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प्रकाशित Mon, दिसम्बर 12, 2011 पर 13:13 | स्रोत : Hindi.in.com
12 दिसम्बर 2011 आईबीएन-7
पंकज श्रीवास्तव
नई दिल्ली। 12 दिसम्बर को दिल्ली को राजधानी बने सौ साल पूरे हो रहे हैं। इस खास मौके पर ‘आईबीएन-7’ आपको इस ऐतिहासिक शहर के राजनीतिक इतिहास के बारे में बता रहा है।
जानिए, अंग्रेजी शासन के बाद आखिर किस-किस मोड़ से गुजरी दिल्ली।
दिल्ली की इमारतें ही नहीं, उसके मैदान भी इतिहास के गवाह हैं। झाड़-झंखाड़ से भरे इस मैदान को देखिए....यहां जिन अंग्रेजों की प्रतिमाएं हैं, वे कभी हिंदुस्तान की किस्मत का फैसला करते थे...इतिहास के निर्मम परिंदों ने बीट कर-करके इन्हें बदरंग बना दिया है। लेकिन सौ साल पहले, इसी जगह उन्होंने ऐसा जश्न रचा था, जिसकी गूंज हिंदुस्तान ही नहीं, दुनिया में सुनी गई थी। तारीख थी, 12 दिसंबर 1911......इस मैदान में ब्रिटिश साम्राज्य का पूरा तेज उतर आया था। हिंदुस्तानी रियासतदारों की लालच के घोड़े कुलाचे मार रहे थे, तो ख्वाहिशों के ऊंट अदा बिखेर रहे थे।
1857 में चमकी पुरखों की तलवार अब हमेशा के लिए म्यान में चली गई थी और राजे-नवाबों में सिर झुकाकर कोर्निश करने की होड़ लगी थी। ये इंग्लैंड के सम्राट किंग जॉर्ज पंचम और महारानी मैरी के राज्याभिषेक का उत्सव था यानी मशहूर दिल्ली दरबार! यूं तो 1877 और 1903 में भी दिल्ली में दरबार लग चुका था, लेकिन इस बार खुद सम्राट इसमें शामिल थे। किंग जॉर्ज पंचम ने इंग्लैंड के बाद यहां भी अपना राज्याभिषेक कराने का ऐलान किया था। सैकड़ों तोपों की सलामी के बीच सम्राट ने आठ मेहराबों और सैकड़ों हीरे-जवाहरात से जुड़ा मुकुट पहना, जिसका वजन लगभग एक किलो था। तालियों की गड़गड़ाहट आसमान तक जा पहुंची। सम्राट ने हिंदुस्तानी शासकों को राज्यभक्ति का इनाम दिया। उन्हें तमगे और उपाधियां बांटीं। और फिर सम्राट ने ऐसा ऐलान किया कि खासतौर पर दिल्ली वाले खुशी से झूम उठे।
राज्याभिषेक समारोह के पहले सम्राट का काफिला पूरी शान से दिल्ली की सड़कों पर घूमा। बाद में सम्राट ने लाल किले के झरोखे में पहुंचकर लाखों लोगों को दर्शन भी दिया। वाकई, 1857 के बाद बेनूर हो चुकी दिल्ली की किस्मत ने अचानक पलटा खाया था और जिसे रिसायत-ए-पंजाब का महज जिला बनाकर छोड़ दिया गया था, 54 साल बाद राजधानी होने का गौरव फिर उसके माथे पर सज गय। लेकिन यह फैसला यूं हीं नहीं हुआ था।
दरअसल, 1905 में अंग्रेजों ने बंगाल का विभाजन करके बंटवारे का जो जहर बोया था, वह उनके लिए ही खतरनाक साबित हो रहा था। स्वदेशी आंदोलन ने इस कदर जोर पकड़ा कि कलकत्ता में अंग्रेजों की चूलें हिल गई थीं। एक तरफ रवींद्रनाथ टैगौर जैसी शख्सियत सड़क पर थी, तो दूसरी तरफ क्रांतिकारी नौजवानों ने मोर्चा संभाल लिया था। अंग्रेज अधिकारियों के काफिलों पर बम फेंके जा रहे थे। अंग्रेज काफी घबरा गए थे। यही वजह है कि किंग जॉर्ज पंचम ने दिल्ली को राजधानी बनाने के ऐलान के साथ बंगाल का विभाजन रद्द करने का ऐलान भी किया। बहाना था वरदान, पर बचानी थी जान।
बहरहाल, जिस दिल्ली को अंग्रेज खुद उजाड़ गए थे, उसमें राजधानी की अंग्रेजी शान लाना मुश्किल था। लिहाजा राजधानी बतौर एक नया शहर बनाने का ऐलान हुआ। तस्वीरें बताती हैं कि जहां राज्याभिषेक समारोह हुआ, वहीं नए शहर के बुनियाद का पत्थर भी रखा गया था। लेकिन बाद में पता चला कि वह इलाका निचला और दलदली है। यमुना का पानी शहर के लिए मुसीबत बनता। लिहाजा रातो-रात बुनियाद का पत्थर रायसीना पहाड़ियों के पास एक विशाल बंजर मैदान में लाया गया। यहां नई दिल्ली बसाने की जिम्मादारी दी गई प्रसिद्ध वास्तुकार एडविन लुटियन को। उन्होंने एक बिलकुल नए अंदाज का शहर बनाया। चौड़ी और समकोण पर काटती सड़कें, बड़े-बड़े बंगले, वायसराय के रहने के लिए साम्राज्य की शान के मुताबिक रायसीना की पहाड़ी पर एक महल, साथ में बड़े-बड़े दफ्तर, नया एसेंबली भवन यानी संसद, पहले विश्वयुद्द में शहीद सैनिकों की याद में इंडिया गेट, सफेद खंभों से सजा दो पर्तों वाला घोड़े की नाल के आकार का बाजार यानी कनॉट प्लेस।
इस नए शहर के पूरी तरह बनने में लगभग 20 बरस लग गए। 1931 में इस शहर का उद्घाटन हुआ। पर यहां तमाम ऐसी सड़कें थीं, जहां हिंदुस्तानियों के चलने पर पाबंदी थी।
लेकिन ठहरिये और कुछ पीछे चलिए, दिल्ली के इस आठवें शहर के लिए चुने गए हर पत्थर के साथ आसमान का रंग तेजी से बदलने लगा था। दिल्ली दरबार के जश्न में शामिल काल, मद्धिम सुर में अंग्रेजों के लिए विदाईगीत भी गा रहा था, जिसे उस धूम-धड़ाके के बीच किसी ने नहीं सुना था।
दिल्ली दरबार में किंग जॉर्ज पंचम ने अपने सिर पर जो भारी मुकुट पहना, उससे उनके सिर में दर्द शुरू हो चुका था। धीरे-धीरे वह दर्द पूरे साम्राज्य के सिरदर्द में तब्दील हो गया, क्योंकि 1911 में दिल्ली ब्रिटिश भारत की ही राजधानी नहीं बनी, बल्कि उनके सपनों की राजधानी भी बन गई; जो भारत से ब्रिटिश राज उखाड़ फेंकना चाहते थे। बंगाल में स्वदेशी आंदोलन से जो चिंगारी भड़की थी, वह धीरे-धीरे शोला बन रही थी और इस आग के निशाने पर थी दिल्ली।
1915 में गांधीजी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौट आए। इसी के साथ स्वतंत्रता आंदोलन का नक्शा बदलने लगा था। अब कमान राजाओं के हाथ नहीं प्रजा के हाथ थी, जिसके दिल में एक फकीर ने प्रजातंत्र की आग भरनी शुरू कर दी थी। दुनिया इस समय पहले विश्वयुद्ध की तकलीफों से रू-ब-रू थी। युद्ध का फायदा उठाकर अंग्रेज सरकार ने 1919 में रोलेट एक्ट पारित कर दिया। इसके तहत किसी को भी संदेह के आधार पर गिरफ्तार किया जा सकता था। विश्वयुद्ध ने दिल्लीवालों की तकलीफों को काफी बढ़ा दिया था।
रोलेट एक्ट का विरोध करने के लिए गांधीजी ने देशव्यापी सत्याग्रह का आह्वान किया। 1919 की 6 अप्रैल से सत्याग्रह शुरू हुआ और 9 अप्रैल को गांधीजी दिल्ली के करीब पलवल से गिरफ्तार कर लिये गए। दिल्ली में यह खबर आग की तरह फैल गई। इस बीच 13 अप्रैल को अमृतसर में जलियांवाला कांड हो गया। बेरहम जनरल डायर ने बाग में रोलेट एक्ट के विरोध में सभा कर रहे लोगों पर दस मिनट तक अंधाधुंध गोलियां चलवाईं।
काग्रेस के मुताबिक हजार से ज्यादा लोग मारे गए। दिल्ली के नौजवानों का खून भी खौल उठा। 1922 मे जब गांधीजी ने असहयोग आंदोलन का ऐलान किया तो दिल्ली की हर गली में आजादी के तराने गूंज उठे।
इस बीच दिल्ली क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र भी बन रही थी। आईटीओ के पास शहीदी पार्क में खड़ी भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की प्रतिमाएं आज भी उस मिजाज की गवाही देती हैं। यह पार्क दरअसल, फिरोजशाह कोटला के खंडहरों का हिस्सा है। जगह यही थी, और तारीख थी 8 सितंबर 1928। इन खंडहरों में बिहार और पंजाब के दो-दो, राजस्थान के एक और उत्तर प्रदेश से आए तीन नौजवानों की बैठक हुई। ये हिंदुस्तान प्रजातांत्रिक सेना की मीटिंग थी, जिसमें भारत को आजाद करवाकर समाजवाद को अंतिम लक्ष्य घोषित किया गया। नया नाम दिया गया हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी यानी एचएसआरए। भगत सिंह इस सेना के विचारक और चंद्रशेखर आजाद कमांडर थे। जल्दी ही उन्होंने बहरे कानों को सुनाने के लिए धमाका किया। 8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने केंद्रीय असेंबली में बम फेंके। ये बम किसी की जान लेने के लिए नहीं थे। अंग्रेजों को भी इन बमों से ज्यादा वे पर्चे खतरनाक लगे जिनके जरिए भगत सिंह ने ‘इन्कलाब’ का मतलब समझाया था। पूरी दिल्ली इन बहादुरों के कारनामे से झूम उठी।
बहरहाल न्याय का नाटक करने के बाद 23 मार्च 1931 को भगत सिंह को फांसी पर लटका दिया गया। उनके साथ थे सुखदेव और राजगुरु। तीनों ने फांसी को इनाम की तरह स्वीकार किया। अंग्रेजों की खुफिया रिपोर्टों में दर्ज है कि उस समय भगत सिंह की शोहरत गांधीजी से भी ज्यादा हो गई थी। ये क्रांतिकारी आंदोलन का ही दबाव था कि कांग्रेस ने 1930 के लाहौर अधिवेशन में पहली बार ‘पूर्ण स्वराज्य’ का संकल्प पारित किया।
क्रांतिकारियों की शहादत ने मुकम्मल आजादी से कम कुछ भी मंजूर करने की गुंजाइश को हमेशा के लिए खत्म कर दिया। जंग-ए-आजादी का एक नया दौर शुरू हो गया था और दिल्ली इसके नशे में झूम रही थी।
मार्च 1930, गांधीजी ने दांडी यात्रा के साथ सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू किया। नमक इसका प्रतीक बना। नमक पर लगे टैक्स के खिलाफ गांधीजी ने दांडी यात्रा शुरू की। शहर-शहर नमक बनाया जाने लगा। दिल्ली भी इसमें पीछे नहीं थी। छात्रों, मजदूर-किसानों ने इस आंदोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया। महिलाओं ने पर्दे से बाहर निकलकर शराब की दुकानों पर पिकेटिंग की। विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई। गोलमेज सम्मेलनों के जरिये हल निकालने की कोशिश की गई..लेकिन आंदोलन का ज्वार बढ़ता जा रहा था।
1942 में जब गांधीजी ने ‘भारत छोड़ो’ का नारा दिया तो ‘करो या मरो’ का तूफान खड़ा हो गया। यह दुनिया का अनोखा आंदोलन था, जिसमें अहिंसा को हथियार बनाकर दुनिया की सबसे बड़ी ताकत को झुकने पर मजबूर किया गया। आजादी से जुड़े ख्वाब किसी पार्टी या उसकी कमेटी में शामिल लोगों तक सीमित नहीं रहे। वे जन-जन की ख्वाहिशों का हिस्सा बन गए थे।
आखिरकार वह दिन आ गया जिसका इंतजार था। 14 अगस्त की आधी रात बीतते ही भारत में अंग्रेजी शासन का अंत हुआ। नेहरू ने इसे नियति से साक्षात्कार बताया। 15 अगस्त की सुबह पूरा देश जश्न में डूब गया। दिल्ली में इंडिया गेट से लेकर वायसराय हाउस तक जश्न ही जश्न था। बोट कल्ब का मैदान तिरंगे से पट गया था। 16 अगस्त की सुबह पंडित नेहरू ने पहली बार लाल किले पर तिरंगा फहराया। एक नए भारत का ऐलान हो रहा था। लेकिन अंग्रेज जाते-जाते बंटवारे का दर्द दे गए थे। एक महान देश को धर्म के आधार पर दो टुकड़ों में बांटकर अंग्रेजों ने अपनी पुरानी कुटिल चाल दोहराई थी।
बंटवारे पर राजी नेताओं ने नहीं सोचा था कि लोगों को अपना घर-बार छोड़ना पड़ेगा। दिल्ली और लाहौर के बीच लाशों से पटी रेल चलेगी। मशहूर शायर गुलजार देहलवी की बूढ़ी आंखों में आज भी वह खौफनाक मंजर दर्ज है जब दिल्ली की फिजा में जहर भर गया था। जाहिर है, दिल्ली में हुई नई सुबह अंधेरे का पैगाम भी लाई थी। यही वजह थी कि स्वतंत्रता आंदोलन के नायक गांधीजी जश्न में शामिल नहीं हुए थे। वे दिल्ली से दूर नोआखाली में अनशन कर रहे थे, ताकि इंसान के अंदर जाग उठे शैतान को शांत कर सकें।
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने बतौर पहले प्रधानमंत्री जब देश की कमान संभाली तो हर तरफ चुनौतियां ही चुनौतियां थीं। देश को नया आर्थिक ढांचा देना था, लेकिन सांप्रदायिकता की लपटें हर उम्मीद को खाक करने पर आमादा थीं। पाकिस्तान से आए लोग बदले की भावना से भरे हुए थे और दिल्ली में जगह-जगह रिफ्यूजी कैंप खुल गए थे। इन लोगों को शांति और अहिंसा पर अडिग रहने का गांधीजी का उपदेश भी बुरा लग रहा था।
आखिरकार 1948 की मनहूस 30 जनवरी आ पहुंची। शाम करीब पांच बजे, बिड़ला हाउस में प्रार्थनासभा करने जा रहे गांधी जी को एक उन्मादी ने गोली मार दी। नाम था-नाथूराम गोडसे। इस खबर से दिल्ली सन्न रह गई। पूरा देश, पूरी दुनिया भौंचक्की थी। लेकिन गांधीजी की शहादत ने जबरदस्त असर दिखाया। दंगे और मारकाट का मंजर अचानक थम गया। गुस्सा पश्चाताप में बदल गया।
लेकिन दिल्ली हैरान थी कि आखिर कोई हिंदुस्तानी, हिंदुस्तान की सबसे रोशन मशाल को कैसे बुझा सकता है। नाथूराम गोडसे के दिमाग में इतना जहर भरा कैसे। गृहमंत्री सरदार पटेल ने सीधे-सीधे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस और हिंदू महासभा को गांधीजी की हत्या के लिए जिम्मेदार ठहराया। आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। सरदार पटेल ने 27 फरवरी 1948 को हिंदू महासभा के प्रमुख नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी को पत्र लिखकर अपना गुस्सा जाहिर किया। उन्होंने लिखा कि हमें मिली रिपोर्टें इस बात की पुष्टि करती हैं कि आरएसएस की गतिविधियों के फलस्वरूप देश में ऐसा माहौल बना कि ऐसा बर्बर कांड संभव हो सका। मेरे दिमाग में कोई संदेह नहीं है कि हिंदू महासभा का अतिवादी भाग षड्यंत्र में शामिल था। आरएसएस की गतिविधियां, सरकार और राज्य-व्यवस्था के अस्तित्व के लिए स्पष्ट खतरा थीं। हमें मिली रिपोर्टं बताती हैं कि प्रतिबंध के बावजूद वे गतिविधियां समाप्त नहीं हुई हैं। दरअसल, समय बीतने के साथ आरएसएस की टोली अधिक उग्र हो रही है और विनाशकारी गतिविधियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही है। इस घटना ने दक्षिणपंथी राजनीति को लंबे समय तक के लिए हाशिये पर डाल दिया। नेहरू की धर्मनिरपेक्ष राजनीति ही देश की मुख्यधारा बन गई।
26 जनवरी 1950, संविधान लागू हुआ और भारत गणतंत्र बना। दिल्ली में ऐसी किताब छपी जिसने उनके लिए भी सत्ता के शीर्ष तक पहुंचने की संभावना खोल दी, जिन्हें कभी किताब पढ़ने तक की आजादी नहीं थी।
नेहरू इन संकल्पों को पूरा करने में जुट गए। अंग्रेज जब भारत आए थे तो दुनिया की कुल जीडीपी में भारत का हिस्सा 30 फीसदी था, जो दो सौ साल की अबाध लूट के बाद 1947 में सिर्फ 4 फीसदी रह गई थी।
बहरहाल तीन साल के अंदर दंगे-फसाद रोके गए। 1952 में पहला चुनाव हुआ और देश ने कांग्रेस का झंडा बुलंद किया। दिल्ली भी बदल गई। जहां से कभी जमींदारियां बंटती थीं, वहीं से जमींदारी उन्मूलन का फरमान निकला। आगे बढ़ने के लिए नेहरू ने साम्यवाद और पूंजीवाद के बीच का रास्ता चुना। वे मिश्रित अर्थव्यवस्था की राह पर ही नहीं चले, सोवियत यूनियन और अमेरिका के बीच बंटी दुनिया में गुटनिरपेक्षता का अलग रास्ता चुना। नेहरू भारत के ही नहीं, तीसरी दुनिया के नेता माने गए।
आजादी के बाद नई दिल्ली शहर का रंग-ढंग भी बदला। जिस राजपथ पर सिर्फ अंग्रेजों को चलने की इजाजत थी, वहां अब आम आदमी सिर उठाकर घूमता था। कनॉट प्लेस से अंग्रेजी जोड़े विदा हो गए थे और तांगे दुकानों के सामने खड़े हो जाते थे। शहर में ट्राम चलती थी। पुरानी फिल्मों और तस्वीरों से उस दौर का अंदाजा बखूबी लगता है। नई दिल्ली देश की शान बन गई थी।
1962 में दोस्ती की कसमों को भुलाकर चीन ने अचानक भारत पर हमला कर दिया। आजाद भारत का सबसे बड़ा झटका। आदर्शवादी नेहरू को इस हमले ने तोड़ दिया। उनकी सदाबहार मुस्कान गायब हो गई। वे बीमार पड़ गए। 27 मई 1964 को नेहरू जी की मृत्यु हो गई। दिल्ली ने भरी आंखों से उन्हें अंतिम विदाई दी। देश की बागडोर छोटे कद लेकिन बड़े किरदार के नेता लाल बहादुर शास्त्री ने संभाली। उनके ‘जय-जवान और जय किसान’ के नारे ने देश में नई ऊर्जा भर दी। हरित क्रांति का आधार तैयार हुआ।
सितंबर1965 में पाकिस्तान ने हमले की हिमाकत की। अब बारी थी जय जवान की। शास्त्री जी के नेतृत्व में देश ने करारा जवाब दिया। ताशकंद में समझौता हुआ। दस्तखत करने के बाद शास्त्री जी को दिल का जबरदस्त दौरा पड़ा और दूसरे दिन उनकी मौत हो गई। तारीख थी11 जनवरी 1966। इस खबर से हर भारतीय रो पड़ा। प्रधानमंत्री का पद एक बार फिर खाली था। दिल्ली ने देखा कि कैसे उसके राजनीतिक गलियारों में सत्ता का संघर्ष शुरू हो गया। आखिरकार कांग्रेस सिंडीकेट ने गूंगी गुड़िया समझकर नेहरू की बेटी इंदिरा को प्रधानमंत्री बना दिया। लेकिन जल्दी ही साबित हो गया कि न वे गुड़िया हैं और न गूंगी। इंदिरा ने कांग्रेस के दक्षिणपंथी धड़े को मात देने के लिए बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया और रियासतों का प्रीविपर्स खत्म किया। 1971 के युद्ध में पाकिस्तान की शर्मिंदगी भरी हार और बांग्लादेश बनने से तो वे विरोधियों की नजर में भी दुर्गा का अवतार हो गईं। इसी साल हुए चुनाव में उन्होंने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया और जबरदस्त जीत हासिल की।
1974 में पोखरण में परमाणु विस्फोट के बाद वे शोहरत के चरम पर पहुंच गईं। लेकिन इस बीच देश में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन भी तेज हो गया। दिल्ली भी इंदिरा विरोधी नारों से गूंजने लगी। तभी इलाहाबाद हाईकोर्ट ने रायबरेली से इंदिरा का चुनाव रद्द कर दिया। जवाब में जून 1975 में इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगा दिया। दिल्ली में हर तरफ खौफ तारी हो गया।
लेकिन दिल्ली को अब तक लोकतंत्र की आदत पड़ चुकी थी। नतीजा, 1942 के लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चले आंदोलन ने इंदिरा की सत्ता को उखाड़ फेंका। डॉ..लोहिया के गैरकांग्रेसवाद का सपना सच हुआ। 1977 में दिल्ली में पहली गैरकांग्रेसी सरकार बनी। जनता पार्टी की इस सरकार के प्रधानमंत्री थे मोरारजी देसाई। लेकिन जनता सरकार जल्दी ही आपसी गुटबाजी का शिकार हो गई। दिल्ली में राजनीतिक उठापटक का नया दौर शुरू हुआ। 1980 में मध्यावधि चुनाव हुए और दिल्ली की गद्दी एक बार फिर इंदिरा गांधी के हवाले हुई।
दिल्ली के लिए इस दौर की सबसे चमकदार याद है 1982 में हुआ एशियाड। यूं तो पहला एशियाड भी 1951 में दिल्ली में ही हुआ था, लेकिन इस बार के आयोजन ने दिल्ली की सूरत पर असर डाला। 60,000 दर्शकों की क्षमता वाले जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम समेत कई स्टेडियम बने। कई फ्लाईओवर बने और सड़कों को चौड़ा किया गया। इस आयोजन ने दिल्ली का रंग काफी कुछ बदल दिया।
यह वही दौर था, जब खालिस्तानी आतंकवाद तांडव कर रहा था। आखिरकार दिल्ली को वह दिन भी देखना पड़ा जब सफदरजंग रोड के अपने बंगले पर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी अपने ही सुरक्षाकर्मियों की गोलियों से शहीद हो गईं। तारीख थी 31 अक्टूबर 1984। लेकिन इसके साथ ही दिल्ली में सिखों के खिलाफ दंगा भड़क उठा। हजारों बेगुनाहों को जान से हाथ धोना पड़ा।
इंदिरा की चिता के साथ दिल्ली की तहजीब और अहिंसा के संकल्प भी धू-धू करके जल रहे थे। इंदिरा गांधी के शोक में डूबी जनता ने कांग्रेस को अभूतपूर्व समर्थन दिया। नतीजा, इंदिरा के बेटे राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री बन गए। लेकिन मिस्टर क्लीन की छवि के साथ राजनीति में आए राजीव जल्दी ही भ्रष्टाचार के आरोपों से घिर गए। बोफोर्स तोपों की खरीद का मुद्दा उठाकर उनके ही मंत्री रहे विश्वनाथ प्रताप सिंह ने तूफान खड़ा कर दिया। 1989 के चुनाव में कांग्रेस हारी और वी.पी.सिंह प्रधानमंत्री बने। लेकिन जनता दल की सरकार ज्यादा दिन नहीं चल सकी। कांग्रेस के सहयोग से चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने। यह सरकार भी चार महीने ही चल सकी। 1991 में मध्यावधि चुनाव हुआ। प्रचार के दौरान ही 21 मई को तमिलनाडु के श्रीपेरंबदूर में हुए लिट्टे के आतंकी हमले ने राजीव गांधी की जान ले ली। देश एक बार फिर शोक में डूब गया। बहरहाल, नरसिम्हा राव के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी और दिल्ली ने देखा कि कांग्रेस समाजवादी संकल्पों को छोड़ आर्थिक उदारीकरण की राह पर चल पड़ी। बतौर वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने उसी वक्त कमान संभाल ली थी। इसी के साथ केंद्र में गठबंधन राजनीति की शुरूआत हुई। यह सिलसिला अगले आम चुनाव में भी जारी रहा। 1996 की मई में चुनाव नतीजे आए तो किसी को बहुमत नहीं था।
भारतीय जनता पार्टी ने सरकार बनाने का दावा किया। अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बनाए गए। लेकिन वे बहुमत नहीं साबित कर सके और 13 दिन मे सरकार गिर गई। इसके बाद एच. डी. देवगौड़ा के नेतृत्व में संयुक्त मोर्चा की सरकार बनी। लेकिन 10 महीने बाद उन्हें हटना पड़ा। इंद्र कुमार गुजराल प्रधानमंत्री बने, लेकिन सिर्फ 11 महीने बाद यह अध्याय भी समाप्त हो गया। 1998 में फिर चुनाव हुए। इस बार भाजपा, एनडीए नाम से एक बहुमत का गठबंधन बनाने में कामयाब हुई। अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने। दिल्ली का कांटा अब पूरी तरह वामपंथ से दक्षिणपंथ की ओर झुक गया था।
दिल्ली की अब एक बिल्कुल नई शक्ल सामने है। बीते 15 बरसों में जितनी तेजी से यह शहर बदला है, वैसा शायद ही कोई बदला हो। खासतौर पर 2010 के राष्ट्रमंडल खेल की तैयारियों ने इसे बिल्कुल नई शान दे दी। शानदार सड़कों, फ्लाइओवरों के जाल, मेट्रो, शानदार चमचमाती इमारतों और नए ढंग की बसों ने इसे वाकई इक्कीसवीं सदी का शहर बना दिया है। पराठेवाली गली में भीड़ कम नहीं हुई है, लेकिन खाने-पीने से लेकर खरीददारी का बिल्कुल नया अंदाज सामने है। लेकिन नए नक्शे में वह रंग कमजोर पड़ गया जिससे देहली पहचानी जाती थी।
बहरहाल जवान देहलवियों के एक बिलकुल नई जमात सामने आ रही है। दूर-दराज से उखड़कर आए लोगों को इस शहर में नई जड़ें मिली हैं, जिसे वे पूरी मेहनत से खाद-पानी दे रहे हैं। देश का हर रंग, हर मिजाज दिल्ली में आकर घुल गया है।
सौ सालों में दिल्ली की बसावट पूरी तरह बदल चुकी है। पुरानी दिल्ली के रईस अपनी कोठियां छोड़ दक्षिणी दिल्ली में बस गए तो प्रवासियों ने पूर्वी दिल्ली के उजाड़ में रौनक भर दी। 1911 में जिस दिल्ली की आबादी 24 लाख थी वो अब एक करोड़ 67 लाख को पार कर गई है। सड़कों पर हर वक्त लगने वाले जाम इसकी पहचान बन गई है। तरक्की के इस रूप की सबसे ज्यादा कीमत अदा की है यमुना ने। जिस यमुना ने दिल्ली को जन्नत बनाया था, उसमें अब जहन्नुम का पानी बहता है। सदियों की संभाल को सालों में बरबाद कर दिया गया।
इधर, राष्ट्रमंडल और दूरसंचार घोटाले के खुलासों से सामने आए चेहरों ने यह भी बता दिया है कि कैसे सत्तातंत्र को लूटतंत्र में बदलने की कोशिश की जा रही है। पर दिल्ली का भरोसा टूटा नहीं है। उसने देख लिया है कि तंत्र को सुधारने के लिए जन, युद्ध में कूद पड़ा है। बादशाहों की मुहब्बत में बार-बार मारी गई दिल्ली अब इस जन के इश्क में गिरफ्तार है। उसे यकीन है कि यह नया भारत उससे कभी बेवफाई नहीं करेगा। यही है वह, जो दिल्ली को अब कभी उजड़ने नहीं देगा।
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