रविवार, 4 दिसंबर 2011

रपट






































प्रेस क्लब- अनामी शरण बबल


1 तुस्सी ग्रेट हो बिज्जी,.वेरी वेरी ग्रेट हो विजयदान देथा....

राजस्थान के बोरूंदा गांव में आज से 86 साल पहले लगभग एक निरक्षर परिवार में पैदा हुए विजयदान देथा उर्फ बिज्जी को भले ही साहित्य का नोबल पुरस्कार नहीं मिला हो, मगर बिज्जी ने यह साबित कर दिखाया कि काम और लेखन की खुश्बू को फैलने से कोई रोक नहीं सकता है। हिन्दी के चंद मठाधीशों द्वारा अपने चमच्चों को ही साहित्य का पुरोधा साबित करने के इस गंदे खेल का ही नतीजा है कि बिज्जी को कभी ज्ञानपीठ पुरस्कार के लायक भी नहीं समझा गया, उसी बिज्जी को नोबल समिति ने साहित्य के नोबल के लिेए नामांकित करके ही एक तरह से नोबल प्रदान कर दिया। लोककथा को एक कथा (आधुनिक संदर्भ) की तरह विकसित करके पाठकों लोगों (आलोचकों को नहीं) और पुस्तक प्रेमियों को मुग्ध करके हमेशा के लिए अपना मुरीद बना देने वाले बिज्जी की दर्जन भर कहानियों पर रिकार्डतोड़ सफल फिल्में बन चुकी है। लगभग एक हजार (लोककथाओं को) कहानी की तरह लिखने वाले बिज्जी से ज्यादा मोहक लेखक शायद अभी दूसरा नहीं है। हजारों लाखों को मुग्ध करने वाले बिज्जी को कभी ज्ञानपीठ पुरस्कार या और कोई सम्मानित पुरस्कार के लायक माना ही नहीं गया। हमेशा उनके लेखन की मौलिकता पर हमारे आलोचकों ने कभी गौर नहीं फरमाया। मेरे साथ एक इंटरव्यू में बिज्जी ने माफियाओं पर जोरदार हमला किया। तब राष्ट्रीय सहारा के दफ्तर में संचेतना के लेखक महीप सिंह मुझे खोजते हुए आए और बिज्जी के इंटरव्यू को आधार बनाकर दो किस्तों में (क्य साहित्य में माफिया सरगरम है? ) दर्जनों साहित्यकारों की टिप्पणी छापी। तब बिज्जी ने मुझे बताया कि संचेतना के बाद इनकी चेतना को खराब करने के लिए कितनों ने फोन पर बिज्जी को धमकाया। मेरे एक पत्र को ही अपनी एक किताब की भूमिका बना देने वाले बिज्जी की सबसे बड़ी ताकत उनका अपने पाठकों का प्यार और आत्मीयता है। बिज्जी की बेटी द्वारा दर्जनों कहानियों को कूड़ा जानकर जलाने की घटना भी काफी रोचक है। पूछे जाने पर बड़ी मासूमियत से बेटी ने कहा बप्पा एक भी पन्ना कोरा नहीं था सब भरे थे सो जला दी। इस घटना को याद करके आज भी अपना सिर धुनने वाले बिज्जी को भले ही नोबल ना मिला हो, मगर नोबल पुरस्कार के लिए नामांकित किया जाना ही नोबल मिलने से ज्यादा बड़ा सम्मान है, क्योंकि हमारे तथाकथित महान आलोचक और समीक्षक शायद अब बिज्जी को बेभाव नहीं कर पाएंगे। रियली बिज्जी दा तुस्सी रियली ग्रेट हो।








2 महिला लेखन पर एक अधूरा अंक

द संडे इंडियन द्वारा 21 सदी की 111 लेखिकाओं पर एक खास अंक प्रकाशित किया गया। हालांकि अंक को एक सार्थक प्रयास तो कहना ही होगा, क्योंकि एक साथ बड़े पैमाने पर लेखिकाओं को लेखन, वरिष्ठता और योगदान के आधार पर रेटिंग दी गई। अलग अलग ग्रेड में शामिल लेखिकाओं पर कोई टिप्पणी करके इस प्रयास के महत्व को कम करना बेमानी होगा। मगर, श्रेष्ठ 21 लेखिकाओं में कमसे पांच लेखिकाओं का चयन बहुतों को रास नहीं आया होगा। कमसे कम रमणिका गुप्ता, डा. सरोजनी प्रीतम, सुषमा बेदी के नाम पर तो शायद हर पाठक को आपति हो सकती है। रमणिका और बेदी को तो मैं चर्चा के काबिल ही नहीं मानता। जहां तक बात रही अनामिका और गगन गिल की तो दोनों लेखिकाएं अभी इस लायक क्या लिखा है कि इन्हें श्रेष्ठ 21 लेखिकाओं में रखा जाए ? कमसे कम 10 लेखिकाए ऐसी है जो नाम काम ख्याति और योगदान के स्तर पर इन पांचों पर काफी भारी पड़ती है। मगर 111 नामों के चयन में इस तरह की त्रुटियों का हो जाना या रह जाना एकदम स्वाभाविक है। यहां पर इसकी निंदा करने की बजाय संपादन मंडल को बधाई देनी चाहिए, क्योंकि नियत में कोई खोट ना होकर पूरी ईमानदारी थी। कुछ नया करने की ललक थी। महिला लेखन को एक बड़े फलक पर लाने की उत्कंठा थी, जो हर पन्ने पर झलकती है। यही वजह है कि लेखिकाओं की पूरी फौज को एक बारात की तरह एक मंड़प में सजाकर रखने में पत्रिका और इसके संपादक को सफलता मिली, मगर यह पूरा अंक और आयोजन अधूरा सा ही है। जिसे और सार्थक बनाने की जुगत में और बदतर बना दिया।


3 ये किताबें किसके लिए ?

दिल्ली यमुनापार .के एक प्रकाशक नें मेरे संपादन में प्रेमचंद की पत्रकारिता नामक एक किताब को तीन खंड़ों में प्रकाशित किया है। करीब 1200 पेजी इस किताब का मूल्य रखा है तीन हजार रूपए। जाहिर है कि मैं क्या शायद ही कोई पाठक इसे खरीदकर पढ़ने का साहस कर सकता है। मेरी तो खरीदकर पढ़ने की हिम्मत ही नहीं है। प्रकाशक राघव से मैने पूछा कि यार इसे किसके लिए छापे हो? मेरे सवाल पर वो खिलखिला पड़ा और अपनी मजबूरियां गिनाते हुए खरीद के पीछे के करप्शन का हवाला देकर उसने कहा कि मैं आपको 600 रूपए में तीनों खंड उपलब्ध करवा दूंगा। इसका अभी लोकार्पण नहीं करवाया है, और प्रकाशक को भी इसमें कोई रूचि नहीं है। बेवजह के झमेले में 8-10 प्रतियां फ्री में बांटनी होगी। फिर मेरा मन भी विमोचन कराने या प्रचार का नहीं हो रहा है कि जब मेरी बर्षो की मेहनत ही अगर मूषकों के लिए थी तो फिर जनता के बीच रिलीज की औपचारिकता क्यों ? वाकई धन्य हो प्रकाशक और तेरी लीला अपरम्पार। लेखक सब बेकार बेहाल और कंगाल जबकि मूषको को ताजा मोटा बनाकर हे प्रकाशक तू बना रहे हमेशा मालामाल मालामाल।



4. राजेन्द्र यादव पर पांखी का हाथी अंक

आमतौर साहित्यिक पत्रिकाओं के मालिक संपादक लोग जब कभी विशेषांक निकालते हैं तो उसका दाम इतना रख देते है कि बड़े मनोरथ से प्रस्तुत अंक की महत्ता ही चौपट दो जाती है। किसी पत्रिका को कितना मोटा माटा निकालना है, यह पूरी तरह प्रबंधकों पर निर्भर करता है। मगर पाठकों की जेब का ख्याल किए बगैर ज्यादा दाम रखना तो उन पाठकों के साथ बेईमानी है जो एक एक पैसा जोड़कर किसी पत्रिका को खरीदते हैं। पांखी का महाविशेषांक 350 पन्नों(इसे 250 पेजी बनाकर ज्यादा पठनीय बनाया जा सकता था) का है। जिसमें हंस के महामहिम संपादक राजेन्द्र यादव को महिमा मंड़ित किया गया है। संपादक प्रेम भारद्वाज ने यादव को मल्टीएंगल से देखने और पाठकों को दिखाने की कोशिश की है। मगर भारी भरकम अंक में यादव के लेखन को नजरअंदाज कर दिया गया। संपादक महोदय यादव पर लेखों और संस्मरणों की झड़ी लगाने की बजाय यादव के 10-12 विवादास्पद संपादकीय, कुछ विवादास्पद आलेख और कालजयी कहानियों को पाठकों के लिए प्रस्तुत करते तो इस हाथी अंक की गरिमा कुछ और बढ़ जाती, मगर यादव की आवारागर्दी, चूतियापा, लफंगई, हरामखोरी, नारीप्रेम बेवफाई, और हरामखोरी को ही हर तरह से ग्लैमराईज्ड करके यादव की यह कैसी इमेज (?) सामने परोस दी गई ?
यही वजह है कि 350 पन्नों के इस महा अंक में रचनाकार संपादक राजेन्द्र यादव की बजाय एक दूसरा लफंगा यादव (आ टपका) है। जिसके बारे में करीब वाले लोग ही जानते थे। फिर आप किसी अंक को जब बाजार में देते हैं तो यह ख्याल रखना भी परम आवश्यक हो जाता है कि उसका कालजयी मूल्याकंन हो, ना कि 70 रूपए में खरीदकर इसे पढ़ने के बाद कूड़े में फेंकना ही उपयोगी लगे।


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तुस्सी ग्रेट हो गुनाहों के (देवता नहीं) पुतला उर्फ राजेन्द्र यादव..

हिन्दी के कथित विवाद पसंद और अंग्रेजी के अश्लील प्रधान लेखक खुशवंत सिंह से तुलना करने पर भीतर से खुश होने वाले परम आदरणीय प्रात: स्मरणीय हिन्दी के महामहिम संपादक राजेन्द्र यादव जी तुस्सी ग्रेट हो? आपसे इस 45 साला उम्र में 5-6 दफा मिलने और दो बार चाय पीने का संयोग मिला है। इस कारण यह मेरा दावा सरासर गलत होगा कि आप मुझे भी जानते होंगे, पर मैं आपको जानता हूं। आपकी साफगोई का तो मैं भी कायल (एक बार तो घायल भी) हूं। तमाम शिकायतों के बाद भी आपके प्रति मेरे मन में कोई खटास नहीं है। सबसे पहले तो आपने हंस को लगातार 25 साल चलाकर वह काम कर दिखाया है जिसकी तुलना केवल सचिन तेंदुलकर के 99 शतक (सौंवे शतक के लिए फिलहाल मास्टर ब्लास्टर तरस रहे हैं) से ही की जा सकती है। काश. अगर मेरा वश चलता तो यकीन मानिए यादव जी अब तक मैं आपको भारत रत्न की उपाधि से जरूर नवाज चुका होता( यह बात मैं अपने दिल की कह रहा हूं) । हिन्दुस्तान में हिन्दी और खासकर साहित्य के लिए किए गए इस अथक प्रयास को कभी नकारा नहीं जा सकता। सच तो यह भी है यादव जी कि हंस ने ही आपको नवजीवन भी दिया है वरन सोचों कि अपने मित्रों के साथ इस समय तक आप परलोक धाम ( नर्क सा स्वर्ग की कल्पना आप खुद करें) में यमराज से लेकर लक्ष्मी, सरस्वती समेत पार्वती के रंग रूप औप यौवन के खिलाफ साजिश कर रहे होते। मगर धन्य हो यादव जी कि प्रेमचंद के रिश्तेदारों से हंस को लेकर अपनी नाक रगड़ने की बजाय हंसराज कालेज की वार्षिक पत्रिका हंस को ही बड़ी चालाकी से हथियाकर उसे शातिराना तरीके से प्रेमचंद का हंस बना दिया। प्रेमचंद की विरासत थामने का गरूर और उसी परम्परा को आगे ले जाने का अभिमान तो आपके काले काले चश्मे वाले गोरे गोरे मुखड़े पर चमकता और दमकता भी है। हंस को 25 साला बनाकर आपने साबित कर दिया कि आप किस मिट्टी के बने हुए हो। फिर अब किसी खुशवंत से अपनी तुलना पर आपको गौरवान्वित होने की बजाय अब आपको शर्मसार होना चाहिए। सार्थकता के मामले में आप तो खुशवंत के भी बाप (माफ करना यादव जी खुशवंत सिंह का बाप सर शोभा सिंह तो देशद्रोही और गद्दार था, लिहाजा मैं तो बतौर उदाहरण आपके लिए केवल इस मुहाबरे का प्रयोग कर रहा हूं) होकर कर कोसों आगे निकल गए है। देश में महंगाई चाहे जितनी हो जाए, मगर सलाह हमेशा फ्री में ही मिलता और बिकता है। एक सलाह मेरी तरफ से भी हज्म करे कि जब हंस को 25 साल का जवान बना ही दिया है तो उसको दीर्घायु बनाने यानी 50 साला जीवित रखने पर भी कुछ विचार करे। मुझे पता है कि यमराज भले ही आपके दोस्त (होंगे) हैं पर वे भी आपकी तरह कर्तव्यनिष्ठ हैं, लिहाजा थोड़ी बहुत बेईमानी के बाद भी शायद ही वे आपको शतायु होने का सौभाग्य प्रदान करे। भगवान आपको लंबी आयु और जवां मन दुरूस्त तन दे। लिहाजा यादव के बाद भी हंस दीवित रहे इस पर अब आपको ज्यादा ध्यान देना चाहिए। हालांकि अंत में बता दूं कि हंस में छपी एक कहानी कोरा कैनवस के उपर आपने संपादकीय में विदेशी पांच सात लेखकों का उदाहरण देते हुए बेमेल शादियों की निंदा की थी।, मगर ठीक अपनी नाक के नीचे रह रहे कुछ बुढ़े दोस्तों (अब दिवगंत भी हो गए) की बेमेल शादियों को आप बड़ी शातिराना अंदाज में भूल गए। अपनों को बचाकर दूसरों को गाली देने की शर्मनाक हरकतों को बंद करके सबको एक ही चश्मे से देखना बेहतर होगा। वैसे भी आपको गाली देने वालों की कोई कमी नहीं है, मगर लंबी पारी के लिेए ईमानदारी तो झलकनी चाहिए। अंत में इसी कामना के साथ कबाड़खाने में घुट रहे हंस और प्रेमचंद को गरिमामय बनाने में आपके योगदान को कभी भी नकारा नहीं जा सकता।














बुंदेलखंड बेबस और बदहाल है




बुंदेलखंड के चित्रकूट मंडल की धरती का दर्द बहुत ही गहरा है. हर ओर यहां सिर्फ और सिर्फ सिसकियां ही सुनाई देती हैं. यहां प्रकृति रो रही है, लोग रो रहे हैं, पूरा परिवेश रो रहा है. उत्तर प्रदेश के सात जिलों में फैले बुंदेलखंड में लोग आज भी जल, जंगल और जमीन के लिए तड़प रहे हैं. महिलाओं, दलितों और वंचितों की जिंदगी तो बस बोझ बनकर रह गई है. रोजी-रोटी और पानी की समस्या इतनी विकट है कि हर साल केवल इसी वजह से हजारों लोगों को पलायन के लिए मजबूर होना पड़ता है. सामंतवाद यहां अभी भी जिंदा है. गरीब, बेबस और लाचार लोगों के साथ यहां कानून भी सिसकियां भरता नजर आता है.
समूचे बुंदेलखंड में खुलेआम लूट मची हुई है. जंगलों में धड़ल्ले से वृक्ष काटे जा रहे हैं. पहाड़ के पत्थरों को लोग लूट रहे हैं. उद्योग-धंधों की स्थिति चौपट है. यहां औद्योगिक इकाइयों के नाम पर अगर कुछ नजर आता है तो केवल स्टोन क्रशर की मिलें.
धनबल और सत्ताबल के गठजो़ड ने बुंदेलखंड का सत्यानाश करके रख दिया है. वनीकरण के नाम पर बस यूकेलिप्टस अथवा विलायती बबूल का रोपण हुआ है. जड़ी-बूटियों और अन्य वन्य उपजों का क्षरण हुआ है. यहां का प्राकृतिक असंतुलन बढ़ गया है. रासायनिक खादों के बेहिसाब प्रयोग से खेतों की उर्वरता नष्ट होती जा रही है. अधिक पानी की जरूरत वाली फसलों के उत्पादन पर जोर देने और प्रशासनिक निष्क्रियता की वजह से धरती बंजर होती जा रही है. चित्रकूट मंडल के पाठा क्षेत्र में पानी के लिए त्राहि-त्राहि मची हुई है, जबकि भूगर्भ में 12 किलोमीटर चौड़ा और 110 किलोमीटर लंबा नदी का स्रोत है. अगर कोशिश की जाए तो बुंदेलखंड में पानी की समस्या का निदान असंभव नहीं है. यह गौर करने वाली बात है कि पानी उपलब्ध कराने के मद में बुंदेलखंड में सालाना साठ से सत्तर करोड़ रुपये खर्च किए जाते हैं.
भौगोलिक दृष्टि से बुंदेलखंड प्रदेश के कुल क्षेत्रफल का आठवां हिस्सा खुद में समेटे हुए है. झांसी और चित्रकूट मंडलों में विभाजित बुंदेलखंड की आबादी प्रदेश की कुल जनसंख्या का पांच प्रतिशत है. पूरा का पूरा अंचल भूमि उपयोग व वितरण, कार्यशक्ति, जल व सिंचाई, खाद्यान्न उत्पादन और रोजगार के अवसर के मामले में हाशिए पर है. मानवाधिकार हनन की घटनाएं तो यहां आम बात हैं. बुंदेलखंड प्राकृतिक विपदा का हमेशा शिकार होता रहा है. अनावृष्टि की वजह से प्रत्येक दो-तीन वर्ष के बाद बुंदेलखंड का इलाका सूखे की चपेट में आ जाता है.
कभी खरीफ की तो कभी रबी की और कभी-कभी तो दोनों फसलें चौपट हो जाती हैं. यहां की लगभग सोलह प्रतिशत जमीनें या तो बंजर हैं अथवा गैर कृषि कार्यों में प्रयुक्त हैं. शिक्षा यहां बदहाली का शिकार है. बेसिक एवं हायर सेकेंडरी स्कूलों की स्थिति बदतर है. यहां की चालीस प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे की जिंदगी जी रही है. चित्रकूट मंडल में हालात और भी बदतर हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं, गरीबों और वंचितों की हालत गुलामों जैसी है. खनिज संपदाओं पर सामंतों ने क़ब्जा कर रखा है. वन और राजस्व विभाग के लोग जमीन को अपने कब्जे में बताकर आदिवासियों को वहां से खदेड़ देते हैं.
हद तो यह है कि ग्रामीण विकास योजना मंत्री इसी इलाके के हैं, फिर भी यहां के गांवों की दशा अब तक सुधर नहीं पाई है. गरीबी, असमानता, बेरोजगारी और पलायन जैसी विकराल समस्याएं यहां आज भी बरकरार हैं. ग्रामीणों को आज तक बुनियादी सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हो पाई हैं. मजदूरों की मजदूरी हड़पना सत्ता के दलालों की नीति बन गई है. महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना बेरोजगारी की समस्या का हल कर पाने में नाकाम रही है. रोजगार के अभाव में लाखों लोग अपना गांव छोड़कर छह से आठ माह के लिए पलायन कर जाते हैं. सामाजिक सुरक्षा योजना के अंतर्गत गरीबों को मिलने वाला अनाज खुलेआम बाजार में बेच दिया जाता है.
ग्रामीणों की गर्दन कर्ज के फंदे में लटकी हुई है. गरीबी रेखा से नीचे के लोगों को जन वितरण प्रणाली की दुकानों से राशन नहीं मिल पाता है. विकास कार्यों में कमीशन, लेवी और चोरी आम बात है. कई ठेकेदार बताते हैं कि किसी भी निर्माण कार्य में उन्हें अफसरों को 35 प्रतिशत तक कमीशन देना पड़ता है. ग्रामीण विकास कार्य ठोस नीति और जन भागीदारी के अभाव में विफल साबित हुए हैं. अभी तक ऐसी कोई नीति नहीं बनाई जा सकी है, जो ग्रामीण समुदाय के लिए संरचनात्मक ढांचा उपलब्ध करा सके. सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद सूचनाएं आम जनता तक नहीं पहुंच पाती हैं. असंवेदनशील अफसरों की सामंती मानसिकता के कारण कई दिशा-निर्देशों का पालन नहीं किया जाता. गरीब आदिवासी अपने पेट की आग शांत करने के लिए सामा घास की रोटी खाने को मजबूर हैं. प्रशासन भूख से हुई मौतों के मामले सामने नहीं आने देता, क्योंकि उसे अपनी कलई खुलने का डर सताता है.
पिछले एक दशक के दौरान चित्रकूट मंडल के बांदा, महोबा, हमीरपुर और चित्रकूट आदि जिलों में वर्षा औसत होती रही है. बेतवा, केन, धसान, सहजाद और मंदाकिनी जैसी नदियों के बावजूद यहां सिंचाई सुविधाओं का समुचित विकास नहीं किया गया, जिसके चलते यह क्षेत्र लगातार सूखे का शिकार होता रहा है. समाजसेवा की आड़ में अनेक स्वयंसेवी संस्थाएं बुंदेलखंड को चारागाह के रूप में इस्तेमाल कर रही हैं. उन्हें इस क्षेत्र के गरीबों से कोई मतलब नहीं है. इन स्वयंसेवी संस्थाओं ने ऐसा एक भी काम नहीं किया है, जिसका उल्लेख किया जा सके. फर्जी सम्मेलन और गोष्ठियों के बल पर वे मालामाल हो रही हैं. चित्रकूट जिले के मानिकपुर और मऊ ब्लॉक में शुरुआती दौर में कुछ स्वयंसेवी संगठनों ने थोड़े-बहुत काम किए. चित्रकूट जिले की आबादी लगभग छह लाख है, जिसमें एक लाख साठ हजार लोग अनुसूचित जाति और जनजाति के हैं. मऊ और मानिकपुर में अनुसूचित जाति और जनजाति के तिहत्तर हजार लोग रहते हैं.
इन दोनों ब्लॉकों की कुल आबादी लगभग दो लाख चालीस हजार है. इस क्षेत्र में रहने वाले ज्यादातर कोल एवं सहरिया आदिवासी पहले अपनी भूमि के मालिक होते थे, लेकिन पिछली एक शताब्दी के दौरान शोषण के कारण वे अपनी ही जमीन पर बंधुआ मजदूर बनकर रह गए हैं. डेढ़ दशक पहले उत्तर प्रदेश डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (यूपी डेस्को) के सर्वेक्षण में बताया गया था कि पाटा के अनुसूचित जाति के 7336 परिवारों में से 2316 बंधुआ मजदूर थे. पूरे क्षेत्र में डाकुओं के गिरोह भी अर्से से सक्रिय हैं. ललितपुर के मड़ावरा में आदिवासी कुपोषण के शिकार हैं. सरकारी विद्यालयों में मिड डे मील योजना के तहत बच्चों को घटिया खाना दिया जा रहा है. पेंशन के लिए भी महिलाओं को भटकना पड़ रहा है. गरीबी रेखा के नीचे जीवन जी रहे परिवारों के पास राशनकार्ड तक नहीं हैं और न ही शासन-प्रशासन को इसकी फिक्र.











(दिल्ली सपेशल एक्सप्रेश के लिए )

पेज-4 आखिरी पेज पूरा

प्रेस क्लब- अनामी शरण बबल


राहुल की ताजपोशी की तैयारी शुरू

बस्स यूपी चुनाव तक इंतजार करने में क्या हर्ज है। कांग्रेस सुप्रीमों सोनिया गांधी की कैंसर के आपरेशन के साथ ही अपने ईमानदार पीएम (?) मन्नू जी के विदाई की तैयारी शुरू हो गई है। पार्टी के लिए कैंसर बन गए मनमोहन को अब सत्ता सुख से वंचित करने की पटकथा लिखी जा रही है। यूपीए मुखिया सोनिया गांधी के पास मनमोहन को विदा करने के सिवा अब और कोई चारा ही नहीं रह गया है। मनमोहन की दक्षता कार्यशैली और योग्यता से पूरा देश कायल (कम, घायल ज्यादा) है। उधर संगठन-संगठन-संगठन का राग अलाप रहे (अधेड़) युवराज से भी पर्दे के पीछे ज्यादातर लोग नाराज ( सामने की तो हिम्मत नहीं) है। ज्यादातरों का मानना है कि 2014 तक मन्नू साहब पार्टी और संगठन को इस लायक छोड़ेंगे ही नहीं कि उसको फिर से सत्ता के लायक देखा जा सके। विश्वस्तों के लगातार बढ़ते प्रेशर से अब मैडम भी मानने लगी है कि राहुल की ताजपोशी के सिवा और कोई रास्ता नहीं बचा है। संगठन के लोगों की माने तो बस्स रास्ता साफ करने की कवायद चालू है, और मन्नू के सिर पर (शासन में) कुछ चट्टान और पहाड़ को तोड़कर बाबू (बाबा) युवराज को कमसे कम 27-28 महीने के लिए पीएम की खानदानी कुर्सी (सीट) पर सुशोभित किया जा सके।




कांग्रेस, करप्शन, लोकायुक्त, और शीला

कांग्रेस चाहे लाख दलील दे, मगर करप्शन से इसे ना कोई परहेज है और नाही कोई दिक्कत है। लोकायुक्त की रपट पर कर्नाटक के बीजेपी मुख्यमंत्री को अपनी गद्दी गंवानी पड़ी। आमतौर पर सरकारी आदेशों को अपने ठोकर पर ऱखने के लिए कुख्यात यूपी सीएम बसपा सुप्रीमों बहम मायावती ने भी अपने दो दो मंत्रियों की लाल गाड़ी छीनकर सड़क पर ला दिया। लोकायुक्त की सिफारिश मानकर माया ने कानून के प्रति सम्मान दर्शाया है। हालांकि दो मंत्रियों के खिलाफ लोकायुक्त की जांच चल रही है और माया मंडल से लगता है कि दो और मंत्रियों की नौकरी बस्स जाने ही वाली है। माया दीदी का ऐन चुनाव से पहले अपने करप्ट मित्रों से पल्ला झाडने का यह कानूनी दांव औरों के लिए चेतावनी भी है कि जो माया से टकराएगा.......। मगर दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित इस मामले में सबों को परास्त कर दिया। अपने परम सहयोगी और सबसे निकटस्थ मंत्री राजकुमार चौहान के खिलाफ दिल्ली के लोकायुक्त ने सीधे राष्ट्रपति के पास सिफारिश भेजी। मगर काफी दिनों तक रायसिना हिल्स में धूल फांकने के बाद जब शीला के पास लोकायुक्त की सिफारिश पहुंची तो वे बड़ी चालाकी से अपने मंत्री के खिलाफ एक्शन लेने की बजाय लोकायुक्त के पत्र को सोनिया गांधी के पास भेज कर उन्हें अलग राम कहानी सुना दी। और लोकायुक्त की सिफारिश को कूडेदान में पार्टी सुप्ारीमों को फेंकना पड़ा। कुछ मामलो में दिल्ली की सीएम काफी होशियार और स्मार्ट है। कामन वेल्थ गेम करप्शन में शुंगलू जांच समिति द्वारा सीएम को आरोपित किेए जाने के बाद भी पीएम, एफएम, एचएम और पार्टी चेयरपर्सन को रामकहानी सुनाकर दोबारा साफ निकल गई। यानी इस बार मुख्यमंत्री बनने के लिए उतावला हो रहे एक केंद्रीय मंत्री को फिर और हर बार की तरह इस बार भी मुंह खानी पड़ी। और तमाम करप्शन के आरोपों के बाद भी 13 सालों से शीला दिल्ली की महारानी बनी हुई है।

फिर मंदी की आहट या ...साजिश

दो साल पहले ग्लोबल मंदी से पूरा संसार अभी तक ठीक से उबर भी नहीं पाया था कि एक बार फिर मंदी की आहट या साजिश तेज हो गई है। और इस बार मंदी की स्क्रिप्ट क्रेडिट रेटिंग एजेंसी मूडीज लिख रही है। चार दिन पहले ही भारतीय स्टेट बैंक आफ इंडिया की रेटिंग में गिरावट करके बैक समेत इसके लाखो निवेशकों को एक ही झटके में अरबों रूपए की चपत लगा दी। भारतीय बाजार अभी इससे उबर भी नहीं पाया था कि मूडीज ने ब्रिटेन के करीब दर्जन भर बैंकों की रेटिंग को गिराकर पूरे यूरोप में हंगामा मचा दिया है। अमरीका के दर्जन भर बैंक पहले से ही दीवालियेपन की कगार पर खड़े है। एशिया और अन्य देशों केसैकड़ों बैंको की पतली हालात किसी से छिपी नहीं है। यानी मूडीज ने रेटिंग कार्ड से पूरे ग्लोबल को हिला दिया है। मंदी की आशंका को तेज कर दिया है। यानी कारोबारियों की फिर से पौ बारह और कर्मचारियों की फिर से नौकरी संकट से दो चार होना होगा। अपना भारत भी मूडीज के मूड से आशंकित है, क्योंकि गरीबों का जीवन और कठिनतम (सरल कब था) हो जाएगा।



बेआबरू होकर मैडम के घर से......


ईमानदारी के लंबे चौड़े कसीदों के साथ देश के पीएम (बने नहीं) बनाए गए मन साहब को भी यह उम्मीद नहीं थी कि उनका साढ़े सात साला शासन काल इतना स्मार्ट और शानदार रहेगा। पूरा देश पानी पानी मांग रहा है और पार्टी को रोजाना अपनी नानी की याद (कम सता ज्यादा) रही है, विश्वस्तरीय अर्थशास्त्री होने की कलई इस तरह खुली की गरीबों के साथ रहने वाली पंजा पार्टी की लंगोटी ही खुल गई। पूरे देश को यह समझ में नहीं आ रहा है कि मन्नू साहब देश के पीएम हैं या चोरों की बारात के दुल्हा? लोगों ने तो मन्नू सरदार को 40 चोरों के सरदार अलीबाबा भी कहना चालू कर दिया है। मन्नू सरदार के बेअसरदार(?) होने के बाद भी सत्ता में सुरक्षित रखने पर देश वासियों को गुस्सा अब कांग्रेस सुप्रीमों पर आ रहा है कि एक विदेशी महिला देश को चलाना चाह रही है या रसातल में ले जा रही है ? बहरहाल पूरे देश के साथ पंजा पार्टी में भी 23 साल के बाद गांधी खानदान के चिराग राज के लिए लालयित है। जिसके लिए स्टेज को सजाने और संवारने का पूरा जिम्मा बंगाली बाबू प्रणव दा संभाल रहे है। राहुल के पक्ष में बयान देकर प्रणव दा ने मन्नू दा को दीपावली के बाद आगाह भी कर रहे है। सचमुच 1991 में दक्षिण दिल्ली से लोकसभा चुनाव लड़ने के लिेए अपने परम राईटर मित्र खुशवंत सिंह के सामने हाथ पसार कर दो लाख रूपए उधार लेने वाले अपने मनजी की माली हालात इन 20 सालों में अब पांच करोड़ की हो गई है। क्या आपको अब भी सरदार जी कि ईमानदारी पर कोई शक सुबह है क्या ?

और इस बार दीदी भी थामेंगी कमान

और इस बार पूरी राजनीति और रणनीति के साथ देश की खानदानी सत्ता में भैय्या और दीदी को लाने, जमाने और दुनियां को दिखाने की हिट फिल्म की कहानी अमर अकबर अहमद एंथोंनी समेत ओम जय जगदीश और जॅान जॅानी जर्नादन द्वारा लिखी जा रही है। राहुल बाबा के मददगार के रूप में पूरी संभावना है कि वाचाल तेज सतर्क और हवा के रूख को भांपने और खानदानी शहादत के नाम पर देश वासियों को मोहित कम (मूर्ख बनाने में) माहिर प्रियंका वाड्रा गांधी को भी मैदान में उतारा जाएगा. बतौर डिप्टी पीएम (जिसे उप प्रधानमंत्री भी कहा जाता है) के रूप में। यानी सता पर भले ही भैय्या का साम्राज्य दिखे मगर बहुत सारे फैसलों पर दीदी का भी कंट्रोल बना रहे। वे अपने भाई को जरा तेज स्मार्ट और चालू भी बनाएंगी, ताकि निकटस्थ लोग राहुल बाबा को पिता राजीव गांधी की तरह नया और बमभोला के रूप में ना देखे, माने और कहें। पार्टी की दुर्गा माता के रूप में सुशोभित सोनिया जी भी अपनी सेहत का हवाला देकर अपने संतानों को मैच्योर करके पार्टी की मुखिया का दायित्व अपनी बेटी को देकर सत्ता से दूर रहकर भी मास्टर माइंट या पावक कंट्रोलर बनकर अपने संतानों की कार्यकुशलता को निरखती परखती रहेंगी। हालांकि देश के इमोशन को अपने हाथ में लेने के लिए, यदि 2014 में लोकसभा चुनाव हुए तो उससे कुछ पहले वरूण गांधी को भी अपनी टोली में भी लाया जा सकता हैं। यानी राहुल को लेकर देश भर में इस हवा को शांत करने के लिए कि यदि राहुल पीएम अभी नहीं बने तो फिर कभी नहीं की आशंका को खत्म किया जा सके। और बाकी बचे ढाई साल में इन भाई बहनों की धुआंधार देश व्यापी दौरों से देश के मिजाज पर अन्ना समेत हाथी कमल के असर को कमजोर करके काबू में किया जा सके।



फिर टला किराया बढ़ाने का मामला

यूपी इलेक्शन है सामने यानी यूपीए सरकार में रेलवे को किराया ना बढने का ग्रहण लग गया है। 2004 में बिहार के पुरोधा लालू प्रसाद यादव ने रेल मंत्री बनते ही नाना प्रकारेण किराया नहीं बढ़ाया, फिर भी रेल को पटरी पर रखा। लालू के बाद तुनकमिजाजी ममता दीदी रेल मंत्री बनी और लालू के पदचिन्हों पर चलती हुई किराया नहीं बढ़ाया, मगर लालू जैसा जंतर मंतर नहीं कर सकी। लिहाजा रेलवे को पटरी से उतार कर बंगाल की गद्दी पर जा बैठी। दीदी की दया से त्रिवेदी जी रेल मंत्री बनकर फंस गए है। सारा खजाना खाली है। कर्जो के बोझ से रेल पटरी समेत रेल रसातल में जा रही है। वे सीधे 25 फीसदी किराया बढ़ाने की सिफारिश कर रहे है, मगर भला हो जनता कि ज्यादातर नेता समेत मनू सरकार अपने ही जाल में फंसी है। संकट की इस घड़ी में रेलवे की कौन सुने। कौन किराया बढ़ाने का जोखिम उठाए। विपक्षी हमलों से वैसे भी मनजी की पतलून ढीली होती जा रही है। कैंसर से निजात होकर भारत लौटी मैडम की पूरी पार्टी ही आज कैंसरग्रस्त दिख रही है। लिहाजा थोडे दिन और मजा ले लिया जाए। वैसे भी रेल और परिवहन बसों के किराये में ढाई गुना अंतर आ जाने के बाद रेल पर यात्रियों और मंत्रालय पर घाटे का बोझ उम्मीदग से कई गुना अधिक बढ़ गया है। यानी रेल को बिहार होने से बचाने के ले चुनावी गणित से उपर उठकर सोचना ही होगा। तभी देश की जीवनरेखा यानी करीब टितटरोजाना तीन करोड़ और बगैर टिकट मिलाकर करीब पांच करोड़ लोगों को ढोने वाली भारतीय रेल की हवा निकलने में कोई खास समय नहीं सगने वाला है।


केवल बोलने वाला किंग

इस समाज में ज्यादा बोलना हमेशा नुकसानदेह साबित होता आया है। मामला चाहे बाबा रामदेव का हो या राम जेठमलानी की ज्यादा बोलने की वजह से इनकी साख गिरी है। जनलोकपाल पर अनशन करके रातो रात स्टार बन गए अन्ना हजारे भी एकाएक हर मामले में इतना बोलने लग गए हैं कि .....। यही हाल है बालीवुड के स्टार और खुद को (अपने मियां मिठ्ठू) आई एम द बेस्ट कहने वाले किंग खान यानी शाहरूख खान का। वजह बेवजह हमेशा ही बोलते रहने वाले ?...खान भी कुछ ना कुछ बोलकर मजा लेते और देते रहते है। अपने प्यार और सेक्स संबंधों पर बोलते बोलते राजा साब बंगालन बाला विपाशा की रंगरलियों वाले बीएफ पर सबको ज्ञानदान देकर सरेआम बसु को बेबस कर दिया। अब नया धमाका राजा साब ने किया है कि इनका मन महिलाओं के लिए लेडिज टायलेट बनवाने की है। इस पावन पुनीत कार्य के लिए वे इतना धन कमाना चाहते है कि राजा को दूसरों के सामने कभी हाथ ना फैलाना पड़े। किंग का दिल भी किंग जैसा होना चाहिए खान साब। यही बात मुबंई मे या कहीं भी तीन चार लाख लगाकर या सुलभ इंटरनेशनल के सूत्रधार बिंदेश्वर पाठक से कहकर एक लेडिज टायलेट बनवाकर उसके उदघाटन के समय यही बात बोलते तो सबको भला लगता। मगर हवा में बात करने से सिवाय मजाक (जग हंसाई) के कुछ भी हासिल नहीं होता खान साब । महिलाओं के लिेए कुछ करके दिखाइए खान साब। अल्ला ताल्ला ने आपको पहले ही बहुत कुछ दे रखा है या दिया है।






























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(हेडिंग)रामविलास और अजीत की ताजपोशी की तैयारी

(सब हेड़िग) मुलायम की सिफारिश पर रामविलास पर सोनिया मेहरबान

अनामी शरण बबल

नयी दिल्ली। उतर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के सुपुत्र और इंडियन लोकदल के मुखिया अजीत सिंह के साथ ही दलित बिहारी नेता रामविलास पासवान की किस्मत की लाटरी खुलने जा रही है। यूपी में विधानसभा की चुनावी लहर तेज होने के साथ ही मायावती के काट के लिए कांग्रेसी पंडितों ने रामविलास पासवान और अजीत सिंह पर डोरे डालना चालू कर दिया था। अंदरूनी सूत्रों के अनुसार जन लोकपाल विधेयक और माया के दलित काट के लिए रामविलास को आगे किया जा रहा है। जाट मतदाताओं को काबू में रखने और प्रस्तावित हरित प्रदेश के गठन पर अजीत के साथ सत्ता सुख के लिए भी कांग्रेस और अजीत की दोस्ती का यूपी चुनाव पर खासा असर पडेगा। यूपी में कांग्रेस के खोए जनाधार की वापसी के लिए कांग्रेसी युवराज बेकरार है। पार्टी की तरफ से राहुल गांधी की ताजपोशी के लिए यूपी में बेहतर परिणाम की आस है.

जन लोकपाल में दलित आरक्षण और प्रतिनिधित्व का मामला उठाकर रामविलास अभी से अन्ना हजारे की हवा निकालने में जुट गए है। लोक जनशक्ति पार्टी की तरफ से 6 दिसंबर को एक बड़ी दलित रैली की जा रही है। लोजपा सहयोगी दलित सेना की बजाय इसे लोजपा द्वारा आयोजित किया जा रहा है। इस रैली के बहाने एक ही साथ रामविलास अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढाहे जाने के खिलाफ भाजपा की हवा निकालने और दलित कार्ड को फिर से लहराते हुए माया वती और जनलोकपाल बिल में दलितों की उपेक्षा के मुद्दे का गरमाना चाह रहे है। पिछले ढाई साल से गुमनामी और पार्टी के खराब प्रदर्शन से बेहाल रामविलास को कांग्रेस सुप्रीमों सोनिया गांधी के पड़ोसी होने का फायदा आखिरकार मिल ही गया।
गौरतलब हो कि 10 जनपथ सोनिया गांधी और 12 जनपथ रामविलास पासवान का सरकारी आवास है।दोनों बंगले को अलग करने वाली एक ही दीवार है। बिहार में लालू प्रसाद यादव और यूपी में मुलायम सिंह के दलित कब्जे पर सेंध लगाने के ले ही कांग्रेस ने इस बार रामविलास को अपनाया है। देश के कई राज्यों में होने वाले चुनाव में भी रामविलास को दलित फेस की तरह सामने रशा जा सकता है। हालांकि लोकसभा अध्यक्ष
मीरा कुमार इसे ज्यादा पसंद नहीं कर रही है, मगर पद की गरिमा के चलते वे चुनाव में पार्टी प्रचार के लिए उपलब्ध नहीं रह सकती। खूब बोलने के लिए मशहूर वाचाल रामविलास इस दौरान कांग्रेस के लिए दलित मुखौटा बनकर वोट बटोरन् में शायद कामयाब रहे।
उल्लेखनीय है कि यदि कांग्रेस की उम्मीदों पर यदि रामविलास खरा साबित हे तो उन्हें सोनिया के सबसे विश्वस्त सलाहकारों की मंड़लीं में जगह मिल जाएगी। संभावना है कि लालू जैसा संरक्षक बनने का भी सपना रामविलास का पूरा हो जाए। लालू और सोनिया के बीच गजब के तालमेल से सोनिया के ज्यादातर निकटस्थ भी उपेक्षित से हो गए थे, वही लालू पर सोनिया का पूरा भरोसा जम गया था, मगर लालू मुलायम और पासवान की दिलत यादव और पिछड़ों के महागठबंधन के साथ ही सोनिया दरबार से लालू के बाहर निकलने से सोनिया एकदम हैरान रह गयी। अब सोनिया को लालू पर भरोसा नहीं हो रहा है।
नए सिपहसालार के रूप में इस बार कांग्रेस रामविलास को गोद ले रही है जो लालू से कम सख्त होने के बावजूद कई राज्यों में दलित कार्ड बनकर ज्यादा फायदेमंद हो सकते है। कांग्रेस और रामविलास के तालमेस के साथ ही राजनीति के अमर अकबर और एंथोनी के रूप में उभरे लालू मुलायम और रामविलास पासवान की जोड़ी के अंत का भी समय आ गया है।वहीं विरान से पड़े रामविलास की कोठी 12 पर फिर से रौनक बढ़ गयी है। हालांकि कार्यकर्त्ताओं की इस भीड़ को लोजपा की तरफ से राली की तैयारी का नाम दिया जा रहा है। इस रैली के पीछे पूरी तरह कांग्रेस खड़ी है। इसकी सफलता का पूरा फायदा दो कांग्रेस के मिलेगी। एक ही तीर से बीजेपी और मायावती को आहत करने के नाम पर कांग्रेस लोजपा की इस रैली को कामयाब बनाने में लगी है।
अजीत सिंह की पूरी टोली यूपी चुनाव में माया और बीजेपी की काट के लिए दम लगा रही है। अजीत की सफलता पर ही बीजेपी और माया को सत्ता से बेदखल किया जा सकता है। भीतरी सूत्रों को माने तो रामविलास पर कांग्रेस की यह दरियादिल्ली मुलायम की सलाह पर ही मुमकिन हो पाया है। यूपी को बाहर से साथ दे रहे मुलायम ने ही देश भर के दलितों को अपनी झोली में रखने के लिए रामविलास को गोद लेने की सलाह दी थी। कांग्रेस के पास एक दलित चेहरे की कमी थी जिसे वो रामविलास के जरिए पूरा करेगी। एकतरह से तय सा है कि बीजेपी और बसपा से टक्कर लेने के लिए कांग्रेस, सपा इनेलो और लोजपा एक साथ ना होकर भी एकसाथ एक ही भावी रणनीति के तहत चुनावी मैदान में है।
मनमोहन सरकार के कैबिनेट में जल्द ही इन दोनों को लाने की औपचारिकताएं पूरी होने की संभावना है।अब सबों को यह देखना दिलचस्प होगा कि ढाई साल से रामविलास के साथ ही बेकारी झेल रहे लालू प्रसाद यादव का क्या होगा। हालांकि पार्टी ग्रामीण विकास मंत्रालय के ले रघुवंश प्रसाद सिंह को अभी भी पसंद कर रही है। सोनिया को लगता है कि मल्टीटैलेंट जयराम रमेश का इससे बेहतर यूज मुमकिन है, मगर देखना है कि हाईकमान क्या लालू को लेकर उदार होती है।मगर ताजे हालात में फिलहाल लालू कांग्रेस के लिए उपयोगी नहीं दिख रहे है, और खासकर सोनिया के सिपहसालारों के साथ साथ मुलायम भी अपने यादव बंधु लालू को सत्तानशीन होते नहीं देखना चाह रहे है। यानी मुलायम और रामविलास तो एक तरह से शोले के जय वीरू बनकर गब्बर सिंह रूपी मायावती को मारने की मुहिम मे जुटने जा रहे है। इनके साथ जाट रे जाट तेरे सिर पर खाट की तर्ज पर अजीत का हमसफर होना भी सपा कांग्रेस और इनेलो के पक्ष को कद्दावर बना सकता है। यानी तीनों के हित में रामविलास का साथ भले का दिख रहा है। हालांकि रामविलास पासवान मीडिया के सामने कुछ भी बोलने से परहेज कर रहे है, मगर चेहरे की चमक और उस पर खिलता आत्मविश्वास साफ कह रहा है कि खिचड़ी पक गई है। यानी दलित नेता रामविलास पासवान एक बार फिर से नए संग्राम के लिए खुद को आगाह करते हे तैयार कर रहे है।





(स्टोरी के बीच में बाक्स )
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फिर बेगार ही रह जाएंगे लालू


अनामी शरण बबल

मनमोहन सरकार में इनेलो मुखिया अजीत सिंह और लालू के साथ कदमताल करने वाले दलित नेता रामविलास पासवान को मंत्री बनाए जाने की जोरदार खबर को बावजूद राजद मुखिया और पूर्व रेल मंत्री लालू यादव की बेगारी खत्म नहीं होने वाली है। अपनी बेकारी के दिन खत्म होने के आस में लालू जोर आजमाईश में लग गए , ताकि किसी भी तरह बेकारी का दंश खत्म हो। सोनिया के कभी खासमखास रहे लालू ने कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी तक से मुलाकात करके अपनी संभावनाओं को हवा दे रहे है, मगर
बदले हालात में मुलायम की सिफारिश पर रामविलास का सोया भाग्य तो जागने लगा है, मगर लालू को लेकर मुलायम और अजीत सिंह की नकारात्मक धारणा से लासलू के ले फिर से यूपीए सरकार में दाखिला पाना मुमकिन नहीं लग रहा है।
सोनिया मैडम के कभी सबसे भरोसेमंद रहे लालू को सत्ता में दाखिले के लिए मैड़म की किचेन कैबिनेट से जूझना पड़ रहा है। उल्लेखनीय है कि 2009 लोकसभा चुनाव से ठीक पहले लालू, मुलायम और पासवान की तिकड़ी के के अलग होने यूपीए को करारा झटका लगा था। बाद में बिहार विधानसभा चुनाव में भी अलग सूर होने का खामियाजा दोनों को भुगतना पड़ा था। इन तमाम कड़वाहटों के बावजूद सोनिया लालू को लेकर भावुक थी, मगर एंटी लालू लाबी की नेक सलाह से एक ही साथ सारा खेल खत्म हो गया,।
साथ ही यूपी में मुलायम और अजीत सिंह भी लालू को लेकर सहमत नहीं है. लालू की वाचालता और सबपर हावी होकर रहने की आदत को लेकर भी मुलायम और अजीत अपने लिए खतरा मान रहे है। फिर मुलायम के रहते लालू का कोई लाभ भी नहीं है. इस संमय रामविलास का दलित होना ही उनके पक्ष मे रहा है। फिर जेंटलमान की इमेज को लेकर मुलायम और अजीत की सिफारिश भी रामविलास के ले संजीवनी बन गयी। यानी लालू की बेगारी को लेकर अब कोई शक नही हैकि फिलहाल राजद सुप्रीमों को बेरोजगार ही रहना होगा। उधर नीतीश कुमार और राहुल गांधी के बीच बेहतर रिश्ता होना भी लालू के ले कारगर साबित नहीं हो पाया। अपने दोस्त नीतीश कुमार की सेहत के लिए भी लालू को मनमोहन टीम में जगह पाना दुश्वार करता है। यानी लालू का खेल तो फिलहाल खत्म सा ही हो गया है।
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करप्शन से हाल बेहाल
फैक्टरी लाईसेंसिंग डिपार्टमेंट में अंधेरगर्दी






























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(हेडिंग)रामविलास और अजीत की ताजपोशी की तैयारी

(सब हेड़िग) मुलायम की सिफारिश पर रामविलास पर सोनिया मेहरबान

अनामी शरण बबल

नयी दिल्ली। उतर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के सुपुत्र और इंडियन लोकदल के मुखिया अजीत सिंह के साथ ही दलित बिहारी नेता रामविलास पासवान की किस्मत की लाटरी खुलने जा रही है। यूपी में विधानसभा की चुनावी लहर तेज होने के साथ ही मायावती के काट के लिए कांग्रेसी पंडितों ने रामविलास पासवान और अजीत सिंह पर डोरे डालना चालू कर दिया था। अंदरूनी सूत्रों के अनुसार जन लोकपाल विधेयक और माया के दलित काट के लिए रामविलास को आगे किया जा रहा है। जाट मतदाताओं को काबू में रखने और प्रस्तावित हरित प्रदेश के गठन पर अजीत के साथ सत्ता सुख के लिए भी कांग्रेस और अजीत की दोस्ती का यूपी चुनाव पर खासा असर पडेगा। यूपी में कांग्रेस के खोए जनाधार की वापसी के लिए कांग्रेसी युवराज बेकरार है। पार्टी की तरफ से राहुल गांधी की ताजपोशी के लिए यूपी में बेहतर परिणाम की आस है.

जन लोकपाल में दलित आरक्षण और प्रतिनिधित्व का मामला उठाकर रामविलास अभी से अन्ना हजारे की हवा निकालने में जुट गए है। लोक जनशक्ति पार्टी की तरफ से 6 दिसंबर को एक बड़ी दलित रैली की जा रही है। लोजपा सहयोगी दलित सेना की बजाय इसे लोजपा द्वारा आयोजित किया जा रहा है। इस रैली के बहाने एक ही साथ रामविलास अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढाहे जाने के खिलाफ भाजपा की हवा निकालने और दलित कार्ड को फिर से लहराते हुए माया वती और जनलोकपाल बिल में दलितों की उपेक्षा के मुद्दे का गरमाना चाह रहे है। पिछले ढाई साल से गुमनामी और पार्टी के खराब प्रदर्शन से बेहाल रामविलास को कांग्रेस सुप्रीमों सोनिया गांधी के पड़ोसी होने का फायदा आखिरकार मिल ही गया।
गौरतलब हो कि 10 जनपथ सोनिया गांधी और 12 जनपथ रामविलास पासवान का सरकारी आवास है।दोनों बंगले को अलग करने वाली एक ही दीवार है। बिहार में लालू प्रसाद यादव और यूपी में मुलायम सिंह के दलित कब्जे पर सेंध लगाने के ले ही कांग्रेस ने इस बार रामविलास को अपनाया है। देश के कई राज्यों में होने वाले चुनाव में भी रामविलास को दलित फेस की तरह सामने रशा जा सकता है। हालांकि लोकसभा अध्यक्ष
मीरा कुमार इसे ज्यादा पसंद नहीं कर रही है, मगर पद की गरिमा के चलते वे चुनाव में पार्टी प्रचार के लिए उपलब्ध नहीं रह सकती। खूब बोलने के लिए मशहूर वाचाल रामविलास इस दौरान कांग्रेस के लिए दलित मुखौटा बनकर वोट बटोरन् में शायद कामयाब रहे।
उल्लेखनीय है कि यदि कांग्रेस की उम्मीदों पर यदि रामविलास खरा साबित हे तो उन्हें सोनिया के सबसे विश्वस्त सलाहकारों की मंड़लीं में जगह मिल जाएगी। संभावना है कि लालू जैसा संरक्षक बनने का भी सपना रामविलास का पूरा हो जाए। लालू और सोनिया के बीच गजब के तालमेल से सोनिया के ज्यादातर निकटस्थ भी उपेक्षित से हो गए थे, वही लालू पर सोनिया का पूरा भरोसा जम गया था, मगर लालू मुलायम और पासवान की दिलत यादव और पिछड़ों के महागठबंधन के साथ ही सोनिया दरबार से लालू के बाहर निकलने से सोनिया एकदम हैरान रह गयी। अब सोनिया को लालू पर भरोसा नहीं हो रहा है।
नए सिपहसालार के रूप में इस बार कांग्रेस रामविलास को गोद ले रही है जो लालू से कम सख्त होने के बावजूद कई राज्यों में दलित कार्ड बनकर ज्यादा फायदेमंद हो सकते है। कांग्रेस और रामविलास के तालमेस के साथ ही राजनीति के अमर अकबर और एंथोनी के रूप में उभरे लालू मुलायम और रामविलास पासवान की जोड़ी के अंत का भी समय आ गया है।वहीं विरान से पड़े रामविलास की कोठी 12 पर फिर से रौनक बढ़ गयी है। हालांकि कार्यकर्त्ताओं की इस भीड़ को लोजपा की तरफ से राली की तैयारी का नाम दिया जा रहा है। इस रैली के पीछे पूरी तरह कांग्रेस खड़ी है। इसकी सफलता का पूरा फायदा दो कांग्रेस के मिलेगी। एक ही तीर से बीजेपी और मायावती को आहत करने के नाम पर कांग्रेस लोजपा की इस रैली को कामयाब बनाने में लगी है।
अजीत सिंह की पूरी टोली यूपी चुनाव में माया और बीजेपी की काट के लिए दम लगा रही है। अजीत की सफलता पर ही बीजेपी और माया को सत्ता से बेदखल किया जा सकता है। भीतरी सूत्रों को माने तो रामविलास पर कांग्रेस की यह दरियादिल्ली मुलायम की सलाह पर ही मुमकिन हो पाया है। यूपी को बाहर से साथ दे रहे मुलायम ने ही देश भर के दलितों को अपनी झोली में रखने के लिए रामविलास को गोद लेने की सलाह दी थी। कांग्रेस के पास एक दलित चेहरे की कमी थी जिसे वो रामविलास के जरिए पूरा करेगी। एकतरह से तय सा है कि बीजेपी और बसपा से टक्कर लेने के लिए कांग्रेस, सपा इनेलो और लोजपा एक साथ ना होकर भी एकसाथ एक ही भावी रणनीति के तहत चुनावी मैदान में है।
मनमोहन सरकार के कैबिनेट में जल्द ही इन दोनों को लाने की औपचारिकताएं पूरी होने की संभावना है।अब सबों को यह देखना दिलचस्प होगा कि ढाई साल से रामविलास के साथ ही बेकारी झेल रहे लालू प्रसाद यादव का क्या होगा। हालांकि पार्टी ग्रामीण विकास मंत्रालय के ले रघुवंश प्रसाद सिंह को अभी भी पसंद कर रही है। सोनिया को लगता है कि मल्टीटैलेंट जयराम रमेश का इससे बेहतर यूज मुमकिन है, मगर देखना है कि हाईकमान क्या लालू को लेकर उदार होती है।मगर ताजे हालात में फिलहाल लालू कांग्रेस के लिए उपयोगी नहीं दिख रहे है, और खासकर सोनिया के सिपहसालारों के साथ साथ मुलायम भी अपने यादव बंधु लालू को सत्तानशीन होते नहीं देखना चाह रहे है। यानी मुलायम और रामविलास तो एक तरह से शोले के जय वीरू बनकर गब्बर सिंह रूपी मायावती को मारने की मुहिम मे जुटने जा रहे है। इनके साथ जाट रे जाट तेरे सिर पर खाट की तर्ज पर अजीत का हमसफर होना भी सपा कांग्रेस और इनेलो के पक्ष को कद्दावर बना सकता है। यानी तीनों के हित में रामविलास का साथ भले का दिख रहा है। हालांकि रामविलास पासवान मीडिया के सामने कुछ भी बोलने से परहेज कर रहे है, मगर चेहरे की चमक और उस पर खिलता आत्मविश्वास साफ कह रहा है कि खिचड़ी पक गई है। यानी दलित नेता रामविलास पासवान एक बार फिर से नए संग्राम के लिए खुद को आगाह करते हे तैयार कर रहे है।





(स्टोरी के बीच में बाक्स )
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फिर बेगार ही रह जाएंगे लालू


अनामी शरण बबल

मनमोहन सरकार में इनेलो मुखिया अजीत सिंह और लालू के साथ कदमताल करने वाले दलित नेता रामविलास पासवान को मंत्री बनाए जाने की जोरदार खबर को बावजूद राजद मुखिया और पूर्व रेल मंत्री लालू यादव की बेगारी खत्म नहीं होने वाली है। अपनी बेकारी के दिन खत्म होने के आस में लालू जोर आजमाईश में लग गए , ताकि किसी भी तरह बेकारी का दंश खत्म हो। सोनिया के कभी खासमखास रहे लालू ने कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी तक से मुलाकात करके अपनी संभावनाओं को हवा दे रहे है, मगर
बदले हालात में मुलायम की सिफारिश पर रामविलास का सोया भाग्य तो जागने लगा है, मगर लालू को लेकर मुलायम और अजीत सिंह की नकारात्मक धारणा से लासलू के ले फिर से यूपीए सरकार में दाखिला पाना मुमकिन नहीं लग रहा है।
सोनिया मैडम के कभी सबसे भरोसेमंद रहे लालू को सत्ता में दाखिले के लिए मैड़म की किचेन कैबिनेट से जूझना पड़ रहा है। उल्लेखनीय है कि 2009 लोकसभा चुनाव से ठीक पहले लालू, मुलायम और पासवान की तिकड़ी के के अलग होने यूपीए को करारा झटका लगा था। बाद में बिहार विधानसभा चुनाव में भी अलग सूर होने का खामियाजा दोनों को भुगतना पड़ा था। इन तमाम कड़वाहटों के बावजूद सोनिया लालू को लेकर भावुक थी, मगर एंटी लालू लाबी की नेक सलाह से एक ही साथ सारा खेल खत्म हो गया,।
साथ ही यूपी में मुलायम और अजीत सिंह भी लालू को लेकर सहमत नहीं है. लालू की वाचालता और सबपर हावी होकर रहने की आदत को लेकर भी मुलायम और अजीत अपने लिए खतरा मान रहे है। फिर मुलायम के रहते लालू का कोई लाभ भी नहीं है. इस संमय रामविलास का दलित होना ही उनके पक्ष मे रहा है। फिर जेंटलमान की इमेज को लेकर मुलायम और अजीत की सिफारिश भी रामविलास के ले संजीवनी बन गयी। यानी लालू की बेगारी को लेकर अब कोई शक नही हैकि फिलहाल राजद सुप्रीमों को बेरोजगार ही रहना होगा। उधर नीतीश कुमार और राहुल गांधी के बीच बेहतर रिश्ता होना भी लालू के ले कारगर साबित नहीं हो पाया। अपने दोस्त नीतीश कुमार की सेहत के लिए भी लालू को मनमोहन टीम में जगह पाना दुश्वार करता है। यानी लालू का खेल तो फिलहाल खत्म सा ही हो गया है।
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(पहले पेज में नीचे बड़ी स्टोरी)


करप्शन से हाल बेहाल
फैक्टरी लाईसेंसिंग डिपार्टमेंट में अंधेरगर्दी












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बी.जे.पी. ने की समीक्षा--यूपीए : आजादी के बाद की भ्रष्टतम सरकार
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Published on June 4, 2011 by News Desk • 1 Comment Print This Post सुरेंदर अग्निहोत्री ,,
आई.एन.वी.सी.
लखनऊ ,
प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिहं के नेतृत्व में यूपीए-2 सरकार ने अपने ढाई साल पूरे कर लिए है। उक्त अवसर पर प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह और यूपीए की अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गान्धी दोनों ने भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने का संकल्प व्यक्त किया। इससे बड़ी विडम्बना नहीं हो सकती क्योंकि एक ऐसी सरकार भ्रष्टाचार से लड़ने का संकल्प कर रही है, जिसका हाल तक का एक मन्त्री, एक वरिष्ठ कांग्रेसी सांसद और यूपीए के एक महत्वपूर्ण घटक के नेता की पुत्री भ्रष्टाचार के गम्भीर आरोपों पर तिहाड़ जेल में बन्द हैंं। यह बात काफी अहम है कि ये गिरफ्तारियां भाजपा के अभियान, सतर्क मीडिया, के दबाव तथा सर्वोच्च न्यायालय की सतत निगरानी के कारण सम्भव हो सकीं। वस्तुत: इसके लिए डॉ. मनमोहन सिंह या उनकी सराकर कोई श्रेय नहीं ले सकती क्योंकि कार्रवाई करने की बजाए उन्होंने तो इनमें से कुछ को निर्दोष होने का प्रमाणपत्र दे दिया था। यह जाहिर है कि डॉ. मनमोहन सिंह आजादी के बाद की देश की सर्वाधिक भ्रष्ट सरकार के मुखिया हैं। इसमें पारदÆशता की कमी है, उच्च स्तर पर संलिप्तता है, किसी प्रकार का कोई अंकुश नहीं है, पूरा तन्त्र ढह चुका है तथा रोज-रोज नए घोटाले सामने आ रहे हैं। दरअसल, यह प्रधानमन्त्री की `षड्यन्त्रकारी चुप्पी´, `अपराधी उदासीनता´, और `घोर लापरवाही´ थी की उनकी नाक के नीचे उनका एक मन्त्री देश के खजाने को लूटता रहा और वे उसकी अनदेखी करते रहे। इसमें यूपीए की सर्वशक्तिमान नेता श्रीमती सोनिया गान्धी की चुप्पी भी उल्लेखनीय थी।
घोटालों और राष्ट्रीय सम्पित्त की लूटा का यह सिलसिला काफी बड़ा है। लेकिन, उनमें से कुछ प्रमुख का यहां उल्लेख किया जा रहा है।
2जी स्पेक्ट्रम के आबण्टन और लाइसेंस जारी करने में घोटाला
संचार मन्त्रालय, भारत सरकार में 2जी लाइसेंसों के आबण्टन में हुआ घोर भ्रष्टाचार स्वतन्त्र भारत के इतिहास की सबसे शर्मनाक घटना है। यह तन्त्र के दुरूपयोग, गलतबयानी और धोखाधड़ी का एक गम्भीर मामला है, जिसमें बहुमूल्य स्पेक्ट्रम और लाइसेंस आबण्टन में भारी राशि के एवज में चुनिन्दा लोगों को फायदा पहुंचाया गया। यह तथ्य सर्वविदित है कि कैसे लाइसेंसों के लिए आवेदन सार्वजनिक रूप से 1/10/2007 तक मंगाए गए थे, उसके बाद एक नकली कट-ऑफ तिथि 25/9/2007 बनाई गई और 25/9/2007 तथा 1/10/2007 के बीच किए गए सभी आवेदनों को निरस्त कर दिया गया। खेल शुरू होने के बाद खेल के नियमों में बदलाव होने पर प्रधानमन्त्री चुप्पी साधे रहे। इस पर कोर्ट ने भी प्रतिकूल टिप्पणी की।
प्रधानमन्त्री ने तब भी चुप्पी साधे रखी जब तत्कालीन मन्त्री ए. राजा ने 02 नवम्बर, 2007 के उनके पत्र की खुली अवहेलना की, जिसमें उन्होंने स्पेक्ट्रम के उचित मूल्य के लिए पारदशÊ प्रक्रिया अपनाने पर बल दिया था क्योंकि 2007 में इसे 2001 के मूल्य पर बेचा जा रहा था, जबकि देश में टेलीडेंसिटी कई गुणा बढ़ चुकी थी। देश को यह जानने का हक है कि सरकार के मुखिया के रूप में प्रधानमन्त्री ने हस्तक्षेप करते हुए सारी प्रक्रिया को रोका क्यों नहीं जब सभी नियमों को ताक पर रख स्पेक्ट्रम कम मूल्य पर बेचा जा रहा था। क्या डॉ मनमोहन सिंह स्वयं जानकारी के बावजूद नहीं कार्यवाही करने और देश के राजस्व को हानि पहुंचाने के दोषी हैं कि नहीं। एक दिन के भीतर 120 लाइसेंस जारी किए गए तथा स्पेक्ट्रम का आबण्टन किया गया, जिसमें कई अपात्र कम्पनियों को भी लाइसेंस मिल गया।

चौंकाने वाली बात यह है कि एक नियमित सीबीआई मामला दर्ज हो जाने के बाद भी, डॉ. मनमोहन सिंह ने 26, जुलाई, 2009 को यह सार्वजनिक बयान दिया कि संचार मन्त्री ए. राजा के खिलाफ आरोप सही नहीं है। यह कह कर वे सीबीआई को क्या सन्देश देना चाह रहे थे, जो सीधे उन्हीं के तहत काम करती है। जब उच्चतम न्यायालय ने इस मामले की निगरानी शुरू की तो ये वही भूतपूर्व मन्त्री थे, जो सबसे पहले गिरफ्तार हुए।
प्रधानमन्त्री को इसका जवाब देना होगा कि समय-समय पर जिम्मेदार लोगों की आपित्तयों के बावजूद उन्होंने इतना बड़ा घोटाला कैसे होने दिया। इसके उलट वे 2010 के मध्य तक तत्कालीन मन्त्री ए. राजा को बेगुनाही का प्रमाणपत्र देते रहे। तत्कालीन वित्त मन्त्री श्री पी. चिदम्बरम की भूमिका भी कई सवाल खड़े करती है। उनके विभाग द्वारा केबिनेट के 2003 के निर्णय के आलोक में ये आपत्ति बार-बार उठाई गई कि स्पैक्टम के कीमत एक पारदशीZ प्रक्रिया के अनुसार तय की जाए जिसमें उसकी सार्वजनिक नीलामी भी हो सकती है। ये बड़े आश्चर्य का विशय है कि 15 जनवरी 2008 को श्री चिदम्बरम ने तथाकिथ्त रूप से यह निर्णय कि चूंकि 10 जनवरी को लाइसेंस और स्पैटम दोनों का आबण्टन हो चुका है। अत: इस मामले को अब बन्द किया जाए। श्रीमती सोनिया गान्धी को भी कई जवाब देने हैं। यूपीए तथा कांग्रेस पार्टी की अध्यक्षा होने के नाते उस सरकार में जिसकी वो सर्वोच्च नेता है, जब राष्ट्र का धन लूटा जा रहा था उस समय उनकी क्या जिम्मेवारी बनती थी र्षोर्षो
जब सीएजी ने लाइसेंस निर्गत करने तथा स्पेक्ट्रम के आबण्टन के बारे में एक विस्तृत ऑडिट रिपोर्ट तैयार की तथा 1.76 लाख करोड़ रूपए के नुकसान का अनुमान लगाया तो भरसक कोशिश की गई कि इस निष्कर्ष को झुठलाया जाए और वर्तमान संचार मन्त्री श्री कपिल सिब्बल ने सार्वजनिक रूप से संसद में कहा कि कोई घाटा नहीं हुआ है। अब सीबीआई ने भी अपनी जांच के दौरान पाया है कि हजारों करोड़ रूपए का नुकसान हुआ है और वह भी तदर्थ आधार पर। नुकसान का प्रथम दृष्टया अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि 3जी स्पेक्ट्रम की नीलामी में सरकार को 35,000 करोड़ रूपए के लक्ष्य की तुलना में लगभग 67,000 करोड़ रूपए का जबर्दस्त मुनाफा हुआ और इसके अलावा ब्राडबैण्ड वायरलैस एक्सेस सÆवसेज के लिए स्पेक्ट्रम की नीलामी से उसे 38,000 कराड़ रूपए का और फायदा हुआ इसके बावजूद, जहां तक 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले का प्रश्न है तो प्रधानमन्त्री ने किसी समीक्षा के आदेश नहीं दिए।
जब डॉ. मुरली मनोहर जोशी लोक लेखा समिति के अध्यक्ष के रूप में इस मामले की जांच कर रहे थे तो तब शुरू में डॉ. मनमोहन सिंह ने स्वयं श्री जोशी की एक अनुभवी संसदीय नेता के रूप में प्रशंसा की तथा कहा था कि वे अच्छा काम कर रहे हैं। तथापि, जब डॉ. जोशी की अध्यक्षता वाली समिति ने कैबिनेट सचिव तथा प्रधानमन्त्री के सचिव को पूछताछ के लिए बुलाया तो सभी संसदीय और संवैधानिक नियमों की अवहेलना करते हुए कई केन्द्रीय मन्त्रियों द्वारा इसमें बाधा पहुंचाई गई। जाहिर है कि यह सरकार बहुत कुछ छुपाना चाहती है। डॉ जोशी ने लोकसभा के स्पीकर को अपनी रिपार्ट सौम्प दी है। हम यह मांग करते हैं कि उससे संसद के आगामी सत्र के पहले दिन संसद में प्रस्तुत करते हुए सार्वजनिक किया जाए।
अब वर्तमान कपड़ा मन्त्री और मई, 2004 से मई, 2007 तक दूरसंचार मन्त्री रहे दयानिधि मारन की भूमिका भी सन्देह के घेरे में आ गई है। उन्होंने जोर दिया और डॉ. मनमोहन सिंह आसानी से मान गए कि स्पेक्ट्रम का मूल्य निर्धारण मन्त्री समूह के अधिकार क्षेत्र से बाहर रहना चाहिए क्योंकि इस बारे में डीएमके से समझौता हुआ है। इसका देश को बहुत नुकसान उठाना पड़ा। अब गम्भीर आरोप लग रहे हैं कि एक खास मोबाइल कम्पनी की 74 प्रतिशत इिक्वटी जब एक विदेशी कम्पनी ने खरीद ली तो उसे फायदा पहुंचाया गया और तत्पश्चात् यह पैसा तथाकथित रूप से एक सहायक कम्पनी के माध्यम से श्री मारन के परिवार के बिजनेस में निवेश किया गया। हितों के स्पष्ट टकराव तथा अधिकार के दुरूपयोग के अलावा यह स्पष्ट था कि सरकारी निर्णयों की बिक्री हो रही थी। जाहिर है, उनकी भूमिका की भी जांच होनी चाहिए।
हमें उम्मीद है कि संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी इस घोटाले की तह तक जाएगी और देषियों को सजा मिलेगी। गठबन्धन राजनीति की मजबूरियों को भ्रष्ट लोगों का गठबन्धन नहीं बना देना चाहिए। भाजपा की यह मांग है कि धोखाधड़ी और भ्रष्टाचार के ऐसे गम्भीर मामले का जिम्मा यूपीए के सिर्फ एक सहयोगी (डीएमके) के ऊपर नहीं डाला जा सकता। सरकार में शीर्ष और वरिष्ठ पदों पर बैठे ऐसे लोग हैं जो इस लूट में शामिल रहे हैं। जाहिर है, उनकी भूमिका की भी जांच होनी चाहिए और जांच एजेंसी को पूरी छूट दी जानी चाहिए।

राष्ट्रमण्डल खेलों में आम जनता के धन की लूट


किसी भी अन्तर्राष्ट्रीय खेल का आयोजन उपलब्धि और उत्सव का मौका होता है। हांलाकि, कुछ महीने पहले दिलली में आयोजि राष्ट्रमण्डल खेलों में हमारे खिलाड़ियों ने देश को गौरवािन्वत किया, लेकिन बड़े पैमाने पर हुए भ्रष्टाचार से देश को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर शमÊन्दगी और नाराजगी झेलनी पड़ी। भाजपा ने खासतौर पर हमारे राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री नितिन गडकरी ने राष्ट्रमण्डल खेलों में लूट को सराहनीय ढंग से तथ्यों और आकड़ों के साथ देशभर में उजागर किया है। आज, श्री सुरेश कलमाड़ी आयोजन समिति के अपने अनेक सहयोगियों के साथ जेल में हैं। लेकिन, मामला यहीं खत्म नहीं होता। वे इसके मोहरे मात्र हैं। प्रत्येक फाइल को कैबिनेट, कैबिनेट सब-कमीटी, मन्त्री समूह, सम्बन्धित मन्त्रालय, यय वित्त समिति, पीएमओ और अन्तत: प्रधानमन्त्री की मञ्जूरी मिली थी।
प्रधानमन्त्री ने श्री वी.के. शंगुलू की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया और घोषणा की कि इसकी रिपोर्ट पर कार्रवाई की जाएगी। पांचवी रिपोर्ट में इसकी पुन: पुष्टि हुई कि गम्भीर घपले हुए हैं, जिससे ठेकेदारों को अनुचित फायदा पहुंचा है और अपव्यय तथा सरकार को नुकसान हुआ है। रिपोर्ट में पाया गया है कि ठेके देने में गम्भीर अनियमितताएं हुई हैं क्योंकि शुरूआत से ही साजिश थी कि परियोजनाओं को पूरा करने में विलम्ब किया जाए, लागत बढ़ाई जाए और पैसा मांगा जाए और समय कम होने के कारण ऊंची लागत में ठेके दिए जाएं। समिति ने श्रीमती शीला दीक्षित की दिल्ली सरकार जिनके हाथ में सारी वित्तीय शक्तियां थीं, विभिé एजेंसियों जैसे डीडीए, सीपीडब्लयूडी इत्यादी, श्री सुरेश कलमाडी की अध्यक्षता वाली आयोजन समिति की कड़ी आलोचना की है। चाहे वह राष्ट्रमण्डल खेल गांव हो, यहां तक कि एयर कण्डीशनरों, कुÆसयों, टॉयलेट पेपर तक खरीद में बड़े पैमाने पर घपले हुए हैं।
इस रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि Þबीमारी अन्दर तक फैली है और इसे अपवाद नहीं माना जा सकता, जिसके लिए सिर्फ कनिष्ठ पदाधिकारी जिम्मेदार हैं। इसमें शामिल अधिकारियों की आगे और जांच के आधार पर पहचान की जानी चाहिए और उपयुक्त कार्रवाई की जानी चाहिए।ß समिति ने आगे कहा है, Þएक प्रकार की कुटिलता से काम किया गया और परियोजनाओें में अनुचित विलम्ब शायद जानबूझकर किया गया, जिससे कि दहशत का माहौल उत्पé हो तथा सभी सम्बन्धितों को लाभ पहुंचाया जा सके।ß
राष्ट्रमण्डल खेलों के आयोजन में करदाता के कुल पैसों का नुकसान लगभग 70,000 करोड़ रूपए है। यह सर्वविदित है कि वित्तीय अनुमोदनों में पीएमओ के कुछ अधिकारी शामिल थे। अब कार्रवाई करने की बजाए दिल्ली की मुख्यमन्त्री श्रीमती शली दीक्षित ने इस रिपोर्ट को खारिज कर दिया है और प्रधानमन्त्री पुन: चुप्पी साधे हुए हैं। जैसा कि शुंगलू समिति ने सिफारिश की है, भाजपा यह मांग करती है कि उच्च पदों पर आसीन उन सभी लोगों की पहचान की जाए, उनकी जांच हो तथा उन्हें पर्याप्त दण्ड दिया जाए। भाजपा की यह मांग है कि सीबीआई को दिल्ली सरकार और राष्ट्रमण्डल खेल घोटाले में मुख्यमन्त्री श्रीमती शीला दीक्षित की भूमिका की भी जांच करनी चाहिए। इसमें उनकी संलिप्तता भी स्पष्ट है।
केन्द्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) की संस्थागत गरीमा और नैतिकता से समझौता
यपीए सरकार ने केन्द्रीय सतर्कता आयोग के अध्यक्ष के रूप में पीजी थॉमस की नियुक्ति में नैतिकता की सभी सीमाओं को पार कर दिया। वे दागदार थे क्योंकि पामोलीन घोटाले से जुड़े मामलों में उन पर चार्जशीट की गई थी, जो केरल में एक कोर्ट के समक्ष लम्बित थी। जो समिति अनंशंसा करने वाली थी, उसमें प्रधानमन्त्री और गृहमन्त्री के अलावा लोकसभा में विपक्ष की नेता भी शामिल थीं। श्रीमती सुषमा स्वराज ने श्री थॉमस की नियुक्ति का विरोध किया क्योंकि वे भ्रष्टाचार के एक मामले में आरोपी थे। गृहमन्त्री ने गलत बयानी की कि वे दोषमुक्त हो चुके हैं। श्रीमती सुषमा स्वराज का यह अनुरोध कि नियुक्ति को एक दिन के लिए टाल दिया जाए और तथ्यों का पता लगाया जाए या किसी और नाम पर विचार किया जाए, नहीं माना गया। प्रधानमन्त्री और गृहमन्त्री दोनों ने जबर्दस्ती श्री थॉमस की नियुक्ति कर दी। यहां यह उल्लेखनीय है कि पहले दूरसंचार सचिव के रूप में उन्होंने 2जी लाइसेंस देने के बारे में सीएजी की ऑडिट का यह कह कर विरोध किया थ्ज्ञा कि यह एक नीतिगत मामला है और इसका ऑडिट नहीं हो सकता। उसके बाद जो हुआ वह सबको पता है।
सीवीसी एक नैतिक गरिमायुक्त संस्था है। उनकी नियुक्ति को चुनौती देने वाली याचिका पर विचार करते समय उच्चतम न्यायालय ने पाया कि क्व्च्ज् की 2000 से 2004 के बीच की कई नोटिंग, जिसमें श्री थॉमस के विरूद्ध विभागीय कार्रवाई शुरू करने की अनुशंसा की गई थी, चयन आयोग की जानकारी में नहीं लाई गई। कोर्ट ने कहा कि जब सीवीसी जैसी किसी संस्था की नैतिक गरिमा का प्रश्न हो तब जनहित को सर्वोपरि रखा जाना चाहिए और वैयक्तिक नैतिकता और गरिमा का Þनिश्चय ही संस्थागत की नैतिकता गरिमा से सम्बन्ध है।ß तदनुसार, कोर्ट ने कहा कि इस प्रक्रिया में पारदर्शिता का पालन नहीं किया गया तथा यदि किसी सदस्य का विरोध है और बहुमत उसे अस्वीकार करता है तो उसे अवश्य ही इसका कारण बताना चाहिए।
एक प्रधानमन्त्री के रूप में और चयन समिति के अध्यक्ष के रूप में एक दागी अधिकारी की सीवीसी के रूप में नियुक्ति थोपने के लिए डॉ. मनमोहन सिंह पूरी तरह जिम्मेवार हैं। उन्होंने अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि आखिर उन्होंने श्री थॉमस के विरूद्ध नेता प्रतिपक्ष श्रीमती सुषमा स्वराज की एक वैद्य आपित्त को दरकिनार क्यों कियार्षोर्षो
आदर्श कोऑपरेटिव सोसाइटी घोटाला
यह भी भ्रष्टाचार का एक कॉपीबुक मामला था। आदर्श कोऑपरेटिव सोसाइटी को रक्षा मन्त्रालय के नियन्त्रण वाली जमीन कारगिल के नायकों और उनकी विधवाओं के लिए फ्लैट बनाने हेतु मुम्बई के एक महंगे इलाके में दी गई थी। लेकिन, घपलेबाजी और धोखाधड़ी के जरिए इसे नौकरशाहों और राजनीतिज्ञों ने हड़प लिया। जब चव्हाण राजस्व मन्त्री और विलासराव देशमुख मुख्यमन्त्री थे तो सभी नियमों से छेड़छाड़ की गई। यहां तक कि वर्तमान केन्द्रीय मन्त्री और भूतपूर्व मुख्यमन्त्री सुशील कुमार शिन्दे की भूमिका भी सन्देह के घेरे में है। इसके लाभाÆथयों में कांग्रेस के मुख्यमन्त्रियों सहित बड़े नेताओं के अनेक रिश्तेदार शिामल हैं।
यदि कारगिल के नायकों की याद के साथ हुए ऐसे अपमान पर देशभर में क्षोभ उत्पé न हुआ होता तो शायद इसकी भी जांच मुश्किल होती। हालांकि, अभी भी सन्देह कायम है क्योंकि रक्षा विभाग द्वारा प्लाट के स्वामित्व सम्बन्धी फाइल गायब हो गई है। यहां तक कि पर्यावरणीय स्वी—ति वाली फाइल केन्द्रीय पर्यावरण मन्त्रालय से गायब हो चुकी है।
एण्ट्रिक्स कॉरपोरेशन लिमिटेड – देवास मल्टीमीडिया घोटाला
एक और घोटाला अन्तरिक्ष विभाग में प्रकाश में आया है, जो सीधे प्रधानमन्त्री के अधीन है। 2005 में एण्ट्रिक्स कारपोरेशन लि., इसरो की वाणििज्यक शाखा, ने देवास मल्टीमीडिया के लिए दो सैटेलाइट लांच किए और बगैर निलामी या उपयुक्त मूल्य निर्धारण किए सिर्फ 1000 करोड़ रूपए में मोबाइल टेलीफोनी सहित दुर्लभ एस-बैण्ड के बीस वषो± तक 70 डभ्Z के असीमित उपयोग का बड़ा फायदा दिया। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि पिछले साल सरकार ने 3जी मोबाइल सेवाओं हेतु इसी तरह की वायु तरंगों हेतु 15 डभ्Z की नीलामी से 67719 करोड़ रूपए कमाए तथा 38000 करोड़ रूपए की उगाही ब्राडबैण्ड वायरलेस एक्सेस सÆवसेज की नीलामी से हुई। इसमें न तो सरकार का कोई अनुमोदन लिया गया और न इसकी निगरानी हुई। इस सौदे के पांच वर्ष बाद इसे निरस्त करने का निर्णय जुलाई, 2010 में लिया गया। राष्ट्रीय खजाने को हुए इस नुकसान की देशव्यापी प्रतिक्रिया के बाद, इस सौदे को अन्तत: फरवरी, 2011 में रद्द किया गया। इसके पूर्व देवास मल्टीमीडिया के अधिकारी सरकार के तथा पीएमओ के उच्चाधिकारियों के सम्पर्क में थे।
अन्तरिक्ष विभाग सीधे प्रधानमन्त्री के अधीन है। जब इस भारी घपले के बारे में उनसे पूछा गया तो उनका जवाब वही था कि उन्हें इसकी जानकारी नहीं थी। यह बात विचित्र लगती है कि जब कभी किसी अनियमितता के बारे में उनसे पूछा जाता है तो वे अनभिज्ञता का रोना रोते हैं। डॉ. मनमोहन सिंह से हम ये पूछना चाहेंगे कि क्या आप कोई निगरानी नहीं करते अथवा जब कभी कोई भ्रष्टाचार होता है तो उससे आप मुंह फेर लेते हैं।
विदेशी बैंकों में जमा भारतीय नागरिकों का काला धन
भारतीय नागरिकों द्वारा अपराध और भ्रष्टाचार से उपÆजत काले धन को विदेशी बैंकों में जमा करने के सवाल पर सरकार की उदासीनता से लेकर देशभर में गहरी नाराजगी है। पहले जब लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा संसदीय दल के नेता श्री लाल—ष्ण आडवाणी ने यह मुद्दा उठाया था तो कांग्रेस ने इसे चुनावी स्टण्ट बताया था। बाद में कहा गया कि सत्ता में आने के बाद सार्थक कदम उठाए जाएंगे। इस मुद्दे से जुड़े एक पीआईएल में जिस प्रकार उच्चतम न्यायालय ने प्रतिकूल टिप्पणियां की है उससे सरकार की नीयत का पता लगता है। हम सिर्फ बहुविषयी समिति द्वारा अध्ययन और पांच बिन्दुओं वाली रणनीति की बातें सुन रहें हैं। ये सिर्फ दिखावा है और इसमें ऐसा कोई इरादा नहीं कि एक समय-सीमा के भीतर कालेधन का पता लगाया जाए और देशवासियों को बताया जाए। अमेरिका दोहरी कर नीति के बावजूद टैक्स चोरों के नाम जाहिर करने के लिए स्वीस अधिकारियों को मजबूर कर सकता है। भारत अब कोई तीसरी दुनिया की अर्थव्यवस्था नहीं बल्कि एक उभरती हुई आÆथक महाशक्ति है, जिसकी जी-20 राष्ट्रों में अच्छी दखल है। इसका इस्तेमाल आखिर सरकार क्योंकि नहीं करती। भ्रष्टाचार के विरूद्ध संयुक्त राष्ट्र सन्धि जो दिसम्बर 2005 में प्रभावी हुई थी, उसका अनुसमर्थन भारत ने अभी पिछले सप्ताह ही किया है। यह वैश्विक भ्रष्टाचार से लड़ने का एक व्यापक उपकरण है। यदि उच्चतम न्यायालय की निगरानी नहीं होती तो प्रवर्तन निदेशालय और अन्य एजेंसियों को हसन अली की निष्पक्ष जांच नहीं करने दी जाती जो लगभग 76,000 करोड़ रूपए का कर चोर है तथा जिसके कई विदेशी खाते हैं। इसका कारण स्पष्ट है, आरोपित व्यक्तियों की जांच के दौरान कुछ बड़े कांगेसी नेताओं के विरूद्ध भी आरोप लगे हैं।
यूपीए सरकार में घोटाले एक के बाद एक चौंकाने वाली नियमितता से प्रकट होते रहते हैं। अनाज और खाद्य के आयात निर्यात में जितनी भयंकर अनियमितताएं हुई हैं उसकी जानकारी सार्वजनिक है। एफ.सी.आई. के गोदामों में रखा लाखों टन अनाज सड़ गया और गरीब जनता भूख से कराहती रही, ये भी देश जानता है। अब कोयला के ब्लॉक के आबण्टन में भी भयंकर अनिमतताओं की िशकायत सामने आ रही है, जो निजी हाथों में दिए गए हैं। ये आबण्टन उस समय के भी हैं जब डॉ मनमोहन सिंह स्वंय कोयला मन्त्री थे। ऐसे महंगे कोल ब्लॉक गैर सार्वजनिक निजी कम्पनियों और सार्वजनिक प्रतिश्ठानों को आबण्टित किए गए। जिनका काम सवालों के घेरे में था और जिनकी योजनाएं सिर्फ कागज पर थीं।
उपरोक्त उदाहरण यूपीए-1 तथा यूपीए-2 सरकारों की भ्रष्टाचार की सिर्फ मिसालें हैं। नि:सन्देह आजादी के बाद से आज तक किसी भी सरकार पर भ्रष्टाचार के इतने आरोप नहीं लगे। देश ने देखा कि किस तरह शर्मनाम ढंग से रिश्वतखोरी के जरिए डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार ने लोकसभा में विश्वास प्रस्ताव जीता। आज तक भी दोषियों के विरूद्ध कोई दण्डात्मक कार्रवाई नहीं हुई है। समूची यूपीए सरकार ओटैवियो क्वात्रोच्ची को बचाने में जुटी हुई थी, सिर्फ इसलिए कि गान्धी परिवार से उनकी करीबी थी। सभी को पता है कि कैसे एक सरकारी विधि अधिकारी की गलतबयानी के आधार पर बोफोर्स घोटाले के रिश्वत का पैसा उसके लन्दन बैंक खाते से मुक्त किया गया था। इन घोटालों के कारण देश की जो तबाही हुई है, इसकी जिम्मेवारी से श्रीमती सोनिया गान्धी और डॉ. मनमोहन सिंह बच नहीं सकते। उन्हें जवाब देना होगा। देश को अपने निष्कर्ष निकालने का हक है।
भाजपा इन घपलों और घोटालों को उजागर करती रहेगी और इनके खिलाफ लड़ती रहेगी। भाजपा की मांग है कि अपराध और भ्रष्टाचार से अÆजत भारतीय नागरिको का समस्त काला धन जो विदेशी बैंकों में जमा है, एक निश्चित समय-सीमा के भीतर भारत लाया जानाचाहिए और पर्याप्त कार्रवाई की जानी चाहिए। यह भी जरूरी है कि यूपीए सरकार के विभिé घोटालों में शामिल सभी बड़े-बड़े लोगों पर कोर्रवाई होनी चाहिए।
जिस शर्मनाक तरीके से डॉ मनमोहन सिंह की सरकार ने सार्वजनिक सम्पत्ति और कर दाताओं के पैसे के लूट की छूट दी उस आधार पर उसने शासन करने के सारे नैतिक आधार को खो दिया है। इस कारण भारत और भारतीयों का सिर शर्म से झुक गया है और पूरी दुनिया में देश की बदनामी हुई है।
भारतीय जनता पार्टी देश की जनता का आह्वान करती है कि वह यूपीए सरकार और शासन के दौरान जितने आयोजित और प्रायोजित भ्रष्टाचार हुए हैं उनके खिलाफ निर्णायक संघर्ष के लिए तैयार हो क्योंकि यूपीए का भ्रष्टाचार देश की राजनीति और शासन व्यवस्था को अन्दर से कमजोर और खोखला कर रहा है। जनमत का दबाव इसलिए भी आवश्यक है कि जो दोषी हैं( भले ही उनका कद अथवा पद कुछ भी हो के खिलाफ कार्यवाई हो सके और उन्हें दण्ड मिले।



































मुक्तकंठ के लिए

प्रेस क्लब- अनामी शरण बबल


1 तुस्सी ग्रेट हो बिज्जी,.वेरी वेरी ग्रेट हो विजयदान देथा....

राजस्थान के बोरूंदा गांव में आज से 86 साल पहले लगभग एक निरक्षर परिवार में पैदा हुए विजयदान देथा उर्फ बिज्जी को भले ही साहित्य का नोबल पुरस्कार नहीं मिला हो, मगर बिज्जी ने यह साबित कर दिखाया कि काम और लेखन की खुश्बू को फैलने से कोई रोक नहीं सकता है। हिन्दी के चंद मठाधीशों द्वारा अपने चमच्चों को ही साहित्य का पुरोधा साबित करने के इस गंदे खेल का ही नतीजा है कि बिज्जी को कभी ज्ञानपीठ पुरस्कार के लायक भी नहीं समझा गया, उसी बिज्जी को नोबल समिति ने साहित्य के नोबल के लिेए नामांकित करके ही एक तरह से नोबल प्रदान कर दिया। लोककथा को एक कथा (आधुनिक संदर्भ) की तरह विकसित करके पाठकों लोगों (आलोचकों को नहीं) और पुस्तक प्रेमियों को मुग्ध करके हमेशा के लिए अपना मुरीद बना देने वाले बिज्जी की दर्जन भर कहानियों पर रिकार्डतोड़ सफल फिल्में बन चुकी है। लगभग एक हजार (लोककथाओं को) कहानी की तरह लिखने वाले बिज्जी से ज्यादा मोहक लेखक शायद अभी दूसरा नहीं है। हजारों लाखों को मुग्ध करने वाले बिज्जी को कभी ज्ञानपीठ पुरस्कार या और कोई सम्मानित पुरस्कार के लायक माना ही नहीं गया। हमेशा उनके लेखन की मौलिकता पर हमारे आलोचकों ने कभी गौर नहीं फरमाया। मेरे साथ एक इंटरव्यू में बिज्जी ने माफियाओं पर जोरदार हमला किया। तब राष्ट्रीय सहारा के दफ्तर में संचेतना के लेखक महीप सिंह मुझे खोजते हुए आए और बिज्जी के इंटरव्यू को आधार बनाकर दो किस्तों में (क्य साहित्य में माफिया सरगरम है? ) दर्जनों साहित्यकारों की टिप्पणी छापी। तब बिज्जी ने मुझे बताया कि संचेतना के बाद इनकी चेतना को खराब करने के लिए कितनों ने फोन पर बिज्जी को धमकाया। मेरे एक पत्र को ही अपनी एक किताब की भूमिका बना देने वाले बिज्जी की सबसे बड़ी ताकत उनका अपने पाठकों का प्यार और आत्मीयता है। बिज्जी की बेटी द्वारा दर्जनों कहानियों को कूड़ा जानकर जलाने की घटना भी काफी रोचक है। पूछे जाने पर बड़ी मासूमियत से बेटी ने कहा बप्पा एक भी पन्ना कोरा नहीं था सब भरे थे सो जला दी। इस घटना को याद करके आज भी अपना सिर धुनने वाले बिज्जी को भले ही नोबल ना मिला हो, मगर नोबल पुरस्कार के लिए नामांकित किया जाना ही नोबल मिलने से ज्यादा बड़ा सम्मान है, क्योंकि हमारे तथाकथित महान आलोचक और समीक्षक शायद अब बिज्जी को बेभाव नहीं कर पाएंगे। रियली बिज्जी दा तुस्सी रियली ग्रेट हो।








2 महिला लेखन पर एक अधूरा अंक

द संडे इंडियन द्वारा 21 सदी की 111 लेखिकाओं पर एक खास अंक प्रकाशित किया गया। हालांकि अंक को एक सार्थक प्रयास तो कहना ही होगा, क्योंकि एक साथ बड़े पैमाने पर लेखिकाओं को लेखन, वरिष्ठता और योगदान के आधार पर रेटिंग दी गई। अलग अलग ग्रेड में शामिल लेखिकाओं पर कोई टिप्पणी करके इस प्रयास के महत्व को कम करना बेमानी होगा। मगर, श्रेष्ठ 21 लेखिकाओं में कमसे पांच लेखिकाओं का चयन बहुतों को रास नहीं आया होगा। कमसे कम रमणिका गुप्ता, डा. सरोजनी प्रीतम, सुषमा बेदी के नाम पर तो शायद हर पाठक को आपति हो सकती है। रमणिका और बेदी को तो मैं चर्चा के काबिल ही नहीं मानता। जहां तक बात रही अनामिका और गगन गिल की तो दोनों लेखिकाएं अभी इस लायक क्या लिखा है कि इन्हें श्रेष्ठ 21 लेखिकाओं में रखा जाए ? कमसे कम 10 लेखिकाए ऐसी है जो नाम काम ख्याति और योगदान के स्तर पर इन पांचों पर काफी भारी पड़ती है। मगर 111 नामों के चयन में इस तरह की त्रुटियों का हो जाना या रह जाना एकदम स्वाभाविक है। यहां पर इसकी निंदा करने की बजाय संपादन मंडल को बधाई देनी चाहिए, क्योंकि नियत में कोई खोट ना होकर पूरी ईमानदारी थी। कुछ नया करने की ललक थी। महिला लेखन को एक बड़े फलक पर लाने की उत्कंठा थी, जो हर पन्ने पर झलकती है। यही वजह है कि लेखिकाओं की पूरी फौज को एक बारात की तरह एक मंड़प में सजाकर रखने में पत्रिका और इसके संपादक को सफलता मिली, मगर यह पूरा अंक और आयोजन अधूरा सा ही है। जिसे और सार्थक बनाने की जुगत में और बदतर बना दिया।


3 ये किताबें किसके लिए ?

दिल्ली यमुनापार .के एक प्रकाशक नें मेरे संपादन में प्रेमचंद की पत्रकारिता नामक एक किताब को तीन खंड़ों में प्रकाशित किया है। करीब 1200 पेजी इस किताब का मूल्य रखा है तीन हजार रूपए। जाहिर है कि मैं क्या शायद ही कोई पाठक इसे खरीदकर पढ़ने का साहस कर सकता है। मेरी तो खरीदकर पढ़ने की हिम्मत ही नहीं है। प्रकाशक राघव से मैने पूछा कि यार इसे किसके लिए छापे हो? मेरे सवाल पर वो खिलखिला पड़ा और अपनी मजबूरियां गिनाते हुए खरीद के पीछे के करप्शन का हवाला देकर उसने कहा कि मैं आपको 600 रूपए में तीनों खंड उपलब्ध करवा दूंगा। इसका अभी लोकार्पण नहीं करवाया है, और प्रकाशक को भी इसमें कोई रूचि नहीं है। बेवजह के झमेले में 8-10 प्रतियां फ्री में बांटनी होगी। फिर मेरा मन भी विमोचन कराने या प्रचार का नहीं हो रहा है कि जब मेरी बर्षो की मेहनत ही अगर मूषकों के लिए थी तो फिर जनता के बीच रिलीज की औपचारिकता क्यों ? वाकई धन्य हो प्रकाशक और तेरी लीला अपरम्पार। लेखक सब बेकार बेहाल और कंगाल जबकि मूषको को ताजा मोटा बनाकर हे प्रकाशक तू बना रहे हमेशा मालामाल मालामाल।



4. राजेन्द्र यादव पर पांखी का हाथी अंक

आमतौर साहित्यिक पत्रिकाओं के मालिक संपादक लोग जब कभी विशेषांक निकालते हैं तो उसका दाम इतना रख देते है कि बड़े मनोरथ से प्रस्तुत अंक की महत्ता ही चौपट दो जाती है। किसी पत्रिका को कितना मोटा माटा निकालना है, यह पूरी तरह प्रबंधकों पर निर्भर करता है। मगर पाठकों की जेब का ख्याल किए बगैर ज्यादा दाम रखना तो उन पाठकों के साथ बेईमानी है जो एक एक पैसा जोड़कर किसी पत्रिका को खरीदते हैं। पांखी का महाविशेषांक 350 पन्नों(इसे 250 पेजी बनाकर ज्यादा पठनीय बनाया जा सकता था) का है। जिसमें हंस के महामहिम संपादक राजेन्द्र यादव को महिमा मंड़ित किया गया है। संपादक प्रेम भारद्वाज ने यादव को मल्टीएंगल से देखने और पाठकों को दिखाने की कोशिश की है। मगर भारी भरकम अंक में यादव के लेखन को नजरअंदाज कर दिया गया। संपादक महोदय यादव पर लेखों और संस्मरणों की झड़ी लगाने की बजाय यादव के 10-12 विवादास्पद संपादकीय, कुछ विवादास्पद आलेख और कालजयी कहानियों को पाठकों के लिए प्रस्तुत करते तो इस हाथी अंक की गरिमा कुछ और बढ़ जाती, मगर यादव की आवारागर्दी, चूतियापा, लफंगई, हरामखोरी, नारीप्रेम बेवफाई, और हरामखोरी को ही हर तरह से ग्लैमराईज्ड करके यादव की यह कैसी इमेज (?) सामने परोस दी गई ?
यही वजह है कि 350 पन्नों के इस महा अंक में रचनाकार संपादक राजेन्द्र यादव की बजाय एक दूसरा लफंगा यादव (आ टपका) है। जिसके बारे में करीब वाले लोग ही जानते थे। फिर आप किसी अंक को जब बाजार में देते हैं तो यह ख्याल रखना भी परम आवश्यक हो जाता है कि उसका कालजयी मूल्याकंन हो, ना कि 70 रूपए में खरीदकर इसे पढ़ने के बाद कूड़े में फेंकना ही उपयोगी लगे।


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तुस्सी ग्रेट हो गुनाहों के (देवता नहीं) पुतला उर्फ राजेन्द्र यादव..

हिन्दी के कथित विवाद पसंद और अंग्रेजी के अश्लील प्रधान लेखक खुशवंत सिंह से तुलना करने पर भीतर से खुश होने वाले परम आदरणीय प्रात: स्मरणीय हिन्दी के महामहिम संपादक राजेन्द्र यादव जी तुस्सी ग्रेट हो? आपसे इस 45 साला उम्र में 5-6 दफा मिलने और दो बार चाय पीने का संयोग मिला है। इस कारण यह मेरा दावा सरासर गलत होगा कि आप मुझे भी जानते होंगे, पर मैं आपको जानता हूं। आपकी साफगोई का तो मैं भी कायल (एक बार तो घायल भी) हूं। तमाम शिकायतों के बाद भी आपके प्रति मेरे मन में कोई खटास नहीं है। सबसे पहले तो आपने हंस को लगातार 25 साल चलाकर वह काम कर दिखाया है जिसकी तुलना केवल सचिन तेंदुलकर के 99 शतक (सौंवे शतक के लिए फिलहाल मास्टर ब्लास्टर तरस रहे हैं) से ही की जा सकती है। काश. अगर मेरा वश चलता तो यकीन मानिए यादव जी अब तक मैं आपको भारत रत्न की उपाधि से जरूर नवाज चुका होता( यह बात मैं अपने दिल की कह रहा हूं) । हिन्दुस्तान में हिन्दी और खासकर साहित्य के लिए किए गए इस अथक प्रयास को कभी नकारा नहीं जा सकता। सच तो यह भी है यादव जी कि हंस ने ही आपको नवजीवन भी दिया है वरन सोचों कि अपने मित्रों के साथ इस समय तक आप परलोक धाम ( नर्क सा स्वर्ग की कल्पना आप खुद करें) में यमराज से लेकर लक्ष्मी, सरस्वती समेत पार्वती के रंग रूप औप यौवन के खिलाफ साजिश कर रहे होते। मगर धन्य हो यादव जी कि प्रेमचंद के रिश्तेदारों से हंस को लेकर अपनी नाक रगड़ने की बजाय हंसराज कालेज की वार्षिक पत्रिका हंस को ही बड़ी चालाकी से हथियाकर उसे शातिराना तरीके से प्रेमचंद का हंस बना दिया। प्रेमचंद की विरासत थामने का गरूर और उसी परम्परा को आगे ले जाने का अभिमान तो आपके काले काले चश्मे वाले गोरे गोरे मुखड़े पर चमकता और दमकता भी है। हंस को 25 साला बनाकर आपने साबित कर दिया कि आप किस मिट्टी के बने हुए हो। फिर अब किसी खुशवंत से अपनी तुलना पर आपको गौरवान्वित होने की बजाय अब आपको शर्मसार होना चाहिए। सार्थकता के मामले में आप तो खुशवंत के भी बाप (माफ करना यादव जी खुशवंत सिंह का बाप सर शोभा सिंह तो देशद्रोही और गद्दार था, लिहाजा मैं तो बतौर उदाहरण आपके लिए केवल इस मुहाबरे का प्रयोग कर रहा हूं) होकर कर कोसों आगे निकल गए है। देश में महंगाई चाहे जितनी हो जाए, मगर सलाह हमेशा फ्री में ही मिलता और बिकता है। एक सलाह मेरी तरफ से भी हज्म करे कि जब हंस को 25 साल का जवान बना ही दिया है तो उसको दीर्घायु बनाने यानी 50 साला जीवित रखने पर भी कुछ विचार करे। मुझे पता है कि यमराज भले ही आपके दोस्त (होंगे) हैं पर वे भी आपकी तरह कर्तव्यनिष्ठ हैं, लिहाजा थोड़ी बहुत बेईमानी के बाद भी शायद ही वे आपको शतायु होने का सौभाग्य प्रदान करे। भगवान आपको लंबी आयु और जवां मन दुरूस्त तन दे। लिहाजा यादव के बाद भी हंस दीवित रहे इस पर अब आपको ज्यादा ध्यान देना चाहिए। हालांकि अंत में बता दूं कि हंस में छपी एक कहानी कोरा कैनवस के उपर आपने संपादकीय में विदेशी पांच सात लेखकों का उदाहरण देते हुए बेमेल शादियों की निंदा की थी।, मगर ठीक अपनी नाक के नीचे रह रहे कुछ बुढ़े दोस्तों (अब दिवगंत भी हो गए) की बेमेल शादियों को आप बड़ी शातिराना अंदाज में भूल गए। अपनों को बचाकर दूसरों को गाली देने की शर्मनाक हरकतों को बंद करके सबको एक ही चश्मे से देखना बेहतर होगा। वैसे भी आपको गाली देने वालों की कोई कमी नहीं है, मगर लंबी पारी के लिेए ईमानदारी तो झलकनी चाहिए। अंत में इसी कामना के साथ कबाड़खाने में घुट रहे हंस और प्रेमचंद को गरिमामय बनाने में आपके योगदान को कभी भी नकारा नहीं जा सकता।














बुंदेलखंड बेबस और बदहाल है




बुंदेलखंड के चित्रकूट मंडल की धरती का दर्द बहुत ही गहरा है. हर ओर यहां सिर्फ और सिर्फ सिसकियां ही सुनाई देती हैं. यहां प्रकृति रो रही है, लोग रो रहे हैं, पूरा परिवेश रो रहा है. उत्तर प्रदेश के सात जिलों में फैले बुंदेलखंड में लोग आज भी जल, जंगल और जमीन के लिए तड़प रहे हैं. महिलाओं, दलितों और वंचितों की जिंदगी तो बस बोझ बनकर रह गई है. रोजी-रोटी और पानी की समस्या इतनी विकट है कि हर साल केवल इसी वजह से हजारों लोगों को पलायन के लिए मजबूर होना पड़ता है. सामंतवाद यहां अभी भी जिंदा है. गरीब, बेबस और लाचार लोगों के साथ यहां कानून भी सिसकियां भरता नजर आता है.
समूचे बुंदेलखंड में खुलेआम लूट मची हुई है. जंगलों में धड़ल्ले से वृक्ष काटे जा रहे हैं. पहाड़ के पत्थरों को लोग लूट रहे हैं. उद्योग-धंधों की स्थिति चौपट है. यहां औद्योगिक इकाइयों के नाम पर अगर कुछ नजर आता है तो केवल स्टोन क्रशर की मिलें.
धनबल और सत्ताबल के गठजो़ड ने बुंदेलखंड का सत्यानाश करके रख दिया है. वनीकरण के नाम पर बस यूकेलिप्टस अथवा विलायती बबूल का रोपण हुआ है. जड़ी-बूटियों और अन्य वन्य उपजों का क्षरण हुआ है. यहां का प्राकृतिक असंतुलन बढ़ गया है. रासायनिक खादों के बेहिसाब प्रयोग से खेतों की उर्वरता नष्ट होती जा रही है. अधिक पानी की जरूरत वाली फसलों के उत्पादन पर जोर देने और प्रशासनिक निष्क्रियता की वजह से धरती बंजर होती जा रही है. चित्रकूट मंडल के पाठा क्षेत्र में पानी के लिए त्राहि-त्राहि मची हुई है, जबकि भूगर्भ में 12 किलोमीटर चौड़ा और 110 किलोमीटर लंबा नदी का स्रोत है. अगर कोशिश की जाए तो बुंदेलखंड में पानी की समस्या का निदान असंभव नहीं है. यह गौर करने वाली बात है कि पानी उपलब्ध कराने के मद में बुंदेलखंड में सालाना साठ से सत्तर करोड़ रुपये खर्च किए जाते हैं.
भौगोलिक दृष्टि से बुंदेलखंड प्रदेश के कुल क्षेत्रफल का आठवां हिस्सा खुद में समेटे हुए है. झांसी और चित्रकूट मंडलों में विभाजित बुंदेलखंड की आबादी प्रदेश की कुल जनसंख्या का पांच प्रतिशत है. पूरा का पूरा अंचल भूमि उपयोग व वितरण, कार्यशक्ति, जल व सिंचाई, खाद्यान्न उत्पादन और रोजगार के अवसर के मामले में हाशिए पर है. मानवाधिकार हनन की घटनाएं तो यहां आम बात हैं. बुंदेलखंड प्राकृतिक विपदा का हमेशा शिकार होता रहा है. अनावृष्टि की वजह से प्रत्येक दो-तीन वर्ष के बाद बुंदेलखंड का इलाका सूखे की चपेट में आ जाता है.
कभी खरीफ की तो कभी रबी की और कभी-कभी तो दोनों फसलें चौपट हो जाती हैं. यहां की लगभग सोलह प्रतिशत जमीनें या तो बंजर हैं अथवा गैर कृषि कार्यों में प्रयुक्त हैं. शिक्षा यहां बदहाली का शिकार है. बेसिक एवं हायर सेकेंडरी स्कूलों की स्थिति बदतर है. यहां की चालीस प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे की जिंदगी जी रही है. चित्रकूट मंडल में हालात और भी बदतर हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं, गरीबों और वंचितों की हालत गुलामों जैसी है. खनिज संपदाओं पर सामंतों ने क़ब्जा कर रखा है. वन और राजस्व विभाग के लोग जमीन को अपने कब्जे में बताकर आदिवासियों को वहां से खदेड़ देते हैं.
हद तो यह है कि ग्रामीण विकास योजना मंत्री इसी इलाके के हैं, फिर भी यहां के गांवों की दशा अब तक सुधर नहीं पाई है. गरीबी, असमानता, बेरोजगारी और पलायन जैसी विकराल समस्याएं यहां आज भी बरकरार हैं. ग्रामीणों को आज तक बुनियादी सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हो पाई हैं. मजदूरों की मजदूरी हड़पना सत्ता के दलालों की नीति बन गई है. महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना बेरोजगारी की समस्या का हल कर पाने में नाकाम रही है. रोजगार के अभाव में लाखों लोग अपना गांव छोड़कर छह से आठ माह के लिए पलायन कर जाते हैं. सामाजिक सुरक्षा योजना के अंतर्गत गरीबों को मिलने वाला अनाज खुलेआम बाजार में बेच दिया जाता है.
ग्रामीणों की गर्दन कर्ज के फंदे में लटकी हुई है. गरीबी रेखा से नीचे के लोगों को जन वितरण प्रणाली की दुकानों से राशन नहीं मिल पाता है. विकास कार्यों में कमीशन, लेवी और चोरी आम बात है. कई ठेकेदार बताते हैं कि किसी भी निर्माण कार्य में उन्हें अफसरों को 35 प्रतिशत तक कमीशन देना पड़ता है. ग्रामीण विकास कार्य ठोस नीति और जन भागीदारी के अभाव में विफल साबित हुए हैं. अभी तक ऐसी कोई नीति नहीं बनाई जा सकी है, जो ग्रामीण समुदाय के लिए संरचनात्मक ढांचा उपलब्ध करा सके. सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद सूचनाएं आम जनता तक नहीं पहुंच पाती हैं. असंवेदनशील अफसरों की सामंती मानसिकता के कारण कई दिशा-निर्देशों का पालन नहीं किया जाता. गरीब आदिवासी अपने पेट की आग शांत करने के लिए सामा घास की रोटी खाने को मजबूर हैं. प्रशासन भूख से हुई मौतों के मामले सामने नहीं आने देता, क्योंकि उसे अपनी कलई खुलने का डर सताता है.
पिछले एक दशक के दौरान चित्रकूट मंडल के बांदा, महोबा, हमीरपुर और चित्रकूट आदि जिलों में वर्षा औसत होती रही है. बेतवा, केन, धसान, सहजाद और मंदाकिनी जैसी नदियों के बावजूद यहां सिंचाई सुविधाओं का समुचित विकास नहीं किया गया, जिसके चलते यह क्षेत्र लगातार सूखे का शिकार होता रहा है. समाजसेवा की आड़ में अनेक स्वयंसेवी संस्थाएं बुंदेलखंड को चारागाह के रूप में इस्तेमाल कर रही हैं. उन्हें इस क्षेत्र के गरीबों से कोई मतलब नहीं है. इन स्वयंसेवी संस्थाओं ने ऐसा एक भी काम नहीं किया है, जिसका उल्लेख किया जा सके. फर्जी सम्मेलन और गोष्ठियों के बल पर वे मालामाल हो रही हैं. चित्रकूट जिले के मानिकपुर और मऊ ब्लॉक में शुरुआती दौर में कुछ स्वयंसेवी संगठनों ने थोड़े-बहुत काम किए. चित्रकूट जिले की आबादी लगभग छह लाख है, जिसमें एक लाख साठ हजार लोग अनुसूचित जाति और जनजाति के हैं. मऊ और मानिकपुर में अनुसूचित जाति और जनजाति के तिहत्तर हजार लोग रहते हैं.
इन दोनों ब्लॉकों की कुल आबादी लगभग दो लाख चालीस हजार है. इस क्षेत्र में रहने वाले ज्यादातर कोल एवं सहरिया आदिवासी पहले अपनी भूमि के मालिक होते थे, लेकिन पिछली एक शताब्दी के दौरान शोषण के कारण वे अपनी ही जमीन पर बंधुआ मजदूर बनकर रह गए हैं. डेढ़ दशक पहले उत्तर प्रदेश डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (यूपी डेस्को) के सर्वेक्षण में बताया गया था कि पाटा के अनुसूचित जाति के 7336 परिवारों में से 2316 बंधुआ मजदूर थे. पूरे क्षेत्र में डाकुओं के गिरोह भी अर्से से सक्रिय हैं. ललितपुर के मड़ावरा में आदिवासी कुपोषण के शिकार हैं. सरकारी विद्यालयों में मिड डे मील योजना के तहत बच्चों को घटिया खाना दिया जा रहा है. पेंशन के लिए भी महिलाओं को भटकना पड़ रहा है. गरीबी रेखा के नीचे जीवन जी रहे परिवारों के पास राशनकार्ड तक नहीं हैं और न ही शासन-प्रशासन को इसकी फिक्र.











(दिल्ली सपेशल एक्सप्रेश के लिए )

पेज-4 आखिरी पेज पूरा

प्रेस क्लब- अनामी शरण बबल


राहुल की ताजपोशी की तैयारी शुरू

बस्स यूपी चुनाव तक इंतजार करने में क्या हर्ज है। कांग्रेस सुप्रीमों सोनिया गांधी की कैंसर के आपरेशन के साथ ही अपने ईमानदार पीएम (?) मन्नू जी के विदाई की तैयारी शुरू हो गई है। पार्टी के लिए कैंसर बन गए मनमोहन को अब सत्ता सुख से वंचित करने की पटकथा लिखी जा रही है। यूपीए मुखिया सोनिया गांधी के पास मनमोहन को विदा करने के सिवा अब और कोई चारा ही नहीं रह गया है। मनमोहन की दक्षता कार्यशैली और योग्यता से पूरा देश कायल (कम, घायल ज्यादा) है। उधर संगठन-संगठन-संगठन का राग अलाप रहे (अधेड़) युवराज से भी पर्दे के पीछे ज्यादातर लोग नाराज ( सामने की तो हिम्मत नहीं) है। ज्यादातरों का मानना है कि 2014 तक मन्नू साहब पार्टी और संगठन को इस लायक छोड़ेंगे ही नहीं कि उसको फिर से सत्ता के लायक देखा जा सके। विश्वस्तों के लगातार बढ़ते प्रेशर से अब मैडम भी मानने लगी है कि राहुल की ताजपोशी के सिवा और कोई रास्ता नहीं बचा है। संगठन के लोगों की माने तो बस्स रास्ता साफ करने की कवायद चालू है, और मन्नू के सिर पर (शासन में) कुछ चट्टान और पहाड़ को तोड़कर बाबू (बाबा) युवराज को कमसे कम 27-28 महीने के लिए पीएम की खानदानी कुर्सी (सीट) पर सुशोभित किया जा सके।




कांग्रेस, करप्शन, लोकायुक्त, और शीला

कांग्रेस चाहे लाख दलील दे, मगर करप्शन से इसे ना कोई परहेज है और नाही कोई दिक्कत है। लोकायुक्त की रपट पर कर्नाटक के बीजेपी मुख्यमंत्री को अपनी गद्दी गंवानी पड़ी। आमतौर पर सरकारी आदेशों को अपने ठोकर पर ऱखने के लिए कुख्यात यूपी सीएम बसपा सुप्रीमों बहम मायावती ने भी अपने दो दो मंत्रियों की लाल गाड़ी छीनकर सड़क पर ला दिया। लोकायुक्त की सिफारिश मानकर माया ने कानून के प्रति सम्मान दर्शाया है। हालांकि दो मंत्रियों के खिलाफ लोकायुक्त की जांच चल रही है और माया मंडल से लगता है कि दो और मंत्रियों की नौकरी बस्स जाने ही वाली है। माया दीदी का ऐन चुनाव से पहले अपने करप्ट मित्रों से पल्ला झाडने का यह कानूनी दांव औरों के लिए चेतावनी भी है कि जो माया से टकराएगा.......। मगर दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित इस मामले में सबों को परास्त कर दिया। अपने परम सहयोगी और सबसे निकटस्थ मंत्री राजकुमार चौहान के खिलाफ दिल्ली के लोकायुक्त ने सीधे राष्ट्रपति के पास सिफारिश भेजी। मगर काफी दिनों तक रायसिना हिल्स में धूल फांकने के बाद जब शीला के पास लोकायुक्त की सिफारिश पहुंची तो वे बड़ी चालाकी से अपने मंत्री के खिलाफ एक्शन लेने की बजाय लोकायुक्त के पत्र को सोनिया गांधी के पास भेज कर उन्हें अलग राम कहानी सुना दी। और लोकायुक्त की सिफारिश को कूडेदान में पार्टी सुप्ारीमों को फेंकना पड़ा। कुछ मामलो में दिल्ली की सीएम काफी होशियार और स्मार्ट है। कामन वेल्थ गेम करप्शन में शुंगलू जांच समिति द्वारा सीएम को आरोपित किेए जाने के बाद भी पीएम, एफएम, एचएम और पार्टी चेयरपर्सन को रामकहानी सुनाकर दोबारा साफ निकल गई। यानी इस बार मुख्यमंत्री बनने के लिए उतावला हो रहे एक केंद्रीय मंत्री को फिर और हर बार की तरह इस बार भी मुंह खानी पड़ी। और तमाम करप्शन के आरोपों के बाद भी 13 सालों से शीला दिल्ली की महारानी बनी हुई है।

फिर मंदी की आहट या ...साजिश

दो साल पहले ग्लोबल मंदी से पूरा संसार अभी तक ठीक से उबर भी नहीं पाया था कि एक बार फिर मंदी की आहट या साजिश तेज हो गई है। और इस बार मंदी की स्क्रिप्ट क्रेडिट रेटिंग एजेंसी मूडीज लिख रही है। चार दिन पहले ही भारतीय स्टेट बैंक आफ इंडिया की रेटिंग में गिरावट करके बैक समेत इसके लाखो निवेशकों को एक ही झटके में अरबों रूपए की चपत लगा दी। भारतीय बाजार अभी इससे उबर भी नहीं पाया था कि मूडीज ने ब्रिटेन के करीब दर्जन भर बैंकों की रेटिंग को गिराकर पूरे यूरोप में हंगामा मचा दिया है। अमरीका के दर्जन भर बैंक पहले से ही दीवालियेपन की कगार पर खड़े है। एशिया और अन्य देशों केसैकड़ों बैंको की पतली हालात किसी से छिपी नहीं है। यानी मूडीज ने रेटिंग कार्ड से पूरे ग्लोबल को हिला दिया है। मंदी की आशंका को तेज कर दिया है। यानी कारोबारियों की फिर से पौ बारह और कर्मचारियों की फिर से नौकरी संकट से दो चार होना होगा। अपना भारत भी मूडीज के मूड से आशंकित है, क्योंकि गरीबों का जीवन और कठिनतम (सरल कब था) हो जाएगा।



बेआबरू होकर मैडम के घर से......


ईमानदारी के लंबे चौड़े कसीदों के साथ देश के पीएम (बने नहीं) बनाए गए मन साहब को भी यह उम्मीद नहीं थी कि उनका साढ़े सात साला शासन काल इतना स्मार्ट और शानदार रहेगा। पूरा देश पानी पानी मांग रहा है और पार्टी को रोजाना अपनी नानी की याद (कम सता ज्यादा) रही है, विश्वस्तरीय अर्थशास्त्री होने की कलई इस तरह खुली की गरीबों के साथ रहने वाली पंजा पार्टी की लंगोटी ही खुल गई। पूरे देश को यह समझ में नहीं आ रहा है कि मन्नू साहब देश के पीएम हैं या चोरों की बारात के दुल्हा? लोगों ने तो मन्नू सरदार को 40 चोरों के सरदार अलीबाबा भी कहना चालू कर दिया है। मन्नू सरदार के बेअसरदार(?) होने के बाद भी सत्ता में सुरक्षित रखने पर देश वासियों को गुस्सा अब कांग्रेस सुप्रीमों पर आ रहा है कि एक विदेशी महिला देश को चलाना चाह रही है या रसातल में ले जा रही है ? बहरहाल पूरे देश के साथ पंजा पार्टी में भी 23 साल के बाद गांधी खानदान के चिराग राज के लिए लालयित है। जिसके लिए स्टेज को सजाने और संवारने का पूरा जिम्मा बंगाली बाबू प्रणव दा संभाल रहे है। राहुल के पक्ष में बयान देकर प्रणव दा ने मन्नू दा को दीपावली के बाद आगाह भी कर रहे है। सचमुच 1991 में दक्षिण दिल्ली से लोकसभा चुनाव लड़ने के लिेए अपने परम राईटर मित्र खुशवंत सिंह के सामने हाथ पसार कर दो लाख रूपए उधार लेने वाले अपने मनजी की माली हालात इन 20 सालों में अब पांच करोड़ की हो गई है। क्या आपको अब भी सरदार जी कि ईमानदारी पर कोई शक सुबह है क्या ?

और इस बार दीदी भी थामेंगी कमान

और इस बार पूरी राजनीति और रणनीति के साथ देश की खानदानी सत्ता में भैय्या और दीदी को लाने, जमाने और दुनियां को दिखाने की हिट फिल्म की कहानी अमर अकबर अहमद एंथोंनी समेत ओम जय जगदीश और जॅान जॅानी जर्नादन द्वारा लिखी जा रही है। राहुल बाबा के मददगार के रूप में पूरी संभावना है कि वाचाल तेज सतर्क और हवा के रूख को भांपने और खानदानी शहादत के नाम पर देश वासियों को मोहित कम (मूर्ख बनाने में) माहिर प्रियंका वाड्रा गांधी को भी मैदान में उतारा जाएगा. बतौर डिप्टी पीएम (जिसे उप प्रधानमंत्री भी कहा जाता है) के रूप में। यानी सता पर भले ही भैय्या का साम्राज्य दिखे मगर बहुत सारे फैसलों पर दीदी का भी कंट्रोल बना रहे। वे अपने भाई को जरा तेज स्मार्ट और चालू भी बनाएंगी, ताकि निकटस्थ लोग राहुल बाबा को पिता राजीव गांधी की तरह नया और बमभोला के रूप में ना देखे, माने और कहें। पार्टी की दुर्गा माता के रूप में सुशोभित सोनिया जी भी अपनी सेहत का हवाला देकर अपने संतानों को मैच्योर करके पार्टी की मुखिया का दायित्व अपनी बेटी को देकर सत्ता से दूर रहकर भी मास्टर माइंट या पावक कंट्रोलर बनकर अपने संतानों की कार्यकुशलता को निरखती परखती रहेंगी। हालांकि देश के इमोशन को अपने हाथ में लेने के लिए, यदि 2014 में लोकसभा चुनाव हुए तो उससे कुछ पहले वरूण गांधी को भी अपनी टोली में भी लाया जा सकता हैं। यानी राहुल को लेकर देश भर में इस हवा को शांत करने के लिए कि यदि राहुल पीएम अभी नहीं बने तो फिर कभी नहीं की आशंका को खत्म किया जा सके। और बाकी बचे ढाई साल में इन भाई बहनों की धुआंधार देश व्यापी दौरों से देश के मिजाज पर अन्ना समेत हाथी कमल के असर को कमजोर करके काबू में किया जा सके।



फिर टला किराया बढ़ाने का मामला

यूपी इलेक्शन है सामने यानी यूपीए सरकार में रेलवे को किराया ना बढने का ग्रहण लग गया है। 2004 में बिहार के पुरोधा लालू प्रसाद यादव ने रेल मंत्री बनते ही नाना प्रकारेण किराया नहीं बढ़ाया, फिर भी रेल को पटरी पर रखा। लालू के बाद तुनकमिजाजी ममता दीदी रेल मंत्री बनी और लालू के पदचिन्हों पर चलती हुई किराया नहीं बढ़ाया, मगर लालू जैसा जंतर मंतर नहीं कर सकी। लिहाजा रेलवे को पटरी से उतार कर बंगाल की गद्दी पर जा बैठी। दीदी की दया से त्रिवेदी जी रेल मंत्री बनकर फंस गए है। सारा खजाना खाली है। कर्जो के बोझ से रेल पटरी समेत रेल रसातल में जा रही है। वे सीधे 25 फीसदी किराया बढ़ाने की सिफारिश कर रहे है, मगर भला हो जनता कि ज्यादातर नेता समेत मनू सरकार अपने ही जाल में फंसी है। संकट की इस घड़ी में रेलवे की कौन सुने। कौन किराया बढ़ाने का जोखिम उठाए। विपक्षी हमलों से वैसे भी मनजी की पतलून ढीली होती जा रही है। कैंसर से निजात होकर भारत लौटी मैडम की पूरी पार्टी ही आज कैंसरग्रस्त दिख रही है। लिहाजा थोडे दिन और मजा ले लिया जाए। वैसे भी रेल और परिवहन बसों के किराये में ढाई गुना अंतर आ जाने के बाद रेल पर यात्रियों और मंत्रालय पर घाटे का बोझ उम्मीदग से कई गुना अधिक बढ़ गया है। यानी रेल को बिहार होने से बचाने के ले चुनावी गणित से उपर उठकर सोचना ही होगा। तभी देश की जीवनरेखा यानी करीब टितटरोजाना तीन करोड़ और बगैर टिकट मिलाकर करीब पांच करोड़ लोगों को ढोने वाली भारतीय रेल की हवा निकलने में कोई खास समय नहीं सगने वाला है।


केवल बोलने वाला किंग

इस समाज में ज्यादा बोलना हमेशा नुकसानदेह साबित होता आया है। मामला चाहे बाबा रामदेव का हो या राम जेठमलानी की ज्यादा बोलने की वजह से इनकी साख गिरी है। जनलोकपाल पर अनशन करके रातो रात स्टार बन गए अन्ना हजारे भी एकाएक हर मामले में इतना बोलने लग गए हैं कि .....। यही हाल है बालीवुड के स्टार और खुद को (अपने मियां मिठ्ठू) आई एम द बेस्ट कहने वाले किंग खान यानी शाहरूख खान का। वजह बेवजह हमेशा ही बोलते रहने वाले ?...खान भी कुछ ना कुछ बोलकर मजा लेते और देते रहते है। अपने प्यार और सेक्स संबंधों पर बोलते बोलते राजा साब बंगालन बाला विपाशा की रंगरलियों वाले बीएफ पर सबको ज्ञानदान देकर सरेआम बसु को बेबस कर दिया। अब नया धमाका राजा साब ने किया है कि इनका मन महिलाओं के लिए लेडिज टायलेट बनवाने की है। इस पावन पुनीत कार्य के लिए वे इतना धन कमाना चाहते है कि राजा को दूसरों के सामने कभी हाथ ना फैलाना पड़े। किंग का दिल भी किंग जैसा होना चाहिए खान साब। यही बात मुबंई मे या कहीं भी तीन चार लाख लगाकर या सुलभ इंटरनेशनल के सूत्रधार बिंदेश्वर पाठक से कहकर एक लेडिज टायलेट बनवाकर उसके उदघाटन के समय यही बात बोलते तो सबको भला लगता। मगर हवा में बात करने से सिवाय मजाक (जग हंसाई) के कुछ भी हासिल नहीं होता खान साब । महिलाओं के लिेए कुछ करके दिखाइए खान साब। अल्ला ताल्ला ने आपको पहले ही बहुत कुछ दे रखा है या दिया है।








शहीद-ए-आज़म भगत सिंह की एक दुर्लभ तस्वीर
शहीद-ए-आज़म भगत सिंह के बलिदान को शायद ही कोई भुला सकता है। आज भी देश का बच्चा-बच्चा उनका नाम इज्जत और फख्र के साथ लेता है, लेकिन दिल्ली सरकार उन के खिलाफ गवाही देने वाले एक भारतीय को मरणोपरांत ऐसा सम्मान देने की तैयारी में है जिससे उसे सदियों नहीं भुलाया जा सकेगा। यह शख्स कोई और नहीं, बल्कि औरतों के विषय में भौंडा लेखन कर शोहरत हासिल करने वाले लेखक खुशवंत सिंह का पिता ‘सर’ शोभा सिंह है और दिल्ली सरकार विंडसर प्लेस का नाम उसके नाम पर करने का प्रस्ताव ला रही है।

भगत सिंह का घर
भारत की आजादी के इतिहास को जिन अमर शहीदों के रक्त से लिखा गया है, जिन शूरवीरों के बलिदान ने भारतीय जन-मानस को सर्वाधिक उद्वेलित किया है, जिन्होंने अपनी रणनीति से साम्राज्यवादियों को लोहे के चने चबवाए हैं, जिन्होंने परतन्त्रता की बेड़ियों को छिन्न-भिन्न कर स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त किया है तथा जिन पर जन्मभूमि को गर्व है, उनमें से एक थे — भगत सिंह।
यहां तक कि जवाहरलाल नेहरू ने भी अपनी आत्मकथा में यह वर्णन किया है– भगत सिंह एक प्रतीक बन गया। सैण्डर्स के कत्ल का कार्य तो भुला दिया गया लेकिन चिह्न शेष बना रहा और कुछ ही माह में पंजाब का प्रत्येक गांव और नगर तथा बहुत कुछ उत्तरी भारत उसके नाम से गूंज उठा। उसके बारे में बहुत से गीतों की रचना हुई और इस प्रकार उसे जो लोकप्रियता प्राप्त हुई वह आश्चर्यचकित कर देने वाली थी।
जब दिल्ली में भगत सिंह पर अंग्रेजों की अदालत में मुकद्दमा चला तो भगत सिंह के खिलाफ गवाही देने को कोई तैयार नहीं हो रहा था। बड़ी मुश्किल से अंग्रेजों ने दो लोगों को गवाह बनने पर राजी कर लिया। इनमें से एक था शादी लाल और दूसरा था शोभा सिंह। मुकद्दमे में भगत सिंह को उनके दो साथियों समेत फांसी की सजा मिली।
'सर' शादी लाल
इधर दोनों को वतन से की गई इस गद्दारी का इनाम भी मिला। दोनों को न सिर्फ सर की उपाधि दी गई बल्कि और भी कई दूसरे फायदे मिले। शोभा सिंह को दिल्ली में बेशुमार दौलत और करोड़ों के सरकारी निर्माण कार्यों के ठेके मिले जबकि शादी लाल को बागपत के नजदीक अपार संपत्ति मिली। आज भी श्यामली में शादी लाल के वंशजों के पास चीनी मिल और शराब कारखाना है। यह अलग बात है कि शादी लाल को गांव वालों का ऐसा तिरस्कार झेलना पड़ा कि उसके मरने पर किसी भी दुकानदार ने अपनी दुकान से कफन का कपड़ा भी नहीं दिया। शादी लाल के लड़के उसका कफ़न दिल्ली से खरीद कर लाए तब जाकर उसका अंतिम संस्कार हो पाया था।
शोभा सिंह अपने साथी के मुकाबले खुशनसीब रहा। उसे और उसके पिता सुजान सिंह (जिसके नाम पर सुजान सिंह पार्क है) को राजधानी दिल्ली में हजारों एकड़ जमीन मिली और खूब पैसा भी। उसके बेटे खुशवंत सिंह ने शौकिया तौर पर पत्रकारिता शुरु कर दी और बड़ी-बड़ी हस्तियों से संबंध बनाना शुरु कर दिया। सर सोभा सिंह के नाम से एक चैरिटबल ट्रस्ट भी बन गया जो अस्पतालों और दूसरी जगहों पर धर्मशालाएं आदि बनवाता तथा मैनेज करता है। आज दिल्ली के कनॉट प्लेस के पास बाराखंबा रोड पर जिस स्कूल को मॉडर्न स्कूल कहते हैं वह शोभा सिंह की जमीन पर ही है और उसे सर शोभा सिंह स्कूल के नाम से जाना जाता था। खुशवंत सिंह ने अपने संपर्कों का इस्तेमाल कर अपने पिता को एक देश भक्त और दूरद्रष्टा निर्माता साबित करने का भरसक कोशिश की।
खुशवंत सिंह की हवेली

मॉडर्न स्कूल खुशवंत सिंह

'सर' सोभा सिंह
खुशवंत सिंह ने खुद को इतिहासकार भी साबित करने की कोशिश की और कई घटनाओं की अपने ढंग से व्याख्या भी की। खुशवंत सिंह ने भी माना है कि उसका पिता शोभा सिंह 8 अप्रैल 1929 को उस वक्त सेंट्रल असेंबली मे मौजूद था जहां भगत सिंह और उनके साथियों ने धुएं वाला बम फेका था। बकौल खुशवंत सिह, बाद में शोभा सिंह ने यह गवाही तो दी, लेकिन इसके कारण भगत सिंह को फांसी नहीं हुई। शोभा सिंह 1978 तक जिंदा रहा और दिल्ली की हर छोटे बड़े आयोजन में बाकायदा आमंत्रित अतिथि की हैसियत से जाता था। हालांकि उसे कई जगह अपमानित भी होना पड़ा लेकिन उसने या उसके परिवार ने कभी इसकी फिक्र नहीं की। खुशवंत सिंह का ट्रस्ट हर साल सर शोभा सिंह मेमोरियल लेक्चर भी आयोजित करवाता है जिसमे बड़े-बड़े नेता और लेखक अपने विचार रखने आते हैं, बिना शोभा सिंह की असलियत जाने (य़ा फिर जानबूझ कर अनजान बने) उसकी तस्वीर पर फूल माला चढ़ा आते हैं।

मेल टुडे में छपा कार्टून
अब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और खुशवंत सिंह की नज़दीकियों का ही असर कहा जाए कि दोनों एक दूसरे की तारीफ में जुटे हैं। प्रधानमंत्री ने बाकायदा पत्र लिख कर दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित से अनुरोध किया है कि कनॉट प्लेस के पास जनपथ पर बने विंडसर प्लेस का नाम सर शोभा सिंह के नाम पर कर दिया जाए।




जल्द
















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