंट आने के बाद पढ़ाई से मन हट गया और मैंने पढ़ाई छोड़ दी, और वैसे भी मेरे-माँ बाप भी मुझे सपोर्ट नहीं करते’, कहते-कहते वह रोने लगी। मैंने फिर आगे उससे कोई बातचीत नहीं की। अब मैं अगले घर में थी। पता चला यहां भी वही समस्या है ‘कम्पार्टमेंट’। फिर मैंने सोचा आगे ना पढ़ने का कारण बार-बार ‘कम्पार्टमेंट’ ही बताया जा रहा है लेकिन इस ‘कम्पार्टमेंट’ का कारण क्या हैं?
लगभग 15 दिनों तक मैं ऐसे ही लोगों से बातचीत करती रही। और इस बातचीत से ये निष्कर्ष निकला कि मेरे इलाक़े में आठवीं से ज़्यादा कोई लड़की पढ़ी-लिखी नहीं है। दो-चार ही हैं जिन्होंने हिम्मत करके दसवीं तक की पढ़ाई की हैं और दो-चार ही बारहवीं तक। बारहवीं से आगे पढ़ने वाली तो केवल तीन ही लड़कियाँ हैं जिनमें एक मैं हूँ।
मैं जहां तक समझती हूं, हमारे इलाक़े में पढ़ाई-लिखाई के मामले में लड़कियों के पिछड़ेपन के दो मुख्य कारण हैं: लोगों में जागरूकता की कमी, और संसाधनों का अभाव।
अपने शोध के दौरान मैंने देखा कि ज़्यादातर लड़कियाँ कम्पार्टमेंट के चलते आगे नहीं पढ़ पातीं। पर मैं जब कम्पार्टमेंट के कारण पर सोचती हूं तो मुझे ये महसूस होता है कि बचपन से यदि बच्चियों के ज़ेहन में ये बात डाली जाएगी कि तुम्हें पढ़-लिख कर कुछ नहीं करना है, सिर्फ़ घर का काम करना है क्योंकि तुम लड़की हो, और लड़कियों को केवल घर का काम करना शोभा देता है - तो कहाँ से उनमें शिक्षा के प्रति उत्सुकता पैदा होगी। लड़कियां भी ये सोच लेती हैं कि हिसाब-किताब लायक़ ही तो पढ़ना है और उसके लिए ज़्यादा मेहनत की करने की क्या ज़रूरत है।
शिक्षा के प्रति लड़कियों की उदासीनता का दूसरा सबसे बड़ा कारण है संसाधनों का अभाव। अपने अध्ययन के दौरान मैंने देखा कि इस इलाक़े में प्राइवेट स्कूलों की तो भरमार है (यहां यह बता देना ज़रूरी है कि ये प्राइवेट स्कूल कहीं से स्तरीय नहीं हैं। कई तो चार कमरों के मकान में चल रहे हैं। न क़ायदे के शिक्षक हैं और न क़ायदे की सुविधा। ज़्यादातर पैसे कमाने के धंधे हैं) पर प्राइवेट स्कूल केवल आठवीं तक ही हैं। आठवीं से आगे पढ़ने के लिए लोग अपने बच्चों को दूर भेजना पसन्द नहीं करते। इस इलाक़े के में तीन-चार सरकारी स्कूल हैं। एक बारहवीं तक और बाक़ी दो-तीन दसवीं कक्षा तक। इन स्कुलों की हालत भी ऐसी है कि माँ-बाप अपनी बच्चियों को वहाँ भेजना पसन्द नहीं करते। पड़ोस के यमुना विहार के सरकारी स्कूलों में या तो दाखिला मिल नहीं पाता या दूर होने के कारण माँ-बाप अपने बच्चों को वहां भेजना नहीं चाहते। लड़कियों की शिक्षा के मामले में ग़ैर-सरकारी संस्थाओं की कोशिशें भी मुस्तफ़ाबाद में न के बराबर ही दिखती हैं।
शोध के दौरान मैंने कुछ सरकारी स्कूलों का भी सर्वेक्षण किया। एक बार जब मैं एक स्कूल में पहुँची तो मुझे गेट के बाहर ही रोक लिया गया। काफ़ी मिन्नतों के बाद भी मुझे अन्दर नहीं जाने दिया गया। इस बीच गेट से मैं स्कूल का नज़ारा देखती रही। हालांकि तब लन्च टाइम नहीं था फिर भी बच्चे मैदान में घूम रहे थे और टीचर्स गप्पे हांकने में मस्त थे। मैं बग़ल में खड़ी होकर स्कूल की छुट्टी होने का इन्तज़ार करती रही। छुट्टी के पश्चात स्कूल की कुछ छात्राओं से बातचीत की। पूछा, ‘तुम्हारे स्कूल में पढ़ाई नियमित रूप से होती है या नहीं, टीचर्स ठीक से पढ़ाते हैं या नहीं। उनका जवाब था कि ‘बाज़ी कोई ढंग से पढ़ाई नहीं होती, गणित में एक सवाल कराने के बाद सब अपने आप करने को दे देते हैं। बाक़ी विषयों में भी कुछ ऐसी ही हालत है। पढ़ने-सीखने के लिए बच्चे टीचर्स पर नहीं बल्कि गाइड पर ही आश्रित हैं।
इस प्रकार मुझे समझ में आ गया कि आख़िर क्या कारण है कि माँ-बाप अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में नहीं भेजना चाहते हैं। फिर मुझे लगा कि शायद इन्हीं वजहों से लड़कियाँ अपनी शिक्षा पूरा नहीं कर पाती हैं। बहरहाल, कारण और भी हो सकते हैं लेकिन हक़ीक़त ये है कि अंतत: सज़ा की भागीदार तो लड़कियाँ ही बनती हैं। अब भविष्य में इंतज़ार उस वक़्त का है जब मुस्लिम समाज में पूर्ण जागरूकता आए, सरकारी स्कूलों की हालत में सुधार हो और माता-पिता की आर्थिक हैसियत भी थोड़ी बेहतर हो ताकि लड़कियाँ ठीक से अपनी शिक्षा पूरी कर सकें और अपने पैरों पर खड़ी हों। 

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