शनिवार, 10 दिसंबर 2011

सराय दिल्ली पार्थिव कुमार



Sunday, May 24, 2009


एक पुरानी कहानी

निवल देई से मेरी मुलाकात एक दिन अचानक ही हो गई। उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में एक छोटा सा कस्बा है परीक्षितगढ़। कहते हैं कि यह अर्जुन के पोते परीक्षित की राजधानी हुआ करता था। इस कस्बे में कई ऐसी जगहें हैं जिनका संबंध महाभारत काल से जोड़ा जाता है। ऐसी ही एक जगह है निवल देई का कुआं जिसकी मुंडेर पर बैठ कर मैंने एक गड़ेरिए से नाग जाति की इस राजकुमारी की दिलचस्प कहानी सुनी।
उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा के एक बड़े हिस्से में लगभग 300 साल से प्रचलित इस लोककथा को आपके सामने रखने की एक खास वजह है। समाज में दलितों की स्थिति और उनके प्रति सवर्णों की धारणा के बारे में तो हम सब जानते हैं। लेकिन इस कहानी से यह भी पता चलता है कि उस जमाने में सवर्णों के बारे में दलित क्या सोचते थे। वास्तव में जाति और लिंग के आधार पर भेदभाव और दमन के खिलाफ एक खूबसूरत, खुद्दार और बुद्धिमान औरत की आवाज है निवल देई की कहानी।
- पार्थिव कुमार

एक थी निवल देई

पैरों की आहट तहखाने तक आकर ठहर गयी। दरवाजा खुला और ताजा हवा का एक झोंका राजकुमारी को छूकर गुजर गया। राजकुमारी का समूचा बदन सिहर उठा जैसे अनजाने में किसी मर्द से छू गया हो। उसने गहरी सांस लेकर आजादी के उस एक पल को अपने अंदर समेट लिया।
राजकुमारी ने नजरें उठा कर दरवाजे की ओर देखा। सामने महामंत्री शंखचूड़ खड़े थे। उनके चेहरे पर बेबसी और उदासी साफ दिखाई दे रही थी। सिर पर बिखरे बाल और आंखों के नीचे स्याही। कपड़े भी बेतरतीब थे। लग रहा था कि अरसे से सोये नहीं हैं। उन्होंने राजकुमारी से कुछ कहना चाहा मगर अलफाज जुबान पर ही रुक गये। राजकुमारी ने भी कुछ नहीं कहा। बस हाथ से आसन की ओर इशारा कर दिया। महामंत्री बुझे कदमों से आकर उस पर बैठ गये। राजकुमारी उनके सामने चुपचाप अपने पलंग के मुहाने पर बैठी रही। दोनों के बीच काफी समय तक खामोशी पसरी रही। लेकिन सिर झुकाये महामंत्री के हावभाव से साफ हो चुका था कि वह कोई बहुत बुरी खबर लेकर आये हैं।
आखिर में शंखचूड़ ने आसन पर पहलू बदलते हुए चुप्पी तोड़ी, ‘‘राजकुमारी निवल देई, हम सब बड़ी मुसीबत में हैं। आपके पिता, पाताल के राजा वासुकी को हमारी बदकिस्मती से कोढ़ हो गया है। उनका सुनहरा जिस्म दिनोंदिन पिघलता जा रहा है। चेहरा इस कदर बिगड़ चुका है कि आप देख कर शायद उन्हें पहचान भी नहीं सकें।’’
राजकुमारी ने महामंत्री के चेहरे पर एक बार निगाहें डालीं मगर बोली कुछ नहीं। शंखचूड़ ने अपनी बात आगे बढ़ायी, ‘‘समूचे पाताल में हाहाकार मचा हुआ है। राजा ने खुद को राजकाज से पूरी तरह अलग कर लिया है। एक अंधेरी कोठरी में पड़े रहते हैं। कच्ची मिट्टी के बरतन में खाते हैं। लोगों से मिलना जुलना बंद कर चुके हैं। कुछ पूछो तो जवाब तक नहीं देते। आपकी मां, रानी पद्मा ने राजा के इलाज का उपाय सुझाने के लिए आज रात ही समूचे कुटुंब को बुलाया है। राज पुरोहित संजी भी दरबार में मौजूद होंगे। रानी चाहती हैं कि वहां आप भी हों। उनके हुक्म पर ही मैं आपको इस तहखाने से ले जाने के लिए आया हूं। मुझे उम्मीद है कि मेरी अरज को कबूल कर आप साथ चलने की मेहरबानी करेंगी।’’
राजकुमारी ने अपने उलझे हुए बालों को दोनों हाथों की अंगुलियों से पीछे की ओर संवारा। फिर पलकें बंद कर आंखों को अंगुलियों के पोरों से दबाया। उसने गालों पर हथेलियों को फेर पलंग के सिरहाने लगे आईने में अपने अक्स को देखा। दासी संदल उसके नजदीक आकर खड़ी हो गयी। राजकुमारी उसके कंधे का सहारा लेकर उठी और महामंत्री के साथ जाने के लिए तैयार हो गयी। राजमहल के सांप की तरह बलखाते गलियारों से गुजरते हुए दोनों दरबार की ओर चल पडे। पूरे बारह साल बाद राजकुमारी ने तहखाने के बाहर कदम रखा था। झरोखों से छन कर आती चांदनी में उसकी देह हीरे की तरह दमक उठी। फलक पर टिमटिमाते तारों ने इस नूर के दीदार के लिए ताकाझांकी शुरू कर दी।
दरबार में घुसते ही राजकुमारी ठिठक गयी। चारों तरफ नीम अंधेरा छाया था। चिरागों की लौ बुझती हुई सी जान पड़ती थी। सन्नाटे के बीच सबके सिर झुके हुए थे। राजकुमारी के ठीक सामने तख्त पर राजा वासुकी बैठे थे। तन पर सिर्फ एक सफेद धोती थी। सिर पर ताज तक नहीं था। उनके बगल में बैठी रानी भी गुमसुम थीं। राजा के दाहिनी ओर उनके भाई जीवन, बेटे सूतक और पातक और भतीजे हरियल और परियल कतार में बैठे थे। इन सब के सामने की कतार में सेनापति जादो के अलावा काले और भूरे समेत नाग समाज की कई मशहूर हस्तियां थीं।
दरबार के बीचोंबीच खड़े राजपुरोहित ने सबकी ओर एक साथ मुखातिब होकर कहा, ‘‘साहिबान, हम पर जो कहर टूटा है उससे निजात के लिए मैंने वैद्यों, हकीमों और ज्योतिषियों से बातचीत की। पीरों और फकीरों से भी मिला और तमाम ग्रंथ चाट डाले। मैं आखिर में इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि हमारे राजा के रोग का अकेला इलाज धरती के मालिक परीक्षित के महल के नजदीक बने एक खास कुएं का पानी है। अगर हममें से कोई किसी तरह उस कुएं का पानी ला सके तो हमारे राजा उससे नहा कर फिर से पूरी तरह तंदुरुस्त हो सकते हैं।’’
दरबार में मौजूद सभी लोगों पर अचानक जैसे बिजली गिर पड़ी। राजा और रानी भी चैंक उठे। यह कैसा उपाय सुझाया संजी ने जिस पर अमल करना कतई मुमकिन नहीं है। सब एकदूसरे की ओर देख रहे थे। समूचा दरबार मधुमक्खियों के भिनभिनाने जैसी आवाजों में डूब गया। जादो ने कहा, ‘‘राजपुरोहित, आप जानते हैं कि यह काम कितना मुश्किल है। परीक्षित हमारे राजा के खून का प्यासा है। वह अपने साथ बरसों पहले हुए धोखे को अब तक भूल नहीं पाया है। वह भला क्यों हमें अपने कुएं से पानी लेने देगा? वह तो हमारे राजा का बुरा ही चाहेगा ताकि समूचे पाताल को अपने कब्जे में ले सके। हम धरती पर जाकर जंग में उसे हरा पाएं ऐसी भी हमारी हैसियत नहीं है।’’
जीवन ने भी बेबसी जतायी, ‘‘हममें से कोई अकेला जाकर चुपके से कुएं से पानी भर लाये यह भी नामुमकिन है। धरती के लोगों की नजरों में हम अछूत हैं। हमारी छाया तक से बचते हैं वे। हम अगर किसी धरती वाले से गलती से भी छू जाएं तो वह जिस्म पर मिट्टी मल कर घंटों गंगा में डुबकी लगाता रहता है।’’
‘‘संजी महाराज, हमारी कितनी ही औरतों को चोरी छिपे अपने जंगल से जलावन इकट्ठा करने जैसे छोटे से गुनाह की सजा के तौर पर धरती वाले नंगा करके अपनी गलियों में घुमा चुके हैं।‘‘ सूतक और पातक ने भी अपने चाचा की संगत करते हुए कहा, ‘‘गलती से उनका रास्ता काट बैठे हमारे कितने ही बुजुर्गों और बच्चों के सिर उनके धडों़ से कलम कर दिये गये हैं। आपको क्या लगता है कि वे अपने कुएं से हमें पानी लेने देंगे? राजा को ठीक करने के लिए हमें किसी और उपाय पर विचार करना चाहिए।’’दरबार में कानाफूसियां अब बहस में तब्दील हो चुकी थीं। धरती के कुएं से पानी लाने की हिम्मत किसी में नहीं थी। मगर हर कोई अपने विचार रखने की जल्दी में था। राजकुमारी इन सब से दूर कहीं और खोयी थी। लेकिन धरती के राजा का जिक्र आते ही वह चैंक गयी। राजा परीक्षित की वजह से ही तो उसे अपना समूचा बचपन एक बंद कमरे में गुजारना पड़ा था। उसे बगीचे में फूलों के बीच तितलियों के पीछे भागने का मौका कभी नहीं मिला। चिड़ियों का समूहगान उसने कभी नहीं सुना। झरने के ठंडे पानी को अंजुरी में भर कर अपने चेहरे पर छपाक से मारने की उसकी ख्वाहिश भी अधूरी ही रही।
राजकुमारी को पता ही नहीं चला कि तहखाने की चैहद्दी के बीच कब बचपन की दहलीज को लांघ कर वह जवान हो गयी। राजा और रानी बेशक गाहे बेगाहे अपनी बेटी से मिलने तहखाने तक चले आते थे। मगर दासी संदल को छोड़ राजकुमारी का कोई हमराज नहीं था। उसके सपनों में कभी कोई राजकुमार नहीं आया। अलबत्ता ठुड्डी के बीच से बंटी घनी सफेद दाढ़ी वाला अधेड़ राजा परीक्षित जरूर रोज ख्वाबों में आकर उसे डराता रहा। अपनी जाति की श्रेष्ठता के दंभ में डूबा राजा परीक्षित जिसने नागों को नीचा दिखाने की अपनी जिद की वजह से राजकुमारी की जिंदगी को मौत से भी बदतर बना दिया था।
तकरीबन बारह साल पहले की बात है। राजा वासुकी जंगल में शिकार खेलने निकले और हिरणों के एक झुंड का पीछा करते हुए काफी दूर तक निकल गये। उन्हें पता ही नहीं चला कि कब वह अपनी सरहद को पार कर राजा परीक्षित के राज में घुस गये। उन्होंने एक हिरण को मारा और तलवार से पेट चीर कर उसका जिगर निकाल लिया। फिर टहनियों को इकट्ठा करके अलाव जलाया और खाने के लिए उस जिगर को भूनने की तैयारी करने लगे।
आग लगी तो आसमान की ओर धुएं की एक लकीर खिंच गयी। अपने महल के छज्जे पर खड़े राजा परीक्षित ने धुआं देखा और उसे पता लगा गया कि कोई शिकारी बिना इजाजत उसके जंगल में शिकार खेलने आ घुसा है। वह घोड़े पर सवार होकर अपने सैनिकों के साथ उस जगह पहुंचा जहां से धुआं उठ रहा था। सामने नागों के राजा को देख वह हैरान रह गया। उसके सैनिकों ने राजा वासुकी को चारों तरफ से घेर लिया। पातालराज को तब जाकर एहसास हुआ कि वह गलती से धरती पर पहुंच गये हैं।
‘‘पातालराज, तुमने अपने गंदे पैरों से हमारी धरती को नापाक कर हमें ललकारा है।‘‘ राजा परीक्षित ने अपनी म्यान से तलवार खींच ली, ‘‘अब तुम यहां से बच कर नहीं जा सकते। लड़ने और मरने के लिए तैयार हो जाओ। इस जंगल में तुम्हारे कुनबे के कितने ही लोगों की हड्डियों बिखरी पड़ी हैं और अब तुम्हारा भी यही अंजाम होगा।’’
राजा वासुकी ने बेखौफ निगाहों से परीक्षित की आंखों में झांक कर देखा। वह बोले, ‘‘धरती के मालिक, मेरा इरादा तुम्हें नाराज करने का नहीं था। मैं तो भूल से तुम्हारी हदों में आ गया हूं। लड़ने से मैं हरगिज नहीं डरता। लेकिन तुम्हारे साथ सैनिक हैं और मैं अकेला हूं। अपने सैनिकों से कहो कि पीछे हट जाएं और फिर चाहो तो मुझ से मुकाबला कर लो।’’
राजा परीक्षित ने कोई जवाब नहीं दिया। बस आंखें मींच कर सिर हिलाते हुए अपने होठों के कोनों से मुस्कराता रहा। सैनिकों ने राजा वासुकी के इर्दगिर्द घेरा कसना शुरू कर दिया। दरख्तों के तनों और पत्तियों पर कई दर्जन नंगी तलवारें कौंध गयीं। राजा वासुकी के दिल की धड़कनें तेज होने लगीं। यह घिनौनी मौकापरस्ती ही तो है धरती पर राज करने वालों का गौरव। राजा वासुकी को अपना अंत नजदीक दिखाई देने लगा।
लेकिन धरती के राजा के दिमाग में कुछ और ही चल रहा था। उसने कुछ देर तक सोचने का ढोंग करने के बाद कहा, ‘‘मैं एक शर्त पर तुम्हें छोड़ सकता हूं। तुम अपनी बेटी के हाथ मेरे हाथों में दे दो। मुझसे रिश्ता जोड़ कर तुम्हारा समूचा कुनबा पाक हो जाएगा। तुम्हारे सिर पर मेरा हाथ होगा और तुम निडर होकर पाताल पर राज कर सकोगे।’’
पातालराज ने राजा परीक्षित की ओर नफरत से देखा और जमीन पर थूक दिया। किस हद तक गिर सकता है यह इंसान। किसी को नीचा दिखाने के लिए एक मासूम लड़की को अपने हरम में धकेलना चाहता है। उन्होंने कहा, ‘‘परीक्षित, मैं तुम्हारी कोई भी और शर्त मानने को तैयार हूं। मगर इस शर्त को नहीं मान सकता। मेरी बेटी इस समय सिर्फ छह साल की है। उससे तुम्हारा ब्याह कैसे हो सकता है?’’
राजा परीक्षित की आंखें गुस्से से धधक उठीं। नागों के नीच कुल का, पाताल का यह राजा उसकी कैद में होने के बावजूद नाफरमानी की जुर्रत कर रहा था। तलवार के हत्थे पर उसकी पकड़ सख्त हो गयी। लेकिन फिर उसे लगा कि समझदारी से काम लेना ही सही है। वह बोला, ‘‘सोच लो। बचने का कोई और उपाय नहीं है तुम्हारे पास। मैं सोचने के लिए तुम्हें कुछ वक्त दे रहा हूं।’’
काफी देर तक दोनों में से कोई कुछ नहीं बोला। परीक्षित के सैनिक राजा वासुकी पर टूट पड़ने के लिए अपने मालिक के हुक्म का इंतजार कर रहे थे। धरती के राजा का गुस्सा बढ़ता जा रहा था। उसके सब्र का घड़ा भरने को था। दूसरी ओर समय गुजरने के साथ ही बेटी के लिए अंधे प्रेम की जगह एक ठंडा तर्क राजा वासुकी के दिल में पैठ जमाने लगा। वह मारे गये तो उनकी रियाया का क्या होगा? उनके जिंदा रहते तो पाताल पर हमला करने की हिम्मत परीक्षित में नहीं है। लेकिन हो सकता है उनके मरने के बाद वह समूचे पाताल को ही तबाह कर दे। ऐसे में नागों को पता नहीं कैसी मुसीबतों का सामना करना पड़े। तब निवल देई भी कहां बच पाएगी परीक्षित के चंगुल से।
‘‘तो मेरी शर्त मंजूर नहीं है तुम्हें।’’ राजा परीक्षित ने अंत में कहा, ‘‘फिर मरने के लिए तैयार हो जाओ। मेरे इंसाफ के बारे में तो तुमने सुन ही रखा होगा। मैं तुम्हें ठीक उसी तरह मारूंगा जैसे तुमने मेरी धरती पर आजाद घूमने वाले इस हिरण को मारा है। इसके बाद मैं तुम्हारे जिगर को निकाल कर अलाव पर भूनूंगा और उसे खाकर अपनी भूख मिटाउंगा।’’
राजा परीक्षित की कड़क आवाज से समूचा जंगल जैसे सोते से जाग गया। चिड़ियों ने डर से शोर करते हुए आसमान में चक्कर लगाना शुरू कर दिया। पेड़ों के पत्ते एक अनहोनी के अंदेशे से कांप उठे। सैनिकों ने जोर की एक हुंकार भरी और परीक्षित ने अपनी तलवार को कंधे तक उठा लिया। बचने का कोई चारा नहीं देख राजा वासुकी ने कहा, ‘‘परीक्षित, तुम्हारी शर्त मंजूर है मुझे। मैं अपनी बेटी को तुम्हारे हवाले करने को तैयार हूं।’’
‘‘ठीक है। मैं तुम्हें आजाद करता हूं। लेकिन अपने वायदे को याद रखना। इसे भूलना तुम्हारी तबाही का सबब बन सकता है।’’
राजा वासुकी पाताल लौटे तो उनके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं। थकान से समूचा शरीर टूटा जा रहा था। अपमान और शर्म से सिर झुका हुआ था। उन्होंने घोड़े को अस्तबल में साइस को सौंपा और सीधे रानी के कमरे में चले गये। रानी पद्मा ने उन्हें देखा तो घबरा गयीं। रानी को सारी बात बताते हुए राजा वासुकी की आंखें भर आयीं। भरे गले से बोले, ‘‘पद्मा, मैं समझ नहीं पाता कि अब क्या किया जाए।’’
‘‘मेरे सरताज,’’ रानी ने कुछ देर सोच कर कहा, ‘‘आपने राजा परीक्षित को जो जबान दी है उसे पूरा करें। वायदे से मुकरने का अंजाम कभी भी अच्छा नहीं होता। पता नहीं इस वायदा खिलाफी का क्या नतीजा कल को हमें भुगतना पड़े।’’
लेकिन परीक्षित के चंगुल से आजाद होने के बाद राजा वासुकी के जेहन पर बेटी के लिए अथाह प्यार फिर हावी हो गया था। वह अपनी आंखों की पुतली को निकाल कर भला कैसे किसी और को सौंप दें। काफी उधेड़बुन के बाद आखिरकार उन्होंने फैसला कर लिया। वह निवल को राजा परीक्षित के हवाले हरगिज नहीं करेंगे चाहे इसकी कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े।
‘‘पद्मा, मैंने फैसला कर लिया है। हम अपनी बेटी को परीक्षित के पास नहीं भेजेंगे। पाताल में आकर हमसे लड़ने का दम तो उसमें है नहीं। मैं फरमान निकाल दूंगा कि आज से नागों में से कोई भी धरती पर कदम नहीं रखेगा। बेटी को हम एक तहखाने में बंद रखेंगे ताकि बाहर किसी को उसकी भनक तक नहीं हो। परीक्षित अपने खुफियों को भेज कर उसे अगवा करना चाहे तो भी उसे कामयाबी नहीं मिलेगी।’’
इसके बाद पाताल के बेहतरीन कारीगरों को बुला कर निवल देई के लिए एक बेहद खूबसूरत तहखाना तैयार कराया गया। फर्श पर रेशम का गलीचा बिछाया गया ताकि राजकुमारी के पैरों को तकलीफ न हो। सोने के पलंग पर मखमल का बिस्तर। ऐशोआराम की हर चीज मौजूद थी उस तहखाने में। राजकुमारी को दासी संदल के साथ तहखाने में भेज उसका दरवाजा बंद कर दिया गया।
राजकुमारी ने अपने चारों तरफ नजरें दौड़ायीं। बारह साल में पहली बार उसे तहखाने के बाहर की जिंदगी से रूबरू होने का मौका मिला था। जिन गलियारों में वह लुकाछिपी खेलती थी वे इन बरसों में उसके लिए अजनबी हो चुके थे। राजमहल की दीवारों तक ने उसे पहचानने से इनकार कर दिया था। अपने भाइयों तक को उसने बहुत मुश्किल से पहचाना। दरबार में मौजूद ज्यादातर चेहरे उसके लिए एकदम नये थे। अलबत्ता जिन बूढ़े महामंत्री शंखचूड़ और राजपुरोहित संजी ने उसे गोद में खिलाया था उन्हें उसने देखते ही पहचान लिया।
दरबार में बहस अब भी जारी थी। किसी की भी समझ में नहीं आ रहा था कि किया क्या जाए। राजपुरोहित चुपचाप खड़े थे। शंखचूड़ का सिर भी झुका हुआ था। अपनी ताकत पर इतराने वाले वीरों जादो, जीवन , सूतक, पातक, हरियल और परियल का साहस जवाब दे चुका था। विद्वानों काले और भूरे के सिर चक्कर खा रहे थे। राजा परीक्षित के राज में जाकर कुएं से पानी भर लाने की चुनौती कबूल करने का हौसला किसी में भी नहीं था।
‘‘मैं जाउंगी, राजा परीक्षित के देश में पानी लाने के लिए।’’
अचानक राजकुमारी की आवाज सुन कर सब चैंक उठे। सब की नजरें उसकी ओर घूम गयीं। राजा वासुकी तख्त से उठने को हुए मगर गली हुई हड्डियों ने इसकी इजाजत नहीं दी। रानी पद्मा बेजार होकर बोलीं, ‘‘बेटी, ऐसा कैसे हो सकता है? राजा परीक्षित के नापाक मंसूबों का शिकार बनने से बचाने के लिए ही तो हमने तुम्हें इतने बरसों तक दुनिया से छिपाये रखा। एक बार तुम उसके जाल में फंस गयी तो वह तुम्हें लौटने नहीं देगा। हम तुम्हें उसके देश में जाने की इजाजत नहीं दे सकते।’’
महामंत्री और राजपुरोहित ने भी समझाया। चाचा और भाइयों ने भी धरती पर जाने की जिद छोड़ देने की सलाह दी। कुनबे के बाकी लोगों ने भी अपना फैसला बदलने की गुजारिश की। मां की आंखों से तो आंसुओं की धाराएं बह निकलीं। मगर राजकुमारी नहीं मानी। उसने रानी से कहा, ‘‘मैं नाग की बेटी हूं। राजा परीक्षित मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। मैं देखूंगी कि वह मुझे पानी लेकर लौटने से कैसे रोकता है। दुआ करना मां कि मैं कामयाब होकर लौटूं।’’
तहखाने में लौटने के बाद राजकुमारी ने चंदन के उबटन से गुसल किया। नए कपड़े पहने और सोलह सिंगार कर सिर से पांव तक खुद को गहनों से सजा लिया। पैरों में चांदी की चप्पलें डालीं। माथे पर सोने की गगरी और बगल में रेशम की डोर लेकर सबसे रुखसती लेती हुई राजमहल से निकल गयी।
पत्तियों से छन कर आती धूप ने संकरी पगडंडी पर अकेली जाती राजकुमारी के बदन से खेलना शुरू कर दिया। उसके हुस्न की खुशबू से हवा तक मदहोश हो गयी। परिंदे चहकना भूल कर एकटक उसे देखते रहे। तितलियों को अपने पंख बदसूरत लगने लगे और बेईमान भौंरों ने राजकुमारी के इर्दगिर्द गश्त शुरू कर दी। आसमान में देवराज इंद्र का मन भी डोल गया। वह धरती पर उतर कर बेनजीर खूबसूरती की इस मलिका के सामने खड़े हो गये। बोले, ‘‘सुंदरी, तुम कौन हो जिसने मेरे मन में हलचल मचा दी है? मेरे दिल में कामनाएं समंदर की लहरों की तरह उफन रही हैं। सिर्फ एक बार घूंघट उठा कर अपना रूप दिखा दो। तुम्हारी सुंदरता को पीकर ही मेरी प्यास बुझ सकेगी।’’
राजकुमारी ने जवाब दिया, ‘‘मैं हूं निवल देई। राजा वासुकी की बेटी और कश्यप की पोती। मेरे पिता के सौतेले भाई हो तुम। इस रिश्ते से मैं तुम्हारी भी बेटी हुई। मगर मैं जानती हूं कि हम छोटे लोगों के कायदे कानून देवताओं पर लागू नहीं होते। तुम्हारा दिल इजाजत देता हो तो बेशक खुद मेरा घूंघट उठा दो।’’
देवराज झेंप गये। कुछ कहते नहीं बना। राजकुमारी के सिर पर हाथ रख कर उसे आशीर्वाद दिया और चुपचाप देवलोक की ओर रवाना हो गये। राजकुमारी अभी कुछ ही दूर और चली थी कि सूरज और चांद ने उसका रास्ता रोक लिया। दोनों ने कहा, ‘‘बुरा नहीं मानना। हम देखना चाहते हैं कि आखिर किसके सामने हमारी चमक भी फीकी पड़ गयी है। किसकी वजह से हमें अपने दमकते चेहरे मुरझाये से लगने लगे हैं। सिर्फ एक बार जी भर के तुम्हारा दीदार कर लें तो अपने रास्ते चले जाएंगे हम।’’
‘‘मैं तुम्हें रोक नहीं रही।’’ राजकुमारी ने कहा, ‘‘मगर इतना तो जान लो कि मैं कौन हूं। मैं राजा वासुकी की बेटी और कश्यप की पोती हूं। तुम दोनों की बेटी लगती हूं मैं। मगर शायद सप्तऋषियों की संतानों का तप अपनी बेटी के उघड़े हुए मुखड़े को देखे बिना पूरा नहीं होता। तुम चाहो तो घूंघट उठा कर मेरा चेहरा देख लो।’’
सूरज और चांद की नजरें शर्म से झुक गयीं। दोनों चुपचाप वहां से खिसक लिये। राजकुमारी ने अपना सफर जारी रखा। लेकिन सामने एक हिरण उसका रास्ता रोके बेचैन आंखों से उसकी ओर देख रहा था। उसके लबों पर एक अनबुझ प्यास थी। लगता था जैसे इस एक पल का वह जिंदगी भर इंतजार करता रहा है। उसने अपनी बौराई सांसों को संभाल कर लड़खड़ाती हुई आवाज में कहा, ‘‘निवल, मेरी आंखें सदियों से तुम्हें ही ढूंढ रही हैं। मैं तुमसे कुछ भी और नहीं चाहता। बस, मुझे अपने दिल में थोड़ी सी जगह दे दो।’’
राजकुमारी उसकी चालाकी पर मन ही मन मुस्करायी। जिसे पाने के लिए देवताओं और राजाओं से लेकर ऋषि मुनियों तक में होड़ लगी हो, मोहब्बत का ढोंग कर उसके दिल में अपने लिए जगह बनाना चाहता है यह पाखंडी। लेकिन उसे नहीं पता कि यह अंधी हसरत उसकी जान भी ले सकती है। राजा परीक्षित को उसके दुस्साहस का पता लग गया तो एक अदने से हिरण की जान लेने में उसे कितना वक्त लगेगा?
निवल देई ने हिरण से कहा, ‘‘सुन, मेरे आशिक, तेरी दीवानगी ने मुझे पिघला दिया है। अगर मैं किसी की हुई तो वह तू ही होगा। मेरा इंतजार करना। लेकिन मैं जिस काम के लिए निकली हूं उसे पूरा किए बिना तुम्हारे पास नहीं लौट सकती। यह भी मुमकिन है कि यह काम कभी पूरा नहीं हो। इसलिए लौट नहीं सकी तो अफसोस मत करना।’’
राजकुमारी आगे चल दी। हिरण आंखों से ओझल हो जाने तक चुपचाप उसे देखता रहा। सात दिन और इतनी ही रातों तक लगातार चलने के बाद राजकुमारी कुएं तक पहुंच गयी। उसने मुंडेर पर घड़ा रखा तो हल्की सी आवाज हुई और पहरेदार गिद्धों की आंखें खुल गयीं। उनमें से एक ने राजा परीक्षित के पास जाकर उसे बता दिया कि कोई नागन पानी भरने उसके कुएं पर आयी है। राजा ने फौरन अपनी तलवार संभाली और घोड़े पर सवार होकर कुएं तक जा पहुंचा।
घोड़े से उतरते हुए राजा परीक्षित ने रौबदार आवाज में पूछा, ‘‘कौन है तू जो मेरे कुएं से मेरी इजाजत के बिना पानी लेने की गुस्ताखी कर रही है? जल्दी बता नहीं तो तेरा सिर कलम कर दिया जाएगा।’’
‘‘मैं निवल देई हूं। राजा वासुकी की बेटी।’’
एक पल के लिए तो राजा परीक्षित को यकीन नहीं आया। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि निवल देई से कभी इस तरह मुलाकात होगी। उसकी जुबान पर जैसे ताला लग गया था। उसने अपनी बांह पर चिकोटी काट खुद में जगे होने का भरोसा जगाया और फिर अपनेआप को संभालते हुए राजकुमारी से पूछा, ‘‘क्यों आयी हो यहां?’’
‘‘अपने पिता के इलाज के लिए इस कुएं से पानी लेने के वास्ते।’’
‘‘क्या तुम्हें पता नहीं कि इस कुएं से अछूतों का पानी लेना मना है? तुम्हें क्या लगता है कि वासुकी ने मेरे साथ जो फरेब किया उसके बावजूद मैं तुम्हें इस कुएं से पानी लेने दूंगा?’’
‘‘मुझे पता है कि तुम मेरी जान भी ले सकते हो। लेकिन मुझे इसकी परवाह नहीं है। मैं अपने पिता के इलाज के लिए कुछ भी करने को तैयार हूं।’’
‘‘अच्छा, तो तुम कुछ भी करने को तैयार हो,’’ राजा परीक्षित ने गहरी सांस ली। उसके चेहरे पर एक कुटिल मुस्कान फैल गयी, ‘‘फिर ठीक है। तुम वासुकी का दिया वचन पूरा करके मुझसे ब्याह कर लो। इसके बाद मैं तुम्हें अपने कुएं से पानी लेने की इजाजत दे दूंगा।’’
राजकुमारी चैंकी नहीं। ठहरी हुई आवाज में राजा परीक्षित से बोली, ‘‘ठीक है। मैं तुम से शादी करने के लिए तैयार हूं। लेकिन एक बात बताओ मुझे। मेरे मटकी भर पानी निकाल लेने से तुम्हारा कुआं अपवित्र हो जाता है। फिर एक नागन को अपने बदन से लपेट कर सोने से तुम्हारी देह को छूत नहीं लगेगा?’’
राजा परीक्षित से कोई जवाब देते नहीं बना। गुस्से से उसका चेहरा लाल हो गया। एक नागन की इतनी हिम्मत कि धरती के राजा से सवाल पूछे? इस गुस्ताख लड़की को सबक सिखाना ही होगा। वह एक कदम आगे बढ़ा और तलवार की नोंक से उसने राजकुमारी का घूंघट उठा दिया।
अचानक आसमान पर बिजली कौंधी। राजा परीक्षित पीछे हट गया। कैसी कटार जैसी तीखी नजरें हैं इस लड़की की। होंठ जैसे शराब के प्याले हों। गालों पर गुलाब खिले हैं। रूप ऐसा कि फरिश्तों तक का ईमान डोल जाए। इस अप्सरा ने पाताल के राजा के महल में कैसे जन्म ले लिया? इसे तो देवलोक में होना चाहिए था।
राजकुमारी के चेहरे पर राजा परीक्षित के गुस्से के लिए उपहास का भाव साफ झलक रहा था। अधेड़ राजा की सांसों में एक ख्वाहिश बरसों बाद धधकने लगी। समूचे बदन में सनसनी फैल गयी। चेहरा लाल हो उठा। पैर अरमानों का बोझ नहीं उठा सके और वह कुएं की मुंडेर पर ही धम से बैठ गया। पल भर पहले आवाज में जो खनक थी उसकी जगह लाचारी ने ले ली। उसने लगभग बुदबुदाते हुए कहा, ‘‘निवल, मैं तुमसे प्रेम करने लगा हूं। मेरी चाहत को ठुकरा कर मत जाओ।’’
‘‘तुमसे शादी के लिए मैं पहले ही हामी भर चुकी हूं।’’ राजकुमारी बोली, ‘‘मैं अपने पिता का दिया वचन जरूर पूरा करूंगी। मगर शर्त यह है कि पहले मैं इस कुएं से पानी लेकर पाताल जाउंगी। शादी मेरे पिता के ठीक होने के बाद ही होगी।’’
‘‘कैसे भरोसा कर लूं तुम्हारी बातों का? वासुकी तो वचन देकर मुकर गया था। मैं कैसे मान लूं कि तुम अपना वायदा पूरा करोगी?’’
‘‘फिर तो तुम्हारे पास एक ही उपाय है। अपनी तलवार पर बहुत नाज है तुम्हें। तुम चाहो तो इसके जोर पर मुझे जबरन उठा कर अपने महल में कैद कर सकते हो। तुम्हारे पूर्वज ऐसा करते रहे हैं और इससे तुम्हारी मूंछों की शान भी बढ़ेगी।’’
राजा परीक्षित एकबारगी चैंक गया। शिकार खुद शिकारी के जाल में क्यों फंसना चाहता है? निवल ने जैसा कहा शायद उसे वैसा ही करना चाहिए। लेकिन कुछ सोचने के बाद उसने इस खयाल को अपने मन से निकाल दिया। जोर जबरदस्ती से तन को जीता जा सकता है, मन को नहीं। बूढ़े राजा की कैद में जवानी अफवाहों की वजह बनेगी। लेकिन पहलू में खड़ी हो तो राजा की मर्दानगी का सिक्का जमेगा। उसे तो निवल पूरी चाहिए तन और मन दोनों के साथ ताकि समूची धरती की जुबान पर राजा परीक्षित की जवांमर्दी का फसाना हो।
उसने राजकुमारी से कहा, ‘‘मैं तुम पर यकीन करता हूं। इजाजत है तुम्हें इस कुएं से पानी भर कर जाने की। पखवाड़े भर बाद मैं इसी कुएं पर तुम्हारा इंतजार करूंगा। लेकिन अगर तुम नहीं लौटीं तो धरती का कहर पाताल पर टूटने से कोई भी नहीं रोक सकेगा।’’
राजकुमारी फौरन पानी लेकर पाताल के लिए चल पड़ी। वहां हर किसी को उसका ही इंतजार था। राजमहल के दरवाजे तक पहुंचते ही उस पर फूल बरसाए गये। औरतों ने उसकी तारीफ में कसीदे गाये। धरती से लाये गये पानी से नहाते ही राजा वासुकी का कोढ़ पूरी तरह से ठीक हो गया। उनका सुनहरा बदन फिर से दमकने लगा। राजमहल में खुशी की लहर दौड़ गयी। समूचे पाताल में जश्न का माहौल था। हर किसी की जुबान पर राजकुमारी की बहादुरी और सूझबूझ की ही चर्चा थी।
लेकिन राजकुमारी का अपने लोगों से जुदा होने का वक्त आ गया था। उसने राजा वासुकी से अकेले में कहा, ‘‘मुझे लगता है कि राजा परीक्षित को दिया वचन पूरा नहीं करने से ही आप पर यह विपदा आयी। मैं नहीं चाहती कि पाताल के लोगों पर और कोई मुसीबत आये। वैसे भी राजा परीक्षित को मैं मन से अपना पति मान चुकी हूं। मुझे अब उसके पास लौटना होगा इसलिए मैं आपसे इजाजत मांगने आयी हूं।’’
अपनों से बिछड़ते समय राजकुमारी अपनी मां से लिपट कर खूब रोयी। राजा वासुकी चुपचाप खड़े थे। कुछ बोलना चाहा मगर आवाज गले में ही ठहर गयी। राजकुमारी के दोनों भाइयों, कुटुंब के बाकी लोगों और दरबारियों की आंखें भी भर आयीं। उस रात समूचे पाताल में अंधेरा छाया रहा और किसी भी घर में चूल्हा नहीं जला।
राजकुमारी कुएं पर पहुंची तो राजा परीक्षित अकेला उसका इंतजार कर रहा था। परीक्षित ने लकड़ियां इकट्ठा कर वहीं आग जलायी और दोनों ने उसके सात फेरे लिये। राजा परीक्षित उसकी ओर देख कर मुस्करा दिया। उसने अपने खजाने में एक अनमोल नगीना जोड़ लिया है। कहारों को बुलावा भेज दिया है। हरकारे भेज कर राजधानी को जगमग करने का आदेश दे दिया है। आज समूची धरती पर जश्न होगा। हर कोई देखेगा कि पाताल की रोशनी अब किस तरह धरती के राजा के महल को रोशन करती है।
राजा परीक्षित कुएं की मुंडेर पर आकर बैठ गया। राजकुमारी चुपचाप उसके सामने खड़ी रही। राजा की छाती गर्व से तनी थी। उसके चेहरे पर अहंकार का भाव था। उसने कहा, ‘‘निवल, समूचे पाताल को जीत कर भी मुझे वह दौलत नहीं मिलती जो मैंने तुम्हें पाकर हासिल कर ली है।’’
राजकुमारी ने जैसे उसकी आवाज सुनी ही नहीं। वह बिना कोई जवाब दिये दूर क्षितिज की ओर देखती रही जहां आसमान और जमीन के एक होने का भ्रम होता है। शाम होने को थी। ढलते सूरज की सिंदूरी रोशनी में राजकुमारी की आंखों की पुतलियां चमक उठीं। आखिरी परवाज से पहले चिड़िया अपने पंखों को तोल रही थी। एक कठोर संकल्प ने उसके चेहरे को चट्टान की तरह सख्त बना दिया था।
‘‘धरती के मालिक, अपने पिता का दिया वचन मैंने पूरा कर दिया है।’’ राजकुमारी ने राजा परीक्षित की आंखों में झांक कर कहा, ‘‘मेरे और तुम्हारे बीच इससे ज्यादा कुछ नहीं था। हम दोनों का मेल नहीं हो सकता। नीचे उतर कर हमारे बराबर आने से तुम्हारी शान घटेगी। और किसी के पैरों की पूजा करना अब पातालवालों की फितरत नहीं रही।’’
राजा परीक्षित कुछ सोच पाता इससे पहले ही राजकुमारी कुएं के घेरे पर चढ़ चुकी थी। अचानक धरती की कोख से एक घनी सी आवाज बवंडर की तरह चक्कर काटती हुई उठी और समूचे माहौल में गूंज गयी। आसमान पर बिजली कौंधी और कुएं से उठे सैलाब ने राजा परीक्षित को सराबोर कर दिया। पश्चिम में सूरज डूब रहा था। अंधेरा छाने को था। धरती का राजा देर तक कुएं के नजदीक ही खड़ा रहा और फिर बुझे हुए कदमों से अपने महल की ओर लौट गयादिल्ली सराय

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